"मुझे बड़े खेद के साथ यह बताना पड़ता है कि हिंदी के बड़े-बड़े प्रोफसरों द्वारा प्रेषित वैवाहिक निमंत्रण पत्रों में भी मैंने मंगलायतन (म...
"मुझे बड़े खेद के साथ यह बताना पड़ता है कि हिंदी के बड़े-बड़े प्रोफसरों द्वारा प्रेषित वैवाहिक निमंत्रण पत्रों में भी मैंने मंगलायतन (मंगल़आयतन) हरि को ‘मंगलाय तनो' हरि के रूप में पाया है। ......... "
नये पुराने
(अनियतकालीन, अव्यवसायिक, काव्य संचयन)
मार्च, 2011
बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता
पर आधारित अंक
कार्यकारी संपादक
अवनीश सिंह चौहान
संपादक
दिनेश सिंह
संपादकीय संपर्क
ग्राम व पोस्ट- चन्दपुरा (निहाल सिंह)
जनपद- इटावा (उ.प्र.)- 206127
ई-मेल ः abnishsinghchauhan@gmail.com
सहयोग
ब्रह्मदत्त मिश्र, कौशलेन्द्र,
आनन्द कुमार ‘गौरव', योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम'
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बक़लम ख़ुद
अक्षरों के शान्त नीरव द्वीप पर
बुद्धिनाथ मिश्र
कहते हैं, कविता स्वयं एक वक्तव्य होती है, इसलिए कवि का अलग से वक्तव्य देना उसकी अक्षमता है। जो बोले, कविता खुद बोले। यही मानकर मैंने अपने पहले गीत संग्रह ‘जाल फेंक रे मछेरे' में उसके प्रकाशक, अग्रज शंकर दयाल सिंहजी के आग्रह के बावजूद, न तो अपनी ओर से कोई वक्तव्य लिखा और न ही किसी विराट पुरुष को उसकी भूमिका लिखने का कष्ट दिया। क्योंकि ऐसा करना मुझे कमजोर केस की पैरवी से जिताने की कोशिश जैसा लगता है, जो मुझे स्वीकार्य नहीं है। मानता हूँ कि यह साहित्यिक दौर पप्रासन मारकर कटहल छीलने का है, यानी रचना-कर्म कैसा भी हो, उसकी पैकेजिंग प्रभावशाली हो, सामग्री जैसी भी हो, उसका विज्ञापन चमकदार हो। साहित्य जगत में भी अतिशय प्रचारवाद का युग आ गया है, जिसमें बड़े-बड़े विज्ञापन हैं, चमकते साइनबोर्ड हैं, आँखों की चौंधियाते ब्रैंडनेम हैं, मगर नहीं है तो वह कालजयी कृति जिसे शोकेस में नहीं, कुटीरों में जीने का अभ्यास है। वाचिक परम्परा अत्यन्त समृद्ध होते हुए भी, आजादी से पहले काव्य संग्रहों के समर्पित पाठक थे, कविता का रस लेने का गुर सिखाने वाले अध्यवसायी शिक्षक थे, कविता को समाज में कलात्मक ढंग से परोसने वाले पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादक थे और ठेले पर किताब बेचनेवाले हठयोगी प्रकाशक थे। आजादी के बाद उनकी वंश-परम्परा बढ़ने की आशा थी, मगर हुआ इसके ठीक विपरीत। वे सभी न जाने कहाँ विलुप्त हो गये! ते हि नो दिवसाः गताः।
आधुनिकता की लहर और कृत्रिम विकास ने (प्रकृति संहारक विकास) भारतीय समाज की ऋजुता छीनकर उसे जटिल जीवन जीने और उससे उकता कर आत्महत्या करने के लिए बाध्य कर दिया है। साहित्य-संगीत और कला की त्रिवेणी जो उसे आंतरिक शक्ति, आत्मविश्वास और जीवंतता देती थी, उदारीकरण, बाजारवाद और भूमंडलीकरण के इस प्रथम चरण में ही सूख गयी है। चारों ओर त्राहि-त्राहि मची हुई है। और यदि शिक्षा और भौतिक विकास के साथ-साथ समाज में भ्रष्टाचार और अपराध भी बढ़ रहे हैं, तो इसका एक महत्वपूर्ण कारण उदारीकरण के जबर्दस्त दबाव में भारतीय समाज का अपनी धरती के भाषा-साहित्य से, अपनी लोक सम्पदा से, अपनी सांस्कृतिक विरासत से कट जाना है। चीनी कहावत याद आती है कि यदि छात्र हत्यारा बन जाता है, तो उसके शिक्षक को मार डालो। भारतीय परिवेश में किसको मारें, शिक्षक को या अभिभावक को या मीडिया को, यह समझ में नहीं आता, क्योंकि तीनों बाजारवाद के महाजाल में फँसे छटपटा रहे हैं। जो जितना बाजार के अनुकूल है, वह उतना ही सुखी है।
उदारीकरण (या उधारीकरण?) एक ऐसा सूनामी लहर है, जिसका कहर वे सभी विकासशील देश सदियों झेलने के लिए बाध्य होंगे, जो रोटी, कपड़ा, मकान की बुनियादी आवश्यकताओं की उपेक्षा कर केबुल-कार-कम्प्यूटर के पीछे भागेंगे। यह उन्हें राष्ट्रीय विरासतों को तिरस्कृत करना सिखाएगा, सार्वजनिक उपक्रमों के ऐरावतों को भेड़ के दाम निजी हाथों में बेचकर अन्ततः बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हथिसाल में पहुँचाने के लिए बाध्य करेगा, सदियों से विकसित ग्रामीण शिल्पों और उद्यमों को तहस-नहस कर मेरुदंड तोड़ देगा, किसानों को बँधुवा मजदूर बनाकर खेतों की सारी फसल लूट ले जाएगा, और जनतांत्रिक व्यवस्था के शक्तिमान ‘नागरिक' को असहाय ‘उपभोक्ता' के रूप में तब्दील कर देगा। वैश्वीकरण की पानी की ऊँची-ऊँची दीवारों के नीचे हमारा घर, हमारा परिवार, हमारी वेशभूषा, हमारा वेद-पुराण, हमारी संस्कृति, हमारी भाषा, हमारी कला, हमारा आचार-विचार, सब दबते चले जा रहे हैं। हमारी बहनें और बेटियाँ सत्यं शिवं सुन्दरम् की परिधि से मुक्त होकर ब्यूटी क्वीन के लालच में सब कुछ लुटा देने के लिए आतुर हैं। बाजारवाद की भाषा अंग्रेजी में घास-फूस लिखने वाले भारतीय लेखक-लेखिकाओं पर डालर बरसाकर भारतीय भाषाओं में लिखी जा रही कालजयी रचनाओं को अपमानित किया जा रहा है। टी.वी. चैनलों के माध्यम से हमारी चेतना पर दिन-रात चोटें की जा रही हैं। पश्चिम की अपसंस्कृति की दुर्गंध ढोती अंग्रेजी की हवा हमारे देश की नई पीढ़ी में एक नये किस्म की अंग्रेजियत विकसित कर रही है, जिससे उसे हर देसी चीज में बदबू और हर आयातित चीज में खुशबू मिलने लगी हैं। विश्व-बाजार की प्रतियोगिता में खरे उतरने के लिए कदम-कदम पर बारूदी सुरंगें बिछायी जा रही हैं, जो कम से कम लोगों को विजयी बनने देगी और अधिक से अधिक लोगों को परास्त, हताश और क्षुब्ध। यह क्षोभ लोगों को राष्ट्रव्यापी अशांति पैदा करने के लिए उकसाएगा या फिर, कुछ सौ वर्ष पहले के इतिहास की तरह, हर अपरिचित अश्वारोही के सामने घुटने टेक देने के लिए बाध्य करेगा। पारस्परिक वैमनस्य के विष ने हमें पहले भी धूल चटाया है, आगे भी धूल चटायेगा, इसके पूरे लक्षण दीख रहे हैं। इन विषम परिस्थितियों में भी अगर मैं अपनी मातृभाषा मैथिली के बजाय, हिन्दी में सृजनशील हूँ, तो सिर्फ यह देखकर कि अकेली यह भारतीय भाषा विश्व बाजार में अंग्रेजी को टकड्ढर दे रही है। मानता हूँ कि मुक्तबाजार के शोरगुल में हम जैसे हाशिये पर खड़े साहित्यकारों की आवाज कोई सुननेवाला नहीं है, फिर भी हर चेतना के दरवाजे पर दस्तक देना हमारी प्रतिबद्धता है। टिटिहरी की तरह सत्ता की किसी डाल पर न बैठकर भी हम चि८ाकर आने वाले इन खतरों की ओर संकेत तो कर ही सकते हैं, क्योंकि भारत केवल एक देश नहीं, दुनिया की उत्कृष्तम प्रज्ञा का चिरसंचित पिटक भी है!
जिस दौर में नयी कविता के कवियशःप्रार्थी, साधन-सम्पन्न सेठ या साहब लोग हर साल दो-चार संग्रह छपवाकर निर्धन हिन्दी जगत में अपाहिज किताबों की आबादी बढ़ा रहे हों, उस दौर में किसी सक्रिय और निषवान गीतकार का एक संग्रह से दूसरे संग्रह तक जाने में दो दशक लगा देना श्लाघ्य नहीं माना जा सकता, मगर अच्छी रचनाएँ ज्यादा लिखी भी तो नहीं जा सकती। मेरी भरसक कोशिश यही रही कि कम से कम लिखा जाय। ज्यादा लिखने से गुणवत्ता घटती है। वही लिखा, जिसे लिखना अपरिहार्य हो गया। वही लिखा, जिसमें प्राणवत्ता दिखी, शाश्वत और सार्वभौम तत्व दिखे। मरी हुई सीपियों को बटोरने में शक्ति-क्षय करना कभी रुचा नहीं। इसलिए जो भी गीत लिखे, वे आंतरिक समीक्षा के सुदीर्घ अम्ल-परीक्षण के बाद ही सामने आये। नयी कविता लिखने और गीत रचने में बहुत अंतर है। एक उत्पादन जैसा है, दूसरा फसल जैसा। उत्पादन की गति आवश्यकता के अनुसार घटायी-बढ़ायी जा सकती है, मगर फसल पकने में अपना निर्धारित समय लेती है। गुणवत्ता की दृष्टि से भी एक निर्माण प्रक्रिया का पहला छोर है तो दूसरा अंतिम छोर।
गीत काव्याभिव्यक्ति का चरम उत्कर्ष है। यह शौक से नहीं लिखा जा सकता। नैसर्गिक प्रतिभा, व्यापक अध्ययन, गहन अनुभूति और दीर्घकालिक व्यवधान-रहित साधना से रचनाकार उस अवस्था में पहुँचता है जब शब्द एक विराट चेतना-चक्र से निकलकर अवतरित होते हैं। छंद के साँचे में ढले हुए, परस्पर सम्पृक्त और चिरंतन शक्ति वाले शब्द। गीत इन्हीं शब्दों से बनते हैं। अल्पकाय होने के कारण ये बिम्बों और प्रतीकों में बात करते हैं। महाकाव्यों की तरह विस्तृत विवरण देने के लिए अब किसी के पास समय नहीं है। छोटे-छोटे साँचे हैं, जिनमें शब्दों को दही की तरह जमाना होता है। प्रत्येक की नाभि में एक सघन भाव होता है, जो प्रथम पंक्ति से अंतिम पंक्ति तक कायम रहता है। गीत और नवगीत में उतना ही अंतर है जितना आम के पुराने पत्ते और पल्लव में। पुराने पत्ते चिर विकास के परिचायक हैं, जबकि पल्लव नवत्व के। एक का रंग हरा है, दूसरे का ताँबई। मैंने कभी संकल्पबद्ध होकर गीत या नवगीत नहीं लिखा। जो लिखा, वह प्राकृतिक प्रक्रिया के तहत। छाँटने का काम बाद में दूसरों ने किया। इसलिए ये गीत टकसाली नहीं हैं। परिवेश और पात्र के अनुसार इनके शब्द, कथ्य और स्वर भी बदले हैं। इसलिए, इस संग्रह के सभी गीत अपनी-अपनी अलग पहचान रखते है। संभव है, इस संग्रह के कुछ गीत आपको न रुचें, कुछ स्तरीय भी न लगें, मगर उन गीतों में भी कोई वर्ग अभिव्यक्त हुआ है, यह ध्यान रखना लोकतंत्र का तकाजा है। जैसे एक सशक्त कहानी अपने देशकाल का इतिवृत्त होती है, उसी प्रकार एक गीत भी अपने समय के जनमानस की अंतर्कथा होता है। यह भी इतिहास है, घटनाओं का नहीं, मनोभावों का।
वेद में भी कहा गया है कि जैसे कुशल गृहिणी जौ को कूट-फटककर शुद्ध करती है, उसी प्रकार कवि भावों-विचारों और शब्दों को सम्पादित-परिमार्जित करता है। मैंने चौदह वर्षों तक भारत सरकार के एक ताम्र उत्पादक उपक्रम में काम किया है। जब भी मैंने उसके निर्माण की प्रक्रिया को देखा, मुझे लगा कि कविता की रचना-प्रक्रिया उससे बहुत मिलती-जुलती हैं। तॉबे की खान से स्वर्ण अयस्क भी निकलते हैं, जिनमें दो-तीन प्रतिशत सोना होता है। सोने के उस पत्थर को कूट-पीसकर, विशेष रासायनिक प्रक्रिया द्वारा मक्खन की तरह सांद्र को बिलगाया जाता है। उस सांद्र (रज) को धमन भट्ठी में अत्यधिक ताप में पिघलाया जाता है। पिघली हुई तेजोमय धरा को सॉचों में प्रवाहित किया जाता है। साँचे में ढले धातु को पूर्णशुद्ध करने के लिए कुछ दिन तेजाब में भी रखा जाता है। कविता की रचना-प्रक्रिया भी इतनी ही लम्बी और चरणबद्ध है। जैसे खान से प्राप्त स्वर्ण अयस्क सोना नहीं होता, वैसे ही कविता करते समय हमारे मन में आया हर भाव या विचार काव्य नहीं है, बल्कि कविता का अयस्क है। कविता करते समय मन में आये भावों और विचारों को बड़े धैर्य से सम्पादित करना होता है। सम्पादन के दबाव से रचना-प्रक्रिया की गति तीव्र होती है। अध्ययन, अनुभव और संस्कार से प्रोद्भूत शब्द हवामिठाई की तरह शून्य से आकार ग्रहण करते हैं। धमन भट्ठी से निकली तेजोमयी धरा की तरह शब्द स्वतः छंद के साँचे में ढलकर बाहर निकलते हैं। शब्द अपनी सुविधा से वाक्य और छन्द के साँचे का चयन करते हैं। इसमें कवि को भूमिका माध्यम मात्र की होती है- निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्। वह न तो शब्द चुनता है, न छन्द। वह केवल सामग्री जुटाता है, शब्दों की, विचारों की और भावों की, मधुकर की भाँति।
छंद में ढलने के बाद भी कविता को अपनी प्राणवत्ता सिद्ध करने के लिए लम्बे अरसे तक वक्त के तेजाब से गुजरना होता है। कोई जरूरी नहीं कि जिस काव्य के जन्म के समय सारे नगर में बधैया बजे, वह एकाध दशक बाद भी जीवित रहे। इसके विपरीत माँ की कोख से ऐसी भी कविता उत्पन्न होती है, जिसकी क्षीण काया को देखकर चिन्तातुर माँ टोटम के तौर पर ‘मरनी' नाम रख देती है और समय का फेर यह कि वह ‘मरनी' कविता ही बाद में काल के वक्ष पर विजय-पताका फहरा देती है। वक्त का तेजाब दोषयुक्त को खा जाता है और दोषमुक्त को कालजयी बना देता है। इस दृष्टि से आज के काव्य संग्रहों को जब देखता हूँ तो या तो बाजार में सोने के भाव में बिक रहे स्वर्ण अयस्क दिखाई देते हैं या वनौषधियों की धूप छेंक रही लैंटाना की झाड़ियाँ। शानदार लेबल कुछ देर तक लोगों को भ्रमित कर सकते हैं, मगर सतोगुण अपनी तेज, अपनी सुगंध से पहचान बनाता है। इसीलिए हजारों वर्षों की हमारी ऋषि-परम्परा पूषन् से सत्य का आवरण हटाने का आग्रह करती हैः हिरण्मयेन पात्रोण सत्यस्य पिहितं मुखम्। तत्त्वं पूषन् अपावृणु।
गीत एक वनौषधि है, जिसके हक की सारी धूप मुक्तछन्द कविता की लैंटाना झाड़ियाँ ले जा रही हैं। कविता का मूल्यांकन उसके निर्माता के माहात्म्य के अनुसार होने लगा है। पाठक मुक्तछन्द कविता की पुस्तकें पढ़ना नहीं चाहते और प्रोफेसरों और साहबों के उपकार के भार से दबे कृतज्ञ प्रकाशक उनकी कविता पुस्तकों को बकरी की तरह बियाते जा रहे हैं। केवल हिन्दी जगत में ही नहीं, पूरे भारतीय वार्घैंमय में यह विडम्बना साफ नजर आ रही है कि पाठकों को अपना प्रिय काव्य संग्रह नहीं उपलब्ध होता और प्रकाशकों द्वारा थोपे गये संग्रहों को पाठक नहीं मिलता। अस्सी करोड़ लोगों के विराट हिन्दीभाषी समाज के लिए एक लज्जाजनक सत्य यह भी है कि इसकी साहित्यिक पुस्तकों की प्रतियाँ सैकड़ों में छपती हैं और (यदि सरकारी पुस्तकालयों के काँजीहाउस में येन केन प्रकारेण न धकेली जाएँ तो) सदियों में बिकती है। इस गंभीर संकट से मुक्ति कैसे मिलेगी? बाजारवाद के इस दौर में बिना विज्ञापन, बिना पारिश्रमिक और बिना आक्रामक विपणन के हिन्दी रचनाधर्मिता कैसे जीवित रहेगी?
मेरा दृढ़ विश्वास है कि कविता तभी चिरस्थायी हो सकती है, जब वह छंदोबद्ध हो। हमारी साँसें एक निश्चित लय-ताल से चलती हैं। जब सूर्य-चंद्र-पृथ्वी-ग्रह-नक्षत्र एक गणित (जिसे वेदों ने चित्-शक्ति नाम दिया है) के आधार पर चलते हैं, तब हमारी आत्मा से उपजी कविता कैसे ‘अनर्गल' हो सकती है। नये काव्य समीक्षकों को अपनी आँखों पर से पट्टी हटाकर यह गौर करना होगा कि जिसे वे नयी कविता नाम दे रहे हैं, कहीं वह फुटकर नाट्य संवाद तो नहीं, जिसे नया नाम ‘नाट्य मुक्तक' या ‘मुक्तक संवाद' या ‘संवादिका' दिया जा सकता है। लैंटाना की इस बेतरतीब उगी झाड़ी के साम्राज्य को नजरंदाज तो नही किया जा सकता, मगर नये ढंग से परिभाषित कर उसे सही नाम तो दिया जाना ही चाहिए। शैक्षणिक पाठ््यक्रमों और पत्र-पत्रिकाओं से लेकर आचार्यों की गोष्ठियों तक फैली इस झाड़ी ने नयी पीढ़ी को कविता से विरक्त कर दिया है। छात्र उस रस से वंचित हो गये है, जो वास्तविक कविता देती है। जिन्दगी भर खुद को और चेले-चपाटियों को छन्दमुक्ति का बाइस्कोप दिखानेवाले कविपुंगव जब नख-दंत टूटने के बाद छंद के लौटने की बात करते है, तब बरबस भदेसी गालियाँ जबान पर आ जाती हैं। भारतीय समाज के पोर-पोर में दूषित भ्रष्ट आचार-विचार की मार वीणा-पुस्तकधारिणी सरस्वती को भी झेलनी पड़ रही है, यह खेद और चिन्ता का विषय है।
कविता वाग्विलास नहीं हो सकती। वह एक अमृत धारा है, जो करुणा के हिमनद के पिघलने से प्रवाहित होती है और जिसका प्रतिपाद्य दुःखार्त, श्रमार्त, शोकार्त और तपस्वी व्यक्तियों को रस (आनंद) प्रदान करना, उसकी थकान हरना है। साहित्य का यह प्रयोजन भारतीय वार्घैंमय की आधारशिला है, जिसे भरत मुनि अपने ‘नाट्यशास्त्र' में बहुत पहले रेखांकित कर चुके हैं-
दुःखार्तानां श्रमार्तानां शोकार्तानां तपस्विनाम्।
विश्रांति-जननं काले नाट्यमेतद् भविष्यति॥
अपने समय में आदिकवि वाल्मीकि, महाभारत-कार व्यास या महाकवि कालिदास ने जो बातें कविता में कही थीं, वे आधुनिकतम थीं और कई युगों तक मानव-मन को संचारित-संस्कारित करनेवाली थीं। परवर्ती कवि जयदेव-विद्यापति-कबीर-सूर-तुलसी अपने-अपने समय में आधुनिक थे। इसलिए आधुनिकता को छंदोबद्ध नहीं किया जा सकता, ऐसा विचार अयोग्य और विकलांग मन का विचार है। छंद से मुक्ति कविता के रचना-कर्म को आसान तो बना देती है, मगर उसकी आयु भी छीन लेती है। जो कविता अपने रचनाकार को ही याद नहीं रह सकती, उसे दूसरे समकालीन या परवर्ती लोग याद रखेंगे, ऐसा सोचना आत्म-प्रवंचना ही है। मुक्तछन्द कविता के तमाम कवि इस आत्म-प्रवंचना के शिकार हुए है। वे जब गीतों के दिन लदने की बात करते है तो फुटपाथों पर टाट बिछाकर चंदन-टीका लगाकर भविष्यवाणी करने वाले ज्योतिषियों की तरह दयनीय लगते हैं। पिछले दौर की विडम्बना यह रही कि चक्रवात के सहारे ऊपर उड़े सूखे पत्ते डाल में लगे हरे पत्तों का मुँह चिढ़ाने लगे, उनमें हीनता-बोध भरने लगे, उन्हें मुक्त हो जाने के लिए उकसाने लगे। अनेक गीतकार इस दवाब में आकर गाते-गाते चिल्लाने भी लगे। उनकी भफुँझलाहट थी कि गीत में सारी बातें करने की क्षमता नहीं है। यह सही है, मगर सभी बातें कविता में कही भी नहीं जानी चाहिए। अभिव्यक्ति की अन्य विधाएँ भी तो हैं।
कविता के रंगीन धागे को समाज के वस्त्र में पिरोने के लिए संगीत सुई की भूमिका निभाता रहा है। काव्य को समाज से जोड़ने में संगीत की वही भूमिका रही है, जो शुद्ध सोने को अलंकार बनाने में खाद (ताँबे) की । जैसे चतुर सुनार सोने को आभूषण का आकर्षक रूप देता है, वैसे ही छन्दोबद्ध कविता को भी समाज का कण्ठहार बनने के लिए संगीत के सधे हाथों सँवरना पड़ता है। जयदेव-विद्यापति के पदों को राग-रागिनियों के साँचे में ढालने के लिए राजदरबार के संगीतज्ञों की सहायता ली गयी थी। कबीर- सूर-तुलसी आदि संत कवियों के पदों को भी संगीतज्ञ वैष्णव भत्तफों ने रागबद्ध कर अपने गायन से देश के कोने-कोने तक फैलाया था। आधुनिक काल में समाज और कविता के बीच की यह महत्तपूर्ण कड़ी टूट गयी है, जिसके कारण समाज तक कविता नहीं पहुँच पाती। वह डायरियों और किताबों के पन्नों में तब तक जीवित है, जब तक दीमक उन्हें चाट नहीं जाते।
मैं यह मानता हॅूँ कि पुस्तक के पृष्ठों पर स्थान दे देने से ही किसी गीत की सम्पूर्ण प्रस्तुति नहीं हो जाती। उसका सौंदर्य संगीत, नृत्य और चित्रकला यानी समस्त ललित कलाओं में आविर्भूत होकर ही सम्पूर्ण आकर्षण प्राप्त करता है। एक सदी पहले तक कविता भारतीय समाज की कलात्मक अभिव्यक्ति की प्रमुख माध्यम हुआ करती थी। एक केन्द्रीय विषय होता था, जिसको अभिव्यक्त करने में सभी ललित कलाएँ परस्पर सहयोग करती थीं। कविता, संगीत, नृत्य और चित्रकला की समन्वित चतुरंग अभिव्यक्ति समाज पर गर्म लोहे पर लुहार की चोट की तरह निर्णायक प्रभाव डालती थी। राधाकृष्ण का जो प्रेम ‘गीत गोविन्द' में अभिव्यक्त हुआ, वही ओडिसी नृत्य में, वही शास्त्रीय गायन में और वही पारंपरिक चित्रकला में भी अभिव्यक्त हुआ। मूर्तिभंजन के इस युग में कोई केन्द्रीय विषय नहीं रह गया हैं, जिसपर वे सभी विधाएँ पूर्व की तरह एकीकृत हों। सभी की दिशाएँ पृथक हो चुकी हैं। पारस्परिक सहयोग के अभाव में ये सभी विधाएँ समाज को आंदोलित करने का सामर्थ्य खो चुकी हैं। भारतीय साहित्य-संगीत-कला तीनों हाशिये पर आ चुके हैं। सामाजिक स्वीकृति की दृष्टि से इस समय संगीत और कला की तुलना में साहित्य अत्यंत उपेक्षित है। निस्संदेह, समाज और सत्ता की चेतनाहीनता ने साहित्य को आज सर्वाधिक उपेक्षित कोटि में ढकेल दिया है।
मुझे डर है कि यदि ये समवेत होकर अपने मूल प्रयोजन (रस की सृष्टि) को प्रतिपादित नहीं करेंगी, तो बाजारवाद की सर्वग्राही बाढ़ इन सारे कमल पुष्पों को समूल नष्ट कर देगी और भारतीय समाज कंप्यूटर की तरह किसी अदूरदर्शी और दंभी विज्ञान की उंगलियों के इशारों पर चलने के लिए पूर्णतः बाध्य हो जाएगा। समाज को उस दुर्दिन से बचाने के लिए शीर्षस्थ साहित्यकारों, संगीतज्ञों, नृत्य-प्रवीणों और चित्रकारों को अहंकार त्यागकर एक दूसरे के करीब आना चाहिए, आना ही पड़ेगा।
यह सही है कि संगीत विश्व की सार्वभौम भाषा है। उसका आनंद दुनिया का एक छोर से दूसरे छोर तक लोग बिना उसके बोल का अर्थ समझे उठा लेते हैं। इसीलिए विदेशों में भारतीय साहित्यकारों से अधिक भारतीय संगीतकारों की माँग है। कविता में संगीत की असीमता नहीं है। इसके बावजूद वह श्रेष्ठतर है, क्योंकि कविता नाद का वह विकसित रूप है, जिसमें अर्थ प्रस्फुटित होता है। काव्य में संगीत द्वारा प्रदत्त सामान्य आनंद के अलावा शब्दों के अर्थ का भी आनंद प्राप्त होता है। इसलिए विश्व में सम्यक् सौहार्द स्थापित करने में संगीत की अपेक्षा कविता ज्यादा कारगर भूमिका निभा सकती है।
गीत जीवन के लिए कितना आवश्यक है, इसका प्रथम परिचय मुझे आँखें खोलते ही मिल गया था। मिथिला के जिस देवध गाँव में मैंने जन्म लिया और जिसकी धूल मिट्टी में सनकर अपना बचपन बिताया, वहाँ व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक विद्यापति के पद ही साथ देते थे। चाहे वे नवजात शिशु के प्रारंभिक संस्कारों (मुंडन, जनेऊ, आदि) के क्षण हों, या कोहवर घर के घोर श्रृंगारिक क्षण या घोर दरिद्रता में किसी तरह कट रहे क्षण, विद्यापति के पद हर क्षण को पूरी तन्मयता से अभिव्यक्त करने के लिए सभी के होठों पर मौजूद थे। पद के अंत में आनेवाले भनिता ‘भनहि विद्यापति' को छोड़कर सम्पूर्ण गीत उस समाज का था, जो उसे सुख-दुख में साँझ-भोर गाता था। मेरे कानों में आज भी एक ओर हथिया नक्षत्र की मूसलाधार वर्षा में, अपने दुर्लभ पोथी-पतरों पर छाता रखकर, स्वयं पानी में भीगकर काँपते हुए अपने वृ( पुरोहित पिता के रोम-रोम से निकला ‘कखन हरब दुख मोर, हे भोलानाथ (हे शिव, कब तुम मेरा दुःख हरोगे?) गूँज रहा है तो दूसरी ओर आश्विन मास की तीखी धूप में हल जोतते हुए भदई का वह चिल्लाकर गाना याद आता है- ‘कुंज भवन सँय निकसलि रे, रोकल गिरधारी।' उन दिनों मुझे नहीं पता था कि कड़ी धूप में हल चलाते हुए भदई की राधा-कृष्ण के मिलन का वह श्रृंगार गीत कितनी तरावट देता है। बाद में जब जाना कि वे दोनों पद विद्यापति के थे, तभी मन में गाँठ बाँध ली कि आज की आपाधापी में जीवन को शब्दों का नर्म स्पर्श देकर उसे पुलकित करनेवाली कविता गीत ही है। कविता वह जो गायी जाए, जो कंठस्थ हो जाए। बाद में, जब संस्कृत पढ़ने के उद्देश्य से काशी या रेवतीपुर गाँव (गाजीपुर) में रहा, तो वहाँ भी तुलसी को उसी तरह जीवन के पोर-पोर में व्याप्त पाया। इसलिए, अंग्रेजी के ब्लैंक वर्स, हिन्दी की नयी कविता और संस्कृत के महाकाव्यों का व्यापक अध्ययन करने के बाद भी मैंने गीत को ही काव्य का शिखर माना।
मेरा वह 1950 से 1958 के बीच का देवध गाँव जो विदापत, नचारी, समदाओन, बटगवनी, फाग गाता था या 1962 से 1965 के बीच का वह रेवतीपुर गाँव जो विरहा, कजरी और बारहमासा गाता था, न जाने कहाँ चला गया। तब पूरे टोले का जागरण ब्रह्मवेला में बुजुर्गों के प्रभाती-गायन से होता था। जीवन की हर अनुभूति को व्यक्त करने के लिए गीत सेवक की तरह प्रस्तुत थे। दिन हो या रात, संध्या हो या प्रभात ग्रामीण जीवन का हर क्षण गीतमय संगीतमय था। सब कुछ सुर में था, इसलिए बड़ी से बड़ी विपत्ति भी आदमी को तोड़ नहीं पाती थी। गरीबी थी, मगर जीवन का रस इतना प्रबल था कि आर्थिक दरिद्रता को मानसिक सम्पन्नता बोलने नहीं देती थी। गुलामी के दिनों में गाँव मुक्त था। स्वतंत्रता के बाद गाँव के होठों की हँसी छिन गयी, वह शहरों का वेबस गुलाम बनकर रह गया। सिनेमा और टी.वी. के माध्यम से शहर ने उसके होठों के गीत छीन लिये, उसके सुख-दुख को व्यक्त करने का ठीका भी खुद ले लिया और उसे गूँगा-बहरा बना दिया।
किन्तु मेरे मन में बसा गाँव आज भी जिंदा है, इसलिए मैं गीत लिखता हूँ। उस गाँव ने मुझे कविता की व्यापक शक्ति से परिचय कराया था और सामान्य जनों की तरह ‘कवि' शब्द को उपहास का विषय मानते हुए भी मैंने एकलव्य की तरह कविता की गीत-शक्ति का एकांत संधान किया था। बाद में मुझे यह भी अनुभव हुआ कि साहित्य की सभी विधाएँ एक दूसरे को शक्ति देती हैं। अच्छा ललित निबंध पढ़कर अच्छा गीत लिखने की प्रेरणा मिलती है। अच्छा गीत सुनकर अच्छी कहानी की भाव-भूमि तैयार होती है। इसी फलक को और बड़ा करने पर रवि वर्मा के चित्र, विद्यापति के पद, केलुचरण महापात्र के नृत्य और कुमार गंर्धव के गायन एक दूसरे के पूरक हो जाते हैं। शब्द और स्वर की मैत्री टूट जाने से आज शब्द के पास अच्छे स्वर नहीं हैं और स्वर के पास अच्छे शब्द नहीं। आजादी के बाद हिन्दी में इतने अच्छे साहित्यिक गीत लिखे गये, मगर वे अपने युग के महान गायकों के अधरों की शोभा नहीं बढ़ा सके। बच्चनजी तरस कर रह गये- ‘तुम गा दो मेरा गान अमर हो जाए।' अपनी लोच के कारण ब्रजभाषा के पदों और छन्दों का शास्त्रीय गायन और शास्त्रीय नृत्य पर आज भी एकाधिपत्य है। खड़ी बोली की कविताएँ कभी शास्त्रीय नृत्य और गायन की बंदिशें नहीं बन सकीं। इस दिशा में एक प्रयास पदातिक, कलकत्ता ने ‘अर्धशती' (रचयिता मैं ही अभागा था!) में आधुनिक हिन्दी कविता और व्यंग्य को कथक नृत्य व शास्त्रीय राग-रागिनियों में पिरोकर किया था, मगर कोल्हू के बैल कला-समीक्षकों की तीव्र आलोचना के कारण कथक को राधाकृष्ण के घेरे से निकालकर समकालीन भावों-विचारों का माध्यम बनाने का वह सिलसिला आगे नहीं बढ़ पाया। राष्ट्रीय अकादमियाँ भाषाओं की भी हैं, साहित्य की भी और ललित कलाओं की भी। मगर सबकी अपनी ढपली, अपना राग है। नौकरी के मनोभाव ने उनके संचालकों की प्रतिभा और मिशनरी भावना को विनष्ट कर दिया है।
पूर्णतः अर्थ का दास बन चुके समाज में साहित्य लेखन फालतू काम माना जाता है और साहित्यकार वह खुला डांगर, जिसको हाँककर मु'रत में कोई, कहीं भी ले जा सकता है, उसका उपयोग कर सकता है। एक सामान्य लिपिक भी यदि एक दिन कार्यालय में अनुपस्थित हो, तो अगले दिन उससे कारण पूछा जाता है। मगर आनेवाले युग की अभिकल्पना करनेवाला साहित्यकार यदि वर्षों कुछ भी नहीं लिखे, तब भी कोई उससे न लिखने का कारण नहीं पूछता। समाज में सृजन-कर्म के प्रति यह उपेक्षा, यह उदासीनता घबराहट पैदा करती है। कोई लिखे भी तो क्यों? कितनी तपस्या के बाद कोई एक साहित्यिक गीत रचता है। चाहता है कि एक योग्य संतान की तरह वह उसका यश बढ़ाए, उसे चिरायुष्य दे (कीर्तिर्यस्य स जीवति), मगर एक बेरोजगार प्रतिभाशाली विप्रयुवक की भाँति वह गीत भी समुचित प्रचार-प्रसार के अभाव में डायरी के किसी पृष्ठ पर दफन हो जाता है। बहुत सौभाग्यशाली हुआ तो उसे किसी लघु पत्रिका के अल्पप्राण संपादक ने मु'रत में छाप दिया। पत्र-पत्रिकाओं के कोने में दबे पड़े गीत मकड़ी के जाले में निष्प्राण पड़े कीटों की तरह ही दीखते हैं। उन्हें देखकर मन में एक हूक-सी उठती है कि क्या इतने जतन से लिखे गये साहित्यिक गीतों की यही नियति है? क्या यहीं उनका पूर्णविराम लग जाना चाहिए? दूसरी ओर उन्हीं के सगे फिल्मी गीत हैं, जो पाँच मिनट में लिखे जाते हैं और संगीत से सुसज्जित होकर व रचनाकार को भरपूर पारिश्रमिक देकर जंगल की आग की तरह देश-विदेश में फैल जाते हैं। करोड़ों लोगों तक वे चुटकी बजाते ही पहुँच जाते हैं। इतनी व्यापक परिणति साहित्यिक गीतों को इलैक्ट्रानिक मीडिया के गंभीर सहयोग से ही मिल सकती है। यह तभी होगा, जब इलेक्ट्रानिक मीडिया के दिग्गज लोग आज समृद्ध होने के बजाय आनेवाले कल को समृद्ध करने की सोच अपने अंदर पैदा कर सकें।
गीत की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि यह बड़ी क्रांति या बड़े परिवर्तन के लिए उपयुक्त भावभूमि तैयार करता है। यह गुदगुदाकर पीड़ा से विमुख नहीं करता। बल्कि आंदोलित करता है आत्मा को, पीड़ा के उन्मूलन के लिए। एक छोटी-सी श्रेष्ठ गीत-रचना जितनी बार गुनगुनायी जाए, उतनी ही शक्ति मन में उत्पन्न करती है (मंत्र की शक्ति भी ऐसी ही होती होगी)। अणुशक्ति की भाँति ही यह शक्ति अगाध शांति भी देती है और विस्फोट की क्षमता भी। ‘वंदे मातरम्' जैसे गीत यह सिद्ध कर चुके हैं कि ठहरे हुए जल में तेज से तेज लहर पैदा करने की क्षमता गीत में ही है। बार-बार दुहराने से वे मन आंदोलित करते हैं, भाव संघनित करते हैं और अपने समय की विसंगतियों के विरुद्ध उठ खड़े होने की ऊर्जा देते हैं। ‘वंदे मातरम्' की सुललित शब्दावली में शमी लता की तरह आग पैदा करने की शक्ति है, जिससे लाखों चेतन युवक स्वतंत्रता संग्राम के दौरान आवेशित हुए। यथार्थ की विकृतियों का वर्णन करनेवाली प्रगतिशील कविताएं या काव्यमंचों पर पढ़ी जा रही हास्य-व्यंग्य की तथाकथित कविताएं विद्रूपता का उपहास कर आक्रोश को हवा में उड़ा देती हैं और भावावेश को घटा देती हैं, जिससे आंदोलन की जमीन टूटती है और गणशत्रुओं का जीना आसान होता है। इसलिए जीवन के यथार्थ को समीचीन दिशा देने के लिए गीत जितना उपयुक्त है, उतना हास्य-व्यंग्य नहीं, क्योंकि हास्य-व्यंग्य का मूल उद्देश्य यथार्थ की विकृतियों के प्रभाव को हलका करना, उससे पलायन करना है, उसको निर्मूल करना नहीं। किसी भी जनांदोलन को खड़ा करने के लिए सतही हास्य-व्यंग्य की रचनाओं के बजाय अच्छे मंत्रविद्ध गीतों की जरूरत पड़ती है।
नयी कविता के जिस दौर में लोग माँग के अनुसार कविता का उत्पादन कर रहे हैं, गीतकारों का जीवन भर में एक-दो संग्रह निकल पाना भी गीत के प्रभावशाली हस्तक्षेप में बाधक है। जो सुधी समीक्षक गीत का अनुशीलन करना चाहते हैं, उनके पास अच्छे गीतकारों के संग्रह उपलब्ध नहीं होते। साहित्यिक गीत लिखना जितना कठिन है, उससे अधिक कठिन है, अच्छी पत्र-पत्रिकाओं में उसे स्थान दिलाना, उससे भी अधिक कठिन है अच्छे प्रकाशन द्वारा उसका संग्रह प्रकाशित होना और उससें भी कठिन है इलेक्ट्रानिक मीडिया द्वारा उसकी सुरुचिपूर्ण प्रस्तुति। मैं यह मानता हूँ कि किसी भी गीत की संपूर्णता उसके छपने में नहीं है, बल्कि उसकी स्वरबद्ध प्रस्तुति में है। अक्षरों में समाया हुआ गीत तालाब में नहाते हुए आदमी की तरह आधा दिखता है। उसके पाठक को केवल अर्थ का सौन्दर्य मिलता है, जबकि उसके श्रोता को शब्द का सांगीतिक सौन्दर्य भी प्राप्त होता है। इसलिए गीत की समीक्षा केवल संकलन पढ़कर नहीं की जा सकती। यह एकांगी समीक्षा होगी। समीक्षा के तौर पर गीत के समग्र रूप को देखने-परखने की नयी परम्परा तब शुरू होगी, जब अच्छे संगीतज्ञ और गायक इसे स्वर देने की चुनौती को स्वांतः सुखाय स्वीकारें। गीत के छन्दों में वैविध्य है। प्रत्येक गीत अपना पृथक संगीत लेकर आता है। उसके इस वैशिष्ट्य को समझनेवाला संगीतज्ञ ही उसके साथ न्याय कर पाएगा। यह कठिनाई गजल के साथ नहीं है। (मैं गज़ल को गजल कहने के लिए उसी तरह अभ्यस्त हूँ, जैसे उर्दूदाँ ब्राह्मण को बिरहमन)। उसके छन्द-विधान का दायरा सीमित और सरल है। उसकी सांगीतिक प्रस्तुति की एक लम्बी परम्परा है। इतिहास ने गजल-गायन को तवायफों, कौवालों और शाही महफिलों का मजबूत आधार दिया है। गजल के रेशमी शब्द और अर्थ-चमत्कार उसे राजसी महफिलों के अनुकूल बनाते हैं, जहाँ मादक पेय की चुस्कियाँ उसके सुरूर को और बढ़ा देती हैं। इसलिए इन दिनों गजलों का गायन पाँच सितारा होटलों की महफिलों में भी खूब हो रहा है। गजल गायकी की पक्की सड़क पर चलना कमजोर गायकों के लिए भी आसान होता है। इसके विपरीत गीतों की गायकी अभी कंटीली झाड़ियों के बीच से गुजरनेवाली पतली पंगडंडी की तरह ही है। भारत की र्धमप्राण जनता ने संत कवियों के राग-रागिनीबद्ध पदों को भजन के रूप में अपने गले लगाया, लेकिन खड़ी बोली के छायावादी या परवर्ती गीतों को सुनियोजित ढंग से संगीतबद्ध करके अंतरंग गोष्ठियों में प्रस्तुत करने की परम्परा विकसित नहीं हुई, जैसा कि बंगाली परिवार में रवीन्द्र संगीत के गायन की परम्परा है। यह अगर होती तो फूहड़ और क्षणभंगुर फिल्मी गीतों की काट के रूप में हम प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी, दिनकर, बच्चन, नेपाली आदि के शाश्वत गीतों को आगे कर सकते थे। आज की परिस्थिति में इस प्रकार की चिन्ता करनेवाला प्रत्येक बौद्धिक व्यक्ति अपने को ‘रावणरथी विरथ रघुवीरा' को मनोदशा में पाता है।
एक बार बैंकाक के थम्पसात (र्धमशास्त्र) विश्वविद्यालय के छात्रों ने जब मुझसे पूछा कि गीत और गजल में क्या अन्तर है, तो मैंने मजाक में ही कह दिया था कि जो अन्तर भाँग और शराब में है। भाँग देर से चढ़ती है और देर तक रहती है। गीत का नशा भी धीरे-धीरे चढ़ता है, उसकी तैयारी भी भाँग की तरह ही जबर्दस्त होती है। काशी और मिथिला के पंडितों की शामें विजया की तैयारी में ही कट जाती थी। जैसे फटे दूध से दही नहीं जमता, वैसे ही विचलित मन से गीत नहीं रचा जा सकता। गजल का एक शेर देवबंद का होता है, दूसरा हैदराबाद का और तीसरा कराची का। रदीफ व काफिया के अलावा उसके शेरों में भाव के स्तर पर कोई जुड़ाव होता नहीं। इसलिए आज की आपाधापी वाली जिंदगी में जब कवि की रचनाशीलता लोकल ट्रेनों, बसों, टैक्सी या पदयात्राओं में मिले एकान्त में ही कछुए की तरह सिर निकालती है, गजलों की रचना अपेक्षाकृत ज्यादा अनुकूल है। इसके विपरीत गीत में प्रत्येक पंक्ति का केन्द्रीय भावभूमि से जुड़ना आवश्यक है, इसलिए इसे रचने में शुरू से अन्त तक मन को एकाग्र रखना होता है। गीत खुले आकाश में इन्द्रधनुष की तरह फैले धरती के उद्गार हैं। गीतों का कोयल पाँच सितारा होटलों के स्वर्ण पिंजर में कैद रहकर नहीं कूकेगा। वह तभी कूकेगा, जब उसे खुले आकाश के नीचे धरती पर खिलते वसंत के सतरंगे फूल दीखेंगे, आम के बौरों की गन्ध उकसाएगी। गीत कविता का चेहरा है, कवित्व की कसौटी है। शब्दों की पहचान, उनके गूढ़ अर्थों का ज्ञान, उनकी अर्थच्छटाओं से परिचय और उनकी सांगीतिक सम्पत्ति पर जितना अधिकार रचनाकार का होगा, उतना ही अच्छा गीत लिखने का वह अधिकारी होगा। इसीलिए आजकी शॉर्टकट की संस्कृति में लतीफे की लड़ी जोड़कर कवि सम्मेलन से मोटे लिफाफे और तालियाँ बटोरनेवाले हास्य-व्यंग्य के कवि हर गली में दस-बीस मिल जाऐंगे, मगर नये गीतकार की आमद बहुत कम है। हमारे लिए चिन्ता की बात यह है कि नयी पीढ़ी के रचनाकार कविता को बाजार के नजरिये से देखने लगे हैं। वे साधना कर अपना समय बरबाद नहीं करना चाहते। वे कम से कम लागत में अधिक से अधिक लाभ कमाना चाहते हैं। वे अनुशासन-हीन हिन्दी काव्यमंचों पर चमकते हास्य सितारे बनना चाहते हैं। मुशायरों में अभी अनुशासन का पानी बचा हुआ है, इसलिए वहाँ अच्छे कवि ही शीर्ष पर स्थापित हैं। हिन्दी मंचों का दृश्य बिलकुल इसके विपरीत है।
मेरा पहला संग्रह 1983 में ‘जाल फेंक रे मछेरे!' शीर्षक से शंकरदयाल सिंहजी के पारिजात प्रकाशन (पटना) से छपा था। उसके बाद गीत-लेखन तो कच्छप गति से चलता रहा और शीर्षस्थ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी होता रहा, मगर संकलन की नौबत नहीं आ पायी। समीक्षा जगत में गीत की उपेक्षा का एक स्वाभाविक कारण गीत-संकलनों की अनुपलब्धता भी रहा है। बहुत कम गीतकारों के ढंग से संकलन आ पाये हैं। जो आये भी, उनकी प्रतियाँ इतनी अल्प थीं कि अंधे के सोने और जागने की तरह उनका छपना और न छपना बराबर रहा। गीतों का हर संकलन अक्षरों का एक शांत नीरव द्वीप है, जहाँ तक सबकी पहुँच नहीं होती। इलेक्ट्रानिक माध्यम का वर्चस्व इन नीरव द्वीपों का मुँह चिढ़ा रहा है! जरूरत इस बात की है कि संकलन की तरह गीतों के कैसेट/सीडी भी निकलें। मगर विद्वत् मंडली कैसेट/सीडी या पत्र पत्रिकाओं के पृष्ठ पर छपे गीतों पर कलम चलाने के लिए अभ्यस्त नहीं है। इसलिए संकलनों का होना आवश्यक है। हिन्दी के प्रकाशक प्रकाशन व्यवसाय में पैसा कमाने के लिए आते हैं। ऐसे में बहुत कम ही प्रकाशक हैं जो साहित्य-वृक्ष के संवर्धन में रुचि रखते हों। मित्र मंदिर, कलकत्ता के वार्घैंमय विकास मंडप के अध्यक्ष के रूप में मैंने जब आर्य बुक डिपो, नई दिल्ली के संस्कारी प्रकाशक श्री सुखपाल गुप्तजी के समक्ष यह समस्या रखी थी, तो उन्होने भी बराबर की चिन्ता जतायी और यहीं से, अच्छे काव्य संग्रहों के प्रकाशन की एक रजत यात्रा शुरू हुई, जिसके अंतर्गत कैलाश गौतम (इलाहाबाद) का ‘जोड़ा ताल' सोम ठाकुर (आगरा) का ‘एक )चा पटल को' माहेश्वर तिवारी (मुरादाबाद) का ‘नदी का अकेलापन' रामचंद्र चंद्रभूषण (सीतामढ़ी) का ‘समय अब सहमत नहीं' और उदयप्रताप सिंह, सांसद (मैनपुरी) का ‘देखता कौन है' काव्य-संकलन प्रकाशित हो चुके हैं। इन संकलनों को पाकर पूरा हिन्दी जगत समकालीन सकारात्मक कविता की श्रेष्ठता के प्रति आशान्वित हुआ है। ‘शिखरिणी' इसी श्रृंखला की एक कड़ी है।
मैं यह भी मानता हूँ कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा विभिन्न चैनलों से फैलाये गये प्रदूषण को काव्य संकलनों से नहीं, बल्कि सुरुचिपूर्ण ऑडियो/वीडियो कैसेट निकालकर ही काटा जा सकता है। यह काम भौतिक लाभ की दृष्टि से अनाकर्षक है, मगर भारतीय मन को हरियल बनाये रखने के लिए हर उद्यमी और हर संस्थान को आगे बढ़कर समाज की बंजर होती जमीन को जोरदार ढंग से सींचना होगा। यह कार्य जितना शीघ्र हो सके, उतना ही श्रेयस्कर है। अच्छा कार्य अखरोट के पेड़ की तरह धीरे-धीरे अग्रसर होता है और सदियों जीता है। इसलिए हमें ‘काँटा लगा' जैसी गाजर घासों की बढ़त से घबराना नहीं चाहिए।
मैं नहीं जानता कि गीतों के माध्यम से मैं जिन लहरों को पैदा कर रहा हूँ, वह काल की रेत को कितना दूर तक भिंगोएगी। सिर्फ इतना चाहता हूँ कि जब तक जीवित रहूँ, तब तक ये लहरें अग्रसर होती रहें।
बक़लम ख़ुद
वे ख़्वाब देखते हैं, हम देखते हैं सपना
बुद्धिनाथ मिश्र
काशी में सन् 1970 के आस-पास जब मैंने काव्यमंच पर पांव रखा था, तब गंगाजमुनी कवि सम्मेलनों की धूम थी। कवियों में श्यामनारायण पांडेय, श्रीपाल सिंह क्षेम, विकल साकेती, शंभुनाथ सिंह, रूपनारायण त्रिपाठी, चंद्रशेखर मिश्र और सूंड़ फैजाबादी जैसे लोकप्रिय रचनाकार होते थे। वैसे ही शायरों में नजीर बनारसी, बेकल उत्साही, अनवर मिर्जापुरी, शम्सी मीनाई जैसी हस्तियां होती थीं। नजीर साहब की कविता की भाषा और विषयवस्तु खांटी बनारसी थी। मसलन, ‘गंगा' पर उनकी ये पंक्तियां देखें-
किये हैं ये दीपदान किसने
ठहर-ठहर कर मचल रहे हैं
हैं रौशनी के जिगर के टुकड़े
हवा से तेवर बदल रहे हैं।
नहीं-नहीं ये दिये नहीं हैं
जो बहते पानी पे जल रहे हैं
गगन से तारे उतर-उतर कर
लहर-लहर पर टहल रहे हैं।
क्या हिंदू, क्या मुसलमान- सभी गंगा के दीपदान के इस मनोरम वर्णन में आत्मविस्मृत हो जाते थे। नजीर साहब ने तमाम उम्दा नज्में और गजलें लिखी, मगर दीपदान के बिना उनका काव्यपाठ अधूरा होता था। उर्दू अदब के जमींदारों ने नजीर बनारसी को ‘शायर' नहीं माना और झल्लाकर नजीर साहब को कहना पड़ाः
मेरी एक आंख गंगा
मेरी एक आंख जमुना।
मेरा दिल खुद एक संगम, जिसे पूजना हो आये।
पूर्वांचल के बेकल उत्साही ने शहरी ज़बान उर्दू को दूर से सलाम करते हुए उर्दू में गांव का माहौल लाने के लिए लोककथाओं और लोकगायकों के साथ-साथ गांवों में व्यवहृत शब्दों को संजोने का प्रयत्न किया। वे स्वयं फरमाते हैं-
गज़ल के शहर में गीतों के गांव बसने लगे।
मेरे सफ़र के हैं ये रास्ते निकाले हुए॥
उन दिनों काव्यमंच पर उनका गीत ‘अम्बवा पे लागे है टिकोरवा, गोदना गोदाय डारो गोरिया' बेहद लोकप्रिय था। बेकलजी ने भी अपने ढंग से उर्दू के भंडार को बेशक़ीमती रचनाओं से भरा, मगर उर्दू अदब के ठेकदारों ने उन्हें ‘बाबा' कहकर खारिज कर दिया।
रूपनारायण त्रिपाठी की भाषा महात्मा गांधी की ‘हिन्दुस्तानी' का आदर्श नमूना थी। एक भी शब्द ऐसा नहीं, जिसका अर्थ ढूंढ़ने के लिए हिन्दी या उर्दू शब्दकोश की शरण लेनी पड़े। कवि सम्मेलनों का संचालन प्रायः वही करते थे। ऐसे कवि सम्मेलन- मुशायरे पूर्वांचल के वार्षिकोत्सव के अभिन्न अंग होते थे। युवा छात्र श्रोताओं को हिन्दी और उर्दू कविताओं को समान आदर भाव से सुनने और रस लेने का गुर और अनुशासन सिखाया जाता था। शैक्षणिक भ्रमण की तरह यह भी विद्यालयी शिक्षा का एक हिस्सा था।
इस सिलसिले में मुझे एक घटना याद आती है। चंद्रशेखर मिश्र, विकल साकेती और मुझे बस्ती के पास किसी गांव के कवि सम्मेलन में जाना था। मगर हमारी जीप भटककर ऐसे मुस्लिम-बहुल गांव में चली गयी, जहां स्कूल में मुशायरा हो रहा था। शायरों में शम्सी मीनाई, ख़ामोश गाज़ीपुरी, आफ़ताब लखनवी आदि थे। उन्होंने हमें देखा तो चकित रह गये। बातों-बातों में बात खुली कि हम लोग गलत आ गये। अंधेरी रात। दस के करीब बज रहे थे। सभी शायरों ने कॉलेज के प्रबंधक हाजी साहब से कहा कि ये सभी हमारे मेहमान कवि हैं। ये भी कविता पढेंगे और इनके मानदेय की आप चिंता न करें। हमारे मानदेय से ही आधा-आधा इन्हें भी बांट दें। श्रोताओं को भी शायद सतर्क कर दिया गया था। इसलिए शायरों से कहीं श्यादा कवियों को सराहा गया। पहली बार मैंने हाजी साहब के घर पर कवियों और शायरों के साथ दस्तरखान पर बिरियानी का आनंद लिया था। यह था दोनों भाषाओं के बीच भावनात्मक सौमनस्य, जो सिर्फ याद बनकर रह गया है।
सिर्फ़ दो दशकों में कवि सम्मेलन-मुशायरे का स्वरूप बदल गया। 1995 के आस-पास प्रयाग के एक सभागार में गंगा-जमुनी कार्यक्रम का जो रूप देखा, वह बहुत ही कष्टदायक था। शीर्ष हिंदी कवियों में अधिकांश हास्य कवि थे। मुशायरा सुनने के लिए जो श्रोता लामबंद होकर आये थे, वे शायरों को उठाने और कवियों को गिराने के लिए कमर कस कर आए थे। सभागार में ही जगह-जगह पाकिस्तानी मुहल्ले बनते दिख रहे थे। सन् 2007 में संत कबीर नगर में ‘अखिल भारतीय कवि सम्मेलन एवं मुशायरा' में शायर चौबीस और कवि सिर्फ तीन थे। उन्हें भी उत्साही मुस्लिम युवकों ने हूट कर बैठा दिया। मतलब यह कि हिंदी-उर्दू के बीच शीशे की दीवार को तोड़ने के लिए जो कोशिशें आजादी के बाद शुरू हुई थीं, वे आधी सदी बीतते-बीतते पस्त हो गयीं और गंगा के बेटे गोमुख की ओर और जमुना के बेटे जमुनोत्री (जमजम) की ओर रुख कर चलने लगे और इस प्रकार नदियों के संगम स्थल प्रयाग तक पहुंचना एक सपना हो गया। गौर करने की बात यह है कि ऐसे गंगा-जमुनी कार्यक्रमों में हिंदी के श्रोता जिस उदारता और प्रेम से उर्दू के शायरों को सुनते हैं, उतनी उदारता और सद्भाव का वातावरण उर्दू के श्रोता आज की तारीख़ में नहीं बना पाते। तकलीफ़ यहां होती है।
हिंदी और उर्दू के संबंधों पर पिछली सदी में काशी नागरी प्रचारिणी सभा में भाषावैज्ञानिकों की लंबी बहस हुई थी, जिसमें यह तय हुआ था कि हिंदी और उर्दू का व्याकरण एक है, उर्दू में केवल अरबी-फ़ारसी के शब्दों का बाहुल्य है, लिपि भी अपनी नहीं, फारसी है। इस तरह उर्दू अलग से भाषा न होकर हिंदी की ही एक शैली है। प्रारंभ में दोनों का नाम हिंदी, या रेख़्ता था। लेकिन अंग्रेज शासक सांप्रदायिक आधार पर उर्दू को खड़ा करना चाहते थे और फोर्ट विलियम कॉलेज, कोलकाता में प्रांरभ में ब्रिटिश अधिकारियों के लिए जिन भाषाओं के विभाग खोले गये, उनमें उर्दू, अरबी और फारसी के विभाग तो थे, पर हिंदी का कोई विभाग नहीं था। बाद में इसी कॉलेज में हिंदी और उर्दू की अलग-अलग पाठ्यपुस्तकें तैयार कर भाषाई विभाजन की नींव रखी गयी। स्वतंत्र भारत के कर्णधारों ने भी उर्दू को अल्पसंख्यकों की भाषा मानकर उसकी रक्षा के लिए अल्पसंख्यकों को उकसाना शुरू किया और देखते ही देखते भाषाई स्तर पर बंटवारा हो गया। इसी खतरे को दूर करने के लिए महात्मा गांधी ने राष्ट्रभाषा के रूप में एक ऐसी भाषा विकसित करने का अभियान छेड़ा था, जिसमें न तो मोटे-मोटे फारसी के शब्द हों, न ही बड़े-बडे़ संस्कृत शब्द। लेकिन भाषा का विकास किसी एक व्यक्ति की इच्छा के अनुसार नहीं होता है। उसका प्रवाह समय और समाज के बदलते तेवर के अनुसार होता है। हिंदी इस विकास में मुक्त भाव से अग्रसर हुई और आज यह भारतीय बाजार की भाषा के रूप में ‘ये दिल मांगे मोर' (और वह भी रोमन लिपि में!) तक पहुंच गयी है। मगर उर्दू का शुद्धतावादी रुख उसे आगे बढ़ने से रोकता रहा। कट्टर उर्दूदां लोग जब हिंदी भाषा में भी न जाने कब के रचे-पचे अरबी-फारसी शब्दों के मूल उच्चारण पर जोर देते हैं, तब उनकी जड़ बुद्धि पर हंसी आती है। दुष्यंत कुमार ने गंगाजली उठाकर हिंदी ग़ज़लें लिखने की बात की थी, मगर उर्दूदां लोगों ने उसमें भी नाक घुसेड़ने की कोशिश की, जिसका मुंहतोड़ जवाब दुष्यंत ने ‘साये में धूप' की भूमिका में दिया।
बॉलीवुड से लेकर बीबीसी तक ऐसे उर्दू के माहिर उस्ताद पाये जाते रहे हैं, जो हिंदी को आज भी गंवारों की भाषा मानते हैं। फिराक गोरखपुरी को भी प्रारंभ में यही भ्रम था, मगर बाद में उन्होंने अपने विचारों में सुधार किया। हिंदी या हिंदवी या खड़ी बोली के विकास के प्रांरभिक दौर में, खासकर कायस्थ जाति के लोग, जो मुग़ल दरबार में फारसी में लंबे अरसे तक मुनीमी करते रहे, मुग़ल खानपान, तहज़ीब, संस्कृति और माइंडसेट के ज्यादा करीब होने के कारण उर्दू के ज्यादा करीब अपने को पाते थे। प्रेमचंद और फ़िराक दोनों महान् साहित्यकार इसी वर्ग के थे। दोनों ने उदूर्वालों के इस भ्रम को तोड़ने की कोशिश की कि जो कुछ भारतीय भाषाओं में है, वह घटिया है और जो अरबी-फ़ारसी में है, वही श्रेष्ठतम साहित्य है। बनारस ने इस अवहेलना और तिरस्कार को ज्यादा झेला है। बनारस में एक मुहल्ले का नाम ‘ओंकारेश्वर' था। उस मुहल्ले में जब कन्वर्टेड मुस्लिम आबादी बढ़ी, तो उसका नाम ‘हुक्कालेसन' कर दिया, क्योंकि हिंदू देवता का नाम लेना कुफ्र था। काशी के ही राजा शिवप्रसाद अंग्रेजों के ज्यादा मुंहलगे थे और हिंदी को फारसी रंग में रंगने के हिमायती थे। जब उन्हें ब्रिटिश हुकूमत ने ‘सितारे-हिंद' (भारत का तारा) खिताब दिया, तो इससे चिढ़कर काशी की जनता ने धरती की भाषा के साहित्यकार हरिशचंद्र को ‘भारतेंदु' यानी भारत का चंद्रमा घोषित कर दिया। काशी ही नहीं, पूरे देश में हिंदू बहुमत ने उर्दू को शेरो-शायरी से ज़्यादा स्वीकार नहीं किया। वह लोकभाषाओं में संस्कृत और देशज शब्दों को पिरोकर हिंदी का विकास करता रहा। हिंदी में जहां एक से एक महाकाव्य लिखे गये, वहां उर्दू दरबारी मानसिकता के अनुरूप शेरो-शायरी यानी मुक्तक काव्य तक ही सिमटी रही। उर्दू में न तो कोई महाकाव्य रचा गया, न इसने कोई नायक पैदा किया। जो कुछ है, वह अरबी-फ़ारसी की नकल है। साहित्यिक दृष्टि से भी और सांस्कृतिक दृष्टि से भी।
भारतीय संविधान (अनुच्छेद 351) ने भारत की सामाजिक संस्कृति की अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में तथा विज्ञान और प्रोद्योगिकी की उन्नत भाषा के रूप में हिंदी को विकसित करने के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः भारतीय भाषाओं से शब्द ग्रहण करने का निर्देश दिया है। तदनुसार पिछली आधी सदी में हिन्दी ने न केवल संस्कृत और भारतीय भाषाओं से, बल्कि विश्व की तमाम भाषाओं से हजारों शब्द लेकर अपना भंडार भरा है। मगर इसके विपरीत तरक्किये-उर्दू ब्यूरो नये पारिभाषिक शब्दों का निर्माण अरबी की सहायता से कर रहा है, क्योंकि उसका मानना है कि संस्कृत, हिन्दी, गुजराती, मराठी, बांग्ला के शब्द ‘उर्दू जुबान के मिजाज के खिलाफ़' हैं। एक ओर हिंदी उर्दू के शब्दों को बड़ी सहजता से आत्मसात् कर रही है, दूसरी ओर उर्दू ‘संयोजक' के लिए उपयुक्त शब्द अपने पास न होने पर अंग्रेजी के ‘कन्वेनर' शब्द का प्रयोग करेगी, पर संस्कृत के ‘संयोजक' को नहीं, क्योंकि इसमें वह अपनी हेठी समझती है। वह ‘ब्राह्मण' को बिगाड़कर ‘बिरहमन' कहेगी, मगर गज़ल को ‘गजल' कहने पर हिंदी वालों की हंसी उड़ायेगी। यह वही शाही मानसिकता है, जिसने संस्कृत जैसी समृद्धतम क्लासिक भाषा और ब्रज-अवधी जैसी अति विकसित लोकाश्रित साहित्यिक भाषाओं की उपेक्षा कर फ़ारसी को दिल्ली के तख़्त की भाषा घोषित किया था। विजयी शासक हमेशा पराजित कौम को नीचा दिखाने के लिए अपनी भाषा, अपना धर्म और अपनी संस्कृति को लादते ही रहे हैं। पारस विजय के बाद भी अवेस्ता भाषा-लिपि तथा जरथुस्त्र धर्म को सीलबंद कर दिया गया था। आज भी हजारों हिंदू उर्दू में लिखते हैं, मगर उर्दू अदब में वही हिंदू अदीब पांव जमा सकता है जो हिंदू धर्म को ऐबों की खान माने, कोयल के देश में बुलबुल की आवाज को सबसे मीठा कहे और उर्दू को ही टकसाली भाषा स्वीकारे।
भाषा सभ्यता का सबसे प्रकट और मुखर रूप है। यदि आप किसी भाषा को नीचा समझते हैं, तो आप उस भाषिक क्षेत्र की सभ्यता, संस्कृति, भावनात्मक उद्गार, परंपरा, जीवन-दर्शन और बिंब-प्रतीकों के विशाल भंडार की भी उपेक्षा करते हैं। संस्कृति का निर्माण शास्त्रों और उनमें निर्दिष्ट आचारों से होता है। भारतीय शास्त्रों को उजाड़ने वाले लोग भारतीय संस्कृति का गुणगान करने या उस पर गौरव करने के हकदार नहीं हैं। भारत की व्याकरणिक परंपरा बहुत पुरानी है। विश्व के प्रथम भाषावैज्ञानिक माने जानेवाले महर्षि पाणिनि भी संस्कृत में नव्य व्याकरण के जन्मदाता हैं। प्राचीन व्याकरण उनसे भी हजारों वर्ष पुराने हैं और वे भी सूत्र शैली में ही हैं। शाही दरबार की नफ़ासत में वर्षों ढलने के कारण, एक समय की लश्करी बोली उर्दू साहित्यिक भाषा के रूप में जितनी समुन्नत है, विज्ञान और प्रौद्योगिकी की भाषा के रूप में उतनी ही पिछड़ी हुई है। राजनेता लोग उर्दू को इसके भाषिक वैशिष्ट्य के कारण नहीं, बल्कि एक संप्रदाय की भाषा के रूप में तवज्जो दे रहे हैं। यह संप्रदाय बड़ी आसानी से मज़हब के नाम पर बरगलाया जा सकता है। इसकी गरीबी, दरिद्रता और पिछड़ेपन को ढंकने के लिए बड़ी आसानी से उर्दू की चादर ओढ़ा दी जाती है। कुछ हिंदीभाषी राज्यों में द्वितीय राजभाषा के रूप में उर्दू को मान्यता देकर समस्या को और बढ़ा दिया गया है। जिन राज्यों की मातृभाषा के रूप में उर्दू नहीं है, वहां उर्दू के हक़ मनवाने की जितनी कोशिश की जायेगी, उर्दू सांप्रदायिक राजनीति के संकुचित घेरे में उतनी फंसती जायेगी। सच यह है कि उर्दू न तो हिंदुस्तान में, न पाकिस्तान में किसी भी क़ौम की भाषा है। जायसी से लेकर राही मासूम रजा तक इसके प्रमाण हैं। उर्दू-हिंदी का आपस में कोई फर्क भी नहीं हैं। दोनों एक-दूसरे की पूरक भाषाएं हैं। यदि लिपियों में अंतर की उपेक्षा कर दी जाये और उर्दूदां लोग अपनी सामंतशाही और फारसीपरस्त मानसिकता का चोंगा फेंककर धरती पर आ जायें और संस्कृत सहित भारतीय भाषाओं से अपनी ज़रूरत के मुताबिक शब्द जुटाने लगें तो हिंदी के बहुत करीब उर्दू आ जायेगी। बल्कि यों कहें कि हिंदी उर्दू का भेद मिट जायेगा, जो धीरे-धीरे हिंदू-मुसलमान के बीच पिछले दशकों में स्वार्थी राजनेताओं द्वारा निर्मित खाई भी पाटने में भी इससे सहायता मिलेगी। यह भारत के सुनहरे भविष्य के लिए बहुत आवश्यक है। इससे जहां हिंदी-उर्दू मिलकर विश्व की सर्वाधिक बोली जानेवाली भाषा बन जायेगी, वहीं अंग्रेजों द्वारा बोया गया वैमनस्य भी अंतिम सांसें लेने लगेगा। हिंदी और उर्दू एक ही आदमी की दो आंखें हैं, एक ‘ख़्वाब' देखती है, तो दूसरी ‘सपना'। गंगोजमन की शर्त है कि आप दोनों में से किसी आंख को न मीचें।
बक़लम ख़ुद
‘शत् शत् नमन्' कब तक करेंगे?
बुद्धिनाथ मिश्र
देवभूमि उत्तरांचल में जो तीर्थयात्री संस्कृति और संस्कृत का अ-प्रदूषित रूप देखने की लालसा लेकर आते हैं, उन्हें यहाँ के राजमार्गों पर बडे़-बड़े होर्डिंगों में ‘नागरिकों' और ‘शहीदों' को शत् शत् नमन् होते देखकर बड़ी निराशा होती है। संस्कृत से कोसों दूर चले गये हमारे बुधजन और अधिकारी सोचते हैं कि हलन्त लगा देने से शब्द संस्कृत हो जाता है। इसीलिए, शत शत को ‘शत् शत्' कर दिया और नमन को ‘नमन्'। ये ऐसी अशुद्धियाँ हैं, जो राजमार्गों पर चलने वाले हजारों पथिकों की नजरों से गुजरती है और जिन्हें भाषा का ज्ञान है, उन्हें हमेशा कचोटती हैं। इन राजमार्गों से आने-जानेवाले बच्चों के कोमल मन पर ये अशुद्ध भाषा-प्रयोग उतना ही घातक प्रभाव डालते हैं, जितना औरतों के नंगे जिस्म को प्रदर्शित करने वाले फिल्मी पोस्टर।
मेरा यह सौभाग्य रहा है कि मैंने प्रारंभिक शिक्षा प्राचीन संस्कृत परिपाटी से प्राप्त की और मिथिला व काशी के दिग्गज विद्वान महामहोपाध्यायों, व्याकरणाचार्यों, विश्रुत साहित्यकारों और वरेण्य विभूतियों के सान्निध्य में मेरा बचपन बीता। इसलिए भाषा की पूँजी लेकर ही मेरी जीवन-यात्रा शुरू हुई। व्याकरण के पंडितों में महर्षि पतंजलि का एक वाक्य बहुत प्रचलित है- ‘एकः शब्दः सुप्रयुक्तः सम्यग्ज्ञातः स्वर्गे मर्त्ये च कामधुग् भवति' (एक ही शब्द यदि ठीक से जानकर प्रयोग किया जाय, तो वह दोनों लोकों में कामधेनु की तरह लाभ देता है) शब्द के गलत उच्चारण ने ही कुम्भकर्ण को चिरशायी बना दिया था। उसने कड़ी तपस्या कर ब्रह्मा से वर माँगना चाहा ‘निर्देवत्वम्' (देवताओं का नाश), लेकिन कह बैठा ‘निद्रावत्वम्' और ब्रह्मा ने उसे अपार निद्रा का वरदान दे दिया।
काशी में मिला भाषा का उच्च संस्कार दिल्ली-देहरादून में मुझे बेहद कष्ट देता है। जो लोग आँखें मूँदकर दूध के साथ मक्खी निगल लेते हैं, वे ही यहाँ सुखी हैं। जहाँ बिन्दी नहीं होनी चाहिए (रोड) वहाँ बिन्दी मिलेगी (रोड़)। ‘कृपा' की तृतीया विभक्ति का शब्द कृपया (कृपा से) अक्सर आपको ‘कृप्या' के भ्रष्ट रूप में दिखेगा। ‘सतत्' (सतत), शत् (शत), बालग्रह (बालगृह) जैसी पीड़ादायक अशुद्धियाँ इतनी मात्रा में सड़कों, दुकानों और सरकारी प्रपत्रों में दिखने लगी हैं कि कभी-कभी मुझे यह भ्रम हो जाता है कि कहीं मैं ही तो गलत नहीं हूँ।
संस्कृत भाषा का ज्ञान न होने के कारण हमारे विद्वत्जन अशुद्ध उच्चारण तो करते ही हैं, अशुद्ध उद्धृत भी करते हैं। यह एक विनाशकारी कृत्य है, क्योंकि इससे अनर्थकारी अशुद्ध उद्धरणों का सिलसिला शुरू हो जाता है। पिछले दिनों मुझे ‘म्यूजिक टुडे' द्वारा तैयार किया गया एक ऑडियो कैसेट ‘मेघदूतम्' प्राप्त हुआ। बहुत प्रसन्नता हुई कि हमारे इलेक्ट्रॉनिक उद्यमी अपनी प्राचीन अमूल्य धरोहरों को संजोने के लिए चेष्टारत हैं। लेकिन जब कैसेट को सुना तो सिर पकड़कर बैठ गया। उसमें ‘मेघदूत' के चुने हुए श्लोकों को अच्छी तरह संगीतबद्ध कर गाया गया है, मगर संस्कृत के जानकार व्यक्तियों का सहयोग न लेने के कारण किसी भी श्लोक की एक भी पंक्ति ऐसी नहीं है, जिसमें दो-तीन अशुद्ध उच्चारण न हों। यह एक चिंताजनक पहलू है, जिसपर सामान्य जनता से लेकर विद्वन्मंडली तक का ध्यान आकृष्ट होना ही चाहिए। हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में र्धम-दर्शन से लेकर कला-साहित्य तक सभी विषयों पर जो भी लेख छपते हैं, उनमें वेद मंत्रो से लेकर लौकिक साहित्य के जो श्लोक उद्धृत किये जाते हैं, उनको यदि गौर से आप पढ़ें तो ढेर सारी अशुद्धियाँ आपको अनायास ही मिल जाएँगी।
उदाहरण के लिए, किसी स्वनामधन्य व्यक्ति की मृत्यु पर अखबारों में दिये गये विज्ञापन में जो गीता के श्लोक उद्धृत किये जाते हैं, वे अक्सर अशुद्धियों से भरे होते हैं। उन श्लोकों को शुद्ध रूप में उद्धृत करना कोई कठिन काम नहीं है। गीता प्रेस ने गीता और रामचरित मानस को पानी के मोल घर-घर पहुँचा दिया है। गीता प्रेस की गीता से वांछित श्लोक की फोटोकॉपी या स्कैन कर उसे यथावत् अखबारों में छपाया जा सकता है। इसमें कोई त्रुटि नहीं रहेगी। मगर इसके लिए भाषा की शुद्धता के प्रति आग्रह होना ही चाहिए। न जाने क्यों, हमारे श्रीमंत लोग अंग्रेजी की वर्तनी पर जितना आँखें गड़ाते हैं, उतना हिन्दी वर्तनी पर नहीं। जैसे अशुद्ध हिंदी लिखना उनका जन्मसिद्ध अधिकार हो। शादी ब्याह के निमंत्रण पत्रों में भी जो संस्कृत के श्लोक छपते हैं, वे त्रुटियों के कारण महान अनर्थकारी होते हैं। उदाहरण के लिए एक बहु-प्रचलित श्लोक उद्धृत करना चाहूँगा ः
मंगलं भगवान् विष्णुः मंगलं गरुडधवजः।
मंगलं पुण्डरीकाक्षः मंगलायतनो हरिः॥
मुझे बड़े खेद के साथ यह बताना पड़ता है कि हिंदी के बड़े-बड़े प्रोफसरों द्वारा प्रेषित वैवाहिक निमंत्रण पत्रों में भी मैंने मंगलायतन (मंगल़आयतन) हरि को ‘मंगलाय तनो' हरि के रूप में पाया है। जैसे प्रोफेसर साहब अपनी बिटिया की शादी के अवसर पर भगवान विष्णु को ‘मंगल' के लिए तन जाने का निर्देश दे रहे हों। इस श्लोक में ‘गरुडधवज' संस्कृत शब्द है, उसे अपभ्रष्ट कर ‘गरूड़धवज' नहीं बनाया जाना चाहिए। इसी प्रकार संस्कृत में ‘भगवान्' (हलन्त) है।
मुझे हैरानी इस बात की होती है कि हिन्दी जगत में भाषा की अशुद्धियों की ओर न्यूनतम ध्यान भी क्यों नहींं दिया जाता? क्यों हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में, दुकानों के हिंदी साइनबोर्डों में, कंपनियों के हिंदी विज्ञापनों में इतनी ज्यादा गलतियाँ दिख जाती हैं? क्यों हिंदी की पुस्तकों में प्रूफ की अशुद्धियों की भरमार रहती है? यदि देवभूमि के लोग अपनी भाषा के प्रति उदासीन रहेंगे, तब दूसरे प्रदेशों से हम क्या अपेक्षा करेंगे? पाठकों से मेरा आग्रह है कि वे अपनी भाषाई धरोहरों के प्रति जागरूक हों, और जहाँ कहीं इस प्रकार की अशुद्धियाँ या भाषा की अवहेलना दिखाई पड़े, वहाँ वे संकल्पबद्ध होकर हस्तक्षेप करें। भाषा की सरलता का मतलब भाषा की अशुद्धता कतई नहीं होता।
उत्तरांचल के चारों धाम भारतीय संस्कृति से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति के लिए आस्था के केन्द्र हैं। मगर वहाँ भी श्रद्धालु भक्तों के लिए पंडों-पुजारियों के कर्मकाण्ड की अज्ञता और उच्चारण की अशुद्धि कष्टदायक है। बदरीनाथ केदारनाथ मंदिर समिति यदि उनके लिए विद्वानों के निर्देशन में पुनश्चर्या कार्यक्रम आयोजित कर सके, तो यह एक महान पुण्य कार्य होगा।
बक़लम ख़ुद
घरही मे हमरा चारू धाम हम मिथिले मे रहबै
बुद्धिनाथ मिश्र
वैसे तो अपनी जमीन, अपने वतन से लगाव हर किसी को होता है और अपनी धरती से जुड़ने के लिए, भारतीय जन अपने नाम के साथ उसे चस्पां भी करते रहे हैं, जैसे मराठी सामान्यतः अपने नाम के साथ गांव को ‘कर' परसर्ग लगाकर रखते हैं, जैसे ‘कालेलकर' ‘वाशिमकर' ‘सावरकर' आदि। शायर अपने ‘वतन' को नाम के साथ जोड़ना जरूरी समझते हैं, क्योंकि इससे उनकी पहचान पूरी होती है, जैसे लुधियाना के साहिर लुधियानवी, आजमगढ़ के कैफी आजमी, अमरोहा के कमाल अमरोही या बनारस के नजीर बनारसी। मिथिला के लोग पहले अपने चंदन-टीका और पाग के साथ-साथ ‘झा' (उपाध्याय का अपभ्रंश) से पहचाने जाते थे। मगर ऐसी पहचान रखनेवाले बहुत कम रह गये हैं। पूरब में तिनसुकिया से लेकर पश्चिम में अमृतसर और दक्षिण में हैदराबाद से लेकर उत्तर में कटरा (वैष्णो देवी) तक खून-पसीना एक कर विभिन्न जीविकाओं के द्वारा अस्तित्व को किसी तरह बचाये रखने के लिए प्रयत्नशील मैथिल युवक अब अपनी पहचान जताने के उतने आग्रही नहीं रह गये हैं, मगर उनके विशिष्ट उच्चारण या नाक-नक्श अथवा हाव-भाव से कोई उन्हें पहचान ले, तो अलग बात है। गांव में ‘दुर्गा सप्तशती' पढ़कर यानी चण्डीपाठ कर और विद्यापति के पदों को (जिन्हें ‘तिरहुता' भी कहा जाता है) गाकर बड़े हुए मैथिल युवक जब कोलकाता या मुंबई में टैक्सी या ऑटो चलाते हैं, तो पूरी कोशिश करते हैं कि अपने गांव-जवार के लोग उन्हें पहचान न लें। बहुतों ने अपने नाम से उपाधि हटा दी है। पहनावा और खान-पान तो स्थानीय सुविधा के अनुसार बदला ही है। मगर, इस सबके बावजूद आम मैथिलों में अपनी मिट्टी के प्रति सबसे ज्यादा लगाव होता है। ऐसा हो भी क्योंं न? मिथिला की बेटी सीता धरती की कोख से ही जनमी थी और धरती की गोद में ही समा गयी थी। कुछ तो विशेषता होगी उस रत्नगर्भा धरती में।
आज भी मिथिला के घरों में भगवान शिव की व्यक्तिगत पूजा पार्थिव (मिट्टी का) शिवलिंग लाखों की संख्या में बनाकर की जाती है। मुण्डन-उपनयन आदि से पूर्व सप्तमृत्तिका से मण्डप स्थान (मांटिमांगर) पूजा जाता है। यहां तक कि प्रत्येक घर में कुलदेवी के रूप में मिट्टी के लघु स्तूप के आकार के पिण्ड (पौड़ी) की ही सायं-प्रातः पूजा होती है। अंतिम सांस ले रहे व्यक्ति का देहत्याग तो पूरे देश में धरती पर ही शरीर को रखकर कराया जाता है, लेकिन मृत शरीर की चिता नदी किनारे या बाग-बगीचे में जलाने के बाद उस स्थान पर मिट्टी की कब्र (सारा) बनाने की प्रथा केवल मिथिला में है।
अपने वंश को शुद्ध रखने के लिए मैथिल ब्राह्मणों और कायस्थों द्वारा सातवीं सदी से ही पंजी-प्रथा कायम रखी गयी है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति के कुल (वंश) तथा उस कुल के सम्बंधियों यानी रिश्तेदारियों का विशद विवरण तालपत्रों या भोजपत्रों पर अभिलेखित है। किसी भी युवक या युवती के विवाह से पूर्व पंजीकार के पास जाकर उससे ‘सिद्धान्त' यानी अनुमोदन प्राप्त करना आवश्यक होता है। पंजीकार कन्या और वर के पिछले आठ पुश्तों का अभिलेख देखकर यह जांचता है कि कन्या के मातृपक्ष से पांचवी पीढ़ी और पितृपक्ष से सातवीं पीढ़ी तक वर के पूर्वजों के साथ कोई ऐसा सम्बंध तो नहीं हुआ है, जिससे वर और कन्या भाई-बहन हो जाएं। इस जांच के बाद ही पंजीकार वर-कन्या को विवाह का अधिकार देता है। मिथिला की इस प्राचीन परम्परा का अनुकरण बंगाल में कुलीन ब्राह्मणों द्वारा ‘कुलजी', असम में ‘बुरन्नजी', उड़ीसा में ‘मदालसा पन्नजी' और नेपाल में राजवंशियों द्वारा ‘वंशावली' के रूप में किया गया। मैथिल ब्राह्मणों की उच्चता की पहचान उनकी पांजि (वंश), मूल (मूल स्थान) और गोत्र से होती रही है। मिथिला के गांवों में आज भी अपरिचित अभ्यागत का नाम, गोत्र और मूल पूछा जाता है। जैसे मेरा गोत्र काश्यप है, जो समाज के अधिकांश व्यक्तियों का होता है, मगर मूल, ‘दरिहराय डीह' है यानी मेरे पूर्वज ‘दरिहराय' नामक स्थान से स्थानांतरित हुए थे। जिनका मूल ‘दरिहराय राजनपुरा' है, वे मुझसे श्रेष्ठ मूल के हैं। मिथिला में पंजी-प्रबंध चौदहवीं शताब्दी से विधिवत और अक्षुण्ण रूप से चल रहा है, जो अपने में एक विलक्षण उपक्रम है, जिसका अध्ययन अमेरिका के भी कई नृशास्त्री पिछले कुछ वर्षों से कर रहे हैं। उन्होंने छह-सात सौ वर्षों के उन दुर्लभ अभिलेखों को माइक्रोचिप्स में दर्ज करने का भी प्रयत्न किया है। मजे की बात यह है कि इस पंजी प्रबंध को राजकीय संरक्षण मिथिला के अंतिम क्षत्रिय राजा हरिसिंह देव द्वारा चौहदवीं शताब्दी के प्रांरभ में दिया गया था, जो स्वयं कर्णाटक वंशीय यानी मूलतः कर्नाटक प्रदेश के थे- जातः श्री हरि-सिंह-देव-नृपतिः कर्णाट-चूडामणिः।
मिट्टी के प्रति यह लगाव ही था कि दरभंगा राज के राजपंडित और संस्कृत के उद्भट विद्वान विद्यापति (ठाकुर) ने अपने समय के संस्कृत के पंडितों और साहित्यकारों को ललकार कर कहा था-
बालचंद बिज्जावइ भासा।
दुहु नइ लग्गइ दुज्जण हासा।
ओ परमेसर हर सिर सोहइ
ई णिच्चइ नाअर मन मोहइ॥ (कीर्तिलता)
विद्यापति ने अपनी भाषा को बालचंद कहा, क्योंकि उस समय मैथिली विकास की प्रारंभिक अवस्था में थी। उससे पहले राजपुरुषों और सनातनी बुधजनों की भाषा संस्कृत थी, बौद्ध भिक्षुओं की भाषा पालि और जनसामान्य की भाषा या तो लम्बे समय से चली आ रही प्राकृत थी या कच्ची मैथिली, जो पूर्वी भारत की अन्य आधुनिक भाषाओं के लिए जमीन तैयार कर रही थी। कालिदास के नाटक ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्' में स्त्री पात्र और निम्न श्रेणी के पुरुष पात्र उसी प्राकृत का प्रयोग करते हैं, जिसका प्रयोग ऊपर विद्यापति ने किया है। राजकाज की भाषा संस्कृत में सामान्य जन को पत्र-लेखन (लिखनावली) सिखाने वाले विद्यापति राज दरबार से बाहर निकलते ही कह उठते हैं- ‘देसिल बयना सब जन मिट्ठा' (देसी भाषा सभी को मीठी लगती है)। इसीलिए उन्होंने संस्कृत के ललित कवि जयदेव रचित ‘गीत गोविन्दम्' के छन्दों के अनुसरण में मैथिली पदों की रचना की।
एक ओर जयदेव कोमल शब्दों को जोड़कर अष्टपदी रचते हैं ः
ललित-लवंग-लता परिशीलन
कोमल-मलय-समीरे।
दूसरी ओर, छन्द की उसी त्वरा के साथ अपने भावों को उस समय की मैथिली भाषा में उतारते हुए विद्यापति कहते हैं ः
सरसिज बिनु सर, सर बिनु सरसिज
की सरसिज बिनु सूरे
जौबन बिनु तन, तन बिनु जौबन
की जौबन पिय दूरे।
मातृभाषा में कविता रचने की वह पहल यदि विद्यापति ने, तमाम चुनौतियों को झेलते हुए उस समय न की होती, तो न कबीर होते, न सूर, न तुलसी, न मीरा। पूरे हिंदी भक्ति-साहित्य की आधारशिला विद्यापति के पद हैं। कई सदियों से पूर्वी भारत की आधुनिक भाषा बंगला, नेपाली, असमिया और उड़िया के आदिकवि के रूप में विद्यापति ही पढ़ाये जाते रहे हैं। बंगाल में चैतन्य महाप्रभु, असम में शंकरदेव जैसे वैष्णव आचार्यों के कीर्तनों में विद्यापति के कृष्ण-राधा प्रेम-परक पदों को गाने की परम्परा डाली। ‘देसिल बयना' कैसे रचनाकार के मर्म को बिना लाग-लपेट के अभिव्यक्त करती है, इसकी एक बानगी ‘कीर्तिलता' से प्रस्तुत है। कुशल और सरस राजा के अभाव में विद्यापति के समय में काव्य के आकलन की क्या स्थिति थी, इसे विद्यापति के ही शब्दों में सुनें ः
अक्खर रस बुज्झनुहार न हिं/ कइकुल भमि भिक्खारित भउ।
(साहित्य का रस जानने वाले का नितान्त अभाव होने के कारण आश्रय-विहीन कवि भिखारी बनकर इधर-उधर भटक रहे हैं) इसके बावजूद विद्यापति ने भाषा में काव्य की आनेवाली पीढ़ियों के चलने के लिए नया मार्ग प्रशस्त किया, जिसपर रवीन्द्रनाथ ठाकुर सदृश अनेक युगान्तरकारी प्रतिभाओं ने मील के पत्थर गाड़े।
मैथिली का एक लोकगीत है, जो मिथिलावासियों की अपनी भूमि के प्रति अनन्य प्रेम को उजागर करता हैः
साग-पात खोंटि-खोंटि
दिवस गमेबै हे, मिथिले मे रहबै
घरही मे हमरा चारू धाम
हम मिथिले मे रहबै।
(साग-पात खाकर दिन काट लूंगा, मगर मिथिला में ही रहूंगा। चारोंं धाम मेरे घर में ही हैं, मैं मिथिला में ही रहूंगा)
यह विडम्बना ही है कि सबसे ज्यादा प्रतिभा-पलायन भी मिथिला से ही हुआ। सन् 1911 में जार्ज ग्रियर्सन ने भारतीय भाषाओं के सर्वेक्षण के क्रम में मिथिलांचल और नेपाल की तराई में रहने वाले मैथिलीभाषियों की कुल संख्या एक करोड़ के लगभग बतायी थी, जबकि उस समय पूरे देश की आबादी सात करोड़ के आसपास थी (याद करिए ‘बंदे मातरम्' गीत का मूल पाठ- ‘सप्तकोटि कलकल निनाद कराले')। एक सदी बीत जाने के बाद देश की आबादी एक अरब हो गयी, मगर मैथिली-भाषियों की आबादी तीन करोड़ से ज्यादा नहीं बढ़ी। ऐसा नहीं कि उनकी जनसंख्या नहीं बढ़ी। किसी भी प्रकार के सृजन-कार्य में यह समाज हमेशा अग्रणी रहा है। इसलिए आबादी तो पूरी गति से बढ़ी, मगर जैसे चिड़िया के बच्चे पंखों में दम आते ही घोंसला छोड़कर चले जाते हैं कहीं नयी डाल पर रैन बसेरा करने के लिए, उसी प्रकार मैथिलीभाषी भी कोसी-कमला जैसी उपद्रवी नदियों की मार और जीविका-विहीनता से त्रस्त होकर देश के अन्य क्षेत्रों में चले जाते रहे हैं और वहीं के बन जाते रहे हैं। आज चाहे पंजाब के खेत-खलिहान हों या कोलकाला-मुंबई या देहरादून-हैदराबाद की गलियां, मकान बनाने, माल ढोने, रिक्शा चलाने, घरेलू काम करने, दरबानी करने जैसे सारे श्रमसाध्य काम करते वे मैथिल दिख जाएंगे, जिनके पुरखे कभी जाने-माने पंडित होते थे। दरअसल, भारत के सभी नगरों का 80 प्रतिशत श्रम-साध्य काम मैथिली और भोजपुरी-भाषी श्रमिकों द्वारा ही किया जाता है।
दूसरी ओर, भारत के विभिन्न प्रांतों के अलावा फ्रांस, जर्मनी, इंगलैण्ड, कनाडा, अमेरिका आदि तमाम देशों में मिथिला के वैज्ञानिक और गणितज्ञ आईटी युग के उदय से पहले से ही आबोदाना की तलाश में पहुंचते रहे। हिंदी के अत्यधिक जनप्रिय कवि ‘नागार्जुन' भी पहली बार जब संस्कृत पढ़ने के लिए मिथिला के तरौनी गांव से काशी आये थे, तब अपनी मातृभूमि से पृथक होने की पीड़ा उन्होंने भी सर्वप्रथम मैथिली में ही अभिव्यक्त की थी ः
अहिबातक पातिल फोड़ि-फाड़ि
पहिलुक परिचय के तोड़ि-ताड़ि
पुरजन परिजन सब छोड़ि-छाड़ि
हम जाय रहल छी आन ठाम
माँ मिथिले, ई अंतिम प्रणाम। (चित्रा, 1934)
मैथिली के वैद्यनाथ मिश्र ‘यात्री' हिंदी में ‘नागार्जुन' के रूप में अवतरित होकर अगर सृजन कार्य करने लगे, तो इसका भी कारण मिथिलांचल की निर्धनता ही है! जब डॉ. राम विलास शर्मा जैसे अधीती विद्वान ने मैथिली को हिंदी की एक बोली कहकर यह कहा कि ‘हिंदी के महासमुद्र में विलीन हो जाने में उसका कल्याण है' तो इसके उत्तर में नागार्जुन ने मैथिली के बारे में पूरी जानकारी देते हुए उसकी पृथक तिरहुता लिपि, सुदीर्घ साहित्येतिहास, अन्य भाषाओं के शब्दों को पचाने की अद्भुत क्षमता, विशाल शब्दावली, पृथक धातुरूप और विशिष्ट वाक्य-विन्यास को रेखांकित करते हुए लगभग गरज कर कहा था- मैथिली को पचा लेने का सामर्थ्य हिंदी या भारत की किसी भी अन्य भाषा में नहीं है। उन्होंने अजबाड़ब, अरियातब, उड़ाहब, उढ़रब, हउआयब, हवकब जैसी क्रियाओं की एक लम्बी सूची पेश की, जिनका समानार्थक हिंदी (खड़ी बोली) में है ही नहीं। हिंदी में क्रियाओं का घोर अभाव सबसे ज्यादा मैथिली-भाषियों को अखरता है, क्योंकि मैथिली में एक ‘मारब' धातु के विभिन्न अर्थों में भूतकाल के जहां इतने रूप हैं-मारलियनि, मारलहुन, मारलथिन, मारलकनि, मारलथुन, मारलनि, मारलह, मारलहुक, मारलें, मारलही-वहाँ हिंदी में केवल ‘मारा' है। इस कमी को हिन्दी विभिन्न लोकभाषाओं से क्रियाएं लेकर पूरा कर सकती थी, मगर संविधान की धारा 351 में वर्णित 22 भाषाओं से शब्दरूपों और धातुरूपों को समेकित कर हिंदी का विकास करने के लिए टेबुल वर्क की जगह फील्ड वर्क करने की आवश्यकता थी, जिस ओर किसी संस्था या संगठन ने मन से प्रयत्न ही नहीं किया।
मारिशस, त्रिनिदाद, फिजी, सूरिनाम आदि देशों में जो गिरमिटिया मजदूर गये थे, उनकी मातृभाषा भोजपुरी, मैथिली, मगही थी। मेरा सौभाग्य है कि मेरा जन्म मैथिली-भाषी दरभंगा जिले में हुआ, जबकि परवरिश गाजीपुर और बनारस जैसे भोजपुरी-प्रधान क्षेत्र में। इसलिए मैथिली और भोजपुरी पर समान अधिकार रहने का लाभ मुझे मारिशस, सूरिनाम आदि के लोगों के साथ बात करते समय मिलता है। भोजपुरी सुनते ही जिस तरह उनका चेहरा खिल उठता है, उस तरह हिंदी (खड़ी बोली) सुनकर नहीं। लोकभाषा की उपेक्षा कर हिंदी उड़ तो सकती है, मगर दौड़ नहीं सकती। राजभाषा हिंदी का विकास लोकभाषाओं में जड़ जमाने से ही होगा। मैथिली ने मगही, गोरखाली, नेवाड़ी, संथाली, भोजपुरी जैसी पड़ोसी लोकभाषाओं के अतिरिक्त संस्कृत-पालि-प्राकृत-अपभ्रंश और अंग्रेजी-फारसी-अरबी-तुर्की के हजारों शब्द स्वाभाविक रूप से आज से हजार साल पहले पचा लिये थे। अवधी के साथ मैथिली का रामायण काल से ही अटूट रिश्ता है। जनक-नंदिनी सीता जब अपने परिचरों के साथ अयोध्या गयी थीं, तो उनके साथ मैथिली के तमाम विशिष्ट शब्द भी गये थे, जिन्हें गोस्वामी तुलसीदास की अवधी में देखा जा सकता है। अयोध्या के कनक मंदिर में आज भी ज्यादातर मैथिली के ही लोकगीत भजन-कीर्तन में गाये जाते हैं। उनकी धुन भी मैथिली लोकगीत बटगवनी (बंगला में पथेर पांचाली) समदाओन आदि पर आधारित होती है। हिंदी को भी नये अव्यावहारिक शब्द गढ़ने के बजाय लोकभाषाओं के जीवंत शब्द, क्रियापद और अभिव्यक्ति-वैशिष्टय को खुले मन से अपनाना होगा।
अच्छी चीजें जहां से मिलें, उन्हें ग्रहण करने में संकोच नहीं करना चाहिए। एक बार अपने गांव के एक बुजुर्ग चरवाहे ने, यह जानकर कि काशी से पढ़कर आया हूँ, मुझसे पूछ दिया- ‘बताइए, चंद्रमा को मामा (चंदामामा) क्यों कहते हैं?' मैंने काफी बौद्धिक कसरत की, मगर सटीक उत्तर नहीं दे पाया। अंत में उसने ही व्याख्या की- ‘समुद्र-मंथन के बाद समुद्र से लक्ष्मी के साथ-साथ चंद्रमा भी निकला था। विष्णुपत्नी लक्ष्मी सम्पूर्ण जगत की माता हैं, तो उनके सहोदर भाई चंद्रमा क्या हुआ? मामा ही न। इसलिए चंद्रमा सभी पृथ्वीवासियों के मामा हैं। उस दिन मुझे भीतर से लगा कि मेरा किताबी ज्ञान उस चरवाहे के सहज ज्ञान के समक्ष नतमस्तक है। लोकभाषा के धरातल से पृथक हिंदी (खड़ी बोली) को कृत्रिम भाषा बनाने पर तुले महाज्ञानियों को यह एहसास कब होगा? कब भाषा के स्वरूप-निर्धारण पर अंतिम मुहर उसका प्रयोग करने वाले सामान्यजन यानी किसानों और मजदूरों के हाथों से लगनी शुरू होगी? विश्व के सबसे बड़े जन-समूह की भाषा के रूप में आज हिंदी, बोलने और समझने वालों की संख्या की दृष्टि से, प्रथम विश्वभाषा है। चीनी और अंग्रेजी का स्थान हिंदी के बाद ही है, क्योंकि चीनी में साम्यवादी तानाशाही दबाव में अन्य भाषाओं को ऐसे समा लिया गया है, जैसे हिंदी के साथ उर्दू, बंगला, असमिया, गुजराती, पंजाबी आदि भाषाओं को जोड़ दिया जाय। विश्व की सबसे अधिक बोली और समझी जानेवाली भाषा होकर भी हिंदी आज विश्वभाषा अगर नहीं बनी है तो सिर्फ इसलिए कि यह दीनों और असहायों की भाषा मानी मानी जा रही है और इसका ‘पोषण' करने वालों से इसका ‘शोषण' करने वाले अधिक हैं।
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