नये पुराने (अनियतकालीन, अव्यवसायिक, काव्य संचयन) मार्च, 2011 बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता पर आधारित अंक कार्यकारी संपादक अवनीश स...
नये पुराने
(अनियतकालीन, अव्यवसायिक, काव्य संचयन)
मार्च, 2011
बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता
पर आधारित अंक
कार्यकारी संपादक
अवनीश सिंह चौहान
संपादक
दिनेश सिंह
संपादकीय संपर्क
ग्राम व पोस्ट- चन्दपुरा (निहाल सिंह)
जनपद- इटावा (उ.प्र.)- 206127
ई-मेल ः abnishsinghchauhan@gmail.com
सहयोग
ब्रह्मदत्त मिश्र, कौशलेन्द्र,
आनन्द कुमार ‘गौरव', योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम'
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बातचीत प्रस्तुति - जयप्रकाश मानस
नवगीत नयी कविता की प्रतिक्रिया नहीं,
स्वयं नयी कविता है
बुद्धिनाथ मिश्र
आप लेखन की ओर कैसे प्रवृत्त हुए? उस दरमियां लेखन की कितनी चुनौतियाँ थी? तब और आज के साहित्यिक समाज को आप किस रूप में पाते हैं?
मेरा परिवार संस्कृत के विद्वानों का परिवार रहा है। आर्थिक दृष्टि से विपन्न होते हुए भी मेरे बाबा अपना गुरुकुल चलाते थे, जिसमें छात्रों को भोजन-आवास की सुविधा निःशुल्क दी जाती थी। दरभंगा जिले में सैकड़ों वयोवृ( पंडित आज मिल जायेंगे, जिनकी शिक्षा-दीक्षा के गुरु और संरक्षक मेरे बाबा थे। मेरे पिताजी भी गणित, ज्योतिष के प्रकांड विद्वान थे। गणना करके भूमि के नीचे पड़ी वस्तुओं का ज्ञान कर लेने में उन्हें महारत हासिल थी। मेरे गाँव में विद्वान उसे ही माना जाता था, जिसने संस्कृत में आचार्य किया हो। बचपन में मैंने देखा कि मुण्डन, जनेऊ, विवाह आदि सभी मंगल कार्यों में विद्यापति के पद ही गाये जाते थे। यहाँ तक कि खेतिहर मजदूरों से लेकर शिवालय के पुजारी तक जितने गीत गाते थे, सभी ‘विदापत' या ‘तिरहुता' ही होते थे। तिरहुत क्षेत्र में गाया जाने वाला गीत तिरहुता और उसके रचयिता विद्यापति, जो स्वयं संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। लोक और शास्त्र का जितना प्रगाढ़ सम्मिलन मिथिला क्षेत्र में है, उतना अन्यत्र कहीं नहीं। संस्कृत की एक प्रसिद्ध उक्ति भी है कि धर्म का तत्व मिथिला के व्यवहार से जानिए।
1958 में संस्कृत पढ़ने के लिए अपने बड़े भाई साहब के साथ मैं काशी आया और दशाश्वमेध घाट के पास मान मंदिर मुहल्ले में रहने लगा था। दिन भर ‘कौमुदी' के सूत्रों और ‘अमरकोश' के श्लोकों का रट्टा मारने के बाद शाम को दशाश्वमेध घाट पर घूमने जाता था। वहाँ एक व्यासजी महाभारत की कथा सुनाया करते थे। उनका कथा-वाचन इतना जीवंत होता था कि महाभारत के सारे पात्र आँखों के सामने उभर उठते थे। रामचरित मानस की चौपाइयाँ काशी की गलियों में गूँजा करती थीं। उन दिनों विश्वनाथ मंदिर के पीछे ज्ञानवापी के प्रांगण में (जो आज पूरी तरह पी.ए.सी. का बैरक बन गया है!) मानस पर संतों-आचार्यों के व्याख्यान नियमित रूप से हुआ करते थे। आचार्य रामकिंकर उपाध्याय और स्वामी करपात्रीजी के प्रवचन सुनने के लिए दूर-दूर से लोग आते थे। उनकी मौलिक व्याख्याएँ मानस की चौपाइयों में नये अर्थ भर देती थीं। उन्हीं दिनों मैंने पाया कि मैं भी सूर-तुलसी की तरह भक्ति के पद लिखने लगा हूँ। चूँकि पंडित मंडली में हिन्दी कविता लिखना या ‘रजनी-सजनी' यानी कविता-कहानी पढ़ना हेय माना जाता था, इसलिए मेरी वह प्रवृत्ति आगे नहीं पनप सकी। चार वर्ष बाद जब मैं गाजीपुर के एक प्रसिद्ध गाँव रेवतीपुर की संस्कृत पाठशाला में पढ़ने गया, तो वहाँ दिन में कक्षा लगती थी और रात में दो-दो बैंचों को जोड़कर छात्र बिस्तर लगा लेते थे। मुझे जगह मिली पुस्तकालय में। पुस्तकालय की अलमारियों की चाभी जिन अध्यापक के पास होती थी, वे मुझे बहुत मानते थे। इसलिए उनसे चाभी लेकर मैं रात-रात भर पुस्तकों को पढ़ने लगा। उन दिनों कवियों में पंत, महादेवी के गीत और दिनकर की ओजस्वी कविताएँ ज्यादा लोकप्रिय थीं। उस वातावरण में रहकर मेरी काव्य-प्रवृत्ति पुनः सिर उठाने लगी। मेरी पहली कविता चीनी आक्रमण के समय ‘आज' के ‘बाल संसद' स्तंभ में छपी थी- ‘आँखें लाल दिखाते क्यों?' चूँकि पंडित मण्डली में किसी छात्र का कवि होना पथभ्रष्ट होना माना जाता था, और मेरी प्रतिष्ठा एक मेधवी छात्र के रूप में थी, जो एक ही वर्ष में दो वर्षों की परीक्षा देने जा रहा था, इसलिए मेरे कवियाने से गुरुओं को धक्का लगता। इसलिए मैंने वह कविता अपने एक ऐसे सहपाठी के नाम से भेजी थी, जो विद्यालय के चंदे की रसीदों के बचे हुए अधपन्ने की पीठ पर कविता लिखता था और चार-पाँच वर्ष में एक कक्षा उत्तीर्ण करता था। जब कविता छपी, तो हम दोनों ने गाँव में जाकर देवी माई की पूजा की। उसके चार-पाँच वर्षों के बाद 1966 में मेरा पहला लेख ‘श्यामा चकेबा' दैनिक ‘आज' में छपा और पहला गीत ‘मैं चला पागल' पटना की ‘ज्योत्स्ना' पत्रिका में छपा। इस प्रकार बेहद प्रतिकूल वातावरण में मेरी साहित्यिक यात्रा शुरू हुई।
मैं समझता हूँ, जिस दौर में आपने लेखन शुरू किया, वह गीत के चुकने और कविता के जमने का समय जैसा था। फिर भी आपने गीत को ही प्रमुख विध के रूप में चुना। जोखिम उठाने के इस निर्णय में गीत (विध) का आकर्षण था या फिर नई कविता से विकर्षण?
जब मैंने लिखना शुरू किया, तब गीत चुकने लगा था, यह कहना सही नहीं है। युगीन साहित्य की प्रगति किसी दो-चार नाकाम व्यक्तियों के फतवे से बाधित नहीं होती। 70 के आस-पास जब मैं गीत लिख रहा था, तब ‘नवगीत' अपने उत्कर्ष पर था। शंभुनाथ सिंह, वीरेन्द्र मिश्र, उमाकांत मालवीय, ठाकुर प्रसाद सिंह, रमानाथ अवस्थी, माहेश्वर तिवारी, रमेश रंजक आदि तमाम कवि अच्छे गीत रच रहे थे और ‘र्धमयुग', ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान' जैसी केन्द्रिय पत्रिकाएँ पूरे सम्मान के साथ उन्हें छाप रहीं थी। दिनकर और बच्चन जरूर हार-थक मुक्तछन्द की कविताएँ लिखने लगे थे, मगर उन दोनों की गीत-कविताएँ पूरे वातावरण को झंकृत कर रहीं थीं। सुमित्रानन्दन पंत और महादेवी वर्मा के अलावा रामकुमार वर्मा, शिवबहादुर सिंह भदौरिया और जानकी वल्लभ शास्त्री जैसे विराट पुरुष गीत-नौका की पतवार बने हुए थे। पूरी भारतीय काव्य-परम्परा गीत-विध के पीछे खड़ी थी। मुक्तछन्द कविता की फुलझड़ियों से कुछ चेहरे जरूर चमक उठते थे, मगर वह क्षण भर की झलक मात्र थी।
मेरे रचनाकार के समक्ष आदर्श रूप में विद्यापति, कबीर-तुलसी-सूर-मीरा, प्रसाद-निराला-पंत-वर्मा और दिनकर-बच्चन थे। जिसका बचपन कालिदास के श्लोकों, विद्यापति के गीतों और तुलसी की चौपाइयों में रम चुका हो, वह वादों और चमत्कारों से कभी प्रभावित कैसे होता? त्रिलोचन, धूमिल मेरे साथ-साथ चल रहे थे। कभी किसी ने एक दूसरे का अनादर या उपहास नहीं किया। मैंने मुक्तछन्द कविता की परेशानियों को करीब से देखा है। धूमिल की कविताओं की पाण्डुलिपियाँ गाय की पीठ पर पड़ी अनगिनत साटों की तरह बेतरह कटी-पिटी होती थीं। गीत के शब्द छंद के साँचे में ढले हुए आते हैं, इसलिए उसे बार-बार सुधरने की न तो जरूरत थी, न गुंजाइश ही।
कदाचित आप भी सहमत होंगे कि आज के मंचीय गीतकारों ने पठनीयता को खासकर पाठकीय स्वाद को विकृति के मुकाम तक पहुँचा दिया है। वहाँ गीतकार के पक्ष में सस्ती प्रशंसा तो है पर गंभीर और साहित्यिक अनुशंसा क्षीण है। एक गीतकार के रूप में आप मंच को कितनी और किस हद तक मान्यता देते हैं? नीरज आदि बड़े गीतकार शायद इसलिए आज लगभग पार्श्व में हैं...
अगर आप हिन्दी काव्य मंच के इतिहास पर नजर डालें तो आप पाएँगे कि कवि सम्मेलन को ग्लैमर गीतकारों ने दिया। गोपाल सिंह नेपाली, हरिवंश राय बच्चन, रमानाथ, रामावतार, नीरज जैसे गीतकारों ने श्रोतावर्ग तैयार किया। बलवीर सिंह रंग, मुकुट बिहारी सरोज, वीरेन्द्र मिश्र, भवानी प्रसाद मिश्र और रूप नारायण त्रिपाठी जैस रचनाकारों ने काव्यमंचों तक काव्य मर्मज्ञ श्रोताओं को पहुँचाया। रमई काका, गोपाल प्रसाद व्यास, काका हाथरसी, सूँड फैजाबादी जैसे हास्य कवियों ने कवि सम्मेलनों को रोचक बनाने में योगदान किया। कवि सम्मेलनों की बढ़ती लोकप्रियता ने नवधनाढ्यों को आकृष्ट किया, जिनके पास दो नम्बर के पैसे बहुत आ गये थे। फिर खेल शुरू हुआ दो नंबर के पैसे पर दो नंबर के कवियों की कलाकारी का। हर शहर में रामरिख मनहर पैदा हो गये। देखते ही देखते कवि सम्मेलन कपि सम्मेलन में बदल गया। उसकी प्राथमिकताएँ, उसकी नीयत, उसकी पहचान- सब कुछ बदल गयी। ऐसे में मंच पर नीरज जैसे स्वनामधन्य गीतकारों को भी सींग तुड़ाकर पाड़ों में शामिल होना पड़ा और लतीफों-चुटकुलों के वर्चस्व में अपनी खुरचन वाली दोयम दर्जे की ग़ज़लों से काम निकालना पड़ा। मंच पर आज श्रृंगार-गीत भी भारत भूषण, सोम ठाकुर, किशन सरोज की तरह भावविह्ल कर देने वाले नहीं, कोकशास्त्र के चित्रों की तरह श्रोताओं को स्खलित करते हैं। शिक्षा संस्थानों में आयोजित कवि सम्मेलनों की दशा सार्वजनिक कवि सम्मेलनों से भी बुरी है। कुंजी पढ़कर डिग्री हासिल करने वाले, स्वार्थ और अहंकार के पुतले अध्यापकों की नयी पीढ़ी ने छात्रों में कविता की समझ पैदा नहीं होने दी। पाठ्यक्रमों में कथित प्रगतिशील कविताओं की घुसपैठ ने हिन्दी साहित्य के भविष्णु छात्रों के मन में कविता के प्रति अरुचि और आतंक पैदा कर दिया। काव्य-रस से अपरिचित नयी पीढ़ी हास्य कलाकारों की मिमिकरी और लतीफेबाजी को ही कविताई समझने लगी। ऐसे कलाकारों को जब अपने से ज्यादा प्रतिष्ठा और मानदेय पाते देखता हूँ, तो बेहद ग्लानि होती है। इसलिए ऐसे कवि सम्मेलनों में जाने के बजाय ओएनजीसी तथा अन्य सरकारी संस्थानों में स्वयं काव्योत्सव आयोजित करता हूँ, जिनमें श्रोताओं को कविता और सिर्फ कविता प्राप्त होती है। ऐसे श्रोताओं की कमी भी नहीं है। जरूरत केवल नये सिरे से कविता-पाठ को सजाने की है। मसलन, दो-तीन गीतकारों का काव्यपाठ और फिर उनके गीतों की अच्छे गायक-गायिकाओं द्वारा सांगीतिक प्रस्तुति। इससे सामान्य श्रोताओं में कविता के प्रति नया आकर्षण पैदा होगा। शब्द और स्वर दोनों का भरपूर आनंद उन्हें मिलेगा। स्कूलों-कॉलेजों में भी कवियों की बारात न बुलाकर एकल काव्यपाठ की परंपरा शुरू की जाय, जिसमें एक नामी कवि के साथ दो स्थानीय स्तर के नये हस्ताक्षर हों। इससे गीतकारों की नयी पीढ़ी विकसित होगी, कविता का विकास होगा और कवि सम्मेलनों के नाम पर होने वाले अनाप-शनाप खर्च बंद होंगे। तभी गीतकारों को अपनी पुरानी प्रतिष्ठा हासिल होगी और श्रोताओं को ब्रह्मानंद सहोदर सुख देने वाली कविाताएँ। जो इस आनंद का रस चख लेगा, उसे लतीफों वाली हँसी तुच्छ लगेगी।
आज नई प्रौद्योगिकी का बोलबाला है। ऐसे में इलेक्ट्रानिक और वेब माध्यमों में गीत-नवगीत के प्रसार के क्या-क्या कदम जरूरी हो सकते हैं?
गीत किताबों की तिजोरी में भरकर रखने की चीज नहीं है। यह दृश्य-श्रव्य विध है। इसलिए गीत संग्रहों में इसे ठूँसकर आत्ममुग्ध होने की जगह गीतकारों को अपने गीतों को अधिक से अधिक प्रसारित करने पर बल देना चाहिए। आज इलेक्ट्रानिक मीडिया के बढ़ते प्रभाव ने पाठकों की आबादी बहुत घटा दी है, जबकि दर्शक-श्रोताओं की संख्या बढ़ा दी है। ऐसे में टी.वी. चैनल हमारे लिए सहायक हो सकते हैं। दो दशक पहले तक देश के सैकड़ों आकाशवाणी केन्द्रों ने अत्यंत निष्ठापूर्वक अच्छी कविताओं को लगातार प्रसारित कर श्रोताओं को संस्कारित करने का ऐतिहासिक योगदान दिया था। आकाशवाणी के पदचिह्नों पर थोड़ी दूर तक दूरदर्शन भी चला, मगर आगे चलकर उसके पाँव फिसलने लगे। प्राइवेट टी.वी. चैनलों ने तो जैसे प्रदूषण फैलाकर पैसे कमाने की ही ठान ली है। उसके मालिक प्रवृत्ति से अर्थपिशाच हैं। वे नहीं जानते कि देश-समाज-परिवार का कितना नुकसान कर रहे हैं। घर-घर में इन चैनलों के मार्फत कुवृत्तियों का कूड़ा-कचरा उड़ेला जा रहा है। कोई इस गंदगी को रोकने के लिए आगे नहीं आ रहा है। इसके बाद एक और माध्यम बचा है सीडी-डीवीडी बनाकर काव्यप्रेमियों तक पहुँचने का, मगर उसकी ओर बड़े कारपोरेटों और बड़े संस्थानों का पूरा ध्यान नहीं गया है। गीत की गायकी भी गजल की गायकी की तरह प्रशस्त नहीं है। उसे प्रशस्त बनाने के लिए दिशा-दिशा से कदम उठने चाहिए। सुना है कि गजल और भजन की गायकी में चरम बिन्दु तक पहुँचे बहुत से गायक अब गीतों में हाथ आजमाना चाहते हैं। यह शुभ लक्षण है दोनों के लिए। नगर-नगर में यह प्रयास होना चाहिए कि प्रतिभाशाली स्कूली छात्र-छात्राओं के स्वर में अच्छे गीत रेकार्ड किए जाएँ और उन्हें स्मृति चिह्न के रूप में, उपहार के रूप में भेंट किया जाए। छोटे-छोटे कस्बों में भी अब स्टूडियो की सुविधा उपलब्ध होने लगी है। इसलिए इलेक्ट्रानिक माध्यमों का उपयोग गीतों के प्रचार-प्रसार में बढ़ना ही चाहिए। गीतों को विश्व स्तर पर प्रचारित करने में वेब माध्यमों की भूमिका क्रांतिकारी हो सकती है। इसी माध्यम से हम टी.वी. चैनलों की गंदगी के विकल्प में अच्छा काव्य जन-जन तक पहुँचा सकते हैं। वेब माध्यम अभी किशोरावस्था में हैं, लेकिन इसमें संभावनाएँ अनंत और असीम हैं। ‘अभिव्यक्ति', ‘गर्भनाल', ‘सृजनगाथा', ‘हिन्दभारत', ‘काव्यकोश' आदि हिन्दी के वेबसाइट इस दिशा में अच्छा कार्य कर रहे हैं। इन वेबसाइटों से सुरुचि-सम्पन्न लोग जुड़ें, अच्छी कविता रची जाय, गुनी जाय, सुनी जाय और देखी भी जाय- तो गीत की सहस्रधरा धरती पर फिर फूट निकलेगी। देश की बंजर होती जा रही धरती धीरे-धीरे फिर से हरी-भरी हो जायेगी।
साहित्य जगत में आपके नाम का जिक्र होते ही ‘जाल फेंक रे मछेरे!' जैसी पंक्तियाँ अंतस में गूँजने लगती हैं। आपके अन्य गीतों की ओर बाद में सुधि आती है। कहते हैं एक ही रचना काफी होती है रचनाकार की लोकख्याति के लिए। आपकी अन्य गीत रचनाएँ भी चर्चित-प्रशंसित रही हैं। फिर आप कई विधओं में लिखते रहे हैं। ऐसा अक्सर क्यों होता है कि रचनाकार की कुछ रचनाएँ सदैव याद रहती हैं, शेष पार्श्व में चली जाती हैं? इसके बरक्स रचनाकार, पत्रिका के संपादक, आलोचक, पाठक की भूमिका कैसी होनी चाहिए?
रचना भी संतान की तरह होती है। पुत्र-पुत्री औरस यानी शरीर से उत्पन्न होते हैं और कविता मन से। इसलिए इसे मानसी कहा गया है। सरस्वती भी मानसी ही हैं, ब्रह्मा के मन से उत्पन्न। संतानों की तरह रचनाओं का भी भाग्य, उत्थान-पतन और अंत होता है। 1969 में जिस गीत को लेकर मैं काव्य मंच पर उतरा था, वह था-
नाच गुजरिया नाच/ कि आयी कजरारी बरसात री
सतरंगे सपनों में झूमीं/ आज अन्हरिया रात री।
पावस का यह नृत्य-गीत अपनी धवन्यात्मकता के कारण बेहद लोकप्रिय हुआ। उसी गीत ने मुझे कवि सम्मेलनों का लाड़ला कवि बनाया। 1971 में जब ‘जाल फेंक रे मछेरे!' लिखा तो कुछ ही दिनों के बाद ‘र्धमयुग' में छपा और फिर देखते ही देखते मैं अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी जगत का जाना-पहचाना नाम हो गया। एक सपूत की तरह इस गीत ने अपार ख्याति और धनराशि मुझे दिलायी। बाद के गीत ‘एक प्रतिमा के क्षणिक संसर्ग से', ‘गान्धरी जिन्दगी', ‘ये तुम्हारी कोंपलों-सी नर्म बाहें', ‘सरस्वती', ‘चैतगीत', ‘आर्द्रा', ‘यह भी सच है' जैसे तमाम श्रेष्ठ गीत मैंने लिखे, मगर ‘जाल फेंक रे मछेरे!' की ऊँचाई को कोई नहीं पा सका। उसका एक कारण यह भी है कि जो अनुकूल वातावरण ‘जाल फेंक रे मछेरे' को मिला, वह परवर्ती गीतों को नहीं मिला। गीतों के लिए सबसे कठिन दौर आज का है, जब संवेदनशीलता के रिसते जाने के कारण काव्य-प्रेमियों की संख्या बेहद घटती जा रही है। प्रारंभ में मैं लेख और कहानी लिखता था। दो-एक लघु उपन्यास भी लिखे, जो अभी तक अप्रकाशित हैं। न जाने कहाँ किस स्थिति में वे पाण्डुलिपियाँ होंगी! बार-बार शहर बदलने और कार्यालय के कामों में अतिव्यस्त रहने, परिवार के किसी भी सदस्य में साहित्य की समझ न होने के कारण बहुत से महत्वपूर्ण साहित्यकारों के पत्र, बहुत सारी अधूरी-पूरी रचनाओं की पाण्डुलिपियाँ नष्ट हो गयीं। जो हैं भी, उनकी देखभाल करने का समय अब रिटायर होने के बाद निकाल पाया हूँ।
विस्मृति मनुष्य का आवश्यक दोष भी है और गुण भी। गुण इस अर्थ में कि यदि लोग सब कुछ याद रखने लगें, तो चंद दिनों में ही पागल हो जाएँ। दोष इस अर्थ में कि इसके कारण आदमी अच्छी चीजों को भी खो देता है। वेदों को, स्मृतियों को और आयुर्वेद सहित सारे शास्त्रों को छन्दोबद्ध इसीलिए किया गया कि इससे वे याद रह सकें। उसके लिए विधयिाँ भी बनायी गयीं। लिपि और मुद्रण के आविष्कार ने अच्छी-बुरी बातों को चिर-संचित रखने में अत्यधिक सहयोग किया। ‘देसिल बयना' यानी लोकभाषा के प्रथम सुकवि विद्यापति के पदों को समाज में जीवंत रखने के लिए मिथिला नरेश के सभासद संगीतज्ञों ने उन्हें संगीतबद्ध किया। कबीर-सूर-तुलसी-मीरा जैसे संत कवियों के पदों को भी वैष्णव भक्तों ने गा-गाकर प्रचारित किया। वर्तमान समय के सबसे प्रतापी कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने न केवल अपने गीतों को संगीत में बाँध, बल्कि उनके नाजुक मिजाज के अनुरूप वाद्ययंत्रों का भी निर्धारण किया।
किसी भी उत्साही गायक को यह हक नहीं था कि वह रवीन्द्र संगीत में निर्धरित यंत्रों से इतर वाद्ययंत्रों का प्रयोग करे। तुलसी की चौपाइयाँ अपने सामाजिक सरोकारों के कारण घरेलू वस्तु की तरह प्रयुक्त होने लगी, जिससे काल उनका कुछ बिगाड़ नहीं सका। रवीन्द्रनाथ ने इतना लिखा मगर आज बंगाली समुदाय में भी उनके कुछ ही गीत प्रयोग में हैं। आधुनिक हिन्दी में उस तादाद में विविधतापूर्ण रचना देनेवाला एक भी मौलिक साहित्यकार नहीं हुआ। जिसने भी लिखी है अल्पमात्रा में ही, मगर उसे भी सँजोकर-सजाकर रखनेवाला कोई नहीं। पत्र-पत्रिकाएँ या तो बड़े-बड़े व्यवसायियों द्वारा चलायी जाती हैं या अल्पप्राण यशःप्रार्थी साहित्यकारों द्वारा! एक के पास दृष्टिकोण नहीं है, दूसरे के पास सामर्थ्य नहीं। इसलिए अच्छी रचनाओं को, अपने समय की चर्चित रचनाओं को चुनकर-समेटकर आगे की पीढ़ी को सौंपने की कोई परम्परा अभी तक भारतीय समाज में विकसित नहीं हुई है। रचनाकार-प्रकाशक-सम्पादक-समीक्षक-पाठक मिलकर एक सारस्वत श्रृंखला बनाते हैं। इनमें कोई भी कड़ी कमजोर होने पर बात आगे नहीं बढ़ेगी।
साहित्य में नवगीत, गीत का अगला कदम है या नया कदम? दोनों के मध्य विधगत सीमा-रेखा खींची जा सकती है, तो वह किस तरह? कितना ‘नव और कितना गीत'। नवगीत गीत से एक स्वतंत्र और पृथक विध के रूप में अपनी सार्थकता किस तरह सिद्ध करने में सक्षम है? कुछ समीक्षकों ने नवगीत को ‘समकालीन गीत' कहा है तो कुछ ने ‘आधुनिक गीत' या ‘नया गीत' या फिर ‘साठोत्तर गीत'। आपका निजी मंतव्य क्या है? ऐसे में गीत और नवगीत का निजी भविष्य क्या होगा?
हर युग अपनी परिस्थिति के अनुरूप काव्य-विधाओं को भी नये साँचे में ढालता है। ‘नवगीत' नाम निरर्थक नहीं है। यह गीत के नये स्वरूप का द्योतक है, जो कथ्य, शिल्प, शब्द और छन्द की दृष्टि से पारम्परिक गीतों से अलग है। यह गीत का नया कदम है, अपने को समकालीन बनाये रखने की दिशा में। नवगीत गीत की अगली पीढ़ी है, जिसमें पुरानी परम्परा के गीतों के मूल तत्व तो हैं, बहुत कुछ नये भी हैं। नवगीत को गीत से पृथक स्वतंत्र विध कम से कम अभी नहीं कहा जा सकता। वह गीत के विशाल परिवार की, जिसमें श्लोक भी हैं, सवैये भी, लयात्मक तुकरहित कविताएँ भी, एक प्रशाखा मात्र है। जो नवगीत लिखते हैं, वे गीत भी लिखते हैं। ‘समांतर गीत', ‘जनवादी गीत', ‘साठोत्तरी गीत' आदि विष्णु सहस्रनाम की तरह उसी एक तत्व के विभिन्न व्यक्तियों द्वारा दिए गये नाम हैं। जो लोग रचना-कर्म से गहराई से जुड़े हैं, उनके लिए इन अपर नामों से कोई वास्ता नहीं है। मेरा कोई भी संग्रह शुद्ध रूप से नवगीत संग्रह नहीं है। उसमें गीत भी हैं, नवगीत भी।
समकालीन कविता के पक्षधरों का तर्क है कि गीत में कथ्य-विविधता की कम संभावना होती है। वहाँ निजता अधिक, सार्वजनिक भावबोध कम है। यह कितना सही है? इसमें कविता के आलोचकों की कितनी कमजोरी छिपी हुई है?
समकालीन कविता तो गीत ही है, जो चंदवरदाई की तरह यु( भी करता है और यु( में प्रेरित करने के लिए साथा के सैनिकों को ललकारता भी है। जो लोग यु(भूमि में तैनात सिपाहियों को उनकी बदहाली के बारे में बता रहे हैं, वे निहायत गैर-जिम्मेदार और स्वार्थ-लोलुप लोग हैं। इसीलिए तमाम शीर्षासनों और अनुलोम-विलोमों के बावजूद छन्दमुक्त कविता पिछले पाँच दशकों में भारतीय समाज की सहभागी नहीं बन सकी, क्योंकि चींटी की तरह वह भी राजमहल में भी छिद्र ही ढूँढती है।
गीत में कथ्य विविधता तो है, मगर सीमित है। सारे कथ्य अगर गीत ही समेटने लगेगा तो साहित्य की अन्य विधाएँ (कहानी, नाटक, ललित निबंध आदि) क्या झख मारेंगी? छन्दमुक्त कवियों की स्थिति उस गंजे की तरह है, जिसे यह नहीं मालूम कि मुँह कहाँ तक धोया जाए। गीत-गीत है, नाट्य संवाद, नाट्य संवाद। छन्दमुक्त कविता डाल से टूटे नाट्य संवाद हैं। ये छन्दमुक्त कविताएँ यदि श्रोताओं को प्रभावित करती हैं, तो संवाद के नाटकीय तत्वों के कारण। इसलिए इन्हें ‘कविता वर्ग' में जबर्दस्ती घुसेड़ने के बजाय, ‘नाट्य' वर्ग में रखा जाए। हिन्दी में वैसे भी नाटक बहुत कम लिखे जाते हैं। इन छन्दमुक्तों को एकांकी, ट्रेजडी आदि की तरह ‘संवादिका' नाम से नाट्य वर्ग में धकेल दिया जाए तो कविता के साथ न्याय होगा। गीतों की निजता एक सार्वभौम निजता है। वह एक दिल से निकलकर हजार दिलों की अभिव्यक्ति बन जाता है।
प्रेम, करुणा या आक्रोश सभी संवेदनशील मनुष्यों का स्थायी भाव है। इसलिए इस प्रकार के भावों को व्यक्त करनेवाला गीत व्यष्टि से शुरू होता है और समष्टि तक जाता है, जैसे गंगा गोमुख से चलकर गंगासागर तक जाती है। कविता के आलोचकों ने जब से उधर विचारों और सिद्धान्तों का चश्मा पहन लिया है, उन्हें न अपनी धरती और न उस धरती के लोग दिखाई देते हैं। वे एक यूटोपिया में जी रहे हैं। इसलिए गीतकार उनका मुँह देखकर अपनी दिशा नहीं तय कर सकता। बैसाखियों के सहारे चलने वाले विकलांग लोग कुशल धावकों के पीछे-पीछे चल सकते हैं, आगे नहीं।
आप नवगीत को नयी कविता की प्रतिक्रिया मानते हैं या नहीं? यदि हाँ तो क्यों और नहीं तो क्यों?
नवगीत नयी कविता की प्रतिक्रिया नहीं, स्वयं नयी कविता है- नव (= नयी), गीत (= कविता)। प्रारंभ में जब नवगीत का अपना कारवाँ नहीं बना था, तब नयी कविता के प्रणेता ही नवगीत लिख रहे थे। नवगीत विध जब टहनी से डाल बनी, तो उसे स्तनपान करानेवाली धाइयाँ पीछे छूट गयीं। यही सच है।
प्रशासनिक उत्तरदायित्वों के बीच आप अपनी सृजनात्मक दिनचर्या को किस तरह साध लेते थे?
द'फ्तर में मैं साहित्यिक चर्चा भी पसंद नहीं करता था, वहाँ बैठकर लिखना तो दूर की बात थी। घर को भी मैंने बड़े जतन से घर ही बनाकर रखा। इसलिए वहाँ भी पूरा घरेलू और पारिवारिक वातावरण रहता है। वहाँ पत्नी, बेटा, पतोहू, पौत्री, समय-समय पर सुहानी पुरवा के झोंके की तरह आये बेटी-दामादों और नाती-नातियों से एक घर के अभिभावक की तरह घुला-मिला रहता हूँ। इसलिए अधिकतर लेखन कार्य यात्राओं के दौरान ही होता रहा। कभी-कभी रेल की यात्रा और ज्यादातर विमान यात्राएँ। विमानों का इन्तजार करते समय एयरपोर्ट का आरामदेह, एकांत और कवि सम्मेलनों के लिए रेलवे के स्लीपर क्लास का भीड़ भरा कोलाहल- दोनों स्थितियों में ध्यानमग्न होकर लिखना मेरे लिए सहज-सम्भाव्य है। कभी-कभी छुट्टी के दिन यदि घर पर रहता था तो ब्रह्म मुहूर्त यानी 3-4 बजे सुबह उठकर लिखने का प्रयास करता था।
एक ओर आपको विदेश से पुश्किन सम्मान जैसा प्रतिष्ठित पुरस्कार मिलता है, दूसरी ओर अपने ही देश में वह पुरस्कार नहीं मिल पाता जिसके आप हकदार हैं। इसे आप किस तरह लेते हैं?
साहित्यिक पुरस्कारों को मैं सिर्फ अपने सुहृद मित्रों और शुभेच्छुकों के सौहार्द का प्रसाद मात्र मानता हूँ। एक अच्छी रचना हो जाने के बाद जो आनंद मिलता है, उसका हजारवाँ हिस्सा भी पुरस्कार या सम्मान से नहीं मिलता। साहित्यकारों का सम्मान इन दिनों जिस तरह थोक के भाव किया जाता है और जिस प्रकार का एक नया धंधा ‘सम्मान का व्यवसाय' विकसित हो रहा है, उससे भी मैं बहुत क्षुब्ध हूँ। जो लोग ठीक से कलम भी नहीं पकड़ पाये हैं, वे भी वामन से विराट बनने की ख्वाहिश में न जाने कहाँ-कहाँ की नकली अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं का ‘प्रशस्ति पत्र' लेकर अपने शहर के अखबारों में सचित्र समाचार छपवाते हैं और सड़कों से लेकर सभाओं तक इतराते चलते हैं। इसे देखकर सचमुच बहुत ग्लानि होती है। ऐसे व्यक्ति दूसरों को छलने की कोशिश में अपनी आत्मा को छलते हैं।
मैं किसी पुरस्कार को पाने के लिए नहीं लिखता। पुरस्कार खुद-ब-खुद मुझ तक आये हैं, मैं उनके पास कभी नहीं गया। बल्कि सच कहूँ तो बहुत से लखटकिया पुरस्कारों के निर्णायकों में मैं रहता हूँ, मगर इसे प्रचारित नहीं करता। दूसरों को अपार वैभव लुटाने वाले शिव स्वयं शमशान में रहते हैं और आक-धतूरा खाते हैं। मेरे लिए सबसे बड़ा पुरस्कार वह क्षण होता है जब देस-परदेस में कोई अपरिचित साहित्य-प्रेमी मेरे गीतों की पंक्तियाँ अनुराग-पूर्वक गुनगुनाने लगता है। यह सौभाग्य गीतकारों को ही मिलता है। इस पुरस्कार के आगे दुनिया के बड़े से बड़े पुरस्कार की क्या कीमत?
आप स्वयं को कितना प्रगतिशील और कितना अप्रगतिशील मानते हैं? भारतीय परिप्रेक्ष्य में प्रगतिशीलता की परिभाषा और मूल्य में अब परिवर्तन दिखाई देने लगा है, यह भविष्य के परिप्रेक्ष्य में किस बात का लक्षण हो सकता है?
प्रगतिशीलता का अर्थ यदि सियारों की तरह समूहबद्ध होकर ‘हुआ-हुआ' करना है, तो मैं कतई प्रगतिशील नहीं हूँ। मैं अपनी दृष्टि से हर मत-विचार-बिम्ब-प्रतीक-शब्द- शैली को आँकता हूँ और अपना काव्य-संसार स्वयं रचता हूँ। परम्परा मुझे ऊर्जा देती है, बाध नहीं। मेरी दृढ़ धरणा है कि साहित्यकार जितना बड़ा होगा, उतना वह अकेला होगा। संघबद्ध होकर सृजन नहीं किया जा सकता है। इसलिए प्रगतिशील होते हुए भी मैं प्रगतिशीलता की छाप-तिलक को खारिज करता हूँ।
युवा गीतकारों के लिए आप कुछ खास कहना चहेंगे?
युवा गीतकारों से मैं यही कहना चाहूँगा कि जिन दिनों मैंने गीत-लेखन शुरू किया था, उन दिनों भी राजनीतिक शिविरबद्धता का आकर्षण और छोटे-मोटे प्रचार का लोभ मौजूद था। मगर मैंने उनका तिरस्कार कर शब्द-साधना का लम्बा रास्ता चुना, जिसके लिए धैर्य, अध्यवसाय की आवश्यकता थी। वे युवक सौभाग्यशाली हैं जो लतीफेबाजी की शार्टकट सफलताओं से मुँह फेरकर शाश्वत मूल्यों की कालजयी रचनाओं के सृजन के लिए प्रतिबद्ध हैं। वे अपने संकल्प पर दृढ़ रहें, निरन्तर पढ़ते रहें, लिखते रहें। भविष्य में वही टिमटिमायेंगे, बाकी सभी तात्कालिक सफलताओं के अंधेरे में गुम हो जाएँगे।
बातचीत प्रस्तुति - वाल्मीकि विमल
हिन्दी कविता का प्रतिनिधित्व गीत ही करता रहा है
बुद्धिनाथ मिश्र
आपको गीत लेखन की प्रेरणा कहाँ, किससे मिली?
मिथिला में जो भी जन्म लेता है, विद्यापति से अलग होकर नहीं रह सकता। विद्यापति का व्यापक प्रभाव है उत्तर भारत में। जन-मन की जिह्ना पर चढ़े हैं विद्यापति के गीत। उनका गीत पढ़-सुनकर कोई भी ऐसा आदमी नहीं जो प्रभावित नहीं हुआ हो। विद्यापति की रचनाएँ अन्तर्मन को तरल और स्पंदित करने वाली हैं। दस वर्ष की आयु में बनारस संस्कृत पढ़ने गया तो वहाँ तुलसी और मीरा को सुना और आत्मसात् किया। विद्यापति, तुलसी, मीरा ही मेरे प्रेरणा के स्रोत हैं।
आपने गीत को ही अपनी रचनात्मक अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया, अभी तक कोई महाकाव्य नहीं लिखा, क्यों?
कविता का शीर्ष गीत है। आज का समय महाकाव्य का नहीं। महाकाव्य के विषय जीवन के उपयुक्त नहीं हैं। आज मोटी पुस्तकें पढ़ने का समय नहीं है किसी भी आम पाठक के पास। छोटी-छोटी चीज में बड़ी बात गीत में ही संभव है। गीत में समग्रभाव होता है, जो गजल में नहीं होता। किसी भी आंदोलन का जन्म गीत से हुआ है। भावों-विचारों को मथने के बाद ही गीत लिखा जा सकता है। मैं संस्कृत और अंग्रेजी की शिक्षा लेने के बाद हिन्दी में उतरा तो गीत लेकर। मेरी कोशिश है कि शाश्वत साहित्य दूँ। रचनाकार कालजयी नहीं होता, रचनाएँ कालजयी होती हैं। अपने आस-पास भ्रम उत्पन्न करने की मेरी कोई इच्छा नहीं है।
गीत तो गीत है पर प्रगीत, नवगीत को गीत से कैसे अलग करेंगे? क्या हिन्दी गीत आम लोगों तक पहुँच रहे हैं, अगर नहीं तो क्यों?
प्रगीत या नवगीत, गीत की विशेष अवस्थाओं का नाम है। वर्णनात्मकता होती है तो वह प्रगीत कहलाता है। दिनकर का हिमालय लम्बा प्रगीत है। नवगीत में छंद भी छोटा और बातें सिमटी होती हैं। नवगीत अलग विध नहीं। हिन्दी कविता का प्रतिनिधित्व गीत ही करता है। अभी गीत के लिए सबसे बड़ी चिन्ता की बात यह है कि वह पाठकों तक तो पहुँच रहा है, श्रोताओं तक नहीं। पहले ऐसा नहीं था। हमारी वाचिक परम्परा रही है। बंगाल में रवीन्द्रनाथ ठाकुर आज भी गाये जाते हैं, पर हिन्दी साहित्य में यह संस्कार नहीं बन पाया है, यह दुखद है। लोग अपने घर में बैठकर फिल्मी गीत की जगह साहित्यिक गीतों को गाने-सुनने की आवश्यकता महसूस करें, तब गीत अपने वैभव का दिन देख सकेगा।
कविता की लोकप्रियता के लिए उसका छंदोबद्ध होना भी एक कारक है, क्या आप ऐसा मानते हैं? मुक्तछंद कविताओं के प्रति आपकी सोच क्या है?
कविता याद न हो तब तक उपयोगी नहीं हो पायेगी। याद रखने के लिए उसका छंदोबद्ध होना जरूरी है। विगत चार दशकों में लिखी गयीं छन्दमुक्त कविताएँ जनता की जुबान पर नहीं चढ़ पायीं। अज्ञेय की कविताओं को समाज ने स्वीकार नहीं किया। मैं छन्दमुक्त कविताओं को सिरे से खारिज नहीं करता। मुक्तछंद में अच्छी-बुरी कविताएँ हैं। वैसे हिन्दी कविता का प्रतिनिधित्व गीत ही करता रहा है और आगे भी करेगा। धूमिल की छंदमुक्त कविताएँ प्रभावकारी हैं।
हिन्दी साहित्य के इतिहास का पृष्ठ पलटने पर बिहारी कवि विरले दीखते हैं। क्या सचमुच बिहारी कवियों की रचनाएँ उस स्तर की नहीं हैं, जो इतिहास में स्थान पा सकें? क्या आलोचना की कसौटी प्रांतीयता का भेद करती रही है?
हिन्दी साहित्य का इतिहास काशी-प्रयाग में लिखा जाता रहा। इसलिए वहाँ छोटे कवियों को भी बढ़ाचढ़ा कर इतिहास में स्थान दिया गया। बिहार के प्रतिभावान कवियों को हाशिए पर स्थान मिला। कितनी प्रतिभाओं को तो हाशिए भी नसीब नहीं हुए। यह बात सही है कि बिहारी कवियों का मूल्यांकन करते समय आलोचकों की कलम की स्याही सूख जाती रही है। दिनकर और नागार्जुन इसलिए जाने जाते हैं कि उनका दिल्ली आना-जाना और रहना हुआ। मुझे भी इसलिए पहचान मिली कि मैंने बनारस में पढ़ाई की। बिहार में रहता तो कोई नहीं जानता। हिन्दी साहित्य का इतिहास फिर से लिखने की जरूरत है। उसमें बिहार के कवियों-विद्वानों की चर्चा होनी चाहिए। उसमें कोताही नहीं होनी चाहिए। बिहार का मुज'रफरपुर प्रयाग से अधिक वंदनीय है, जहाँ से महाकवि आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री आते हैं। हिन्दी गद्य को समृद्ध करने वाले अयोध्याप्रसाद खत्री, देवकी नंदन खत्री, शिवपूजन, बेनीपुरी आदि श्र(ेय साहित्यकारों की यह सृजनभूमि काफी उर्वरा रही है। लहेरियासराय, पटना, गया, बेगूसराय भी हिन्दी साहित्य का भण्डार भरने में पीछे नहीं रहा है।
बुद्धिनाथजी, आप कहते हैं कि नवगीत अलग विध नहीं है, पर कुछ आलोचक किसी को प्रवर्तक घोषित करते हैं तो किसी को खारिज करते रहे हैं। उदाहरण स्वरूप कुछ आलोचक बिहार के राजेन्द्र प्रसाद सिंह को नवगीत का प्रर्वतक घोषित करते हैं, जबकि कुछ शंभुनाथ सिंह को मानते हैं। क्या आप सहमत हैं कि राजेन्द्र प्रसाद सिंह बिहारी होने के चलते प्रर्वतक के रूप में सर्वमान्य नहीं हो सके?
मैंने पहले कहा कि नवगीत अलग विध नहीं है। गीत का ही लघु रूप है। इसका प्रवर्तक होने की बात ही नहीं है। वैसे मैं किसी को प्रर्वतक नहीं मानता। राजेन्द्र प्रसाद सिंह को मैं सम्मान देता रहा हूँ, अब वे नहीं रहे। जहाँ तक नवगीत के स्वरूप का निर्धारण है तो शंभुनाथ सिंह के गीतों से हुआ है। नवगीत का मूल्यांकन वीरेन्द्र मिश्र, रमेश रंजक, शांति सुमन को छोड़कर नहीं हो सकता। गीत का मूल्यांकन करने वालों को आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री के गीतों का भी मूल्यांकन करना चाहिए, उन्होंने खूब गीत लिखे हैं। उनका मूल्यांकन न होना दुःखद है। वैसे शास्त्रीजी ने खुद की उपेक्षा की है। वह बड़ा व्यक्तित्व हैं, किन्तु उन्हें महत्व नहीं दिया गया। उनके गीतों का संग्रह आना चाहिए और नये सिरे से मूल्यांकन होना चाहिए।
बातचीत प्रस्तुति - जयकृष्ण राय ‘तुषार'
गीत रचने के लिए शब्द-साधना जरूरी
बुद्धिनाथ मिश्र
श्रीमान मिश्रजी! हिन्दी गीत से नवगीत तक का सफर आपने किस प्रकार तय किया?
मैंने जब हिन्दी में गीत लिखना शुरू किया (1969), उस समय तक हिन्दी गीत ने नवगीत का आवरण ओढ़ लिया था। दोनों में स्पष्ट अन्तर दिखने लगा था। संगम (इलाहाबाद) में गंगा और जमुना के जल की तरह। उससे पहले मैं हिन्दी कविता में हिन्दी साहित्य का एक सामान्य पाठक था। मेरी शिक्षा या तो संस्कृत में हुई या अंग्रेजी साहित्य में। खड़ी बोली की कविताओं में मैं मुख्यतः मैथिलीशरण गुप्त, प्रसाद, पंत, दिनकर और बच्चनजी को पढ़ चुका था। निराला को रामचन्द्र शुक्ल ने बहुत अधिक महत्व नहीं दिया था। नवगीतकारों के बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं थी। काशी के मंचों पर प्रथम बार जिस गीत को लेकर मेरा पदार्पण हुआ था, वह था 'नाच गुजरिया नाच'। यह कहीं से भी नवगीत नहीं है, बल्कि स्वाभाविक उद्वेग से निकला हुआ एक गीत था। शम्भुनाथ सिंह ने मुझे टोका और नवगीत के बारे में छोटी मोटी जानकारी दी और मॉडल के रूप में अपना गीत ‘बादल को बाहों में भर लो/ एक और अनहोनी कर लो' मुझे सुनाया। इसके बाद मुझे अपने गीत और उनके गीतों में अन्तर दिखने लगा। मैंने नवगीत के पुराने संकलनों को खंगालना शुरू किया। राजेन्द्रप्रसाद सिंह की बहन का विवाह मेरे गाँव (देवध, दरभंगा) में हुआ था। इसलिए उनकी सारी किताबें उनकी बहन से ही पढ़ने को मिलीं। मैंने अनुभव किया कि नवगीत संग्रहों के रूप में उस समय कुछ किताबें भले ही चर्चित हों, लेकिन उनमें उन तत्वों का नितान्त अभाव था जो 1970 के आसपास विकसित हुए थे। इसलिए मैंने मुक्तछंद के संकलनों को पढ़ना शुरू किया। उसमें मुझे कुछ नवगीत के तत्व मिले, जिनका मैंने अपने गीतों में उपयोग किया। रचना करते समय यह मैंने कभी नहीं सोचा कि मैं नवगीत लिख रहा हूँ या गीत। देश-काल-पात्र के अनुसार मैंने अभिव्यक्ति देने का प्रयास किया है। इसलिए मेरे गीतों में अन्य नवगीतकारों से अलग तत्व स्थान पा सके हैं।
हिन्दी गीत को किन परिस्थितियों में नवगीत का आवरण ओढ़ना पड़ा तथा इसकी क्या विशेषताएँ हैं?
छायावादी गीत संस्कृत श्लोकों की शब्दावली व विषयों को लेकर लिखे जाते थे। मैंने सुना है कि उनसे अपने को अलग करने के लिए गीतकारों ने फार्म और कंटेंट दोनों दृष्टियों से नयापन लाने के लिए नवगीत विध का विकास किया। यह गीत का ही आधुनिक और परिमार्जित रूप है, जिसमें शब्दावली से लेकर भावों और विचारों तक में समकालीनता और आधुनिकता को अपेक्षित स्थान मिला है। आज के दौर में नवगीत का अस्तित्व इसलिए सुरक्षित है क्योंकि यह समकालीन चेतना और अभिव्यक्ति को साथ-साथ लेकर चल रहा है। मुझे लगता है कि जब कविता के लिए छन्द की अनिवार्यता फिर से अनुभव की जाने लगेगी, तब नवगीत और हिन्दी ग़ज़ल का स्वर हिन्दी कविता की मुख्य धरा बन जायेगा।
क्या आंचलिकता की ओस में भीगा गीत हमारे मन को अधिक गहरी अनुभूतियों से भर देता है? शिवबहादुर सिंह भदौरिया, गुलाब सिंह, माहेश्वर तिवारी और कैलाश गौतम के गीतों में आँचलिकता सहज रूप से रची-बसी है। गीतों में तुकान्त का क्या महत्व है?
इसके गुण भी हैं और दोष भी हैं। आँचलिक शब्द रचना को जीवंत बना देते हैं। लेकिन उसकी ग्राह्यता को सीमित भी करते हैं। उदाहरण के लिए भोजपुरी क्षेत्र के शब्दों का प्रयोग उ.प्र. और बिहार के पाठकों को बहुत अच्छा लगेगा क्योंकि वे उस शब्द के अर्थ से भलीभाँति परिचित हैं। उसकी ध्वनि को भलीभाँति जानते हैं। लेकिन अन्य प्रांतों के लोग उस सुख से वंचित रह जायेंगे। इसलिए मैंने अपने गीत संकलन ‘शिखरिणी' में पाठकों की सुविधा के लिए आँचलिक शब्दों का अर्थ भी दे दिया है। जहाँ तक तुकांत की आवश्यकता का प्रश्न है, हमारे सामने विरासत में तमाम ऐसे पद और गीत हैं जिनमें तुकांत की पूरी उपेक्षा की गई है। तुकांत यदि स्वाभाविक रूप से आता है तब तो सोने में सुहागा है, लेकिन यदि जबरदस्ती उसका प्रयोग किया जाता है तो वह रसाभास पैदा करने लगता है। इसीलिए मैं तो कहूँगा कि रचनाकार स्वयं देखे कि तुकांत के प्रयोग से कविता का मूल स्वरूप या प्रयोजन विकृत तो नहीं हो गया है।
हिन्दी नवगीत के विकास के लिए जो प्रयास शम्भुनाथ सिंह द्वारा किया गया, वैसा प्रयास आज क्यों नहीं हो रहा है? नवगीत की विकास यात्रा में ‘नवगीत दशक' और ‘पाँच जोड़ बाँसुरी' का क्या महत्व है?
मुझे लगता है कि शम्भुनाथ सिंह जैसा सक्रिय व्यक्तित्व नवगीतकारों में दूसरा कोई नहीं है। कैलाश गौतम इस दृष्टि से उभर कर आ रहे थे। 14 नवम्बर 2006 को लखनऊ में कैलाश गौतम, माहेश्वर तिवारी के साथ मेरी बैठक में यह तय भी हुआ था कि 'पाँच जोड़ बाँसुरी' का प्रकाशन लगभग 50 वर्ष पूर्व हुआ था। इन 50 वर्षों में नवगीत ने लम्बी यात्रा तय की है। उसे समुचित स्थान देने की आवश्यकता है। नवगीत दशक में इस दृष्टि से हम तीनों ने भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक श्री रवीन्द्र कालियाजी से 'पाँच जोड़ बाँसुरी' के बाद के नवगीतों का संग्रह निकलवाने का आग्रह किया और उसी दिन हम लोगों ने उस संकलन के प्रस्तावित नवगीतकारों की सूची भी तैयार कर ली थी। कैलाश गौतम उसे शीघ्रता से प्रकाशित करवाना चाहते थे। यह हमारा दुर्भाग्य है कि वह अब उस संकलन को नहीं देख पायेंगे। जहाँ तक नवगीत दशक की बात है उसके माध्यम से बड़े जोरदार ढंग से नवगीत के पक्ष को हिन्दी जगत के समक्ष प्रस्तुत किया गया। आज जो पत्र-पत्रिकाओं में सम्मान के साथ नवगीत को छापा जा रहा है, उसमें नवगीत आंदोलन की विशेष भूमिका है। शम्भुनाथजी बहुत अच्छे नायक थे। लेकिन उनकी व्यक्तिगत पसंदगी और नापसंदगी से नवगीत आंदोलन को कुछ नुकसान भी हुआ। वीरेन्द्र मिश्र, कैलाश गौतम और रमेश रंजक की उपेक्षा कर नवगीत कभी अपने पाँव मजबूत नहीं कर सकता।
आज फिर से पत्र-पत्रिकाओं में गीतों की वापसी हुई है। किन्तु नये कवि नवगीत की तरफ या तो आ ही नहीं रहे हैं या कम आकर्षित हैं। आने वाले दिनों में नवगीत की शक्ल क्या होगी?
नवगीत की रचना के लिए जो समर्पित साधना, व्यापक अनुभूति और जीवन के आसपास की चीजों को परखने का नजरिया चाहिए, उसका अभाव नई पीढ़ी में दिखाई पड़ता है। दूसरी बात, आज का समाज जिस तरह से पूर्णतः भौतिकवादी हो गया है, उसमें कोई व्यक्ति केवल नवगीत लिखकर समाज में जी नहीं सकता है। हास्य कवियों की तादाद बढ़ी है। एक नवगीत लिखने में कभी-कभी 15 दिन भी लग जाते हैं, जबकि मुक्त छंद कविता एक दिन में 15 लिखी जा सकती हैं। छंदमुक्त कविता ने कविता और अकविता का भेद समाप्त कर दिया है। जब कोई साहब अपने गद्य को कविता घोषित करते हैं तब वह कविता नहीं है, इसे सिद्ध करने के लिए हमारे पास कोई प्रतिमान नहीं है। इसलिए छन्दमुक्त कविता ने ‘अहो रूपं अहो ध्वनि' की प्रवृत्ति को ज्यादा बढ़ावा दिया है। आने वाला युग इलेक्ट्रानिक युग होगा, जिसमें किताबों का महत्व घटेगा। इसलिए नवगीतकारों को अपनी रचनाओं को सी.डी., इण्टरनेट जैसे हाईटेक माध्यमों के द्वारा समाज तक पहुँचाने का प्रयास करना चाहिए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भक्त कवियों के पदों को सदियों तक समाज में जीवंत रखने में संगीतज्ञों की काफी अहम भूमिका रही है। संगीतबद्ध नवगीतों के समाज में आने से हल्के-फुल्के फिल्मी गानों को चुनौती मिलेगी।
बातचीत प्रस्तुति - एकलव्य
कवि सम्मेलन या कपि सम्मेलन
बुद्धिनाथ मिश्र
आपने पहली बार मंच पर काव्यपाठ कब किया था?
मैं 1969 में पहली बार हिन्दी काव्य मंच पर उतरा। एम.ए. (अंग्रेजी) करके नौकरी की तलाश कर रहा था। उन्हीं दिनों काशी में दशाश्वमेध मार्ग पर स्थित जम्मू कोठी में एक कविगोष्ठी हुई थी, जिसकी अध्यक्षता ‘भैयाजी' बनारसी करने वाले थे। मुझे उनसे मिलना था, क्योंकि अपरिचित रहकर भी उन्होंने मेरी कहानियाँ, लेख, गीत आदि ‘आज' में छापकर मेरी बड़ी आर्थिक सहायता की थी। उस गोष्ठी में वे तो नहीं आये, मगर उसके संचालक जगदीश चंद्र मिश्र के बार-बार आग्रह करने पर मुझे अपना गीत ‘नाच गुजरिया नाच' सुनाना पड़ा। उसको सुनते ही सभी अवाक् रह गये। वह गोष्ठी युवा कवियों की थी, जिसके मुख्य आकर्षण कलकत्ता से लौटे हलधर विद्यालंकार थे। मगर मेरे काव्यपाठ के बाद तस्वीर ही बदल गयी।
इस प्रकार मंच पर मैं अकस्मात् आया। इसके पीछे कोई उद्देश्य नहीं था। बाद में लगा कि श्रोताओं से सीध साक्षात्कार, थोड़ा-बहुत आर्थिक सहयोग और देश-भ्रमण इन तीनों दृष्टियों से कवि सम्मेलन उपयुक्त मंच था।
काव्य मंचो पर कवियों की उपेक्षा कब और कैसे प्रारम्भ हुई?
मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि 70 के दशक तक काव्यमंच पर जानकी वल्लभ शास्त्री, दिनकर, महादेवी, बच्चन, रंग, नेपाली, श्याम नारायण पांडेय, शंभुनाथ सिंह, रूपानारायण त्रिपाठी, क्षेम, शिवमंगल सिंह ‘सुमन', वीरेन्द्र मिश्र, नागार्जुन जैसे समर्थ रचनाकारों का दखल था। हास्य कविताएँ बेढब-बेधड़क-चोंच बनारसियों और गोपाल प्रसाद व्यास, रमई काका और सूँड़ फैजाबादी जैसे संयत हास्य कवियों द्वारा चटनी के तौर पर परोसी जाती थीं। पहले कवियों को ‘विदाई' दी जाती थी जो आने-जाने के खर्च से कुछ ज्यादा राशि होती थी। बच्चन, नेपाली, नीरज सरीखे लोकप्रिय गीतकारों ने अर्थिक मुद्दे पर पूर्व शर्त रखनी शुरू की। कवि सम्मेलन से पैसा के जुड़ते ही यह मंच सरस्वती-पुत्रों के हाथ से चला गया। जिनके पास पैसा था, उनके पास कविता की समझ नहीं थी। उन्हें काका, निर्भय, रामरिख, सुरेन्द्र जायकेदार और सुपाच्य लगने लगे। यहीं से कवि सम्मेलन में कवियों की उपेक्षा का अध्याय शुरू हो गया।
मंच पर हास्य रचनाओं का बोलवाला है। कविता-गीत हाशिये पर पहुँच गया है। क्या कारण है?
मंच पर हास्य कविता बेधड़कजी और गोपाल प्रसाद व्यास भी पढ़ते थे। उसमेंं ‘रस' होता था। इसलिए वह मूल काव्यधारा के साथ उसी तरह घुल-मिल जाता था, जैसे दूध के साथ पानी। हास्य को विकृत रूप हाथरसी कवियों ने दिया। काका हाथरसी प्रचलित चुटकुलों को छन्दोबद्ध कर प्रस्तुत करते थे। वही काम बाद में महानौटंकीबाज निर्भय ने किया। इनकी देखादेखी मनहर जैसे बम्बइया लोग आये, जिनकी पूरे देश भर के मारवाड़ी समाज में जबर्दस्त पैठ थी और जिन्हें पता था कि कवि सम्मेलन से मोटी रकम खींचने के लिए ‘कविकर्म' की नहीं ‘कलाकारी' की जरूरत होती है। शैल चतुवैदी, माणिक वर्मा, हुल्लड़ मुरादाबादी आदि अच्छा गीत-गजल छन्द लिखते थे, मगर बाजार का रंग-ढंग देखकर इन लोगों ने नायक की भूमिका छोड़ जोकरी करनी शुरू कर दी।
इस समय मंचों पर उन्हीं सियारों का बोलबाला है, जो कहीं से भी कवि नहीं है, लेकिन कवियों के हक की सारी मलाई हड़प रहे हैं। काव्य-शिक्षा से रहित श्रोताओं की नजर में सफल कवि वह है, जो चुटकुलों के लच्छेे बनाकर इस तरह पेश करे कि मजा आ जाए और लोग ताली बजा दें। गीत को ताली नहीं चाहिए, एकान्त मन चाहिए। चुटकुलों को तालियाँ चाहिए, क्योंकि इसी एक कसौटी पर कवि की ‘सफलता' को कसा जाता है। यह स्थिति बदलनी चाहिए।
कवि सम्मेलनों का स्तर गिरता जा रहा है। इस बिगड़ी स्थिति को कैसे सुधरा जाय?
कवि सम्मेलनों में मुद्रा की भूमिका केन्द्रीय होते ही तमाम व्यावसायिक लोग इससे धन कमाने के लिए जुड़ गये। मनहर, काका, सुरेन्द्र आदि ने बाकायदा व्यवसाय के रूप में कवि सम्मेलन को चुना और घोर परिश्रम करके उसे अपने अनुरूप बनाया भी। इनके साथ सरककर चलने वाला एक मात्र गीतकार नीरज थे, जो चाहते तो अपनी लोकप्रियता के बल पर काव्यमंच की नाक में नकेल डाल सकते थे, मगर इससे उत्पन्न वातावरण में अच्छे गीतकारों के पनपने का खतरा था। इसलिए वे अपने भविष्य को ध्यान में रखकर कौरवों के साथ हो लिये। हास्य कवियों के बीच वे उसी तरह फबते हैं, जैसे कौरव भाइयों के बीच कर्ण। खेद है कि काव्यमंच पर अच्छे गीतकार अपमानित होते रहे, और नीरजजी द्रौपदी चीरहरण का रस लेते रहे। यहीं आकर शंभुनाथ सिंह जैसे गीतकार उनसें बहुत बड़े हो जाते हैं, क्योंकि शंभुनाथजी की उपस्थिति में न तो मंच पर कोई भोंड़ी कविता पढ़ सकता था, न ही कोई अच्छी कविता को अपमानित कर सकता था। ऐसे सुदृढ़ मेरुदण्ड वाले महान गीतकारों के तिरोहित होने से काव्यमंच की दुर्गति हुई है। आज क्षेमजी जैसा प्रणम्य गीतकार भी यदि किसी हास्य कवि को टोकता है तो श्रोता क्षेमजी का साथ नहीं देंगे। फिर किस बूते पर कोई सुकवि अपनी शर्त मनवाए। अभी तो स्थिति यह है कि काव्यमंच पर कुसंस्कारी श्रोताओं के लाड़ले भड़वों का नंगा नाच होगा, आपको रहना हो तो रहिए, वरना घर जाइए।
मुझे तो लगता है कि युवा पीढ़ी को लेकर एक शुद्धीकरण अभियान चलाया जाना चाहिए और जहाँ कहीं ‘कवि सम्मेलन' के नाम पर इस तरह के ‘कपि सम्मेलन' हो रहे हों वहाँ उपद्रव किया जाए, तोड़फोड़ किया जाए, संयोजकों और कपियों को मारकर खदेड़ा जाए। तभी कुछ बात बन सकती है। हमारा समाज अब प्रेम की भाषा नहीं, भय की भाषा ही समझता है। जब तक यह डर पैदा नहीं होगा कि कवि सम्मेलन मेें दिल्ली- मुंबई के भड़वों को जुटाने से यज्ञधवंस हो सकता है, तब तक यह स्थिति बनी रहेगी।
जहाँ तक राजकीय कार्यालयों और शैक्षणिक संस्थानों द्वारा ऐसे भद्दे आयोजन करने का प्रश्न है, यह वाकई बहुत दुखद है। राजकीय कार्यालयों में कवि सम्मेलन मनोरंजन के लिए नहीं, बल्कि भाषा-साहित्य के प्रचार के लिए होता है। जोकरों के काव्यपाठ से सुधरने की जगह श्रोताओं की भाषा बिगड़ सकती है। इसीलिए, दृढ़ संकल्प के साथ मैंने ओएनजीसी और इससे पहले हिन्दुस्तान कॉपर लि. में अच्छे सुरुचि पूर्ण कवि सम्मेलन का सिलसिला चलाया। ‘ओएनजीसी कवि सम्मेलन' आज अपनी स्तरीयता के लिए पूरे देश में चर्चित है। जो काम मैंने करके दिखाया है, वह दूसरे साहित्यिकारों को भी करना चाहिए। काव्यमंच एक चंदन का पेड़ है, जिसे तमाम बंदर नोच-तोड़ रहे हैं। इसे बचाने के लिए यदि गुंडई पर उतरना पड़े, तो वह गुंडई नीरज-छाप तटस्थता की तुलना में ज्यादा प्रणम्य है।
धन कुबेरों के पास जब तक काला धन रहेगा, काव्यमंचों पर काले कारनामे होते रहेंगे। सरकारी दबाव के कारण अब काले धन का साम्राज्य धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा है, इसीलिए आशा की जानी चाहिए कि पाँच-दस बरस में ‘ठहाके' जैसे आयोजनों की संख्या घटेगी।
यही वह समय है जब हमें नया विकल्प समाज के समक्ष रखना है। नये विकल्प के तौर पर दो स्थानीय और एक बाहर के अच्छे कवियों की कवि गोष्ठी चुने हुए श्रोताओं के बीच आयोजित की जाए। जब कार्यक्रम जड़ पकड़ ले, तो सामान्य श्रोताओं को भी प्रवेश की अनुमति दी जाए। पारिश्रमिक का भुगतान आकाशवाणी की तरह किया जाएः वातानुकूलित शयनयान का किराया और एक हजार का मानदेय। इससे कवि सभा के आयोजनों पर व्यय का अवांछित बोझ घटेगा और साहित्य प्रेमी लोग इन आयोजनों से जुड़ेंगे। धन की दृष्टि से अनाकर्षक होने के कारण बड़े-बड़े नामी-गरामी जोकर वैसे ही हट जाएँगे। दस-बीस कवियों को एक मंच पर जुटाने के बजाय छोटी-छोटी कवि गोष्ठियों को तरजीह दिया जाए। स्कूलों-कालेजों में विशेष रूप से इस तरह के आयोजन किये जाएँ, जिनमें छात्र-छात्राएँ काव्य रस का आनंद लेना सीख सकें। अधिकतर श्रोता साहित्यिक समझ न होने के कारण ही चुटकुलों को कविता मान लेते हैं।
इस सिलसिले में मुझे एक जातक कथा याद आती है। एक द्वीप पर पक्षी नहीं थे। दूर शहर से कुछ कौए वहाँ जाकर रहने लगे। लोग उन्हीं कौओं को ‘सुन्दर पक्षी' मानकर प्यार करते रहे। एक दिन एक व्यापारी अपने साथ एक मयूर लेकर उस द्वीप पर पहुँचा। मयूर के सौंदर्य को देखकर द्वीपवासी अवाक् रह गये। उन्होंने ‘सुन्दर पक्षी' के नाम पर केवल काले कौए ही देखे थे। मयूर को देखने के बाद द्वीपवासियों का वायस-सौंदर्य का भ्रम दूर हुआ और मयूर को ‘सुन्दर पक्षी' माना जाने लगा। तो जब तक श्रोताओं के समक्ष अच्छी कविता की प्रस्तुति की व्यवस्था नहीं होती, तब तक लोग लतीफों को ही कविता मानते रहेंगे। वह भी अब पंसारी की दूकान हो गयी है। संस्कारहीन धनकुबेरों को भाषा-साहित्य-संस्कृति आदि से कोई लेना-देना नहीं है। पश्चिम की नकल करते-करते वे बिना-सींग-पूँछ के पशु हो गये हैं। इसलिए कविता के माध्यम से समाज को सकारात्मक सोच और अच्छे संस्कार देने का काम अब कवि समुदाय को ही करना होगा।
आप व्यक्तिगत स्तर पर काव्य मंचों पर क्या प्रयोग करते रहे है?
एक कवि रूप में और एक अधिकारी रूप में मैंने हमेशा यही कोशिश की है कि काव्य मंचों पर सही व्यक्ति ही कदम रखें। पिछले तीस वर्षों में मैंने सैकड़ों आयोजन भी किये हैं, मगर मैंने कभी घटिया लोगों को मंच पर फटकने नहीं दिया। मेरी रुचि और मेरी दृष्टि सुपरिभाषित है। इसलिए भविष्य में भी मेरे द्वारा ऐसे ही आयोजन होंगे, जिनमें काव्य-गौरव रचनाकारों को ही आमंत्रित किया जाएगा। आखिरी वक्त में क्या खाक मुसलमाँ होंगे।
कवि सम्मेलनों को सही दिशा देने के लिए संयोजक की क्या भूमिका होनी चाहिए?
हिन्दी काव्य मंच पर अच्छे कवि और अच्छी कविताएँ ही प्रमुखता पाए, इसकी संकल्पना संयोजक ही करता है। संयोजक यदि तुच्छ स्वार्थो से ऊपर उठकर कवियों का चयन करें, कवियों के साथ-साथ अच्छे श्रोताओं को भी जुटाने का प्रयास करें तो हम हारी हुई बाजी फिर से जीत सकते हैं।
फिलहाल, हमारे पास कुछ ऐसे ‘बजरंग दल' के युवक-युवतियाँ होनी चाहिए जो लतीपेफबाजों की गर्दन पर हाथ रखकर मंच से उतारने की कूबत रखे। ये ‘बजरंग दल' काव्य मंच की मैल धोने में डिटर्जेट की भूमिका निभाएँगे।
बक़लम ख़ुद
छायावादोत्तर गीतिकाव्य के विकास के पड़ाव और नवगीत
बुद्धिनाथ मिश्र
सुकरात ने कहा था कि ‘जब ईश्वर को धरती के जीवों से वार्तालाप करना होता है, तो वह कवियों की वाणी में बोलता है। वह अपना दिव्य संदेश कवियों के दिव्य शब्दों में देता है।' इस कथन में सुकरात ने कवियों की भूमिका के सभी प्रमुुख पक्षों को रेखांकित किया है, जैसे- कवि धरती से जुडे़ लोगों से संवाद करता है, वह दिव्य शब्दों का प्रयोग करता है और दिव्य संदेश भी देता है। यदि कवि के अच्छे संस्कार हों, गहरे अनुभव हों और व्यापक अध्ययन हो, तो दिव्य शब्द उसके अन्तस् से अनायास फूटते हैं। आदिकवि वाल्मीकि ने भी जब तमसा नदी के तट पर क्रौंचवध को देखा तो करुणा से वे इतने विकल हो गये कि उनके मुँह से ‘मा निषाद प्रतिष्ठां त्वम्' श्लोक फूट पड़ा। अनायास ही। इसके लिए उन्हें न तो शब्दकोश देखना पड़ा, न छन्दशास्त्र के अनुसार मात्रा घटानी-बढ़ानी पड़ी, न किसी वाद की शरण लेनी पड़ी। पूरे विश्व साहित्य में कविता यानी पद्य का आविर्भाव पहले हुआ और गद्य का बाद में। भारतीय वाड्.मय में लौकिक साहित्य का उदय इसी ‘मा निषाद' अनुष्टुप छन्द से हुआ। उससे पहले वैदिक मंत्र थे, जो अपौरुषेय थे, जिनका कोई रचनाकार नहीं था। ट्टषियों ने उनका केवल साक्षात्कार किया था- ट्टषयो मंत्रद्रष्टारः। अपौरुषेय तो ‘मा निषाद' श्लोक भी था, क्योंकि अनायास फूटा था, वाल्मीकि ने उसकी वाक्य-रचना नहीं की थी, लेकिन इसका उद्दीपन बाह्य स्रोत से हुआ था। इसीलिए यह लौकिक साहित्य कहलाया। ट्टषियों ने समाधि अवस्था में मंत्रों के दर्शन किये थे, इसलिए उन्हें वैदिक साहित्य कहा गया। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि कविता के लिए ‘भोगा हुआ यथार्थ' से भी अधिक आवश्यक उच्च कोटि की संवेदनशीलता है, जो प्राणिमात्र के प्रति करुणा जगाती है। कविता का जन्म हमेशा उसी करुणा से हुआ है और उसका प्रयोजन हमेशा आनन्द देना रहा है। कविता से उत्पन्न आनंद इतना तेजोमय हेाता है कि उसके समक्ष और सभी भौतिक सुख मलिन हो जाते है। यही ब्रह्मानंद सहोदरत्व है जो श्रोता या पाठक को आनंदाश्रु तक ले जाता है।
गीत के जिस स्वरूप से आज हम परिचित हैं, उसका सबसे पुराना शास्त्रीय मॉडल जयदेव के ‘गीतगोविन्दम्' के ललित पदों में दिखाई पड़ता है। जयदेव ने गीत का यह टेक और अंतरा वाला रूप कहाँ से लिया, यह हमें नहीं मालूम। उससे पूर्व श्लोकों का ही गायन होता था। गायन योग्य होने के कारण ही भगवद्गीता को गीता कहा गया। नाटकों में नायक-नायिकाएँ वाद्यों पर श्लोकों को ही गाते थे। यही भूमिका कथक जैसे शास्त्रीय नृत्यों में छन्द निभाते रहे हैं। जब मिथिला-नरेश के दरबार के पंडित कवि विद्यापति ने गीतगोविन्द के अनुसरण में ‘देसिल बयना' मैथिली में राध-कृष्ण के अद्भुत प्रेम को पदों में उतारा तो वैष्णव जनों के आनंद की सीमा नहीं रही। संत कवि कबीर, सूर, तुलसी, मीरा आदि ने उसी के अनुसरण में असंख्य पदों की रचना की और साहित्य-संगीत-कला प्रवीण वैष्णव भक्तों ने उन्हें गा-गाकर पूरे भारतीय समाज को गीतमय बना दिया। मैथिली-ब्रज-अवधी के मिले-जुले पद, दोहे और चौपाइयों को भक्त गायकों ने न केवल जन-जन तक पहुँचाया, बल्कि सदियों जनसाधारण का कंठहार बने रहने की क्षमता भी प्रदान की। संगीत वह सुई है जो शब्दों के धगे को समाज के वसन में प्रवेश कराती है। स्वयं हमारा जीवन साँसों के ताल पर और मन की लय पर चलता है, इसलिए कविता से संगीत तत्व को हटाना उसके पाँवों को तोड़ना है। जिस भाषा में शब्द लय-ताल से दूर हुआ, उस भाषा की कविता, तमाम कलाबाजी के बावजूद, समाज से दूर हो गयी।
बीसवीं सदी के प्रारंभ में खड़ी बोली कविता के साँचे में ढल रही थी, तब ब्रजभाषा के महारथी इसे एक निरर्थक प्रयास ही मान रहे थे, क्योकि कविता की भाषा के लिए जिस लोच की जरूरत होती है, वह बोलियों में तो थी, खड़ी बोली में नहीं थी। फलतः कवियों ने संस्कृत शब्दावली और संस्कृत छन्दों के साथ-साथ संस्कृत के वर्णित विषयों पर ही अभ्यास करना शुरू किया। ‘प्रियप्रवास' में राध छवि वर्णन इस प्रकार किया गया-
रूपोद्यान-प्रफुल्ल-प्राय-कलिका
राकेन्दु बिम्बानना
तन्वंगी कलहासिनी सुरसिका
क्रीड़ा कला-पुत्तली।
पता ही नहीं चलता कि यह संस्कृत का श्लोक है या हिन्दी का पद्यांश। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र भी ब्रज के छन्दों में तो सहज थे, मगर खड़ी बोली में वह भी ‘तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये' की रवानगी में बह गये। कविता की भाषा के रूप में सामान्यतः और गीत की भाषा के रूप में विशेषतः हिन्दी को ढालने का सबसे दीर्घकालीन प्रयास (लगभग आधी सदी तक) मैथिलीशरण गुप्त ने किया। ‘भारत भारती' की कविता ‘लिटरेचर ऑव नॉलेज' थी जो ‘साकेत' और ‘यशोधरा' में ‘लिटरेचर ऑव पॉवर' बनकर उभरी। द्विवेदी युग में हिन्दी कविता संस्कृत कविता की छाया के रूप में ही धीरे-धीरे विकस रही थी कि परिवर्तन का एक झोंका आया और कवियों ने नव वसंत का स्वागत करते हुए मुख्यतः पाश्चात्य रोमांटिसिज्म और गौणतः निर्गुनिया संत कवियों के रहस्यवाद से प्रभावित होकर संकेतों में बात करना शुरू कर दिया। इतिहासकारों ने इसे ही छायावाद नाम दिया। आत्माभिव्यक्ति, सौंदर्य के प्रति आग्रह, सूक्ष्म संवेदना, कोमल भावों का प्राधन्य, कल्पनाशीलता, रहस्यात्मकता, मानवतावाद और प्रकृति पे्रम छायावाद की प्रमुख प्रवृत्तियाँ थीं। प्रसाद वेदों-उपनिषदों के कूप का जल, पंत द्रुमों की मृदु छाया और महादेवी अव्यक्त प्रेमी के अनहद नाद से हिन्दी कविता को समृद्ध कर रही थी। अभी तक कविता और गीत को अलग-अलग गोत्र का नहीं माना जाता था, क्योंकि सभी छन्दोबद्ध थे। पंतजी ने छन्द के रजत पाश को तोड़ने की बात जरूर की थी, मगर उसे तोड़ने के लिए उन्होंने सुनार की हथौड़ी का प्रयोेग किया था। इसी दौरान यूरोपीय काव्यधारा से सीधे प्रभावित बंगला गीतिकाव्य का रस चखकर हिन्दी में कुछ कर दिखाने की तमन्ना लेकर निराला आये। इस समय तक रवीन्द्रनाथ ठाकुर के बंगला गीत-संग्रह ‘गीतांजलि' को नोबेल पुरस्कार मिल चुका था। निराला हिन्दी में गीत लिखकर नोबेल पुरस्कार पाने का सपना लेकर आये और इस क्रम में उन्होंने कविता में काफी नये प्रयोग भी किये, जिससे नई दिशाएँ खुली। ‘राम की शक्तिपूजा' से लेकर ‘कुकुरमुत्ता' तक। मगर गीत उनका हमेशा अंतरंग रहा, इसलिए गीत-रचना के समय उन्होंने कभी किसी कुकुरमुत्ते को फटकने नहीं दिया।
हर काव्यांदोलन एक ज्वार पैदा करता है, जिसमें कुछ शंख-सीपी तट पर जगह पा लेते है। जो नहीं जगह पाते, वे नये काव्यांदोलन के लिए प्रयत्न करते हैं। छायावाद युग में जो कवि स्थापित नहीं हो सके, उन्होंने उसे कोसना शुरू किया और कार्ल मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के जरिए कविता में नागफनी के फूलों की बागवानी आरंभ कर दी। यही प्रगतिवाद था, जिसके रंग में रंगकर सुमन, दिनकर, अंचल, नागार्जुन, भगवतीचरण वर्मा आदि ने सामाजिक यथार्थ और वर्ग संघर्ष पर काफी कुछ लिखा। याद करें भगवती चरण वर्मा की ‘भैंसागाड़ी' की पंक्ति ‘पशु बनकर नर पिस रहे जहाँ, नारियाँ जन रही हैं गुलाम' या सियाराम शरण गुप्त की ‘मुझको देवी के प्रसाद का एक फूल तो दो लाकर' या सुमन की ‘हर बार बिखेरी गयी किंतु मिट्टी फिर भी तो नहीं मिटीं' या दिनकर की ‘श्वानों को मिलता दूध-वस्त्र, भूखे बच्चे अकुलाते हैं' या इसी तरह की अन्य समकालीन कवियों की पंक्तियाँ। प्रगतिशीलता समय की मांग थी, जिसे पंत और निराला ने भी अनदेखा नहीं किया। काव्यप्रेमियों की अपेक्षाओं को पूरा करने के बाद सबने अपने एकान्त क्षणों में जो गाया वह ललित था, आह्लादक था। हजारों कविताएँ लिखने के बावजूद नागार्जुन जिन दो कविताओं पर टिके, वे हैं ‘अमल धवल गिरि के शिखरों पर, बादल को घिरते देखा है' और ‘कालिदास सच-सच बतलाना। इन्दुमती के मृत्युशोक से अज रोया या तुम रोये थे।' यह वही संवेदनशीलता है, जो गीत को झकझोरती है और जिससे गीत झकझोरता है।
आधुनिक हिन्दी कविता प्रगतिवाद के बाद अज्ञेय जैसे धुरंधर प्रयोगवादी के हाथ में चली गयी। प्रयोग प्रयोग है, इसलिए उसमें ज्यादातर अयथार्थ आ जाने की गुंजाइश रहती है। ‘अज्ञेय' का सप्तक निकालना निश्चय ही एक ऐतिहासिक घटना थी, मगर उसमें संकलित बहुत थोड़े से कवि ही समय की शिला पर स्थिर हो सके। चूंकि अज्ञेय को अपना नेतृत्व स्थापित करना था, इसलिए सप्तकों में दिनकर, बच्चन, जानकी बल्लभ शास्त्री, शंभुनाथ सिंह जैसे लम्बी दौड़ के घोड़ों को छोड़ दिया गया और राम विलास शर्मा, प्रभाकर माचवे जैसे अकवियों को भी पंक्ति में स्थान दे दिया गया। माचवे कवि तो नहीं बन पाये, मगर अज्ञेय कवियों के सरगना जरूर बन गये। सप्तकीय शंख-सीपियों से दूर हिन्दी कविता के दो ठोस स्तम्भ थे, दिनकर और बच्चन। दिनकर प्रारंभ से आग के कवि थे। हुंकार, कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी जैसे काव्य सोयी हुई भारतीय राष्ट्रीयता को युवा पीढ़ी में जगा रही थी। यह कार्य लगभग आधी सदी तक मैथिलीशरण गुप्त ने भी किया था, मगर उनका तेवर गांधीजी वाला था, जबकि दिनकर का ओज सुभाषचन्द्र का ओज था। इस ओजपूर्ण काव्य-रचना के बीच उन्होंने अपने लालित्य भाव को भी गीतों के माध्यम से अभिव्यक्त किया। ‘गीत अगीत कौन सुन्दर है' जैसे गीत हिन्दी गीत की विकास यात्रा की महत्वपूर्ण उपलधियाँ हैं। उनका ‘उर्वशी' काव्य एक विराट गीति काव्य है, जो ‘मेघदूत' की परम्परा को आगे बढ़ाता हैः
एक मूर्ति में सिमट गयीं किस भाँति सिद्धियाँ सारी।
कब था ज्ञात मुझे इतनी सुन्दर होती है नारी।
नवगीत की चेतना का विस्तार होने से पहले हिन्दी में शुद्ध गीत के बजाय प्रगीत ज्यादा लिखे गये। प्रगीत यानी गीत में ललित से ज्यादा प्रबंध का वर्चस्व। बच्चनजी ने ‘मधुशाला' से अपनी लोकयात्रा शुरू की थी। यदि जनप्रियता की बात चले, तो एक बोरा गेहूँ ‘मधुशाला' अज्ञेय की अगुआई में लिखी गयी सैकड़ों बोरे भूसी कविताओं पर भारी पड़ती है। बच्चनजी भी यूरोपीय साहित्य के विशेषज्ञ थे, लेकिन उन्होंने छन्द को आवश्यक माना और संकल्पबद्ध होकर गीत विध को समृद्ध किया। उन्हें अपने गीतों में समय को विस्तार से समेटना था, इसलिए उनके अधिकतर गीत चाहे वह ‘कह रहा जग वासनामय हो रहा उद्गार मेरा' हो या ‘इस पार प्रिये मधु है, तुम हेा, उस पर न जाने क्या होगा' या इसी प्रकार की सैकड़ों रचनाएँ, सभी प्रगीत श्रेणी की ही हैं। नवगीत इसके विपरीत संक्षिप्तता का आग्रही है, जो उनके ‘साथी, सो न, कर कुछ बात' जैसे थोड़े-से गीतों में है।
दिनकर और बच्चन के अलावा बीसवीं सदी के उत्तराधर् में हिन्दी काव्यधारा को आगे बढ़ानेवालों में गोपाल सिंह नेपाली, रामावतार त्यागी, रमानाथ अवस्थी, भारत भूषण, आरसी प्रसाद सिंह, नीरज, राम कुमार वर्मा, केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात' जैसे असंख्य तारक दीप हैं, जिनको जोड़े बिना हिन्दी गंगा के आर-पार की माला तैयार नहीं की जा सकती। जानकी बल्लभ शास्त्री और नरेन्द्र शर्मा इन कवियों की पंक्ति में सबसे चमकदार नक्षत्र हैं, जिनकी प्रदक्षिणा किये बिना कविता की पंचकोसी आगे बढ़ नहीं सकती। इन सभी कवियों ने एक ओर कविता में परम्परा की रक्षा की तो दूसरी ओर समाज में समकालीन कविता के प्रति आकर्षण बनाये रखा। उनके योगदान का सही मूल्यांकन अभी तक नहीं हो पाया है। इन कोयलों ने कूक-कूककर वसंत का आह्वान किया, आम की डालों में मंजरी आयी और जब फल पकने का समय आया, तो बेसुरे कौओं ने पूरे आम के पेड़ पर कब्जा जमा लिया। अमराई में कौआरोर मचा देखकर कोयलों की जमात स्तब्ध रह गयी। स्तब्ध हैं कोयल कि उनके स्वर, जन्मना कलरव नहीं होंगे।
दिव्य सौन्दर्य के अप्रतिम गायक जयशंकर प्रसाद की पंक्ति है ‘प्रकृति के यौवन का शृंगार, करेंगे कभी न बासी फूल।' जब परम्परागत भावना-प्रधन गीतों के बासी फूल ऊब पैदा करने लगे, तब हिन्दी गीत में पुराने पन्नों के हाथ से उत्तराधिकार नवगीत ने अपने हाथ में ले लिया। पूरे हिन्दी साहित्य में नवलेखन नयी पीढ़ी की आवश्यकता बनी, कहानी की जगह नई कहानी आयी, निबंध की जगह ललित निबंध आये, गीत की जगह नवगीत आये। नवगीत एक नयी काव्य चेतना थी, जिसका विस्फोट नहीं, क्रमशः विकास हुआ है। इसीलिए जिस ‘गीतांगिनी' (सं. राजेन्द्र प्रसाद सिंह) को नवगीत का पहला सामूहिक संकलन कहा गया, उसमें नवगीत के तत्व सरदार के मुहल्ले में नाई की दुकान की तरह दुर्लभ हैं। हॉ ‘पाँच जोड़ बाँसुरी' (सं. चंद्रदेव सिंह) पहला संग्रह है, जिसमें नवगीत का स्वरूप थोड़ा स्पष्ट हुआ, मगर असली और व्यापक पहचान उसे ‘नवगीत दशकों' (सं. शंभुनाथ सिंह) से मिली। शंभुनाथ सिंह काव्य जगत में अपना प्रसिद्ध गीत ‘समय की शिला पर मधुर चित्र कितने/ किसी ने बनाये, किसी ने मिटाये' लेकर आये थे। शब्द और कथ्य दोनों दृष्टियों से यह पूरी तरह छायावादी गीत था। जब नयी कविता का कौआरोर मचा, तब उन्होंने भी ‘माध्यम मैं' जैसे काव्य संग्रहों के साथ काकमंडली में शामिल होने का प्रयास किया। मगर जब उनके पूजन-आराधन और उनके सम्पूर्ण समर्पण को देखकर उनका पूजित पाषाण हँसा, तो रोक न पाये वे आँसू। नयी कविता के रेडलाइट एरिया से किसी तरह बचते-बचाते वे अपने घर लौटे और गीत को समृद्ध करने के लिए वीर कुॅवर सिंह की तरह बुढ़ापे में ललकार कर चल पड़े। इस प्रकार शंभुनाथजी ने घाट-घाट का पानी पीकर नवगीत घाट पर डेरा जमाया, जबकि वीरेन्द्र मिश्र, उमाकान्त मालवीय, शिवबहादुर सिंह भदौरिया, माहेश्वर तिवारी, गुलाब सिंह, अनूप अशेष, दिनेश सिंह- ये कुछ ऐसे रचनाकार हैं, जिन्होंने नवगीत के घाट के सिवा दूसरे किसी घाट की ओर देखा तक नहीं। आधुनिक हिन्दी कविता के इतिहास में अज्ञेय से बढ़कर शंभुनाथ सिंह का स्थान होना चाहिए, क्योंकि उन्होंने पटरी से उतरी कविता को नया पहिया दिया और नया ईधन भी। शंभुनाथजी महामना मालवीय की तरह ही बहुत अच्छे समन्वयक थे, जिसके कारण पूरे भारत के रचनाकारों ने नवगीत के जगन्नाथी रथ को खींचने के लिए सहर्ष अपना कंध दिया। नवगीत की सबकी सम्मति से परिभाषित करने की पहल हुई, जिसका सबसे बड़ा प्रमाण सितम्बर, 1986 में नवगीतकारों का वह सामूहिक घोषणा पत्र है। उस घोषणापत्र में नवगीत के विभिन्न पहलुओं को रेखांकित किया गया। उससे पूर्व ‘नवगीत दशकोंं' की विस्तृत भूमिका में भी शंभुनाथजी ने नवगीत को परिभाषित करने के लिए काफी जद्दोजहद की। अत्यधिक संवेदनशील कवि र्धमवीर भारती द्वारा सम्पादित विश्वप्रसिद्ध साप्ताहिक ‘र्धमयुग' ने न केवल नवगीतों को बड़े प्यार से प्रकाशित किया, बल्कि नवगीत की उपलब्धयिों पर डॉ. विश्वनाथ प्रसाद का लम्बा लेख छापकर यथार्थ ज्ञान का प्रकाश अजायब घर के उन कोनों तक पहुँचाया, जहाँ अनगिनत जीव अंधेरे में उलटे लटके हुए ‘अहो रूपं अहो धवनिः' का निरंतर उच्चार कर रहे थे।
लगभग आधी सदी की यात्रा तय करने के बावजूद नवगीत के विकास का क्रम अभीतक उस मंजिल तक नहीं पहुँचा है, जिसके आगे राह नहीं हो। इधर एक अच्छी बात यह हुई है कि गीत-नवगीत के संकलन योजनाबद्ध रूप से और बड़ी संख्या में आने लगे हैं। वाड्.मय विकास निधि, कलकत्ता और आर्य बुक डिपो ने संयुक्त प्रयास से कैलाश गौतम का ‘जोड़ा ताल', सोम ठाकुर का ‘एक ट्टचा पाटल को', माहेश्वर तिवारी का ‘नदी का अकेलापन' रामचंद्र चंदभूषण का ‘समय अब सहमत नहीं' और बुद्धिनाथ मिश्र का ‘शिखरिणी' संग्रह क्रमशः प्रकाशित कर नवगीत साहित्य को काव्यप्रेमी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है। इस प्रकार के प्रयास सभी नगरों-कस्बों में हो रहे हैं। साहित्यिक पत्रिकाओं ने नवगीतों को महत्वपूर्ण स्थान देना शुरू किया है। एक हजार साल की हिन्दी कविता के विराट संग्रह ‘स्वांतः सुखाय' में आधुनिक कविता में वर्चस्व गीत-नवगीत का ही है। सरकारी डाल पर वर्षों से बेसुरा राग अलापने वाली साहित्य अकादमी ने भी ‘श्रेष्ठ हिन्दी गीतों का बृहत संकलन' (सं. कन्हैया लाल नंदन) प्रकाशित किया है। आकाशवाणी ने नवगीत के प्रचार-प्रसार में अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। वीनस कंपनी ने भी गीत-नवगीत को अपनी भाषा और अपनी संस्कृति से दूर होती जा रही कंप्यूटरी पीढ़ी तक पहुँचाने के लिए कई कैसेट जारी किये हैंं। ऐसा एक संक्षिप्त प्रयास मुंबई से ही चेतनजी ने भी कभी किया था। स्थिति यह हो गयी है कि पिछली आधी सदी से हजारों काव्य प्रतिभाओं को नई कविता की दलदल में डुबोनेवाले गुरू घंटालों ने भी धीरे-धीरे यह कहना शुरू कर दिया है कि लय और छंद का परित्याग कर कविता जुबान पर नहीं चढ़ पाती। इस प्रसंग में मैं सिर्फ यही कहना चाहूँगा कि सब कुछ लुटा के होश में आए तो क्या किया? उ.प्र. हिन्दी संस्थान ने नवगीत पर पिछले दिनों एक कार्यशाला आयोजित कर हिन्दी कविता के लिए विचार मंथन का एक विराट मंच प्रदान किया। कार्यशालाओं का यह सिलसिला पूरे देश में चलना चाहिए, जिससे हिन्दी ही नहीं, समस्त भारतीय भाषाओं का समाज कविता के सही स्वरूप से परिचित हो और कविता भारतीय समाज को करुणा, संवेदना और जिजीविषा से संवलित रखे।
मैंने इस लेख में नवगीत के स्वरूप, उसके तत्व, उसके वैशिष्ट्य आदि की चर्चा नहीं की है। केवल आधुनिक कविता की विकासयात्रा की एक स्थूल रेखा भर खींची है, मकबूल फिदा हुसैन की रेखाओं की तरह। अपनी बात समाप्त करने के लिए मैं नवगीतकार कैलाश गौतम के एक दोहे का सहारा लेना चाहता हूं-
लगे फूंकने आम के बौर गुलाबी शंख।
कैसे रहें किताब में हम मयूर के पंख॥
नवगीत की सांकेतिकता, उसके शब्द, उसके कथ्य और उसके शिल्प का एक खूबसूरत नमूना है यह दोहा। नवगीत की देह कोई भी हो, आत्मा यही होनी चाहिए। जो इससे अलग जनगीत का झंडा उठाकर चल रहे हैं, उनकी राह उस चौराहे पर जाकर समाप्त हो जाती है, जिसपर मैथिली शरण गुप्त की आदमकद प्रतिमा खड़ी है।
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