नये पुराने (अनियतकालीन, अव्यवसायिक, काव्य संचयन) मार्च, 2011 बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता पर आधारित अंक कार्यकारी संपादक अवनीश स...
नये पुराने
(अनियतकालीन, अव्यवसायिक, काव्य संचयन)
मार्च, 2011
बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता
पर आधारित अंक
कार्यकारी संपादक
अवनीश सिंह चौहान
संपादक
दिनेश सिंह
संपादकीय संपर्क
ग्राम व पोस्ट- चन्दपुरा (निहाल सिंह)
जनपद- इटावा (उ.प्र.)- 206127
ई-मेल ः abnishsinghchauhan@gmail.com
सहयोग
ब्रह्मदत्त मिश्र, कौशलेन्द्र,
आनन्द कुमार ‘गौरव', योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम'
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यादों के बहाने से
हर छवि नयनाभिराम
ओमप्रकाश सिंह
जब कभी भी कवि सम्मेलनों की बात चलती है तब सदैव चर्चा में आता है गीतकारों में एक बड़ा नाम- बुद्धिनाथ मिश्र। काव्य मंचों का यह जाना-पहचाना नाम हिन्दी कविता साहित्य में भी बड़े आदर से लिया जाता है। जब मैंने पहली बार उनका गीत संग्रह ‘जाल फेंक रे मछेरे!' पढ़ा, तब से ही मैं इस गीतकार की रचनाधर्मिता को प्रणाम करने लगा था। धीरे-धीरे रचनाओं के माध्यम से बना यह सम्पर्क व्यक्तिगत जान-पहचान में बदल गया और जब मिश्रजी लालगंज के कवि सम्मेलन में आये तो हमारा रिश्ता और प्रगाढ़ हो गया। उनको सुनने का अवसर मिला तब मुझे विश्वास हो गया कि इस रचनाकार को सिर्फ लिखना ही नहीं बल्कि मधुर स्वर में गाना भी आता है और अपने श्रोताओं को रिझाना भी।
मिश्रजी का बचपन अभावों में बीता। परन्तु युवावस्था में पत्रकारिता से जुड़ने के बाद के समय से लेकर आज तक उनका जीवन सुखद ही रहा। हाँ, इसमें उनकी भागम- भाग जीवन शैली अपना अलग संदेश छोड़ती है- प्रेम का, संघर्ष का, समर्पण का। उनका श्रम अपने पद एवं प्रतिष्ठा के लिए, संघर्ष गीत-नवगीत की व्यापक पहचान के लिए और समर्पण मानव हित के लिए। और इन सभी अनुभवों को एकत्रित कर उन्होंने साहित्य के भण्डार को समृद्ध किया और आम आदमी के लिए अपनी आवाज उठायी। इसमें उन्होंने उन सभी लोगों की तकलीफों-समस्याओं को महसूस कर गाया-गुनगुनाया, जो कि वृहत्तर भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं। उन्होंने जातीय अस्मिता को उकेरने के लिए अंचल विशेष की संस्कृति, रीति-रिवाज, रहन-सहन, पूजा-प(ति, खान-पान, बोली-बानी आदि को अपनी रचनाओं में शब्दाकार किया। इसीलिए वह कामना करते हैं-
काश कि ऐसा भी दिन आए
धुंध कटे चौबारे की
हरसिंगार के फूल बिखेरें
अक्षत-रोली सड़कों पर।
प्रेम की भाषा को भली-भाँति समझने वाले बुद्धिनाथ जी अपने गीतों में जिस प्रकार से प्रेम का वर्णन करते हैं वह अनूठा है। जरा देखें-
रात हुई है चुपके-चुपके
इन अधरों से उन अधरों की
बात हुई है चुपके-चुपके।
नीले नभ के चाँद सितारे/ मुझ पर बरसाते अंगारे
फिर भी एक झलक की खातिर/ टेर रहा हूँ द्वारे-द्वारे।
मेरे मन की छाप-तिलक पर
छात हुई है चुपके-चुपके।
मिश्रजी ने प्रेम की अनुभूतियों तथा प्रकृति के रंगों को भी अपने गीतों में कलात्मकता से उभारा है। लेकिन उनका यह प्रकृति चित्रण समय की विसंगतियों को उभारने तथा भावकों को उकसाने का काम करता है- 'मौसम जिनकी मुट्ठी में, वे खुश हो लें/ हम मौसम के फिकरों की क्या बात करें।’ यह रचनाकार गाँव के लोगों की पीड़ाओं को भी चित्रित करना जानता है। शहर और महानगर के जीवन के संत्रास को भी। यथा- 'हर दुकान पर कोका कोला, पेप्सी की बौछार/ फिर भी कई दिनों का प्यासा मरा राम औतार।’ तथा 'लिख गयी पूरी सदी/ पागल हवा के नाम/ राख में चिनगी दफ़न हो जाए, मुमकिन है।’ ऐसे न जाने कितने उ(हरण हैं, जोकि मिश्रजी की संकल्पना एवं साहस को व्यक्त करते हैं। कहीं वे जनभाषा का जयघोष करते हैं, तो कहीं संसद को अय्याशों का घर कहकर गाँधीजी के तीन बंदरों की याद दिलाते हैं। और कहीं पर तो 'हम सन्ताली वन के भोले-भाले वासी' कहकर जनजातियों के प्रति हमारे अन्दर आदर एवं आस्था पैदा करते दिखते हैं। जो भी हो उनकी संवेदना समाज की हर एक बात को निरखती है और उसे गीतायित कर यह कवि नवगीत साहित्य को अपना सराहनीय योगदान दे रहा है, अपने ढंग से। उनके गीतों को पढ़कर यही कहना चाहूँगा-
ग्राम-ग्राम परम धम/ जय हे जनदेवता
हर छवि नयनाभिराम/ जय हे जनदेवता।
बनकर प्रत्यूष वात/ करते तुम नव प्रभात
ज्योति-बीज तुम सकाम/ जय हे जनदेवता।
विष पीकर अमृत-दान/ करते तुम शिव समान
कण-कण अवतरित राम/ जय हे जनदेवता।
मुखरित कर अनल राग/ सफलित हो कर्मयाग
शत-शत तुमको प्रणाम/ जय हे जनदेवता।
यादों के बहाने से
सशक्त गीतकार, समर्थ गद्यकार
मधु शुक्ला
वह गीत नहीं, मानो कण्ठप्रदेश से फूटता हुआ कोई झरना हो, जो अपनी उत्ताल तरंगों की लयता, तरल स्निग्धता और सरसता के अविरल प्रवाह में सुननेवाले के तन-मन को बहाये लिए जा रहा हो, पर प्यास की अतिरेकता ऐसी कि श्रोता मन बार-बार उसमें डूबने, उस रस धरा में अवगाहन करने को मचलता ही रहता है।
गीत की ऐसी सुरसरिता बहाने वाले और गीतों के माध्यम से काव्यप्रेमियों के हृदय में अपनी चिर स्थायी छाप छोड़ने वाले श्री बुद्धिनाथ मिश्र का नाम नवगीतकारों की श्रृंखला में अत्यंत महत्वपूर्ण है।
लोकप्रिय गीतकार नीरज के समान ही मिश्रजी के प्रारम्भिक गीतों ने ही उन्हें एकाएक लोकप्रियता के उच्च शिखर पर प्रतिषपित कर दिया, जहाँ अनेकों ग्रन्थावलियों से साहित्य के भण्डार को गुरुतर करने वाले कवियों के लिए पहुँच पाना सम्भव नहीं हो पाता, और इसका कारण यही है कि वे गीत लिखते नहीं हैं, गीत उनके अन्तस से फूटता है। वे गीत की उपयुक्त भूमि हैं, उनके अन्दर लोक जीवन की वह माटी है, वह संस्कृति-संस्कार हैं, वह सौंधी गन्ध और छुवन है, जो अनुभूतियों को अपने अंक में अंकुरण का सहज आमन्त्रण देती है, और साथ ही उन्हें पल्लवित-पुष्पित होने का ऐसा प्राकृतिक परिवेश व वातावरण निर्मित करती है, जिनमें रूप, रस और गन्ध से युक्त शब्द पुष्पों के रूप में मूर्तिमान होते हुए ये ‘गीत' स्वरों के मृदु समीकरण का हल्का स्पर्श पाते ही दूर-दूर तक अपनी गन्ध बिखेरते, उड़ते चले जाते हैं।
‘शिखरिणी' की भूमिका में उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है कि 'मेरे मन में बसा मेरा गाँव आज भी जिन्दा है, इसीलिए मैं गीत लिखता हूँ। मेरा मन आज भी गाँवों में रमता है, भले ही मेरा तन हमेशा महानगरों में रहा हो।’ जीवन की तमाम आपाधापी में भी उनके अन्दर रचा-बसा वह गाँव उनसे विलग नहीं हो पाया है, और उसका बिछोह उन्हें रह-रह कर कचोटता रहता है- 'शहरी विज्ञापन ने हमसे/ सब कुछ छीन लिया/ आँगन का मटमैला दर्पण/ पीपल के पत्तों की थिरकन/ तुलसी के चौरे का दीया/ बारहमासी गीतों के क्षण/ हँसी की जुही की कलियाँ जैसी/ प्रीति मेड़ की धनियां जैसी/ सुबहें- ओस नहायी दूबें/ शामें-नयी दुल्हनिया जैसी/ किसने हरे सिवानों का/ सारा सुख बीन लिया।’
गीत काव्य की आदि विध और मानव का आदि राग है। गीत वही जो अनुभूतियों के घनीभूत होने पर मन के सारे तटबन्धों को ढहाकर पहाड़ी नदी सदृश बह निकलता है। अनुभूति का उत्स मानव मन भी हो सकता है और बाह्य संदर्भ भी। सामाजिक संदर्भ, अन्याय, परपीड़न से उद्भूत भावनायें सहसा कविमन में घनीभूत हुईं, कवि का मन छटपटा उठा, और गीत अनुष्टुप बह निकला। अन्तस की यही छटपटाहट और पीड़ा का मर्म ही तो पिघल कर शब्दों में बहता है, तो ऐसा गीत आकार लेता है-
आँसू था सिर्फ एक बूंद/ मगर जाने क्यों
भीग गयी है सारी जिंदगी।
आँगन से सरहद को जाती/ पगडण्डी की
दूबों पर बिखरी/ कुछ बगुले की पाँखें हैं।
अब तो हर रोज/ हादसे गुमसुम सुनती है
अपनी यह गांधारी जिंदगी।
कुँवर बहादुर सिंहजी ने ‘नवगीत दशक' की समीक्षा करते हुए लिखा है- 'नवगीत कोई नयी विध नहीं है, जिसको पहचानने की हम कोशिश करें, नवगीत, गीत की यात्रा का अगला पड़ाव है। वह नयी कविता के समानान्तर एक स्वतंत्र काव्यधारा है। साथ ही नवगीतकार का ‘जेनुइन' होना उसके अन्त तक लिखने पर निर्भर नहीं करता, ‘जेनुइन' नवगीतकार तो वह भी है, जो जीवन में एक नवगीत लिखता है किन्तु गीत की अनुभूति और अभिव्यक्ति के स्वरों पर ऊँचाइयाँ मापता है।’ इस कसौटी पर बुद्धिनाथजी पूरी तरह से खरे उतरते हैं। ऐसा नहीं है कि उन्होंने सिर्फ दो-चार गीत लिखने के बाद लिखना बन्द कर दिया, या अब उनकी कलम में वह जादू नहीं रहा। वरन सच तो यह है कि सम्भावनाओं का आकाश अभी असीमित है, शिखरों के कई सोपान अभी शेष हैं।
वे जितने सशक्त गीतकार हैं, उतने ही समर्थ गद्यकार भी। उनकी गद्यधारा उनके काव्य स्रोत के समानान्तर ही बहती रही है, गीतों में वे जितने छान्दिक और अलंकारिक हैं, गद्य में उतने ही सहज और सरल हैं। विषय को बिना किसी लाग-लपेट के प्रस्तुत करते हैं, और बात से बात निकालते चले जाते हैं, साथ ही मुहावरेदार भाषा और अर्थपूर्ण सूक्तियों से पाठक के साथ ऐसा तारतम्य स्थापित कर लेते हैं कि लगता है वो हमसे रूबरू होकर बातचीत कर रहे हैं। उनका स्वयं का मानना है कि बिना गद्य लेखन के गीतकार या कवि गूँगा होता है। वैसे भी लेखन की असली कसौटी तो गद्य ही है। 'गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति।’ ‘शिखरिणी' की भूमिका इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, भूमिका के बहाने वे पाठक के हृदय में किताब के पन्नों की तरह खुलते और उतरते चले जाते हैं, बात महज कविता से शुरू करके सारे कवियों को अपनी लेखनी के आगोश में कुछ इस तरह समेटते व लपेटते चले जाते हैं कि पाठक समझ ही नहीं पाता कि वह कब उनके शब्दों के सम्मोहन में फँस चुका है, और यही उनके शिल्प की विशेषता है। लोकभाषा के सहज, सरल, मनोरम शब्दों का प्रयोग कर भाषा में एक नई लोच एवं ऐसा सौन्दर्य का विघ्न उत्पन्न कर देते हैं, कि फिर चाहे गद्य हो या गीत, पाठक उनसे बँधकर ही रह जाता है, और शायद इसीलिए उनका वह अमर गीत 'एक बार और जाल फेंक रे मछेरे/ जाने किस मछली में बन्धन की चाह हो', एक बहुत बड़े पाठक वर्ग के मन को बाँधने में सफल हो गया, और जिसने उन्हें प्रसिद्धि के शिखर पर पहुँचा दिया। कवि की पहली शर्त है, एक अच्छा मनुष्य होना, इस कसौटी पर मैंने अधकिांश कवियों व लेखकों को अनुत्तीर्ण होते देखा है, प्रायः उनके चरित्र और रचित में इतना विरोधाभास होता है, कि कई बार सामंजस्य बिठा पाना मुश्किल हो जाता है।
भवानी प्रसाद मिश्र ने शायद ऐसे ही लोगों को समझा देने की गरज से लिखा होगा-
जिस तरह तू बोलता है, उस तरह तू लिख।
और उसके बाद भी उससे बड़ा तू दिख॥
पर बुद्धिनाथजी के लिए इस समझाइस का कोई औचित्य नहीं रह जाता, क्योंकि उनके कृतित्व और व्यक्तित्व में इतनी समानता है कि उसे एक दूसरे से अलग करके देख पाना असम्भव है। उनके हजारों हजार प्रशंसकों का यही मानना है कि बुद्धिनाथजी लेखनी से जितने सरस और मधुर हैं, स्वभाव से भी उतने ही सहज और स्नेही हैं।
उनमें शिक्षा और संस्कार का अद्भुत सामंजस्य है। ‘बूढ़ी माँ' की पाती लिखने से अधिक भावपूर्ण कविता और क्या हो सकती है? और उनका कवि मन उस बूढ़ी माँ में ही साक्षात् सरस्वती का रूप निहारता है, जिन्होंने अपनी पाती लिखने के लिए उनकी कलम को चुना है-
कहती- तुम हो युग के सर्जक/ बेहतर ब्रह्मा से
नीर-क्षीर करने वाले/ हो तुम्हीं हंस मेरे।
फूलों से भी कोमल/ शब्दों से सहलाती है।
मुझे बिठाकर राजहंस पर/ सैर कराती है।
अपनी चिट्ठी बूढ़ी माँ/ मुझसे लिखवाती है
जो भी मैं लिखता हूँ/ वो कविता हो जाती है।
उनके गीतों का धरातल प्रायः श्रृंगारिक है, पर उनका श्रृंगार प्राकृतिक उपमाओं और उद्दीपनों से अलंकृत होकर और भावों की गहराइयों से चमत्कृत होकर एक लज्जाशील व कुलीन नववधू के रूप में कुछ इस तरह हमारे सामने आता है कि श्रृंगार के माने ही बदल जाते हैं, जहाँ पहुँच कर सौन्दर्य दैहिकता से दिव्यता ग्रहण कर लेता है और प्रेम, पूजा बन जाता है-
नये कदलीपत्र पर नख से
लिख दिया मैंने तुम्हारा नाम
और कितना हो गया जीवन
भागवत के पृष्ठ-सा अभिराम।
आज बारंबार तुममें जिया मैंने
सुबह काशी की, अवध की शाम।
बुद्धिनाथजी जितने भावुक और संवेदनशील रचनाकार हैं, उतने ही मधुर और सुरीले गायक भी। उनके गीत उनके स्वरों के बिना अधूरे हैं, शब्दों और स्वरों के सुन्दर समायोजन के कारण ही वे सदैव मंच के चहेते कवि रहे हैं।
बुद्धिनाथजी केवल लोकप्रिय गीतकार ही नहीं हैं, बल्कि मंच की स्तरीयता को कायम रखने के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध रचनाकार हैं। मुझे उनके साथ देश के विभिन्न क्षेत्रों में बड़े कवि सम्मेलनों में भाग लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, जिससे मैं कह सकती हूँ कि उनके मार्गदर्शन में आयोजित कवि सम्मेलनों में केवल कविता बोलती है, मंचीय कलाकारों के लिए वहाँ कोई स्थान नहीं होता, और यह एक प्रकार से आँधियों के बीच कविता के दीप को जलाये रखने का संकल्प है, जिसे वे पूरी दृढ़ता के साथ निभाते आ रहे हैं।
उन्हें पढ़ते और सुनते समय मुझे एक श्लोक की पंक्तियाँ बार-बार स्मरण हो आया करती हैं-
नरत्वं दुर्लभं लोके, विद्या तत्र सुदुर्लभा।
कवित्त्वं दुर्लभं तत्र, शक्तिस्तत्र सुदुर्लभा॥
बुद्धिनाथजी एक अच्छे मनुष्य (नरत्वं) भी हैं, एक अच्छे विद्वान (विद्या), एक अच्छे कवि (कवित्वं) भी हैं, और उनकी कविता में वह 'शक्ति भी है जो हर सहृदय के अन्तर्मन को छू ले। कवित्व तो साधना से हासिल किया जा सकता है, मगर ‘कवित्वशक्ति' पूरी तरह से ईश्वरीय देन है, जो बुद्धिनाथजी जैसे सौभाग्यशाली कवि को ही प्राप्त होती है।
यादों के बहाने से
विश्वश्रम दिवस पर जन्मे बुद्धिनाथ मिश्र
महाश्वेता चतुर्वेदी
बुद्धिनाथ मिश्रजी ने कुछ समय पूर्व तक एक निष्ठावान राजभाषा अधिकारी/ मुख्य प्रबंधक के रूप में अपनी भूमिका का निर्वहन किया। विश्व श्रम दिवस (1 मई) पर जन्मे बुद्धिनाथजी ने अपने जीवन से श्रम एवं साधना का महत्व भी प्रतिपादित किया। कठोर श्रम के बीच आपके हृदय में काव्य मन्दाकिनी सदैव प्रवाहित रही जिसने श्रम की आग में कभी आपको सन्तप्त नहीं होने दिया, अपितु गीतामृत पिलाकर आपमें सदैव नयी ऊर्जा को विकसित कर आपको गतिमान बनाया।
काव्य संगोष्ठियों में मेरी भेंट बुद्धिनाथ मिश्रजी से होती रही है। आपकी रचनाएँ सुनने का सौभाग्य इन्हीं काव्य गोष्ठियों में मिला है। हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, इलाहाबाद में आपको कई बार सम्मानित होते ही नहीं देखा, आपको सुना भी है। आपकी रचनाओं में मानवता के स्वर मिलते हैं। आपकी रससिक्त काव्य-पंक्तियाँ आज भी हृदय को आन्दोलित करती हैं।
सहजता, गुणग्राही स्वभाव, काव्य प्रतिभाओं का सम्मान, भाव गाम्भीर्य एवं प्रेरणास्पद चिन्तन आपके व्यक्तित्व की विशेषताएँ हैं। आप साहित्यकारों एवं समाजसेवकों से सदैव सम्पर्क एवं स्नेह बनाये रखते हैं। इसी क्रम में मुझे 2 मई 2009 को आपका पत्र प्राप्त हुआ, जिसे मैंने आद्योपान्त दो बार पढ़ा, 'आपको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि पहली मई 2009 को विश्व श्रम दिवस के साथ-साथ मेरा भी 61वाँ जन्म दिवस मनाया गया। उससे पहले 30 अप्रैल, 2009 को मैं लगभग चार दशकों से लदी हुई नौकरी की केंचुल उतार आया और लम्बी सुरंग से निकलने के बाद पहली बार मुक्त दृष्टि से अपने आस-पास की पृथ्वी की हरीतिमा को देख सका।’ मिश्रजी सेवानिवृत्ति को पुनर्जन्म मानते हैं, जिसने उन्हें एक नया जीवन दिया है। मिश्रजी में अपने कार्य के प्रति निष्ठा है और देश के प्रति समर्पण की भावना। इसीलिए वह कहते हैं कि 'सेवानिवृत्ति के बाद वह उन्मुक्त यायावर के रूप में देश के प्रति समर्पित होकर काव्य के माध्यम से मूर्छित समाज को जगाने का प्रयास करेंगे। ऋग्वेदीय ऋचा अविराम चलने की प्रेरणा देती है- 'चरैवेति चरैवेति, पश्य सूर्यस्य क्षेमाणं यो न तन्द्रयते चरन्', अर्थात् हे जीव तू निरन्तर कर्मशील रह, सूर्य को देख जो पल भर भी विश्राम नहीं करता।
आपने अपने पत्र के अन्त में लिखा है- 'अब मैं कार्यालय की व्यस्तता से मुक्त अहर्निश सरस्वती की आराधना कर सकूँगा।’ सरस्वती का साधक सदैव सरस्वती के मन्दिर में काव्य प्रसूनों के पुष्प अर्पित करता है। आप भी सरस्वती के साधक हैं अतः काव्य साधना के संदर्भ में संकल्पित हैं। सरस्वती ही जीवन को पावन बनाकर चरम लक्ष्य तक ले जाती है, जिसके लिए साधना में समर्पण एवं ललक हेानी चाहिए।
श्री बुद्धिनाथ मिश्र सरस्वती के साधक हैं। लोकमंगल के लिए साहित्य साधना करना और सामाजिक एवं राष्ट्रीय विसंगतियों के अन्धकार को दूर करना उनका ध्येय है। इसीलिए काल शिला पर मधुर चित्र के इस निर्माता की रचनाएँ मुझे लगती हैं सुंदर एवं प्रिय-
गाती मधुर गीत उत्सव के
सजती पुष्पों से, पर्णों से
प्राची और प्रतीची के तन
रचती चित्र विविध वर्णों से।
पयस्विनी सरिता बन कोटिक
संतानों का पोषण करती।
यादों के बहाने से
जय होगी, निश्चय जय होगी
शिवम् सिंह
लगभग दो वर्ष पूर्व शंभुनाथ सिंहजी द्वारा संपादित ‘गीत-दशक-3' में संकलित बुद्धिनाथ मिश्रजी के गीतों को पढ़ने का मुझे सुअवसर मिला था। उनके गीतों ने इतना अधिक प्रभावित किया कि उनमें से एक-दो गीतों को मैंने वाद्ययंत्रों के सहयोग से गाया भी था। समय बीता और मन करने लगा कि इस गीतकार की कुछ और नयी रचनाओं को पढ़ा जाय। पर समस्या यह थी कि उनकी रचनाएँ मेरी पहुँच से बहुत दूर थीं। एक दिन इन्टरनेट पर ई-पत्रिकाओं के पृष्ठ पलट रहा था कि तभी उनके गीत पढ़ने में आ गये। पढ़कर मन प्रसन्न हो गया। फिर जिज्ञासा हुई कि इस कवि को जाना जाय। इसी क्रम में सृजनगाथा डाट कॉम पर उनका साक्षात्कार पढ़ने को मिला, उससे मुझे उनके व्यक्तिगत जीवन-संघर्ष तथा चिंतन-मनन के बारे में जानकारी मिली। धीरे-धीरे वेबजाल तथा अपने बड़े भाई श्री अवनीश सिंह चौहान के माध्यम से और भी बातें पता चलीं। और पता नहीं कब मैं इस गीतकार का प्रशंसक बन गया।
मिश्रजी के पास जीवन जगत का बहुत बड़ा अनुभव है और है ऐसा चिन्तन जिसके बल पर वह इतनी मन-भावन कविता कर लेते हैं। उन्होंने देश-दुनिया देखी है, विभिन्न समाज एवं संस्कृतियाँ देखी हैं और किया है खूब अध्ययन। यही सब उनके लेखन का स्रोत बना और सामाजिक व्यवहारों के निष्पादन में भी इससे उन्हें काफी मदद मिली होगी और जब उन्होंने अपनी इन व्यापक अनुभूतियों को गीतों में ढाला तो उनके गीतों में वैयक्तिक चिन्तन, सामाजिक सरोकार, लोकरंग एवं प्रकृति के बिंब उभरने लगे, अपनी पूरी अर्थवत्ता के साथ।
हालांकि उत्तर-आधुनिक समय में विज्ञान और तकनीकी प्रगति को जीवन का महत्वपूर्ण उद्देश्य माना जा रहा है, पर उसका साइड इफैक्ट भी दिखाई दे रहा है- लोगों में बढ़ती हुई कुंठा, भय, एकाकीपन, भूख, अतृप्ति, संत्रास, आक्रोश, वासना के रूप में। और इन्हीं बातों को मिश्रजी अपनी रचनाओं में अपनी निजी छाप के साथ व्यक्त करते हैं। इन रचनाओं में उनका मन्तव्य स्पष्ट हो जाता है कि वैज्ञानिक प्रगति के साथ-साथ हमारी सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रगति भी हो, ऐसी प्रगति जहाँ पर उक्त प्रकार की विसंगतियाँ/ विरोधाभास कम से कम हों और खुशियाँ अधिक से अधिक।
यह सुकवि कभी गाँवों की उदासी-बेचैनी को चित्रित करता है, तो कभी जलवायु विज्ञान का हमारी प्राकृतिक संपदा पर पड़ते दुष्प्रभावों को रेखांकित करने लगता है और कभी-कभी तो यह कवि पीड़ित लोगों का पक्षधर बनकर मौसम विज्ञान के रहस्यों को लोक विश्वासों, प्राकृतिक संकेतों के माध्यम से व्यंजित करता दिखाई पड़ता है- 'घर की मकड़ी कोने दुबकी/ वर्षा होगी क्या?/ बाईं आँख दिशा की फड़की/ वर्षा होगी क्या?' और 'रेत नहा गोरैय्या चहकी/ वर्षा होगी क्या?' इस गीतकार का चिन्तन गाँवों तक ही सीमित नहीं है, यह खेत-खलिहान से निकलकर राष्ट्रीय महत्व के प्रश्नों पर भी विचार करने लगता है और इसके लिए ले जाता है वह पाठकों को दिल्ली- जहाँ पर बड़े-बड़े मठाधीश-दलाल-राजनेता बैठे हैं कुण्डली मारे और चूस रहे हैं इस देश को-
देखी तेरी दिल्ली मैंने, देखे तेरे लोग
तरह-तरह के रोगी भोगें, राजयोग के भोग।
पाँच बरस पहले आया था घुरहू खस्ताहाल
अरबों में खेलता आजकल ऐसा किया कमाल
तन बिकता औने-पौने और मन कूड़े के भाव
जितना बड़ा नामवर, समझो उतना बड़ा दलाल
यहाँ बिके ईमान-धरम, क्या बेचेंगे हमलोग?
यह उनका साहस ही है कि वह बेखौफ अपनी बात कह लेते हैं, बिना किसी लाग-लपेट के। उनकी यह निडरता उनके कई गीतों में दिखाई देती है। अपने गीत ‘जनता कहती' में वह सामाजिक, राजनैतिक तथा नैतिक पतन की ओर हमारा ध्यान खींचते हैं-
भारत के सिरमौर विधायक, सांसद, मंत्री
मेहतर पूरा देश ढो रहा सिर पर मैला
काटें किसे, किसे रहने दें, प्रश्न कठिन है
पूरे तन में कदाचार का कैंसर फैला।
भैंस चरानेवाले उड़ते आसमान में
बोधिसत्व रह गये निरक्षर, जनता कहती।
कभी मिश्रजी हमारे आपसी रिश्तों की टूटन को रुपायित करते हैं तो कभी बढ़ते झगड़ा-फसादों को- 'अब तो कर्फ्यू है, दंगे हैं/ मिलती गोली सड़कों पर।’ कभी जलते सीवानों की याद दिलाने लगता है यह गीतकार- 'जल रहा है धर्म तक सीवान का।’ बढ़ती गुटबन्दी, अवसरवादिता, झूठ-फरेब, संवेदनहीनता एवं ‘बिजी विदआउट बिजनेस' की मानसिकता कवि को बहुत आहत करती है- 'तम्बुओं में बंट रहे रंगीन परचम/ सत्य गूँगा हो गया है इस सदी में/ धन पाँकिल खेत जिनको रोपना था/ बढ़ गये वे हाथ धो बहती नदी में/ मैं खुला डाँगर सुलभ सबके लिए हूँ/ लोग अपनी व्यस्तता में मढ़ गये हैं।’ फिर भी वह समर्पित बीज-सा अपना काम कर रहा है और अब भी है उसके अन्दर जिजीविषा- 'शिखा मिटती नहीं है/ लाख अंधे पंख से इसको बुझाओ/ आँचलों की ओट यह/ जलती रहेगी।’ सकारात्मक एवं लोकहितकारी सोच तथा समर्पण को देखकर मेरा मन कहता है कि इस गीतकार की- ‘जय होगी, निश्चय जय होगी।'
आलेख
बुद्धिनाथ मिश्र का गीत-कर्म
वेदप्रकाश ‘अमिताभ'
‘कबीर सम्मान' ग्रहण करते समय श्री अशोक वाजपेयी ने बाजारू महाजनी सभ्यता और कथित भूमंडलीकरण के खतरे को रेखांकित करते हुए जहाँ सत्ता और राजनीति द्वारा इनके सामने घुटने टेक देने पर क्षोभ व्यक्त किया, वहीं वे साहित्य की भूमिका के प्रति आश्वस्त दिखाई देते हैं। साहित्य ही एक ऐसी जगह बची है, जहाँ एक गहरा और लगातार, बौद्धिक और सर्जनात्मक प्रतिरोध आज भी है। न केवल हिन्दी साहित्य में बल्कि समूचे भारतीय साहित्य में शायद ही कोई रचना हो, शायद ही कोई लेखक हो जो इन (बाजारवादी) शक्तियों के पक्ष में खड़ा हो (अक्षरपर्व, मार्च 2007)। गीतकार बुद्धिनाथ मिश्र भी प्रकरांतर से इस सत्य को स्वीकारते हैं, लेकिन मुक्तछंद की कविताओं के स्थान पर वे प्रतिरोध की क्षमता गीतकाव्य में अधिक पाते हैं- 'गीत की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि यह बड़ी क्रांति या बड़े परिवर्तन के लिए उपयुक्त भावभूमि तैयार करता है। ... बार-बार दुहराने से वे मन को आंदोलित करते हैं, भाव को संघनित करते हैं और अपने समय की विसंगतियों के विरुद्ध उठ खड़े होने की ऊर्जा देते हैं।’ अतः यह आकस्मिक नहीं है कि उनके अपने कई गीत अपने समय के प्रति सजग और प्रतिवाद-क्षम दिखाई देते हैं। उन्होंने प्रणयानुभूति और प्रकृतिराग से जुड़े गीत बराबर लिखे हैं, लेकिन समय-समाज का यथार्थ उनकी दृष्टि से कभी ओझल नहीं होता है।
श्री मिश्र के समय-बोध और मूल्यबोध में हीनतर स्थितियों की ओर संक्रमण को देखकर उपजी ‘चिंता' केन्द्रस्थ है। यह अवमूल्यन बहुत व्यापक और बहुआयामी है। कहीं आत्मीय सम्बन्धों के बबूल बन जाने का दंश है- ‘चंदन के गाछ बने/ हाशिए बबूल के' तो कहीं जिजीविषा के दम तोड़ने का हादसा है- ‘खो गयीं नदियाँ सभी अंधे कुएँ में' शहराती विकृतियों की जकड़न में ग्राम संस्कृति- ‘तुलसी की पौध रोंदते शहरों से लौटे जो पाँव', उत्पीड़ित रचनाशीलता- ‘हर कलम की पीठ पर/ उभरी हुई साटें' हिंसा का ग्रास बनती लोकजीवन की सुवास- ‘लोकरंगों में खिले सब फूल/ बन गये खूंखार पशुओं के निवाले' और आततायियों का वर्चस्- ‘बु( को देते अंगुलिमाल यहाँ उपदेश'- ये किसी भी संवेदनशील मन को तिलमिला देने के लिए पर्याप्त हैं। भूमण्डलीकरण और बाजारवाद ने कोढ़ में खाज की स्थिति पैदा कर दी है। ‘शहरी विज्ञापन ने हमसे/ सब कुछ छीन लिया'- यह एक कटु वास्तविकता है। इस ‘सब कुछ' में हमारी प्रकृति, संस्कृति, अस्मिता और न जाने क्या-क्या दाँव पर लगा हुआ है। एक गीत में बुद्धिनाथ मिश्र ने गिरावट, प्रदूषण, अधःपतन का जो चित्र खींचा है, वह डराने वाला है-
आये घोष बड़े व्यापारी/ नदी बनेगी दासी
एक-एक कर बिक जाएगी/ अपनी मथुरा काशी।
बेच रहा इतिहास इन दिनों/ यह बाजार अनोखा।
इस आयातित और आरोपित मुसीबत की शिनाख्त में गीतकार से कोई चूक नहीं हुई है। 'पश्चिम का वह जादूगर/ आया है पैंतरे बदल।’ मीडिया की भूमिका इन व्यावसायिक स्वार्थों की सिद्धि में सर्वाधिक सहयोगी और घातक है। इसने एक ओर ‘टैलेन्ट' और ‘कॅरियर' के नाम पर नारी की गरिमा को ठेस पहुँचाई है- 'होड़ लगी है, कौन रूपसी/ कितना बदन उघारे' तो दूसरी ओर देशी जीवनप(ति और लोक संस्कृति पर कुठाराघात का यह निमित्त बना है- 'दीनाभद्री, आल्ह, चनैनी/ बिहुला, लोरिक भूत हुए/ नये प्रेत के सौ-सौ चैनल/ बोलें बोली सड़कों पर।’
बुद्धिनाथ मिश्र की अपने परिवेश से सम्पृक्ति और अपने समय की कुरूपताओं से टकराने की प्रकृति इस संदर्भ में और उल्लेखनीय हो जाती है कि कतिपय समीक्षक और पाठक गीत को कठोर वास्तविकताओं की अभिव्यक्ति में सक्षम और सफल नहीं मानते। उपर्युक्त उदाहरणों से इस पूर्वाग्रह का प्रतिवाद होता है। एक संवेदनशील और विचारप्रवण रचनाकार के रूप में श्री मिश्र न केवल संस्कृति और मनुष्यता पर मँडरा रहे खतरों को चीन्हते हैं, अपितु उन्हें प्रश्रय देने वाली व्यवस्था के अन्तर्विरोधों को भी रेखांकित करते चलते हैं। गणतंत्र को ‘गले लिपटा अधमरा यह सांप' कहना मोहभंग की परिणति है या निर्मम-क्रूर विश्लेषण के बाद का ‘सच'? ‘हर मौसम के हाथों/ हम बार-बार क्यों छले गये' जैसे सवालों से तो यही लगता है कि यह ‘सच' अनुभव की प्रमाणिकता से निथरा है और व्यक्तिगत न होकर सार्वजनिक है। कुछ उ(रण प्रमाण के तौर पर देखे जा सकते हैं-
लोकतंत्र हो गया, तमाशा पैसे का है
उजले पैसे पर हावी है काला पैसा।
×× ××
जिसमें डाकू हों निर्वाचित
साधू की लुट जाय जमानत
ऐसे लोकतंत्र पर लानत!
ये उद्गार गीतकार के क्षोभ और नैराश्य के सूचक हैं लेकिन उसके ‘विजन' में अंततः परिवर्तन का विश्वास भी जहाँ-तहाँ झांकता है। उसे विश्वास है कि श्रमजीवी वर्ग वांछित सकारात्मक बदलाव लाने में सक्षम है, ‘हम किसान इस धरती की/ तकदीर बनाना जानें'।
बुद्धिनाथ मिश्र ने प्रणय और प्रकृति के गीत पर्याप्त संख्या में लिखे हैं और उनकी कारयित्री प्रतिभा इस तरह के गीतों में बहुत खुलकर, बहुत संवेदनात्मक आर्द्रता के साथ अभिव्यक्त हुई है। प्रणय गीतों में ‘मौसमी गुनाह', ‘वर्जना-दंशित समर्पण', ‘यादों की बारात', ‘खिलखिलाहट-सी लिपट' ही नहीं हैं, पावन और लोकोत्तर अनुभूतियाँ भी हैं, ‘गुनगुनाकर गीतगोविन्दम् अधर पर/ जिंदगी का हम चुकाएँ रिन'। रतिभाव का उदात्तीकरण करनेवाले गीत दिनकर और र्धमवीर भारती की भावभूमि के बहुत निकट जान पड़ते हैं। राध-कृष्ण, भागवत, बाँसुरी, यमुना कदंब सीधे-सीधे गीतों में आते हैं और प्रेम की पावनता, प्रणय में भक्ति भाव सरीखी उदात्तता की व्यंजना करते हैं-
रूप जैसे भागवत के पृष्ठ से
गुपचुप निकल कर
स्वयं राध आ खड़ी हो।
×× ××
नए कदलीपत्र पर नख से/ लिख दिया मैंने तुम्हारा नाम
और कितना हो गया जीवन/ भागवत के पृष्ठ-सा अभिराम।
हालांकि भागवत में राध का उल्लेख तक नहीं है लेकिन पाठक-श्रोता अभिप्रेत व्यंजना को स्पर्श कर ही लेता है। अधिकतर प्रणयगीतों में प्रकृति का जीवन्त साहचर्य है, जो इन गीतों को और आत्मीय, मर्मस्पर्शी और संप्रेषणीय बनाने में सक्षम है। श्री मिश्रजी की पहचान ‘जाल फेंक रे मझेरे!' से बनी थी, जिसकी बुनावट में प्रकृति बिम्बों की प्रभावशाली भूमिका है। ‘कोंपलों-सी नर्म बाहें', ‘जामुन की कोंपलें' आदि गीतों में कई ताजे टटके प्रकृति चित्र हैं। अप्रस्तुतों-प्रतीकों-बिम्बों की विभूति से प्रायः सभी गीत समृद्ध हुए हैं। उनकी अर्थवत्ता सघन हुई है। ‘नदी' गीतकार को सर्वाधिक प्रिय है, इसलिए वह गीतों में कई रूपों में आती है। नदी अर्थात् सतत प्रवहमान जिजीविषा। अतः यह स्वभाविक नहीं है कि कई गीतों में गंगा, कमला, बागमती, स्वर्णरेखा ही नहीं, कर्मनाशा भी है, अपनी अनेक अर्थ-व्यंजनाओं के साथ। एक गीत में गंगा, नर्मदा के नाम पाती लिखती है और यह ‘पाती' तमाम सांस्कृतिक प्रदूषण को अनावृत कर जाती है। ‘भरी दुपहरी पानी-पानी चिल्लाती' नदी और ‘दुबरायी नदी की मौत' न केवल देश-धरती अपितु मनुष्य मात्र के विनाश की स्पष्ट चेतावनी है। लेकिन गीतकार की सकारात्मक और आस्थावान मूल्य-दृष्टि ‘नदी' के माध्यम से बचे रहने के प्रति आस्थावान लगती है-
नदी रुकती नहीं है
लाख चाहे सेतु की कड़ियाँ पिन्हा दो
ओढ़ कर शैवाल वह चलती रहेगी।
बुद्धिनाथ मिश्र कलावादी सर्जक नहीं हैं, लेकिन वे अपने गीतों के कलात्मक रचाव के प्रति पूरे सचेत और सतर्क हैं। उनके अप्रस्तुत-विधन में ‘जमीन' और ‘आकाश' दोनों का हस्तक्षेप सर्जनात्मक है। जमीन अर्थात् जिये गये अनुभव-क्षणों की जमीन और आकाश अर्थात कल्पना की उड़ान। उनके कई नये-से लगने वाले बिम्ब इस संश्लिष्टता की गवाही देते हैं-
चाँद ज्यों चढ़ावे का नरियर हो
ज्वारों पर, भाटों पर तैरते हुए।
×× ××
ओढ़ कर बैठे सभी ऊँचे शिखर
बहुत महँगी धूप के उनी दुशाले।
×× ××
चूमते हुए छुरी कसाई की
मेमने सरीखे ये दिन बीते।
इनमें बिम्ब ग्रहण के साथ अर्थग्रहण की कोई समस्या नहीं है। लेकिन गीतकार की अनुभूति और अभिव्यक्ति का संश्लिष्ट सौन्दर्य उन गीतों में अद्भुत रूप में है जहाँ लोकजीवन की छवियाँ हैं। ‘नवगीत' की लोक संपृक्ति को यहाँ व्यावहारिक एवं सफल रूप में देख सकते हैं- 'हँसी जुही की कलियाँ जैसी/ प्रीति मेड़ की धनियाँ जैसी/ सुबहें ओस नहायी दूबें/ शामें नयी दुल्हनियाँ जैसी।’ साथ ही श्री मिश्रजी के चर्चित गीत ‘धन जब भी फूटता है' में एक स्थान पर ‘ऊख' से जो बिम्ब और अर्थ संप्रेषित किया है, वह गीतकार की अभिव्यंजना-शक्ति को प्रमाणित करता है- 'ऊख जैसी यह गृहस्थी/ गाँठ का रस बाँटती निर्बंध।’
इसी तरह पुराख्यानों से लिए गए कुछ बिम्ब गीतकार के निजी वैशिष्ट्य के रूप में रेखांकित किए जा सकते हैं। हालांकि ‘शेष के मस्तक चमकता नित्य/ फण-मणि-सा', मणि-हारे तक्षक', ‘द्रौपदी की खुली वेणी', ‘सौ-सौ विवश पृथाओं' जैसे पद सामान्य पाठक के लिए कई पाठ की अपेक्षा रखते हैं, लेकिन गीत-नवगीत के संस्कारी पाठकों के लिए असंप्रेषणीय नहीं हैं। श्री मिश्रजी ने ‘शास्त्र' पढ़ा है, लेकिन जिया ‘लोक' को ही है। जहाँ भी लोकधर्मिता का स्पर्श है वहाँ ‘वस्तु' से लेकर भाषा अप्रस्तुत बिम्ब, अभिव्यक्ति शैली तक दीप्त हो उठी है। ‘आर्द्रा' गीत की कुछ पंक्तियाँ गवाह हैं कि लोक की कथन-शैली कैसे गीत को एक नई मुद्रा दे जाती है-
सुन्नर बाभिन बंजर जोते/ इन्नर राजा हो!
आँगन-आँगन छौना लोटे/ इन्नर राजा हो!
कितनी बार भगत गुहराये/ देवी का चौरा?
भरी जवानी जरई सूखे/ इन्नर राजा हो!
बुद्धिनाथ मिश्र के बहुत से समकालीन बदलते समय के तेवरों से विचलित हो ‘नवगीत' के मुहावरे को छोड़कर ‘जनगीत' और ‘गजल' की दिशा में बढ़ गये हैं। श्री मिश्रजी इस विचलन से अप्रभावित आज भी ऋतु की श्रृंगार बेला और रस निचोड़ती यादों में अधिक रमते हैं। धरती और जीवन से रस लेने की उनकी प्रकृति उन्हें और उनके गीतों को युवा और जीवन्त बनाये हुए है तो यह कोई साधरण बात नहीं है-
मैंने गैरिक चीवर पहन लिया है
सच है
लेकिन तुमसे प्यार किया है
यह भी सच है।
आलेख
युगीन चेतना का संवाहक गीतकार ः बुद्धिनाथ मिश्र
गिरिजाशंकर त्रिवेदी
प्रेरणा-प्रसूत डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाएँ स्वतः संस्फूर्त, सहज हैं। ‘सृजत्यात्मान मात्मना' की उक्ति का आलंबन लेकर कहा जा सकता है कि उन्होंने गीत रचे नहीं हैं, प्रत्युत वे गीतों में स्वयं रच गये हैं। रचनाएँ शिल्प के बन्धनों में भी निर्बन्ध, छन्द-छन्द स्वछन्द, अनुभूतियों की समृद्धि है, भाषा का दारिद्य कतई नहीं। जंगम भाव, यती चिन्तन, कुसुमित कल्पना-वितान सभी मिलकर उनका गीत-विधन निर्मित करते हैं। सुन्दरता घूँघट उठाकर झाँकती, रग-रग में राग की तरंगें अकुलाती, प्यासी दोपहरी है, रंग डूबी सांझ है, संगीत के नूपुर बांधे हैं उनकी गीतियाँ। करतल में मेहंदी-रंजित अनुराग, कंचुक बिम्बित उभरे अरमान, अशिथिल सन्धबिन्ध, प्रमाथि बलव दृढ़ मन का उद्भास, किन्तु मर्यादा की चूनर। विरोधी भावों की अविरोध सहयात्रा लक्ष्य साधने में अभिव्यक्ति को प्रखरतर बनाती है। कहीं गंभीरता का ठहराव, कहीं भावों की तरलता, कहीं पग-पायल की रसाल ध्वनि, कहीं सौन्दर्य-वधर्क उनींदापन, कहीं उद्दीपक तिग्मता, कहीं पंक्तियों की बेचैनी, कहीं विलास-मन्थरता है, युगसत्य उनके गीतों के वातायन से झाँकता और भाववती धरा को देता है सुदृढ़ सुडौल तट। नई-नई गेय ध्वनियाँ उनके गलबहियां डाले हैं। यह भी कहा जा सकता है कि उचक्का युगसत्य अपने दीदा चमकाता और विसंगतियों की कुर्बर सदरी पहने आज का यथार्थ भी मस्ती के साथ टहलता है उनके गीतों की गलियों में। उनके गीतों में है इतिहास-बिम्बों का दिक् प्रसार, पुरातनता पंख पसारे नवीनता की निर्झरिणी में अवगाहन करने उतरती। रागों का आमंत्रण और रंगों का आह्वान है उनमें। वे कामिनी के धवल कृष्ण सारोपम भ्रूभंग की तरह प्रभावक हैं।
लोकरंग की अनेक रचनाएँ हैं इस कवि की काव्य कृतियों में। गीतकार वातावरण का भी कुशल चितेरा है। कोई-कोई बोल एक अनोखी संगीतात्मकता घोल जाते हैं वातावरण में- ‘रात हुई है चुपके-चुपके। इन अधरों से उन अधरों की, बात हुई है चुपके- चुपके।' ग्राम्य जीवन की कुल-क्रमागत मर्यादाएँ जैसे गीत विहग के पंख सहलाती हैं। अवसर-अवसर पर पौराणिक पात्र उपस्थित हो गीत-शिविका को कहारों की भाँति कन्धों पर धर लेते हैं, वह उसके सम्बन्धों का विज्ञाता भी है। वह उस उदार रमणीया धरती का यशोगायक है, जिसकी छटा धूपिया और चंदनियाँ रंगों में छिटकी है एक साथ-जीवन्त चित्र फलक, जगमग चित्र। ऋतुओं की श्री-सुरभि आप्यायित करती। लोक मान्यताएँ रचना की मुँदरी में नीलम-सी जुड़ी हैं। विरह दग्ध प्रणयी मन से परिचित कराती हैं ‘गाथा'। परिवर्तन में भी अपरिवर्तित की पहचान है ‘तुम बदले' में। प्रणय पगी पंक्तियाँ गीतद्वार का बंदनवार बनी हैं। मौसम और प्यार के घुले-मिले गीत हैं। कामना का गीत है ‘प्रेम गीत'। ‘सूनी आँखों का गीत' प्रतीक्षा गीत है। युगल गीत एक सारवत् प्रयोग है। कवि की कृतज्ञता का गीत है ‘वेणुगीत'- 'मैं तो थी बंसरी अजानी/ अर्पित इन अधरों की देहरी/ तेरी साँसें गूँजी मुझमें/ मैं हो गई अमर स्वर लहरी।’ संदेश बहुध गीतात्मक ही होते हैं। ‘एक पाती नर्मदा के नाम' एक विराट आयतन की रचना है। ‘और तप तू पार्थ' हो या 'जय होगी-जय होगी हे पुरुषोत्तम नवीन' के ‘निराला' विश्वास का स्मरण कराती 'जय होगी, निश्चय जय होगी/ भारत की धरती पर इसकी/ जनभाषा की ही जय होगी।’ जैसी पंक्तियाँ विश्वास का नक्षत्रोदय हैं। ‘शिखरिणी' में कामना की क्वॉरी कलियाँ भी हैं और गीतकार की खोज भी है कलावसना। 'पानी में तेजाब घोलकर/ पौधों को सींचेगा' जैसी बात कहकर गीतकार 'को नामोष्णोदकेन नव मालिकां सिन्नचति' की कालीदासीय भूमि का भी स्पर्श करता है। कटखनी सच्चाइयों के मध्य कुछ कोमल कामनाएँ अंकुराई भी हैं और मुरझाई भी। शब्द के प्रश्न और उसी के द्वारा दिये गये उत्तर में समुद्भावनाओं के मोती बिखरे हैं- 'शब्द मुझसे पूछ बैठा आज,/ तुम मेरी कीमत समझते हो? ...मैं नगीने-सा कभी जड़ता अंगूठी में/ और चिड़िया बन कभी सेती मुझे कविता।’ बुद्धिनाथ के गीत की चौपाल में शब्दों की सुमित्र संसद जुड़ी है, जिसमें है गजब की व्यंजकता- 'तू न संगत में रहा कवि की, इसी से/ यार तेरा ल'रज इतना खुरदुरा है।’
उनके गीतों में आज की दुरंगी प्रवृत्तियों के बीच, कवि की संतुष्टि और तृप्ति की दुष्प्राप्य मनोभूमियों की झलक है, अघटनीय घटनाओं पर प्रश्नाकुलता, विधुर वातावरण में नैराश्य का घुमड़ता-घिरता धुआँ, पर अभिव्यक्ति में आग्नेयता। गीतकार के रचना-संसार में यदि भटकती तृषा है और विचरती मारीची मरीचियाँ तो मन का वह सत्य भी है जिसमें संयम का चट्टानी सेतु भी दरक जाता है। उसी के सामानांतर बाज की तरह झपट्टा मारकर उतरे परिवर्तन से लथपथ हुई दुनिया की आकृतियों का प्राकृत स्वरूप और दुर्घटना घटित जीवन के तुड़े-मुड़े पृष्ठ भी हैं। युगीन चेतना की दीप्ति तो कहीं भी फीकी नहीं है उसमें। ‘वाम तर्जनी पर कालिख' में कवि कथित लोकतंत्र को लतियाता है यह कहकर 'चुन देना था जिनको दीवारों में/ वे चुन लिए गए हैं/ जिसमें डाकू हों निर्वाचित/ साधु की लुट जाय जमानत/ ऐसे लोकतंत्र को लानत।’ ‘अब पछताए होत क्या जब चिड़ियाँ चुग गई खेत' की उक्ति प्रसि( है, पर कुछ है जो पछताने की जगह अकड़ और बन्धया ऐंठ भी दिखा रहे हैं। गीतकार ने ऐसों को अच्छी डाँट लगाई है। साथ ही उदार बोध और कर्तव्य की सामयिक दिशा दी है ‘ज्ञानवापी' रचना में-
ध्यान में थे मग्न या तुम सो रहे थे?
जब असुर दल तोड़ने मंदिर चला था
मजहबी उन्माद से होकर तिरस्कृत
क्यों न बन पाया बनारस कर्बला था?
×× ××
प्यार दो भरपूर अग्रज का उन्हें तुम
वे नमाजी भी तुम्हारे ही सगे हैं।
भारतीय जीवन की ऊर्जा का अक्षय ड्डोत गाँव ही छिन्नमूल हो गया तब काहे की उमंग, कैसा उत्साह 'वे रिश्ते नाते गाँवों के/ लोकगीत, वे मेले/ सबसे सबका नाता टूटा/ पड़े रह गये झूले/ फुरसत नहीं किसी को बरगद छैयाँ सुस्ताने की/ पनघट को ढूँढे वह वेला गागर छलकाने की।’ ‘स्वगत' में भी गीतकार की वह पीड़ा उमड़ी है जो आधुनिक विसंज्ञ जीवन की देन है। जबकि वह विकृति व्याधयिों का उपचार मानता है प्रकृति की कोमल क्रोड।
मात्र चितेरा नहीं है यह रचनाकार। यह आगाह भी करता चलता है। इसमें स्वाभिमान के स्वत्व का प्रकाशन है और है कथित प्रगतिशीलता पर निशित व्यंग्य। चेष्टा उसकी यह रही कि विमना दृष्टि संस्कारवती बने। इसलिए वह धूल में दबे आत्मबोध को उभारकर परिष्कृत करता है। उसके प्रश्नों में उलझाव नहीं, वे उत्तरों को वैचारिकता में तरंगित करते हैंं।
नवगीत की विशेषता है कि वह ‘अनफिट' समझे जाने वाले शब्दों को भी औचित्य में ढालता, पिरोता और पहनता है। ‘धन जब भी फूटता है' साक्षी है कि बुद्धिनाथ मिश्र ने नई जमीन तोड़ी और अपनी शैली विकसित की, जिस पर उनकी निजता की छाप है। मन की सच्चाइयों से उत्थित तरंगें आलोड़ित-विलोड़ित हैं इस कृति में- 'मन का सम्बन्ध किसी और जगह/ लहरें ले जाती हैं और कहीं।’ नये प्रयोग, नये सन्धन में गीतकार की रुचि है 'वादों की उड़ी जो पतंग/ उलझ गई पाकड़ की डाल' प्रयोग भी अपनी तरह के हैं- 'आज बारंबार तुझमें जिया मैंने/ सुबह काशी की, अवध की शाम।’ कसमसाते जीवन के विविध पक्षों की व्यंजना में अछूते, विश्वसनीय उपमान हैं। भाषिक सामर्थ्य का गीतकार है बुद्धिनाथ। परिनिष्ठित और व्यावहारिक शब्दावली। घरेलू बोलचाल के ‘सत्यानासी', ‘भुइंलोटन पुरवैया', ‘जॉगरतोड़ मेहनत' जैसे शब्दों को विशेषण की नई छटा प्रदान करने का उसमें कौशल है। उसके जनगीत में 'मार-मार भूसा भर देंगे/ खड़ी फसल क्यों चरते हो जी?' जैसी मजेदार जनललकार है। गजब की व्यंजकता और कमाल की वाग्-भंगिमाएँ हैं प्रतीक चयन में और जड़ता के विरुद्ध बहुमुखता है प्रतीकों में। इसलिए अभिव्यक्ति का पाट चौड़ा है। इस कवि की रचनाएँ उमंगित और तरंगित तो करती हैं, उनका एक-एक पद अनुशीलनीय भी है। गीतकार के रूपकों से चकित हो जाना पड़ता है कि चिन्तन की हवा ने किसी कल्पना का आँचल इस तरह पहले क्यों नहीं स्पन्दित किया- 'तोड़ लेने दो हँसी के दूध वाले वृक्ष से/ छन्द के पत्ते हरे, फल प्रार्थनाओं के फले।’ इसी प्रकार 'शामें नई दुल्हनिया जैसी/ माँ की बड़ी बहन-सी गायें/ एक बिटिया-सी किरण है/ रोप देती चाँदनी का पेड़' तथा 'बहस के पत्ते उड़ाते थक गई है/ नई कविता की तरह पतझर' आदि कविता कमनीय कड़ियाँ हैं। जंगल की नदी, घर के आँगन, गाँव के बरगद की निकटतम पहचान है गीतकार बुद्धिनाथ मिश्र को और इस पहचान के नये-नये राग वह अपनी गीत बाँसुरी में निकालता है। काल व्याल की विकरालता को वह अच्छी तरह समझता है- 'रोप लें हम आज चंदन वृक्ष/ बख्शती कब उम्र की नागिन' इसलिए उम्र की नागिन से भीत होकर नहींऋ बल्कि सचेत होकर ही बुद्धिनाथ ने गीत चंदन के वृक्ष रोपे हैं, गीतकार के शब्दों में ही-
टूटेगा नहीं मगर सिलसिला विचारों का
लहरों के गीत समय-शंख गुनगुनाएँगे।
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