शीशे की किरचें सड़कों पर शीशे की किरचें हैं औ’ नंगे पाँव हमें चलना है। सरकस के बाघ की तरह हमको लपटों के बीच से निकलना है। इतने बादल, ...
शीशे की किरचें
सड़कों पर शीशे की किरचें हैं
औ’ नंगे पाँव हमें चलना है।
सरकस के बाघ की तरह हमको
लपटों के बीच से निकलना है।
इतने बादल, नदियाँ, सागर हैं
फिर भी हम हैं रीते के रीते
चूमते हुए छुरी कसाई की
मेमने सरीखे ये दिन बीते।
फिर लहूलुहान उम्र पूछेगी
जीवन क्या नींद में टहलना है?
नये पुराने
(अनियतकालीन, अव्यवसायिक, काव्य संचयन)
मार्च, 2011
बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता
पर आधारित अंक
कार्यकारी संपादक
अवनीश सिंह चौहान
संपादक
दिनेश सिंह
संपादकीय संपर्क
ग्राम व पोस्ट- चन्दपुरा (निहाल सिंह)
जनपद- इटावा (उ.प्र.)- 206127
ई-मेल ः abnishsinghchauhan@gmail.com
सहयोग
ब्रह्मदत्त मिश्र, कौशलेन्द्र,
आनन्द कुमार ‘गौरव', योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम'
--
संचयन
शिखरिणी
बुद्धिनाथ मिश्र
शीशे की किरचें
सड़कों पर शीशे की किरचें हैं
औ’ नंगे पाँव हमें चलना है।
सरकस के बाघ की तरह हमको
लपटों के बीच से निकलना है।
इतने बादल, नदियाँ, सागर हैं
फिर भी हम हैं रीते के रीते
चूमते हुए छुरी कसाई की
मेमने सरीखे ये दिन बीते।
फिर लहूलुहान उम्र पूछेगी
जीवन क्या नींद में टहलना है?
सूर्य लगे अब डूबा, तब डूबा
औ’ जमीन लगती है धँसती-सी
भोर : हिंस्र पशुओं की लाल आँखें
साँझ : बेगुनाह जली बस्ती-सी।
मेघों से टकराते महलों की छाँहों में
और अभी जलना है।
मन के सारे रिश्ते पल भर में
बासी क्यों होते अखबारों-से?
पूजा के हाथ यहाँ छू जाते
क्यों बिजली के नंगे तारों से?
जीने के लिए हमें इस
उल्टी साँसों के दौर को बदलना है।
--
पेड़ कटते वक्त
शब्द मुझसे पूछ बैठा
आज तुम मेरी कीमत समझते हो?
बूझते हो क्या मेरी आवाज?
शब्द मुझसे पूछ बैठा आज।
पेड़ कटते वक्त होता मैं नहीं
होते वहाँ पर यंत्रणा-आक्रोश होती चीख।
तुम हवा से माँगते मुझको
कि जैसे माँगता कोई
गुदड़िया चीथड़ों की भीख।
मंत्र या अपशब्द मुझसे
किस तरह बनते जानते हो राज?
शब्द मुझसे पूछ बैठा आज।
मैं नगीने-सा कभी जड़ता अँगूठी में
और चिड़िया बन कभी
सेती मुझे कविता
मैं तराशा जब गया
कोई बना विग्रह
शेष के मस्तक चमकता नित्य
फण-मणि सा।
मैं उठा तो लघु हुई आकाशगंगाएँ
पर गिरा तो क्यों हुआ मैं गाज?
शब्द मुझसे पूछ बैठा आज।
स्तब्ध हैं कोयल
स्तब्ध हैं कोयल कि उनके स्वर
जन्मना कलरव नहीं होंगे।
वक्त अपना या पराया हो
शब्द ये उत्सव नहीं होंगे।
गले लिपटा अधमरा यह साँप
नाम जिस पर है लिखा गणतंत्र
ढो सकेगा कब तलक यह देश
जबकि सब हैं सर्वतंत्र स्वतंत्र।
इस अवध के भाग्य में राजा
अब कभी राघव नहीं होंगे।
यह महाभारत अजब-सा है
कौरवों से लड़ रहे कौरव
द्रौपदी की खुली वेणी की
छाँह में छिप सो रहे पांडव।
ब्रज वही है, द्वारका भी है
किन्तु अब केशव नहीं होंगे।
जीतकर हारा हुआ यह देश
माँगता ले हाथ तंबूरा
सुनो जनमेजय, तुम्हारा यज्ञ
नाग का शायद न हो पूरा।
कोख में फिर धरा-पुत्री के
क्या कभी कुश-लव नहीं होंगे?
उदारीकरण
काट लेना पेड़ बरगद का खुशी से
नाश या निर्माण कर, अधिकार तेरा।
तू चला बेशक कुल्हाड़ी, किंतु पहले
पाखियों को ढूँढ़ने तो दे बसेरा।
है नशे में धुत, न जानेगा अभी तू
यह अहं तलवार का कितना बुरा है
तू न संगत में रहा कवि की, इसीसे
यार, तेरा लफ्ज इतना खुरदुरा है।
रात के अंतिम पहर तक जागता जो
साँझ ही उस कौम का होता सबेरा।
देख तूने भी लिया है बाज होकर
बाज होनाः काटना खुद को अकेले
अब जरा मेरी तरह तू बन कबूतर
और फिर तू झेल दुनिया के झमेले।
इक गुटरगूँ प्यार का तू बोल प्यारे
मुस्कुराकर काट दे गम का अँधेरा।
जानता मैं भी कि चैती के दिनों में
तोड़ देना बाँध को कितना सरल है
किंतु जब बहने लगेंगे बाढ़ में घर
तब समझना यह नदी कितनी प्रबल है।
रंग भरना सीख पहले जिंदगी से
तब कहीं जाकर कभी बनना चितेरा।
बँसबिट्टी में
बँसबिट्टी में कोयल बोले
महुआ डाल महोखा
आया कहाँ बंसत इधर है
तुम्हें हुआ है धोखा।
किंशुक से मंदार वृक्ष की
अनबन है पुश्तैनी
दोनों लहूलुहान हो रहे
ऐसी पढ़ी रमैनी।
बिना फिटकिरी-हर्रे के ही
रंग हो गया चोेखा।
आये घोष बड़े व्यापारी
नदी बनेगी दासी
एक-एक कर बिक जाएगी
अपनी मथुरा-काशी।
बेच रहा इतिहास इन दिनों
यह बाजार अनोखा।
नया काबुलीवाला आया
सोनित तक खींचेगा
पानी में तेजाब घोलकर
पौधों को सींचेगा।
झाड़ फूँक सब ले जाएगा
आन गाँव का सोखा।
जब से लिपिक बने मनसिज
भूले सरसिज की बोली
मुँह पर कालिख पोत
हमारे राजा खेलें होली।
मुजरा लोगे कब तक भैया
उजड़ा रामझरोखा।
क्या बात करें?
घर की बात करें वे जो घरवाले हैं
हम फुटपाथों पर बैठे क्या बात करें?
रोज-रोज सूरज का गुस्सा झेलें हम
आँधी-पानी ठंड, आग से खेलें हम
बिगड़ी हुई हवा हो या दानी बादल
सबने हमें उजाड़ा साक्षी गंगाजल।
मौसम जिनकी मुट्ठी में, वे खुश हो लें
हम मौसम के फिकरों की क्या बात करें?
काश कि अपने आँगन सूर्यमुखी खिलता
एक अदद बिस्तरा थके तन को मिलता
पाँव तले निज धरती, सिर पर छत होती
बंजारेपन की काशी-करवत होती।
सड़क किनारे चिथड़ों की झुग्गी डाले
लोग बया के खेतों की क्या बात करें?
यह दुनिया है जिंदा लाशों की दुनिया
सीलन, बदबू, मौत, तमाशों की दुनिया
निगल गयी योजना-नदी की बाढ़ जिसे
उस बस्ती के अजब, अनूठे हैं किस्से।
ठाँव जिन्हें मिल सका नहीं नरकों में भी
वे सपने नव स्वर्गों की क्या बता करें?
फूल झरे
फूल झरे जोगिन के द्वार।
हरी-हरी अँजुरी में
भर-भर के प्रीत नई
रात करे चाँद की गुहार।
केसर-क्यारी से
बहकी हिरना साँवरी
ठुमुक-ठुमुक चले
कहीं रुके नहीं पाँव री
कहाँ तेरा हाट-बाट
कौन तेरा गाँव री?
बादल की चुनरी पसार
काँप-काँप, अंग-छवि
बावरी अँजोरिया
ताल में निहारे बार-बार।
पीपर की छाँह बसे
छुई-मुई प्रीत रे!
अधरों से झाँक रहे
अधसँवरे गीत रे!
अनजाने नाम लिखे
सीपियों के मीत रे!
रेत-भरे तीर को बुहार
रोम-रोम- से अधीर
दर्द सब निचोड़ कौन
भेज रहा प्रिया को दुलार?
बगुले-सी आस तिरे
मन में दिन रैन रे!
धनही पगडंडी पर
बिछुआ बेचैन रे!
सुलझ रहे स्वप्न-बंध
उलझ रहे नैन रे!
कौन परी तोड़ गयी हार?
एक-एक पंखुरी पर
अल्पना रचा गयी
बाँसुरी सुना गयी मल्हार।
मोह की नदी
दोने में धरे किसी दीप की तरह
वक्त की नदी में हम
बह रहे उधर
शोख लहर हमको ले जा रही जिधर।
ऊपर हैं तेज हवा के झोंके
बाती बुझ जाये कब, क्या पता
नीचे जल ही जल है माटी का
यह तन गल जाये कब, क्या पता।
डाली से टूट गिरे फूल की तरह
उम्र की नदी में हम
बह रहे उधर
शोख लहर हमको ले जा रही जिधर।
कई-कई घाट बगल से गुजरे
लेकिन पा सका कहीं ठौर नहीं
मन का संबंध किसी और जगह
लहरें ले जाती हैं और कहीं।
बाढ़ में उजड़ गए मृणाल की तरह
मोह की नदी में हम
बह रहे उधर
शोख लहर हमको ले जा रही जिधर।
कितने अंतर्विरोध झेलकर
संधिपत्र लिखें नदी के कछार
कहाँ सँजोकर रक्खे तमस-द्वीप
पितरों के सूर्यमुखी संस्कार?
संभावित वृक्ष-शालबीज की तरह
रेत की नदी में हम
बह रहे उधर
शोख लहर हमको ले जा रही जिधर।
फल की आस
फल की आस लिये अंतर में
कब तक यों परिचय गुहराए।
छोड़ चला पंछी दो-पहरी
पात-झरी डालों के साये।
कुछ दिन पहले इसी डगर के
पनघट पर होते थे वादे
अक्सर भूल गया मग मृग था
सुनकर पायल के स्वर सादे।
अब तो घट-घट भरी उदासी
पनघट पर विस्मृति के जाले
अब न रहीं वे लाल मछलियाँ
जो बरबस लोचन उलझा लें।
देख मुझे मंदिर की प्रतिमा
बीती पर यों शरमा जाए
जैसे पूनम के चेहरे पर
सौ-सौ जवाकुसुम लहराए।
पल प्रलयी बीते ज्वारों के
अविरल जली नयन की बाती
कोटर में शुक के शावक-सी
दुबकी रही किरण की थाती।
कस्तूरी घूँघट से जब-जब
बींध गयी सुधि की पुरवाई
साँझ-सबेरे अंजलि में भर
मैंने छबि अपनी दुलरायी।
अपनी ही वंशी की प्रतिध्वनि
मर्मस्थल ऐसे छू जाए
जैसे नागफनी का काँटा
नागफनी को ही चुभ जाए।
गांधारी जिंदगी
बीत गयी बातों में रात वह खयालों की
हाथ लगी निंदियारी जिंदगी।
आँसू था सिर्फ एक बूँद
मगर जाने क्यों
भींग गयी है सारी जिंदगी।
वे भी क्या दिन थे
जब सागर की लहरों ने
घाट बँधी नावों की
पीठ थपथपायी थी
जाने क्या जादू था
मेरे मनुहारों में
चाँदनी लजाकर
इन बाँहों तक आयी थी।
अब तो गुलदस्ते में
बासी कुछ फूल बचे
और बची रतनारी जिंदगी।
मन के आईने में
उगते जो चेहरे हैं
हर चेहरे में
उदास हिरनी की आँखें हैं
आँगन से सरहद को जाती
पगडंडी की
दूबों पर बिखरी
कुछ बगुले की पाँखें हैं।
अब तो हर रोज
हादसे गुमसुम सुनती है
अपनी यह गांधारी जिंदगी।
जाने क्या हुआ
नदी पर कोहरे मँडराये
मूक हुई साँकल
दीवार हुई बहरी है
बौरों पर पहरा है
मौसमी हवाओं का
फागुन है नाम
मगर जेठ की दुपहरी है।
अब तो इस बियाबान में
पड़ाव ढूँढ़ रही
मृगतृष्णा की मारी जिंदगी।
पर्वत पर खिला बुराँस
जंगल की हिरनी नमस्कार।
आँगन की बकरी नमस्कर।
मेरा मन ब्याधा बेचारा
दोनों तीरों का है शिकार।
वह पानी, फूटा जो सहस्रधारा बन
कितना है शीतल!
लेकिन जब प्यास लगी, तब
आया पास यही वापी का जल।
जो प्यास जगाए, उसकी भी
जो प्यास बुझाए, उसकी भी
दोनों पानी की अनुकम्पा की
मुझको है सहनी पड़ी मार।
कहने को अपने पास सभी
नौलखा हवेली में लेकिन
वह मलयानिल का स्पर्श कहाँ
जो कर डाले निर्मल तन-मन।
कुछ लाल कनेर सरीखे सपने
लेकर अपनी झोली में
लुट जाने की ले साध
फिरा करता हाटों में यह गँवार।
वह शख्स यही था जिस पर
नामी फूलों का जादू न चला
पर्वत पर खिला बुराँस देखते ही
जाने कैसे मचला।
चट्टानों की बातें सहना
टकराना चाँद-सितारों से
जीवन में इसके सिवा और
क्या पाया अपना देवदार?
ज्ञानवापी
ज्ञानवापी में गिरा विश्वास का शिव
हाथ पौरुष का बढ़ा उसको निकालो।
ध्यान में थे मग्न या तुम सो रहे थे?
जब असुर दल तोड़ने मंदिर चला था
मजहबी उन्माद से होकर तिरस्कृत
क्यों न बन पाया बनारस कर्बला था?
विष-बुझे ये प्रश्न अब जीने न देंगे
लाख किरतनिया कवच-कुंडल सजा लो।
तुम किसे हो पूजते अंधे कुएँ में?
जबकि सदियों से तुम्हारा ईश बंदी
गौर से देखो, प्रतीक्षा में किसी की
किस तरह पथरा गया है महानंदी।
धर्म का यह पोत डूबा जा रहा है
विष्णु का अवतार ले इसको सँभालो।
ज्ञानवापीः धर्म की अपरूप तितली
छिपकली अहमेक है मुँह में दबाए
मोह-मद का तंत्र ले लाठी खड़ा है-
छिपकली को हाय! कोई ना सताए।
माँग है यह न्याय की,जन की, समय की
हो सके तो आज तितली को बचा लो।
ये सिपाही लोकरक्षा के लिए हैं
रक्त है जिनमें महाराणा-शिवा का
क्या करें इतिहास के जिह्वा-स्खलन की
ये हिफाजत, हाथ ले तम की पताका?
तोड़ दो घेरे सभी दुर्नीतियों के
जागरण का फिर नया सूरज उगा लो।
प्यार दो भरपूर अग्रज का उन्हें तुम
वे नमाजी भी तुम्हारे ही सगे हैं
भूल से, बल से, प्रलोभन से झुके वे
शुरू से दिल्लीश्वरों के मुँहलगे हैं।
धर्म बदला, वल्दियत बदली नहीं है
सुबह के भटके हुए को घर बुला लो।
बहुत पूजा राम बन तुमने उदधि को
भक्ति छोड़ो वीरता से वह झुकेगा
जो सुधर पाया न गीता के वचन से
बुद्ध के उपदेश से वह क्या बनेगा!
पार्थ! फिर से करो गीता का स्मरण तुम
और यह गांडीव धनु अपना उठा लो।
वाम तर्जनी पर कालिख
जिसमें डाकू हों निर्वाचित
साधू की लुट जाय जमानत।
ऐसे लोकतंत्र पर लानत।
नस्ल वही है जोंकोंवाली
चेहरे केवल नये-नये हैं
चुन देना था जिनको दीवारों में,
वे चुन लिए गए हैं।
भैंसें अब हैं राजमहिषियाँ
गाय-बछेड़ों की है शामत।
खूँखारों के इस जंगल में
बकरी खैर मनाए कब तक?
मंदिर पर तेजाबी बारिश हो,
मैं खड़ा रहूँ श्रद्धानत!
जय-जयकार शकुनियों का है
जनमत का उठ गया जनाजा
शाहंशाहों की संसद से
परजा माँगे विक्रम राजा।
राम-कृष्ण की धरती को यह
रास न आती नयी सियासत।
पाँच बरस पर वाम तर्जनी पर
कालिख पुतवाने वालो
दुराचार के सागर डूबी
लोकतन्त्र की नाव बचा लो।
जिंदादिल जो भी हैं
अपने मुर्दाघर से करें बगावत।
शामिल होते
शामिल होते शोकसभा में
फल बाँटें बीमारों में।
कोशिश सबकी यही कि कैसे
नाम छपे अखबारों में।
चार टके की करते सेवा
सौ खरचें विज्ञापन पर
नारद के वंशज संवादी
जीते उनकी खुरचन पर।
बन जाती हैं बिगड़ी बातें
रातोंरात इशारों में।
सूर्यदेव जैसे नायक वे
सौ-सौ विवश पृथाओं के
बड़े-बड़े बैनर प्रमाण हैं
उनकी दानकथाओं के।
मुट्ठी भर चावल की खातिर
सुरगुरु खड़े कतारों में।
चाट रहे कुर्सी को जैसे
साँड़ गाय को चाटे है
जाए कौन किधर कैसे
हर पैड़ा बिल्ली काटे है।
बदल गए सपने विराट
सबके सब बौने नारों में।
कसमें खायी हैं मेघों ने
कसमें खायी हैं मेघों ने
पास नहीं आने की।
निकली बाहर नहीं इसी से
गोरी बरसाने की।
वे रिश्ते-नाते गाँवों के
लोकगीत, वे मेले
सबसे सबका नाता टूटा
पड़े रह गये झूले।
फुरसत नहीं किसी को
बरगद छैयाँ सुस्ताने की
पनघट को ढूँढ़े वह बेला
गागर छलकाने की।
इस महाल में ‘राम राम’ तक
करते नहीं पड़ोसी
तरस गया खुलकर हँसने को
मेरा मन परदेसी।
फिर भी जिद है नगर छोड़कर
गाँव नहीं जाने की
बार-बार एक ही भूल
कर-करके पछताने की।
जिसने रचा विकास, उसी का
नाम पड़ गया चाकर
मायालोक मुक्ति का सबको
रखता दास बनाकर।
इच्छा हर भैये की होती
अपने घर जाने की
लेकिन जाए कहाँ नरक से
चिंता है दाने की।
वेणु-गीत
मैं तो थी बंसरी अजानी
अर्पित इन अधरों की देहरी।
तेरी साँसें गूँजीं मुझमें
मैं हो गयी अमर स्वर-लहरी।
जग के लिए धरा सतरंगी
मेरे लिए सिर्फ श्यामल है
छूतीं मुझे विभोर उँगलियाँ
जिस क्षण, वही जनम का फल है।
स्वीकारे यदि तू ममतावश
तो मैं आज निछावर कर दूँ
बँसवट की वह छाँह निगोड़ी
मुकुटों की यह धूप सुनहरी।
जाने क्या तुझमें आकर्षण
मेरा सब कुछ हुआ पराया
पहले नेह-फूल-सा मन
फिर पके पान-सी कंचन-काया।
पुलकित मैं नैवेद्य बन गयी
रोम-रोम हो गया अर्घ्य है
नयन-नयन आरती दीप हैं
आँचल-आँचल गंगा-लहरी।
मैं तेरी संगिनी सदा की
साखी हैं यमुना-वृंदावन
यह द्वारका नहीं जो पूछे
कौन बड़ा है-घन या सावन?
पल दो पल का नहीं, हमारा
संग-साथ है जनम-जनम का
तू जो है बावरा अहेरी
तो मैं भी बनजारिन ठहरी।
गाथा
कभी-कभी ऐसा होता है-
लिखकर पत्र प्रिया को प्रियतम
रख लेता अपने सिरहाने
और प्रतीक्षा करने लगता
मन ही मन उसके उत्तर की।
कभी-कभी ऐसा होता है।
देख रहा अपलक नयनों से
दूर गाँव अपने आँगन को
दीपशिखा-सी चकवी उसकी
खोल रही ढीले कंगन को।
इतने में डाकिया अचानक
दे जाता प्रिय का संदेशा
कुछ पुलकन, कुछ आशंकाएँ
थर-थर कँपा गयी विरहन को।
कभी-कभी ऐसा होता है-
प्रिय के अक्षर देख प्रिया को
पुनर्मिलन का सुख मिल जाता
भीतर ऐसी छवि छा जाती
खो जाती है सुध बाहर की।
कभी-कभी ऐसा होता है।
नगर अपरिचित, लोग अजनबी
कमरे में एकांत अँधेरा
चंचल पंख शिथिल हो करते
निठुर डाल पर रैनबसेरा।
खोया-खोया किसी ध्यान में
बादल को बाँहों में भरते
गिनते हुए सिसकती तिथियाँ
आँखों में हो गया सबेरा।
कभी-कभी ऐसा होता है-
मीठी आग जगा देती
सोनित में प्रिय के रात रुपहली
चाँद उतरता स्वयं मुदित हो
लहरों पर प्यासे सागर की।
कभी-कभी ऐसा होता है।
दिन पर दिन बीते, पर कोई
उत्तर नहीं गाँव से आया
आतुर हो चल पड़ा नीड़ के
पथ पर इंद्रधनुष लहराया।
नभ में उड़ते बकपंखों को
रँगने लगी सिंदूरी संध्या
सजल कंठ से गीतों ने, सिर
गोदी में रखकर सहलाया।
कभी-कभी ऐसा होता है-
आकुल प्राणों के मिलते ही
सारे मन धरे रह जाते
दाहकता कपूर हो जाती
प्रियतम के बावरे अधर की।
कभी-कभी ऐसा होता है।
तुम बदले
तुम बदले, संबोधन बदले
लेकिन मन की बात वही है।
जानें क्यों मौसम के पीछे
दिन बदले, पर रात वही है।
यह कैसा अभिशाप-चाँद तक
सागर का मनुहार न पहुँचे
नदी-तीर एकाकी चकवे का
क्रंदन उस पार न पहुँचे।
तन की तृषा झुलसकर सोयी
मन में झंझावात वही है।
तुम्हें नहीं मालूम कि कैसे
भर जाता नस-नस में पारा
उड़ते हुए मेघ की छाया-सा
पलभर का मिलन तुम्हारा।
तृप्ति नहीं मरुथल को, यद्यपि
प्यास वही, बरसात वही है।
जितना पुण्य किया था, पाया
साथ तुम्हारा उतने दिन का
तुम बिछड़े थे जहाँ, वहीं से
पंथ मुड़ गया चंदन वन का।
सब कुछ बदले, पर अपने संग
यादों की बारात वही है।
इन्द्रधनु कँपने लगा
एक प्रतिमा के क्षणिक संसर्ग से
आज मेरा मन स्वयं देवल बना।
मैं अचानक रंक से राजा हुआ
छत्र-चामर जब कोई आँचल बना।
मैं अजानी प्यास मरुथल की लिये
हाँफता पहुँचा नदी के द्वार पर
रक्तचंदन की छुअन अंकित हुई
तलहथी की छाप-सी दीवार पर।
तुम बनी मेरे अधर की बाँसुरी
मैं तुम्हारे नैन का काजल बना।
यह तुम्हारा रूप-जिसकी आब से
घाटियों में फूल बिजली के खिले
इन्द्रधनु कँपने लगा कन्दील-सा
जब कभी ये होठ सावन के हिले।
खिलखिलाहट-सी लिपट एकान्त में
चाँदनी देती मुझे पागल बना।
तुम मिले जबसे, नशीले दिन हुए
नीड़ में खग-से सपन रहने लगे
मैं तुम्हें देखा किया अपलक-नयन
देवता मुझको सभी कहने लगे।
जब कभी मैं धूप में जलने लगा
कोई साया प्यार का, बादल बना।
मैं अचानक रंक से राजा हुआ
छत्र-चामर जब कोई आँचल बना।
कोंपलों-सी नर्म बाँहें
ये तुम्हारी कोंपलों-सी नर्म बाँहें
और मेरे गुलमुहर के दिन।
आज कुछ अनहोनियाँ करके रहेंगे
प्यार के ये मनचले पल-छिन।
बाँधता जब विंध्य सिर पर लाल पगड़ी
वारुणी देता नदी में घोल
धुंध के मारे हुए दिनमान को तब
चाहिए दो-चार मीठे बोल।
खेत की सरसों हमारे नाम भेजे
रोज पीली चिट्ठियाँ अनगिन।
बौर की खुशबू हवा में लड़खड़ाए
चरमराएँ बंदिशें पल में
क्यों न आओ, हम गिनें मिलकर लहरियाँ
फेंक कंकड़ झील के जल में।
गुनगुनाकर ‘गीत गोविन्दम्’ अधर पर
जिंदगी का हम चुकाएँ रिन।
एक बौराया हुआ मन, चंद भूलें
और गदराया हुआ यौवन
घेरकर इन मोह की विज्ञप्तियों से
वारते हम मृत्यु को जीवन।
रोप लें हम आज चंदन-वृक्ष, वरना
बख्शती कब उम्र की नागिन!
आज कुछ अनहोनियाँ करके रहेंगे
प्यार के ये मनचले पल-छिन।
यह भी सच है
मैंने जीवन भर बैराग जिया है
सच है
लेकिन तुमसे प्यार किया है,
यह भी सच है।
जानूँ मैं सैकड़ों निगाहें घूर रही हैं
फिर भी अपनी ही मैं राह चला करता हूँ
पर पतंग के, लौ दीपक की दोनों बनकर
मैं ही अक्सर नीरव रात जला करता हूँ।
मैंने युग का सारा तमस पिया है
सच है।
लेकिन तुमसे प्यार किया है
यह भी सच है।
दुर्गम वन में राजमहल के खंडहर-सा मन
वल्मीकों से भरा पड़ा तुम जिसे मिल गये
इन पाँवों की आहट शायद पहचानी थी
खुद अचरज में हूँ, कैसे सब द्वार खुल गये।
मैंने सपनों को वनवास दिया है,
सच है।
लेकिन तुमसे प्यार किया है
यह भी सच है
वे जो प्राचीरों का पत्थर तोड़के खुश थे
देख न पाये कभी बावरी का काला जल
एक तुम्हीं थे सैलानी अंदर तक आकर
जिसने गहरे सन्नाटे में भर दी हलचल।
मैंने गैरिक चीवर पहन लिया है
सच है।
लेकिन तुमसे प्यार किया है
यह भी सच है।
दिन फागुन के
फागुन के दिन बौराने लगे
फागुन के।
दबे पाँव आकर सिरहाने
हवा लगी बाँसुरी बजाने
दुखता सिर सहलाने लगे
फागुन के।
रंग-बिरंगा रूप सलोना
कर जाता दरपन पर टोना
सुलझा मन उलझाने लगे
फागुन के।
रति-सी लाज घोल तालों में
अँगड़ाई लिपटी डालों में
जलपाखी अलसाने लगे
फागुन के।
ताम्रपत्र अमराई बाँचे
सुधि-सुगंध भर रही कुलाँचें
टेसू प्यार जताने लगे
फागुन के।
उमगी-उमगी नदी फिरेगी
अंग-अंग सौगंध भरेगी
आना, जब दुबराने लगे
फागुन के।
जामुन की कोंपलें
मौसम ने गीत रचे प्यार के
जमुना के तीर बजी बंसरी
मादल पर मौन बजे द्वार के।
एक अकेली राधा साँवरी
इतने सारे बंधन गाँव के
मन तो मिलने को आतुर हुआ
बरज रहे, पर बिछुए पाँव के।
फिर फूले फूल ये मदार के
मन ही मन घुल-घुलकर कट गये
ये दिन थे सुख के, सिंगार के।
आज सजाऊँ क्वाँरी देह मैं
ले आओ जामुन की कोंपलें
यह सारा धन तुमको सौंप दूँ
देख-देखकर पलाश-वन जलें।
यौवन के दिन मिले उधार के
बाँध सकोगे क्या भुजपाश में?
पारे हैं पारे ये थार के!
साखू की घनी-घनी छाँह में
आओ बैठें सूखे पात पर
अधरों से अधरों की प्यास हर
पल भर हँस लें मन की बात पर।
किस्से बासंती मनुहार के
जानें ये मंजरियाँ आम की
जानेंगे फूल ये बहार के।
मौसम ने गीत रचे प्यार के
जमुना के तीर बजी बंसरी
मादल पर मौन बजे द्वार के।
आज
नये कदलीपत्र पर नख से
लिख दिया मैंने तुम्हारा नाम
और कितना हो गया जीवन
भागवत के पृष्ठ-सा अभिराम!
आज दिनभर मैं रहा अठखेलियाँ करता
धूप-बादल से, नदी तट पर
आज पहली बार मुझको लगे फीके
इंद्रधनुषी तितलियों के पर।
कर लिया मैंने पुलक कर स्मरण तुमको
पाप है या पुण्य, जाने राम।
आज पहली बार खुलकर मिले मुझसे
शंख, सीपी और सरसों फूल
जोर से मैंने पुकारा फिर तुम्हीं को
माफ करना, हो गयी फिर भूल।
आज बारंबार तुममें जिया मैंने
सुबह काशी की, अवध की शाम।
आकाश सारा
कल अधूरा ही रहा परिचय हमारा।
आज मन का खोल दो आकाश सारा।
मैं नहीं हूँ जानता, आखिर तुम्हारे
पास ले आयी मुझे किसकी दुआएँ!
दूर जितना जो रहा, उतना बिंधा वह
रूप से, साक्षी अजंता की गुफाएँ।
मैं तुम्हारे साथ मृमजल ढूँढ़ लूँगा
छोड़ पीछे रेत बनता सिंधु खारा।
यह असंभव, फूल का मौसम भिगोए
और भीगे सिर्फ मेरा मन अकेला
बौरते हैं संग सारे वृक्ष जग के
जब कभी ऋतु की हुईशृंगार-बेला।
फिर समझ लूँ क्यों न, मैं जो चाहता हूँ
चाहता है वही अंतर्मन तुम्हारा!
क्या जरूरी है कि सारी बात कह दूँ
शब्द में ही, फिर नयन ये क्या करेंगे?
काँपते हाथों धरूँ आँचल तुम्हारा
तो मनोरथ के पवन वे क्या करेंगें?
आज परतें तोड़ खुलकर संग जी लें
सोचकर शायद न हो मिलना दुबारा।
यह धरती
कितनी सुंदर है यह धरती
हर ऋतु नव परिधान पहनकर
प्रकृति-नटी है नर्तन करती।
कितनी सुंदर है यह धरती।
गाती मधुर गीत उत्सव के
सजती पुष्पों से, पर्णों से
प्र्राची और प्रतीची के तन
रचती चित्र विविध वर्णों से।
पयस्विनी सरिता बन कोटिक
संतानों का पोषण करती।
कितनी सुंदर है यह धरती।
यह उल्लास अमृत पर्वों का
वेणु-गुंजरित यह वेतस-वन
कहाँ सुलभ ऐसा ऋतु-संगम
हिम का हास, जलधि का गर्जन।
मलयानिल-सी मंद-बह
श्रांति थके पथिकों की हरती।
कितनी सुंदर है यह धरती।
और तप तू पार्थ
साधना अब भी जरा-सी है अधूरी पार्थ!
और तप तू और तप
ज्यों जेठ का दिनमान।
काल लेता है परीक्षा, तू न घबराना
घास की रोटी अभी तेरे लिए राणा!
अग्नि के इस कुंड से बनकर निकल कुंदन
तेज से तेरे जले फिर आज खांडव वन।
तू अकेला नहीं, तेरे साथ जाग्रत देश
सह न सकता है कभी जो न्याय का अपमान।
कई सदियों से पराभव में पड़ा अभिशप्त
यह कुशासन पाप कर्मों में रहा है लिप्त।
रोशनी इसको सुहाती नहीं, होता कष्ट
आज की स्पर्धा यही है-कौन कितना भ्रष्ट।
कर्ण के रथचक्र-सा धँस गया भारतवर्ष
वही खींचेगा, नहीं जो चाहता प्रतिदान।
घिर गये हैं मेघ काले, मलिन है आकाश
पांडवों को फिर मिला छल-छद्म से वनवास।
साधना में है कमी या है समय का फेर
ऋतु बदलने में लगेगी किंतु कितनी देर!
फिर लिखेगा हँस शरद का चाँद तेरी जीत
फिर करेगा तू विजय की चाँदनी में स्नान।
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