नये पुराने (अनियतकालीन, अव्यवसायिक, काव्य संचयन) मार्च, 2011 बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता पर आधारित अंक कार्यकारी संपादक अवनीश स...
नये पुराने
(अनियतकालीन, अव्यवसायिक, काव्य संचयन)
मार्च, 2011
बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता
पर आधारित अंक
कार्यकारी संपादक
अवनीश सिंह चौहान
संपादक
दिनेश सिंह
संपादकीय संपर्क
ग्राम व पोस्ट- चन्दपुरा (निहाल सिंह)
जनपद- इटावा (उ.प्र.)- 206127
ई-मेल ः abnishsinghchauhan@gmail.com
सहयोग
ब्रह्मदत्त मिश्र, कौशलेन्द्र,
आनन्द कुमार ‘गौरव', योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम'
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यादों के बहाने से
नवगीत के आकाश का जगमगाता नक्षत्र कवि :
बुद्धिनाथ मिश्र
विवेकी राय
आधुनिक काव्य जगत को अपने नवगीतों से सर्वथा नयी समृद्धि और दीप्ति देने वाले सौभाग्यशाली कवियों की कतार में कवि बुद्धिनाथ मिश्र अपनी पृथक् पहचान बनाते हुए लक्षित होते हैं। आप बौद्धिक व्यायाम नहीं, इन्द्रधनुषी आयाम वाले श्रृंगार के सुमधुर गीतकार हैं। संगीत, चित्र और ध्वनि से सज्जित उनके नवगीत सादगीपूर्ण, लयात्मक और तन्मय होकर गुनगुनाने योग्य होते हैं। उनमें आधुनिकता भी है परन्तु वह अन्तर्मुखी है। वे मानते हैं, ‘बदले मूल्य सभी जीवन के कड़वी लगे मिठाई'। इसके साथ ही वे ‘सहस्रबाहु बरगद की छाँव में' खड़े होकर देखना पसंद करते हैं कि 'एक किरन भोर की उतरायी आँगने'। वे ‘बेजुबान झोपड़ियों' को संवेदनात्मक स्पर्श देने के साथ ही इस ओर भी देख रहे हैं कि ‘रौंद रहा है सबको सत्ता का अंध भैंसा' जनोन्मुख पीड़ा की भी अनदेखी न करनेवाले इस प्रतिष्ठित गीतकार का केन्द्रीय अनुभूति-संसार सौन्दर्यवादी है और वह काव्यगत बौद्धिकता से ऊबे लोगों को अपनी विश्रान्तिपूर्ण रचनात्मक छुअन से बेहद आकर्षित करता है।
ऐसे लोकसंस्कृति की महकती स्मृतियों में डूबे गीतकार के विषय में, उसकी विकासोन्मुख जीवनसरणी के विषय में जानना हिन्दी नवगीत की पृष्ठभूमि और उसकी विकास की पृष्ठभूमि के विषय में जानना होगा।
देश के इस प्रसिद्ध कवि, लेखक एवं राजभाषा-विशेषज्ञ श्री बुद्धिनाथ मिश्र का जन्म कृष्ण चतुर्थी, शनि, वि. 2005 को वैदेही और विद्यापति की जन्मभूमि मिथिलाक्षेत्र के दरभंगा (अब समस्तीपुर) जिले के देवध गाँव में हुआ था। पिता पं. भोला मिश्र ज्योतिष के प्रकाण्ड पण्डित थे। कृषि, पौरोहित्य और ज्योतिष कार्य मुख्य व्यवसाय था। बड़े भाई श्री विद्यानाथ मिश्र ने काशी में रहकर न्याय, व्याकरण और साहित्य में आचार्य किया और लगभग तीन दशक तक गाजीपुर जिले के रेवतीपुर गाँव में स्थित आदर्श श्री ब्रह्मर्षि संस्कृत महाविद्यालय के प्राचार्य रहे। बुद्धिनाथजी भी अपने बड़े साहब की तरह नव्य पाणिनीय व्याकरण पढ़ने के लिए दस वर्ष की अवस्था में गाँव से काशी आये थे, परन्तु दो वर्ष तक रहने के बाद काशी ने उन्हें फिर से गाँव भेज दिया। वह गाँव था रेवतीपुर।
इस लेखक को लिखे गये एक व्यक्तिगत पत्र में बुद्धिनाथ मिश्रजी ने बहुत ही मार्मिक शब्दों में लिखा है कि ‘मैं द्विज हूँ, इसलिए मेरे दो जन्म हुए हैं, एक देवध (समस्तीपुर- बिहार) में सन् 1949 में और दूसरा गाजीपुर (उ.प्र.) के रेवतीपुर गाँव में सन् 1962 में। इस गाँव के ब्रह्मर्षि संस्कृत महाविद्यालय में चार वर्षों तक मैं अध्ययनरत रहा।' गुरुकुल की भाँति आबादी से दूर, अमराइयों के बीच ब्रह्मचारी महावीर शर्मा द्वारा स्थापित आदर्श श्री ब्रह्मर्षि संस्कृत महाविद्यालय, रेवतीपुर के वे पहले और अंतिम छात्र थे जिन्होंने मात्र 12 वर्ष की अवस्था में दो वर्षों की पूर्व माध्यमा (हाई स्कूल के समकक्ष) परीक्षा एक ही वर्ष में उत्तीर्ण कर ली थी। इसके बाद महाविद्यालय के प्रध्यापक श्री शिवदानी शर्मा की प्रेरणा से बुद्धिनाथजी ने 1965 में नेहरू इंटर कॉलेज, रेवतीपुर से प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में इंटरमीडिएट परीक्षा उत्तीर्ण की। इनके छोटे भाई उमानाथ मिश्र ने (संप्रति पटना हाईकोर्ट में एडवोकेट) भी यहीं से प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त की थी। रेवतीपुर (गाजीपुर) गाँव और उसके लोक-मन को सम्पूर्णता के साथ आत्मसात् कर बुद्धिनाथजी उसे सृजनात्मक रूप देने के लिए विवश थे। शिक्षा समाप्त कर उन्हें और कुछ के साथ मुख्य रूप से सि( काव्य-योगी बनना था। मन के भीतर गहराई से उभरे ऐसे चित्र उन्हें विवश करते हैं-
अन्तस में एक खनक गूँजी/ आँचल की ओट
दिया लेकर तुलसी-चौरे/ आँगन में नयी बहू पूजती
वंदन कर बापू का/ माँ का पालागन कर
मन का आकाशदीप जल उठा।
गाँव का प्रभाव कवि पर दुर्निवार था। उसके रस का अक्षय भण्डार सुरक्षित था। नगरों और महानगरों में शेष जीवन बिताने पर भी वह आन्तरिक लोकसंस्कृति से ही अपनी कविताओं के लिए रस ग्रहण करता रहा-
फागुन के दिन बौराने लगे/ फागुन के
दबे पाँव आकर सिरहाने/ हवा लगी बाँसुरी बजाने
दुखता सिर सहलाने लगे/ फागुन के!
किशोरावस्था में रेवतीपुर में बिताये चार वर्ष बुद्धिनाथ जी के सृजनशील जीवन की बुनियाद हैं। रेवतीपुर के लोगों से मिले अजस्र स्नेह, प्रकृति का साहचर्य, ग्रामीण तीज- त्यौहार, संयुक्त परिवार की खूबसूरती, बाजरे की खिचड़ी, सजाव दही और सिरकावाले अचार के साथ मरदुआ के रस में वे ऐसे रमे कि अपने गाँव की सकरौरी, ताल-मखाने, भोज भात, तिलकोर और कबई माछ भूल गए। बुद्धिनाथ की रचनाओं में जो गाँव है उसमें 70 प्रतिशत रेवतीपुर है और 30 प्रतिशत देवध। विद्यालय द्वारा मंचित ‘कुंती' और ‘राजा भरथरी' नाटक की नायिका के रूप में बुद्धिनाथ ने अपनी अभिनय-प्रतिभा की ऐसी छाप छोड़ी थी कि आज चार दशक बाद भी रेवतीपुर के लोग उसे याद करते हैं। विद्यालय के समृ( पुस्तकालय की पुस्तकों को रात में निर्विघ्न पढ़ने के लिए छात्रावस्था में बुद्धिनाथ पुस्तकालय की बेंच पर ही सो जाते थे। उन पुस्तकों का अध्ययन-मनन और ‘आज' दैनिक में छप रहे दो साप्ताहिक स्तम्भ ‘मनबोध मास्टर की डायरी' (विवेकी राय) और ‘चतुरी चाचा की चटपटी चिट्ठी' (मुत्तफेश्वर तिवारी ‘बेसुध') ने इन्हें लिखने की प्रेरणा दी। सर्वप्रथम 1962 में चीन की लड़ाई के दौरान एक कविता लिखी- ‘आँखें लाल दिखाते क्यों?' संकोच और भय से उसे अपने एक सहपाठी के नाम से ‘आज' में भेजा और वह ‘बाल संसद' स्तम्भ में छप भी गयी। कुन्ती का पाठ करने वाले बुद्धिनाथ के लिये यह प्रथम संतान का सुख भी कुंती की ही तरह का था। यहीं से लिखने का क्रम शुरू हुआ।
रेवतीपुर से जुलाई 1965 में बुद्धिनाथजी पुनः वाराणसी लौटे। 1967 में दयानन्द महाविद्यालय से बी.ए. (आनर्स) तथा 1969 में आट्र्स कॉलेज, बी.एच.यू. से अंग्रेजी में एम.ए. किया। इस दौरान इनके गवेषणात्मक लेख, भावपूर्ण कहानियाँ और गीत-कविताएँ ‘आज', ‘आर्यावर्त', ‘ज्योत्स्ना' आदि पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से छपती रहीं। बाद में अपने अनन्य मित्र श्री विश्वनाथ प्रसाद के ललकारने पर इन्होंने 1977 में उदयप्रताप महाविद्यालय से हिन्दी में एम.ए. किया और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो. विजयपाल सिंह के निर्देशन में 1982 में ‘यथार्थवाद और हिन्दी नवगीत' शोधप्रबंध पर पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। जून 1969 में इनका विवाह बेगूसराय जिले के नावकोठी गाँव में एक पंडित-परिवार की पुत्री ऊषा से हुआ।
उस वर्ष पहली बार काशी में आचार्य सीताराम चतुर्वेदी की अध्यक्षता में आयोजित गणेशोत्सव काव्यगोष्ठी में बुद्धिनाथजी ने जब अपना ‘नाच गुजरिया नाच' गीत पढ़ा, तो रूप-स्वर-शब्द और प्रस्तुति ने समा बाँध दिया। फिर तो बुद्धिनाथजी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। एक पर एक कविसम्मेलनों का ऐसा तांता लगा कि नौकरी करने की जरूरत ही नहीं समझी। यह ख्याति अनेकमुखी होकर बढ़ती गयी। वे उत्तरोत्तर उत्कर्ष के सोपान पार करते चले गये। रुकावटें यदि अपने से आयीं तो अपने आप चुपके से चली गयीं। उनकी कविता साक्षी है-
नदी रुकती नहीं है
लाख चाहे सेतु की कड़ियाँ पिन्हा दो
ओढ़कर शैवाल वह चलती रहेगी।
मेरा विशेष परिचय भी कवि की ‘जाल फेंक रे मछेरे!' नामक प्रसिद्ध कविता से ही हुआ। जानता तो पहले से था पर मान गया तब जब उक्त कविता की आरम्भिक पंक्तियाँ ‘एक बार और जाल फेंक रे मछेरे, जाने किस मछली में बन्धन की चाह हो' हवा में उड़ने लगीं। वास्तव में इस कविता के लय, शब्दचयन और कल्पना में एक ऐसा संवेदनीय आकर्षण है जो पाठक अथवा श्रोता को बरबस अपने में लपेट लेता है। युगीन बीमारियों से उदास मनों को एक क्षण में कहीं प्रफुल्ल क्यारियों में खड़ा कर देने की अद्भुत क्षमता कवि के ऐसे नवगीतों में सहज ही प्राप्त है। जब ‘जाड़े में पहाड़' शीर्षक कवि का नवगीत-संग्रह प्रकाशित हुआ तो पूरी कविता को एक बार फिर पढ़कर मुझे बेहद खुशी हुई।
1971 में ही ‘आज' दैनिक के स्वामी श्री सत्येन्द्रकुमार गुप्त दम्पत्ति के आमंत्रण पर ये ‘आज' के सम्पादकीय विभाग में प्रविष्ट हुए। दस वर्षों तक पत्रकारिता करने के बाद 1980 में यूको बैंक के मुख्यालय में राजभाषा अधिकारी पद पर नियुक्त होकर कलकत्ता चले गये। 1984 में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के रूप में भारत सरकार की ताम्र उत्पादक कम्पनी हिन्दुस्तान कॉपर लि. में गये। 1998 में ओ.एन.जी.सी. के निदेशक के बहुत आग्रह करने पर इस विश्वप्रसिद्ध सार्वजनिक उपक्रम के देहरादून स्थित मुख्यालय में मुख्य प्रबंधक (राजभाषा) पद पर कार्य करने चले आये। सम्प्रति वे ओ.एन.जी.सी. के अलावा 11 देशों में कार्यरत ओ.एन.जी.सी. विदेश लि. के भी राजभाषा प्रभारी हैं। राजभाषा के उत्कृष्ट क्रियान्वयन के लिए उन्हें तीन बार भारत सरकार का प्रशस्तिपत्र प्राप्त हुआ है।
उक्त संक्षिप्त विवरण से विस्तारपूर्वक यह समझा जा सकता है कि अपने विशिष्ट प्रशासनिक पद और दायित्व के संदर्भ में बुद्धिनाथजी को जो आशातीत सफलता मिली उससे यह धरणा निर्मूल सि( हुई कि सामान्यतः कल्पना जगत का अन्तर्मुखी कवि बहिर्मुखी प्रशासन सम्बन्धी कार्यों में असफल हो जाता है। वास्तव में बुद्धिनाथजी की सफलता का रहस्य उनकी साधना से जुड़ा है। इसी गंभीर और प्राप्त सफलता के साथ अधिकाधिक बढ़ती जाने वाली साधना से निःसृत ऊर्जा से उन्हें कवि-कर्म और प्रशासनिक सेवा दोनों में ध्यानाकर्षक ख्याति प्राप्त हुई। इस सम्बन्ध में ‘शिखरिणी' में संकलित उनकी ‘और तप तू पार्थ' शीर्षक कविता को देखना सार्थक होगा-
साधना अब भी जरा सी है अधूरी पार्थ
और तप तू और तप/ ज्यों जेठ का दिनमान।
काल लेता है परीक्षा, तू न घबराना।
देश की सभी प्रमुख हिन्दी और मैथिली की पत्र-पत्रिकाओं में 1966 से गीत, निबंध, रिपोर्ताज, कहानी आदि का नियमित प्रकाशन। दूरदर्शन के सभी प्रमुख केन्द्रों, विविधभारती तथा आकाशवाणी की विदेश प्रसारण सेवा से बारम्बार काव्यपाठ प्रसारित। 1994 में थाईलैण्ड, 1999 में इंग्लैण्ड, फ्रांस, नीदरलैण्ड और बेल्जियम तथा 2000 में सपत्नीक सिंगापुर की साहित्यिक यात्रा की। 1983 में ‘अज्ञेय' जी के नेतृत्व में प्रतिनिधि भारतीय साहित्यकार के रूप में ‘जानकीजीवन यात्रा' के तहत नेपाल यात्रा। देश-विदेश में आयोजित तमाम राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कवि सम्मेलनों में तीन दशकों से काव्यपाठ। आकाशवाणी के प्रतिष्ठाजनक सर्वभाषा कविसम्मेलन में दो बार हिन्दी कविता का प्रतिनिधित्व किया। आकाशवाणी के वाराणसी, इलाहाबाद, दिल्ली, कलकत्ता केन्द्रों से अनेक संगीतरूपक, वार्ता, नाटक आदि प्रसारित। रेडियो नाटक ‘लाउड स्पीकर' और भारत सरकार के सहयोग से ‘पदातिक' कलकत्ता द्वारा प्रसिद्ध नृत्यांगना चेतना जालान के निर्देशन में मंचित नृत्यनाटिका ‘अर्धशती' विशेष चर्चित। दूरदर्शन के राष्ट्रीय कार्यक्रम में धरावाहिक ‘क्यों और कैसे?' का पटकथा-लेखन भी किया।
इन्होंने ‘स्वांतः सुखाय', ‘विश्व हिन्दी दर्पण' और ‘नवगीत दशक' के सम्पादन में परामर्श-सहयोग भी दिया। मित्र मंदिर, कलकत्ता और आर्य बुक डिपो, दिल्ली के संयुक्त प्रयास से बुद्धिनाथजी के कुशल सम्पादन में अब तक प्रतिनिधि गीतकवि कैलाश गौतम का ‘जोड़ा ताल', सोम ठाकुर का ‘एक )चा पाटल को', माहेश्वर तिवारी का ‘नदी का अकेलापन', रामचन्द्र चन्द्रभूषण का ‘समय अब सहमत नहीं' और सांसद एवं सुकवि उदयप्रताप सिंह का ‘देखता कौन है' प्रकाशित हुए हैं। इनके अलावा, सांसद तथा हिन्दी की प्रोफेसर चन्द्रा पाण्डेय के काव्य संकलन ‘उत्सव नहीं है मेरे शब्द' और दूनघाटी के प्रसिद्ध साहित्यकार श्री गिरिजाशंकर त्रिवेदी के अभिनन्दनग्रंथ ‘स्वयंप्रभ' का सम्पादन भी किया। अवधी पत्रिका ‘बोली-बानी' और देहरादून की साहित्यिक पत्रिका ‘साहित्य प्रभा' का संपादन भी आपके परामर्श से किया जाता है। आथर्स गिल्ड ऑफ इंडिया, मित्र मंदिर, नागरी प्रचारिणी सभा आदि अनेक संस्थाओं के आप सम्मानित सदस्य हैं।
श्री मिश्र हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग द्वारा ‘कविरत्न' और साहित्य सारस्वत' उपाधि से सम्मानित हैं। दुष्यंत कुमार अलंकरण (भोपाल), निराला सम्मान (उन्नाव), सहस्राब्दि सम्मान (लखनऊ) आदि दर्जनों सम्मान और पुरस्कार प्राप्त। राष्ट्रीय सम्मानों की सीमा पार कर बुद्धिनाथजी को अन्तर्राष्ट्रीय सम्मानों ने सम्मानित करना शुरू किया है। सन् 2005 में आपको सोवियत रूस का पूश्किन सम्मान मिला। इस सम्मान का आयोजन मास्को स्थित ‘भारत-मित्र' समाज किया करता है और प्रतिवर्ष हिन्दी के किसी स्थापित साहित्यकार को प्रदान करता है। इस संगठन के महासचिव का नाम अनिल जनविजय है। निर्णायकों की जिस समिति ने बुद्धिनाथजी के नाम पर सहमति प्रदान की उसके अध्यक्ष प्रसिद्ध रूसी कवि अलेक्सान्द्र सेकेर्विच रहे। इस समिति में तीन रूसी साहित्यकारों के अतिरिक्त चौथे सदस्य प्रसिद्ध रूसी लेखक व पत्रकार स्वेतलाना कुज़्मीना भी रहे। इस सम्मान को ग्रहण करने के क्रम में आप पन्द्रह दिनों तक मास्को की यात्रा पर रहे और वहाँ के साहित्यकारों एवं बुद्धिजीवियों द्वारा प्रशंसित हुए। हिन्दी के साहित्यकार हरि भटनागर, महेश दर्पण और भारत यायावर को भी यह सम्मान मिल चुका है। इस सम्मान से हिन्दी जगत् को भारी प्रसन्नता हुई। अंग्रेजी और हिन्दी के अनुवाद- विशेषज्ञ, रेलवे की हिन्दी सलाहकार समिति के पूर्व सदस्य और खान मंत्रालय की हिन्दी समीक्षा समिति एवं तकनीकी शब्दावली आयोग की परामर्शदात्री समिति के मनोनीत सदस्य श्री मिश्र पर्यटन, तैराकी, पाककला, कार ड्राइविंग और बतरस में निपुण हैं। उ.प्र. हिन्दी संस्थान की पुरस्कार चयनसमिति के भी आप मनोनीत सदस्य रहे हैं। मातृभाषा मैथिली और राष्ट्रभाषा हिन्दी के अलावा संस्कृत, भोजपुरी, अंग्रेजी, बंगला, उर्दू और पालि भाषा के भी ये ज्ञाता हैं। इनका एक पुत्र अभिलाष कलकत्ता में है, जबकि तीन पुत्रियाँ आभा, विभा और शुभा क्रमशः गुवाहाटी, नई दिल्ली और चण्डीगढ़ में हैं। रेवतीपुर से बुद्धिनाथजी का लगाव अपने जन्मग्राम देवध से भी अधिक है।
कवि का नवीनतम नवगीत-संकलन सन् 2005 में ‘शिखरिणी' नाम से प्रकाशित हुआ है। गीत को एक वनौषधि मानने वाले श्री मिश्र की इस अनूठी कृति में एक सौ दो ताजी रचनाएँ संकलित हैं। इस कृति के आरम्भ में एक बहुत ही विस्तृत और मार्मिक भूमिका है। इसका शीर्षक ‘अक्षरों के शान्त नीरव द्वार पर' स्वयं में एक गीतगूँज है। इसमें आज के युग की कविता और कवि की स्थिति पर ललित निबन्ध के शिल्प में वैयक्तिकता के स्पर्श के साथ भावात्मक किन्तु विचारोत्तेजक प्रकाश डाला गया है। वास्तव में यह भूमिका कवि और उसके नवगीतों की आंतरिक सज्जा को समझने की कुंजी है।
इस संकलन की भूमिका के अंतिम अनुच्छेद में कवि की अभिलाषा व्यक्त हुई है। वह बारम्बार पढ़ने के लिए ललचाती है और कवि तथा उसकी इस कृति के विषय में बहुत कुछ सन्देश छोड़ती प्रतीत होती है। वह लिखता है- ‘मेरी अभिलाषा यही है कि उत्तम शब्दों के पारावार में यह संकलन एक लघुकाय शंख की तरह जीवित रहने तक प्रवहमान रहे और मरने के बाद अनन्त काल तक शब्दायमान रहे, नये सुरत्व के आवाहन के लिए।' कवि की यह प्रगाढ़ आशावादिता जीवन के उल्लासमय पक्ष का आवाहन करती है। उसकी दृष्टि में जो कुछ भी युगीन अंधेर-अंधकार है उसे छँटना ही है। विकृति स्थायी नहीं हो सकती। प्रकृति अपना काम करती है। मुरझाये जन-मानस को ताजगी से पूर्ण संदेश देती गीत की ये पंक्तियाँ बहुत ही मार्मिक हैं-
‘फिर खिलेंगे कमल/ फिर उगेगा सूर्य प्राची में
ब्रह्मवेला को करेंगे/ भैरवी के गीत मुखरित।
यादों के बहाने से
गीति-भूमि पर खिला कचनार
श्रीराम परिहार
हवा का डाकिया यादों भरा लिफाफा द्वार पर पटक जाता है। पत्र के पन्ने टेबल पर फड़फड़ाते हैं। कबूतर के गले में से संदेश छूटकर पूरा कमरा हो जाता है। कमरे की दीवारों की रेखाओं में गीतों की धाराएँ रस भरने लगतीं हैं। मेरी चाय की प्याली से उठती हुई भाप से सुबह पहले गर्म और फिर आर्द्र हो उठती है। मैं दार्शनिकता की भूमि से उतरकर दून घाटी में नंगे पाँव चलने लगता हूँ। हिन्दी साहित्य सम्मेलन-प्रयाग के अधिवेशन की काव्य-संध्या में (जून 2001) देहरादून नगरपालिका निगम का सभागृह गीतमय हो उठता है। वनपाखी का कलरव गीतों की पाँख-पाँख पर तैरता है। एक राग बजता है और समूचे जीवन को लयबद्ध करता हिमालय के श्रृंगों की यात्रा पर चढ़ता चला जाता है। भागीरथी के जल में से उछलकर कोई मछली जाल में फँस जाना चाह रही है। र्धमवीर भारतीजी के ‘र्धमयुग' के पन्ने पर से खिसककर गीत स्वर की बाँसुरी में बजने लगता है- 'एक बार और जाल फेंक रे मछेरे, जाने किस मछली में बंधन की चाह हो।’ यही गीत आकाशवाणी, बीबीसी की यंत्र घंटिकाओं में झनक बन अंतरिक्ष में तैरता है।
पूरा गीति-राग इस गीत में सघन गूँज के साथ है। नवगीत जहाँ से अपनी नयी उड़ान के साथ नवमानव के भूत-भविष्य के आकाश में पंख तौलना चाहता है। वह तरुशिखा यही है। नवमानव स्वतंत्रता के बाद के स्वप्निल संसार का प्रणी है। देखते-देखते ही वे स्वप्न भी चूर हो गये। गीत की नीली रेखाएँ अपना एक छोर नवमानव की अतीत- वंशी की धुन में पिरोये हुए हैं तो दूसरा छोर यंत्र की जुंबस में फँसे सुख-दुःख के कमरबंध से कसे हुए हैं। श्री बुद्धिनाथ मिश्र के गीतों के ये दो ध्रुव भी हैं। एक ध्रुव हिम-धवल पावन प्रेम की शीतलता का है। दूसरा ध्रुव जीवन-जगत की पठारी धरती के वास्तव का है। बीच में है गीति-गूँज। एक जीवन। एक संगीत। एक राग। एक लय। एक गति। एक प्राण। एक प्रतीक्षा। एक आकांक्षा। एक अमित तोष। एक अपूर्व उल्लास। जीवन अनमोल है। उसका श्रृंगार है- प्रेम। उसका अर्थ है- सत्य। वह सत्य स्वर्ण से ढँका हुआ है। गीत की सारी कोशिश यही है कि उस स्वर्ण पात्र का मुँह खुल जाय और सत्य के दर्शन हो जाए। सत्य दिख जाए। सत्य को पा जाएँ। यही उम्मीद और कोशिश सत्साहित्य मात्र की होती है। इसीलिए दर्शन की वह भूमि बड़ा सम्मोहन भरा आमंत्रण देती है। अनन्त-अनन्त मछरियों में कोई तो एक मछरी ऐसी होगी जो बंधन में बँधना चाहती है। जहाँ कबीर पहुँचकर ऐसे जीव को कहते हैं- ‘विरला सूर'।
देहरादून देवभूमि की देहरी है। ‘दून' का अर्थ है ‘घाटी' और देहरा बना है देहरी से। यह घाटियों वाले घर की ‘देहरी' है। यह हिमालय का प्रवेश द्वार है, जहाँ हिम शिखरों पर आकाश बादलों के पंख लगाकर उतर आता है। मेरी आँखें श्री बुद्धिनाथ मिश्र को इन्हीं शिखरों के बीच देखती हैं। एक गीत देह धरकर दून घाटी में मिथिला, भोजपुरी, बंगला, संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी की छाँह तले अपने स्वर और उपस्थिति से मांगल्य पूरता है। एक रचनाकार, लोक संस्कृति, मिथक, इतिहास, पुराण, दर्शन, र्धम, प्रकृति के संदर्भों से गीतों की फसल बोता है और वैश्विक समस्याओं के भीतर पलती भूख के धुँए को छाँटता है। एक महीन चादर बनती है और गीत अपने साहित्यिक प्रसंगों में मानवता का मान बन जाता है।
श्री बुद्धिनाथ मिश्र को देखा तो भाई यश मालवीय के शब्दों में लगा- ‘गीत ही देह धरकर खड़ा हो गया हो।' उसमें गीत की लय पहाड़ी झरने का सौन्दर्य लेकर बहती है। पूरा वनान्त वासन्ती चीवर पहने कीर्तिप्रिया से मिलने को आतुर हो उठता है। फाल्गुन के मुख पर हल्दी चढ़ जाती है। बँसबिटि्टयों में फूलों की तिथियाँ टँक जाती हैं। गीत का कद देवदारु-सा हो जाता है। देवदारु को देखते ही रोमांस हो आया। आँखें मछरी हो गयीं। गरदन आकाश में अटक गयी। निबन्ध पुरुष हजारी प्रसाद द्विवेदीजी का व्यक्तित्व सामने वृक्ष-विस्तार की तरह अपनी उन्मुक्त हँसी के साथ कौंध गया। रुद्राक्ष की डाल-डाल पर लटके रुद्राक्षों में ‘शुभम्' के संकल्प आस्था के साथ मुक्ति-राह प्रशस्त करने लगे। कपूर के पेड़ की सुगंध पत्तों को छूते ही हथेलियों पर उतर आयी। चीड़ों की शाखाओं ने आकाश का अध्याय बाँचते सूर्य को प्रमाण किया और शांति मुद्रा वाला सात्विक दिन अपनी आरंभावली के समय गीत में मुखरित हो उठा- 'फिर उगा है सूर्य, नव संकल्प लेकर/ रश्मियाँ उतरीं धरा पर, पुनः पंख पसार।’
मिथिला की भूमि में विद्यापति का पद-राग अभी जीवित है। बड़ी रसमय और गंधमय भूमि है- मिथिला की। पूर्वी हिन्दी जहाँ अपने लोक स्वरूप में मैथिल, मगही और भोजपुरी में जीवन का स्वरूप- प्रगतिस्वरूप गाती है। लोक-लय और लोक-राग अपनी सतरंगी छवि के साथ श्री बुद्धिनाथ मिश्र के व्यक्ति और गीत दोनों में आलोड़ित है। कभी-कभी प्रश्न घुमड़ता है कि क्या भारतीय लोक सम्पृक्ति के बिना भारतीय साहित्य की रचना संभव है? मिट्टी की गंध, नदी की प्यास, आकाश की आकांक्षा, पक्षियों के बोल और जीवन की हँसी-उदासी सुने-गुने बिना क्या गीत-नवगीत लिखे जा सकते हैं? श्री मिश्र के पाँवों में लगी मिट्टी बोलती है। उस मिट्टी से ग्रहण की हुई रस-निर्झरिणी ही गीत-निर्झरिणी के रूप में बही है। एक गहरा जुड़ाव अपने देश की भाषा-बानी, मिट्टी-पानी से अतीत-वर्तमान और भविष्य की समेट के साथ उनके गीति- बंधों में तरलायित अनुभव होता है। इसलिए ये गीत अंधकार से लड़कर, ज्योति की )चा बनकर, मन-का आकाशदीप जगाते हैं।
जितना मधुर उनका गीत-निकुंज है, उतना ही कोमल उनका मन है। उनका सान्निध्य और नेह पाकर मैं अपने सौभाग्य की छाँह में चला जाता हूँ। एक गीति-भावन अपनी भूमि की उर्वरता में पूरा मौसम बो देने की क्षमता रखता है। उनके पास ऋतुएँ अपनी सांस्कृतिक )चाएँ बाँचती हैं। हिमालय की सकल वनराजि हरी-हरी अँजुरी में नयी-नयी प्रीत भरकर देव-प्रतिमाओं का अभिषेक करती हैं तब श्री मिश्र अपनी समर्पणशीलता और आत्म-ऊर्जस्विता में पूरी गीति-प्रार्थना बन जाते हैं- ‘बनकर प्रत्यूष बात, करते तुम नव प्रभात, ज्योति-बीज तुम सकाम, जय हे जनदेवता।' देव संस्कृति से ऊर्जा लेकर उनका गीति-व्यक्ति मानव-संस्कृति के आँगन में नवमानव के शिशु की किलकारियों में भविष्य का संगीत बुनता है। उनके भावलोक में सपनों की ओर गूँथती कुश की नोक है। चाँद की गुहार करती रात है। पीपर की छाँह में बसी छुई-मुई प्रीत है। अधरों से झाँकते हुए अधसँवरे गीत हैं। दूसरी तरफ छालों भरा सफर है। चिमनियों का डर पूरे गाँव को डसने पर उतारू है। कहीं दावानल है। कहीं हिमपात। वनों का रंग नीला पड़ गया है, जिसमें लड़कियों के कोमल गीत बिला गये हैं। सब कुछ हैरत-हैरत है। सब कुछ लुटा-लुटा-सा। अपना समय कवि के सामने नंगा खड़ा है। गीतकार अपने युग के कठोर को अभिव्यक्ति देता हुआ गीत की कोमल देह में अग्नि-राग भरता है। एक जिजीविषा को अमर करता है- 'नदी रुकती नहीं है, लाख चाहे सेतु की कड़ियाँ पिन्हा दो, ओढ़कर शैवाल वह चलती रहेगी।’
दूर्बादल की कोमलता वाले गीतकार बुद्धिनाथ मिश्र गीति-भूमि पर खिले कचनार की तरह हैं। व्यक्तित्व की सुगन्ध घ्राणेन्द्रिय से नहीं, मनेन्द्रिय से महसूस की जाती है। मिश्रजी से मिलकर और उनसे उनके गीत सुनकर हमारे भीतर चाँदनी का पेड़ खिल उठता है। पूरा आकाश चाँद-तारों के वसंत के साथ उतर आता है। मन की हाँडी में नेह का दूध गरमाने लगता है। जिसके स्वाद में हम आत्मविस्तारित होकर फैलते चले जाते हैं- हिमालय के उस पार और सिन्धु के उस तट तक जहाँ मौन को शब्द और शब्दों को मौन-अर्थ मिलते हैं। जहाँ जीवन की बंशी से आदिम राग गीत बनकर बजता है। ऐसे गीतकार श्री बुद्धिनाथ मिश्र को तिलक-अक्षत लगाते हुए प्रणाम।
यादों के बहाने से
बुद्धिनाथ मिश्र - एक देह धरा गीत
यश मालवीय
कभी महादेवीजी ने पिता उमाकांत मालवीय का गंगावतरण वाला गीत ‘गंगोत्री में पलना झूले आगे चले बिकइयाँ, भागीरथी घुटरुवन डोले शैल शिखर की छइयाँ'। सुनते हुए कहा था, 'कभी कोई ऐसी दैवीय आपदा आ जाय कि उमाकांत का सारा साहित्य कालकवलित हो जाए, नष्ट हो जाए तो भी अगर केवल यह एक गीत बचा रह जाता है तो भी उमाकांत युग-युगों तक जिन्दा रहेंगे।’
ठीक यही बात मन में कौंधती है जब-जब श्री बुद्धिनाथ मिश्र का यह अमर गीत- 'एक बार और जाल फेंक रे मछेरे/ जाने किस मछली में बंधन की चाह हो' सुनता हूँ। यह वाकई बंधन की चाह का गीत है। इस समय भी वीनस से जारी हुआ कैसेट मेरे स्टडी रूम में गूँज रहा है। बुद्धिनाथजी अपने सरल-सहज स्निग्ध एवं )जु स्वर में गीत की चिरन्तरता के प्रति आश्वस्त कर रहे हैं कमरा क्या पूरा घर ही पूजा और प्रार्थना की पवित्रता से अभिषिक्त हो उठा है। गीत की पावन गरिमा हमारे मन-प्राण तक को नहला रही है। सोमजी का सहारा लें तो सारा दिन गीत-गीत हो चला है। सचमुच! बुद्धिनाथजी का अकेला यह गीत ही उन्हें हिन्दी साहित्य के इतिहास में अजर-अमर रखने वाला है। लगता है इस गीत को ही धराधम पर गुँजाते रहने के लिए वह दुनियाँ में आए हैं।
अपने किसी नितांत आत्मीय पर लिखना जितना मुश्किल होता है उतना ही प्रीतिकर भी। व्यक्तित्व पर लिखने बैठा तो चेहरे पर रेशमी मुस्कान सजाए बुद्धिनाथजी का व्यक्तित्व ही कागज से निकलकर बाहर आने लगता है। बुद्धिनाथजी मेरे पिता के अनुज लेकिन उनके समकालीन हिन्दी गीत कवि हैं। इस तरह मेरा और उनका चाचा-भतीजे का रिश्ता भी है। उनके गीतों का मूल्यांकन करने में सबसे बड़ा खतरा यह है कि मैं कहीं भाई-भतीजावाद की तर्ज पर चाचावाद की चपेट में न आ जाऊँ। उनका तटस्थ मूल्यांकन जब मेरे बाप नहीं कर सकते थे तो फिर मेरी हैसियत ही क्या है। न पिद्दी, न पिद्दी का शोरबा। बुद्धिनाथजी पर लिखना मेरे लिए कुछ-कुछ ऐसा ही है जैसे मैं अपने पिता पर लिखूँ। पुत्र द्वारा पिता का मूल्यांकन असम्भव नहीं, तो कठिन अवश्य है। कठिन इतना कि दाँतों तले भी पसीना अनुभव कर रहा हूँ।
बुद्धिनाथ मिश्रजी के गीत काव्यमंचों पर जितना प्रभाव छोड़ते हैं, उससे कुछ कम शक्तिशाली कागज पर भी नहीं ठहरते। मंच और कागज पर पिछले तीन दशकों से वह अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। उल्लेखनीय बात यह है कि उनके कण्ठ का जादू महसूस करने से पहले मैंने उनका सिग्नेचर ट्यून बन चुका गीत ‘जाल फेंक रे मछेरे!' सातवें दशक के अन्त या आठवें दशक के प्रारम्भ में ही र्धमयुग में पढ़ लिया था। तब मैंने लिखे और छपे शब्दों में ही गीत का समस्त प्रभाव ग्रहण किया था। मेरे लिए अन्तिम निकष कागज पर ही रचना की उपस्थिति से तय होता है। स्वर तो नेपथ्य में भी जा सकता है, पर कागज हमेशा-हमेशा अपने कालजयी शब्दों के साथ मौजूद रह सकता है। यहाँ मैं कैसेट आदि के महत्त्व को कम करके नहीं आँक रहा हूँ वरन रचनाकार की सजीव शब्द-सम्पदा और उसकी अनवरत काव्य-साधना को प्रणाम दे रहा हूँ। वैसे भी पिता कहते रहे हैं, ‘जिस तरह चौकोर पहिया नहीं चल सकता वैसे ही अगेय गीत भी नहीं चल सकता। गीत के लिए गेय होना वैसी ही शर्त है जैसे पहिये के लिए गोल होना। इस कसौटी पर भी बुद्धिनाथजी के गीत खरे उतरते हैं, इसलिए तो आज भी वह अनगिन कंठों में जी जाग रहे हैं।
कविता के बहुत सारे आढ़तिए उन्हें राग-रूमान और प्रकृति का ही गीतकार मानकर छुट्टी पा लेते हैं, जबकि उन्होंने अपने गीतों में समकालीन यथार्थ और सामाजिक विसंगतियों से भी जमकर मुठभेड़ की है। उन्होंने एक ओर बंधन की चाह को स्वर दिया है, तो दूसरी ओर युगीन यथार्थ को भी रचनाकार की पूरी शिद्दत के साथ उजागर किया है। वह कहते हैं, 'सड़कों पर शीशे की किरचें हैं और नंगे पाँव हमें चलना है।’ बुद्धिनाथजी का गीतकार गहरे युगबोध के साथ संवेदना की पथरीली और कंकड़ीली राहों पर चलता रहा है। निराला ने 'नव गति नव लय ताल छंद नव' की परिकल्पना की है। निराला का नवगीत ही आज का नवगीत है। बुद्धिनाथजी नवगीत के अप्रतिम ध्वजवाही रचनाकार हैं। वह भारतीय मनीषा के अनुगायक तो हैं ही, एक विश्वदृष्टि के संस्कार से भी पोषित हैं। नवगीत दशक-3 (सम्पादक शम्भुनाथ सिंह) के अपने दृष्टि-बोध में वह कहते हैं- 'नवगीत ने पिछले तीन दशकों में उपेक्षा की कँटीली झाड़ियों और आलोचना की आँधयिों के बीच जो संघर्षपूर्ण यात्रा की हैं, उसकी अजेय आंतरिक ऊर्जा और दृढ़ विश्वास उसी का परिणाम हैं।’
भारतीयता की मूल धरणा बुद्धिनाथजी की काव्य चेतना की धुरी है, किन्तु उसकी सीमा काव्य संवेदना की ही तरह अपार एवं विस्तृत है। जिस विश्वदृष्टि की बात मैंने की है, उसे और सहज बोधगम्य तरीके से वह व्याख्यायित करते हैं, वह लिखते हैं- 'गीत धर्मिता केवल भारतीय लोक जीवन की ही नहीं, मानव मात्र की एक सहज प्रवृत्ति है। मानवीय सरोकार उसकी रचना के केन्द्र में हैं।’
कुछ लोग कहते हैं गीत तो गीत है, यह नवगीत क्या है? उन्हें नामवर सिंह के नये प्रतिमान से दिक्कत नहीं होती, पर नवगीत उन्हें असुविधा पहुँचाता है, इस तर्क से कविता के प्रतिमान काफी होने चाहिए थे, यह नये प्रतिमान क्या हुए? यानि कि समय के साथ-साथ नये निष्कर्षों का भी निर्धरण हुआ। बात साफ है कि पारम्परिक गीतों से आज के गीतों को प्रवृत्ति और अध्ययन की असुविधा से अलगाने के लिए नये गीत अथवा नवगीत के विशेषण की जरूरत अनुभव की गयी। पहले गीत केवल निजी सन्दर्भों यथा सुख-दुःख, राग-विराग आदि का उद्घाटन करता था, जबकि आज के गीत का आसमान और अधिक व्यापक और कविता के कीर्तिपुरुष भवानीप्रसाद मिश्र के शब्दों में कहें तो ‘भासमान' हुआ है। समकालीन कविता को छन्द में व्यंजित करना ही नवगीत है। बुद्धिनाथजी ने इस गुत्थी को कुछ इस तरह सुलझाया है। वे कहते हैं- 'पत्ते को पल्लव तभी कहा जाता है, जब उसमें रूप-रस-गंध की नवीनता होती है। पुराने पत्ते को कोई पल्लव का नाम नहीं देता। सम्भव है नवगीत में आज जो नवता है वह कल पुरानी पड़ जाय और दूसरे प्रकार का नयापन विकसित हो जाय।’
मुझे भी लगता है कि नवगीत वहाँ तक नवगीत रहेगा, जहाँ तक वह नवता का बोध कराता रहेगा। परम्परा से जुड़े गीत तो उसकी नींव में रहेंगे ही। शिल्प, संवेदना और कथ्य के स्तर पर नवगीत की आगे की यात्रा ‘उत्तर नवगीत' भी हो सकती है, उसके लिए हमें तैयार रहना चाहिए। यह उत्तर नवगीत हर हाल में उत्तर आधुनिक सोच से भिन्न ही होगा, क्योंकि ‘उत्तर आधुनिकता हर दिशा और दशा से आयातित चिंतन की ओर ही इंगित करती है जो हमारे भारतीय चिंतन की अवधरणा के सर्वथा प्रतिकूल है। हम अभी कायदे से आधुनिक भी नहीं हो पाये, फिर यह उत्तर आधुनिकता भला किस चिड़िया का नाम है?' यह ‘पोस्टमार्डनिज्म' का भोंडा अनुवाद है। नवगीत के बाद उत्तर नवगीत कभी होगा भी तो वह हिन्दी गीत की जययात्रा का ही अगला पड़ाव होगा, जिसकी आहट बुद्धिनाथजी अपने इस नवगीत में देते हैं-
लिख गयी पूरी सदी/ पागल हवा के नाम
राख में चिनगी दफन हो जाय/ मुमकिन है।
आज होते पिता तो बुद्धिनाथजी पर बड़े प्यार से लिखते। बुद्धिनाथजी पर लिखना यह मेरे लिए गौरव की बात तो है ही, एक प्रकार का पितृ)ण भी है, जिसे मैं पूजा भाव से चुका रहा हूँ और पिता के शब्दों में कामना कर रहा हूँ कि बुद्धिनाथजी को राम की नहीं रामकथा की आयु मिले, वह सतत हिन्दी कविता को लय की डोर से बांधे रहें और बेसुरे कविता समय में भी ज़िन्दगी के गीत गाते रहें। उन्हें देखकर लगता है जैसे कोई गीत ही देह धरकर सामने आ गया हो।
यादों के बहाने से
नवगीत के माध्यम से स्नेह-भाव का वितरण
सुशीला गुप्ता
कवि दिनकर की प्रसिद्ध पंक्तियाँ हैं- 'दो हृदयों के तार, जहाँ भी जो जन जोड़ रहे हैं/ घोल रहे हैं जो जीवन-सरिता में प्रेम रसायन/ आत्मबन्धु कह कर ऐसे जन-जन को नमन करूँ मैं/ किसको नमन करूँ मैं भारत, किसको नमन करूँ मैं।’ दिनकरजी की इन पंक्तियों में इस बात का स्पष्ट उद्घोष होता है कि जो जन-जीवन-सरिता में प्रेम का अमृत घोल रहे हैं, वे ही उनके आत्मबंधु हैं और उन्हीं को कवि का नमन है।
श्री बुद्धिनाथ मिश्र एक तेल कम्पनी में राजभाषा के मुख्य प्रबन्धक के रूप में सेवारत थे। तेल की कम्पनी से उनका सरोकार था, इसलिए उनमें जन-जन के प्रति स्नेह का भाव होना स्वाभाविक है, क्योंकि तेल का दूसरा अर्थ होता है स्नेह। बुद्धिनाथजी हृदय से एक कवि हैं, कविताएँ लिखते हैं, देश-विदेश के कवि सम्मेलनों में अपनी कविताएँ पढ़ते हैं और खुले दिल से स्नेह-भाव वितरित करते हैं, इसीलिए इतने लोकप्रिय हैं।
श्री बुद्धिनाथ मिश्रजी नवगीतकार हैं। श्रीमती कमल कुमार का कथन है कि 'आधुनिक विसंगतिपूर्ण जीवन की कुरूपताओं के बीच स्वभाविक जीवन संघर्षों की खोज नये गीत की आवश्यकता और उपलब्धि है। नवगीत ने आज अनास्था के धुंधलके में आलोक और आस्था का चित्रण किया है।’
अन्य नवगीतकारों की भाँति बुद्धिनाथजी भी जीवन-संघर्षों के यथार्थ को स्वीकार करते हैं। उनका विश्वास है कि दुःख मनुष्य को माँजता है, इसलिए दुःख से घबराना नहीं चाहिए। आवश्यक नहीं कि जिन्दगी में हमें सदैव जीत ही मिले, हार भी मिले तो भी हमें उसे गले लगाना सीखना चाहिए- 'जीत के बदले हार मिले तो/ कोसो नहीं नसीबों को।’ जीवन की परिस्थितियों का यही तकाजा होता है कि वह वास्तविकता को नजरअंदाज न करे। बुद्धिनाथजी इस वास्तविकता से वाकिफ हैं, इसीलिए तो वे इस बात का अहसास जगाना चाहते हैं कि हमें नंगे पैर चलना है शीशे की किरचों वाली सड़क पर-
सड़कों पर शीशे की किरचें हैं
और नंगे पाँव हमें चलना है
सरकस के बाघ की तरह हमको
लपटों के बीच से निकलना है।
बुद्धिनाथजी जिन जिन्दा लोगों की बात करते हैं, उनमें वे शामिल नहीं हैं, जो सुविधाओं से लैस हैं। वे उनकी बात करते हैं, जो सुविधाविहीन हैं। 7 जून 2000 को महात्मा गाँधी मेमोरियल रिसर्च सेण्टर, मुम्बई में आयोजित अपने प्रिय कवि से मिलिए कार्यक्रम में उषा मेहताजी भी उनकी कविताएँ सुनने के लिए आयीं थी। बुद्धिनाथजी ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा था- 'मैं जिन्दगी की वास्तविकता को कभी नजर- अंदाज नहीं कर सकता। मैं अपनी पहचान भी विशिष्ट कवि के रूप में नहीं, बल्कि एक संवेदनशील इन्सान के रूप में बनाना चाहता हूँ।’ ...उन्हें इस बात की पीड़ा है कि सुविधाविहीन लोगों को उजाड़ने वाले और कोई नहीं, सुविधासम्पन्न लोग हैं-
घर की बात करें वे जो घर वाले हैं,
हम फुटपाथों पर बैठे क्या बात करें?
रोज़-रोज़ सूरज का गुस्सा झेलें हम
आँधी पानी और आग से खेलें हम
बिगड़ी हुई हवा हो या दानी बादल
सबने हमें उजाड़ा, साक्षी गंगाजल।
मौसम जिनकी मुट्ठी में वे खुश हो लें
हम मौसम के फिकरों की क्या बात करें।
एक बार कवि-सम्मेलन व मुशायरा 4 अक्टूबर 2001 को मुम्बई में आयोजित हुआ था। इस मौके पर भारत के अन्य स्थानों के कवि भी आमंत्रित थे। माइक पर बुद्धिनाथजी थे और अपनी मछेरे वाली कविता सुर में गा रहे थे- 'एक बार और जाल फेंक रे मछेरे/ जाने किस मछली में बन्धन की चाह हो।’ कविता समाप्त हुई तो काव्य रसिकों ने तालियों की गड़गड़ाहट से दाद दी। लग रहा था कि कवि ने अपनी भावनाओं के जाल में सभी काव्य-रसिकों को समेट लिया था। सभी मानो उनके भाव पााश में बँध से गये थे। इसी तरह एक बार बिड़ला सभागृह में बच्चनजी ने काव्य-प्रेमियों को मंत्र-मुग्ध कर दिया था। वे गा रहे थे- 'महुआ के नीचे/ मोती झरे/ महुआ के ...।’
बच्चनजी के साथ सभी काव्य प्रेमी गा रहे थे। स्थिति यहाँ तक आ पहुँची कि बच्चनजी चुप थे और उपस्थित लोग गा रहे थे- ‘महुआ के ...'। मानों पूरे सभागृह में महुआ का नशा छा गया हो। उस दिन बुद्धिनाथ मिश्रजी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था- सभी उपस्थित काव्य-रसिक काव्यानंद में डूबे थे। 18 अक्टूबर 2001 को भी भारतीय विद्या भवन में कवि सम्मेलन व मुशायरे का आयोजन हुआ था। न्यायमूर्ति चंद्रशेखर र्धमाधिकारी अध्यक्षता कर रहे थे। विश्वनाथ सचदेव संचालन कर रहे थे, कार्यक्रम उषा मेहताजी की स्मृति को समर्पित था। उस दिन मिश्रजी के नवगीत की नयी छटा देखने को मिली- 'मैंने जीवन-भर बैराग जिया है, सच है/ लेकिन तुमसे प्यार किया है, यह भी सच है। मैंने गैरिक चीवर पहन लिया है, सच है/ लेकिन तुमसे प्यार किया है, यह भी सच है।’ नवगीतकार बुद्धिनाथ मिश्रजी भावनाओं के धनी हैं, सुर-लय-ताल के जानकार हैं, मीठी आवाज़ उनकी शक्ति है और उपस्थित काव्य रसिकों पर जादू डालने में वे माहिर हैं। उनके काव्य में और निखार आये, और स्नेह-सिक्तता आये, प्रभावोत्पादकता आये-उनकी आवाज़ का जादू सबके सिर चढ़कर बोले यही हमारी मंगलकामना है।
यादों के बहाने से
बुद्धिनाथ - एक मानव, एक रचनाकार
काक
बुद्धिनाथ से लगभग दो-ढाई दशक पहले मेरी मुलाकात हुई। एक पत्रकार की ही तरह मिले। कविता भी करते हैं इतना और जाना। उस जमाने में पत्रकार अपनी पहचान एक साहित्यकार की तरह बना लेने की टोह में रहता था। अखबार में बैठा होना इसमें मदद भी करता था। मैंने सोचाऋ होंगे। चार लाइन वाले कवि। कवि सम्मेलनों से बुलौवा आ जाता होगा और ठसक पूरी कर लेते होंगे। पर ऐसा नहीं था। मेरी उनकी सोहबत हुई दैनिक ‘आज' कानपुर के दरमियान। इसी बीच कानपुर ‘आज' के संपादक विनोद शुक्ल के नेतृत्व में एक जलसाई जुलूस में गोरखपुर जाना हुआ। वहाँ ‘आज' के संस्करण का उद्घाटन होना था। बनारस से बुद्धिनाथ भी आये थे। दोनों को साथ-साथ समय बिताना पड़ा। समय बिताने के लिए करना है, कुछ काम, शुरू करो कविजी कविताई लेकर हरि का नाम। बुद्धिनाथ ने अपने कोमल स्वर में कुछ कविताएँ सुनाई तो मैं चौंक गया।
अद्भुत कवि हैं बुद्धिनाथ। जीवन के किस टुकड़े को लेकर उनके अन्दर का कवि सुगबुगा जाए कोई ठिकाना नहीं। अमराई, सावन के झूले, सरिता, पहाड़, तरुपल्लव, सौन्दर्य या मोहक प्रसंग या फिर करुणा, दमन, प्रतिरोध, विडम्बनाएँ इत्यादि एक रचनाकार कवि को प्रेरित करने के लिए आवश्यक नियामक हैं। या फिर ऐसे कथानक जिनके नायक, नायिकाएँ, पात्र और घटनाक्रम कवि को काव्यबद्ध कर लेने के लिए उद्वेलित करते हैं। ऐसी कोई बाध्यता बुद्धिनाथ के लिए नहीं।
बुद्धिनाथ की कविता प्रस्फुटित होती है गर्मी की चिलचिलाती तपाती दोपहर को लेकर। वाह क्या हृदय बाँध लेने वाली फिजा है। ‘फिर दोपहर लगी अलसाने/ नीम तले। कौए लगे पंख खुजलाने/ नीम तले।' एक-एक शब्द दोपहर से सराबोर। आपका मन उन दोपहरियों को दोहराने लगता है। आहा क्या जीवन था। दोपहर का अलसाना याद आ गया। कौआ पंख नहीं खुजला रहा होता है मानों आप अपने में स्वयं मूर्त होकर पसीने चुह चुहाए अंगों को उघार कर खुजला रहे होते हैं। भारत का तीन चौथाई ग्रामीण परिवेश ऐसे ही किसी नीम के तले, ऐसी ही जीवनधर्मिता का पारण कर रहा होता है। कवि को इस प्रसंग को रूपायित करने के आनंद से लेना-देना है। इस अलसायी दोपहर में निठल्लेपन, काहिली या बेरोजगारी इत्यादि की तलाश करके आनंद को खंडित न करिए। पहले बेफिक्री, तसल्ली और इस प्रक्रिया के सुकून को भोग लेने दीजिए। कुछ क्षण ऐसे जी लेने का मन करने लगेगा। गर्मी की तपन से तालाब की तली की मिट्टी फट गई है। साँसों में मेंढ़क, बिच्छू, कानखजूरे या सांप कुछ भी छिपे हो सकते हैं। पर बुद्धिनाथ के लिए ये सांसे बिवाइयाँ हैं। यहाँ रूपक या उपमा न तलाशिये। अगर बुद्धिनाथ बिवाइयाँ बोलते हैं तो फिर बिवाइयाँ ही हैं। और लीजिए अब तक बिवाइयों का आनंद जब तक अगला बंद न आ जाए कविता का। अब जाके फटी न कबहुं बिवाई, वह क्या लुत्फ उठायेगा बिवाइयाँ खुजाने के एहसास का।
बागमती में हर साल बाढ़ आती हे। एक कहावत है कि उत्तर प्रदेश, नेपाल में अगर किसी नलके को खुला छोड़ दिया गया, समझो बिहार में बाढ़ आ गई।
बाढ़ त्रासदी है पर उतनी ही जीवन की मांग भी बन जाती है। बालमन शायद बाढ़ का इन्तजार भी करता है। जीवन प्रवाह में एक उफान आ जाता है। बागमती की बाढ़ आती है और बुद्धिनाथ द्वारा प्रस्तुत घर आँगन के दृश्य को जरा मन ही मन रूपायित करिये। चूल्हे में सांप बाढ़ से त्राण पाने के लिए कुंडली मारे सिमटा बैठा है। जिसने यह नजारा एक बार देख लिया वह जीवन बिसरा नहीं पायेगा। सारी वीभत्सताएँ, विडम्बनाएँ, असहायता जीवन के सहज अनुभवों की तरह आती हैं और निकल जाती हैं। अगले साल की बाढ़ तक सब कुछ यथावत। कहीं कोई बदलाव नहीं, कोई नया उपक्रम नहीं। बुद्धिनाथ की कविता कोई हुनर नहीं, कोई आन्दोलन नहीं, कोई वाद नहीं। बस बुद्धिनाथ की कविता है। हर शब्द बुद्धिनाथ का है। हर शब्द में कविता समाई है। हर शब्द में सारा परिवेश समाया है। अगर वह शब्द छूट जाता समझो उस परिवेश, उतने अंश की अनुभूति से हम वंचित रह जाते। पर ये शब्द या काव्य संरचना सायास नहीं या आयोजित नहीं। बस इतना ही कि यह बुद्धिनाथ की अभिव्यक्ति है। जस की तस पर बुद्धिनाथ की लय पर- कि जो कुछ है यह है भाई। और कवि के लिए कुछ भी अजनबी या अटपटा नहीं। बल्कि उसको तो आनंद आ रहा है। जो कुछ संजोये था, मंद गति से प्रस्फुटित हो रहा है। अब यह आप पर है कि उसमें आप क्या पाते हैं? खीजना चाहते हैं खीज सकते हैं, डूबना चाहें तो डूब सकते हैं। कवि तो अपनी कविता सुना देना चाहता है, बल्कि सरोकार आपके-
मैं तो थी बंसरी अजानी
अर्पित इन अधरों की देहरी।
तेरी साँसें गूँजी मुझमें
मैं हो गयी अमर स्वर लहरी।
यादों के बहाने से
गीत-काव्य के मोरपंख बुद्धिनाथ मिश्र
सुधाकर शर्मा
25 जनवरी, 2006 को देहरादून प्रवास में बड़े भैया श्री बुद्धिनाथ मिश्र ने अपना नया गीत-संग्रह ‘शिखरिणी' सप्रेम भेंट किया था। मैं ‘शिखरिणी' को एक ही बैठक में आद्योपान्त नहीं पढ़ सका। 200 पृष्ठों की इस पुस्तक को पढ़ने के लिए दो दिन ही पर्याप्त होते पर दो माह लग गये। आप इसे मेरा प्रमाद न समझें क्योंकि इस संग्रह के अधकिांश गीत ऐसे हैं जिन्हें पढ़ने के उपरान्त थमना पड़ता है, ठिठकना पड़ता है। अनेक गीत ऐसे भी हैं जिनकी एक-एक पंक्ति रुकने के लिए विवश करती है। रुकता हूँ तो वह पंक्ति मेरे हृदय की अतल गहराइयों में उतरने लगती है। शनैः-शनैः समूची ‘शिखरिणी' ही हृदय ग्राह्य होकर सदैव के लिए गहरी पैठ बना लेती है।
चेतन-अचेतन में अनुगुंजित पंक्ति मनोमस्तिष्क को भेदती हुई, चित्त को झकझोरती हुई हृदय को भावालोड़ित करती है- 'मोर के पाँव ही न देख तू मोर के पंख भी तो देख।’ और मैं गीतकाव्य के मोरपंख बुद्धिनाथ मिश्रजी को अपलक निहारता हूँ। अब मुझे सुभीते से दिखाई दे रहे हैं मिश्रजी। यह वह बुद्धिनाथ नहीं हैं जो कविरत्न, साहित्य सारस्वत, दुष्यंत अलंकरण, निराला सम्मान और पुश्किन सम्मान से सम्मानित हैं। यह राजभाषा विभाग ओएनजीसी, देहरादून का भारी भरकम अधिकारी भी नहीं, हिन्दी के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं का साहित्य सम्पादक या सतत प्रकाशित होने वाला रचनाकार भी नहीं, देश भर में जिसे लोगों ने सराहा-स्वीकारा, नवगीत का शीर्ष कहा, जिसके सुमधुर कंठजयी गीत हमारे जैसे असंख्य अधरों पर थिरके, जिसके बिम्ब विधान, छन्द कौशल और स्वर सम्प्रेषण को आलोचकों ने सिर आँखों पर उठाया, वह भी नहीं, यह तो बुद्धिनाथजी को टुकड़ों-टुकड़ों में समझना या परिभाषित करना होगा।
जब मैं कह रहा हूँ कि अब मुझे दिखाई दे रहे हैं बुद्धिनाथ मिश्रजी! तो यह बुद्धिनाथ सर्वांग है। बुद्धिनाथ को सर्वांग रूप से निहारने में सहयोग करती है ‘शिखरिणी'! ‘शिखरिणी' ऐसी दृष्टि भी प्रदान करती है कि नख से शिख तक बुद्धिनाथजी गीत-काव्य के मोरपंख ही दिखाई देते हैं। वह मोरपंख जो ब्रज-रसिया के शीर्षत्व का बोध कराता है। वह मोरपंख जो कृष्ण के कृष्ण होने का आभास जगाता है। वह मोरपंख जो मन को रुचता है, मन में रचता है! कोई व्यक्ति कब जन्मता है? कहाँ जन्मता है? किसकी कोख को धन्य करता है? किसे पितृ गौरव प्रदान करता है? क्या है उसका काल-परिवेश? क्या है अर्जन- उपार्जन? क्या है उसकी उपलब्धयिाँ? यह सब जानना तो स्थूल परिचय पाना मात्र है। यद्यपि यह जानना भी पूरी तरह निरर्थक नहीं, तथापि पर्याप्त और सार्थक भी नहीं क्योंकि यह सब व्यक्ति को जानने-समझने के लिए तो पर्याप्त हो सकता है परन्तु कवि को परिचय और उपलब्धियों की परिधि में बाँधकर नहीं देखा जा सकता।
वियोगी हरि ने लिखा- 'लोक प्रकाश मात्र कवि की कसौटी नहीं'। जिन्होंने बुद्धिनाथजी को कवि सम्मेलनीय मंचों से सुनाऋ दूरदर्शन-आकाशवाणी पर देखा-सुना, उन्हें मैं साधिकार कहना चाहता हूँ कि बुद्धिनाथजी को सुनने में जितना रस है, पढ़ने में उससे कई गुना अधिक रस है क्योंकि उनके स्वर-सम्प्रेषण और पाठक की स्वर चेतना छपे हुए गीतों में रसपाक को बढ़ा देती है। लोक प्रकाश तो फिल्मी गीतकारों या मंच के इल्मी भाँडों को बुद्धिनाथ से कई गुना अधिक मिलता है, परन्तु वह लोक प्रकाश मेरी दृष्टि में यथेष्ट और श्रेष्ठ नहीं है।
‘शिखरिणी' मिश्रजी की रचना-यात्रा का एक पड़ाव है, यह पड़ाव अल्प विराम है, पूर्ण नहीं। अभी तो बहुत अनकहा, कहा जाना शेष है। पूज्य सुमनजी (डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन) की एक पंक्ति- 'कवि की अपनी सीमाएँ हैं, कहता जितना कह पाता है।’ मुझे कई दिनों से कचोट रही है। सुमनजी यदि जीवित होते तो मैं उन्हें ‘शिखरिणी' देता और कहता कि देखो कविवर बुद्धिनाथ मिश्र असीम में, लय-छंद में आबद्ध होकर भी कितने स्वच्छन्द हैंं। ‘शिखरिणी' के गीतों की अनेक पंक्तियाँ अपने आप में असीम विस्तार लिए हैं।
मैथिल कोकिल विद्यापति की छंदोबद्ध परम्परा के उन्नायक-गायक बुद्धिनाथजी मिथिलांचल के रजकण से उतने ही अभिन्न हैं जितने कि विद्यापति! विद्यापति उनकी गीतात्मकता को संवारते-दुलारते हैं। वे चाहते तो मैथिली में ही काव्य-सृजन कर अपने गीतकार को तुष्टि दे सकते थे परन्तु उन्होंने हिन्दी के विस्तृत संसार को चुना। हिन्दी संसार ने भी आगे बढ़कर विद्यापति की परम्परा के अनुवाहक का स्वागत किया, उन्हें नवगीत का शीर्ष हस्ताक्षर स्वीकारा। मैं विचारता हूँ कि श्री बुद्धिनाथ मिश्र में नवत्व क्या है! मूलतः वे भी तो गीतकार ही हैं। फिर उन्हें नवगीत का शीर्ष क्यों माना जाय? अपने युग में परम्परा से प्राप्त साहित्य महोदधि में अवगाहन करने के बाद ‘राम की शक्ति पूजा' का सृजन करने वाले महाप्राण निराला जितने नवीनतम दिखाई देते हैं, उतने ही अनूठे गीतों के साँचे में, अद्भुत बिम्ब विधान, छन्द कौशल और भावाभिव्यंजना के साथ अपने समय में बुद्धिनाथजी नवगीत का सृजन कर रहे हैं। परम्परा से हटकर नवीनतम प्रतीकों को गढ़कर अपनी लय, अपनी धुन, अपने ही छन्द कौशल से अपने समय के गीत प्रणेताओं की पंक्ति में बुद्धिनाथजी अलग ही दिखते हैं। विशेषता यह भी है कि उनके स्वर स्पन्दनों और कवि-संचेतना में मिथिलांचल के देवध गाँव की मिट्टी की गमक गीतों को और भी सोंधा लावण्य एवं प्रकृत्या प्रवाह प्रदान करती है। बनारस, कलकत्ता, देहरादून या देश-देशान्तर की सीमाएँ पार कर भी बुद्धिनाथ अपनी जड़ नहीं छोड़ते, देवध उनकी जड़ है और विद्यापति हवा-पानी, मिट्टी!
‘शिखरिणी' पर बात शुरू करने से पूर्व मैं बुद्धिनाथ जैसे समर्थ अग्रज कवि की उँगली थामे ‘अक्षरों के शान्त नीरव द्वीप पर' विचरना चाहता हूँ, अपने तमाम कौतूहल और जिज्ञासाओं के साथ! 25 पृष्ठों के इस कलेवर को बुद्धिनाथ का आत्मकथ्य समझा जाता है परन्तु मैं इसे गीत-कथ्य की संज्ञा देता हूँ। सरसरी तौर पर इसे पढ़ें तो यह कथ्य एक गीतकार की अपनी दर्द बयानी है। इसीलिए यह उनका आत्मकथ्य समझा जाना चाहिये परन्तु जब मैं इसे गीत कथ्य की दृष्टि से पढ़ता हूँ तो ऐसा प्रतीत होता है कि यह न केवल बुद्धिनाथ का वरन् बच्चन, नरेन्द्र शर्मा, गोपाल सिंह नेपाली से लेकर बलवीर सिंह रंग, नीरज, रमानाथ अवस्थी, भारत भूषण, सोम ठाकुर आदि और बुद्धिनाथ से मुझ अकिंचन तक और, आगे और आगेतक गीत की परम्परा के अनुवाहकों का आत्मकथ्य है। इसीलिए मैंने इसे संक्षेप में ‘गीत कथ्य' कह दिया।
बुद्धिनाथजी के शब्दों में- 'कहते हैं, कविता स्वयं एक वक्तव्य होती है, इसीलिए कवि का अलग से वक्तव्य देना उसकी अक्षमता है। जो बोले, कविता खुद बोले।’ अपने पहले गीत-संग्रह ‘जाल फेंक रे मछेरे!' में तमाम आग्रहों के बावजूद बुद्धिनाथजी ने न तो अपनी ओर से कोई वक्तव्य लिखा और ना ही किसी विराट पुरुष को भूमिका लिखने का कष्ट दिया। अर्थात् बिना लाग-लपेट के सीधे-सीधे परोस दिये गीत। ‘शिखरिणी' उससे भिन्न है। उसके पास विविधवर्णी गीतों के अतिरिक्त गीत कथ्य भी है। यह गीत कथ्य बुद्धिनाथजी की अक्षमता नहीं दर्शाता, बल्कि ‘शिखरिणी' का मार्ग प्रशस्त करता है।
अपने काल-परिवेश पर कटाक्ष करते हुए बुद्धिनाथजी लिखते हैं- 'यह साहित्यिक दौर प्रासन मारकर कटहल छीलने का है।’ उनकी व्यथा यह है कि 'विज्ञापनबाजी के इस युग में चमकते साइनबोर्ड हैं, आँखों को चोंधियाते ब्रैंडनेम हैं मगर नहीं है तो वह कालजयी कृति जिसे शोकेश में नहीं, कुटीरों में जीने का अभ्यास है।’
पिछले दिनों मुझे मिश्रजी की निजी कार में बैठने का सुयोग मिला था। अपनी कीमती एसी कार वे स्वयं चला रहे थे। मैंने कहा कि केवल मैं ही कवि होकर बे-कार हूँ तो मिश्रजी ने तत्काल कहा- ‘प्यारे भाई, यह ओएनजीसी के मुख्य प्रबंधक की कार है, कवि बुद्धिनाथ की नहीं।' मुझे ऐसा ही एक प्रसंग याद आ रहा है- श्रीमति उमा चतुर्वेदी मुझे हिन्दी पढ़ाती थीं। उनकी पुत्री स्वस्ति के जन्मदिन पर मैंने एक कविता लिखकर भेंट की तो उस नन्हीं चुलबुली ने बड़े ही पते की बात कह दी- ‘ये क्या है?' पूछने पर जवाब दिया गया- ‘कविता है बेटी।' प्रत्युत्तर में उसने भी झल्लाते हुए कहा ‘तो इसका क्या करूँ? क्या इसे खाऊँ?' मैडम ने हँसते हुए कहा कि ‘देखो मेरी बेटी इशारे में कह रही है कि केवल कविता से जीवन-यापन नहीं होगा, छोड़ो कविता का पीछा, कुछ काम करो, रोजी-रोटी की फिक्र करो।'
बुद्धिनाथजी का दर्द यही है- 'भारतीय साहित्य, संगीत, कला तीनों हाशिए पर आ चुके हैं। सामाजिक स्वीकृति की दृष्टि से इस समय संगीत और कला की तुलना में साहित्य अत्यंत उपेक्षित है। निस्सन्देह समाज और सत्ता की चेतना-हीनता ने साहित्य को आज सर्वाधिक उपेक्षित कोटि में धकेल दिया है।’
आशय यह है कि बुद्धिनाथजी की चिन्ता, सभी बुद्धिजीवियों, रचनाकारों की चिन्ता है। उनके आत्मकथ्य को पढ़ते समय यह लगता है कि वे जो कह रहे हैं, वह हम सबकी अपनी बात है, अपनी चिन्ता है। कवि जोकर या भाँड की तरह विदूषकीय भूमिका नहीं निभाता, वह समाज का सचेतक होता है, अपने देश-काल का सजग प्रहरी होता है, अपने युग की क्रांति का द्रष्टा-स्रष्टा होता है। तभी तो कबीर कहते हैं- 'जो घर फूँके आपनो, चले हमारे साथ।’
मैंने बुद्धिनाथजी के आत्मकथ्य को इसलिए ‘गीत-कथ्य' कहना उचित समझा कि उनका अपना कथ्य, उनकी अपनी पीड़ा, हम सब गीत धर्मियों का कथ्य और पीड़ा है। बुद्धिनाथ को समझने के लिए उनका यह कथ्य सार्थक सि( होता है- 'गीत जीवन के लिए कितना आवश्यक है, इसका प्रथम परिचय मुझे आँखे खोलते ही मिल गया था। मिथिला के जिस देवध गाँव में मैंने जन्म लिया और जिसकी धूल मिट्टी में सनकर अपना बचपन बिताया, वहाँ व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक विद्यापति के पद ही साथ देते हैं।... मेरे मन में बसा वह गाँव आज भी जिन्दा है, इसीलिए मैं गीत लिखता हूँ।’
कविवर बुद्धिनाथ मिश्र रूढ़ियों को तोड़ने वाले विशुद्ध परम्परावादी कवि हैं। वे बँधी-बँधायी परिपाटियों से नहीं बँधते। ‘शिखरिणी' की पहली कविता ‘सरस्वती' उन्हें परम्परा से जोड़ती तो है परन्तु इस कविता में वन्दना के रूढ़िवादी स्वर नहीं हैं। मिश्रजी की अपनी ग्राम्य संस्कृति और आस्था के स्वर हैं, स्वर भी ऐसे जो उनको भीड़ से अलग हटाकर परिचय प्रदान करते हैं- 'अपनी चिट्ठी बूढ़ी माँ मुझसे लिखवाती है/ जो भी मैं लिखता हूँ, कविता बन जाती है/ कुशल क्षेम पूरे टोले का, कुशल क्षेम घर का/ बाट जोहते मालिक की बेबस चर-चाँचर का/ इतनी छोटी-सी पुर्जी पर कितनी बात लिखूँ...?' अपनी बात को अपने अंदाज में कहने का सलीका तो आते आते आता है। मिश्रजी सलीके से ही कहते हैं अपनी बात। यही है अन्दाजे बयाँ गालिब का कुछ और-
तुलसी की पौध रौंदते/ शहरों से लौटे जो पाँव।
शीशे-सा दरक गया है/ लपटों में यह सारा गाँव।
अंत में, मैं यह लिखना नहीं भूलूँगा कि बड़े भैया के सहज बुलावे पर मैं उनके देहरादून स्थित आवास पर पहुँचा। अपनी ऊषा भाभी से मिलकर पहली भेंट में ही ऐसा लगा कि मानो मैं बुद्धिनाथ परिवार का चिरपरिचित सदस्य हूँ मानो साक्षात् कविता ही अगवानी कर रही हो। मैंने अपनी आदत के अनुसार भाभीजी को छेड़ते हुए पूछ लिया कि भैया का ऐसा कोई गीत, जो आपको लुभाता हो, बताएँ। उन्होंने देवध के ‘पंडित जी' (पं. भोला मिश्र) की कुलवधू की भाँति लजियाते-सकुचाते बताया- 'साँसों के गजरे कुम्हलाये/ आप न आये।/ यह अमराई कौन अगोरे/ अब तो हुए हैं भार टिकोरे/ अंग-अंग महुआ गदराये/ आप न आये।’
बुद्धिनाथजी ने अपने परिवार को भी एक गीत की तरह ही सहज, सरस और सुरीला बनाये रखा है। सबकी चिंता को पर्णमुकुट की तरह सिर पर ओढ़े हुए! गीत-काव्य के मोरपंख बुद्धिनाथ मिश्र और ‘शिखरिणी' से मैं विनत भाव से, उन्हीं से शब्द उधर ले कहना चाहूँगा- 'कल अधूरा ही रहा परिचय हमारा/ आज मन का खोल दो आकाश सारा।/ मैं नहीं हूँ जानता आखिर तुम्हारे/ पास ले आयीं मुझे किसकी दुआएँ?/ मैं तुम्हारे साथ मृगजल ढूँढ लूँगा/ छोड़ पीछे रेत बनता सिन्धु खारा।’
यादों के बहाने से
गीतों का यह निर्झर सदैव प्रवाहमान रहे
अनिल अनवर
मेरी पीढ़ी के जिन गीतकारों ने मुझे सर्वाधिक प्रवाहित किया है उनमें श्री बुद्धिनाथ मिश्र का नाम शीर्ष पर आता है। श्री बुद्धिनाथ मिश्र मेरे ही नहीं, मेरे साहित्यानुरागी स्वर्गवासी पिताश्री शारदाप्रसाद श्रीवास्तव के भी पसन्दीदा कवियों में थे और उनके कुछ गीतों के मुखड़े वे बातचीत में उ(हरण की तरह इस्तेमाल किया करते थे। पिताजी के एक अन्य पसन्दीदा कवि स्व. गोपाल सिंह नेपाली भी थे, जिन्हें मैंने नहीं देखा। परन्तु मुझे याद है कि सर्वप्रथम मिश्रजी को मैंने एक कवि सम्मेलन में काव्यपाठ करते हुए देखा था। अपने ही शहर कानपुर में। देखा ही नहीं था, सुना भी था। नहीं जानता था कि वर्षों बाद न केवल उनसे मित्रता होगी अपितु उनके साथ ही मंच पर काव्य पाठ करने का सौभाग्य भी मिलेगा।
श्री मिश्र गीत के बड़े हस्ताक्षर यों ही नहीं बन गये हैं। इसके पीछे उनका कोमल संवेदनशील मन तो है ही साथ ही है, वर्षों की काव्य-साधना, बचपन से प्राप्त हुए सात्विक संस्कार और उनका प्रकृति प्रेम। पर्यावरण के प्रदूषण ने उन के मन को गहराई तक मथा है तो सम्बन्धों के व्यावसायीकरण ने भी उनकी आँखों को आँसुओं से तर किया है। व्यवस्था के नाकारापन की खीझ ने उनके दिमाग को तकलीफ़ दी है तो साहित्य जगत में व्याप्त उठा-पटक की राजनीति ने भी उनके मस्तिष्क पर आघात किया है। फिर भी बुद्धिनाथजी ने बुद्धि का संतुलन बनाए रख कर कालजयी गीतों की रचना की है तो यह एक कवि की अदम्य जिजीविषा का परिणाम ही है। उनके गीतों में लालित्य भी है, माधुर्य भी, वहीं विसंगतियों पर निर्मम प्रहार करने वालों में भी वे अग्रणी हैं। व्यंग्य उनका हथियार है जो भ्रष्ट व्यक्ति की रूह तक को तिलमिला कर रख देता है और गीत की गेयता फिर भी बनी रहती है। यह अद्भुत कौशल कम गीतकारों के पास है, उदाहरण देखें-
शामिल होते शोकसभा में/ फल बाँटें बीमारों में/
कोशिश सबकी यही कि कैसे/ नाम छपे अखबारों में।
चार टके की करते सेवा/ सौ खरचें विज्ञापन पर/
नारद के वंशज संवादी/ जीते उनकी खुरचन पर।
बन जाती हैं बिगड़ी बातें/ रातों-रात इशारों में।
चाट रहे कुर्सी को जैसे/ साँड़ गाय को चाटे है/
जाए कौन, किधर, कैसे/ हर पैड़ा बिल्ली काटे है।
बदल गये सपने विराट/ सब के सब बौने नारों में।
आधुनिक बोध के गीत के लिए जो तत्व होने चाहिए, सभी उपरोक्त गीत में विद्यमान हैं। मनुष्य की अभिलाषा पर कटाक्ष करते हुए नव धनाढ्य, राजनीतिज्ञ, मीडिया, सभी पर प्रहार है। इशारों-इशारों में पुरातन मिथकों का सहारा लेकर आधुनिक संदर्भों की बात किस खूबसूरती से कही गई है और कहीं भी गीत की भाषा ने शिष्ट शब्दों का साथ नहीं छोड़ा है, न मर्यादाओं की सीमारेखा ही लाँघी है। यही बुद्धिनाथजी का चमत्कार है। वे ऐसे अनूठे बिम्ब विधान गढ़ते हैं कि गीत की अस्मिता पर आँच आए बिना ही वे अपना मंतव्य स्पष्ट कर देते हैं और सटीक लक्ष्य साध लेते हैं।
उनका ‘एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!' गीत मंचों पर सर्वाधिक लोकप्रिय रहा है। मछली में बंधन की चाह होने की कल्पना करना क्या सरल है? कल्पनाशीलता ही कवि को सामान्य व्यक्ति से भिन्न धरातल पर ला खड़ा करती है। यहाँ मैं बुद्धिनाथजी की कल्पना के अनूठेपन के कुछ उदाहरण रखना चाहूँगा-
फिर दोपहर लगी अलसाने/ नीम तले/
कौए लगे पंख खुजलाने/ नीम तले।
×× ×× ××
यह महाभारत अजब-सा है/ कौरवों से लड़ रहे कौरव/
द्रौपदी की खुली वेणी की/ छाँह में छिप सो रहे पाण्डव/
ब्रज वही है, द्वारिका भी है, किन्तु अब केशव नहीं होंगे॥
उपरोक्त काव्यांशों में अद्भुत कल्पना है परन्तु कल्पना के माध्यम से कठोर यथार्थ की भावाभिव्यक्ति उक्त पंक्तियों में है। बुद्धिनाथजी अपनी संस्कृति के संवाहक, अपनी मिट्टी के धवक हैं। वे जो भी बिम्ब प्रतीक उठाते हैं वे हमारे ही परिवेश के होते हैं। आधुनिकता की बातें करते समय भी वे प्राचीन परम्पराओं के पोषक बने रहते हैं तथा संस्कृतियों के संक्रमण से उपजी विसंगतियों को भी वे बखूबी मुखरित करते हैं। उनका मार्मिक गीत ‘नचारी' देखें जो वर्ण-व्यवस्था के ढहने पर दीन ब्राह्मण की दुर्दशा का सजीव वर्णन करता प्रतीत होता है-
दुख के चाँटे मार-मार कर/ मुझे रुलाते हो?
करुणासागर, मैं न बचा तो/ किसे नचाओगे?
पूजा की दक्षिणा आज भी/ वही पाँच आने/
शोषक हूँ मैं या चिर शोषित/ आत्मा ही जाने/
गो-ब्राह्मण हैं कितने रक्षित/ तुम्हीं बताओगे।
बुद्धिनाथजी प्रकृतिचित्रण केवल श्रृंगार वर्णन हेतु नहीं करते, वे प्रकृति की वर्तमान दुर्दशा पर अश्रुपात करते हैं-
बँसबिट्टी में कोयल बोले/ महुआ डाल महोखा/
आया कहाँ बसन्त इधर है/ तुम्हें हुआ है धोखा।
लेकिन ऐसा भी नहीं है कि उन्होंने प्रकृति के विद्रूप का ही वर्णन किया हो। बुद्धिनाथजी ने प्रेम-गीतों तथा प्रकृति के श्रृंगार वर्णन पर भी लेखनी चलाई है। किन्तु बुद्धिनाथजी प्यार व श्रृंगार में डूब कर आज के यथार्थ से आँखें चुरा न पाये और मूलतः जनोन्मुख गीतों के रचयिता कहलाये। मूक, निराश्रित, दबे-कुचले व्यक्ति की वाणी को मुखरित करने का कवि-धर्म उन्होंने बहुत अच्छी तरह से निभाया है। सीधे-सीधे शब्दों में कहा है- 'जब कुछ गलत हुआ/ सब कुछ गलत हुआ।’ उन्होंने जो जनता की भावना है उसे भी ज्यों का त्यों दोहराया है-
संसद है अय्याशों का घर, जनता कहती।
इसमें रहते तीनों बंदर, जनता कहती॥
फिर भी मिश्रजी की गिनती आजकल के घोषित जनवादी कवियों में नहीं होती है, भले ही वे प्रगतिशील हैं और उनकी कविता जनोन्मुखी भी है किन्तु उसे पोषण अपनी ही धरती से प्राप्त होता है। उसमें लाभ प्राप्त करने के लिए वादों का मुलम्मा नहीं चढ़ाया गया है। अपनी जीवन दृष्टि को गिरवी रख सुविधायें पाने की चेष्टा में उन्होंने गीत नहीं रचे हैं। जब वे काव्य रचते हैं तो उनके सम्मुख अनेक द्वन्द्व आते हैं, फिर भी वे वही लिखते हैं जो उनके मन से निकलता है, परिणाम कुछ भी हो। कोई रूठे, कोई खुश हो, इससे उन्हें प्रयोजन नहीं है। वे स्वाभिमान बेच कर स्थापित गीतकार नहीं बने हैं, गीतों को स्वाभाविक रूप से रच पाने की प्रतिभा के कारण काव्य जगत में प्रतिष्ठित हुए हैं। इसीलिए वे डंके की चोट पर कहते हैं-
साधना अब भी ज़रा-सी है अधूरी पार्थ!
और तप तू और तप/ ज्यों जेठ का दिनमान।
काल लेता है परीक्षा, तू न घबराना
घास की रोटी अभी तेरे लिए राणा!
अग्नि के इस कुण्ड से बनकर निकल कुन्दन
तेज से तेरे जले फिर आज खाण्डव-वन।
तू अकेला नहीं, तेरे साथ जाग्रत देश
सह न सकता है कभी जो न्याय का अपमान।
बुद्धिनाथ मिश्रजी भारत के समकालीन गीतकारों में अपने चिंतन, सृजन व गायन की विशिष्टताओं के लिए पहचाने जाते हैं तथा आने वाले समय में इनके गीतों का सम्यक मूल्यांकन अवश्य होगा। वे मेरे मित्र हैं, समकालीन भी। अतः कुछ अधिक कहना कुचेष्टा होगी। बस यही शुभकामना देकर अपनी बात समाप्त करना चाहूँगा कि मिथिला के ग्राम्य अंचल से उत्तरांचल की हरीतिमा तक की यात्रा करने वाले इस यायावर ने देश के कोने- कोने को अपने गीतों की मधुरिमा से रसप्लावित किया है। यह निर्झर सदैव प्रवहमान रहे।
achchhi jankari preshit karne hetu badhai .
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