स्वर वासन्ती सब्जपरी उतरी आँगन में फूटी गन्ध सुमन बन। अनजानी डाली पर कुहके मेरा बनजारा मन। विकल समीर फिरे वन-वन कुण्डल में कस्तूरी...
स्वर वासन्ती
सब्जपरी उतरी आँगन में
फूटी गन्ध सुमन बन।
अनजानी डाली पर कुहके
मेरा बनजारा मन।
विकल समीर फिरे वन-वन
कुण्डल में कस्तूरी भर
कम्पित कलियों के अधरों पर
बिछे मदिर श्रम-सीकर।
ऐसी आँधी उठी वसन्ती
लिपटी दिशा गगन से
वल्लरियाँ द्रुम से आलिंगित
स्वप्निल प्रीति सृजन से।
नये पुराने
(अनियतकालीन, अव्यवसायिक, काव्य संचयन)
मार्च, 2011
बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता
पर आधारित अंक
कार्यकारी संपादक
अवनीश सिंह चौहान
संपादक
दिनेश सिंह
संपादकीय संपर्क
ग्राम व पोस्ट- चन्दपुरा (निहाल सिंह)
जनपद- इटावा (उ.प्र.)- 206127
ई-मेल ः abnishsinghchauhan@gmail.com
सहयोग
ब्रह्मदत्त मिश्र, कौशलेन्द्र,
आनन्द कुमार ‘गौरव', योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम'
---
स्वर वासन्ती
सब्जपरी उतरी आँगन में
फूटी गन्ध सुमन बन।
अनजानी डाली पर कुहके
मेरा बनजारा मन।
विकल समीर फिरे वन-वन
कुण्डल में कस्तूरी भर
कम्पित कलियों के अधरों पर
बिछे मदिर श्रम-सीकर।
ऐसी आँधी उठी वसन्ती
लिपटी दिशा गगन से
वल्लरियाँ द्रुम से आलिंगित
स्वप्निल प्रीति सृजन से।
किन नयनों ने क्या कर डाला
सुलगा तरु का यौवन
बिछुड़ रहा है वृन्त-वृन्त से
मेरा अलसाया तन।
उषा रंगिनी बाँट गयी
प्राची-नभ से कुंकुम जो
मानस-मानस सिमटे वे
उपजे अनुराग-कुसुम हो।
अनहोनी कुछ हुई न
फिर क्यों भाव जगे सिहरन के?
अर्थ नये अँखुए-से निकले
ठूँठ शब्द के तन से।
इन्द्रधनुष के पंख लगा
क्यों राधा विचरे तृण-तृण?
सँवर रहा यादों की फुनगी पर
जब अनब्याहा प्रण।
दृग के कुमुद गिनें तारे
या ढूँढें शशि वह निर्मम
आग लगाए जल में
जिसकी आँखमिचौनी का क्रम।
जग की सभी व्यथाएं संचित
इस अणु-से अंकुर में
सत्रहवर्षी उर में।
पीकर उनकी सुरभि सलोनी
उगी मंजरी नूतन
हर मधुकण में प्रतिबिम्बित
कर्पूरी उनका आनन।
कौन बुलाकर द्वार पूजती
वायस साँझ-सबेरे
बचा न अब यह स्नेह
जलाये पय से दिये कनेरे।
कितने पीर-पतंगों को
उसने अन्तर में बाँधा
ले उधार उल्लास कि जिस
आँचल ने मयन अराधा।
फहराएँ उनकी समाधि पर
कुसमायुध के केतन
खुला रहा जिनका अनन्त की ओर
सदा वातायन।
गंधी बनी अमराई
भाँति-भाँति के इत्र बेचती
गंधी बनी आज अमराई।
महुए के रस में घुलते
सेमल के फाहे
चुनते-चुनते भटक गये
भोले चरवाहे।
एक फूल रजनीगंधा का
साँझ-सकारे
चैता की बहती स्वर-
लहरी में अवगाहे।
नयन-नयन में धँसती जाती
तरुण कोपलों की अरुणाई।
कुलदेवी की बाँह बँधे
‘सपता’ के डोरे
बनजारे की बाट रोकते
हरे टिकोरे।
नाहक धूम मची विप्लव की
गाँव-गाँव में
वात्याचक्र जिधर उन्मद
गज-सा मुँह मोड़े।
छीन लिया सर्वस्व नीम ने
देकर एक डाल बौराई।
झरते पत्तों से चिपकी
वे रस की बातें
लिखती रहीं जिन्हें गुपचुप
पिछली बरसातें।
कुसमय सुलग उठी उत्कंठा
पुनर्मिलन की
पानी मोल बिक गयीं ये
चाँदी की रातें।
दर्द उठा कुछ मीठा-मीठा
बढ़ी उदासी की गहराई।
सहलाते हौले-हौले
पुरवा के झोंके
पर्त उधेड़े यादों की
कोयल बेमौके।
बाग-बगीचे बने
सदावर्ती मदिरालय
कौन कहाँ तक अपने
प्यासे मन को रोके!
बार-बार नीले दर्पण में
एक परी डूबी-उतराई।
जुगनू-सा पानी
जीवन के हर पोर-पोर पर
नाच रहा जुगनू-सा पानी।
निकले संकल्पों के अंकुर
तोड़ वर्जना की दीवारें
लेकर शुभ-संदेश उड़ रहे
नभ के वायस पंख पसारे।
भींगे तप्त प्राण वर्षों के
महके स्वप्न विजन मरुथल में
ये अमोल मोतियाँ समेटूँ
मैं अपने रीते आँचल में।
स्वप्निल इन्द्रधनुष पर झूलेगी
मेरी साधना सयानी।
लोकगीत की बिरहिन बाँधे
पंखों में संदेश पवन के
पैरों में बिजलियाँ बाँध कर
नाचे परियाँ द्वार गगन के।
रोम-रोम व्याकुल होता
तन जब समीर के झोंके परसे
जैसे किसी सुनहरी ग्रीवा पर
उछ्वास पिया के बरसे।
झूम रही तापसी अपर्णा
पहने आज चुनरिया धानी।
गगरी फूटी क्या रसवन्ती की
उस स्वर्गंगा के तट पर
या कान्हा ने कंकड़ फेंका
किसी गोपिका के मधुघट पर।
कितना प्राणवन्त हाला है
राधे, तेरी आज न जाने
छिगुनी से छींटों जिस पर
उठकर लगता बाँसुरी बजाने।
धुलकर और चमकती
रेखांकित यक्षों की प्रेम-कहानी।
गूँज रही धरती से अम्बर
पावस की उन्मुक्त रागिनी
तरल पुष्प के शर बरसाती
लुक-छिपकर घन की सुहागिनी।
मन का मृग भर रहा कुलाँचें
लुप्त हुई मृगतृष्णा जग की
पंकिल खेतों की मेड़ों पर
बढ़ी नीलिमा बहकी-बहकी।
कैसे पथिक चले निर्भय हो
डूबी पगडंडी अनजानी।
आर्द्र-अम्बरा ‘वृक्षपरी’ के
किसलय-से अरुणाधर फड़के
आहत-उर भुजंगिनी सरि के
दोनों कोर प्रणय की छलके।
वशीकरण के यन्त्र मनोहर
कीलित मेंहदी से हाथों पर
मुखर हुई सर्जना-सुरभि
निर्माता के मृदु आघातों पर।
मैं बनता बादल राजा
यदि कोई बनती बिजली रानी।
सावन की गंगा
सावन की गंगा जैसी
गदरायी तेरी देह।
बिन बरसे न रहेंगे अब
ये काले-काले मेघ।
मन की नाव बहक जाती
अक्सर जाने किस ओर
पाल बनी जब से तेरी
कोरे आँचल की कोर।
पग-पग पर टोकता
उभरते भँवरों का सन्देह।
बिन बरसे न रहेंगे अब
ये काले-काले मेघ।
बड़े-बड़े चेतन मधुकर भी
कर बैठेंगे भूल
अधर बिखेरेंगे तेरे
जब पारिजात के फूल।
थाले में परिचय के
पनपा है नन्हा-सा नेह।
बिन बरसे न रहेंगे अब
ये काले-काले मेघ।
सुलगे क्यों न छुअन की
पीड़ा में पल्लव का अंक
काँटों-से भी जहरीले होते
फूलों के डंक।
तपती रेत डगर की
जलकर मन्मथ हुआ विदेह।
बिन बरसे न रहेंगे अब
ये काले-काले मेघ।
नाच गुजरिया नाच!
नाच गुजरिया नाच
कि आयी कजरारी बरसात री!
सतरंगे सपनों में झूमी
आज अन्हरिया रात री!
गरज-लरज बरसे रे! जवानी में
जब बौराया बादल
मिटी प्यास क्या नहीं पपीहे तेरी?
ले पी-पी पागल।
पिघल-पिघल धुल गया
जब दुख का सारा काजल
शरमा मत, फहरा ले आज तू
अपना हरियाया आँचल।
रुनुक-झुनुक रुनझुन की लय पर
थिरके तेरे गात री!
थिरक गुजरिया थिरक
कि आयी कजरारी बरसात री!
जिस प्यासे को तृप्त न कर पाया
जग का कोई सागर
कर दे उसको बेसुध इक पल में
उलीच मधु की गागर।
तड़प-तड़प रह जाए जो देखे
तुझको तेरा ही नागर
इतरा ले बन जाए आज
यह हरसिंगार सपनों का घर।
धिनक-धिनक ताधिन्
मृदंग पर फुदके कल का प्रात री!
फुदक गुजरिया फुदक
कि आयी कजरारी बरसात री।
सिहर-सिहर जब वही पुरबिया
लहरायी धरती सारी
चली तुनककर कहाँ अरी ओ!
जब मेरी आयी बारी।
बिखरा दे कुछ किरण खुशी की
गली-गली क्यारी-क्यारी
नाचें बन के मोर-मोरनी
तू पगली कोयल गा री!
छनन-छनन छम्-छम् से
छलके रंगों के स्वर सात री!
छलक गुजरिया छलक
कि आयी कजरारी बरसात री!
संचयन
जाड़े में पहाड़
बुद्धिनाथ मिश्र
जाड़े में पहाड़
फिर हिमालय की अटारी पर
उतर आये हैं परेबा मेघ
हंस जैसे श्वेत भींगे पंखवाले।
दूर पर्वत पार से मुझको
है बुलाता-सा पहाड़ी राग
गर्म रखने के लिए बाकी
है बची बस कांगड़ी की आग।
ओढ़कर बैठे सभी ऊँचे शिखर
बहुत मँहगी धूप के ऊनी दुशाले।
मौत का आतंक फैलाती हवा
दे गयी दस्तक किबाड़ों पर
वे जिन्हें था प्यार झरनों से
अब नहीं दिखते पहाड़ों पर।
रात कैसी सर्द बीती है
कह रहे किस्से सभी सूने शिवाले।
कभी दावानल, कभी हिमपात पड़ गया
नीला वनों का रंग दब गये
उन लड़कियों के गीतचिप्पियों वाली छतों के संग।
लोकरंगों में खिले सब
फूल बन गये खूँखार पशुओं के निवाले।
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धान जब भी फूटता है
धान जब भी फूटता है
गाँव में एक बच्चा दुधमुँहा,
किलकारियाँ भरता हुआ
आ लिपट जाता हमारे पाँव में।
नाप आती छागलों से ताल-पोखर
सुआपाखी मेंड़ एक बिटिया-सी
किरण है रोप देती चाँदनी का पेड़।
काटते कीचड़ सने तन का बुढा़पा
हम थके-हारे उसी की छाँव में।
धान-खेतों में हमें मिलती
सुखद नवजात शिशु की गंध
ऊख जैसी यह गृहस्थी
गाँठ का रस बाँटती निर्बन्ध।
यह गरीबी और जाँगरतोड़ मिहनत
हाथ दो, सौ छेद जैसे नाव में।
फैल जाती है सिंघाड़े की लतर-सी
पीर मन की छेंकती है द्वार
तोड़ते किस तरह मौसम के थपेड़े
जानती कमला नदी की धार।
लहलहाती नहीं फसलें बतकही से
कह रहे हैं लोग गाँव-गिराँव में।
हवा पहाड़ी
वह हवा पहाड़ी
नागिन-सी जिस ओर गयी
फिर दर्द भरे सागर में
मन को बोर गयी।
चादर कोहरे की ओढ़े
यायावर सोते
लहरों पर बहते फूल
कहीं अपने होते?
देहरी-देहरी पर
धर दूधिया अंजोर गयी
चुपके-से चीड़ों के कंधे झकझोर गयी।
कच्चे पहाड़-से ढहते
रिश्तों के माने
भरमाते पगडंडी के
ये ताने-बाने।
कसमों के हर नाजुक
रेशे को तोड़ गयी
झुरमुट में कस्तूरी यादों की छोड़ गयी।
सीढ़ी-सीढ़ी उतरी
खेतों में किन्नरियाँ
द्रौपदी निहारे बैठ
अशरफी की लड़ियाँ।
हल्दी हाथों को
भरे दृगों से जोड़ गयी
मौसम के सारे पीले पात बटोर गयी।
आकाशदीप
जलता रहता सारी रात एक आस में
मेरे आँगन का आकाशदीप।
पीले अक्षत का दिन सो गया
और धुँआ हो गया सिवान
मौलसिरी की नन्ही डाल ने
लहरों पर किया दीपदान।
चुगता रहता अंगार चाँदनी-उजास में
मेरे आँगन का आकाशदीप।
मौन हुई मन्दिर की घण्टियाँ
ऊँघ रहे पूजा के बोल
मंत्र-बंधी यादों के ताल में
शेफाली शहद रही घोल।
गढ़ता रहता तमाम रूप आसपास में
मेरे आँगन का आकाशदीप।
तिथियों के साथ मिटी उम्र की
भीत पर टँकी उजली रेख
हँस-हँस कर नम आँखें बाँचतीं
मटमैले पत्र, शिलालेख।
वरता रहता सलीब एक-एक साँस में
मेरे आँगन का आकाशदीप।
रोशनी अंधेरे का महाजाल
बुनती है यह श्यामा रैन
पिंजड़े का सुआ पंख फड़फड़ा
उड़ने को अब है बेचैन।
कसता रहता सारी रात नागफाँस में
मेरे आँगन का आकाशदीप।
मैं समर्पित बीज-सा
मैं वहीं हूँ जिस जगह पहले कभी था
लोग कोसों दूर आगे बढ़ गये हैं।
जिन्दगी यह-एक लड़की साँवली-सी
पाँव में जिसने दिया है बाँध पत्थर
दौड़ पाया मैं कहाँ उनकी तरह ही
राजधानी से जुड़ी पगडंडियों पर।
मैं समर्पित बीज-सा धरती गड़ा हूँ
लोग संसद के कंगूरे चढ़ गये हैं।
तम्बूओं में बँट रहे रंगीन परचम
सत्य गूँगा हो गया है इस सदी में
धान पाँकिल खेत जिनको रोंपना था
बढ़ गये वे हाथ धो बहती नदी में।
मैं खुला डाँगर सुलभ सबके लिए हूँ
लोग अपनी व्यस्तता में मढ़ गये हैं।
खो गई नदियाँ सभी अंधे कुएँ में
सिर्फ नंगे पेड़ हैं लू के झँवाये
ढिबरियों से टूटने वाला अंधेरा
गाँव भर की रोशनी पी, मुस्कराये।
शालवन को पाट जंगल बेहया के
आदतन मुझ पर तबर्रा पढ़ गये हैं।
बूढ़ी माँ
अपनी चिट्ठी बूढ़ी माँ
मुझसे लिखवाती है
जो भी मैं लिखता हूँ
वह कविता हो जाती है।
कुशल-क्षेम पूरे टोले का
कुशल-क्षेम घर का
बाट जोहते मालिक की
बेबस चर-चाँचर का।
इतनी छोटी-सी पुर्जी पर
कितनी बात लिखूँ
काबिल बेटों के हाथों
हो रहे अनादर का।
अपनी बात जहाँ आयी
बस, चुप हो जाती है
मेरी नासमझी पर यों ही
झल्ला जाती है।
कभी-कभी जब भूल
विधाता की, मुझको छेड़े
मुझे मुरझता देख
दिखाती सपने बहुतेरे।
कहती-तुम हो युग के सर्जक
बेहतर ब्रह्मा से
नीर-क्षीर करने वाले
हो तुम्हीं हंस मेरे।
फूलों से भी कोमल
शब्दों से सहलाती है
मुझे बिठाकर राजहंस पर
सैर कराती है।
कभी देख एकान्त
सुनाती कथा पुरा-नूतन
ऋषियों ने किस तरह किये
श्रुति-मंत्रों के दर्शन।
कैसे हुआ विकास सृष्टि का
हरि अवतारों से
वाल्मीकि ने रचा द्रवित हो
कैसे रामायण।
कहते कहते कथा
शोक-विह्वल हो जाती है।
और तपोवन में अतीत के
वह खो जाती है।
छालों भरा सफर
कोई एक गिलहारी
पत्ती-पत्ती गयी कुतर
जीवन हुआ
अजनबीपन का
छालों भरा सफर।
यह कबंध-सा युग बन बैठा
भूलों का पर्याय
घर अपना हो गया आज
परचों की एक सराय।
जलता जंगल
नये आइने
भटके इधर-उधर।
रोके नहीं रुके
पानी का यह मौसमी बहाव
जलावतन का दर्द झेलता
आँगन का मेहराब।
सिरहाने के धरे फूल की
किसको रही खबर?
मणि-हारे तक्षक-सी
बस्ती की है नींद हराम
अर्थहीन पैबंद जोड़ते
बीते सुबहो-शाम।
कितना कठिन
यहाँ जी पाना
गिनके चार पहर।
दर्द तीर-कमान का
जंगलों में लग गयी यह आग कैसी?
जल रहा है धर्म तक सीवान का।
गर्म पत्थर पर तड़पती सर्पिणी जैसी
‘स्वर्णरेखा’ अब कभी झूमर नहीं गाती
ख्वाब आते हैं हजारों फूल-से, लेकिन
राम की सुधि में तनिक वह सो नहीं पाती।
अवतरण तो दूर, गहरे धुँधलके में
खो गया है अर्थ तक भगवान का।
पेड़ जिनकी छाँह में सुख-दुख सभी काटे
अब सलीबों की तरह दिखते पठारों पर
आर्द्रता मन की, तपन तन की, शिलाएँ भी
पिघल उठती हैं हवा के चमत्कारों पर।
धर्म पहले कवच-कुंडल कर्ण का था
आज बस ताबूत है सुलतान का।
दूर तक है सिलसिला, ढहते पहाड़ों का
विंध्य! अबकी तुम झुके अवसाद के आगे
क्या मुनादी फिरी रातोरात, पारथ के
द्वार पर चित्रित सभी गज-सिंह उठ भागे।
रीझना आता सभी को सरहुलों पर
कौन समझे दर्द तीर-कमान का।
प्रत्यावर्त
सिर्फ सोने से सजायी देह मैंने आज तक
आज मुझको फूल-पत्तों से सजाने दो इसे।
एक तापस राम था मन-देख सोने का हिरण
जंगलों भटका बहुत यह भूल थी या सादगी
वह छलावा था खुशी का, या कि था झूठा अहं
पत्थरों इतनी लदी, दम तोड़ बैठी जिन्दगी।
बांध लेगी मुट्ठियों में चाँद तारे उम्र यह
बस हथेली पर जरा मेंहदी रचाने दो इसे।
जिन्दगी को चाहिये क्या? धूप, जल, मिट्टी हवा
आज तक बेचा न वह मालिक जिन्हें बाजार में
मोल जिनका है अधिक वे तो जरूरी भी नहीं
साँस की पूँजी गवायी व्यर्थ के अधिकार में।
यह शहर आदी नहीं है गोलियों की नींद का
आज फिर से लोरियाँ गाकर सुलाने दो इसे।
याद आई है मुझे पीले कनेरों की सुबह
आँसुओं का अर्थ भूली शाम के कोहरों तले
तोड़ लेने दो हँसी के दूधवाले वृक्ष से
छन्द के पत्ते हरे, फल प्रार्थनाओं के फले।
जिन्दगी कब तक रहेगी झील-सी ठहरी हुई
इन मुखौटों से हँसा झरना बनाने दो इसे।
वक्त
वक्त कभी माटी का, वक्त कभी सोने का
पर न किसी हालत में यह अपना होने का।
मिट्टी के बने महल, मिट्टी में मिले महल
खो गयी खंडहरों में वैभव की चहल-पहल।
बाज बहादुर राजा, रानी वह रूपमती
दोनों को अंक में समेट सो रही धरती।
रटते हैं तोते इतिहास की छड़ी से डर
लेकिन यह सबक कभी याद नहीं होने का।
सागर के तट बनते दंभ के घरौंदे ये
ज्वार के थपेड़ों से टूट बिखर जायेंगे
टूटेगा नहीं मगर सिलसिला विचारों का
लहरों के गीत समय-शंख गुनगुनायेंगे।
चलने पर संग चला सिर पर नभ का चंदा
थमने पर ठिठका है पाँव मिरगछौने का।
बाँध लिया शब्दों की मुट्ठी में दुनिया को
द्वार ही न मिला मुक्ति का जिसको मांगे से
सोने की ढाल और रत्न जड़ी तलवारें
हारती रही कुम्हार के कर के धागे से।
सीखा यों हमने फन सावन की बदली में
फागुन के रंग और नूर को पिरोने का।
ग्रहण
शहरी विज्ञापन ने हमसे
सब कुछ छीन लिया।
आँगन का मटमैला दर्पण
पीपल के पत्तों की थिरकन
तुलसी के चौरे का दीया
बारहमासी गीतों के क्षण।
पोखर तालमखाने वाला
नदियाँ गहरे पानी वाली
सहसबाहु बरगद की छाया
झाड़ी गझिन करौंदे वाली।
हँसी जुही की कलियाँ जैसी
प्रीति मेड़ की धनिया जैसी
सुबहें-ओस नहायी दूबें
शामें नई दुल्हनियाँ जैसी।
किसने हरे सिवानों का
सारा सुख बीन लिया?
मन में बौर सँजोकर बैठी
गठरी जैसी बहू नवेली
माँ की बड़ी बहन-सी गायें
बैलों की सींगें चमकीली।
ऊँची- ऊँची जगत कुएँ की
बड़ी-बड़ी मूँछें पंचों की
पेड़-पेड़ धागे रिश्तों के
द्वार-द्वार पर रौशनचौकी।
खेल-खेल कर पढ़ते बच्चे
खुरपी खातिर लड़ते बच्चे
दादा की अंगुली पकड़ कर
बाग-बगीचे उड़ते बच्चे।
यह कैसा विनिमय था
पगड़ी दे कौपीन लिया।
सुमिरो ना मन
चन्दन के गाछ बने हाशिये बबूल के
सुमिरो ना मन मेरे बीते दिन भूल के।
एक हँसी झलकी थी होठों पर
आग-सी
धुँआ-धुँआ हुई जिन्दगी
काले नाग-सी।
अनगिनत विशाखाएँ
दहक उठीं याद की
पैताने सो गई
दिशाएँ अनुराग की।
पंखड़ियाँ नोच रहीं, आँधियाँ खुमार की
टूटेंगे क्या रिश्ते, गन्ध और फूल के?
छूट गये दूर कहीं
इन्द्रधनुष नीड़ के
रेत-रेत दिखे
जहाँ जंगल थे चीड़ के।
जुड़े हुए हाथ औ’
असीस की तलाश में
थके हुए पाँव
बुझे चेहरे हैं भीड़ के।
तैर रही तिनके-सी, पतवारें नाव की
काँप रहे लहरों पर, साये मस्तूल के।
जमुन-जल मेघ
लौट आये हैं जमुन-जल मेघ
सिन्धु की अन्तर्कथा लेकर।
यों फले हैं टूटकर जामुन
झुक गई आकाश की डाली
झाँकती है ओट से रह-रह
बिजलियाँ तिरछी नजरवाली।
ये उठे कंधे, झुके कुन्तल
क्या करें काली घटा लेकर।
रतजगा लौटा कजरियों का
फिर बसी दुनिया मचानों की
चहचहाये हैं हरे पाखी
दीन आँखों में किसानों की।
खण्डहरों में यक्ष के साये
ढूँढते किसको दिया लेकर?
दूर तक फैली जुही की गन्ध
दिप उठी सतरंगिनी मन में
चन्द भँवरे ही उदासे गीत
गा रहे झुलसे कमल-वन में।
कौन आया द्वार तक मेरे
दर्भजल सींची ऋचा लेकर?
भरी दुपहरी
भरी दुपहरी
मारी-मारी फिरे डाल पर
पतछाँही के लिए गिलहरी
भरी दुपहरी।
उलटी धूपघड़ी की टिड्डी
चाट गयी सब हरियल सपने
तलवे जले घाट धोबिन के
मरी सीपियाँ लगीं चमकने।
भरी दुपहरी
सूखे का बैताल नाचता
हुई दिशाएँ अंधी-बहरी
भरी दुपहरी।
रुत के मारे हुए कुँओं के
माथे पर मकड़ों के जाले
झूठी-सच्ची आग लगाकर
दुबकी हवा कहीं परनाले।
भरी दुपहरी
पानी-पानी चिल्लाती है
बेपर्दा हो नदिया गहरी
भरी दुपहरी।
सड़कों पर
लहँगा चुनरी फिरन दुपट्टा
लाचा-चोली सड़कों पर
बित्ता-बित्ता सरक-सरक कर
आयी खोली सड़कों पर।
खुली-खुली राहें थीं, जिन पर
मिलते थे हम गले कभी
अब तो कर्फ्यू है, दंगे हैं
मिलती गोली, सड़कों पर।
काश कि ऐसा भी दिन आए
धुंध कटे चौबारे की
हरसिंगार के फूल बिखेरे
अक्षत-रोली सड़कों पर।
इसने किया इशारा, उसने
दिया जवाब इशारे में
जो कुछ होनी थी बागों में
वो सब हो ली सड़कों पर।
कदम-कदम पर विज्ञापन हैं
कदम-कदम पर गड्ढे हैं
बचके रहना, देखके चलना
ऐ हमजोली, सड़कों पर।
‘बुरी नजरवाले तेरा मुँह
काला’ कहकर भाग गयी
याद रही बस ट्रकवालों की
आँखमिचौली सड़कों पर।
दीनाभद्री, आल्ह, चनैनी
बिहुला, लोरिक भूत हुए
नये प्रेत के सौ-सौ चैनल
बोलें बोली सड़कों पर।
जरा-जरा सी भूलों पर ही
कितने ‘नाथ’ अनाथ हुए
भूल गये बस आते-आते
घर की बोली सड़कों पर।
जय होगी
जय होगी, निश्चय जय होगी
भारत की धरती पर इसकी
जनभाषा की ही जय होगी।
जय होगी, निश्चय जय होगी।
आज नहीं तो कल सूखेगी
अमरबेल दासता-काल की
ढो न सकेंगे लवकुश अब
रानी की वह घुन लगी पालकी।
जय होगी, निश्चय जय होगी
वेदों की इस यज्ञ-भूमि पर
सुरवाणी की ही जय होगी।
जय होगी, निश्चय जय होगी।
आज नहीं तो कल टूटेगी
तन्द्रा यह मनु के पुत्रों की
जन-चेतना अनल में नस्लें
जल जाएँगी विषवृक्षों की।
जय होगी, निश्चय जय होगी
रामकृष्ण की आर्यभूमि पर
गंगा-कृष्णा की जय होगी।
जय होगी, निश्चय जय होगी।
आज नहीं तो कल बैठेगी
सिंहासन पर जन की भाषा
पूरी होगी आज नहीं तो
कल स्वतंत्रता की परिभाषा।
जय होगी, निश्चय जय होगी
सन्तों, आचार्यों के घर में
कुलदेवी की ही जय होगी।
जय होगी, निश्चय जय होगी।
चैती
सांसों के गजरे कुम्हलाये
आप न आये।
यह अमराई कौन अगोरे
अब तो हुए हैं भार टिकोरे।
अंग-अंग महुआ गदराए
आप न आये।
किसे दिखे यह मेघ उमड़ना
सूने आँगन नीम का झरना।
याद अगिन पुरवा सुलगाए
आप न आये।
टेसूवन दहके अंगारे
झुलस-झुलस बाँसुरी पुकारे।
बाँहों के गुदने अकुलाये
आप न आये।
जनता कहती
संसद है अय्याशों का घर, जनता कहती।
इसमें रहते तीनों बन्दर, जनता कहती।
लोकतंत्र हो गया तमाशा पैसे का है
उजले पैसे पर हावी है काला पैसा
सदाचार की बस्ती हाहाकर मचा है
रौंद रहा सबको सत्ता का अन्धा भैंसा।
पांडुरोग से ग्रस्त तरुण भारत के खातिर
वादों का है जन्तर-मन्तर, जनता कहती।
राजे गये, गये रजवाड़े संग समय के
जिसके सिर सौ-सौ हत्याएँ, वह आया है
पाँच टके में भी पंडित की पूछ नहीं है
बिकें करोड़ों में नर-पशु, कैसी माया है।
पक्षी और विपक्षी हैं मौसेरे भाई
दोनों हो गये साँप-छछुन्दर, जनता कहती।
भारत के सिरमौर विधायक, सांसद, मंत्री
मेहतर पूरा देश-ढो रहा सिर पर मैला
काटें किसे, किसे रहने दें, प्रश्न कठिन है
पूरे तन में कदाचार का कैंसर फैला।
भैंस चराने वाले उड़ते आसमान में
बोधिसत्व रह गये निरक्षर, जनता कहती।
पता नहीं
पता नहीं सच है कि झूठ
पर लोगों का कहना है
मेरे प्रेम पगे गीतों को
उमरकैद रहना है।
ऐसी हवा बही है
दिल्ली पटना से हरजाई
सरस्वती के मन्दिर में भी
खोद रहे सब खाई।
बदले मूल्य सभी जीवन के
कड़वी लगे मिठाई
दस्यु-सुन्दरी के समक्ष
नतमस्तक लक्ष्मीबाई।
इसी कर्मनाशा में,
कहते हैं, सबको बहना है।
इस महान भारत में अब है
धर्म पाप का नौकर
एक अरब जीवित चोले में
मृत है बस आत्मा भर।
बाट-माप के काम आ रहे
हीरे-माणिक पत्थर
मानदेय नायक से भी
ज्यादा पाते हैं जोकर।
मुर्दाघर में इस सड़ांध को
जी-जीकर सहना है।
घर के मालिक को ठगकर
जब मौज करें रखवाले
धर्मांतरण करें जग गंगा-
जल का गंदे नाले।
नामर्दी के विज्ञापन से
पटी पड़ी दीवारें
होड़ लगी है, कौन रूपसी
कितना बदन उघारे।
पिछड़ेपन की बात
कि लज्जा नारी का गहना है।
लेकर हम संकल्प चले थे
तम पर विजय करेंगे
नयी रोशनी से घर का
कोना-कोना भर देंगे।
लेकिन गाँव शहीदों के
अब भी भूखे, अधंनगे
उन पर भारी पड़े नगर के
मन के भूखे-नंगे।
ऐसे में गीतकार को
बोलो क्या कहना है?
संताली
हम संताली, वन के भोले-भाले वासी।
एक हाथ में धनुष राम का
एक हाथ मुरली कान्हा की।
दोनों मिली विरासत हमको
तन में, मन में उनकी झाँकी।
हम संताली, छल से दूर, सहज विश्वासी।
वन के पेड़ सहोदर अपने
उनका साथ कभी ना छूटे।
जाँगरतोड़ हमारी मिहनत
से पानी के सोते फूटे।
हम संताली, रहते जहाँ वहीं है कासी।
ओ मारीचो! अब मत आना
इस पर्वत पर धर्म सिखाने।
हम गिरिजा के पुत्र चले हैं
मन-मन्दिर में दीप जलाने।
हम संताली, जिएँ गुरूजी, कटे उदासी।
जनगीत
छिछली बातें करते हो जी!
इस पर, उस पर मरते हो जी!
मेरे पास नहीं आते क्यों
शायद मुझसे डरते हो जी!
इक छोटे-से काम को लेकर
किसके पाँव पकड़ते हो जी!
भाषा मजहब क्षेत्र जाति पर
लड़ते और झगड़ते हो जी!
लेकर नाम देश-सेवा का
जाने क्या-क्या करते हो जी!
फट जाएगा पेट तुम्हारा
इतना काहे भरते हो जी!
जितना ऊँचा चढ़ते हो
उतने ही तले उतरते हो जी!
मार-मार भूसा भर देंगे
खड़ी फसल क्यों चरते हो जी!
तुम भी मर जाओगे ‘अनाथ’ ही
क्यों इस तरह अकड़ते हो जी!
देखी तेरी दिल्ली
देखी तेरी दिल्ली मैंने, देखे तेरे लोग।
तरह-तरह के रोगी भोगें राजयोग का भोग।
हर दुकान पर कोका कोला, पेप्सी की बौछार
फिर भी कई दिनों का प्यासा मरा राम औतार।
कोशिश की पर नागफाँस को तोड़ न पाया भाग
अब भी उंगली पर चुनाव का लगा हुआ है दाग।
भूख-प्यास से मरता कोई? यह तो था संयोग।
पाँच बरस पहले आया था घुरहू खस्ताहाल
अरबों में खेलता आजकल कैसा किया कमाल।
तन बिकता औने-पौने औ’ मन कूड़े के भाव
जितना बड़ा नामवर, समझो उतना, बड़ा दलाल।
जहाँ बिके ईमान-धरम, क्या बेचेंगे हम लोग?
देखा यहाँ जुगनुओं से रहते भयभीत दिनेश
सुना बुद्ध को देते अंगुलिमाल यहाँ उपदेश।
पतझड़ चारों ओर, सिर्फ इस नगरी बसे बसंत
जमींदार है दिल्ली, रैयत बाकी सारा देश।
जनसेवा है मकड़जाल औ’ देशभक्ति है ढोंग।
यह तपन हमने सही सौ बार
चिलचिलाहट धूप की
पछवा हवा की मार।
यह तपन हमने सही सौ बार।
सूर्य खुद अन्याय पर
होता उतारू जब
चाँद तक से आग की लपटें
निकल पड़ती।
चिनगियों का डर
समूचे गाँव को डँसता
खौलते जल में
बिचारी मछलियाँ मरतीं।
हर तरफ है साँप-बिच्छू के
जहर का ज्वार।
यह जलन हमने सही सौ बार।
मुँह धरे अंडे खड़ी हैं
चींटियाँ गुमसुम
एक टुकड़ा मेघ का
दिखता किसी कोने।
आज जबसे हुई
दुबरायी नदी की मौत
क्यों अचानक फूटकर
धरती लगी रोने?
दागती जलते तवे-सी
पीठ को दीवार।
यह छुअन हमने सही सौ बार।
तलहटी के गर्भ में है
वरुण का जीवाश्म
इन्द्र की आत्मा स्वयं
बन गयी दावानल।
गुहाचित्रों-सा नगर का
रंग धुँधला है
गंध मेंहदी की पसारे
नींद का आँचल।
चौधरी का हुआ
बरगद छाँह पर अधिकार।
यह घुटन हमने सही सौ बार।
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