नये पुराने (अनियतकालीन, अव्यवसायिक, काव्य संचयन) मार्च, 2011 बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता पर आधारित अंक कार्यकारी संपादक अवनीश स...
नये पुराने
(अनियतकालीन, अव्यवसायिक, काव्य संचयन)
मार्च, 2011
बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता
पर आधारित अंक
कार्यकारी संपादक
अवनीश सिंह चौहान
संपादक
दिनेश सिंह
संपादकीय संपर्क
ग्राम व पोस्ट- चन्दपुरा (निहाल सिंह)
जनपद- इटावा (उ.प्र.)- 206127
ई-मेल ः abnishsinghchauhan@gmail.com
सहयोग
ब्रह्मदत्त मिश्र, कौशलेन्द्र,
आनन्द कुमार ‘गौरव', योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम'
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बुद्धिनाथ के प्रति.
... हमने देखा है
श्लेष गौतम
एक सिपाही गीतों वाला
हमने देखा है
छन्दों की धुन का मतवाला
हमने देखा है
छन्द-मुक्त, नवकविता जैसे
सौ-सौ द्वन्द्व रहे
प्रतिउत्तर में लेकिन आगे-
आगे छन्द रहे
गीतों का ऐसा रखवाला
हमने देखा है
व्यस्तताओं में भी गीतों को
हरपल जीता है
उसके लिए गीत, रामायण
पावन गीता है
गीतों में रच-बसने वाला
हमने देखा है
घूमा जग में गीतों, नव-
गीतों का धवज लेकर
ताकि मन्द ना पड़ने पाये
माँ वाणी का स्वर
स्वर्ण सुगन्धित करने वाला
हमने देखा है
संस्मरण
प्रेम की भाषा का अद्वितीय शिल्पी बुद्धिनाथ
उदयप्रताप सिंह
बुद्धिनाथ से मेरी निकटता किस्तों में आगे बढ़ी है। सत्तर के दशक में मैंने उसकी एक कविता ‘र्धमयुग' में पढ़ी थी, जिसने मुझे चौंका दिया था। कविता की पंक्तियाँ थीं-
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!
जाने किस मछली में बंधन की चाह हो।
इन दोनों पंक्तियों से जो अर्थ का विस्फोट हुआ, तो एक झटके में मन प्रौढ़ावस्था से किशोरावस्था में पहुँच गया। किशोरावस्था का मनोविज्ञान बड़ा आशावादी होता है। उसे सुरंग के दूसरे सिरे पर रोशनी और सिर्फ रोशनी दिखाई देती है। मन पर जो बिम्ब बना, उसका विस्तार होता ही गया। मैं अच्छी कविता और अच्छे मित्रों की उसी तरह तलाश में रहता हूँ, जैसे मधुमक्खी मधु की तलाश में रहती है। मन में एक लालसा जगी, इस रचनाकार से आत्मीयता बढ़ानी चाहिए। यह कामना स्वाभाविक इसलिए थी कि उस समय अच्छी कविता मेरे लिए अमृतधारा से कम नहीं होती थी। मंचों पर भी मैं उन रचनाकारों से समीपता बनाये रहता था, जिनको मैं कवि के रूप में अपने से श्रेष्ठ मान लेता था और उनसे कुछ सीखना चाहता था। बुद्धिनाथ से मेरे परिचय की यह पहली किस्त थी।
फिर कवि सम्मेलनों में जब कभी उनसे भेंट हुई, तो उन्होंने जो आदर और सम्मान दिया और एक सम्मानित उच्च अधिकारी होते हुए भी जो विनम्रता पूर्वक व्यवहार किया, उसने मुझे अभिभूत कर दिया। एक मधुर आवाज के स्वामी जब वे सस्वर कविता पाठ करते हैं, तो उनकी स्वर-लय-कविता से उत्पन्न बिम्ब, सबका सम्मिलित प्रभाव उनकी ओर श्रोताओं को बरबस खींचने के लिए पर्याप्त है। उनकी कविता में भारतीय जन-जीवन की मान्यताओं, अनुभूतियों, प्रेम की आशा-निराशा का आरोह-अवरोह मरणासन्न आत्मा को भी जीवन्त कर सकता है। मातृभाषा मैथिली है उनकी और कर्मभाषा हिन्दी। प्रेम की भाषा का उन्होंने स्वाध्याय से अर्जन किया है। उनकी प्रारंम्भिक शिक्षा भले ही संस्कृत में हुई हो और उच्च शिक्षा अंग्रेजी में, मगर सचाई यह है कि वे प्रेम की भाषा के अद्वितीय शिल्पी हैं। उनके काव्य की विविधता उन्हें नवगीत और गीत में समन्वय करती हुई दिखाई देती है। परिणामतः दोनों विधाओं के प्रशंसकों को वे अपनी झोली में डाले रहते हैं। उनके शब्द और बिम्ब भारतीय परम्परागत जीवन की दैनिक अनुभूतियों से उठाये गये है। और जब हम उन जीवन मूल्यों, आदर्शों और मर्यादाओं में लिपटे किसी भाव को कविता में अन्तर्निहित देखते हैं, तो प्रतीत होता है कि हमारी संस्कृति, मूल्य, आदर्श, परम्परा के संरक्षण का काम भी मनोरंजन के समानांतर हो रहा है। कविता केवल मनोरंजन नहीं है। अगर हमें वर्तमान की ऊहापोह की त्रासदी से साहित्य की किसी धरा से समाधान नहीं मिलते, वे हमारे प्राचीन गौरव की याद दिला कर हमें अपने वर्तमान को सँवारने की प्रेरणा नहीं देते, तो ‘साहित्य' शब्द की सही अर्थ-मर्यादा घायल हो जाती है। हमारे ऊपर पश्चिमी सभ्यता का बढ़ता हुआ दवाब बहुत घातक है। जैसे खाली स्थान पर हवा अपने आप भर जाती है, वैसे ही संस्कारहीन मन में कहीं के कुसंस्कार आकर डेरा जमा लेते हैं। इसलिए जो अपनी प्राचीनता के गौरव और श्रेष्ठता के मूल्यों का स्मरण जनसाधारण के लेखन के माध्यम से जाने या अनजाने दिलाते रहते हैं, उनका मूल्यांकन इस सचाई के प्रकाश में होना चाहिए। पर अपने इस बड़प्पन से अनभिज्ञ बुद्धिनाथ की विनम्रता पर भी कुछ कहने का मन है। विनम्रता को प्रायः दम्भी समाज मनुष्य की कमजोरी समझता है, वहीं विद्वज्जन जानते हैं कि विनम्रता मनुष्य के आंतरिक विश्वास और आत्मबल की दैविक अभिव्यक्ति है। बुद्धिनाथ से मिलना, उनके गीतों को सुनना, उनके विचारों से अवगत होना, हमारे परिचय की दूसरे किस्त थी।
तीसरे सोपान में संयोगवश ऐसा हुआ कि मैं लोकसभा और राज्यसभा में कुल मिलाकर लगभग 15-16 साल सदस्य के रूप में रहा। तथा भारत सरकार की राजभाषा नीति की क्रियान्वयन समिति का लगभग बराबर सदस्य रहा। तब तक बुद्धिनाथ ओएनजीसी जैसे सम्मानित और भारत सरकार के सर्वाधिक लाभकारी संस्थान में राजभाषा निदेशक हो गये। यदा-कदा जब उनसे इस रूप में भेंट होती थी तो राजभाषा के साथ-साथ कविता, साहित्य, लेखन, व्यक्तिगत सुख-दुख से लेकर राजनीतिक और सामाजिक परिवेशों पर नितान्त वैयत्तिक स्तर पर गहन चर्चा होती थी। यह बातचीत इतने आत्मीय वातावरण में होती थी, कि समय बीतने का हमें खयाल ही नहीं रहता था। न उनमें नौकरशाही का गुमान होता था, न मुझमें लोकशाही का घमंड होता था। वह आत्मीयता का ऐसा स्तर था, जहाँ से वापसी का सवाल नहीं था।
उन्हीं दिनों बुद्धिनाथ की मंझली बेटी की सगाई दिल्ली के द्वारका निवासी परिवार से तय हुई। समधी इंटेलिजेंस ब्यूरो के राष्ट्रपति पदक प्राप्त उपनिदेशक (रिटायर्ड) थे। उनका एक ही बेटा था, जिसकी शादी में वे सभी मित्रों और बांधवों को आमंत्रित करना चाहते थे, जो दिल्ली में ही संभव था। अतएव, बिटिया का सारा मांगालिक समारोह आयोजित करने का सौभाग्य मेरे 19, फिरोज शाह रोड स्थित सरकारी निवास को मिला। इस प्रकार जाने-अनजाने मैं उस परिवार का अभिभावक बन गया। इस सात्विक सुख की अनुभूति मुझे सदैव होती रहेगी। यह बुद्धिनाथ के प्रति मेरी गहरी आत्मीयता का ही प्रमाण है कि बुद्धिनाथ ने जब अपने जीवन भर के सारे अर्जित धन और बैंक ऋण से देहरादून की सुरम्य वसंत बिहार कालोनी में अपना घर बनाया और गृह प्रवेश में अगुआई करने के लिए मुझे बुलाया, तो मैं न केवल वहाँ गया, बल्कि धार्मिक कृत्यों में कोई आस्था न होने के बावजूद दिन भर पूजा-पाठ में उपस्थित रहा। गृह प्रवेश की शाम पूरी तरह साहित्यिक थी, जिसमें मेरे अलावा माहेश्वर तिवारी, लीलाधर जगूड़ी आदि अनेक अंतरंग कवियों ने काव्यपाठ किया।
मुझे दो घटनाएँ याद हैं, जो हमारी आत्मीयता को प्रगाढ़ करती हैं। मेरे कविता-संग्रह ‘देखता कौन है?' के प्रकाशन में आदि से अंत तक प्रयास, परिश्रम और चिन्ता करने का शत प्रतिशत श्रेय बुद्धिनाथ को जाता है। मुझ जैसे फक्कड़ की कविताओं का संग्रह निकालना सचमुच अत्यंत दुष्कर कार्य था। 80 प्रतिशत कविताएँ कागज पर कभी उतरी ही नहीं थी। उन्हें कागज पर उतारने से लेकर संकलन, वर्गीकरण, प्रकाशन तक जो उन्होंने रुचि ली, वह उनकी मेरे प्रति आत्मीयता का परिचायक है। यह काम उन्होंने ओएनजीसी की नौकरी में अत्यधिक व्यस्त रहते हुए और दिनरात देश के एक छोर से दूसरे छोर तक भागते-फिरते हुए सम्पन्न किया, यह खास बात है।
दूसरी घटना मुझे कभी भूलती नहीं है। मैं यादव महासभा का अखिल भारतीय अध्यक्ष निर्वाचित हो गया था। यह काम भी मेरे स्वभाव के विपरीत था, जिसे मेरे ऊपर दबाव डालकर करवाया गया था। मैं सुबह नाश्ते की मेज पर बैठा बड़े असमंजस में था कि धन्यवाद का परिपत्र सभी कार्यकारिणी के सदस्यों को कैसे लिखूँ और क्या लिखूँ? बुद्धिनाथ मेरे पास ही उस दिन घर पर ठहरे हुए थे। उन्होंने स्वतः यह दायित्व लेते हुए, मुझे बिना बताये, मेरी ओर से जो परिपत्र लिखा था, वह ऐसा लगता था कि मेरे हृदय और आत्मा की गहराई के भावों को उन्होंने मँजी हुई भाषा में सजा-सँवार दिया था। उन्हें शायद मेरी तत्कालीन मनःस्थिति की जानकारी मुझसे अधिक हो गयी थी। उनके साहित्यिक कद और लेखन शैली का मैं शुरू से कायल हूँ, लेकिन उनकी आत्मीयता-प्यार जो मैंने चाहा था, उसे देने में उन्होंने सदा उदारता बरती है।
मेरी कामना है कि बुद्धिनाथ चिरायु हों, जिससे दीर्घकाल तक साहित्य के माध्यम से और अपनी प्रेम-प्रसारण योजना से समाज और देश की सेवा करते रहें।
संस्मरण
निजी व्यवहार में आत्मीय शीतलता
माहेश्वर तिवारी
अपनी पीढ़ी के अत्यन्त चर्चित गीत कवि बुद्धिनाथ मिश्र गीत की अनवरत प्रवहमान नदी की अबाध गति से आगे बढ़ती एक लहर हैं। उनसे मेरा परिचय अब तीन दशक से कुछ अधिक का हो चुका है, लेकिन अक्सर महसूस होता है कि इसे मात्र कुछ दशकों में ही नहीं बाँध जा सकता।
मिथिला जनक नन्दिनी जानकी की ही धरती नहीं, मैथिल कोकिल विद्यापति की भी सृजनभूमि है। बीसवीं शताब्दी में यह सृजन-यात्रा बाबा नागार्जुन, फणीश्वर नाथ रेणु, आरसीप्रसाद, राजकमल चौधरी, शान्ति सुमन तक अबाध गति से आगे बढ़ती रही है। सृजनात्मकता की एक लम्बी परम्परा है मिथिलांचल की, जिसमें अन्य अनेक महत्वपूर्ण रचनाकार हैं। उनमें ही एक अत्यन्त चमकदार नाम है बुद्धिनाथ मिश्र का। उनके रचनात्मक व्यक्तित्व की एक विशेषता यह है कि उसमें जितना अंश मिथिला का है, उतना ही गाजीपुर और बनारस का भी। कलकत्ता से भाषा उन्होंने क्या ली, इसका सूक्ष्मता से पता शायद आगे लगे। इस संन्दर्भ में अभी जो कुछ रेखांकित किया जा सकता है वह मात्र यह कि वहाँ की सांस्कृतिक चेतना को तो उन्होंने किसी हद तक स्वीकारा, लेकिन वहाँ की अतिशय नागरिक बौद्धिकता से अपने को बचाए रखा। वैसे उनके परिचितों का दायरा वहाँ भी कम नहीं है, लेकिन ‘ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर' वाले धरातल पर ही सबसे निभाते रहे हैं। कुछ एक अपवादों को छोड़कर, जो वहाँ के बौद्धिक नहीं, सांस्कृतिक जगत से जुड़े हुए लोग हैं। आशापूर्णा देवी, विमल मित्र, महाश्वेता देवी, सुभाष मुखोपाध्याय और प्रेमेन्द्र मित्र जैसे दिग्गज बांग्ला रचनाकारों के बुद्धिनाथ नितान्त अपने रहे हैं।
बुद्धिनाथ मिश्र से मेरा प्रथम परिचय सन् 1970 में उरूबा बाजार (गोरखपुर) के एक कवि-सम्मेलन में हुआ। इस आयोजन में कई वरिष्ठ स्वनाम-धन्य कवि थे। बुद्धिनाथ का कवि किशोरावस्था की दहलीज पर पाँव रख चुका था। लेकिन भविष्य के सम्भावनाशील कदमों की आहट मुझे उनमें दिखी। उनके स्वर में गन्ने जैसी मिठास और नए तालमखाने का आस्वाद था। काव्य-पाठ ऐसा कि निष्कलुष होकर सुना जाय तो वर्षा की पहली सोंधी फुहार में भीगने और नहाने जैसे सुख का अनुभव हो। मेरा मन उसमें भींगता गया और ‘ज्यों बड़री अखियाँ निरखि, आँखिन को सुख होत' जैसा अनुभव मेरे सामने साकार हो गया। फिर तो मात्र कवि ही नहीं, मेरे परिवार के अभिन्न सदस्य हो गए बुद्धिनाथ।
परिवार के अन्य सदस्यों से भेंट बाद में हुई, काली मन्दिर, मिश्र पोखरा (वाराणसी) वाले उनके आवास में। संस्कारशील मध्यवर्गीय परिवार है उनका। स्व. पिता संस्कृत के प्रकाण्ड पंडित, बड़े भाई भी संस्कृत के प्राचार्य। बुद्धिनाथ और छोटे भाई उमानाथ ने परिवार की परम्परा से अलग हटकर शिक्षा ली, लेकिन पारिवारिक संस्कारों से निरन्तर जुड़े रहे। सौ. ऊषा से बाद में मिला लेकिन मिलते ही लगा कि इस घर में और स्वयं बुद्धिनाथ में जो दीप्ति है, उसमें ऊषा का योगदान कम नहीं है। ऊषा की राग दीप्ति से ही उस घर में आभा, विभा और शुभा की अभिलाष सम्भव हुई।
बुद्धिनाथ मेरे अत्यन्त आत्मीय जनों में है, इसलिए उनपर लिखना मेरे लिए एक तरह से ‘तरवार के धर पे धवनो' जैसा ही है। अपने आत्मकथ्य ‘अक्षरों के शान्त नीरव द्वीप पर' में वे एक जगह लिखते हैं- ‘दिन रात खटने के बावजूद नौकरी से हमेशा मुझे उतना ही मिला, जितने से दो जून का चूल्हा जल सके। वह भी तब, जब मैं चाय तक के व्यसन से दूर रहा और सीता की तरह राजमहल से लेकर पर्णकुटी तक का जीवन जीने के लिए मेरी पत्नी अभ्यस्त थी। घर में कभी इतनी पूँजी जमा ही नहीं हो पाई कि बच्चों से छिपाकर रखने की नौबत आती। सो, आर्थिक प्रश्नों पर बच्चे मुझसे ज्यादा सयाने हो गए। आइसक्रीम की दुकान के आगे से गुजरते हुए उन्होंने कभी उसकी ओर ललचायी नजरों से नहीं देखा। इसे मैं उनके बचपन का अभिशाप मानूँ या वरदान, समझ नहीं पा रहा हूँ। अपनी चाकचिक्य भरी नौकरी से कभी मैं इतना भी नहीं निचोड़ पाया कि सुख-दुख में समान रूप से निश्छल मुस्कान बिखेर कर घर को जगमगाने वाली अपनी र्धमपत्नी को ढंग की एक साड़ी ही ला दूँ।' यह अंश मैंने इसलिए भी दिया है कि मैं इसका साक्षी रहा हूँ। बनारस की कालीबाड़ी वह पर्णकुटी ही तो रही, जिसमें ऊषा लकड़ी से चूल्हा जलाकर खाना पकाती रही और जीमनेवाले उसमें अपना हिस्सा तुरन्त पा जाते रहे। चूल्हे के धुएं से कड़वाती वे आँखें मैंने देखी हैं, लेकिन उनमें कभी आँसू आए या लकड़ी के गीले होने से मन में अथवा चेहरे पर कोई कड़वाहट आई, कभी ऐसा मैंने नहीं देखा।
वे दिन बुद्धिनाथ के कठिन संघर्ष वाले दिन थे, लेकिन निजी जीवन के संघर्ष को उन्होंने अपनी रचनाओं में आने से बराबर रोके रखा। लगा वह कवि आह, आँसू, भीख की जगह लोगों में सिर्फ फुहार बाँटने का संकल्प लेकर आया है। बुद्धिनाथ की कविताओं की ही तरह उनके निजी व्यवहार में भी एक आत्मीय शीतलता के सहभाव भरे स्पर्श का निरन्तर अनुभव किया है मैंने। मेरे लिए उस समय उनकी रचनाएँ सम्भवतः इसलिए भी अत्यन्त प्रिय लगीं, क्योंकि वे मेरे जीवन के, ताप से झुलसते दिन थे। बुद्धिनाथ से मेरा रिश्ता इसीलिए बौद्धिक कम, आत्मीयता के रंग में रंगा अधिक होता गया। वे मेरे मित्र से अधिक छोटे भाई हैं। मेरी पत्नी के लिए चुलबुले देवर, पौत्री भाषा के लिए कलकत्ता वाले चालाक बाबा। साहित्य जगत में कम ही लोग हैं जो मेरे परिवारजन, मेरे निकट सम्बन्धी जैसे हैं। उनमें बुद्धिनाथ कुछ ज्यादा ही निरन्तर आते-जाते रहने के कारण परिवार के इतने निकट हैं कि मेरा बेटा समीर भी उनसे चचा यार की तरह बोल-बतिया लेता है। उसके लिए वे जटाशंकर चाचा हैं। इसकी भी एक रोचक कथा है। लेकिन अभी नहीं, फिर कभी, इसकी विस्तार से चर्चा करूँगा।
संस्मरण
‘राब' जइसन बिखरेला मुँहवाँ से बोलिया
लालसा लाल ‘तरंग'
अच्छे गन्ने के साफ ‘रस' से तैयार हुआ ‘राब' जो दानेदार होता है, उसका स्वाद प्लेट में लेकर अँगुलियों से मुंह में डालना, उसका शर्बत का पान करना या उससे तैयार चीनी का प्रयोग सारे मीठेपन की मौलिकता का अद्वितीय प्रमाण होता है। इस आस्वादन की सुखकर अनुभूति भी अप्रतिम है। गुड़ की हर किस्म से अलग यह किस्म है। मैंने यह सब इसलिए गिनाया कि इसी अप्रतिम स्वाद के सदृश बुद्धिनाथ मिश्रजी का स्वभाव, व्यक्तित्व एवं बोली है। बड़ा कठिन है इनकी मृदुवाणी के सहृदय आघात से बच पाना। इसीलिए मैं कह सकता हूँ कि 'राब जइसन बिखरेला मुँहवाँ से बोलिया'। यह न कोई अतिशयोक्ति है और न ही कोई चाटुकारिता। क्योंकि न तो मैं किसी अकादमिक संस्था में हूँ जहाँ प्रोन्नति हेतु सिफारिश की जरूरत हो, न ही मिश्रजी ही किसी विश्वविद्यालय में हैं, न वे अब ‘आज' के संपादक हैं और न मैं उस पायदान पर जहाँ किसी संपादक की ‘कृपा' की आवश्यकता हो। और कोई आलोचकीय छुआछूत के रोग से भी हम दोनों परे हैं। तब विशुद्ध शाकाहारी ढंग से मैंने जहाँ तक देखा, समझा और पाया है- इनके व्यक्तित्व को ‘राब' सा मीठा माना है। मेरा यह भी दावा है कि अगर आप भी मिश्रजी से कभी मिलेंगे तो शर्तिया मान लीजिए कि आप भी उनके स्वभाव और व्यक्तित्व की सम्मोहन शक्ति के शिकार हो ही जाएंगे।
बुद्धिनाथ मिश्रजी से मेरा पहला परिचय 1960-70 के बीच तब हुआ जब वे सूँड़ फैजाबादी और ‘जामी' चिरइयाकोटी के अभिनंदन-समारोह में आजमगढ़ पहुँचे थे और मैं भी पहुँचा था। उन दिनों मैं बरौनी जंकशन जिला बेगूसराय-बिहार (तब जिला मुंगेर) में रेलवे में कार्यरत था। पंडित श्यामनारायण पांडेय की अध्यक्षता में अभिनंदन एवं कवि सम्मेलन का आयोजन कंपनी बाग (अब कुंअर सिंह उद्यान) में- जो कलक्टरी कचहरी एवं पुलिस कार्यालय के पास है-था। मिश्रजी अपनी जवानी की दहलीज पर पाँव बढ़ा चुके थे। सुगठित, स्वस्थ शरीर, गौर वर्ण, अत्यंत ही आकर्षक मुखमंडल और सहज ही आकर्षित करने वाली बड़ी-बड़ी सुन्दर आँखें। उन्होंने कोकिल कंठी स्वर में अपने मशहूर गीत की मुखड़ा-पंक्ति अलापी तो कंपनी बाग तालियों की गड़गड़ाहट से भर गया। ‘एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!' उनका धूम मचाने वाला गीत हैऋ अब तक इस नाम से संकलन भी आ चुका है। बहुत बाद में सूँड़ जी ने जब मेरा परिचय मुँगेर से पधारे कवि लालसा लाल तरंग अर्थात् रेड एज रेड आपके समक्ष आ रहे हैं-मंच पर आमंत्रित किया तब बुद्धिनाथजी को अपना प्रदेश बिहार स्मरण हो आया। मैं उनसे पहले ही प्रभावित हो चुका था फिर हम दोनों के परिचयों का आदान-प्रदान हुआ और संबध स्थापित हो गए। तब मुझे ज्ञात हुआ कि यह सुन्दर युवक मिथिलाँचल का सौन्दर्य बटोरे समस्तीपुर जिले का निवासी है। फिर तो मित्रता प्रगाढ़ से प्रगाढ़तर हो चली।
मैं जब भी घर (आजमगढ़) आता तो प्रायः वाराणसी अवश्य रुकता और हम दोनों की भेंट हो जाती। तब मिश्रजी ‘आज' (वाराणसी) में साहित्य संपादक का काम देख रहे थे। वे एक काली मंदिर में रहा करते थे। कभी-कभी मेरे गीत या कहानियाँ भी ‘आज' में छपने लगीं। इसी बीच एक बार ‘भइयाजी बनारसी' ने मेरा परिचय पूछा क्योंकि मेरे किसी गीत ने उन्हें काफी प्रभावित किया था। फिर तो मैं ‘आज' का एक रचनाकार समझा जाने लगा। चूंकि मैं राजभाषा विभाग से संबद्ध था, इसलिए भइयाजी बनारसी, नजीर बनारसी, बुद्धिनाथ, हफीज बनारसी, माहेश्वर तिवारी, सूँड़ फैजाबादी, श्रीकृष्ण तिवारी, चन्द्रशेखर मिश्र, चकाचक बनारसी आदि दो-तीन बार बरौनी मेरे आयोजन में पधरे। तीन बार पं.श्यामनारायण और रूपनारायण त्रिपाठी भी जा चुके थे। ‘आज' का 32 पेजी विशेषाँक जिन दिनों निकलता था-हर माह में एक बार या दो बार मेरी रचना उसमें आती थी। यह बुद्धिनाथ मिश्र के और ‘भइयाजी' के तराजू पर खरा उतरने के कारण ही था।
कुछ वर्षों बाद मिश्रजी ने पी-एच.डी. कर ली और कलकत्ता में हिन्दुस्तान कापर में राजभाषा अधिकारी होकर चले गए। अब तो संबंधों की गाड़ी और सीधी हो गई। बुद्धिनाथजी को कलकत्ता से बरौनी जंक्शन और फिर वहाँ से घर (समस्तीपुर) के लिए दूसरी गाड़ी पकड़नी पड़ती। अब तो वे मेरे पारिवारिक सदस्य हो गए, क्योंकि मेरे परिवार का एक अनुरोध था- 'आप बरौनी सुबह पहुँचनेवाली गाड़ी से आया करें और दूसरे दिन समस्तीपुर की गाड़ी पकड़ें और कलकत्ता लौटते समय भी सबेरे बरौनी आएँ और रात की गाड़ी से कलकत्ता जाएँ। बीच का समय हमारे रेलवे आवास पर बिताएँ'। मिश्रजी अनुरोध ठुकरा नहीं सके। और जब वे मेरे घर आ जाते तो पूरा परिवार घंटों इनके गीतों का आनंद लेता और एक खाली कैसेट रिकॉर्ड हो जाती (आज भी वे सुरक्षित हैं)। उन दिनों के आनंद का बयान वर्णनातीत है। बस गूँगे के मुँह में अच्छे चाकलेट का आनंद जैसा।
अब थोड़ा दूसरा पक्ष। मिश्रजी देहरादून किसी दूसरी कंपनी में ऊँचे पद पर चले गए। मैं रिटायर होकर आजमगढ़ चला आया और ‘हार्ट आफ द सिटी' में मकान बनवा लिया। बीच में बीमार पड़ा। उन्हीं दिनों बुद्धिनाथजी को कुछ लोगों ने आजमगढ़ में आमंत्रित किया। तब तक संभवतः उन्हें मेरा स्मरण नहीं रहा होगा। वे आजमगढ़ आए और मेरे मकान से 2-3 सौ गज दूरी पर ही इन्हें ठहराया गया, पर न तो उन लोगों ने मेरे विषय में कुछ बताना उचित समझा और न मिश्रजी ने ही अता-पता लिया और लौट गए। मुझे बाद में ज्ञात हुआ। लेकिन मेरी पत्रिका से मिश्रजी का परिचय था। एक बार उनका फोन नंबर मिल गया। तब मैंने उन्हें फोन कर अपना दुख व्यक्त किया। खैर, मिश्रजी ने अपनी स्थितियों से और अनभिज्ञता से जब अवगत कराया तो शिकवे दूर हो गए और रिश्ते और प्रगाढ़ हो गए। मिश्रजी हिन्दी के आकाश में जगमगाते ज्योतिमान नक्षत्र हैं। वे सशक्त गीतकार, साहित्यकार के रूप में अमर रहेंगे और इनकी रचनात्मक प्रतिभा और निखरेगी, इसी आशा के साथ इन्हें याद कर रहा हूँ।
संस्मरण
बूढ़ी माँ का लाड़ला बेटा
ऋचा पाठक
बुद्धिनाथजी की कालजयी रचना ‘एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!' मैंने सुप्रसि( लेखिका ‘शिवानीजी' की कलम के माध्यम से जानी। उन्होंने ‘झूला' शीर्षक से लिखी अपनी पुस्तक (1979 संस्करण) के अंतिम संस्मरण लेख में लिखा था जिसका शीर्षक भी ‘बन्धन की चाह' था और अंत भी ‘बन्धन की चाह' से हुआ था- 'चोर शायद आजकल मेरी ‘सुरंगमा' की धारावाहिक किस्तों को पढ़ रहा था, क्योंकि उस साहित्यिक अभिरुचि के तस्कर ने मेरा बटुआ छुआ भी नहीं।’ जी में आया, अपने हाथ में पड़ा वैसा ही यमज कंकण उसे दिखा कर पहले दिन के कवि सम्मेलन में सुनी, बनारस के कवि बुद्धिनाथजी की पंक्तियाँ दुहरा दूँ-
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!
जाने किस मछली में बन्धन की चाह हो।
समझ में नहीं आया कि शिवानीजी ने उस संस्मरण को अभिव्यक्त करने के लिए संस्मरण का सहारा लिया था। बहरहाल, इस संस्मरण ने कवि के प्रति कौतूहल पैदा कर दिया था। 23 जुलाई 2006 को गदरपुर से कवि श्री मनोज आर्य को फोन आया- 'दोपहर तीन बजे से राजकीय इण्टर कॉलेज, गदरपुर (उत्तराखण्ड) में बुद्धिनाथ मिश्रजी के सम्मान में गोष्ठी हो रही है। आप लोग आ सकें तो आ जाइये।’ मैंने अपने पति से बात की तो वे फैक्ट्री से अर्द्धावकाश लेकर आ गये। मैं सड़क पर ही उनका इंतजार कर रही थी। समय कम था। हम लोग फटाफट गाड़ी मैं बैठे और चल पड़े। गर्मी भयंकर थी, पर उद्देश्य के सामने गौण थी।
गदरपुर पहुँचने पर जब हमने सभा कक्ष में प्रवेश किया तो मेरे उत्साह पर ठंडे पानी के छींटे पड़ गये। बुद्धिनाथजी सामने थे पर वे तो कहीं से भी मेरी कल्पना के कवि नहीं लग रह थे, जिन्हें मैंने शिवानीजी के द्वारा जाना था। मैंने सोचा था, न सही धोती-कुर्ता पर कम से कम पाजामा-कुर्ता पहनने वाले तो होंगे ही। न सही विष्णु प्रभाकरजी जैसी गाँधी टोपी या पंतजी जैसा केश विन्यास, पर कुछ तो स्थापित कवियों जैसा होगा (स्थापित कवियों से मेरा साबका बस पाठ्य-पुस्तकों में पड़ा था)।
कुछ भी तो कवियों जैसा नहीं था। पैन्ट, शर्ट, बैल्ट, जूते, चुस्त, दुरुस्त मिश्रजी तो कोई प्रशासनिक अधिकारी लग रहे थे। (बाद में पता चला कि वे पेट्रोलियम मंत्रालय की बैठक में ओएनजीसी के वरिष्ठ अधिकारी के रूप में भाग लेने भीमताल जा रहे थे, इसीलिए सरकारी बाना में थे।)
प्रणाम करके अपनी निराशा को सम्हालते हुए और उनके मुखरित हास्य को अधिकारियों की सहजवृत्ति स्वीकारते हुए स्थान लिया। पहला संवाद मिश्रजी ने ही किया- ‘भोजन किया आप लोगों ने? मेरे अचेतन मस्तिष्क ने सदमे के कारण जि”वा को कोई आदेश नहीं दिया। जवाब मेरे पति ने ‘हाँ जी' के साथ दिया।
लेकिन उनके स्वर के माधुर्य ने मुझे जरूर चौंकाया। जब उन्होंने बोलना शुरू किया तो मेरे मन की उमस पर ही नहीं, वहाँ के वातावरण पर भी जैसे पहली बरसात के मीठे जल की बौछार हुई हो। उन्होंने तो सरस्वतीजी के साथ सबसे करीबी वात्सल्यपूर्ण और बिल्कुल सीधा संबंध स्थापित कर रखा था। खैर! गोष्ठी चल रही थी और वातावरण धीरे-धीरे वासंती मधुर होता जा रहा था। उनका गीत चल रहा था-
चंदा के इर्द-गिर्द मेघों के घेरे
ऐसे में क्यों न कोई / मौसमी गुनाह हो।
एक बार और जाल / फेंक रे मछेरे!
गोष्ठी बढ़ती रही। समारोह की सम्पन्नता के बाद चलते हुए मिश्रजी ने हमारे सफर का खयाल रखते हुए पूछा- 'आप लोग कैसे जाएँगे?' मेहमान की मेजबानी से अभिभूत मेरे पति ने कहा- 'हमारे पास गाड़ी है' और हाथ जोड़कर हम दोनों ने प्रणाम किया। मिश्रजी भीमताल चले गये और हमने भी काशीपुर की राह ली।
यह पहली मुलाकात थी जो कई इन्द्रधनुषी रंग छोड़ गयी। उसी दिन बुद्धिनाथजी ने मनोज आर्य को अपनी पुस्तक ‘शिखरिणी' भेंट की जिसे मैंने एक नजर देखा भर था। मनोज से मैंने पढ़ने के बाद ‘शिखरिणी' देने को कहा, जिसे मनोज ने मान भी लिया और निभाया भी। कुछ समय बाद ‘शिखरिणी' मेरे हाथों में थी।
एक बार जल्दी से पन्ने पलटने के बाद मैंने उसका प्राक्कथन ‘अक्षरों के शांत नीरव द्वीप पर' पढ़ना शुरू किया। मेरी हैरानगी की सीमा न रही। नवगीतकार के नाम से प्रतिष्ठित साहित्यकार का इतना अच्छा गद्य शिल्प! चुंबकीय आकर्षण था उसमें। बार-बार पढ़ा मैंने-खुद को सरस्वती का सबसे प्रिय बालक बताना और पूरी उम्र की साधना को भी कमतर आँकना। उस संग्रह का हर गीत बहुत लय में था। उसे पढ़ते ही खुद-ब-खुद गाया जाने लगता था। एक बार मैं एक गीत गा रही थी। अचानक देखा कि मेरी आठ साल की बेटी उस पर नृत्य कर रही है (उस समय वह कत्थक सीख रही थी।) यह काव्य में रस की पूरिपूर्णता थी और सार्थकता भी।
उन्हीं दिनों मेरी माँ बीमार पड़ी। मैंने फोन पर उन्हें सुनाया- ‘अपनी चिट्ठी बूढ़ी माँ मुझसे लिखवाती है...।' सुनकर वे भावुक होकर बोली- ‘ऐसा लगता है जैसे माताजी के बारे में लिखा हो' और उस बहाव के बाद उन्होंने काफी स्वस्थ महसूस किया। गीत औषधि भी हो सकते हैं, मैंने पहली बार महसूस किया। एक बार मनोज आर्य काशीपुर आये और ‘शिखरिणी' का जिक्र किया तो मैंने उनके सामने रख दी और वे उसे लेकर चले गये। बहुत पछतायी मैं...। अगर थोड़ा भी आभास होता कि वे उसे लेने आये हैं तो देती नहीं।
अब तक मुझे नवगीतकार शब्द का अर्थ बहुत सही नहीं मालूम था, लेकिन उनके गीतों में नव कल्पना, नव भाव, नवसंदर्भ देखकर अहसास हुआ कि जो सरस्वती में अपनी बूढ़ी माँ की कल्पना कर सकता है, जो अपनी जमीन तलाश कर अपना नया भवन तैयार कर सकता है, वह तो नवगीतकार होगा ही। छुटि्टयों में घर जाना हुआ तो पिताजी के पुस्तकालय में सत्तर के दशक की बिहार से प्रकाशित एक पत्रिका ‘गूँज' मिली जिसमें बुद्धिनाथजी के दो प्रेमगीत मिले। पढ़कर मन ने मान लिया कि उनके गीतों में नवपल्लव- सी नवता है जो उन्हें परंपरा से अलग खड़ा करती है। गीतों के साथ चित्र देखकर लगा कि तब वे वास्तव में कालिदास प्रेरित कवि लगते थे। व्यवसाय ने धीरे-धीरे उन्हें व्यक्तित्व में अधिकारी के रूप में स्थापित कर दिया, किन्तु भीतर से वे वही शुद्ध साहित्यिक संस्कृति प्रेरित छंदबद्ध गीतों के रचयिता रहे।
शहरों में दूरी होने की वजह से मिलना नहीं हो पाता था। दूरभाष पर भी बात हो पाना भाग्य के भरोसे था। इसी बीच सितम्बर 2007 में मेरा कहानी संग्रह ‘एक दिन की उम्र' छपा। इसका निर्णय और प्रकाशन मात्र दस दिन में हुआ था। मिश्रजी से प्रार्थना की उसके लिए समीक्षात्मक पत्र लिखने की, तो उन्होंने कहा, ‘पांडुलिपि भेज दो।' मैंने पांडुलिपि भेजी और इतनी जल्दी पत्र सहित पांडुलिपि वापस आ गयी कि समय के भीतर ही मेरा प्रकाशन कार्य पूरा हो गया। पत्र भी इतना सारगर्भित और वात्सल्यपूर्ण था कि बार-बार पढ़ने का मन होता। काफी समय खाली निकल गया इसके बाद। मिश्रजी बहुत व्यस्त हो गये। फोन पर भी बात नहीं हो पाती। उनके विदेशों के दौरे बढ़ गये थे।
काफी समय बाद सौभाग्य से उनसे फोन पर बात हो गयी, पता चला वे काशीपुर होते हुए पंतनगर जा रहे हैं। मैंने घर आने के लिए प्रार्थना-पत्र दिया जो, अगले दिन के लिए स्वीकृत हो गया। अगले दिन दोहरे सौभाग्य का विषय रहा। बुद्धिनाथजी के साथ माहेश्वर तिवारीजी का भी सत्संग मिला। फिर जो बिना एक बार भी उठे साहित्य चर्चा चली तो दो घंटे कहाँ बीते पता भी नहीं चला। ऐसा ज्ञान जो आज की बेतरह महंगी शिक्षा के दौर में किसी यूनिवर्सिटी की कक्षा में भी न मिलता, वहाँ मैंने पाया।
कुछ समय बाद पता चला कि मिश्रजी ने अपने सभी पारिवारिक दायित्वों को पूरा करते हुए 28 जून 2009 को अपनी सबसे छोटी बेटी शुभा की शादी खुशी-खुशी सम्पन्न कर दी। मेरे मन में तुरंत आया- ‘रस्सी पर चलने जैसा ही जीवन! तेरा अरे संतुलन!' व्यवसाय, साहित्य-लेखन, मंच-परिवार आदि की सारी जिम्मेदारियाँ इतनी व्यस्तताओं के बावजूद सधी हुइर्ं।
संस्मरण
क्या-क्या मैं उल्लेख करूँ
इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
बुद्धिनाथ मिश्रजी का नाम सामने आते ही एक साथ कई तरह के परिदृश्य दिखाई देने लगते हैं। उनको एक साहित्यकार के तौर पर रेखांकित किया जाए, ओएनजीसी के एक जिम्मेदार अधिकारी के रूप में या सरल स्वभाव वाले बड़े व्यक्तित्व के रूप में। उनके व्यक्तित्व का फलक इतना लंबा-चौड़ा है कि उसे एक दायरे तक सीमित करना नाइंसाफी होगी। वैसे तो उनकी कविताओं से बार-बार रूबरू होता रहा हूँ, मंचों पर अनेक बार सुना है। मगर व्यक्तिगत रूप से उनसे मेरी मुलाकात स्वर्गीय कैलाश गौतमजी के घर पर हुई। हालांकि कैलाशजी ने एक दिन पहले ही बता दिया था कि कल बि(नाथ आएंगे, सुबह ही आ जाना। सुबह के आठ बजे होंगे, मैं कैलाशजी के घर जाने की तैयारी कर ही रहा था कि तभी उनका फोन आ गया। बोले, ‘इम्मियाज बुद्धिनाथ आ गए हैं।' मैंने कहा, ‘तुरन्त आ रहा हूँ।' थोड़ी देर बाद मैं उनके घर पहुँचा। बुद्धिनाथजी सोफे पर बैठे चाय पी रहे थे। मैं आदाब कहके, बगल की कुर्सी पर बैठ गया। कैलाशजी ने उनसे मेरा परिचय कराया। मेरा नाम सुनते ही चौंक पड़े। बोले, अरे तुम इम्तिाज गाजी हो, तुम तो अभी बच्चे हो। बेकल साहब ने तुम्हारे बारे में जिस तरह बताया था, उससे तो लगता था कि कोई बुजुर्ग आदमी होगा। फिर बोले, तुम्हारे चेहरे पर चमक है, आगे जाओगे। फिर बुद्धिनाथजी ने ‘गु'ऱतगू' के बारे में विस्तार से चर्चा की। तमाम साहित्यिक योजनाएँ बनीं। उनका सरल स्वभाव देखकर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। सोचने लगा यह आदमी ओएनजीसी के राजभाषा विभाग में मुख्य प्रबंधक है, साहित्य के क्षेत्र में इतना बड़ा नाम है, मगर स्वभाव से तो बिल्कुल ही साधरण आदमी है।
बहरहाल, उनसे मेरी पहली मुलाकात ने काफी रंग दिखाया। आज वो मुझे अपने बेटे की तरह मानते हैं। कोई साहित्यिक काम करता हूँ तो उनसे चर्चा जरूर करता हूँ। ‘गु'ऱतगू' के लिए भी कई तरह का सहयोग करते रहे हैं। पत्राचार का सिलसिला शुरू हुआ तो पहले पत्र में मैंने साहित्यिक रिश्ते से उनको ‘बुद्धिनाथजी' से संबोधति किया था। पत्र का जवाब आया तो उन्होंने लिखा, हमलोग तुम्हारे चाचा की तरह हैं। तब से मैं उन्हें चाचाजी कहकर ही संबोधति करता हूँ। आज कई मायने में उनका मुरीद हूँ। चाचाजी की सबसे बड़ी खासियत यह है कि जीवन में इतनी तरक्की करने और शोहरत हासिल करने के बाद वे आज भी अपनी जन्मभूमि को सीने से लगाए हुए हैं। वर्ना आमतौर पर आदमी तरक्की करने के बाद पिछली जिन्दगी से पीछा छुड़ा लेता है। यदि वह किसी पिछड़े गाँव का हो तो उसकी चर्चा करने से बचता है, अपने को अंग्र्रेज दिखाने से पीछे नहीं हटता। मगर, चाचाजी को अपनी जन्मस्थली बिहार प्रांत के समस्तीपुर जिले के छोटे से गाँव ‘देवध' से बेहद लगाव है। चाचाजी अपनी पुस्तक ‘शिखरिणी' में लिखते हैं, 'मेरा वह 1950 से 1958 के बीच देवध गाँव जो विदापत, नचारी, समदाओन, बटगवनी फाग गाता था या 1962 से 1965 के बीच का वह रेवतीपुर गाँव जो बिरहा, कजरी और बारहमासा गाता था, न जाने कहाँ चला गाया। तब पूरे टोले का जागरण ब्रह्मवेला में बुजुर्गों के प्रभाती-गायन से होता था। जीवन की हर अनुभूति को व्यक्त करने के लिए गीत सेवक की तरह प्रस्तुत थे। दिन हो या रात, संध्या हो या प्रभात ग्रामीण जीवन का हर क्षण गीतमय संगीतमय था। सब कुछ सुर में था, इसलिए बड़ी से बड़ी विपत्ति भी आदमी को तोड़ नहीं पाती थी। गरीबी थी, मगर जीवन का रस इतना प्रबल था कि आर्थिक दरिद्रता को मानसिक संपन्नता बोलने नहीं देती थी। गुलामी के दिनों में गाँव मुक्त था। स्वतंत्रता के बाद गाँव के होठों की हँसी छिन गई, वह शहरों का बेबस गुलाम बनकर रह गया। मेरे मन में बसा गाँव आज भी जिन्दा है, इसलिए मैं गीत लिखता हूँ। उस गाँव ने मुझे कविता की व्यापक शक्ति से परिचय कराया था और सामान्यजनों की तरह ‘कवि' शब्द को उपहास का विषय मानते हुए भी मैंने एकलव्य की तरह कविता की गीत-शक्ति का एकांत संधन किया था।’
कुल मिलाकर आज चाचाजी साहित्य की दुनियाँ में एक आदर्श व्यक्तित्व के रूप में उभरकर सामने आए हैं।
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