आरक्षण वान छाया हुई आरक्षित सभी जलस्रोत भी हो गये आरक्षित है अरक्षित सिर्फ कोमल प्राण कस्तूरी मृगों का। साल -सालों से बँधा जल टू...
आरक्षण
वान छाया हुई आरक्षित
सभी जलस्रोत भी हो गये आरक्षित
है अरक्षित सिर्फ कोमल प्राण
कस्तूरी मृगों का।
साल-सालों से बँधा जल
टूटकर ऐसा बहा है-
कंठ तक पानी गया भर
तपोवन के आश्रमों में।
हाथ में कीचड़-सने कुश
ले खड़े हैं ब्रह्मचारी
लग गए कीड़े विषैले
जाति के कल्पद्रुमों में।
नये पुराने
(अनियतकालीन, अव्यवसायिक, काव्य संचयन)
मार्च, 2011
बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता
पर आधारित अंक
कार्यकारी संपादक
अवनीश सिंह चौहान
संपादक
दिनेश सिंह
संपादकीय संपर्क
ग्राम व पोस्ट- चन्दपुरा (निहाल सिंह)
जनपद- इटावा (उ.प्र.)- 206127
ई-मेल ः abnishsinghchauhan@gmail.com
सहयोग
ब्रह्मदत्त मिश्र, कौशलेन्द्र,
आनन्द कुमार ‘गौरव', योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम'
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आरक्षण
वान छाया हुई आरक्षित
सभी जलस्रोत भी हो गये आरक्षित
है अरक्षित सिर्फ कोमल प्राण
कस्तूरी मृगों का।
साल-सालों से बँधा जल
टूटकर ऐसा बहा है-
कंठ तक पानी गया भर
तपोवन के आश्रमों में।
हाथ में कीचड़-सने कुश
ले खड़े हैं ब्रह्मचारी
लग गए कीड़े विषैले
जाति के कल्पद्रुमों में।
कुंभ के घनपुष्प आरक्षित
सभी आसन सभा के हुए आरक्षित
है अरक्षित सिर्फ कलरव
ज्योति-आराधक खगों का।
है व्यवस्था-सूर्य के रथ में
जुतें बैसाखनंदन
हयवदन के मुंड से हो
अर्चना गणदेवता की।
है व्यवस्था-मानसर पर
मोर का अधिकार होगा
हंस के हिस्से पड़ेंगी
झाड़ियाँ बस बेहया की।
पवन शीतल हुआ आरक्षित
सभी मधुमास भी हो गए आरक्षित
है अरक्षित आदिकवि का छंद
करुणामय दृगों का।
रात हुई है
रात हुई है चुपके-चुपके
इन अधरों से उन अधरों की
बात हुई है चुपके-चुपके।
नीले नभ के चाँद-सितारे
मुझ पर बरसाते अंगारे
फिर भी एक झलक की खातिर
टेर रहा हूँ द्वारे-द्वारे।
मेरे मन की छाप-तिलक पर
घात हुई है चुपके-चुपके।
इक चिड़िया ने आकर कैसे
नीड़ बनाया, देख रहा हूँ
भीतर बाहर कैसे एक
नशा-सा छाया, देख रहा हूँ।
देख रहा हूँ कैसे शह से
मात हुई है चुपके-चुपके।
मेरा उससे परिचय इतना
जितना ओसबिंदु का तृण से
कोई पता नहीं कब जलकण
टूट गिरे सीपी में घन से।
इक हिरना की आँखों में
बरसात हुई है चुपके-चुपके।
ओ मेरी मंजरी
मेरे कंधे पर सिर रखकर
तुम सो जाओ
ओ मेरी मंजरी आम की।
मैं तुममें खो जाऊँ
तुम मुझमें खो जाओ
ओ मेरी मंजरी आम की।
ये पाँवों के छाले
बतलाते हैं, तुमने
मेरी खातिर कितनी
पथ की व्यथा सही है।
पीर तुम्हारी हर लूँ
यह चाहता बहुत हूँ
किंतु कंठ से मुखरित
होते शब्द नहीं हैं।
मेरी शीतल चंदन वाणी
तुम हो जाओ
ओ मेरी मंजरी आम की।
वह भी कैसा सम्मोहन था
खिंचकर जिससे
आये हम उस जगह
जहाँ दूसरा नहीं है।
यह भी क्रूर असंगति
जीनी पड़ी हमी को
घर अपना है, पर अपना
आसरा नहीं है।
बीज बहारों के पतझर में
तुम बो जाओ
ओ मेरी मंजरी आम की।
मेरे कंधे पर सिर रखकर
तुम सो जाओ
ओ मेरी मंजरी आम की।
सावन के अंधो!
कब तक पूरब को पश्चिम का
पाठ पढ़ाओगे?
नंदन कानन को मरुथल की
राह दिखाओगे?
मरी हुई सीपियाँ समय की
कब तक बेचोगे?
गाजर घास अविद्या की
तुम कब तक सींचोगे?
धरती की धड़कन को जानो
सावन के अंधो!
नभ के इंगित को पहचानो
सावन के अंधो!
वट-पीपल के वृक्ष नहीं,
तुम बोन्साई घर के
धूप-हवा से दूर रहे
हो ज्ञान बिना जड़ के।
गौरांगों के गमलों में
मधुमास तुम्हारा है
अंधा-बहरा, पतझर का
इतिहास तुम्हारा है।
पहले तो अपनों को जानो
सावन के अंधो!
फिर जग का उत्कर्ष बखानो
सावन के अंधो!
तम से निकल ज्योति को पाना
शिक्षा की मंजिल
धर्म-सत्य का दीप जलाना
शिक्षा की मंजिल।
रस्सी को जो साँप बताए
ज्ञान नहीं होता
काटे जो भविष्य का तरु
विज्ञान नहीं होता
सारा देश असहमत मानो
सावन के अंधो!
मुक्त करो खुद को नादानो
सावन के अंधो!
चाँद जरा धीरे उगना
चाँद, जरा धीरे उगना।
गोरा-गोरा रूप मेरा।
झलके न चाँदनी में
चाँद, जरा धीरे उगना।
भूल आयी हँसिया मैं गाँव के सिवाने
चोरी-चोरी आयी यहाँ उसी के बहाने
पिंजरे में डरा-डरा
प्रान का है सुगना।
चाँद, जरा धीरे उगना।
कभी है असाढ़ और कभी अगहन-सा
मेरा चितचोर है उसाँस की छुअन-सा
गहुँवन जैसे यह
साँझ का सरकना।
चाँद, जरा धीरे उगना।
जानी-सुनी आहट उठी है मेरे मन में
चुपके-से आया है जरूर कोई वन में
मुझको सिखा दे जरा
सारी रात जगना।
चाँद, जरा धीरे उगना।
संचयन
ऋतुराज एक पल का
बुद्धिनाथ मिश्र
ऋतुराज एक पल का
राजमिस्त्री से हुई क्या चूक,
गारे में बीज को संबल मिला
रजकण तथा जल का।
तोड़कर पहरे कड़े पाबंदियों के
आज उग गया है
एक नन्हा गाछ पीपल का।
चाय की दो पत्तियों वाली फुनगियों ने पुकारा
शैल-उर से फूटकर उमड़ी दमित-सी स्नेह धारा।
एक छोटी-सी जुही की कली
मेरे हाथ आयी और पूरी देह,
आदम खुशबुओं से महमहायी।
वनपलाशी आग के झरने नहाकर
हम इस तरह भींगे कि खुद जी हो गया हलका।
मूक थे दोनों, मुखर थी देह की भाषा
कर गया जादू जुबाँ पर गोगिया पाशा।
लाख आँखें हों मुँदी- सपने खुले बाँटें
वह समर्पण फूल का ऐसा, झुके काँटे।
क्या हुआ जो धूप में तपता रहा सदियों
ग्रीष्म पर भारी पड़ा ऋतुराज इक पल का।
जंगलराज
घटता जाए जंगल
बढ़ता जाए जंगलराज
और हाथ पर हाथ धरे
बैठा है सभ्य समाज।
क्या सोचा था और
हुआ क्या क्या से क्या निकला
फूलों जैसा लोकतंत्र था,
काँटों में बदला।
सोमनाथ से चली अहिंसा
पहुँची होटल ताज।
कहाँ गये वे अश्वारोही
राजा और वजीर
धुँधली पड़ी सभी तेजस्वी
पुरुषों की तस्वीर
खेतों पर कब्जा मॉलों का
उपजे कहाँ अनाज?
क्या भाषा, क्या संस्कृति
अवगुणता का हुआ विकास
पब के बाहर पावन तुलसी-
पीपल हुए उदास।
कड़वी लगे शहद, मीठी
पत्तियाँ नीम की आज!
संक्रांति
ढाल रही खुद को
बल्लू की भाषा में दादी।
खल में कूट-कूट शब्दों को
चिपटा कर देती
अपने गालों में बल्लू की
साँसें भर लेती
देख रही पीछे, बचपन की
आशा में दादी।
अपना क ख मिटा-मिटाकर
ए बी सी लिखती
अनजाने फल-फूलों का
अनुमानित रस चखती
नील कुसुम-सी फबती
घोर निराशा में दादी।
गौरैया-सी पंख फुलाकर
नाच रही घर में
जैसा सुनती, वैसा गाती
बल्लू के स्वर में
गंगाजली डुबोती
नदी विपाशा में दादी।
गृहस्थ
प्राण-प्रतिष्ठा कर दी मैंने
सारे देवों के विग्रह में
फिर भी मूक-बधिर-अंधे बन
वे सब मंदिर में स्थापित हैं।
मैं गंगोत्री से गंगाजल
ला उनका करता हूँ अर्चन
अपने खूँटे की गायों के
घी से करता हूँ नीराजन
फिर भी उनका पलक न झपके
आँखों से ना आँसू टपके
भक्तों की बेचैन भीड़ में
मैं पिसता हूँ, वे पुलकित हैं।
मुझ गृहस्थ को दाना-पानी
जुट जाए तो सफल मनोरथ
कुछ संन्यासी होकर भी
चाहते पालकी, चांदी का रथ
संत-रंग के कलाकार सब
ईश्वर से ज्यादा पूजित हैं।
बैलों के संग सदा सुखी थे
डीजल पीकर मरी किसानी
भूत-प्रेत से ज्यादा डरती
टोपी से मित्रो मरजानी
माटी की मूरतें मौन हैं
चुप हैं सारे देवी-देवा
श्रद्धा के कच्चे धागे पर
चलने वाले लोग व्यथित हैं।
भोले बाबा
सड़क किनारे, बित्ते भर का
टूटा-फूटा खड़ा शिवाला
उसमें कैसे करें गुजारा
देवों के, असुरों के बाबा!
मुकुट नहीं है, बाबा के सिर
काँटेदार धतूरे के फल
या रग्घू के गले बताशे
या फिर राघव के नीलोत्पल।
सड़क किनारे छत्रक जैसा
बेढंगा-सा उगा शिवाला
जहाँ पालते पशु आवारा
मनुजों के, दनुजों के बाबा!
पेट्रो के इस युग में उनके
गंगाजल की माँग नहीं है
इसीलिए बाबा के घर में
देखो भूजी भाँग नहीं है।
सड़क किनारे नित असँख्य
संतानों के संग
सोता है बूढ़ा बेचारा
जीवों-मरजीवों के बाबा!
पाट-पटोरा, सोना-चाँदी
जो भरते हैं औरों के घर
वे देवों के देव स्वयं
रहते मसान में, बने दिगंबर।
सड़क किनारे, बड़े जतन से
विश्वासों पर टिका शिवाला
जहाँ आज डाले हैं डेरा
नंगो के, चंगों के बाबा!
रिश्ता भींग गया
साथ चले जब एक राह पर
दोनों सूखे थे
तय करते दूरियाँ दुबारा
रिश्ता भींग गया।
कदम दो कदम तक थी
केवल बातें ही बातें
रुई हाथ में, सोच रहे
कैसे तकली कातें।
लोगों की टोकाटाकी से
बच-बचकर चलते
पहुँचे जोड़ा ताल
कि कोरा रिश्ता भींग गया।
कभी-कभी गहरी साँसें भी
घनी छाँह देतीं
कौए की ममता कोयल के
अंडे है सेती।
पथ की धूल पाँव से सिर तक
चढ़ी सोनपाँखी
बादल हुआ पसीना
सारा रिश्ता भींग गया।
तन की रीत गाँव में मन के
झूठी लगती है
चोरी की खट्टी अमिया भी
मीठी लगती है।
पार कर गया मरुथल
लेकर सपना सागर का
पानी के कोड़ों का मारा।
रिश्ता भींग गया।
फागुन आया
फागुन आया
फागुन के संग आया है ऋतुराज
हाथों में पुष्पांजलि लेकर
खड़ा हुआ वन आज।
राजा की अगवानी है
मामूली बात नहीं
वे भी पौधे फूले दम भर
जिनकी जात नहीं।
चार दिनों का सिंहासन भी
बड़ा नशीला है
बाँट रहे सबको अशर्फियाँ
बड़े गरीबनवाज।
गोद हिमालय की हो
या हो विंध्य पार का गाँव
कोयल का स्वर एक रंग है
ज्यों ममता की छाँव।
गंगातट की अमराई से
कावेरी तट के
झाऊवन तक एक प्रेम की
भाषा का है राज।
मारे गये हजार बोलियाँ
बोल-बोल कर आप
दरका हुआ दर्प का दर्पण
धन है या अभिशाप!
यहाँ-वहाँ के तोता-मैना
बतियाते खुलकर
तरस गया सुख-दुख बतियाने को
यह सभ्य समाज!
मैं चलता
मैं चलता
मेरे साथ चला करता पग-पग
वह सत्य कि जिसको पाकर
धन्य हुआ जीवन।
मेरे समकक्ष न कोई साधू-संन्यासी
मेरी स्पर्धा सर्वदा स्वयं ईश्वर से है
उसके दर्शन की जरा नहीं चाहत मुझमें
वह कहाँ नहीं है, यही सवाल इधर से है।
मैं जगता
मेरे साथ जगा करती धरती
मावस में चाँद-सितारों से
अधभरा गगन।
जिस दिव्य पुरुष की प्रतिमा को पूजता जगत
वह तो अधिपति का छोटा-सा अभिकर्ता था
भूमिका निभायी उसने मात्र ‘करण’ की थी
कैसे समझाऊँ, कभी नहीं वह ‘कर्ता’ था।
मैं पलता
मेरे साथ पला करता मोती
धर्म का, काम की सीपी में
सम्पुटित नयन।
कर चित्रगुप्त मुर्दाघर का लेखा-जोखा
आँकना मुझे है तेरे वश की बात नहीं
हर पाप-पुण्य में मेरे, था वह साथ रहा
जिसको छू पाने की तेरी औकात नहीं
मैं ढलता
मेरे साथ ढला करता सूरज
फिर उगने को
कर प्रातः का संध्या वंदन।
लाल पसीना
जहाँ गिरा है लाल पसीना।
वह काशी है, वही मदीना।
नाम देश का भले और हो
वह भारत है, ताने सीना।
अनपढ़ और गंवार भले था
गिरमिटिया लोगों का जत्था
तुलसी के रामजी साथ थे
फिर क्यों समझें उन्हें निहत्था।
जहां गये हम, नई भूमि पर
नये सिरे से सीखा जीना।
छोटा है भूगोल भले ही
भारत का इतिहास बड़ा है
नहीं तख्त के लिए आजतक
हमने सच के लिए लड़ा है।
धोखा बार-बार खाया पर
नहीं किसी का है हक छीना।
हम तो अमरबेल हैं, केवल
साँस ले सकें, इतना काफी
खाली हाथ न लौटे साधू-
श्वान द्वार से, इतना काफी।
कभी नहीं आराम लिखा है
सावन हो या जेठ महीना।
राजा के पोखर में
ऊपर-ऊपर लाल मछलियाँ
नीचे ग्राह बसे।
राजा के पोखर में है
पानी की थाह किसे!
जलकर राख हुई पदमिनियाँ
दिखा दिया जौहर
काश कि वे भी डट जातीं
लक्ष्मीबाई बनकर।
लहूलुहान पड़ी जनता की
है परवाह किसे।
कजरी-वजरी, चैता-वैता
सब कुछ बिसराए
शोर करो इतना कि
कान के पर्दे फट जाएँ।
गेहूँ के सँग-सँग बेचारी
घुन भी रोज पिसे।
सूखें कभी जेठ में
सावन में कुछ भीजें भी
बड़ी जरूरी हैं ये
छोटी-छोटी चीजें भी
जाने किस दलदल में हैं
सारे नरनाह फँसे।
निकला कितना दूर
पहले तुम था, आप हुआ फिर
अब हो गया हुजूर।
पीछे-पीछे चलते-चलते
निकला कितना दूर।
कद छोटा है, कुर्सी ऊँची
डैने बड़े-बड़े
एक महल के लिए न जाने
कितने घर उजड़े।
वयोवृद्ध भी ‘माननीय’
कहने को हैं मजबूर।
पूछ रहा मुझसे प्रतिक्रिया
अपने भाषण की
जिसको लिखकर पायी मैंने
कीमत राशन की।
पाँव नहीं धरता जमीन पर
इतना हुआ गुरूर!
हर चुनाव के बाद आम
मतदाता गया छला
जिसकी पूँछ उठाकर देखा
मादा ही निकला।
चुन जाने के बाद हुए
खट्टे सारे अंगूर।
देवदार
जंगल से आया है समाचार
कट जाएँगे सारे देवदार।
देवदार हो गये पुराने हैं
पेड़ नहीं, भुतहे तहखाने हैं
उन बूढ़ी आँखों को क्या पता
पापलरों के नये जमाने हैं।
रह लें वे तली बन शिकारे की
अश्वत्थामाओं में हों शुमार।
घूम-घूम कह गये गड़ाँसे हैं
ठीक नहीं ज्यादा हिलना-डुलना
बाँसवनों ने तो दम साध लिया
बंद हुआ बरगद का मुँह खुलना।
मरी हुई सीप थमाकर लहरें
मोती ले गयी सिंधु से बुहार।
नाप रहा पेड़ों को आराघर
कुर्सियाँ निकलती हैं इतराकर
बिकने को जाएँगी पेरिस तक
नाचेंगी विश्वसुंदरी बनकर।
कौन सुने, ओसों के भार से
दबी हरी दूबों का सीत्कार!
गंगोजमन
और सब तो ठीक है
बस एक ही है डर
आँधियाँ पलने लगीं
दीपावली के घर।
हर तरफ फहरा रही
तम की उलटबाँसी
पास काबा आ रहा
घुँधला रही कासी।
मंत्रणा समभाव की
देते मुझे वे लोग
दीखता जिनको नहीं
अल्लाह में ईश्वर।
नाव जर्जर खे रही
टूटी हुई पतवार
अंग अपने ही कटे
शिवि की तरह हर बार।
हम चुकाते रह गये
गंगोजमन का मोल
रंग जमुना का चढ़ाया
शुभ्र गंगा पर।
बँट रही मुँह देखकर
रोली कहीं गोली
मार गुड़ की सह रही
गणतंत्र की झोली।
बाँटते अंधे यहाँ
इतिहास की रेवड़ी
और गूँगे हम, बदलते
फूल से पत्थर।
फटेहाल भारत ने
फटेहाल भारत ने जब भी
अर्ज किया दुखड़ा।
नई इंडिया ने गुस्साकर
फेर लिया मुखड़ा।
चर्चा उसने जरा चलायी
महँगाई की थी
लगे आँकड़े फूटी झांझ
बजाने उद्यम की।
उसने मुँह खोला ही था
खेतों के बारे में
सौ-सौ चैनल देने लगे
पिछड़ने की धमकी।
मुट्ठी में कसकर मुआवजे के
रुपये थोड़े
अपने खेतों पर बुलडोजर
चलता देख गड़ा।
बहुत किया तप-त्याग
धूप-वर्षा की खेती में
गयी ‘पूस की रात’ न होगा
अब ‘गोदान’ नया।
परदेसी कंपनियाँ आकर
फसल निचोड़ेंगी
ऐश करो मॉलों में जाकर
चीखो मत कृपया।
पिछड़ गये प्रतिभा के बेटे
नये जुआघर में
जिसका ‘उनसे’ तार जुड़ा है
वही हुआ अगड़ा।
देख चुका है ग्राह
मछलियों का अंधा जनमत
कत्लगाह की ओर जा रही
भेड़ों की किस्मत।
सबके हैं प्रस्थान-बिंदु
पर संगम-बिंदु नहीं
तीन कनौजी तेरह चूल्हे-
वालों की ताकत।
मौन रही पूरी पंचायत
बड़े सवालों पर
मामूली प्रश्नों पर
सारा देश लड़ा-झगड़ा।
मस्क्वा नदी के तट पर
इस परी के देश में
कितना भरा है प्यार
भाग्य था मेरा कि देखा
रूप का संसार।
संगमरमर की छबीली
मूरतों के संग
धर हिमानी बाँह
होता सुर्ख गेहुवाँ रंग।
लाल-पीले हो रहे हैं
भोजवृक्ष, चिनार।
बिजलियाँ-ही बिजलियाँ
पाताल रेलों में
उग रहे हैं चांद
वन की नई बेलों में।
बहे मस्क्वा नदी
बाहर मौन, भीतर ज्वार।
फड़फड़ाते होठ पर हैं
मुक्ति के मधु बोल
उत्तरी ध्रुव की हवा भी
उड़े पाँखें खोल।
श्वेत हिम का लाल धरती पर
नया शृंगार।
पीटर्सबर्ग में पतझर
रात-दिन झलते रहे
रंगीन पत्तों से
वृक्ष वे फिर भी रहे
मेरे लिए अनजान!
वे नहीं थे भोजवृक्षों
की तरह अभिजात
मानते थे वे वनस्पति की
न कोई जात।
पत्तियाँ उनकी सभी
होतीं कनेर-गुलाब
घोर पतझर में दिलाते
फागुनी अनुदान।
उड़ रहे हैं फड़फड़ा
इतिहास-जर्जर पत्र
दिख रही पतझार की
आवारगी सर्वत्र।
डूबता दिन चंदगहना
चीड़वन के पार
लड़कियों के सुर्ख
गालों की तरह अम्लान।
उड़ने को तैयार नहीं
चिड़ियाघर के तोते को है
क्या अधिकार नहीं!
पंख लगे हैं, फिर भी
उड़ने को तैयार नहीं।
धरती और गगन का
मिलना एक भुलावा है
खर-पतवारों का सारे
क्षितिजों पर दावा है।
आवारे घन का कोई
अपना घर-द्वार नहीं।
घोर निशा के वंशज
सूरज का उपहास करें
धूप-पुत्र ओस के घरों में
कैसे वास करें।
काँटों में झरबेरी फबती,
हरसिंगार नहीं।
गर्वित था जो कंटकवन का
पंथी होने में
सुई चुभ गई उसे
सुमन का हार पिरोने में।
कुरुक्षेत्र में कृष्ण
मिला करते हर बार नहीं।
चलती रही तुम
मैं अकेला था कहाँ अपने सफर में
साथ मेरे, छाँह बन चलती रही तुम।
तुम कि जैसे चाँदनी हो चंद्रमा में
आब मोती में, प्रणय आराधना में
चाहता है कौन मंजिल तक पहुँचना
जब मिले आनंद पथ की साधना में।
जन्म-जन्मों मैं जला एकान्त घर में
और बाहर मौन बन जलती रही तुम।
मैं चला था पर्वतों के पार जाने
चेतना के बीज धरती पर उगाने
छू गये लेकिन मुझे हर बार गहरे
मील के पत्थर विदा देते अजाने।
मैं दिया बनकर तमस से लड़ रहा था।
ताप में, बन हिमशिला, गलती रही तुम।
रह नहीं पाये कभी हम थके-हारे
प्यास मेरी ले गये हर, सिंधु खारे
राह जीवन की कठिन, काँटों भरी थी
काट दी दो-चार सुधियों के सहारे।
सो गया मैं, हो थकन की नींद के वश
और मेरे स्वप्न में पलती रही तुम।
संचयन
मैथिली कविताएँ
बुद्धिनाथ मिश्र
गरहाँक जीवाश्म
बाबू पढ़ने छलाह- ‘अ’ सँ अदौड़ी ‘आ’ सँ आमिल तें,
ने दौड़ सकलाह ने मिल सकलाह
सौराठक धवल-धारसँ।
जिनगी भरि करैत रहलाह
पुरहिताइ खाइत रहलाह
चूड़ा-दही बान्हैत रहलाह भोजनी,
अगों आ सिदहाक पोटरी
पूजा वला अंगपोछामे।
हम पढ़लहुँ- ‘अ’ सँ अनार ‘आ’ सँ आम तहिया
नहि बुझना गेल जे ई वर्णमाला
पढ़िते खाससँ आम ‘भ’ जाएब।
एहि देसक आरक्षित शब्दकोश में
फूलक सहस्रो पर्याय भेटत
मुदा फलक एकोटा नहि।
बून-बूनसँ समुद्र बनबाक प्रक्रियामे
फँसल हम ओ भूतपूर्व बून
छी जकरा समुद्र कहएबाक
अधिकारसँ वंचित राखल गेल छै।
आब हमर नेना पढ़ि रहल
अछि- ‘ए’ सँ एपुल ‘बी’ सँ बैग, ‘सी’ सँ कैट
आ धीरे-धीरे उतरि रहल अछि
हमर दू बीतक फ्लैटमे बाइबिलक आदम,
आदम क ईव आ ईवक वर्जित फल।
हमरा परदेसकें मात करत बौआक
बिदेस हमर लगाएल आमक
गाछी बाबुओ देखलनि,
बौओ देखलथि मुदा बौआक
लगायल सेबक गाछ
समुद्र पारक ईडन गार्डेनमे फरत
जत’ ने हेतै आमक वास
ने हेतै अदौड़ीक विन्यास।
लिबर्टीक ईव पोति रहल अछि आस्ते-आस्ते
मधुबनीक चित्रित भीतकें।
देसी गुरूजीक एक्काँ-दुक्काँ
सबैया-अढ़ैया आ
गरहाँ जा रहल’ए भूगर्भमे
जीवाश्म बनबा लेल।
चलला गाम बजार
हम ओ कनहा कुकूर नहि
जे बाबू साहेबक फेकल
माँड़े पर तिरपित भ’ जाइ।
हमर आदर नहि करू
जुनि कहू पण्डित, जुनि कहू बाभन
हम सरकारक घूर पर
कुण्डली मारिकें बैसल
ओ कुकूर छी
जकरा महर्षि पाणिनी
युवा आ इन्द्रक पाँतिमे
सूत्रबद्ध केने छथि।
हमर परदादा जहिया
बाध-बोनमे रहै छलाह तहिया बाघ जकाँ
तैनि क’ चलै छलाह।
तहिया गाम छलै दलिद्दरे
मुदा छलै सारिल सीसो।
तहिया गामक माइ-धीकें
दोसरा आँगन जा क’ आगि मँगबामे
नहि छलै कोनो अशौकर्य।
तहिया परिवासँ टोल, टोलसँ गाम
गामसँ जनपद, जनपदसँ राष्ट्र
आ राष्ट्रसँ विश्व-परिवार बनै छलै।
बुढ़-बुढ़ानुस कहै छलाह-
यत्र विश्वं भतत्येक नीडम्!
छाडू पुरना बातकें, बिसरि जाउ
ओ परतन्त्र देसक कुदिन-सुदिन
बिसरि जाए ओ अराँचीक खोइयामे
सैंतल परबल देल जनौ।
आब अहाँ छी परम स्वतन्त्र
वैश्वीकरणक सुनामी
अहाँक चौरा पर साटि रहल अछि
विश्वग्रामक चुम्बकधर्मी विज्ञापन।
एकटा जानल-सुनल अदृश्य हाथ
चटियासँ भरल किलासमे
घुमा रहल छै, ग्लोबकें।
दुनू पैर धेनें टेबुल पर
ग्लोब पर बैसल छै कुण्डली मारि क’
पुरना क्लबक साहेब सभ
आ सहेब्बाक आगाँ बैसल छै
झुण्डक झुण्ड नँगरकट्टा कुकूर।
बदलि दियौ
नवका ‘हिज मास्टर्स वॉयस’क प्रतीक-चिह्न
कुकूरकें एकवचनसँ बहुवचन बना दियौ।
लोकसभासँ शोकसभा धरि
महगू बाजल-
कते महगी आबि गेल छै!
दालि-चाउरमे तँ
आगि लागिए गेल छै।
कथीसँ डिबीया लेसी
मटियाक तेलो
उड़नखटोला भ, गेल।
मुदा मन्त्रीजी नहि मानलनि।
लुंगी उठा-उठा क’ देखबै छथि-
एहि विकासशील अर्थव्यवस्थामे
कते सस्त भ’ गेल छै
लोकक जान-परान
महानुभावक चरित्र
बेनगंन मौगीक शील।
कतेक सस्त भ’ गेल छै
पंडिज्जीक पोथी-पतरा
गोसाउनिक गीत
चिनबारक माटि
आ टीवी चैनलक मौसगर मनोरंजन।
मन्त्रीजी नहि देखा रहल छथि
ओ सुरंग जे लोकसभासँ शोकसभा धरि जाइ छै।
ओ नहि देखा रहल छथि
नीलामी घर
जाहमे मैनोक पात बिकाइ छै
करोड़क करोड़मे!
ओ नहि देखा रहल छथि
बघनखा पहिरने हाथ
जे महानसँ महान योजनाक
मूड़ी पकड़ि क’ सौंसे चिबा जाइ छै।
कुसियारक रस बटैछ सदनमे
आ सिट्ठी फेकाइछ
गामक माल-जालक आगाँ।
लोक माल जकाँ
मरि रहल अछि
कि माल-जाल लोक जकाँ-
से कहब कठिन।
रेड रिबन एक्सप्रेस
रेड रिबन एक्सप्रेस
घूमि रहल अछि चारू दिस
अश्वमेधक घोड़ा जकाँ।
घराड़ी-बरारीक देवालकें
‘आखी’ लत्ती जकाँ छेकने
लाल तिकोनकें
धकिया रहल छै रेड रिबन।
साम्प्रदायिक रामायणक अन्त्येष्टि क’ क’
स्कूलक मास्टरजी चटिया सभकें
पढ़ा रहल छथिन-कामायन।
कोना सात फेराक लपेटसँ उन्मुक्त भ’
यौन-सुख प्राप्त करी-
नवका फुक्कासँ,
ज्ञान द’ रहल छथिन मास्टरजी
बुझा रहल छथिन-डासग्रामसँ, थ्योरीसँ
नहि बुझला पर प्रैक्टिससँ।
मैकालेक बनाओल
स्कूलक चारू कात
कटि रहल छै मेहदीक वंश
बढ़ि रहल छै नागफेनीक बेढ़।
विषवृक्षक छाँहमे
योगक पटिया उनटा क’
यौन-शिक्षा देल जाइछ।
एकटा सांस्कृतिक धूर्ततासँ
कसल जा रहल अछि ब्रह्मचर्यक
समस्त ज्ञानतन्तु।
फगुआ-देबारीसँ बेसी
पुनीत पर्व अछि एड्स दिवस।
नवताक आवेशी डिप्टी साहेबक
वारण्टी आदेशसँ
केराबक अँकुरी-सन
नान्ह-नान्ह स्कूली छात्र-छात्रा
कण्डोमक प्रचार करैत अछि।
मुँह बबैत बाबा-बाबी
सुनै छथि नव भिक्षु-भिक्षुणीक उपदेश।
एकटा कृत्रिम अदंकसँ
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(समाप्त)
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