आदमखोर (कहानी संकलन) संपादक - डॉ. दिनेश पाठक शशि - 18 - शशि पाठक की कहानी : मकड़जाल

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कहानी संग्रह आदमखोर (दहेज विषयक कहानियाँ) संपादक डॉ0 दिनेश पाठक ‘शशि’ संस्करण : 2011 मूल्य : 150 प्रकाशन : जाह्नवी प्रकाशन विवेक व...

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कहानी संग्रह

आदमखोर

(दहेज विषयक कहानियाँ)

संपादक

डॉ0 दिनेश पाठक ‘शशि’

संस्करण : 2011

मूल्य : 150

प्रकाशन : जाह्नवी प्रकाशन

विवेक विहार,

शाहदरा दिल्ली-32

शब्द संयोजन : सागर कम्प्यूटर्स, मथुरा

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मकड़ जाल

श्रीमती शशि पाठक

मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि मेरे द्वारा बोये गये बीज का इतना दैत्याकार वृक्ष बन जायेगा जो अन्य नवपल्लवित वृक्षों को अपने अस्तित्व के नीचे दबा देगा और मैं मूक दर्शक बनी सब देखती रह जाऊंगी। आखिर इसे उखाड़कर फेंकू तो कैसे? उसकी जड़ें इतने गहरे तक समा गई हैं कि ऐसा असम्भव है। अब तो उस पर फल भी आने वाला है। एक ऐसा फल जिसे खाना तो दूर चखना भी जीवन के लिए घातक है।

पर अब क्या हो सकता है। मेरे लाख समझाने पर भी कोई यकीन नहीं करेगा। यकीन करे भी तो कैसे? मैंने ही तो कूट-कूट कर इन लोगों के मन में, मम्मी-पापा व समाज के बारे में, वह सब भर दिया था जिसे सत्य मान, अब ये किसी भी हालत में झुठला नहीं पा रहे हैं।

मेरी बात को एक भारतीय नारी की विडम्बना मान, मुझे लाचार व बेबस जान, मेरे सुसरालियों को दोषी मानते हुए बुरा-भला कह रहे हैं। जबकि हकीकत क्या है, इसका उन्हें पता नहीं।

बर्निंग वार्ड में पड़े-पड़े, साठ प्रतिशत से अधिक जला हुआ मेरा शरीर, पूर्व में लिखे गये मेरे पत्रों को सच सिद्ध करने के लिये पर्याप्त सबूत का कार्य कर रहा है। मैं समझ नहीं पा रही हूँ कि आखिर ये सब हुआ कैसे?

‘‘मैडम, आपकी बैण्डएड करनी है।’’ नर्स की आवाज सुन मेरी विचार श्रृंखला टूट गई। थोड़ी देर में वह बैण्डएड करके चली गई। अस्पताल के नियमानुसार मरीजों से मिलने वालों का आना शुरु हो गया था।

मम्मी-पापा के आने के साथ ही मेरे सास-ससुर, पति व बच्चे भी आ गये। बच्चे दूर खड़े सहमे-से मुझे देख रहे थे। राउण्ड पर आये डॉक्टर ने मुझे देखा-भाला और ‘‘गुड, खतरे की कोई बात नहीं है।’’ कहकर चले गये।

मम्मी-पापा और मेरे सास-ससुर आपस में छत्तीस का आंकड़ा बने बैठे थे। दोनों अपनी-अपनी बात पर अडिग थे।

‘‘इस पर हस्ताक्षर कर दो’’-पापा द्वारा आगे बढ़ाये तलाक के कागजों को घूरते मैंने एक नजर अपने मासूम बच्चों व पति की ओर डाली।

‘‘नहीं, हरगिज नहीं। मैं ऐसा नहीं कर सकती।’’

‘‘मर तो सकती है।’’ पापा ने रुंआंसा होकर कहा। ‘‘अरे इस बार तो अपने नसीब अच्छे थे जो बच गई, वर्ना इन कसाइयों ने तो........।’’

‘‘बस-बस-पापा, इन्हें कुछ न कहें।’’ मैं लगभग चीख पड़ी। मन जाने कैसा-कैसा हो उठा। अपनी ओर निहारती पति की आँखों में देखा, इन आँखों में दूर-दूर तक मेरे अनिष्ट की छाया न थी। उनमें तो अनन्त गहरा सागर, प्यार की हिलोंरें मार रहा था।

सभी के जाने के बाद, मैं फिर अकेली रह गई। विचारों का बवण्डर फिर उठने लगा। पापा-मम्मी के दिलो-दिमाग में अपने पूज्यों के प्रति अविश्वास भरने वाली जड़ मैं ही हूँ। इसको खत्म होना पड़ेगा। पर इसके खत्म होने से क्या इनकी विचारधारा बदल जायेगी। फिर?

एक लम्बी साँस खींच, मैं उन दिनों को कोसने लगी जब यह बीज बोया गया था। छोटी बहन की शादी थी। लड़के वालों की माँग के अनुसार, पापा ने अपनी सामर्थ्य से ज्यादा दिया था। मेरी बहन, मुझसे नौ साल छोटी थी। नौ साल पहले जब मेरी शादी हुई थी तो इतना कुछ नहीं दिया गया था। बस, यहीं से शुरु हो गई मेरे मन की ईर्ष्या और बड़प्पन की होड़।

कभी पत्रों के माध्यम से तो कभी स्वयं पीहर जाकर, ससुराल वालों के नाम पर मैंने पापा-मम्मी को सताना प्रारम्भ कर दिया। कभी पति द्वारा स्कूटर की मांग तो कभी टी.वी. व फ्रिज की मांग बता-बता कर उनका दोहन शुरु कर दिया। न दिए जाने पर अपने सताए जाने की व प्रताड़ना देने की मनगढ़ंत बातें कहती तो पापा आक्रोश से भर उठते। तब वह अपने बच्चों का वास्ता देकर, माँग पूरी करने के लिए उन्हें विवश करती। पापा ने सामर्थ्य न होते हुए भी, कर्जा लेकर, धीरे-धीरे कलर टी.वी. फ्रिज और स्कूटर आदि मुझे खुश देखने की चाह में जुटा दिए। पति व सास-ससुर द्वारा ये सब लाने का कारण पूछे जाने पर, पापा इसे उनका दोहरा व्यवहार समझ कडुआहट भरी मुस्कुराहट से उन्हें देखते और फिर ‘‘अपनी बेटी की खुशी के लिये लाये हैं।’’ कह कर चले जाते।

पर अचानक ही एक दिन यह सब घटित हो गया। मैं सुबह की चाय बनाने के लिए रसोई में घुसी ही थी कि माचिस जलाते ही फूंक से आग की लपटों में घिर गई। पति अभी सो रहे थे तथा सासजी दैनिक कार्यों में व्यस्त थीं। मेरी चीख सुनते ही सभी दौड़े चले आये। मेरे पति तो मुझे बचाने के चक्कर में स्वयं ही झुलस गये।

बाद में पता चला कि गैस का पाइप चूहों ने कुतर दिया था और रेगुलेटर को बन्द न किए जाने के कारण गैस रसोई में भरती रही। उनींदी अवस्था में मैंने किसी भी बात पर ध्यान नहीं दिया था।

यह सब सोचते-सोचते सिर दर्द से बुरी तरह फटने लगा। फफोलों में दर्द की सिहरन-सी हो रही थी सो अलग। मुझे तो अपने किए का फल मिल गया लेकिन इन निर्दोर्षों को उस अपराध की सजा क्यों मिले जिसे करना तो दूर, कभी सपने में भी न सोचा होगा उन्होंने।

धीरे-धीरे मानस पटल पर उन दिनों की याद ताजा होने लगी जब मेरी शादी हुई थी। ससुराल में सभी के स्नेह पूर्ण व्यवहार से मैं अभिभूत हो उठी थी। इसी प्यार-दुलार में मायके की यादें एकदम से भुला बैठी थी। धीरे-धीरे दो वर्ष बीत गये। स्नेहा ने हमारी खुशियों में चार चाँद लगा दिए। यूँ ही हँसी खुशी में दिन बीते जा रहे थे कि इन खुशियों को जमाने की नजर लग गई। जमाने की क्यों? इसे खुद मेरी नजर लग गई। वर्ना ऐसा शैतानी कीड़ा मेरे दिमाग में क्यों कुलबुलाता?

पर अब क्या हो सकता है। इस भंवर से निकलने का कुछ तो रास्ता होगा। यही सब सोचते-सोचते जाने कब नींद ने आ घेरा।

‘‘नहीं, मैं इन कागजों पर हस्ताक्षर नहीं कर सकती।’’

‘‘पर बेटी, तू खुद ही सोच, इन जालिमों ने तेरे साथ कितना बुरा व्यवहार किया है। क्या तू दुबारा इस नर्क में जाना चाहेगी?

‘‘मेरी बात का आप यकीन क्यों नहीं करते, पापा। आप जो सोच रहे हैं वैसा बिलकुल नही है। यह सब गलत है। मुझे किसी ने नहीं सताया। मैं झूठ बोलती थी आपसे, ताकि आप मेरे ऊपर दया करके अधिक-से-अधिक सुविधाएं जुटाते रहें। सच पापा, मैं झूठ बोलती थी आपसे। इस सबकी जिम्मेदार तो मैं स्वयं हूँ।’’

‘‘नहीं, हम मान नहीं सकते। तू बेकार में इन जालिमों का पक्ष लेकर इन्हें बचाने का प्रयास कर रही है। लेकिन हम, इन्हें जेल की हवा खिलाकर ही रहेंगे। क्या हम मर गये हैं जो तू अपने को बेसहारा समझ रही है।’’

पापा की जिद देख अचानक मुझे अपना सारा शरीर सुन्न-सा लगने लगा और आँखों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी। अपनी दयनीय स्थिति पर खुद ही ग्लानि होने लगी। पर इस सबको मेरी भावुकता समझ, पापा मेरे सिरहाने बैठ गये व प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेरने लगे। मेरी निगाहें चारों तरफ अपने पति व बच्चों को खोजने लगीं।

तभी देखा, बाहर यार्ड में मेरे पति स्नेहा की उंगली थामे व युगल को गोदी में उठाये शून्य में निहार रहे हैं।

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28, सारंग विहार,

पोस्ट-रिफायनरी नगर, मथुरा-201006

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रचनाकार: आदमखोर (कहानी संकलन) संपादक - डॉ. दिनेश पाठक शशि - 18 - शशि पाठक की कहानी : मकड़जाल
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रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2011/08/18.html
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