कहानी संग्रह आदमखोर (दहेज विषयक कहानियाँ) संपादक डॉ0 दिनेश पाठक ‘शशि’ संस्करण : 2011 मूल्य : 150 प्रकाशन : जाह्नवी प्रकाशन विवेक व...
कहानी संग्रह
आदमखोर
(दहेज विषयक कहानियाँ)
संपादक
डॉ0 दिनेश पाठक ‘शशि’
संस्करण : 2011
मूल्य : 150
प्रकाशन : जाह्नवी प्रकाशन
विवेक विहार,
शाहदरा दिल्ली-32
शब्द संयोजन : सागर कम्प्यूटर्स, मथुरा
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सीढ़ियाँ चढ़ती धूप
श्रीमती माधुरी शास्त्री
‘‘कुलच्छनी इतना अधिक बोलना तुझे कैसे आ गया?’’ बाबा ने भरे मंडप में अपनी पोती पर हाथ उठा दिया लेकिन उनके मित्र् सामवेदी जी ने बढ़ता हाथ, फौरन जहाँ का तहाँ थाम लिया।
‘‘यह क्या तमाशा है पंडित जी? पढ़ी-लिखी बिटिया पर हाथ उठाते हो?’’ बाबा को कुछ तो समधी की धृष्टता पर और कुछ लक्ष्मी के बड़बोलेपन पर गुस्सा आ रहा था।
तभी मिसिर जी अपनी कुर्सी से उठकर इन दोनों के पास चले आये और समझौता कराने की मुद्रा में बोल उठे ‘‘पं. जी जरा बिटिया से भी तो पूछ कर देखलो, आखिर वह चाहती क्या है। उसने इस नये युग में आँख खोली हैं तो उसकी राय भी जान लेना जरुरी है।’’
अभी ये लोग आपस में बातचीत कर ही रहे थे कि तब तक लक्ष्मी ने धरती पर पड़ी बाबा की टोपी तथाकथित ससुर के पैरों के पास से उठा ली। वह उस टोपी को लेकर ऐसे खड़ी हो गई जैसे टोपी, टोपी न होकर बाबा का लहुलुहान सर ही हो। लक्ष्मी की आँखें, बाबा की विवशता और होने वाले ससुर की लालची ङ्क्त.ति को देखकर लाल हो उठीं।
अच्छा ही हुआ कि भांवरे नहीं पड़ीं, उससे पूर्व ही इन लोगों की असलियत का पता चल गया। वर्ना........। बाबा को अपनी ओर देखते, देख लक्ष्मी तपाक से बोल उठी...... बाबा, इन सबसे कह दीजिए की .पा करके अपने-अपने घरों को जाएं। मुझे शादी ही नहीं करनी। कम से कम इससे तो बिल्कुल नहीं। इनके घर में कदम रखने से पहले मैं आपकी देहरी पर ही मर जाना ज्यादा पसंद करुँगी।’’ पं. जी का क्रोध अब तक थोड़ा शांत हो चुका था। भरत और लक्ष्मण जैसे उनके दोनेां मित्र् दुःख-सुख में साथ जो थे।
‘‘बेटी, इतनी सब तैयारियाँ, और उस पर इतने मेहमान........।
बाबा और लक्ष्मी में थोड़ी देर तक विचार-विमर्श चलता रहा। लक्ष्मी जिद पर अड़ गई थी कि अब मैं इनके साथ हर्गिज शादी नहीं कर सकती। आप नहीं जानते बाबा, मुझे औरों की चिन्ता की बजाय अपना भविष्य अधिक प्यारा है।’’
.........आप यही चाहते हैं न कि मेरा इसी मुहूर्त में शादी हो, ठीक है, आप थोड़ा सा रुकिये मैं अभी आती हूँ।’’
लक्ष्मी वहाँ से उठकर किसी भी उचित पात्र् को तलाशती रात्रि भोज की तैयारी में व्यस्त किशन के पास जा खड़ी हुई। उसने विशन को आवाज दी। हाथ में दही का पीपा लेकर खड़े विशन ने जब लक्ष्मी को अपना नाम पुकारते सुना तो जल्दी से लक्ष्मी के पास आ खड़ा हुआ और बोला- ‘‘जी कहिए।’’
विशन लक्ष्मी के जान-पहचान का एक कुलीन युवक था। जिस स्कूल में वह एम.ए. बी.एड़ करके बच्चों को पढ़ाती थी उसी स्कूल में विशन अभी-अभी चपरासी लगा था। उसके आकर्षक व्यक्तित्व, उठने-बैठने का सलीका, बोल-चाल की भाषा, सभी उसके अच्छे संस्कार का बोध कराती थी। जिन्दगी में कुछ बन पाने की लालसा उसके रोम-रोम में समाई थी। फिर भी वह अपने वर्तमान से संतुष्ट था। लक्ष्मी ने थोड़ी देर उससे बातचीत की उसे समझाया-बुझाया। लक्ष्मी की बात सुन विशन अवाक् सा रह गया। न तो उससे हाँ कहते बना और न ना ही। वह लक्ष्मी की इज्जत करता था। इसलिये चुपचाप मौन, सिर झुकाए खड़ा रहा। उसे लगा जैसे उससे मजाक की जा रही हो।
लक्ष्मी ने पुनः पूछा ‘‘विशन तुम्हें कोई ऐतराज तो नहीं है?’’ विशन ने सिर हिला दिया। तो ठीक है चलो मेरे साथ। लक्ष्मी विशन का हाथ पकड़ कर पुरोहित जी के सामने आ खड़ी हुई और बोली-‘‘पुरोहित जी! शादी की रस्म शुरू करिए।’’
मंत्रेच्चार से विवाह मण्डल पुनः गूंज उठा। बाबा यह सब दृश्य देखकर दुःखी हो उठे। उन्होंने भर्राये गले से कहा-बेटी, यह तेरा कैसा निर्णय है? तू इतनी पढ़ी-लिखी और यह मैट्रिक पास। आज तेरा बाप जिन्दा होता तो क्या तेरी ऐसी मनमानी चलने देता?
‘‘दुःखी मत हो बाबा। मुझे मालूम है कि आगे की जिन्दगी में मुझे बहुत संघर्ष करने पड़ेंगे। लेकिन उन लालचियों के घर में मुझे जितनी अङ्क्तिय वेदनांए सहनी पड़तीं उससे तो इस ङ्क्तिय वेदना को सहना ज्यादा सरल रहेगा। मेरा उस तय किए रिश्ते से विश्वास उठ चुका है। मैं वहाँ किसी भी हालत में सुखी नहीं रह पाऊँगी, अच्छा ही हुआ कि फेरों से पहले ही उनका असली स्वरुप सबके सामने आ गया। वर्ना जीवन भर पछताना पड़ता और क्या पता मैं जिन्दा भी बच पाती या.....
‘‘ऐसी कुभाषा मत बोल बिटिया...........।’’
बाबा मैंने जो भी निर्णय लिया है वह भविष्य में समाज की कसौटी पर खरा ही उतरेगा। विश्वास कीजिये। आपकी बेटी कभी दुःखी नहीं रहेगी।
आपने इतना पढ़ाया-लिखाया है इसलिये बाजुओं में ताकत है। विशन में जो-जो गुण हैं वह सिर्फ मैं ही जानती हूँ, दूसरा कोई नहीं। आप निश्चित रहें। भविष्य की चिन्ता अब आपकी नहीं, मेरी है। मेरे इसी निर्णय को आप तन-मन से स्वीकारें।’’
अपने मित्रें, सामवेदी जी, पुण्डरीक जी और मिसिर जी के हस्तक्षेप में बाबा चुप बैठे रहे। हमेशा ङ्क्तसन्नचित रहने वाले बाबा आज अचानक अनहोनी घटनाओें को देखकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहे थे उनकी आँखों का बाँध पूरी तरह से टूट चुका था। बेटी दामाद के पैर उन्होंने जल से धोने के बजाय आँसुओं से धोये। विदाई की घड़ी आ गई। बाबा का कलेजा विछोह की पीड़ा से फटा जा रहा था।
विदा होकर लक्ष्मी विशन के घर आ गई। घर पर विशन की एक छोटी-बहन के अलावा और कोई नहीं था। बहिन केतकी मात्र् नौ साल की थी। भाभी को पा बहुत खुश हुई। लक्ष्मी ने उसे प्यार किया फिर पूरे कमरे का निरीक्षण करने लगी। कुछ विचार आ जाने पर उसने विशन को आवाज दी-‘‘सुनो!’’
दूसरी तरफ से आवाज आई-‘‘जी कहिए।’’
लक्ष्मी ने ज्योंही अपने लिए ‘‘जी’’ शब्द का संशोधन सुना उसका माथा ठनक उठा। सोच के सागर में डुबकियाँ लगाने लगी। उस सोच की तली में कर्मठता की सिपियां भरी पड़ी थीं जिन्हें धैर्य और विवेक के साथ एक-एक चुनकर उन्हें समाज के लिये चुनना था। विशन उसके सामने आ खड़ा हुआ। उसकी मुख मुद्रा से ऐसा भान हो रहा था। वर्षों से ऐसा ही अभ्यास जो पड़ा हुआ था। अपने सामने विशन को हाथ बांधे खड़ा देखकर लक्ष्मी ने मुस्कराते हुए कहा-‘‘मुझे आपसे कुछ विचार-विमर्श करना है। मैं चाहती हूँ कि मैंने जो भी कदम उठाया है उसके लिए मुझे भविष्य में लज्जित न होना पड़े। बस आपके सहयोग की आवश्यकता पड़ेगी, और हाँ-मुझे सहयोग देने की पहली शर्त यह है कि आज से ही मुझे ‘‘जी’’ कहना छोड़ दें। मैं अब स्कूल की मास्टरनी नहीं बल्कि आपकी व्याहता पत्नी हूँ और मेरा नाम लक्ष्मी है।’’ विषय को बदलते हुए उसने पूछा-आपने एक बार स्कूल में कभी जिक्र किया था कि आपका गाँव में एक अपना घर भी है।’’
विशन ने सकुचाते हुए कहा- ‘‘जी’’ है तो, लेकिन वह आपके रहने लायक नहीं है।
‘‘पुनः अपने लिए ‘‘जी’’ सम्बोधन को सुनकर लक्ष्मी समझ गई कि विशन के दिल से मास्टरनी वाली इमेज निकाल पाना शीघ्र संभव नहीं हो पाएगा उसके लिए समय लगेगा।
‘‘ठीक है, मकान तो अपना है, जैसा भी होगा गुजारा कर लेंगे। सोचती हूँ कि अब इस शहर को छोड़ देना चाहिए। लक्ष्मी की बात सुनकर विशन ने पूछा-‘‘वहाँ क्यों। यहाँ आपकी और मेरी नौकरी है, गाँव में तो कुछ भी नहीं। खाएंगे क्या?’’
लक्ष्मी के मन में एक हल्की सी कचोट थी, वह नहीं चाहती थी कि उसके इस निर्णय की तरफ कोई भूलकर भी अंगुली उठाए, समय एक ऐसी औषधी है जिससे बड़े-बड़े घाव भर जाते हैं। आँखों से दूर रहूँगी तो बाबा के मन की कसक भी धीरे-धीरे मिट जायेगी और कोई यह भी न कहेगा कि लक्ष्मी ने एक साधारण कर्मचारी से शादी कर ली। उसने मन में एक ङ्क्ततिज्ञा की कि जब तक वह विशन को ‘‘विष्णु कुमार शर्मा’’ नहीं बना लेती तब तक वह इस शहर में नहीं लौटेगी।
‘‘अरे भौजी, आज तो विशना के घर में बत्ती जल रही है, का विशना गाँव लौटि आवा?’’ रामदुलारी ने अपनी जिठानी सरबतिया से पूछा। इस पर सरबतिया ने कहा-तोहका पता नाहीं का बहुरिया, अरे अपना विशना शहर में मास्टरनी बहुरिया ब्याह के लावा है।
एक मुँहफट लड़की देवकी बोल उठी-‘‘दोनों में कोई परेम, अरेम का चक्कर चलिगा होई। नई तो ऐसन झेंपू और गूंगे से भला कौन बिहाय चलाई?’’ देवकी की बात कहने के अंदाज से सभी हँस पड़ीं तो कुछ अपने काम में लगीं रहीं।
तभी उनमें से एक बड़ी बूढ़ी औरत बोल उठी-‘‘अरी ओ लुगाइयों, बातों की ही कुचुर-कुचुर करती रहोगी या विशना की लुगाई का जा के हाल चाल भी पुछिहा? अरे मास्टरनी है तो का हुआ, है तो गाँव की बहुरिया जाके तनिक मिलो जाइ के, नई-नई आई है कुछ मदद वदद करो।’’
बुढ़िया की बात में दम था, इसलिये सभी की हँसी दिल्लगी थम गई। सब पानी भर-भर कर अपनी-अपनी राह होलीं। कुछ दिनों के अन्दर ही गाँव की बड़ी-बूढ़ियों से लेकर छोटी-मोटी तक विशना की बहुरिया से मिल आईं।
वर्षों से बंद उसे सूने घर में फिर से रोशनी लौट आने से जहाँ सभी कौतूहल से वशीभूत हो रहे थे, वहीं रामदेई बुढ़िया जो विशना और दादी के जमाने की थी, विशना के पिता को फलता-फूलता देख चुकी थी और धीरे-धीरे उजड़ता भी। आज उसी के घर पर फिर से रौनक देख उसके हृदय में खुशी फूली नहीं समा पा रही थी। इसी भावना के वशीभूत हो उसने गाँव की सभी औरतों को विशना की बहुरिया की मदद करने की बात कह डाली थी।
गाँव के कायदे के अनुसार लक्ष्मी ने सिर पर पल्लू डालकर मिलने आने वाली सब चाची ताइयों, जिठानियों और ननदों के पैर छूए। मिठाइयों से उनका स्वागत-सत्कार किया। लक्ष्मी मन में यह अच्छी तरह से जानती थीं कि अब मुझे इसी गाँव में रहना है तो सबसे पहले नारी जाति के मन को जीतना होगा तभी बेड़ा पार हो पायेगा। इन औरतों से मिलते मिलाते रहने से गाँव की सही स्थिति का भी पता चल जायेगा। इसलिये वह दिल खोल कर उन सबको आदम सम्मान देती रही। लक्ष्मी अब उस गाँव की चहेती बन गई थी। सभी उसके गुणों पर रीझते थे। उसने बाबा के घर (मंदिर) में गाये जाने वाले भजन-कीर्तन उसके बहुत काम आये। बड़ी बूढ़ियों के आग्रह पर वह कभी-कभी उन्हें भजन गाकर सुना दिया करती थी, सभी उसकी गायन कला पर मुग्ध थीं।
इसी ङ्क्तकार धीरे-धीरे समय खिसकता रहा। एक दिन रामाधीन की दाई (दादी) को साथ लेकर लक्ष्मी गांव के सरपंच और मुखिया के घर गईं। लक्ष्मी ने बड़ी ही विनम्रता के साथ सरपंच के पैर छूकर अपना मंतत्व ङ्क्तकट किया। शहर की बेटी की इतनी नम्रता, शालीनता और दबा ढकापन देखकर सरपंच भाव-विभोर हो उठे। मन में सोचने लगे-नाहक ही लोग मन में वहम पाले रखते हैं कि पढ़ाई लिखाई से आदमी उजड्ड गर्वीला और मुँहफट हो जाता है। आज समझ में आया कि पढ़ने से आदमी इंसान बनता है। लक्ष्मी से ङ्क्तभावित होकर सरपंच बोला-‘‘बेटी तू चाहती है न कि इस गांव में ङ्क्तौढ़ शिक्षा केन्द्र खुल जाये। ......समझो खुल गया ........मैं तेरी हर तरह से मदद करुँगा। ........तेरे पास गुण भी है साथ में अनुभव भी है। मुखिया और सरपंच दोनों से आश्वासन पा, खुशी-खुशी लक्ष्मी घर लौट आई। उस दिन उसका मन ङ्क्तसन्नता से आकाश की ऊँचाईयों को छूता रहा।
विशन के घर के आगे बहुत बड़ा मैदान पड़ा था, किसी जमाने में उसके पिता उस जमीन में साग-सब्जियां उगाकर छोटी सी गृहस्थी का अच्छी तरह से निर्वाह कर लिया करते थे। उसकी धाक पूरे गाँव में थी। सुख-दुःख में सबकी मदद करने के लिये वह सदा आगे से आगे रहते थे। ऐसे भावुक इंसान पर खुदा ने जब वज्र गिराया तो वह मानसिक संतुलन खो बैठे। केतकी के जन्मते ही राधिका के ङ्क्ताण पखेरु उड़ गये थे। उस नवजात कन्या को रोता छोड़ वह चली गयी। विशना के पिता की मनः स्थिति दिन पर दिन बिगड़ती चली गई। उसी पागलपन के दौरे में एक रात वह दस साल के विशना को और दो माह की केतकी को छोड़कर न जाने कहाँ चला गया। फिर विशना गाँव छोड़कर शहर चला आया। शहर में रहते-रहते वह इतना बड़ा हो गया था। हादसों ने उसे असमय ही गम्भीर और विवेकी बना दिया था। जिसके घर वह रहता था उसी ने विशना से भरपूर काम भी लिया और मेट्रिक तक पढ़ाकर अपने ही स्कूल में सरकारी नौकरी दिला दी थी।
उसी मैदान को लक्ष्मी ने साफ-सफाई करवाकर एक स्कूल का रूप दे दिया था। बड़ के वृक्ष पर काला बोर्ड टंग चुका था। गेट पर स्कूल का नाम ‘‘आपकी पाठशाला’’ एक मेज, चार कुर्सियाँ, पचासोें स्लेंटें। रंग-बिरंगी पुस्तकें और बड़ी-सी रंगीन दरी जमीन पर बिछी हुई थीं। रोज शाम को स्कूल लगता। कुछ दिनों तक तो लोग वहाँ आने में शरमाते लेकिन धीरे-धीरे ङ्क्तौढ़ शिक्षा केन्द्र अच्छी तरह से चल निकला। लक्ष्मी का सपना साकार हो उठा। मास्टर वी.के. शर्मा और मास्टरनी लक्ष्मीबाई दोनों ही मिलकर उस स्कूल को सफलतापूर्वक चलाने लगे। अब विशना को लोग मास्टर जी के ही नाम से जानने लगे थे।
स्कूल से अवकाश मिलते ही लक्ष्मी विशना की ओर भी ध्यान देती थी। लक्ष्मी की तपस्या और विशना की लगन धीरे-धीरे रंग लाती रही। आज विशना शहर से एम.ए. अर्थशास्त्र् की परीक्षा देकर लौट रहा था। लक्ष्मी का हृदय खुशी से बल्लियों उछल रहा था। वह भविष्य की ओर भी सुन्दर योजनाओं में खो गई। पति को अब किसी ऊँचे ओहदे पर बैठाने का आखिरी कार्य शेष बचा था। दो-दो स्कूल भी उस निरक्षर गाँव में चल निकले थे। अब तो केतकी भी अपने भाई-भाभी के कार्यों में हाथ बंटाने लगी थी। जिन्दगी की सारी शुरुआती परेशानियाँ लक्ष्मी ने हँसते-मुस्कुराते पार कर ली थीं। उसके सपनों को सत्य रूप देने में विशना ने भी पूरी-पूरी तपस्या की और अपना योगदान दिया। लक्ष्मी हृदय से उसका आभार मान रही थी।
आज उस गाँव का बच्चा-बच्चा तक साक्षर था। जो गाँव किसी जमाने में ‘‘अंगूठा छाप’’ के नाम से जाना जाता था आज उसी गाँव केा साक्षरता का पुरस्कार मिलने वाला था। सभी लक्ष्मी और विष्णु कुमार की तारीफों के पुल बाँध रहे थे। सबसे ज्यादा ङ्क्तफुल्लित सरपंच जी ही दिखाई दे रहे थे। खुशनुमा माहौल में भी लक्ष्मी का मन न जाने कहाँ चला गया। अचानक वह उदास हो उठी - ‘‘काश आज बाबा जिंदा होते।’’ उसकी डबडबाई आँखों की कोरों से टपके अश्रुबिन्दु धरा का चुम्बन कर श्रमबिन्दु में विलीन हो गए। ’’’
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सी-8, पृथ्वीराज रोड,
जयपुर - 302 005
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