जैसा कि अति बुद्धिमान पुरुष और अति सौन्दर्यवान महिलाएं जानती होंगी कि मैं एक अत्यन्त विनम्र पुरुष हूं। मेरी विनम्रता अकारण है। जब दे...
जैसा कि अति बुद्धिमान पुरुष और अति सौन्दर्यवान महिलाएं जानती होंगी कि मैं एक अत्यन्त विनम्र पुरुष हूं। मेरी विनम्रता अकारण है। जब देश पर संकट आया मैंने देश की सेवा की और मौन रहा। मेरे मित्रों, परिचितों का यह पुनीत कर्तव्य है कि वे मेरी इस मौन सेवा का प्रचार-प्रसार करें। आशा हैं कि वे मुझे निराश नहीं करेंगे। सच पूछा जाये तो मेरा कार्य भारतीय इतिहास में स्वर्णांक्षरों में लिखा जाना चाहिए। लेकिन व्यंग्यकारों के साथ सदा से यह दुर्भाग्य रहा। वैसे भी प्रेस में सब मैटर काला हो जाता है और यह लेख भी काला ही छपेगा․․․․स्वर्ण नहीं।
बन्धु इस अत्यन्त लघु लेकिन साहित्य में लघुमानव की तरह आवश्यक भूमिका के बाद मूल और महत्वपूर्ण प्रश्न की ओर आपका ध्यान आकर्षित करता हूं। आज देश के सामने समस्या है डाकू उन्मूलन की ओर मैं इसमें योगदान कर रहा हूं।
प्रश्न यह है कि डाकुओं के आत्मसमर्पण का श्रेय किसे दिया जाए, पुलिस को,मुझे या सर्वोदय वालों को। कुछ लोग डाकुओं के समर्पण का श्रेय फिल्म वालों को देना चाहते हैं और मुझे इसमें गम्भीर एतराज है। फिल्म वालों के पास और भी कई काम हैं, जबकि समर्पण का महान राष्ट्रीय कार्यक्रम मेरे बिना सम्भव नहीं था। चूंकि यह बहस राष्ट्रीय स्तर पर हो रही है, अतः मेरी मांग है कि समर्पण का श्रेय मुझे और केवल मुझे दिया जाए।
उस दिन रात को मैं घर की तरफ नंगे पांव आ रहा था। एक गोष्ठी में मेरी रचना पर काफी हंगामा हुआ था मैं इसी में मगन बढ़ा चला जा रहा था कि अचानक तीन नकाबपोशों में मुझे घेर लिया।
मैं डरा। उनमें से एक बोला। ‘‘डरने की जरूरत नहीं है व्यंग्यकार जी।'' हम तो एक ही बिरादरी के हैं। आप साहित्य की चोरी करते हैं और हम समाज की ओर आप जानते ही होंगे कि साहित्य समाज का दर्पण है।''
मैंने सोचा यह कोई प्रतिभावान नवोदित था जो बाद में डाकू बन गया। मैंने डाकूजी को प्रणाम किया और घिघियाया।
‘‘तो क्या आप मेरा अपहरण करेंगे।''
‘‘अरे राम भजो, कसम चम्बल की, आज तक कभी किसी लेखक का अपहरण किया हो तो, हमारा भी आखिर दीन-इमान है कि नहीं बोला है कि नहीं ?''
‘‘हां․․․․हां․․․․है क्यों नहीं।'' मैं फिर रिरियाया। फिर हिम्मत करके मैंने पूछा ‘‘कहिए डाकूजी क्या सेवा कर सकता हूं।''
‘‘सेवा तो तुम बहुत कर सकते हो। हमारा एक इन्टरव्यू छाप सकते हो।''
‘‘लेकिन डाकूजी इन सम्पादकों को नेताओं के इन्टरव्यू से ही फुरसत नहीं मिलती।''
‘‘कौन सम्पादक है, जरा नाम पता बताओ। प्रेस सहित तुम्हारे कदमों में ले आयेगे। ससुरा फिर काहे नाहीं छापेगा। उन्होंने गब्बराना अन्दाज में कहा।
मैंने उन्हें मना किया और भाइयों, भारतीय साहित्य की खातिर उन्होंने यह काम नहीं किया। है न मेरा साहित्य में ठोस योगदान। लेकिन अकादमी माने तब न․․․․।
डाकूजी आगे बोले।
‘‘तुमसे कुछ बात करनी है। या हम लोग डाके डालकर परेशान हो गये हैं। अब कुछ शान्ति से बैठकर भजन कीर्तन करना चाहते हैं। तुम बुद्धिजीवी हो, बताओ कैसे शुरू करें।''
‘‘अजी डाकू भाई साहब जी, आप मेरी क्यों इज्जत बढ़ा रहे हैं, मैं तो मामूली लेखक हूं, सम्पादक भी घास कम ही डालते हैं। इधर-उधर लिखकर पेट पालता हूं।
‘‘अरे भाई इस भाषण की जरूरत नहीं है। हमें तुम और कोई काम बताओ।'' डाकूजी ने आंखे तरेरते हुए कहा।
मैं सकपकाया और धीमे स्वर में बोला ''अब जब आप मेरी सेवाएं लेना ही चाहते हैं तो यही यही।''
मेरी यह कमजोरी है कि कोई सलाह मांगता है तो दे देता हूं अपने बाप का क्या जाता है। कई बार बिना मांगे भी दे देता हूं। यदि देश मेरी सलाह पर चलता तो पता नहीं आज कहां होता․․․․․․․․․․खैर इस बात को छोडिए․․․।
‘‘देखिये डाकूजी आपके धन्धे में कमाई ही कमाई है।'' मैंने फिर कहा।
‘‘क्या․․․․․कमाई․․․․अरे यार आधा तो पुलिसिए ले जाते हैं। कारतूस बन्दूक ब्लैक में लेने पड़ते हैं। गेंग के सभी लोगों को बांटना पड़ता है, फिर बचता ही क्या है।''
‘‘तो फिर आप लोग नौकरी कर लें। ग्रेड ठीक हो गए हैं। वेतन में आजकल डी․ए․ मिला होना से ठीक-ठीक रकम बन जाती हैं। आप कहें तो किसी दफ्तर में बात करूं।
‘‘क्या बकवास करते हो। अब हम दफ्तर में नौकरी करेंगे ? कोई दूसरा काम बताओ।''
‘‘तो आप ऐसा करें घाटी को छोड़ दें और समाज में आ जाएं। यहां पर शरीफ के रूप में सफेद कालर पहन कर रहिये। लूटने के ऐसे ऐसे धन्धे हैं कि बस क्या कहने।'' आपको उदाहरण दूं। स्मगलिंग ब्लैक मार्केटिंग, कोटा, परमिट, तबादला, नियुक्ति आदि के मामलों में आप लाखों पीट सकते हैं।
‘‘अच्छा ऐसी बात है ? तब तो मजा आयेगा, लेकिन ये सब कैसे होगा ?''
और सुनिये, फिर आपको पुलिस से भागने की जरूरत भी नहीं रहेगी। आप चाहें तो क्षेत्र में आपका ही राज रहेगा।
‘‘हमें राज नहीं चाहिए। राज तो हमने बहुत कर लिया।''
‘‘आप तो बस समाज में आ जाइये। समाज को आपकी अत्यन्त आवश्यकता है।''
‘‘तो आप लोग अब आत्म-समर्पण कर दें। मैं मुख्यमन्त्री से बात कर आपको समाज में स्थापित करने की कोशिश करूंगा।
किसी अपरिचित पुलिस वाले को आता देखकर वे खिसक लिए और मैं उस पुरस्कार से वंचित रह गया जो कि उनके सिर पर था।
एक महान समर्पण रह गया। फिर भी डाकू इतिहास में मेरे योगदान का आप अवश्य उल्लेख करेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है, क्योंकि भारतीय कहीं से भी हारकर आते हैं तो भी उनका इतिहास में उल्लेख होता ही है।
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"...वैसे भी प्रेस में सब मैटर काला हो जाता है और यह लेख भी काला ही छपेगा․․․․स्वर्ण नहीं..."
जवाब देंहटाएंहा हा हा... पर, निश्चिंत रहें आपके लिखे व्यंग्य स्वर्णिम आभा लिए होते हैं - मारक!
keya lekha hai aap ne jabbab nahe hai
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