प्रमोद भार्गव का आलेख - लोकपालः अब विपक्ष की बारी

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आखिरकार सरकार ने जन आकांक्षाओं के विपरीत लोकपाल विधेयक के मसौदे को मंजूरी दे दी। मसौदा सामने आने के बाद सब जान गए हैं कि यह विधेयक नख-दंत व...

आखिरकार सरकार ने जन आकांक्षाओं के विपरीत लोकपाल विधेयक के मसौदे को मंजूरी दे दी। मसौदा सामने आने के बाद सब जान गए हैं कि यह विधेयक नख-दंत विहीन है और इसके आने अथवा नहीं आने से भ्रष्‍टाचार पर कोई असर पड़ने वाला नहीं है। हालांकि केंद्र से ऐसा ही प्रारूप लाए जाने की उम्‍मीद थी। अब विधेयक संसद में पेश होना है, इसलिए इसके कानूनी रूप में तब्‍दील होने से पहले विपक्ष की अग्‍नि परीक्षा का समय आ गया है। क्‍योंकि सरकार को विधेयक पारित कराने के लिए विपक्षी दलों की राजनीतिक सहमति और बहुमत की जरूरत पड़ेगी। लिहाजा जिन मुद्‌दों पर अब तक खासतौर से भाजपा और वामदल असहमति जताते चले आ रहे हैं, उन पर संसद में वे क्‍या रूख अपनाते हैं, स्‍पष्‍ट होगा। अब उनके पास निर्लिप्‍त बने रहने के अवसर समाप्‍त हो चुके हैं। अब उन्‍हें दो टूक राय देनी होगी कि लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री, न्‍यायपालिका, संसद के भीतर सांसदों की कार्यप्रणाली और नौकरशाह आएं अथवा नहीं ? मजबूत लोकपाल मंजूर हो इसके लिए विपक्ष को जन-भवनाओं के अनुरूप कमर कसनी होगी। हालांकि अन्‍ना हजारे अनशन पर जाकर लोकपाल के पक्ष में देशव्‍यापी माहौल बनाएंगे, इसमें कोई दो राय नहीं है, लेकिन लोकपाल को कानूनी रूप में ढालने में तो आखिकार राजनीतिक दल और उनके सांसदों की ही निराकार भूमिका काम करेगी।

सरकार कमजोर लोकपाल लाकर और फिर अन्‍ना के अनशन में कांटे बिछाकर अपने ही पैरों में कुल्‍हाड़ी मारने का काम कर रही है। जंतर-मंतर पर अन्‍ना के बैठने पर प्रशासनिक अड़चनें डालने से तय हो गया है कि कांग्रेस धृतराष्‍ट्र की भूमिका में है। भ्रष्‍टाचार के चलते भले ही देश कंगाल हो जाए, लेकिन उस पर असरकारी रोक के लिए हम छदाम भर भी अंकुश नहीं लगाएंगे। एक मजबूत व कारगर लोकपाल की जरूरत सरकार के लिए अलोकतांत्रिक और षड्‌यंत्रकारी लग रही है। इसलिए वित्त्‍ामंत्री प्रणव मुखर्जी ने कुछ समय पहले सामाजिक कार्यकर्ताओं को चेतावनी देते हुए कहा था, कि ये लोग लोकतांत्रिक संस्‍थाओं पर काबिज होना चाहते हैं। संवैधानिक व्‍यवस्‍था को ध्‍वस्‍त करना चाहते हैं। गैर प्रजातांत्रिक तरीके से शासन-प्रशासन में हस्‍तक्षेप करना चाहते हैं। ये मंसूबे घृणित व षड्‌यंत्रकारी हैं। इन्‍हें पूरा नही होने दिया जाएगा। शायद इसी क्रम में अन्‍ना को दिल्‍ली में अनशन करने से रोकने के लिए दिल्‍ली पुलिस ने सर्वोच्‍च न्‍यायालय के 2009 के उस आदेश को आधार बनाया है, जिसके मुताबिक संसद का सत्र चलने के दौरान जंतर-मंतर समेत दिल्‍ली में कहीं भी बेमियादी धरना प्रदर्शन की इजाजत नहीं है। इस आदेश के औचित्‍य को सही नहीं ठहराया जा सकता, क्‍येांकि यह वह सुनहरा अवसर होता है जब जनांदोलनों की आवाज सासंदों के कानों में आसानी से पहुंचाई जा सकती है। यह बाधा संविधान सम्‍मत मिली अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता पर आधात करने वाली है। खुद न्‍यायालय को इस आदेश को वापिस ले लेना चाहिए।

यदि सरकार लोकतांत्रिक तरीके से विरोध जताने के अधिकार का हनन और जनता की आवाज दबाने की कोशिश करेगी तो अपयश की भागीदार बनेगी। जिसके निकट भविष्‍य में परिणाम कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों को भोगने होंगे। हालांकि सरकार का रूख व रवैया दमनकारी ही लग रहा है। विपक्षी ऐसे में अपनी स्‍पष्‍ट राय और बुलंद समर्थन देते हैं तो वे लोकपाल की देन को दीर्घकालिक राजनीतिक सरोकारों के लिए भुना सकते हैं। क्‍योंकि भ्रष्‍टाचार पर सख्‍त लोकपाल लाने से नुकसान सिर्फ उन्‍हें होगा जो इस गटर गंगा में रोजाना हाथ धोकर निजी संपत्त्‍ाि बढ़ाने और वंचितों के हित छीनने में लगे हैं। इन्‍फोसिस के निदेशक नारायण मूर्ति का कहना है, यदि भ्रष्‍टाचार में कमी आती है तो सकल घरेलू उत्‍पाद में अनुकूल व आश्‍चर्यजनक इजाफा होगा। नए रोजगार विकसित होंगे। आम आदमी की आमदनी बढ़ेगी। शिक्षा, स्‍वरस्‍थ्‍य व अन्‍य सामाजिक कार्यों के संसाधन जुटाने में आसानी होगी। प्रतिभा पलायन थमेगा और नवोन्‍वेषी बौद्धिकता उत्‍पादन व आविष्‍कार से जुड़ेगी।

मनमोहन सिंह सरकार करीब छह साल पहले संयुक्‍त राष्‍ट्र की अंतरराष्‍ट्रीय भ्रष्‍टाचार विरोधी संधि पर हस्‍ताक्षर कर चुकी है, किंतु यह करारनामा कागजी बना रहे इसके लिए कठोर लोकपाल को ठुकरा रही है। लिहाजा संधि की शर्तें नजरअंदाज हो रही हैं। इस संधि की शर्तों में कालाधन की वापिसी के प्रयत्‍न, राजनीतिक भ्रष्‍टाचार पर अंकुश व निर्वाचन की फिजूलखर्ची पर निगरानी रखने जैसी प्रमुख शर्तें हैं। हालांकि कैबिनेट की बैठक में लोकपाल मसौदे के वक्‍त प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री को लाए जाने की बात रखी थी, लेकिन उनकी आवाज नक्‍कारखाने में तूती बनकर रह गई। दरअसल इस प्रस्‍ताव को शामिल करने के प्रति उन्‍होंने वैसी दृढ़ता नहीं दिखाई जैसी असैन्‍य परमाणु करार को पारित कराने के समय संसद में दिखाई थी। इससे लगता है कि उनकी खुद मंशा थी कि प्रधानमंत्री दायरे में न आएं। प्रधानमंत्री यदि लोकपाल के दायरे में आ जाते तो सांसद और नौकरशाह तो आप से आप जाते। तब केवल राष्‍ट्रपति और न्‍यायपालिका बाहर रह जाते। क्‍योंकि जन लोकपाल का मकसद देश और जनहित में एक ऐसा कानून लाना था जो भ्रष्‍टाचार में अप्रत्‍याशित कमी ला सके। लेकिन ऐसी संसद से जिसके 73 सांसदों पर सीधे आपराधिक प्रकरण न्‍यायालयों में विचाराधीन हों उनसे कारगर लोकपाल की उम्‍मीद करना फिजूल ही है। इस चरित्र के नेता और सांसद कैसे चाहेंगे कि कल को ऐसा कानून बन जाए, जिसके फंदे में उन्‍हीं की गर्दन नप जाए ?

इसी साल गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्‍या पर राष्‍ट्रपति प्रतिभा सिंह पाटिल ने कहा था कि भ्रष्‍टाचार से निपटने के लिए हम मौजूदा प्रणाली में बदलाव लाने के लिए गंभीरता से विचार करें। अन्‍यथा लोकतांत्रिक संस्‍थाओं पर जनता का जो भरोसा है वह प्रभावित होगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी 4 फरवरी को राज्‍यों के मुख्‍य सचिवों की बैठक में कहा था कि भ्रष्‍टाचार स्‍वस्‍थ प्रशासन की जड़ों को खोखला कर रहा है। पूर्व राष्‍ट्रपति अब्‍दुल कलाम आजाद भी कह चुके हैं कि भ्रष्‍टाचार कैंसर की तरह नासूर बनकर राष्‍ट्र को निगल रहा है। जनता के बीच जाकर यही बात अन्‍ना हजारे और बाबा रामदेव कह रहे हैं, फिर उनकी बात को तरजीह क्‍यों नहीं दी जा रही है ? इन सुझावों के वाबजूद ऐसा कमजोर लोकपाल लाने की कवायद की जा रही है जो जन-आकांक्षाओं पर खरा उतरने वाला नहीं है।

हकीकत तो यह है कि दिल्‍ली की सत्त्‍ाा भयभीत है और वह ऐसे हथकंडों पर उतर आई है, जिनसे जनता की आवाज कुचली जा सके। ऐसे में विपक्ष की भूमिका अह्‌म हो जाती है, क्‍योंकि राष्‍ट्र के प्रति उसकी भी कोई जवाबदेही बनती है। लिहाजा विपक्ष को भी इस बाबत प्रतिबद्धता दिखाने की जरूरत है कि हर स्‍तर पर सरकारी तंत्र में जिस भ्रष्‍टाचार का बोलवाला है, उसकी मुश्‍कें कसी जाएं। आम-अवाम को तो अन्‍ना और रामदेव ने पहले ही भ्रष्‍टाचार के खिलाफ खड़ा कर दिया है, इसलिए यही वह माकूल वक्‍त है, जब भ्रष्‍टाचार जैसी बुराई को नेस्‍तनाबूद करने की दृष्‍टि से ठोस व कारगर पहल की जा सकती है। गरम लोहे पर चोट करने से यदि विपक्ष चूकता है तो उसके पास आगामी लोकसभा चुनाव में हाथ मलने के अलावा कुछ शेष नहीं रह जाएगा।

 

ई-पता - pramod.bhargava15@gmail.com

शब्‍दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी

शिवपुरी म․प्र․ - 473551

लेखक प्रिंट और इलेक्‍ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्‍ठ पत्रकार है ।

COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. (1)

    लोकपाल का कच्चा जाल,
    कचरा-बकरा होय हलाल |

    मगरमच्छ तो काटे जाल,
    लेकर बैठा बढ़िया ढाल |

    व्यर्थ बजावत अन्ना गाल,
    करता-रहता सदा बवाल |

    (2)

    अन्ना के तो पैदल चार,
    व्यर्थ कांपती है सरकार |

    हाथी घोड़े सही सवार,
    मंत्री की चौतरफा मार |

    अन्ना को बाबा सा घेर,
    जंतर - मंतर पर कर ढेर ||

    जवाब देंहटाएं
  2. तु हूँऽ लूटऽ हमहूँऽ लूटींऽ लूऽटे के आजादी बाऽ
    दूनो गोरा तब तक लूऽटी जब तक देऽह पर खादी बाऽ।

    लोकपाल क्या करेगा जब व्यवस्था ही ऐसी है।

    जवाब देंहटाएं
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रचनाकार: प्रमोद भार्गव का आलेख - लोकपालः अब विपक्ष की बारी
प्रमोद भार्गव का आलेख - लोकपालः अब विपक्ष की बारी
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