हरिहर बाबू से पिछले पखवाड़े भेंट हुई तो मुझे अभूतपूर्व हैरानी का सामना करना पड़ा। मेरी हैरानी की वजह यह थी कि वे मुझसे ज्यादा हैरान नज़र आ...
हरिहर बाबू से पिछले पखवाड़े भेंट हुई तो मुझे अभूतपूर्व हैरानी का सामना करना पड़ा। मेरी हैरानी की वजह यह थी कि वे मुझसे ज्यादा हैरान नज़र आ रहे थे। बात हुई तो पता चला कि वे हरिहरगंज से लौटे हैं। वैसे राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर की न जाने कितनी घटनाओं-दुर्घटनाओं के चश्मदीद गवाह रह चुके हरिहर बाबू की रिपोर्टिंग का हमारी पूरी बिरादरी (मीडिया) कायल रहा है पर इस बार की घटना के कारण वे इतने संवेदनशील हो गये कि इसकी रिपोर्टिंग करने से ही उन्होंने मुंह मोड़ लिया।
हरिहर बाबू की बात ने मुझको विचलित तो किया पर जब में स्वयं को संयत करने का प्रयास कर ही रहा था उन्होंने मुंह मेरी ओर करते ही मेरी मनःस्थिति भांप कर बोले - ‘कमज़ोरी कोई अभिशाप नहीं है पर कमजोरियों के आगे ‘सरेन्डर' कर देना अक्लमंदी नहीं है।'
प्रतीकों और बिम्बों के माध्यम से हरिहर बाबू ने जो सूत्र-वाक्य उच्चरित किया था उसके संदर्भों और अर्थों को समझना मेरे बूते की बात कतई नहीं थी। मुझे हक्का-बक्का देखकर वे मेरी पीड़ा आंकते-से लग रहे थे। मैं सचमुच उनके प्रति इस बात के लिए कृतज्ञ हूँ कि उन्होंने मुझसे अपनी हैरानी का सबब और अपने सूत्र-वाक्य का खुलासा किया जिसे मैं जस-की-तस (अक्षरशः) आपके सामने रखने की घृष्टता कर रहा हूँ।
बकौल हरिहर बाबू हमारे देश में सड़कों और रेलों के कई ऐसे पुल हैं जो कमज़ोर होने के बावजूद साल-दर-साल लोगों को उनके वाहन और बोझ समेंत झेल रहे हैं। सड़क पर कई जगह लिखा होता है ‘‘सावधान, आगे पुल कमज़ोर है, गति धीमी रखें'' आदि-आदि। पुल के दोनों ओर की इबारत एक जैसी होती है। गलती से भी कभी आप को यह देखने-पढ़ने का सौभाग्य नहीं मिलेगा जब धन्यवाद के साथ लिखा हो ‘‘पीछे पुल कमज़ोर था, आप की उमर सचमुच लम्बी है।'' चलिये, धन्यवाद लिखा होना भी मामूली बात नहीं है क्योंकि यह एक विनम्र और अनुग्रहीत विभाग का फर्ज़ भी बनता है कि जो पुल से किसी प्रकार के छेड़छाड़ से स्वयं को बचाये रखना चाहता है। रेलवे लाइनों के लिए बने पुलों के बारे में हम आप कम ही जानते हैं क्योंकि हम सब तो अन्दर (ट्रेन में) होते हैं। ड्राईवर या गार्ड के लिए पुल के कमज़ोर होने का कोई संकेत या आभार रेलवे की जिम्मेदारी है, आप हम होते कौन है कुछ पूछने-जानने वाले।
हरिहर बाबू ने इस बात का भी आश्चर्य जताया कि आज तक कभी भी किसी ने वाहन या यात्री को पुल कमज़ोर होने की चेतावनी पढ़ने के बाद आगे की यात्रा रोकते और वापिस लौटते किसी को नहीं पाया। धन्य है ऐसे कमज़ोर पुल और साहसी यात्री के बीच का अटूट रिश्ता। पुल कमज़ोर होने से क्या होता है आपका भाग्य प्रबल और मनोबल ऊँचा होना चाहिये।
हरिहर बाबू की मान्यता है कि सरकार को ऐसे यात्रियों को इन्सेन्टिव देना चाहिये। सर्वाधिक जर्जर और कमज़ोर पुलों पर गुजरने वाले वाहनों और यात्रियों में से कुछ को सम्मानित और पुरस्कृत भी करना चाहिये। सुझाव के तौर पर उनकी एक तजबीज यह भी है कि कमज़ोर पुलों की श्रेणी और स्तर का निर्धारण करा कर उनका प्रयोग करने वाले यात्रियों को बीमा सेवा मुहैया करायी जाये जिससे बीमा कम्पनी का कारोबार भी बढ़ेगा। पुल के ढहने-टूटने के कारण मृतकों और घायलों के परिवारों को राहत मिले। सरकार बचाव-राहत, पुनर्वास और अनुग्रह राशि जैसे दुष्कर कार्यो से अपने को दूर रख सके और सामान्यतः दुर्घटना के कारणों (जैसे तोड़-फोड़, विभागीय लापरवाही या मानवीय चूक) की जांच और जांच रिपोर्ट के कारण पैदा होने वाली विवादों से अन्ततः सरकार का दामन पाक-साफ रहे।
आख़िरकार, सरकार या विभाग ही सब कुछ क्यों करे। आपको सचेत तो पहले ही कर दिया जाता है। उसके बाद कुछ जिम्मेदारी तो आपकी भी होती ही है। आप चेतावनी के प्रति स्वयं लापरवाही बरतें और सरकार से अपेक्षा करें कि उसकी तरफ से कोई कोताही न हो, कहां तक ठीक है। फिर भी आपको सावधान करने में तो उसकी ओर से कोई कोर-कसर कहां रखा जाता है।
हरिहर बाबू की संवेदनशीलता जब कुछ और बढ़ी तो उन्होंने स्पष्ट किया कि ऐसे कमज़ोर पुलों के दोनों ओर अगर सरकार पुल दुरूस्त नहीं करा सकती तो कम से कम अर्चना-पूजा, मान-मनौती के लिए पूजा-घर बनवा दे जिससे यात्रियों को आध्यात्मिक शांति और पुण्य के साथ-साथ स्वयं के लिए जीवनदान की कामना करने का सुअवसर मिल सके। वैसे ऐसे स्थानों पर वसीयत लिखने वालों की सेवायें भी उपलब्ध करा दी जाए तो घाटे का सौदा नहीं रहेगा और सरकारी कोष में तेलगी-मार्का स्टाम्प से ही सही कुछ राजस्व भी अर्जित होगा।
बात ही बात में हरिहर बाबू यह भी बताने से नहीं चूके कि हमारे यहां कितने ही नौनिहाल ‘जर्जर भवनों' वाले पाठशालाओं में अपने असुरक्षित वर्तमान के बीच शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। वे इस दलील को मानने के लिए रंचमात्र भी तैयार नहीं हैं कि लचर शिक्षा प्रणाली के अन्तर्गत जब ये नौनिहाल शारीरिक और पौष्टिक स्तर पर कमज़ोर हैं ही तो एक और कमज़ोरी (जर्जर भवन) के जुड़ जाने से कौन सा पहाड़ टूट जायेगा। अरे जरूरत है पढ़ने और पढ़ाने वालों (शिक्षकों और अभिाभावकों) का मनोबल न टूटने पाये।
एक अत्यंत गूढ़ बात कहकर हरिहर बाबू ने मुझे किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में ला दिया। उनका कहना था कि सड़क या रेल के कमज़ोर पुल हो या पाठशालाओं के जर्जर भवन, हाथ की रेखायें (जीवन-रेखा और भाग्य-रेखा) प्रबल होनी चाहिये, इरादे मजबूत होने चाहिये। आखिरकार आपके इरादे कमज़ोर होंगे तो देश कैसे मजबूत होगा। हरिहर बाबू इस तरह की कमजोरियों को ‘यश-अपयश, जीवन-मरण....' के सन्दर्भ में विधि हाथ के हवाले से दरकिनार करने की भी गुंजाइश रखते थे।
हरिहर बाबू की बातों से उनके बारे में मेरी धारणा को ताकत मिल रही थी कि उनकी याददाश्त कतई कमज़ोर नहीं हैं। अतीत की कई बातों को उन्होनें मजबूत साबित कर दिखाया है। ‘एक अमीर देश में गरीब लोग रहते हैं' की तर्ज़ पर हरिहर बाबू को भी गर्व है कि एक मजबूत राष्ट्र के नागरिक होते हुए कई कमजोरियों के साथ निबाह किये जा रहे हैं। कई बार हमारी कमज़ोरी ही हमारी ताकत होती है हालांकि यह हमारी लाचारी भी है और मजबूरी भी।
हरिहर बाबू की इस बात ने मेंरे अदने से दिमाग पर कस कर प्रहार किया। मैं कराह उठा, बोला- ‘हमारी निगाह, हमारा चरित्र, हमारा मिजाज, हमारी समाजी और सियासी हालात कमज़ोर हो तो उसे अपनी ताकत कैसे मान सकते है।'
हरिहर बाबू ने मुझे समझाने की जहमत उठाते हुए बताया कि एक कि कमज़ोरी कभी-कभी दूसरे के लिए ताकत का बायस होती है। आपकी निगाह कमज़ोर होगी तो दूसरा दूर-दृष्टि का दम्भ भरेगा। आपकी माली हालत ठीक नहीं होगी तो दूसरा उसे सुधारने का वादा करेगा। आपका चरित्र कमज़ोर होगा तो आपके चरित्र-हनन से आपका विरोधी अपना भाग्य चमकाने की कसरत करेगा। आपकी याददाश्त कमज़ोर होगी तो नेता फिर से पुराने वादों को दुहराकर आपसे वोट मांगेगा। वैसे भी दुश्मन अगर मजबूत हो भी तो उसे कमज़ोर आंकना और बताना श्रेयस्कर माना जाता है।'
हरिहर बाबू की अब तक की बातों से लगने लगा था कि वे जरूर कुछ छुपा या दबा रहे हैं। दरअसल, हरिहर बाबू की संवेदनशीलता परत-दर-परत खुल रही थी। उन्होंने कमज़ोरियों की एक परत और खोलते हुए कहा कि हममें कुछ ऐसी कमज़ोरियां भी है जिन्होंने गहरी जड़ें जमा ली हैं। उनके अनुसार भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, पद-लोलुपता, धन-लोलुपता, स्वार्थपरता, असहिष्णुता और जाति-धर्म-सम्प्रदायगत कमजोरियां ऐसी हैं जिन्होंने हमारी संवेदनशीलता को बेमानी बना दिया है। इसे जड़ से समाप्त करने की बात तो लोग करते हैं पर समाप्त करने की जहमत और कवायद करने को कोई भी तैयार नहीं दिखाई देता। आखिरकार कई लोग इन कमज़ोरियों के बलबूते फलते-फूलते-फैलते और जमते हैं। कैसी विडम्बना है कि हम संवेदनशील रहे बिना चाहते हैं कि पुल, कस्बे, परिस्थितियां और मुद्दे संवेदनशील बने रहें। इस बारे में हरिहर बाबू का निश्चित मत है कि कमजोरियां हमेशा (बहुधा) त्याज्य होती हैं पर जब उनसे कुछ सुअवसर और सौभाग्य जुड़े होते है तो लोग उससे छुटकारा नहीं चाहते। मुद्दा, मुद्दई, मुकाबला और मुल्क (विरोधी) कमज़ोर नहीं होगा तो विजयश्री की कल्पना आप कैसे कर सकते हैं।
मुझे लग रहा था कि हरिहर बाबू अभी भी कुछ बातों का खुलासा करने से गुरेज कर रहे हैं। मेरी अवधारणा की पुष्टि उनके आगे के कथन से हुआ। हरिहर बाबू ने यह भी बताया कि कुछ कमजोरियों का रिश्ता उम्र के साथ, कुछ का विकास और प्रगति के साथ और कुछ का सियासी उथलपुथल से भी होता है। उम्र के साथ रौशनी और याददाश्त के अलावा मांसपेशियां कमज़ोर पड़ने लगती है। विकास और निर्माण की प्रक्रिया में हेरफेर, सौदेबाजी, घोटाला और भ्रष्टाचार जैसी कमजोरियां अपनी जगह बनाने लगती हैं। सियासी हलकों में कानाफूसी, खरीद-फरोख्त, तुक्का-फजीहत का न होना नैतिक कमज़ोरी समझी जाती है। वैसे सावधानी, सतर्कता और सजगता सभी जगह दरकार होती है।
हरिहर बाबू समापन मुद्रा में आते लग रहे थे। कहने लगे, पुल कमज़ोर है तो क्या हुआ, आवागमन में बाधा नहीं आनी चाहिए। पाठशालाओं के भवन जर्जर हो फिर भी पठन-पाठन जारी रहना चाहिए। गठबंधन कमज़ोर हो तो भी सरकार चलनी चाहिए। इस सब के लिए चाहिए मजबूत हिम्मत, हौसला और इरादा।
कमज़ोरियों के प्रति हरिहर बाबू का संवेदनशील दृष्टिकोण मुझे काफी लिबरल और रियलिस्टिक लगा। मुझे कमज़ोरियों को जानने-समझने का इससे भी अच्छा अवसर कभी मिलेगा, मुझे नहीं लगता।
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‘‘अवध प्रभा'' 61, मयूर रेजीडेन्सी,फरीदी नगर,लखनऊ-226016.
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