{लेखिका सुमन सारस्वत ने पत्रकारिता के क्षेत्र में लंबी पारी पूरी की. मुंबई से दैनिक जनसत्ता का संस्करण बंद हुआ तो सुमन ने भी अखबारी नौकरी छ...
{लेखिका सुमन सारस्वत ने पत्रकारिता के क्षेत्र में लंबी पारी पूरी की. मुंबई से दैनिक जनसत्ता का संस्करण बंद हुआ तो सुमन ने भी अखबारी नौकरी छोड़कर घर की जिम्मेदारी संभाल ली. मगर एक रचनाकार कभी खाली नहीं बैठता. अखबारी लेखन के बजाय सुमन कहानी में कलम चलाने लगी. पत्रकार के भीतर छुपी कथाकार अखबारी फीचर्स में भी झलकता था. बहुत कम लिखने वाली सुमन सारस्वत की ‘बालू घड़ी’ कहानी बहुत चर्चित रही. उनकी नई कहानी ‘मादा’ बहुत पसंद की गई . एक आम औरत के खास जज्बात को स्वर देने वाली इस कथा को मूलतः विद्रोह की कहानी कहा जा सकता है. यह कथा ‘आधी दुनिया’ के पीड़ाभोग को रेखांकित ही नहीं करती बल्कि उसे ऐसे मुकाम तक ले जाती है जहां अनिर्णय से जूझती महिलाओं को एकाएक निर्णय लेने की ताकत मिल जाती है . लंबी कहानी ‘मादा’ वर्तमान दौर की बेहद महत्वपूर्ण गाथा है . सुमन सारस्वत की कहानियों में स्त्री विमर्श के साथ साथ एक औरत के पल-पल बदलते मनोभाव का सूक्ष्म विवेचन मिलता है.}
बड़ा अजीब-सा दिन था. आज अक्तूबर का पहला सप्ताह था. बारिश को खत्म हुए पंद्रह दिन से अधिक हो गए थे. कल से पहले यही लगता था कि बरसात तो गई अपने गांव, अब अगले साल ही आएगी. पर आज आसमान का जो हाल था उससे लगता था कि कहीं बारिश उल्टे पांव लौट तो नहीं आई. महीनों तक अपनी मर्जी चलाकर जा चुके अतिथि की वापसी के लिए कोई तैयार नहीं था.
सुबह से हो रही बूंदा-बूंदी में आज किसी को दिलचस्पी नहीं थी. काम पर जानेवाले आदमी बिना छतरी लिए ही निकल गए थे और स्कूल जानेवाले बच्चे भी रेनकोट के बगैर. महिलाएं घर पर काम निपटाने में लगी थीं.
निम्मी आज स्कूल नहीं गई थी. रात को उसकी मम्मी के सर में बेहद दर्द था. शाम को ही मम्मी को उबकाई आने लगी थी. और रात गहराते-गहराते दर्द बढ़ने लगा था. जब दर्द तीव्र हो जाता था तो मम्मी को उल्टियां होने लगती. यह माइग्रेन का दर्द था जो उसकी मम्मी को महीने में एक बार उठता ही था. रात को मम्मी को एक बार उल्टी हुई थी. तो मां ने निम्मी को ही मदद के लिए पुकारा था क्योंकि निम्मी पहली ही आवाज में उठ जाती है.
निम्मी ने मम्मी को उल्टी कराने के बाद बिस्तर पर सुलाया. पानी पिलाकर एक बार फिर मम्मी के माथे पर बाम लगा दिया और मम्मी की बगल में लेटे-लेटे इंतजार करने लगी कि मम्मी को दर्द से कुछ राहत मिले और वो सो जाएं. सुबह कितने काम करने होते हैं मम्मी को. यही सोचते-सोचते निम्मी की पलकें बोझिल होने लगीं तभी उसे बाहर से अजीब-सी आवाजें सुनाई दीं. वह चौंक उठी. आंखे बंद किए-किए ही उसने आवाज पर ध्यान दिया. यह तो किसी कुत्ते की आवाज थी. मगर रोज से अलग ही बिल्कुल अलग. निम्मी को यकीन हो गया यह कुत्ता भौंक नहीं रहा था. ऐसा लग रहा था जैसे रो रहा हो, एक छोटे बच्चे की तरह. किसी आशंका से निम्मी डर गई. डर के मारे उसने पलके मूंद लीं और स्वतः ही उसके होंठ भिंच गए.
निम्मी ने सुन रखा था कि कुत्तों के रोने से अपशकुन होता है. किसी के मरने का अपशकुन... यह याद आते ही निम्मी बुरी तरह घबरा गई. आज उसकी मम्मी बीमार है कहीं वह....बस! इसके आगे वह बुरी कल्पना न कर सकी. बड़ी हिमत के साथ उसने आंखे खोलीं, मां को देखने के लिए. मगर लेटे-लेटे उसे मां की स्थिति का सही-सही अंदाजा नहीं मिला. उसने गर्दन उठाकर देखा मां शांत पड़ी थी. चेहरे पर दर्द के कोई निशान नहीं थे. उसका दिल धड़का-कहीं मम्मी मर तो नहीं गई. उसे सूझ नहीं रहा था कैसे वह पता लगाए कि मम्मी जिंदा है या नहीं.....फिर हिम्मत करके वह मम्मी से चिपक गई. नींद में ही मम्मी ने उसे अपने सीने से लिपटा लिया और सोई रही. मां की बांहों में जकड़ी निम्मी अब पूरी तरह से बेखौफ थी. कुछ ही पलों में निंदिया रानी ने भी उसे धर दबोचा.
सुबह जब निम्मी उठी तो उसे पता था आज मम्मी को कमजोरी रहेगी इसलिए वह घर पर ही रुक गई. मम्मी से पूछ-पूछकर उसने ढोकला बनाया लसून-मिर्ची की चटनी मम्मी ने खुद ही बनाई. अपने भाई-बहन का टिफिन आज निम्मी ने ही पैक किया. उनको स्कूल बस में वही बिठाकर आई. घर आकर देखा पप्पा नाश्ता कर चुके थे. वे भी अपने हीरा घिसने के कारखाने जाने के लिए तैयार थे.
चौदह साल की निम्मी से छोटी एक बहन और एक भाई था. भाई-बहन में बड़ी निम्मी, घर की बड़ी बेटी की तरह जिम्मेदार और समझदार थी. वह अक्सर मम्मी की मदद कर दिया करती थी. पप्पा जब घर पर ही चोपड़ा लेकर हिसाब करने बैठते तो वह भी उनकी बगल में बैठ जाती. स्कूल से आने के बाद खाना खाने के बाद अपने भाई-बहन के साथ होमवर्क करने बैठ जाती. होमवर्क पूरा होते ही पड़ोस के बच्चे खेलने निकल पड़ते. फिर सबके साथ निम्मी भी शाम से ही घर पहुंचती.
आज सबके घर से बाहर निकल जाने के बाद मां-बेटी घर पर अकेली रह गईं. इस समय निम्मी को घर सूना-सूना लग रहा था. बाहर रिमझिम-रिमझिम बरसात हो रही थी. सूरज न निकला था न छिपा था. मटमैला-सा दिन कोत पैदा कर रहा था. निम्मी के मन में आया कि पड़ोस में किसी के घर चली जाए. पर सारे बच्चे तो स्कूल गए थे. वह दरवाजे से बाहर आ गई. उसने चारो तरफ देखा. सबके दरवाजे बंद थे या उढ़के हुए...
निम्मी महावीर-भुवन की पहली मंजिल पर रहती है. उसका यह घर एक पुराने टाइप की बिल्डिंग में है. तलमंजिल के अलावा दो मंजिल और भी हैं इस बिल्डिंग में. पांच-छह घरों को छोड़ दिया जाए तो सभी घर गुजरातियों के हैं. पूरी बिल्डिंग एक परिवार है. पीढ़ियों से लोग यहां बसते हैं. एक-दूसरे के सुख-दुख में शामिल. रात-बेरात, मौके-बेमौके कोई, कभी भी किसी के घर आ-जा सकता है. मध्यमवर्गीय मुंबई का असली पहचान है यह महावीर-भुवन.
अपने घर के बरामदे के सामने लगी लकड़ी की रेलिंग पकड़े निम्मी बरसात को देख रही थी. सोच रही थी कि किसके घर जाए, जहां उसकी बोरियत दूर हो जाए. इस समय उसे कल्पना काकी की बहुत याद आ रही थी. पता नहीं काकी की तबियत अब कैसी होगी? कल्पना काकी की याद आते ही उसकी आंखों में आंसू भर आए. पूरी बिल्डिग में कल्पना काकी उसी को सबसे ज्यादा प्यार करती हैं. कभी-कभी तो स्कूल के होमवर्क में भी उसकी मदद करती हैं. कल्पना काकी तो सचमुच कल्पना के परे हैं. उनको क्या नहीं आता! दिवाली में उनके घर की रंगोली सबसे सुंदर होती है. नवरात्रि में गरबे में जब वे भक्ति में डूब कर मां के गीत गाती हैं तो निम्मी को वह किसी देवी से कम नहीं लगतीं. वैसे कल्पना काकी जैसी सुंदर पूरी बिल्डिंग में कोई नहीं है. उनके हाथ का बनाया मोहनथाल, अमृतपाक निम्मी मांग-मांगकर खाती है.
कल्पना काकी के कारण ही निम्मी इतनी कम उम्र में ही भरतकाम (कढ़ाई) और क्रोशिया चलाना सीख गई. निम्मी वह सब सीख जाना चाहती है जो-जो कल्पना काकी को आता है.
इस बात पर निम्मी की बहन शेजल कभी-कभी खीज जाती है. वह मम्मी से शिकायत करती है ‘मम्मी तमारी दिकरी बिगड़ी जशे. पढ़ती ही नहीं. पूरा दिन सुई-धागा लेकर बैठी रहती है.’ मम्मी हंसती और निम्मी भी हंस देती.
इस समय अकेली निम्मी को कल्पना काकी की याद आ रही थी. इतनी सुंदर बीकॉम पास, इतने गुण-ढंग वाली कल्पना काकी की किस्मत जाने क्यों रूठ गई थी उनसे. कल्पना काकी की शादी को 10 साल हो गए. दो बार बच्चे हुए भी पर वे समय से पहले हुए थे इसलिए मर गए. निम्मी को बड़े लोगों ने इतना ही बताया था. दूसरी डिलीवरी के बाद से वे कमजोर होती जा रही थीं.
तीन-चार सालों के बाद कल्पना काकी फिर प्रे,नेंट हुई थीं. उनके घर में ही क्या पूरी बिल्डिंग में सब खुश थे. इस साल दीवाली नवंबर महीने में आने वाली है. अंबे मां ने चाहा तो दीवाली से पहले कल्पना काकी का बच्चा आ जाएगा. निम्मी और उसकी सहेलियां कल्पना काकी के बारे में बात करतीं.
चार दिन पहले ही की बात है. स्कूल से लौटने के बाद निम्मी जब कल्पना काकी को देखने उनके घर पहुंची तो उनकी जिठानी मनीषा काकी ने बताया कि कल्पना काकी को अस्पताल लेकर गए हैं. घर लौटकर उसने मम्मी से जांच-पड़ताल की पर मम्मी टाल गईं. शायद वे छोटी बच्ची को ज्यादा कुछ बताना नहीं चाहती थीं. तीसरे दिन स्कूल से लौटने के बाद निम्मी ने देखा सबके चेहरे उतरे हुए थे. बार-बार पूछने पर आखिर मम्मी ने बता ही दिया कि कल्पना काकी ने मरे हुए बच्चे को ज<म दिया और इस समय कल्पना की हालत गंभीर है.
सुनते-सुनते निम्मी रो दी. मम्मी भी रो रही थीं. मम्मी को रोता देख निम्मी हिचक उठी, ‘मम्मी बोल ने! मारी काकी मरशे तो नई ने!’
‘ना मारी दिकरी. एऊ ना बोल.’ कहकर मम्मी ने निम्मी को सीने से लगा लिया. निम्मी ने मम्मी की बात का भरोसा कर लिया कि उसकी कल्पना काकी को कुछ नहीं होगा. पिछली शाम कल्पना काकी के घर गई थी उनका हाल-चाल जानने. घर में चारो तरफ उदासी टँगी हुई थी. जिग्नेश काका भी परेशान और दुखी थे. वे अस्पताल जाने के लिए तैयार थे.
निम्मी ने बड़ी मिन्नत की जिग्नेश काका से, ‘काका मने पण हॉस्पिटल लई चलो.’
जिग्नेश काका ने दुख को दबाते हुए उससे कहा - ‘काले तारी काकी ने रजा मळी जशे. आज रात नीज वात छे.’ (कल तुहारी काकी को छुट्टी मिल जाएगी. आज रात की ही बात है..)
निम्मी भी चुपकर घर आ गई. मन ही मन वह योजनाएं बनाने लगी - कल्पना काकी घर आ जाएंगी तो वह उनका ध्यान रखेगी. उनको कभी उनके बच्चे की याद नहीं आने देगी. वह भी तो उनकी ही दिकरी है. अब से वह उनके पास ही सोएगी. मम्मी के पास और दो बच्चे तो हैं ही.
....बस आज रात की ही तो बात है कल उनको छुट्टी मिल जाएगी....
अब वह काकी को कोई दुख नहीं होने देगी.
लेकिन जब रात को मम्मी को माइग्रेन उठा तो मम्मी के दर्द के आगे निम्मी अपनी कल्पना काकी को भी भूल गई थी.
अब यहां बालकनी में खड़े-खड़े उसे कल्पना काकी बहुत याद आ रही है. नीचे उसकी नजर एक कुत्ते पर पड़ी. उसके दिमाग में रात को कुत्ते के रोने की आवाज गूंज गई. उस कुत्ते को देखकर निम्मी हंस पड़ी - ‘हूं पण साव गांडीज छूं.’ (मैं भी पूरी पागल ही हूं. जाने क्या-क्या सोचने लगी थी मैं. कभी कुत्ते के रोने सेकोई मरता है भला! बेचारा भूखा होगा या उसका पेट दुख रहा होगा. इसलिए रोया होगा रात को. एक दिन मेरा पेट दुखा था तो सारी रात मैं रोई थी किसी को कहां सोने दिया था. रात को एक बजे पप्पा ने फोन करके जोशी डाक्टर को बुलाया था. उ<होंने इंजेक्शन लगाया तब जाकर नींद आई मुझे. ....च.....च बेचारा कुत्ता, बेजुबान जानवर, इसके लिए कौन डाक्टर बुलाता.
सोचते हुए निम्मी को कुत्ते पर बहुत दया आई. उसे याद आया घर में ढोकला पड़ा है. उसने कुत्ते को आवाज लगाई - ‘यू....यू....यू....यू..’
आवाज सुनकर कुत्ते ने ऊपर देखा. उसे खात्री हो गई कि निम्मी बुला रही है. वह सीढ़़ियां फलांगता हुआ उसके दरवाजे तक आ गया. निम्मी ने अखबार के एक पन्ने पर ढोकले के कुछ टुकड़े डाल दिए. निम्मी ने देखा बेमौसम की बरसात ने कुत्ते को भिगोकर रख दिया है. उसने एक अखबार से कुत्ते को ढक दिया. कुत्ते को थोड़ी राहत मिली और वह वहीं बैठ गया.
तभी सीढ़़ियों पर कई कदमों की आहटें सुनाई दीं. निम्मी ने उस तरफ देखा- कल्पना काकी के रिश्तेदार थे. कल्पना काकी का घर सीढ़़ियों की दूसरी तरफ था. वे कल्पना काकी के घर पहुंचे नहीं होंगे कि उस घर से जोर-जोर से रोने की आवाजें आने लगीं. निम्मी घबरा गई. ये आवाजें सुनकर दूसरे घरों से लोग भी धड़ाधड़ निकलकर आ गए. ज्यादातर औरतें ही थीं. सब कल्पना काकी के घर की ओर दौड़ीं. वहां पहुंचकर वे भी रोने लगीं. अपनी मम्मी के पीछे निम्मी भी खड़ी थी. कल्पना की सास जसोदा बेन और मनीषा काकी को दहाड़े मार-मारकर रोते देख निम्मी समझ गई कि उसकी कल्पना काकी मर गई.
निम्मी को लगा उसका कलेजा जैसे हलक में फंस गया है. उसका दम जैसे घुट रहा हो. उसने अपने सीने को दबाया मगर उसकी रुलाई नहीं फूटीं, न ही आंखों से आंसू बहे. उसने देखा - सब रो रहे हैं, विलाप कर रहे हैं. मगर एक वही थी जो अपनी काकी के लिए रो नहीं पा रही थी क्यों? उसने खुद को धिक्कारा - क्या, उसका दिल पत्थर का हो गया है जो अपनी प्यारी कल्पना काकी की मौत पर भी नहीं रो रहा है. न रो पाने की वजह से वह शर्म से गड़ी जा रही थी.
तभी मम्मी ने उसे कहा - ‘जा पप्पा ने फोन करी दे.’
निम्मी जैसे किसी कैद से छूटी. वह घर की ओर लपकी. उसने पप्पा को फोन कर दिया. उसका दिल बैठा जा रहा था पर आंखें धोखा दे रही थीं. वह दीवान पर लेट गई. आंखे बंद थी उसकी. भयावह दृश्य उसकी आंखों में छाने लगा.
वह देखने लगी...एक अर्थी...., जिग्नेश काका के कांधों पर अर्थी....और अर्थी पर कल्पना काकी...
डर के मारे निम्मी ने आंखें खोल दी कि भयानक दृश्य उसकी आंखों से दूर चले जाएं.....
मगर उसकी आंखों के अंदर जमें आंसू , जैसे आंखों को दुखा रहे थे. इस दर्द से उसने आंखे फिर से भींची. निम्मी की बुरी कल्पनाएं फिर जागृत हो उठीं. इस बार उसने देखा- जिग्नेश काका चिता को अग्नि दे रहे हैं...मगर चिता जल नहीं रही है...कल्पना काकी एका-एक उठ बैठी...और चिता पर बैठी चित्कारी कर रही हैं - नहीं....
अपनी कल्पना में कल्पना काकी को रोते देख निम्मी की रुलाई फूट पड़ी. वह रो रही थी - मेरी काकी को मत जलाओ, जिग्नेश काका, मेरी काकी को मत जलाओ.....
जाने कितनी देर निम्मी का विलाप चलता रहा.
चौदह साल की मासूम निम्मी अपनी जिंदगी की पहली मौत पर फूट पड़ी थी. मौत से उसका पहली बार वास्ता पड़ा था. आंखे बंद किए वह रोए जा रही थी अपनी कल्पना काकी के लिए .... आस-पास से बेखबर, अपनी सोच में गुम... जाने कब उसकी आंख लग गई. रात में अच्छी तरह सो न पाने के कारण थकी निम्मी कब सो गई उसे पता ही नहीं चला.
....अचानक ही निम्मी चौंककर जग पड़ी. ‘काकी...काकी...’ कहकर वह दौड़ी...सपने से बाहर निकलने में वक्त लगा उसे. उसने देखा सामने पप्पा सोफे पर बैठे हैं. मम्मी किचन से निकलकर उसी के पास आ रही थीं. मम्मी ने निम्मी को संभाला. निम्मी दौड़कर बाहर निकली बरामदे में से दूसरी ओर नजर दौड़ाई.....
कल्पना काकी के घर पर औरतों का जमावड़ा लगा हुआ था. नीचे एक सफेद रंग की एंबुलेंस खड़ी थी. वहां सफेद पोशाकों में मर्द खड़े थे. निम्मी सिहर उठी उसे लगा जैसे चारों ओर सफेद मौत खड़ी है. वह डरकर अंदर आ गई. उसने मम्मी से पूछा कि एंबुलेंस क्यों खड़ी है?
मम्मी ने बताया उसमें कल्पना की बॉडी है. निम्मी ने फिर पूछा - काकी को अभी ले नहीं गए?
मम्मी ने बताया कि कल्पना का भाई सूरत से आने वाला है. दो घंटे और लगेंगे.
निम्मी को अच्छा लगा ये सोचकर कि तब तक कल्पना काकी यहीं रहेगी. क्या पता वो वापस जिंदा हो जाए जैसा फिल्मों में होता है?
आखिर वह पूछ बैठी - ‘मम्मी, कल्पना काकी जिंदा हो जाएगी क्या?’
मम्मी ने बेटी को सीने से लगा लिया. कल्पना काकी के बारे में बातें करते-करते दो घंटे कब बीत गए पता ही नहीं चला.
स्कूल छूट चुका था. बच्चे घर पहुंचने लगे थे. बिल्डिंग के नीचे एंबुलेंस देखकर बच्चे दहल उठे थे. बच्चों के पूछने पर माहौल फिर गमगीन हो उठा. एक गाड़ी अंदर आई. उसमें से आठ-दस लोगों का परिवार नीचे उतरा. आगंतुक औरतें दहाड़े मारकर रोने लगीं. बच्चे भी सुबकने लगे. उनकी आवाजें ऊपर तक पहुंची, प्रत्युत्तर में ऊपर भी रोने की आवाजें बढ़ गईं.
निम्मी का दिल फिर बैठने लगा. उसे लगा धरती से लेकर आसमान विलाप में डूब चुका है. सब कल्पना की अर्थी सजाने में लग गए.
बच्चों और कम उम्र के पुरुष और औरतों को वहां से हटा दिया गया. और कुछ समय बाद कल्पना काकी अर्थी पर अपने अंतिम सफर को निकलीं. लोगों ने फूल फेंककर भीगे नयनों से कल्पना को अंतिम विदाई दी. आसमान तो पहले से ही आंसू बहा रहा था और सूरज मुंह छुपाए जाने कहां को निकल गया था.
कल्पना तो चली गई मगर औरतें कल्पना के दुख से दुखी थीं. एक औरत बोली - ‘कल्पना किस्मत वाली थी, सुहागन मरी.’
‘लेकिन क्या फायदा....’ एक दूसरी औरत ने टिप्पणी की, ‘बेचारी को पति के हाथों अग्नि भी नहीं मिलेगी....’ उस औरत का गला भर आया था. दूसरी औरतें भी च....च......च करने लगीं - ‘बेचारी कल्पना....’
निम्मी ने देखा कल्पना काकी की अर्थी चली गयी....सब चले गए - ‘राम-नाम सत्य है....’ की ध्वनि वातावरण को अब भी गुंजा रही थी. ‘राम का नाम’ आज निम्मी को भला नहीं लगा. उसे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था. न राम, न सत्य..... मौत का सत्य कितना दुखदायी होता है इसे आज निम्मी ने अनुभव किया. कहानियों-फिल्मों से कितना अलग होता है - जीवन में इस सत्य को साक्षात देखना. निम्मी ने एक और कटु सत्य देखा - जिग्नेश काका! वे वहीं थे मातम मनाती औरतों के साथ! निम्मी को घोर आश्चर्य हुआ. जिग्नेश काका, कल्पना काकी की अर्थी के साथ क्यों नहीं गए? एक पति अपनी पत्नी की अर्थी के साथ श्मशान क्यों नहीं गया?
यह सवाल उसके दिमाग में बम की तरह फट रहा था.
निम्मी ने औरतों की बातें सुनी मगर उन बातों को वह समझ नहीं पा रही थी. कुछ देर कल्पना का मातम मनाने के बाद औरतें अपने-अपने घरों में चली गईं. मम्मी ने निम्मी और दोनों बच्चों को नहाने का आदेश दिया. उनके बाद वह भी नहाने चली गईं.
किसी का मन नहीं था मगर भूख तो सभी को लगी थी. आज दोपहर की रसोई नहीं बन पाई थी. सुबह का ढोकला ही सबने खाया. निम्मी के मन में औरतों की बातें घुमड़ रही थी. उसने मम्मी को खोद-खोद कर पूछना शुरु किया - मम्मी, पति ही पत्नी की चिता को आग लगाता है ना. फिर कल्पना काकी को जिग्नेश काका क्यों नहीं जलाएंगे...’
मम्मी आनाकानी करती रही. पर निम्मी पीछे पड़ी रही - ‘बोल ना मम्मी, बोल ना मम्मी....’
‘क्या जिग्नेश काका, काकी को प्यार नहीं करते? बोल न मम्मी. काकी की चिता को कौन आग लगाएगा....’
मासूम निम्मी के सवाल मम्मी के मन को छेद रहे थे. कल्पना तो मर गई मगर उसकी बुरी किस्मत उसकी सद्गति भी नहीं होने दे रही थी. मम्मी निम्मी के सवालों से बच रही थी. पर निम्मी पीछा छोड़ ही नहीं रही थी. मम्मी जानती थी कि इन सब बातों के लिए निम्मी अभी छोटी है. मगर निम्मी कहां समझने वाली थी! उसे तो अपने सवालों के जवाब चाहिए थे. वो भी अभी. उसकी उम्र ने धैर्य रखना अभी सीखा कहां था! उसे जो चाहिए होता है मम्मी दे देती हैं - तुरंत, फटाफट. तो मम्मी उसके सवालों का जवाब क्यों नहीं दे रही हैं? मम्मी की आनाकानी निम्मी की जिज्ञासा और जिद को बढ़ा रही थी.
आखिर झुंझलाकर मम्मी बोल पड़ी - ‘ऐसा रिवाज है.’
निम्मी समझी नहीं. अपने ज्ञान और अनुभव को तौलते हुए वह बोली, ‘हां मम्मी ऐसा ही तो रिवाज है. पत्नी अगर मर जाए तो पति उसकी चिता को आग लगाता है. इसीलिए तो औरत को ‘अखंड सौभाग्यवती भवः’ का आशीर्वाद देते हैं. है ना मम्मी’
‘.......पर......अगर.....यदि......’ मम्मी को शब्द नहीं मिल रहे थे. कैसे वह निम्मी को बताए? उसके मासूम दिल पर क्या गुजरेगी?
‘क्या मम्मी, बोलो ना...अगर-मगर क्या?’ निम्मी को कोफ्त होने लगी भी अब.
‘अगर किसी आदमी को फिर से शादी करनी हो तो वह पत्नी की अर्थी के साथ श्मशान नहीं जाता.’ मम्मी की आवाज कंपकंपा रही थी.
‘क्या?? मगर क्यों??’
निम्मी का एक और सत्य से सामना हुआ.
‘मगर जिग्नेश काका फिर से क्यों शादी करना चाहते हैं? क्या उनको कल्पना काकी की मौत का दुख नहीं है?’
‘दुख किसको नहीं होता? मगर उ<हें बच्चा चाहिए अपना वंश बढ़ाने के लिए...’ मम्मी की आवाज में कड़वाहट थी.
निम्मी खामोश! उसके दिमाग में कितने विचार एक साथ कौंध रहे थे. उनमें वह संगति नहीं बिठा पा रही थी - ‘लेकिन...पर....’ मन के आक्रोश में शब्द विलीन हो रहे थे.
‘कल्पना काकी तो उनके लिए बच्चा पैदा करते-करते मरी ना!..... कल्पना काकी ने उनके लिए अपनी जान दे दी...मगर काका के लिए उनके बलिदान की कोई कीमत नहीं. उनको बस एक बच्चे की पड़ी है?’ तर्क देते-देते निम्मी रोए जा रही थी.
‘.....और जो बच्चा पैदा ही नहीं हुआ उसके लिए एक औरत को अपने पति के हाथ से अपनी मौत का हक भी नहीं मिलेगा. मम्मी ये,.....ये कैसा रिवाज है? ये कैसी इंसानियत है कि किसी औरत की चिता को उसके पति के रहते कोई और आग लगाए?’
निम्मी की आंखों में विक्षोभ और होठों पर इतने सवाल!!!
मम्मी हतप्रभ कि उसकी छोटी-सी निम्मी इतनी समझदार और संवेदनशील है! मम्मी आंखे फाड़े निम्मी को देखती रही निम्मी तो जैसे फट पड़ी-
‘मैं नहीं मानती इस रिवाज को.... मैं नहीं मानती इस रिवाज को....’ निम्मी फूट-फूट कर रो पड़ी.
निम्मी को गोद में दुबकाए मम्मी भी रो पड़ी, मन ही मन मम्मी भी दुहराने लगी - ‘मैं भी नहीं मानती इस रिवाज को कि... कि - एक औरत को अपनी सद्गति के लिए किसी पुरुष पर या समाज के रिवाज पर निर्भर रहना पड़े....’ मम्मी और निम्मी दोनों ही एक साथ रो रहीं थीं - एक औरत की नियति पर....अपने औरत होने पर......
निम्मी को अब समझ आया कि आज दिन इतना उदास क्यों है? आसमान क्यों बरस रहा है?
-सुमन सारस्वत
५०४-ए, किंगस्टन, हाई स्ट्रीट, हीरानंदानी गार्डन्स, पवई, मुंबई-७६, (महाराष्ट्र)
ईमेल - sumansaraswat@gmail.com
मन को झकझोर देने वाली एक यथार्थ चित्रण
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