संघ लोक सेवा आयोग की यह पहल उल्लेखनीय है कि भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में चयन की उम्मीद रखने वाले प्रतिभागी अब अपनी मातृभाषा में मौखिक साक्...
संघ लोक सेवा आयोग की यह पहल उल्लेखनीय है कि भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में चयन की उम्मीद रखने वाले प्रतिभागी अब अपनी मातृभाषा में मौखिक साक्षात्कार देने के लिए स्वतंत्र हैं। अब तक यूपीएससी की नियमावली की बाध्यता के चलते जरूरी था कि यदि परीक्षार्थी ने मुख्य परीक्षा का माध्यम अंग्रेजी रखा है तो साक्षात्कार भी अंग्रेजी में देना होगा। जाहिर है इस फैसले से ऐसे प्रतिभागियों को राहत मिलेगी जो अंग्रेजी तो अच्छी जानते हैं, लेकिन अंग्रेजी संवाद संप्रेषण व उच्चारण में उतने परिपक्व नहीं होते जो मंहगे और उच्च दर्जे के कॉनवेंट स्कूलों से निकलकर आए बच्चे होते हैं। मुंबई उच्च न्यायलय द्वारा दायर एक जनहित याचिका के तारतम्य में दिए फैसले के पालन में यूपीएससी ने यह पहल की है। इस निर्णय से उन चौबीस जन भाषाओं को सम्मान मिलेगा , जो संविधान का हिस्सा होने बावजूद महत्ता और उपादेयता की दृष्टि गौण थीं। यह निर्णय उन प्रतिभागियों को भी हीनता व अपमान बोध से मुक्त करेगा जो अंग्रेजी भाषा के वर्चस्व के चलते अपनी विलक्षण प्रतिभा को व्यक्त नहीं कर पाते थे। हालांकि यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश की सर्वोच्च सेवाओं में नौकरी पाने के भाषाई माध्यमों को 63 साल बाद अधिकृत मान्यता मिली। अलबत्ता देशी भाषाओं के वर्चस्व के लिए अंग्रेजी को पूरी तरह बेदखल करने की जरूरत है।
हालांकि संघ लोक सेवा आयोग की यह हमेशा कोशिश रही है कि आयोग की परीक्षाओं का माध्यम भारतीय भाषाएं न बन पाएं और अंग्रेजी का वजूद बना रहे। इसके लिए आयोग गोपनीय चालाकियां भी बरतता रहा है। ऐसा वह इसलिए करता रहा है, जिससे अंग्रेजीदां वर्ग को उच्च पद हासिल होते रहें। क्योंकि इसी साल आयोग ने 2011 की प्रारंभिक प्रवेश परीक्षा योजना में ऐच्छिक प्रश्न-पत्र के स्थान पर दो सौ अंकों का एक नया प्रश्न-पत्र लागू कर दिया था। जिसमें तीस अंक अंग्रेजी दक्षता को समर्पित थे। हिन्दी व अन्य संविधान में अधिसूचित भारतीय भाषाओं को कोई स्थान ही नहीं दिया गया था। कुटिल चतुराई से इस प्रश्न-पत्र को केवल उत्तीर्ण पात्रता तक सीमित न रखते हुए, इसके प्राप्ताकों को प्रावीण्यता (मेरिट) से जोड़े जाने की चालाकी भी बरती गई थी। इससे उन अभ्यार्थियों का चयन प्रभावित होना लाजिमी था जो भारतीय भाषाओं के माध्यम से आयोग की परीक्षाओं में बैठते हैं। यह हरकत प्रशासनिक कलाबाजी का ऐसा नमूना थी जो भीतरी दरवाजे से अंग्रेजी को थोपने की कोशिश में लगे रहते हैं। इस मामले को बीते सत्र में जद (एकी) के राज्यसभा सदस्य अली अंसारी ने जोरदारी से उठाया था। जिसे राज्यसभा में भरपूर समर्थन मिला था।
राज्यसभा द्वारा अंग्रेजी की इस अनिवार्यता को वापिस लेने का एक संकल्प भी पारित किया गया।
अंग्रेजी का संवैधानिक महत्व 63 साल बाद भी इसलिए बना हुआ है क्योंकि संविधान में इसकी अनिवार्यता को आज तक बेदखल नहीं किया गया है। इसे अभी भी राष्ट्र की संपर्क भाषा की संवैधानिक मान्यता प्राप्त है। यदि इस बाध्यता को संसद में विधेयक लाकर तथा अधिनियम बनाकर विलोपित कर दिया जाए तो भारतीय भाषाओं को वैधानिक स्वरूप लेने में देर नहीं लगेगी। इस स्थिति के निर्माण से ग्रामीण प्रतिभाओं को खिलने और खुलने का मौका तो मिलेगा ही देश में भारतीय भाषाओं के माध्यम से शैक्षिक समरूपता लाने का अवसर भी हासिल होगा। शिक्षा के क्षेत्र में मातृभाषाओें का आधिपत्य कायम होता है तो सरकारी पाठशालाओं में पठन-पाठन की स्थिति मजबूत होगी और आम अवाम को मंहगी कॉनवेंटी शिक्षा से निजात मिलेगी। वैसे भी आयोग की परीक्षा में 45 प्रतिशत छात्र हिन्दी माध्यम के सम्मिलित होते हैं और 40 प्रतिशत अन्य संविधान में अधिसूचित भारतीय भाषाओं के माध्यम से बैठते हैं। लेकिन इनमें से मुख्य परीक्षा में कामयाबी बमुश्किल 40 फीसदी प्रतिभागियों को मिलती है, इनमें भी 22 फीसदी हिन्दी माध्यम के परीक्षार्थी होते हैं। अंग्रेजी माध्यम से इस परीक्षा में बैठने की मजबूरी इसलिए भी है क्योंकि संपूर्ण और उच्च गुणवत्ता की पाठ्य सामग्री अंग्रेजी में आसानी से उपलब्ध है।
अंग्रेजी एक परस्त लोग भारतीय भाषाओं को नकारने के पीछे यह तर्क अमूमन देते हैं कि इन भाषाओं मे उच्च शिक्षार्जन की दृष्टि से साहित्य और तकनीकी पारिभाषिक शब्दावली का अभाव है। इस परिप्रेक्ष्य में सकारात्मक खबर यह है कि अब वैज्ञानिक व तकनीकी ज्ञान का शब्दकोष तैयार होकर प्रकाशित हो चुका है। प्रशासनिक स्तर पर उसे कार्यरूप में लेने की इच्छाशक्ति जताने की जरूरत है। यही नहीं अब कंप्युटर तकनीक ने इसे और आसान बना दिया है। गूगल ने ऐसे अनुवादक और परिवर्तक सॉफ्टवेयर तैयार कर अंतर्जाल (इंटरनेट) पर निशुल्क उपलब्ध करा दिए हैं, जिनके जरिए किसी भी भारतीय भाषा का भाषाई लिप्यांतर और अनुवाद की सुविधा आसान व सर्वसुलभ हो गई है। रफ्तार व रचनाकार हिन्दी बेव ठिकानों पर भी लिप्यांतर के ये परिवर्तक मुफ्त में उपलब्ध हैं। अब तो यूनिकोड का हिंदी मंगल फोंट भी प्रचलन में आ गया है, जो सीधे स्क्रीन पर अंग्रेजी फोंट की तरह खुलता है। फेसबुक व अन्य सामाजिक वार्तालाप के ठिकानों पर भी एपिक के जरिए हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं में संवाद-संप्रेषण की सुविधा मौजूद है। यह जानकारी उन सभी तकनीकी विशेषज्ञों और नौकरशाहों को है, जिनकी दिनचर्या में कंप्युटर और इंटरनेट शामिल हैं। लेकिन वे कुटिल चालाकियां इसलिए बरत रहे हैं, क्योंकि भाषाई अनुवाद व लिप्यांतर के इनऔजारों का व्यापक इस्तेमाल शुरू हो जाता है तो उनकी अंग्रेजी के बहाने जो वंशानुगत सत्ता बनी चली आ रही है, उसके वर्चस्व पर खतरे के बादल मंडराने लगेंगे।
राष्ट्रभाषाएं सामाजिक संपत्ति और वैचारिक संपदा होन के साथ संस्कृति, परंपरा, रीति- रिवाज, तीज-त्यौहार और लोकोक्ति व मुहाबरों को व्यक्त करने का भी माध्यम होती हैं। इसलिए यदि भाषाओं की प्रयोगशीलता, महत्ता और अनिवार्यता को नजरअंदाज किया जाएगा तो उक्त सांस्कृतिक धरोहरें भी धीरे-धीरे लुप्त होती चली जाएंगी और संस्कारों के बीज पनपने पर अंकुश लग जाएगा। सांस्कृतिक हमलों के बढ़ते इस दौर में यदि हमने भाषाओं की उपेक्षा की तो देश सांस्कृतिक पराधीनता की ओर बढ़ता रहेगा। नीति-नियंताओं को यहां यह भी रेखांकित करने की जरूरत है कि जिस तरह से हमने आधुनिक खेती और रासायनिक खादों के बहाने खेतों की उर्वरा क्षमता का नाश किया और किसान को ऋणभार में डुबोकर उसे आत्महत्या के लिए विवश किया, उसी तरह यदि हम उच्च पदों की परीक्षाओं में अंग्रेजी को अनिवार्य करेंगे तो मातृभाषाओं में शिक्षित युवाओं को आत्म-विहीनता के मरूस्थल में ही धकेलने का काम करेंगे। इस आत्म-विहीनता ने यदि आक्रामकता का रूख अपना लिया तो हमें विध्वंस के दौर का भी सामना करना पड़ सकता है। इन दुर्विनार हालातों से बचने के लिए जरूरी है कि अंग्रेजी की अनिवार्यता हर स्तर पर समाप्त की जाए।
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प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म․प्र․
लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार है ।
संघ लोसेआ का नवीनतम कदम सराहनीय है, भले ही यह उन्होने दबाव में लिया हो। आयोग का २०११ की प्रारम्भिक परीक्षा में लिया कुटिल चालाकी वाला कदम निंदनीय था।
जवाब देंहटाएंवास्तविक रुप में अंग्रेजी भी भारत की एक भाषा बन चुकी है जैसे कि अन्य भाषायें हैं और अंग्रेजी को बेदखल करने से कुछ हासिल नहीं होगा। अंग्रेजी एक भाषा के रुप उसी तरह से से और उसी प्रभाव के साथ रहनी चाहिये जैसे कि अन्य भाशायें रहती हैं, न कम महत्व के साथ न ज्यादा महत्व के साथ। अंग्रेजियत और अंग्रेजीपरस्ती को बेदखल किया जाना चाहिये, अंग्रेजी को नहीं। अंग्रेजी तो एक भाषा है और भाषा कभी किसी का कुच नहीं बिगाड़ा करती बल्कि व्यक्त्ति को समृद्ध ही बनाती है।