महज रस्म अदायगी बन कर न रह जाए खाद्य सुरक्षा योजना सं सद के मॉनसून सत्र में जो विधेयक पेश किये जाने हैं, उनमें खाद्य सुरक्षा विधेयक सबसे म...
महज रस्म अदायगी बन कर न रह जाए खाद्य सुरक्षा योजना
संसद के मॉनसून सत्र में जो विधेयक पेश किये जाने हैं, उनमें खाद्य सुरक्षा विधेयक सबसे महत्वपूर्ण है। प्रस्तावित खाद्य विधेयक को उच्च अधिकार मंत्रियों के समूह ने अपनी मंजूरी दे दी है। इसके तहत गरीब परिवारों को सस्ते दरों पर अनाज मुहैया कराने की योजना है। यह अब तक की सबसे बड़ी सामाजिक गारंटी योजना होगी। ऐसी संभावना व्यक्त की जा रही है कि इस विधेयक के बाद किसी भी गरीब को भूखा नहीं मरने दिया जाएगा। इससे देश की 68 प्रतिशत आबादी को अनुदानित दर वाला अनाज पाने का कानूनी अधिकार मिल सकता है। अगर चिन्हित वर्गों को अनाज की आपूर्ति नहीं की जा सकी, तो राज्य सरकारों का दायित्व होगा कि वे उन्हें खाद्य सुरक्षा भत्ता दें। यदि इस योजना का क्रियान्वयन ईमानदारी, जबावदेही और पारदर्शिता के साथ किया जाये तो यह भुखमरी के खात्मे की दिशा मे एक बड़ा कदम साबित होगा।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून 2011 यूपीए के दूसरे कार्यकाल के सबसे बड़े दायरेवाला कानून बन सकता है। फिलहाल इसके अनुपालन में कई अड़चने हैं। विधेयक को अमली जामा पहनाने के लिए 61 मिलियन टन अनाज की जरूरत होगी, फिलहाल अनाज की उपलब्धता 55 मिलियन टन है। इस लिहाज से हर साल छह मिलियन टन अनाज का इंतजाम करना होगा। इससे सरकार पर 95 करोड़ रूपये की सब्सिडी का बोझ पड़ेगा। एक रिपोर्ट के मुताबिक यह अतिरिक्त बोझ करीब 1.27 अरब डॉलर के बराबर होगा जो जीडीपी का 1.1 प्रतिशत है। यह अनाज कहां से आयेगा, यह बड़ी समस्या है। खाद्यान्न उत्पादन में बढ़ोतरी के बिना इस योजना की सफलता संदिग्ध है। दिक्कत गरीबों की संख्या और सार्वजनिक वितरण प्रणाली को लेकर भी है। मसौदे के अनुसार बीपीएल परिवारों की गणना योजना आयोग द्वारा प्रस्तुत 2004-05 के आंकड़ों को आधार मानकर की जाएगी। योजना आयोग के अनुसार देश में 6.52 करोड़ की तादाद में गरीब परिवार हैं जबकि राज्यों ने कुल 10.28 करोड़ परिवारों को गरीब मानकर बीपीएल कार्ड जारी किये हैं। इस वजह से राज्यों और केंद्र के बीच मौजूदा मसौदे पर मतभेद हैं। बीपीएल कार्ड बनाते समय गरीबों को नजरअंदाज किया जाता रहा है। बोगस कार्ड की संख्या लगातार बढ़ रही है। बीपीएल सूची पूरी तरह दोषपूर्ण है, नतीजन गरीबी रेखा से ऊपर के लोग भी गरीबी रेखा से नीचे के लोगों में शामिल हो गये हैं। कई राज्यों में गरीबों का एक बड़ा तबका इस सूची से गायब है।
नौ प्रतिशत आर्थिक विकास दर से बढ़ रही भारतीय अर्थव्यस्था में गरीबी रेखा के नीचे रहनेवालों की संख्या को लेकर भ्रम है। केंद्र सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय की एनसी सक्सेना समिति ने कुल जनसंख्या का 50 फीसदी गरीबी रेखा के नीचे रहने का अनुमान जताया है जबकि अर्जुन सेन गुप्ता समिति ने देश की 77 फीसदी आबादी के बीपीएल की श्रेणी में होने की बात कही है। तेंदुलकर कमेटी की रिपोर्ट में देश की कुल आबादी का 37 फीसदी हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे रहने की बात कही गयी है। तेंदुलकर कमेटी के सिफारिश के अनुसार देश में जो 15 से 20 रूपये रोजाना अपने परिवार पर खर्च करता है, गरीब है। योजना आयोग के मुताबिक गांव में 12 रूपये और शहर में 17 रूपये से अधिक खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं समझा जाता। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के रिपोर्ट के अनुसार मध्यप्रदेश के गांवों में प्रति व्यक्ति मासिक आय 487 रूपये है जबकि शहरी क्षेत्र में 982 रूपये। बिहार के गांवों में प्रतिव्यक्ति मासिक आय 465 रूपये और शहरों में 684 रूपये और झारखंड के गांवों में प्रतिव्यक्ति मासिक आय 489 रूपये तथा शहरों में 1082 रूपये है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा परिभाषित गरीबी रेखा से नीचे रहनेवाले लोगों की संख्या भारत में 41 करोड़ है। यह संख्या उन लोगों की है जिनकी एक दिन की आबादी 1.25 डॉलर से भी कम है।
एक ओर जहां सरकार के पास गरीबी का सही आंकड़ा उपलब्ध नहीं है, वहीं दूसरी ओर मौजूदा वितरण प्रणाली में कई खामियां हैं। सार्वजनिक वितरण प्रणाली की स्थिति बेहद खराब है। गरीबों को सस्ते अनाज की गारंटी तभी संभव है जब राशन दुकानों की व्यवस्था चुस्त बने। देश में जब 1951 में खाद्यान्न की कमी सामने आयी थी और सरकार को विदेशों से भारी मात्रा में अनाज आयात करना पड़ा था, तब सरकार ने रियायती मूल्यों पर जरूरतमंद लोगों तक खाद्यान्न पहुंचाने के उद्देश्य से सार्वजनिक वितरण प्रणाली की शुरूआत की थी। यह दुर्भाग्य है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली का सस्ता अनाज उपयुक्त मात्रा में उन जरूरतमंद लोगों तक नहीं पहुंच पाता है, जिन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। गरीबों को सस्ता अनाज बिना किसी दिक्कत के मिले, इसके लिए सरकार को मॉनीटरिंग भी कड़ाई से करनी होगी। अब तक इन योजनाओं से गरीबों के नाम पर अफसर और बिचौलिए ही लाभान्वित हुए हैं। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के विफल रहने का एक मात्र कारण है भ्रष्टाचार। सरकार जमाखोरों और कलाबाजारियों पर नियंत्रण नहीं रख पायी। पिछले छह दशकों में इससे जुड़े कई घोटाले उजागर हुए हैं। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सार्वजनिक वितरण प्रणाली की खामियों की जांच के लिए जस्टिस डी.पी.वाधवा की अध्यक्षता में गठित एक सदस्यीय आयोग की रिपोर्ट में सार्वजनिक वितरण प्रणाली में व्याप्त अनियंत्रित भ्रष्टाचार और मनमानी के लिए सरकार और अन्य एजेंसियों की जमकर आलोचना की गयी थी। रिपोर्ट में कहा गया था कि इस व्यवस्था में कदम-कदम पर खामियां ही खामियां हैं। वहीं विश्व बैंक की ओर से भारत की समाज कल्याण तथा गरीबी विरोधी योजनाओं पर जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि 2004-05 में सरकार ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत जो अनाज जारी किया उसका लगभग 60 प्रतिशत हिस्सा लक्षित परिवारों तक नहीं पहुंचा। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत जीडीपी का दो प्रतिशत से अधिक हिस्सा सामाजिक संरक्षण कार्यक्रमों पर खर्च करता है जो अन्य विकासशील देशों की तुलना में बहुत अधिक है। इन सबके बावजूद गरीबों तक निवाला नहीं पहुंच रहा है और भुखमरी अपनी जगह कायम है।
भारतीय संविधान में प्राण और दैहिक स्वतंत्रता के संरक्षण का उपबंध किया गया है जिसके तहत प्रत्येक व्यक्ति को मानव गरिमा के साथ जीने का अधिकार है। इसमें पर्याप्त पोषण, कपड़ा, सर पर छत, और पढ़ने, लिखने एवं अपने को विविध रूप में अभिव्यक्त करने की सुविधाएं आती हैं। इन सबमें सबसे ऊपर है भोजन का अधिकार। भुखमरी से निपटने के लिए सरकारी स्तर पर कई योजनाएं चलायी जाती रहीं हैं। ऐसी योजनाएं चलाने का एकमात्र मकसद है कि भूख से किसी की मौत न हो। भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भी समय-समय पर भूख से होनेवाली मौत पर चिंता जाहिर की जाती रही है। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने भूख से होने वाली मौत पर चिंता व्यक्त करते हुए सरकार को देश के सबसे गरीब 150 जिलों की आबादी के लिए अतिरिक्त 50 लाख टन अनाज आवंटित करने का आदेश दिया था। गरीब एवं कमजोर वर्गों को अनाज उपलब्ध कराने का जिम्मा राज्य सरकारों को है। केंद्र सरकार के द्वारा राज्यों का आवंटित खाद्यान्न के अतिरिक्त गरीब एवं कमजोर वर्ग के लोगों को अनाज उपलब्ध कराने के लिए राज्य सरकार द्वारा अपने संसाधनों का उपयोग किया जाता है। वाधवा समिति का यह निर्णय है कि केंद्र प्रायोजित योजना यथा बी.पी.एल, अंत्योदय और अन्नपूर्णा के पूर्ण उठाव एवं वितरण के लिए भारतीय खाद्य निगम के डीपो में सम्बद्ध जिले के आवंटन का ढ़ाई गुणा अनाज का अग्रिम भंडार उपलब्ध रखना है, तथा खाद्यान्न के उठाव के लिए राज्य के एजेंसी को दो माह पूर्व से ही व्यवस्था में लग जाना है ताकि हर हाल में समय पर डीलर के माध्यम से शत प्रतिशत खाद्यान्न गरीब एवं कमजोर वर्ग को समय पर प्राप्त हो जाए एवं भूख से मौत की स्थिति उत्पन्न नहीं हो।
देश में खाद्यान्न के भंडारण के लिए सरकार के पास न तो पर्याप्त संख्या में गोदाम हैं और न ही भंडारण क्षमता बढ़ाने की कोई पुख्ता योजना। भंडारण के अभाव में प्रत्येक साल लाखों टन अनाज सड़ जाता हैं। भंडारण क्षमता को बढ़ाने करने के लिए सरकार द्वारा योजना तो बनायी गयी लेकिन नतीजा सिफर रहा। खाद्यान्न के आपूर्ति के लिए जो राज्य भारतीय खाद्य निगम पर पूर्ण रूप से निर्भर हैं, वहां उठाव एवं वितरण के कार्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । फलस्वरूप समय पर गरीब एवं कमजोर वर्ग के लोगों को अनाज उपलब्ध नहीं हो पाता है। जिन राज्यों में भंडारण की समुचित व्यवस्था है और राज्य सरकार के पास बेहतर आधारभूत संरचना उपलब्ध है वहां कुछ हद तक अनाज का वितरण सही तरीके से हो रहा है। तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में यह व्यवस्था कमोबेश कारगर ढंग से काम करती रही है। छत्तीसगढ़ ने तो इस क्षेत्र में उदाहरण प्रस्तुत किया है। अन्य राज्यों में काफी प्रयास के बाद भी छत्तीसगढ़ की वितरण व्यवस्था का अनुकरण संभव नहीं हो पा रहा है। बिहार और झारखंड की स्थिति काफी दयनीय है। इन राज्यों में केंद्र सरकार द्वारा आवंटित अनाज के अतिरिक्त राज्य सरकार द्वारा अपने संसाधन से भी खाद्यान्न उपलब्ध कराने का प्रयास किया गया है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि आखिर वे कौन सी बाधाएं हैं जो सरकार की योजनाओं और गरीबों की बीच दीवार बन कर खड़ी हैं? बिहार के खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री ने अपने हालिया बयान में कहा भी है कि भारतीय खाद्य निगम के भंडारगार में समय पर खाद्यान्न उपलब्ध नहीं रहने के कारण बहुत से जिलों में 50 प्रतिशत से ज्यादा उठाव संभव नहीं हो सका है। ऐसी स्थिति में खाद्य सुरक्षा अधिकार की सफलता पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है। प्रस्तावित मसौदे में पीडीएस सिस्टम को खत्म कर राशन के बदले अनाज देने का विकल्प रखा गया है। इस विकल्प ने नयी बहस को जन्म दिया हैं। सामाजिक कार्यकर्ता ज्यां द्रेज और अर्थशास्त्रियों के एक समूह ने अपने हालिया सर्वे के बाद प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर मसौदे में खाद्यान्न की जगह कैश ट्रांसफर के विकल्प को अपनाने में हड़बड़ी नहीं करने की सलाह दी है। पत्र में कहा गया है कि जिन जगहों पर पीडीएस का संचालन ठीक ढंग से नहीं हो रहा वहीं के लोग पीडीएस के विकल्प के तौर पर अपनायी जानेवाली इस योजना में रूचि दिखा रहे हैं।
किसी भी योजना को कार्यरूप में बदलने अथवा पूर्ण पारदर्शिता के साथ धरातल पर उतारने के लिए कई तथ्यों पर पूर्ण विचार करना आवश्यक है। सबसे पहले योजना के अनुसार रणनीति तैयार करना, आंतरिक और बाह्य संसाधनों का विकास, लक्षित परिवारों का सही आंकड़ा उपलब्ध होना और योजना के सफल कार्यान्वयन के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति और मजबूत आधारभूत संरचना का होना सबसे अहम है। इस योजना की सफलता के लिए केंद्र और राज्य सरकारों के बीच गरीबों की संख्या को लेकर जो मतभेद हैं, उसे खत्म करना होगा। गरीबों की वास्तविक संख्या के आकलन के बाद उसकी आपूर्ति की दिशा में ठोस पहल करनी होगी। खाद्यान्न आपूर्ति करनेवाली एजेंसियों को आधुनिक तकनीक से युक्त करना होगा ताकि कम से कम समय में खाद्यान्न लाभ को तक पहुंचाया जा सके। पीडीएस डीलर को इतने अनाज का आवंटन किया जाये जिसके कमीशन से वह अपने परिवार के भरण पोषण सम्मानजनक तरीके से कर सके। आपूर्ति करनेवाली एजेंसियों का कमीशन का निर्धारण बाजार दर के अनुसार हो ताकि बेईमानी की संभावना को कम किया जा सके।
दुनिया भर में खाद्य सुरक्षा के मायने स्वस्थ रहने के लिए जरूरी वस्तुओं को उपलब्ध कराना है। इस लिहाज से खाद्य सुरक्षा कानून को लोकव्यापी बनाने की आवश्यकता है। प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून सिर्फ 25 किलो अनाज सस्ती दर पर देने की बात करता है, इसमें पोषण सुरक्षा को नजरअंदाज किया गया है। आंकड़ों के हिसाब से दुनिया की 27 प्रतिशत कुपोषित जनसंख्या भारत में रहती हैं। मसौदे में केवल गरीब तबके के लोगों के भूख मिटाने की बात है जबकि महंगाई की वजह से जनसंख्या का एक बड़ा भाग भूखे पेट सोने को मजबूर है। भोजन का अधिकार जीने के अधिकार से जुड़ा हुआ है। पिछले दो दशकों में भारत में भूख एक बड़ी समस्या के रूप में उभरी है। भूख से होनेवाली मौतें किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए सबसे त्रासद स्थिति है। जब तक पेट के लिए अनाज और हाथों के लिए काम नहीं मिलता तब तक आर्थिक प्रगति की बात बेमानी है। ऐसे कार्यक्रमों के लिए न तो बड़ी राजनीतिक इच्छा शक्ति है और न ही सही प्रशासनिक मशीनरी। ऐसे में लगता है कि खाद्य सुरक्षा अधिकार अन्य योजनाओं की तरह ही महज रस्म अदायगी बन के न रह जाये।
हिमकर जी , आज तक कितनी सरकारी योजनाएं सफल हुई हैं ? आप भी क्या उम्मीद लगाए बैठे है ?
जवाब देंहटाएंआलेख पढ़ा। खाद्य सुरक्षा योजना लुट का प्रपंच है! सरकारी योजनाएं जनता के हित में कहाँ बनती हैं। वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य पर ४० वर्ष पुराना एक किस्सा याद आ रहा है। एक शिव मंदिर के पास बहुत सारे कुत्ते रहते थे। अपने आप में मगन, लेकिन नजर और ख्याल अपने लक्ष्य पर। शिवपूजन के बाद लोग जैसे ही पत्तल पर दही-चुड़ा लेकर खाने बैठते थे वैसे ही वो कुत्ते अपने असली रंग में आ जाते। वे आपस में लड़ने लगते। लड़ते- लड़ते वे पत्तल पर आ जाते। खाने वाले को अपना खाना छोड़ कर भागना पड़ता। उसके जाने के बाद कुत्ते आपस में मिलकर खाना खा लिया करते। लोग कुत्तों के इस प्रपंच को समझ नहीं पाते थे। खाद्य सुरक्षा योजना का वर्तमान और भविष्य कुछ मुद्दों पर ऐसा ही दिख रहा है।
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