भोर की दुआ काव्य संग्रह (पाठ के मशीनी फ़ॉन्ट रूपांतरण से वर्तनी त्रुटियाँ संभावित हैं, अतः क्षमा चाहते हैं) वन्दना आराधना वन्दन अभि...
भोर की दुआ
काव्य संग्रह
(पाठ के मशीनी फ़ॉन्ट रूपांतरण से वर्तनी त्रुटियाँ संभावित हैं, अतः क्षमा चाहते हैं)
वन्दना
आराधना वन्दन अभिनन्दन उनका
मानवता-समतावादी जागृत है
विवेक जिनका,
चरित्रवान,ज्ञानवान,परमार्थी
जीवन जिनका
आराधना वन्दन अभिनन्दन उनका․․․․․․․․․․․․․
सब नर एक समान
रूढि़वाद में यकीन नहीं जिनका
अंधश्रद्धा की पताका हाथ नही
जिनके,
राष्ट्रीय -मानवीय एकता का दर्शन
जीवन जिनका
आराधना वन्दन अभिनन्दन उनका․․․․․․․․․․․
श्रद्धा में शीश झुकाता उनके
जन-राष्ट्र के सेवक सच्चे
बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय
स्वार्थ से दूरी मन के अच्छे
नर का वेष बुद्ध का मन उनका
आराधना वन्दन अभिनन्दन उनका․․․․․․․․․․․․․․․․
गिरे को उठाये, उंच-नीच का भेद मिटाये
दीन-दरिद्र से दिल मिलाये
संवृद्ध राष्ट्र शोषितो-वंचितों का उत्थान
सपना जिनका
आराधना वन्दन अभिनन्दन उनका․․․․․․․
नर के वेष में नारायण
सद्मानव ऐसे
देवता ऐसे सदकर्म के राही जो
करें अनुसरण,होगी भोर की दुआ कबूल
जय-जयकार पादपूजा उनका
आराधना वन्दन अभिनन्दन उनका․․․․․․․
09․07․2011
जनवादी
उम्मीदों के बीज पसीने से
उपचारित कर बड़ी उम्मीद से बोये थे,
श्रम के धरातल पर।
पौध खड़ी होने लगी थी
उम्मीदों के अक्स से किलकारियों का
कलरव मंद-मंद बहने लगा था ।
अमानुषता की आंधी बरसी ऐसी
किलकारियां रूदन बन गयी
काबिले तारीफ उम्मीदों की बावनी
खत्म नहीं हुई ।
जारी है संघर्ष आज भी
बूढे समाज,दफतर देवस्थल से लेकर
धर्म-राजनीति के ठीहों तक ।
ठीहों से उठा मीठा जहरीला आश्वासन
कर देता है रह-रहकर बेसुध
परन्तु मरती नहीं उम्मीदें
तन जाती है नित नई-नई ।
भोर की दुआ होगी कबूल उम्मीद में
संघर्षरत् हाशिये का आदमी
तनकर खड़ा हो जाता है
श्रम-पसीने का अमृत पानकर ।
उम्मीद है जारी रहेगा जनवादी संघर्ष
वंचितों-शोषितों और आम आदमी के हित में
अमानुषता,गरीबी,भूख-भेदभाव और
पिछड़ेपन के विराट उन्माद के खिलाफ
बुद्ध और संविधान की,
उम्मीदें साकार होने तक ।
09․07․2011
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कैद खजानों के मुंह राष्ट्रहित में खोल दिया जाना चाहिये․․․․․
आंखे तो सभी की बरसती है आंसू
खुशी की किसी की दुख की
यह खबर सुनकर कि
तिरूनवनंतपुरम के
पदनाभन स्वामी मंदिर के खजाने ने
उगला पच्चास हजार करोड का धन,
कानूनी रूप से जो काला नहीं है
देशहित में उजला भी नहीं कह सकते।
मंदिरों में कैद धन देश के विकास में
नही रखते अर्थ है
विदेशी बैंकों में जमा काले धन की तरह है व्यर्थ
सच ऐसा धन देश और जनता के हित में है बे-अर्थ ।
ऐसा धन होने का क्या अर्थ ना आये देश के काम
लगा लो अनुमान छूट जायेगा पसीना
सैकड़ों मंदिर और है जहां
गड़े पड़े है धन के भण्डार
ये कैद धन आता देश के काम
पा लेता सुनहरा यौवन देश और आवाम ।
मन बहुत रोता है अकूत संपदा कैद है
देश के मंदिरों के तहखानों में
शोषित वंचित आदिवासी जोह रहे हैं
विकास की बाट
और तरस रहे हैं रोटी के लिये ।
प्रश्न है क्या ?
ये अकूत धन पुजारियों की कैद में रहना चाहिये
नही ना․․․․․․․․
उन्हे क्या चाहिये रोजमर्रा के खर्च का प्रबन्ध
यह तो दान से मिल जाता है।
वक्त आ गया है मठाधीशों को सोचना चाहिये
देश और आवाम के विकास में धन लगाना चाहिये
मंदिरों से गूंजा है अमृत वचन
दरिद्रों की मदद के बिना देव भी
नारायण नहीं हो सकता
देश से बड़ा कोई देव नहीं हो सकता
मंदिरों में कैद खजानों के मुंह
राष्ट्रहित में खोल दिया जाना चाहिये․․․․․․․․․․․․․․․․․․
02․7․2011
मां का आशीश
पद-सत्ता की आतुरता शान्त तो नहीं हुई
नही मां को दिया
वचन पूरा कर पाया ।
खैर मां को वचन तो मैने दिया था
कहां किसी मां ने लिया है कि
मेरी मां लेती ।
मां का नाम यानि देना
अफसोस तो है मुझे
मां को कोई सुख नहीं दे सका
शायद कैद नसीब की वजह से ।
नसीब आजाद तो नहीं हुई
पसीने से सिंची फसल
ओले-तूफान को सहते
फल लायक बनी भी ना थी
कि मां चल बसी
कई सारे सवाल छोड़कर ।
आज भी मैं संघर्षरत् हूं
श्रम की मण्डी में कोई करिश्मा तो नहीं हुआ
नही खड़ी हुई मिसाल
हां कद बढा पेट -परदा चल रहा है
मां की तैयार जमीं पर ।
मां का वरदान सौभाग्य है
पद-सत्ता की आतुरता शान्त नहीं हुई
हो भी कैसे सकती है अदने की ?
जिस जहां में भेद और स्वार्थ का रोग लगा हो
कर्जदार रहूंगा सदा मां का
मां का ही तो आशीश है कि पराई दुनिया में
छूट रहे हैं अपने भी निशान
देखना कब होती है कबूल जमाने को
मां की भोर की दुआ․․․․․․․․․․․․․․․․․․․
01․07․2011
बच के चलना बहन-भाई
जरा बच के चलना बहन-भाई
राजनीति के चक्रव्यूह को
आमआदमी का विकास
देश की तरक्की ना भायी ।
बंट गया देश
चढ़ा था सिर स्वहित अहंकारी स्वमान
सत्ता की आतुरता संघर्ष की घबराहट
हाय रे नियति
तान लिया छाती पाकिस्तान ।
यही नहीं थमीं करतूतें
चीन के हाथों तिब्बत खोया
भरूपर घडि़याली आंसू रोया
सत्ता के जुये में ऐसा उलझा कश्मीर
हर हिन्दुस्तानी के माथे चढ गया
अलगाववाद और आतंकवाद का पीर
बचा है बस तो अपने पास एके47 हथियार ।
मतदान का अधिकार
रहे चौकन्ना और होशियार
मेरी सुन लो दुहाई
स्वार्थ सत्ता की आतुरता को भापो
अपने अधिकार को देशहित में नापो
चूक गयी फिर दोहरायी
लोकतन्त्र पर लूटतन्त सवार हो जायी
अबके बरस सम्भल के चलना बहन-भाई․․․․․․․
01․07․2011
आधुनिकता के दौर में
पूरा कुनबा दुखी है पर शारीरिक विकलांग नहीं
नही रोटी के टुकड़े के लिये
कचरा छानते हुए इंसान की तरह
ना ही निर्धन होने का दुख है
सक्षम शरीर से सम्पन्न विकास की रीढ़ है
देश के प्रति त्याग ,परिवार पालने की उर्जा है
दायित्व निभाने का भरपूर जज्बात है। आधुनिकता के दौर में दुख भोग रहा है․․․․․․․․․․
दुख गरीबी पराधीनता नहीं
उसका दुख वैसा ही है प्यारे
जैसा कोख में मारी गयी कन्या
ब्याह की बलिवेदी पर सती दुल्हन
बलात्कार की शिकार कोई बहन
दुखी है क्योंकि
विषमाद की दुत्कार पा रहा है । आधुनिकता के दौर में दुख भोग रहा है․․․․․․․․․․
उसका दुख दैहिक दैविक और भौतिक नहीं है
उसका दुख तो सारे दुखों से उपर है
आदमी होकर भी अछूत है
तरक्की के रास्ते-बनते बनते बिगड़ जाते है
विज्ञान के युग में छुआछूत का शिकार है
आधुनिक समाज में वनवास भोग रहा है
सक्षम होकर अक्षम हो गया है । आधुनिकता के दौर में दुख भोग रहा है․․․․․․․․․․
काश जातिवाद का कलंक भारत के माथे से मिट जाता
वंचित मानव,बूढे समाज के साथ समानता का भाव पाता
कबूल हो जाती भोर की दुआ हो जाती जीवन की साध पूरी
चिडि़याओं कलरव की तरह भोर का सुख मिल जाता
यही तो है उसका लूटा हुआ सुख
जिसकी चाह में वह आधुनिकता के दौर में दुख भोग रहा है․․․․․․
01․07․2011
लवाही
कोई तो बता दो वो सामने कौन अड़ा
लवाही की तरह खड़ा है ,
वस्त्र तारतार हो रहे हैं
लू का झोंका आर पार हो रहा है
पेट पीठ से सटा है
आंखों में हौशला भरा है
बाबू राजनीति का शिकार है
उसका लूट गया अधिकार है
छाती पर भेदभाव का ताण्डव है
ना साथ उसके कृष्ण
ना वह खुद कोई पाण्डव ळे
विकास की बाट जोह रहा है
हाशिये का आदमी है
आवाज दे रहा है
शदियों से ना सुनी गयी उसकी पुकार
आज भी कोई नहीं सुन रहा है
क्या बताये कोई अंधे गूंगे बहरों को
देश की आत्मा भूमिहीन खेतिहर मजदूर
कुदरत का करिश्मा औकात पर अड़ा है
हो चुका है लवाही फिर भोर की दुआ में खड़ा है․․․․․․․․․․
․․․․․․․․․․․․․30․06․2011
।लवाही-सूखा गन्ना।
दहशत में
कल भी था आज भी हूं दहशत में
गोरों पीये लहू और खूब पले-बढे
हम-तुम गीली पलकों में डूबते
उतिरियाते सपने सींचते रहे
फिर वह सुबह आयी जिसके लिये
अनगिनत मरे-मारे गये
अवनि लहूलुहान हो गयी
स्वर्ग का सुख मिल गयी
आजाद हो गये गोरों की गुलामी से
खुशी ज्यादा दिन ना टिकी
अब क्या․․․․․․․․․․․․․․․․?गुलाम हो गये अपनों के
महंगाई,भ्रष्टाचार, ,खून की होली अत्याचार हाहाकार
छाती पर चढ गया टैक्स का भारी बोझ
लोकतन्त्र लूटतन्त्र में बदल गया
बाबा लोग भी भ्रष्टाचार की दरिया से भरने लगे
ट्रको में सोना,चांदी विदेशी विलासिता के औजार
नोटों से किलों की तिजोरियां
भारत माता की पलकें गीली ही रही
सपूतों के तो भाग्य रूठ गये हैं
भ्रष्टाचार अत्याचार,शोषण के भार से झुक गये है
तलाश है फिर वे एक मसीहा
क्योंकि आज के मसीहा जोगी हो या भोगी
विश्वास लतिया चुके है
आमआदमी कल भी था आज भी है
दहशत में
कल का अरूणोदय अच्छा होगा
इसी उम्मीद में आजाद देश की हवा
अनुराग संग पीकर बसरकर रहे हैं․․․․․․․․․
․․․․․․․․․․․․․30․06․2011
परजीवी․
बड़ी जतन से गरीबों के बचते है छप्पर
कहीं अधिक परिश्रम से पलते है बच्चे
आंसू और पसीने के मिश्रण से
जुट पाती है लाठियां
भूख,बीमारी की आंच में तपकर
बाधाओं के थपेड़े खाकर होश सम्भाले
बच्चों से
पलती है कल की उम्मीदें
गरीब भूमिहीन माताओ और बापों के
उम्मीद खड़ी नहीं हो पाती
रौंद जाता है
बूढी दबंगता का जनून,विषमता की महामारी
घूसखोरी,क्षेत्रवाद,भाई-भतीजावाद का आतंक
और
भयावह राजनीति रूपी परजीवी․․․․․․․․․․․30․06․2011
0000
आदमी गरीब नहीं होता
बना दिया जाता है
मौके छिन लिये जाते है
दिला दी जाती है
गरीब हो कि कसम
गर मिल जाती अच्छी तालिम
विकास की राह चलने का मौका
बदल जाती ठगी तकदीर
काश ऐसा हो जाता
तो
रोशन हो जाता गरीब का जहां भी․․․․․28․06․2011
00000
बदले दौर में जोगी बदल रहे
कहां टिके यकीन बाबा
क्रान्ति का बजा तो बिगुल
खुद के बचाव के लिये
महिलावेष धर निकल गये
बाबाओं के किले डकार रहे
ट्रको सोने की सिल्लियां
और नोटो की गडि्डयां
देश में होगे ऐसे बाबा तो क्या होगा ?
गरीब और गरीब विकास पर ग्रहण
समझ में आ गया
स्वार्थ में डूबे और राजनीति की सरिता में नहाये
जोगी हो या भोगी
सब आम आदमी और देश को छल रहे । 28․06․2011
00000
वह प्रसून सी सजी थी
दुपट्टा उड़ रहा था ऐसे
धान की हरी-भरी फसल को
चुनौती दे रहा हो जैसे
भरपूर खिला गुलाव थी
पर कसी कली लग रही थी
चन्दन सी खुशबू बह रही थी
नथुनों को आमन्त्रण दे रही थी
भौंरे बेसुध लग रहे थे
वह भी लय में बह रहे थे
किस्मत पर इतरा रहे थे
अल्हड़ कली के लट झूम रहे थे ऐसे
टूट कर घटा बरस दे जैसे
बेसुरी सी सुर में लग रही थी
देश की जवानी बनी रहे ऐसे
सम्वृद्धि कली तनी रहती जैसे
मेरी भी उम्मीद बंध गयी थी
युवा अल्हड़ प्रसून सी जंच रही थी ․․․․․․․․․․․․नन्दलाल भारती 17․06․2011
00000
बादल जो गरजकर बरसे है
वह गरीब की पुकार थी
गरीब मजदूर ही तो
बोता है सपने
पसीने में तपकर
जल और धूप
रच देते है उपज
ऐसा ही है त्याग जनहित में
आम मजदूर आदमी का
क्योंकि वही तो है
विकास की असली नींव ․․․․․․16․06․2011
00000
क्षेत्रवाद,भेदभाव के ठीहे पर
लूट गया तकदीर का सितारा
बडे अरमान थे प्यारे
तालिम सपने भरपूर
जन्मदाती बूढी आंखों के भी
डूब गये सपने
ना समझ पाया
कौन सी सजा का बोझ
ढो रहा बेकसूर । 16․06․2011
00000
अरमान के जंगल में
ठूठ सपनों के बीहड़ खड़े हैं
श्रम की लाठी से
खून होता पसीना
खुली आंखों के सपने
भ्रष्टाचार के पांव तले
दफन हो रहे हैं
गरीब की तार-तार नईया
परिश्रम की पतवार से
किनारा ढूढ रही है․․․․․․․․․16․06․2011
00000
बेदर्द हो गये है लोग
पंछियां भी शोक मना लेती है
चांव-चांव,कांव-कांव कर
हकीकत में
आदमी की कैसी फितरत है
कुछ करता है चेहरे बदलकर
बदनियति ही तो आदमी को
आदमियत से दूर ले गयी
खुदा भी पछता होगा
आदमी को माया से जोड़कर
ये कैसी भूल हो गयी । 16․06․2011
00000
सत्ता की परछाईयां चाटकर
गली के स्वान
उगल रहे अभिमान
खुद को राजा
गरीब को प्रजा कह रहे
बेदखली का कैसा जनून
रूप धर कर
श्रम-फल-हक तक
चट कर रहे । 16․06․2011
00000
आदमी हूं मेरा भाग्य है
कलमकार हूं सौभाग्य है
योग्य-कर्मशील हूं
जीवन संघर्षा का प्रतीक है
पद और दौलत से वंचित हूं
आदमी का दिया दुर्भाग्य है
दुर्भाग्य को लहूलुहान
कर देते हैं
उच्च-श्रेष्ठ-दबंग कुछ लोग
छाती में खंजर उतारकर
यही विष बीज कर देता
कर देता है
वंचित आदमी की तकदीर
बंजर
यही जीवन,जीने का सलीका
दर्द कहे या कराहते
जीवन जंग में बढते रहने का
जनून
यही भोग रहा हूं
कलमकार हूं सौभाग्य मान रहा हूं । 16․06․2011
00000
जो हाशिये के लोग है
उन्हें उपभोग आता नही
उन्होंने सीखा ही नही
लहू को पसीना करना आता है
वही करते है
परजीवी जो है पसीना बहाना आता नही
लहू पीना भूलते ही नहीं । 09․06․2011
00000
सूख चुका बूढा बाप तकदीर पर थूक रहा था
डिग्रियों से लदा बेटा स्वार्थ सत्ताधीशों के नाम
यही सच था मै ना मौन ना बेखबर
डिग्रियों के भार से तड़प-तड़प कर रहा हूं मर । 09․06․2011
00000
मां के आंखों में जो आंसू भरा था
कोई नदी नाले का पानी ना था
गंगा जैसे पवित्र था
दबंग ने अपमान कर दिया था
झूठा इल्जाम मढ़ दिया था
वह विरोध में ललकार उठी थी
गरीब चोर नहीं ईमानदार होता है
तभी तो भूखे पेट चैन से सो लेता है
सच हूं मै तो तुम्हें चैन नहीं लेने देगी मेरी बददुआ
खण्ड-खण्ड बंट जाओगे,खुद पर लजाओगे
सीना तान ना पाओगे आयेगा वह भी दिन
ना मतलबी जमाना देगा तुम्हें कोई दुआ ।
सच हुआ सच्ची मां की बदुदआ बन गयी लकीर
दम्भ के जहाज का मुसाफिर हो गया फकीर․․․ 09․06․2011
00000
सुन्दर सी नारी
आधी से अधिक उघारी थी
शरीफ लोग शरमा रहे थे
वह थी कि खुद के
बेहयापन पर मुस्करा रही थी
उस पाश्चात्य रंग में डूबी नारी
कि
ना जाने कौन सी लाचारी थी । 09․06․2011
00000
हत्याओं के बाद जुड़वा बेटे हो गये
चारो धाम की यात्रा पूरी हो गयी
दहेज की फसल लहलहा गयी
खुशी में आतिशबाजी शुरू हो गयी
रहा नहीं गयी गर्दभ कण्ठ स्वर पा गया
अरे भ्रूण हत्यारों दुल्हन कहां से लाओगे
अनायास बात मुंह से निकल गयी । 09․6․2011
000000
स्याही का समन्दर सूखे न कभी
परमार्थ का जनून सुसताये ना कभी
दर्द बहुत है अभी शब्द की इन्तजार में
कविवर कसम है तुम्हें कलम रूके ना कभी 08․06․2011
000000
अत्याचार,अस्मिता पर झूठे दाग
आहत दिल
जख्म ही जख्म से भरे
ऐसा कहते है
नये से पुराने हरे हो जाते है
तकदीर के लूटे अपनी मौज में
मील के पत्थर बन जाते है । 08․06․2011
00000
स्वार्थी जमाने ने क्या कम किया
पद-दौलत से बेदखल कर दिया
मरने को विष तक दिया
जनून के पक्के उसूल के सच्चे
वक्त के कैनवास पर नाम लिख दिया । 08․6․2011
00000
जेठ की जमीं जैसा तपा
दीन श्रमवीर होता है,
रोटी के स्वाद से उपजता है
अनुराग जिसके मन में
ठीक तपी धरती की तरह
पहली बारिश से के सोधेपन की तरह
सच्चाई के आईने में
मेहनतकश कर्मवीर होता है ।08․06․2011
00000
कोई गुनाह नहीं पर सजा भोग रहा हूं
मजदूर का बेटा डिग्रियों का बोझ ढो रहा हूं ।
बाप कहता सींचा था पसीने से
नन्ही-नन्ही उम्मीदों को
बूढी हड्डी के जोर मुसीबत खींच रहा हूं
निराश बेटा कहता भ्रष्टाचार के जमाने में
ठगी तकदीर ढो रहा हूं । 08․06․2011
00000
नाम मिठाई स्वाद जाना नही
रोटी कपड़ा,मकान की आस में
बचपन बुढापा में बदल गया जिसका
जमाने ने जाना ही नहीं । 08․06․2011
00000
उम्मीद को मंजिल कहां मिलेगी
ठगों के शहर में यारों
कुछ लोग सच कहने जनून में
पुर्जे-पुर्जे हिल गये है,
लोकतन्त्र की छांव
लूटतन्त्र की दोपहर में । 08․06․2011
00000
जब-जब मेहनतकश की आंखे बरसी है
सच तब-तब दैहिक भौतिक और
दैवीय सुनामी आया है
मानते नहीं पर जान तो गये है
गरीब के आंसू व्यर्थ नहीं जाते
दमनकारी के लंकादहन की
मौन इबारत लिख जाते हैं । 08․06․2011
00000
हंसते जख्मों के निशान
आंखों की दरियादिली
बचे है पास मेरे
असल में अमानत है वो
जमाने की ।
घाव खाकर भी जी लेता हूं
समन्दर फंसी कश्ती की तरह
उम्मीद के सहारे
किनारे तलाश लेता हूं । 07․06․2011
00000
गम कम नहीं हुए इस जहां में
श्रम तालिम सब छले गये
पास है तो बस उम्मीदों को समन्दर
रह-रह कर तोड़ जाता है
सपनों का घरौंदा,नकाब का बवण्डर । 07․06․2011
000000
दुनिया की क्या-क्या गिनाउं
जख्म के ढेर भरे है
माथे चिन्ता के बादल खडे हैं
उम्र कम पड़ रही है
तालिम तड़प रही है
भेंट कहां कहां पटके माथा
आज तक जान नहीं पाया हूं
बस चिता पर सुलग रहा हूं
भंवर में उलझा राह तलाश रहा हूं
दुनिया को याद आयेगी मेरी भी
क्योंकि
जमाने के लिये तो जी रहा हूं । 07․06․2011
00000
ऐसा नहीं की मैं नहीं डरता
डर लगता है यारों
दीन को होता देख ठगी का शिकार
श्रम के साथ लूट,अस्मिता पर डाके
अरमानों की बस्ती में लगती आग देखकार
डरता ही नहीं ।
आसुंओं की भेंट भी चढाता हूं
नर पिशाचों को नही
प्रभु को ताकि वे हर डर सहने की ताकत दें
और नरपिशाच में लौट आाये एक दिन
आदमी होने की याद । 07․06․2011
00000
वीरान आज जो दिख रहा है
वह मैने नहीं जमाने ने बोया
मै तो सच्चे सपने बोये थे
श्रम से कर्म अरमान के धरातल पर
जतन से पसीने से सींचे थे
रौंद दी गयी स्वपन वाटिका
भेद के बुलडोजर से ।
मै सांस भर रहा हूं
यारों ये कम नहीं हैं
साजिशों बवण्डर कम नहीं हुए है
जीवित वीरान सींच रहा हूं। 07․06․2011
0000
जालिम लोग क्या जाने
कड़कती दम्भ की बिजली जिनकी
आंसू देना आंसू पर पलना
यही मरना मारना उनका
आदमियत की छांव क्या जाने ।07․06․2011
जमाने ने क्या ना किया
भरे जहां में आंसू दिया
हम थे कि बचते-बचाते
यहां तक पहुंच गये
वे दिन आज भी सताते
हल्का से हो गया भारी
ये जमाने के चोट बलिहारी․․․․․․․․․․․04․06․2011
00000
होली रंगों का त्यौहार
रंग संग बरसे सदाचार
जल तो कल की बहार
आप और आपके
परिवार के लिये
रंगों का त्यौहार
लाये खुशियां हजार ।
होली की मंगलकामनायें․․․․․
00000
॥ होली आयी ॥
होली आयी होली आयी
मन बौराया तन ने ली अंगड़ाई
होली का चहुंओर जयकारा
भ्रष्टाचार के रंग ने पोता कारा
मध्यम दर्जे की खोती होली
सफेद की आड़ काला
कहते बुरा ना मानो होली
नौकरी धंधा पर दायी महंगाई
बगुला भक्तों की अरबों में कमाई
होली आयी होली आयी․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․
हौसले पर पड़ते ओले
लूट गयी नसीब आम आदमी बोले
सफेदी की काली करतूतें रास
ना दुनिया के थूके पर भ्रष्टाचारियों को
लाज ना आयी
होली आयी होली आयी․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․
तीज त्यौहार सम्मान की बात हमारे
राष्ट्र सर्वदा श्रेष्ट,जल है तो जीवन
याद रहे प्यारे
चार दिन का जीवन,
पल की खुशी द्वार आयी
आओ करें सम्मान मानवता का
देवे भर-भर अंजुरी खुशियों की विदाई
होली आयी होली आयी․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․
19․03․2011
॥ मन में तो बस स्वार्थ हैं पलते ॥
कभी फला-फूला करते थे रिश्ते
फलदार पेड़ों की छांव हुआ करते थे रिश्ते ।
सामाजिक-जातीय रिश्ते से उपर थे
दफतर के रिश्ते,
अन्तिम पड़ाव तक थे चलते।
जीवन का बसन्त रोज आठ घण्टे का साथ,
मिलते-बनते-बंटते-जुड़ते जज्बात ।
कहते भले कम थी तनख्वाह
सुख-दुख-दायित्वबोध की नेक परवाह ।
रस्साकसी-पद का अभिमान तनख्वाह भी बढ गयी
बौने रिश्ते छोटे-बडें के बीच खाई संवर गयी ।
वाहय आकर्षण लुभा तो जाते
बगल की खंजर से कलेजे पर घाव कर जाते ।
बेगुनाह उच्चशिक्षित की कैद हो गयी तकदीर
उंची आंखों में गुनाहगार हो गया फकीर ।
भूले-भटके संवार दूरी कुछ हाथ हिला जाते
कहते छोटे लोगों से हाथ मिला मान क्यों घटाये ।
क्या हो गया आज रिसने लगे है रिश्ते
आकर्षण धोखा मन में तो बस स्वार्थ हैं पलते ।
18․03․2011
भ्रष्टाचार
देश-आवाम के खून पीने वालों से,
कैसे मिले छुटकारा
जनता की कमाई पर काग-दृष्टि,
घायल जनतन्त्र हमारा।
हाशिये का आदमी ,
तरक्की की बाट जोह रहा सदियों से
देखो बगुला-भक्तों का,
नोंच रहे चेहरे बदल-बदल के ।
बदले वक्त में देश भ्रष्टाचारियों का,
शिकारगाह हो गया है
नोच रहे जैसे शेर जीवित शिकार पटक नोंच-नोंच रहा हो ।
देश की गाढी कमाई से,
स्विस-विदेशी बैंकों का खजाना भर रहे
लाज ना आवत उनको,
देश और आवाम का सेवक बन रहे ।
जन सेवक वे जो रूखी-सूखी खाये,
जन-राष्ट्र सेवा में आगे आये
जनसेवा के नाम पर दगा,
ऐसे को तो गिद्ध कहा जाये ।
ना करो बदनाम,जनसेवक का नाम हे आज के धृतराष्ट्र
याद रहे फर्ज आवाम-देश का विकास, धर्म रहे राष्ट्र।
चला रहे उम्मीद पर छुरी
देश के लिये कालिया नाग हो गया, भ्रष्टाचार तुम्हारा,
अरे चेहरे बदलने वालों ,
अब तो मन गंगाजल से धोलों
देख रहे हो जनता बढ रही है,सौंप दो
वरना लूट जायेगी शानोशौकत,लूटी दौलत
हो जायेगा सदा के लिये बदनाम
वंश तुम्हारा । 21․02․2011
॥ नर के भेष में नारायण ॥
बात पर यकीन नहीं होता आज आदमी की
नींव डगमगाने लगती है घात को देखकर आदमी के ।
बातों में भले मिश्री घुली लगे तासिर विष लगती है
आदमी मतलब साधने के लिये सम्मोहन बोता है।
हार नहीं मानता मोहफांश छोड़ता रहता है,
तब-तक जब-तक मकसद जीत नहीं लेता है।
आदमी से कैसे बचे आदमी बो रहा स्वार्थ जो
सम्मोहित कर लहू तक पी लेता है वो ।
यकीन की नींव नहीं टिकती विश्वास तनिक जम गया
मानो कुछ गया या दिल पर बोझ रख निकाला गया ।
भ्रष्टाचार के तूफान में मुस्कान मीठे जहर सा
दर्द चुभता हरदम वेश्या के मुस्कान के दंश सा ।
मतलबी आदमी की तासिर चैन छीन लेती है
आदमी को आदमी से बेगाना बना देती है ।
कई बार दर्द पीये है पर आदमियत से नाता है
यही विश्वास अंधेरे में उजाला बोता है ।
धोखा देने वाला आदमी हो नहीं सकता है
दगाबाज आदमी के भेष दैत्य बन जाता है ।
पहचान नहीं कर पाते ठगा जाते है,
ये दरिन्दे उजाले में अंधेरा बो जाते है ।
नेकी की राह चलने वाले अंधेरे में उजाला बोते है
सच लोग ऐसे नर के भेष में नारायण होते है ।
18․02․2011
॥ आशीश की थाती ॥
मां ने कहा था,बेटा मेहनत की कमाई खाना
काम को पूजा, फर्ज को धर्म,
श्रम को लाठी को समझना
यही लालसा है
धोखा-फरेब से दूर रहना ।
लालसा हो गयी पूरी मेरी
जय-जयकार होगी बेटा तेरी
चांद-सितारों को गुमान होगा तुम पर
वादा किया था पूरा करने की लालसा
चरणों में सिर रख दिया था
मां के हाथ उठ गये थे,
लक्ष्मी,दुर्गा और सरस्वती के ,
परताप एक साथ मिल गये थे ।
आशीश की थाती थामें
कूद पड़ा था जीवन संघर्ष में,
दगा दिया दबंगो ने
श्रम-कर्म-योग्यता को न मिला मान
गरजा अभिमान उम्मीदे कुचल गयीं
योग्यता को वक्त ने दिया सम्मान ।
मां का आशीश माथे,सम्भावना का साथ
हक हुआ लूट का शिकार पसीने की बूंद,
आंखों के झलके आंसू मोती बन गये
विरोध के स्वर मौन हो गये
मां की सीख बाप का अनुभव
पत्थर की छाती पर दूब उगा गये
उसूल रहा मुस्कराता
कैद तकदीर के दामन वक्त ने
सम्मान के मोती मढ दिये ।
हक-पद-दौलत आदमी के कैदी हो गये
जिन्दगी के हर मोढ पर आंसू दिये
सम्भावना को ना कैद कर पाई कोई आंधी
बाप के अनुभव मां के आशीश की थी,
जिसके पास थाती ।
15․02․11
॥ आदमी अकेला है ॥
अपनी ही खुली आंखों के ख्वाब,डराने लगे हैं
अकेला है जहां में फुफकारने लगे है
फजीहत के दर्द पीये,जख्म से वजूद सींचे
भूख पसीने से धोये
सगे अपनों के लिये जीये हैं।
वक्त हंसता है,ख्वाब डराता है
कहता है जमाने की भीड़ में अकेला है
कैसे मान लूं ,हाड़ निचोड़ा किया-जीया
सगे अपनों के लिये, क्या वे अपने सच्चे नहीं ?
अपनो के सुख-दुख की चिन्ता में डूबा रहा
खुद के सपनों की ना थी फिकर
खुद की आंखों के सपने धूल गये
अपने सपने सगों में समा गये ।
सच है त्याग सगे अपनों के लिये
गैर-अपनों के लिये क्या किये
कर लो विचार मंथन वक्त है
सच कह रहा वक्त
आदमी अकेला है,दुनिया का साजो-श्रृंगार झमेला है।
सगे अपनों के लिये दगा-धोखा गैर के हक-लहूं से किस्मत लिखना ठीक नही,
मेहनत-सच्चाई-ईमानदारी से
सगे अपनों की नसीब टांके चांद तारे
दुनिया का दस्तूर है प्यारे
गैरों की तनिक करे फिकर
दान-ज्ञान-सत्कर्म हमारे
वक्त के आर-पार साथ निभाते
जमाने की भीड़ में हर आदमी अकेला,
ध्यान रहे हमारे ।
15․02․2011
॥ नया सूर्योदय ॥
करता बसन्त की खेती
पावे अंजुलि भर-भर पतझड़
यह कैसा अत्याचार ?
आंगन में बरसे अंधेरा
चौखट पर गरजे सांझ
हुंकारो का मरघट उत्पात मचाया
शोषण उत्पीड़न नसीब बन रूलाया ।
ये कैसा प्रलय जहां उठती
दीन शोषितों को कुचलने की आंधी
क्रान्ति कभी करेगी प्रवेश
कोेरे मन में
ना भडकती अधिकार की ज्वाला
चीत्कार से नभ कांप उठता
धरती भी अब थर्राती
नसीब कैद करने वालों के माथे
सिंकन ना आयी ।
दुख के बादल,वेदना की कराह
उठने की उमंग नहीं टिकती यहां
अभिशाप का वास जीवन त्रास यहां
भूख से कितने बीमारी से मरे
ना कोई हिसाब यहां
कहते नसीब का दोष बसते दीन दुखी जहां
क्रान्ति का आगाज हो जाये अगर
मिट जाती सारी बलाये
श्रम से झरे सम्वृद्धि ऐसी
पतझड़ कुंनबा हो जाये मधुवन ।
कुव्यवस्था का षणयन्त्र डंसता हरदम
ना उठती क्रान्ति सुलगते उपवन
जीवन तो ऐसे बीतता जैसे
ना आदमी बिल्कुुल पशुवत्
क्या शिक्षा क्या स्वास्थ क्याा खाना-पानी
आशियाने में छेद इतना
आता-जाता बेरोक-टोक हवा-पानी
शोषित वंचित भारत की दुखद कहानी ।
वंचित भारत से अनुरोध हमारा
आओ करें क्रान्ति का आह्वाहन
सड़ी-गली परिपाटी का कर दें मर्दन
भस्म कर दें मन की लकीरे
समता के बीज बो दे
हक की आग लगा दे वंचित मन मे
सोने की दमक आ जाये वंचित भारत में
नया सूर्योदय हो जावे अंधेेरे अम्बर में ।
01․01․2011
अब तो उठ जाओ․․․․․․․․․․․․․
हे जग के पालनकर्ताओर्
शोषित भूमिहीन खेतिहर मजदूर किसानों
कब तक रिरकोगेें,ताकोगे वंचित राह
उठने की चाह बची है अगर
आंखों में जीवित है सपने कोई
देर बहुत हो गयी
दुनिया कहां से कहां पहुंच गयी
तुम वही पड़े तड़प रहे हो,
पिछली शदियों से
शोषित भूमिहीन खेतिहर मजदूर किसानो
हुआ विहान जाग जाओ
अब तो उठ जाओं․․․․․․․․․․․․․
तोड़ने है बंदिशों के ताले
छूना है तरक्की के आसमान
नसीब का रोना कब तक रोओगे
खुद की मुक्ति का ऐलान करो
नव प्रभात चौखट आया
शोषित भूमिहीन खेतिहर मजदूर किसानो
हुआ विहान जाग जाओ
अब तो उठ जाओं․․․․․․․․․․․․․
जग झूमा तुम भी झूमों
नव प्रभात का करो सत्कार
परिवर्तन का युग है
साहस का दम भरो
कर दो हक की ललकार
नगाड़ा नक्कारों का गूंज रहा
कर दो बन्द फुफकार
शोषित भूमिहीन खेतिहर मजदूर किसानो
हुआ विहान जाग जाओ
अब तो उठ जाओं․․․․․․․․․․․․․
कब तक ढोओगे मरते सपनों का बोझ
मुक्ति का युग है
हाथ रखो हथेली प्राण मन-भर उमंग
21वीं शदी का आगाज
इंजाम तुम्हारे कर कमलों में
बहुत रिरक लिये दिखा दो बाजुओ का जोर
थम जाये नक्कारो का शोर
शोषित भूमिहीन खेतिहर मजदूर किसानो
हुआ विहान जाग जाओ
अब तो उठ जाओं․․․․․․․․․․․․․
नव प्रभात विकास की पाती लाया है
मानवतावाद का आगाज करो
आर्थिक समानता की बात करो
अत्याचार,भ्रष्टाचार पर करने को वार
जग के पालनकर्ता हो जाओ तैयार
समता की क्रान्ति का करो ललकार
शोषित भूमिहीन खेतिहर मजदूर किसानो
हुआ विहान जाग जाओ
अब तो उठ जाओं․․․․․․․․․․․․․
आंसू पीकर दरिद्रता के जाल फंसे रहे
बलिदान से अब ना डरो
हुआ विहान जागो करो ताकत का संचय
कल हो तुम्हारा विकास की बहे धारा
शोषित भूमिहीन खेतिहर मजदूर किसानो
एक दूसरे की ओर हाथ बढाओ
अब तो उठ जाओं․․․․․․․․․․․․․
01․01․2011
॥ फतह ॥
हार तो मैने माना नही
भले ही कोई मान लिया हो
हारना तो नही
फना होना सीख लिया है
जीवन मूल्यों के रास्तों पर ।
बेमौत मरते सपनों के बोझ तले दबा
कब तक विधवा विलाप करता
बेखबर कर्मपथ पर अग्रसर
ढूढ लिया है
साबित करने का रास्ता ।
जमाने की बेरहम आधियां
ढकेलती रहती है रौदने के लिये
रौद भी देती
अस्थिपंजर धूल कणों में बदल जाता
ऐसा हो ना सका
क्योंकि मैने
जमीन से टिके रहना सीख लिया है ।
आंधिया तो ढकेलती रहती है
रौदने के लिये
जमीन से जुड़े रहना जीत तो है
भले ही कोई हार कह दे
अर्थ की तराजू पर टंगकर
पद-अर्थ का वजन बढाना जीत नही
जमीन से जुडा कद बड़ी फतह है ।
घाव पर खार थोपना मकसद नही
आंसू पोंछना नियति है
इंसान में भगवान देखना आदत
जानता हूं
इंसानियत का पैगाम लेकर,
चलने वालेां की राह में कांटे होते है
या बो दिये जाते है
कंटीली राह पर चले आदमी का
बाकी रहता है निशान
यही नेक इंसान की फतह है ।
मानवीय एकता का दामन थाम़ लिया है
यही तो किया है कबीर,बुद्ध और कई लोग
जो काल के गाल पर विहस रहे हैं
पाखण्ड और कपट के बवण्डर उठते रहते है
कलम की नोंक स्याही में डुबोये
बढता रहता हूं फना के रास्ते ।
मान लिया है क्या सच भी तो है
पुआल की रस्सी पत्थर काट सकती है
दूब पत्थर की छाती छेदकर उग सकती है तो
मैं देश धर्म और
बहुजन-हिताय की आक्सीजन पर
आधियों में दीया थामे
जमीन से जुड़ा
क्यों नहीं कर सकता फतह ?
․․29․12․2010
॥ आओ कर ले विचार ॥
मेहनतकश हाशिये का कर्मवादी आदमी
फर्ज का दामन क्या थाम लिया ?
नजर टिक गयी उस पर जैसे कोई
बेसहारा जवान लड़की हो ।
शोषण,दोहन की वासनायें जवां हो उठती है
कांपते हाथ वालों
उजाले में टटोेलने वालों के भी
दंबगता के बाहों में झूलकर।
हाल ये है
कब्र में पांव लटकाये लोगो का
जवां हठधर्मिता के पक्के धागे से,
बंधों का हाल क्या होगा ?
जानता है ठगा जा रहा है युगों से
तभी तो कोसों दूर है विकास से
थका हारा तिलमिलाता
ठगा सा छाती में दम भरता
पीठ से सटे पेट को फुलाता
उठाता है गैती फावड़ा
कूद पड़ता है भूख की जंग में
जीत नहीं पाता हारता रहता है
शोषण,भ्रष्टाचार के हाथों
टिकी रहती है बेशर्म नजरें जैसे कोई
बेसहारा जवान लड़की हो ।
मेहनतकश हाशिये का कर्मवादी आदमी
फर्ज का दामन क्या थाम लिया ?
नजर टिक गयी उस पर जैसे कोई
बेसहारा जवान लड़की हो ।
शोषण,दोहन की वासनायें
जवां हो उठती है
कांपते हाथ वालों
उजाले में टटोेलने वालों के भी
दंबगता के बाहों में झूलकर।
हाल ये है
कब्र में पांव लटकाये लोगो का
जवां हठधर्मिता के पक्के धागे से,
बंधों का हाल क्या होगा ?
जानता है ठगा जा रहा है युगों से
तभी तो कोसों दूर है विकास से
थका हारा तिलमिलाता
ठगा सा छाती में दम भरता
पीठ से सटे पेट को फुलाता
उठाता है गैती फावड़ा
कूद पड़ता है भूख की जंग में
जीत नहीं पाता हारता रहता है
शोषण,भ्रष्टाचार के हाथों
टिकी रहती है बेशर्म नजरें
जैसे कोई
बेसहारा जवान लड़की हो ।
यही चलन है कहावत सच्ची है
धोती और टोपी की
धोतियां तार-तार और
टोपियां रंग बदलने लगी है
तभी तो जवां है शोषण भ्रष्टा्रचार
और अमानवीय कुप्रथायें
चक्रव्यूह में फंसा
मेहनतकश हाशिये का आदमी
विषपान कर रहा है
बेसहारा जवां लड़की की तरह ․․․․․
खेत हो खलिहान हो
या श्रम की आधुनिक मण्डी
चहुंओर मेहनतकश हाशिये के आदमी की
राहे बाधित है
सपनों पर जैसे पहरे लगा दिये गये हो,
योग्य अयोग्य साबित किया जा रहा है
कर्मशीलता योग्यता पर
कागादृष्टि टिकी रहती है ऐसे
मेहनतकश हाशिये का आदमी
कोई बेससहारा जवान लड़की हो जैसे ․․․․․․․․
कब तक पेट में पालेगा भूख
कब तक ढोयेगा दिनप्रति दिन
मरते सपनों का बोझ
दीनता-नीचता का अभिशाप
कब तक लूटता रहेगा हक
मेहनतकश हाशिये के कर्मवादी आदमी का
आओ कर ले विचार․․․․․․․․․․․․․․․․․․
․․․29․12․2010
00000
यही चलन है कहावत सच्ची है
धोती और टोपी की
धोतियां तार-तार और
टोपियां रंग बदलने लगी है
तभी तो जवां है शोषण भ्रष्टा्रचार
और अमानवीय कुप्रथायें
चक्रव्यूह में फंसा
मेहनतकश हाशिये का आदमी
विषपान कर रहा है
बेसहारा जवां लड़की की तरह ․․․․․
खेत हो खलिहान हो
या श्रम की आधुनिक मण्डी
चहुंओर मेहनतकश हाशिये के आदमी की
राहे बाधित है
सपनों पर जैसे पहरे लगा दिये गये हो,
योग्य अयोग्य साबित किया जा रहा है
कर्मशीलता योग्यता पर
कागादृष्टि टिकी रहती है ऐसे
मेहनतकश हाशिये का आदमी
कोई बेससहारा जवान लड़की हो जैसे ․․․․․․․․
कब तक पेट में पालेगा भूख
कब तक ढोयेगा दिनप्रति दिन
मरते सपनों का बोझ
दीनता-नीचता का अभिशाप
कब तक लूटता रहेगा हक
मेहनतकश हाशिये के कर्मवादी आदमी का
आओ कर ले विचार․․․․․․․․․․․․․․․․․
․․․29․12․2010
लड़कियां बोझ नहीं वरदान है ।
मां-बाप की प्राण
भईया की खुशी अपरम्पार
कायनात की आधार है।
घर-परिवार की बहार है
जगत की श्रृंगार है
जीवन फूल लड़कियां सुगन्ध है
लड़कियां बोझ नहीं वरदान है․․․․․․․
जंजीर
पावं जमे भी ना थे जहां में
पहरे लग गये ख्वाबों पर
पांव जकड़ गये जंजीरों में
गुनाह क्या है, सुन लो प्यारे․․․․․․․․․
आदमी होकर आदमी ना माना गया
जाति के नाम से जाना गया
यही है शिनाख्त बर्बादी की
मेरे और मेरे देश की
नाज है भरपूर
देश और देश की मांटी पर
एतराज है भयावह
जातिभेद के बंटवारे की लाठी पर
आजाद देश में सिसकता हुआ जीवन
कैसे कबूल हो प्यारे․․․․․․․․․․․․․․
आदमी हूं आदमी मनवाने के लिये
जंग उसूल नहीं हमारे
बुध्द का पैगाम कण-कण में जीवित
नर से नारायण का संदेश सुनाता
दुर्भाग्य या साजिश आदमी आदमी नहीं होता ․․․․
यही दर्द जानलेवा, पांव की जंजीर भी
डाल दिये है जिसने नसीब पर ताले
लगे है शदियों से ख्वाब पर पहरे
अब तोड़ दे भेद की जंजीरे
मानवीय समानता की कसम खा ले
आजाद देश में आदमी को छाती से लगा ले․․․․․․․․․
․․․․․․11․10․2010
अभिव्यक्ति
जमाने की दर पर बड़े घाव पाये हैं,
हौशले बुलन्द पर खुद को दूर पाये है ।
पग-पग पर साजिशे ,हौशले न मरे,
षणयन्त्र के तलवार गरजे पर रह गये धरे ।
क्या बयां करू नसीब पर खूब चले आरे,
ल्ूाट गयी तालिम,अभिव्यक्ति संबल हमारे ।
छल की चौखट पर कर्म बदनाम हुआ,
दहक उठे ख्वाब पर फर्ज आबाद हुआ ।
चांदी का जूता नहीं सिर पर नहीं ताज
फकीर का जीवन अभिव्यक्ति का नाज ।
षणयन्त्र भरपूर,रास्ते बन्द,ना चाहूं खैरात
हक की ख्वाहिश क्यों चढी माथे बैर की बारात ।
मिट जायेगा कल आज पर कतरे जायेगे,
छिन जाये रोटी भले,मर कर ना मर पायेगे ।
दीवाना समय का पुत्र क्या मार पाओगे,
आज लूट लो नसीब भले,
एक दिन आत्मदाह कर जाओगे ।
․․․․․․11․10․2010
॥ उत्थान ॥
मुश्किल के दौर से गुजर रहा है
युवा साहित्यकार
ऐसे मुश्किल के दौर में भी
हार नहीं मान रहा है।
ठान रखा है जीवित रखने के लिये
साहित्यिक और राष्ट्रीय पहचान ।
ऐसे समय में जब
हाशिये पर रख दिया गया हो
पाठक दर्शक बन गये हो
स्वार्थ का दंगल चल रहा हो
साहित्यिक संगठन वरिष्ठ नागरिक मंच में,
तबदील हो रहे हो
ठीहे की अघोषित जंग चल रही
क्या यह संकटकाल नहीं ?
वरिष्ठों को कल की फिक्र नही
नही युवाओं के पोषण की ।
वे आज को भोगने में लगे है
युवाओं के हक छिने जा रहे हैं
राजनीति के सांचे में
हर सत्ता ढाली जा रही है ।
साहित्यिक ठीहे कब्जे में हो गये है
युवा कलमकार निराश्रित हो गये है
कब छंटेगे सत्ता मोह के बादल ?
कब करेगे चिन्तन ये वरिष्ठ
कब्र में पांव लटकाये लोग
कब गरजेगा युवा
कब होगा काबिज खुद के हक पर
कब आयेगी साहित्यिक,मानवीय-समानता
और राष्ट्रधर्म की क्रान्ति ?
सही-सही बता पायेगे
सत्ता सुख में लोट-पोट कर रहे
वरिष्ठ लोग ।
तभी विकास कर पायेगा युवा,
साहित्य और राष्ट्र्र भी ।
जब तक सत्ता कब्जे में है
तब तक कुछ सम्भव नहीं
नाहिं युवा का,नाहि साहित्य का
नाहिं राष्ट का उत्थान
नाहिं कर सकता है युवा उत्थान ।
20․07․2010
आमजनता
पुलिस को लोग कोसते नहीं थकते
नाकामयावी गिनाते रहते
सच ही तो लोग कहते
रक्षक अब तो भक्षक है बनते
गुमान से देश-जन सेवक कहते ।
अग्निशमन विभाग पर दोष मढते
आग बुझ जाती तब ये पहुंचते
झूठ नहीं लोग सच्चाई बकते
लेटलतीफी से किसी के घर
किसी के दिल जलते
इन्ही सताये गये लोगो को,
आम जनता कहते है ।
बिजली वाले भी कमस खा लिये है
दर बढाने की जिद पर अड़े रहते है
बिजली चोरी नहीं रोक पाते है
चोरी की सजा सच्चे ग्राहक पाते है
खम्भे से मीटर तक बिजली बहाते है
हो गया फाल्ट करते रहो शिकायत
वे अगूंठा दिखाते है
प्राइवेट से काम करवा लो
तब वे सप्लाई चालू है कि
दस्तख्त करवाने आते है ।
जन सेवक फर्ज भूलते जा रहेे है
खुद को खुदा मान रहे हैं
देख हक की डकैती कुफ्त हो रही है
सच आमजनता को ठगने कि
साजिश चल रही है ।
․․․․․․29․06․2010
॥उदासी के बादल-दर्द की बदरी ॥
ये उदासी के बादल दर्द क बदरी
आंतक का चक्रव्यूह, पतझड़ होता आज
किसी अनहोनी
या कल के सकून का संदेश है,
गवाह है
वक्त रात के बाद विहान
हुआ है हो रहा है
और होने की उम्म्ीद है
क्योंकि
यह प्रकृति के हाथ में हैं
आज के आदमी के नहीं ।
आदमी आदमी का नहीं है आज
बस मतलब का है राज
प्रकृति की खिलाफत पर उतर चुका है
नाक की उूंचाई पसन्द है उसे
खुशी बसती है उसकी
दीनशोषितों के दमन में
दुर्भाग्यबस
कमजोर के हक पर कुण्डली मारे
खुद की तरक्क्ी मान बैठा है
बेचारे दीन दरिद्र अपनी तबाही ।
अभिमान के शिखर पर बैठा आदमी
बो रहा है
जातिवाद,धर्मवाद,क्षेत्रवाद,आतंकवाद
और
नक्सलवाद के विष- बीज
विष-बीज की जड़े नित होती जा रही है गहरी
उफनने लगा है जहर
उड़ रहे हैं लहू के कतेर-कतरे
विष-बीज की बेले हर दिल पर फैल चुकी है
रूढिवाद कट्टरवाद जातीय-धार्मिक उन्माद के रूप में
ऐसी फिजा में नहीं छंट रहे हैं
उदासी के बादल और
नही हो रहा तनिक दर्द कम
नही दे रही है तरक्की
दीन-वंचिताकें की चौखटों पर दस्तक
चिथड़े-चिथड़े हो जा रही है योजनायें
नही थम रहा है जानलेवा दर्द भी ।
आज जब दुनिया छोटी हो गयी है
आदमी से आदमी की दूरी बढ गयी है
कसने लगा है आदमी विरोधी शिकंजा
तडपने लगा है
खुद के बोये नफरत में फंसा आदमी ।
सच नफरत की खड़ी दीवारें
आदमी की बनायी गयी है
तभी तो नहीं छंट रहा धुआं
प्रकृति धूप के बाद छांव देती है
पतझड़ के बाद बसन्त का उपहार
अंध्ंरे के बाद उजियारा भी
परन्तु आदमी आज जा
चाहता है
दुनिया का सुख सिर्फ अपने लिये
परोसता है नफरत की आग
ना जाने क्यों ?
अमर होने की
कभी ना पूरास होने वाली लालसा में ।
आज के हालाता को देखकर
बार-बार उठते है सवाल
क्या खत्म होगाजाति-धर्म क्षेत्रवाद का उन्माद
सवालों का हल कायनात का भला है
ज्ाब मानवीय -समानता सद्भावना एकता
अमन शान्ति का उठेगा,जज्बा हर दिल से
तभी छंट सकेगे उदासी के बादल
थम सकेगी दर्द की बदरी
जी सकेगा आदमी सकून की जिन्दगी
कुसुमित हो सकेगी आदमियत धरती पर ․․․․․․․․․․․․
22․06․2010
। हमारी धरती हो जाती स्वर्ग ॥
कल मानसून की पहली दस्तक थी
फुहार का सभी लुत्फ उठा रहे थे
ल्ू में सुलगे पेड-पौधे
प्यास बुझाने के लिये त्राि-त्राहि करते
जीव-जन्तु,पशु-पक्षी और इंसान भी
थ्पजडे़ में चैन की बंशी बजाता मीट्ठू
ग-गाकर नाच रहा था ।
कुछ ही देर पहले क्या पलटे चल रही थी
जैसे भांड़ में चने सिंक रहे हो
ये प्रकृति का दुलार था
कुम्हार की तरह
चल पड़ी ठण्डी बयार
शहनाई बनजे लगी आकाश
बरस पड़े बदरवा ।
गर्मी से तप रही धरती
पहली मानसून की बूंदो में नहाकर
सोधी-सोधी मन-भावन खुशबू लुटाने लगी
दादुर भी मौज में आकर गाने लगे
नभ से बदरा गरज- बरस रहे थे
मेरा मन माटी के सोधेपन में डूब रहा थामन के डूबते ही
विचार के बदरवा बरसने लगेमझे लगने लगा हम
कितने मतलबी है
जिस प्रकृति का खुलेआम दोहन कर रहे
जीवन देने वाले पर आरा चला रहे
पहाड़ तक सरका रहे
मन चाहा शोषण-दोहन-उत्पीड़न भी
वही प्रकृति कर रही है सुरक्षा ।
हम मतलबी है छेड़ रहे हैं जंग
प्रकृति के खिलाफ
बो रहे हैं आग जाति-धर्म आतंक की
कभी ना खत्म होने वाली ।
क प्रकृति है सह रही है जुल्म
कुसुमित कर रही है उम्मीदे
सृजित कर रही है जीवन
उपलब्ध करा रहा है
जीवन का साजो सामान
पूरी कर रही है जीवन की हर जरूरते
बिना किसी भेद के निःस्वार्थ
एक हम है मतलबी , बोते रहते है आग
प्रकृति-जीव और जाने अनजाने खुद के खिलाफ
काश हम अब भी, प्रकृति से कुछ सीख लेते
सच भारती, हमारी धरती हो जाती स्वर्ग․ ․․․․․․․․
21․06․2010
रक्तकुण्डली
ना बनो लकीर के फकीर ना ही पीटो ठहरा पानी
रूढिवाद छोड़ो विज्ञान के युग में बन जाओ ज्ञानी ।
जाति-गोत्र मिलान का वक्त नहीं ना करो चर्चा
स्वधर्मी रिश्ते रक्त-कुण्डली पर हो खुली परिचर्चा ।
ये कुण्डली खोल देगी असाध्य ब्याधियो का राज
नियन्त्रित हो जायेगी ब्याधियां सुखी हा जाएगा समाज।
विवाह पूर्व रक्त कुण्डली की हो जाये अगर जांच
जीवन सुखी असाध्य ब्याधियों की ना सतायेगी आंच।
हो गया ऐसा तो रूक जायेगा मृत्युदूतों का प्रसार
ना छुये मृत्युदूत-रोग अब हो रक्तकुण्डली का प्रचार।
ले लेते है जान थेलेसीमिया एडस् रोग कई-कई हजार
निदान बस विवाह पूर्व मेडिकल जांच की है दरकार ।
ये जांच बन जाएगी स्वस्थ-खुशहाल जीवन का वरदान
आनुवांशिक असाध्य रोगो से बचना हो जाएगा आसान ।
जग मान चुका अब,मांता-पिता है अगर असाध्य रोगी
अगली पीढी स्वतः हो जायेगी रोगग्रस्त-अपंग-भुक्तभोगी ।
छोड़ो रूढिवादी बाते हो स्व-धर्मी रिश्ते-नाते पर विचार
कर दो रक्त कुण्डली मिलान का ऐलान
आओ हम सब मिलकर बनाये
सम्वृद्ध-असाध्य-रोगमुक्त हिन्दुस्तान ।
․․30․06․10
॥ मिल गया आकाश थोड़ा ॥
खुदगर्ज जमाने वालो ने खूब किये है जुल्म,
अस्मिता,कर्मशीलता,योग्यता तक को नहीं छोड़ा है।
नफरत भरी दुनिया में कुछ सकून तो है यारों,
कुछ तो है जमाने में देवतुल्य जिन्हे
मुझसे लगाव थोड़ा तो है ।
जमा पूंजी कहूं या जीवन की सफलता
बड़ी शिद्दत से जीवन को निचोड़ा है।
बड़े अरमान थे पर रह गये सब कोरे
कुछ है साथ जिनकी दुआओं से,
गम कम हुआ थोड़ा है।
मैं नहीं पहचानता नाहि वे
पर जानते है एक दूसरे का
हर दिन मिल जाते है
शुभकामनाओं के थोकबन्द अदृश्य पार्सल
भले ही जमाने वालों ने बोया रोड़ा है
अरमान की बगिया रहे हरी-भरी,
हमने खुद को निचोड़ा है।
मेरा त्याग और संघर्ष कुसुमित है
मिल रही है दुआयें थेड़ा-थोड़ा
दौलत के नहीं खड़े कर पाये ढेर
भले ही पद की तुला पर रह गये बेअसर
धन्य हो गया मेरा कद
दुआओं की उर्जा पीकर थोड़ा-थोड़ा ।
मैं आभारी रहूंगा
उन तनिक भर देवतुल्य इंसानो का
जिनकी दुआओ ने मेरे जीवन में ,
ना टिकने दिया खुदगर्ज जमाने का रोड़ा
संवर गया नसीब
मिल गया अपने हिस्से का असामानथोड़ा․․․․․․․․
․․ 30․06․2010
पिता
मैं पिता बन गया हूं
पिता के दायित्व और संघर्ष को,
जीने लगा हूं पल-प्रतिपल ।
पिता की मंद पड़ती रोशनी,
घुटनेां की मनमानी मुझे डराने लगी है
पिती के पांव में लगती ठोकरे
उजाले में सहारे के लिये फड़कते हाथ
मेरी आंखे नम कर देते है ।
पिती धरती के भगवान है
वही तो है जमाने के ज्वार-भाटे से
सकुशल निकालकर
जीवन को मकसद देने वाले ।
परेशान कर देती है उनकी बूढी जिद
अड़ जाते है तो अडियल बैल की तरह
समझौता नहीं करते,
समझौता करना तो सीखा ही नहीं है ।
पिता अपनी धुन के पक्के है
मन के सच्चे है ,नाक की सीध चलने वाले है ।
पिता के जीवन का आठवां दशक प्रारम्भ हो गया है
नाती-पोते सयाने़े हो गये है
मुझे भी मोटा चश्मा लग गया है
बाल बगुले के रंग में रंगते जा रहेे है
पिताजी है कि बच्चा समझते है ।
पांव थकते नही, उनके आठवें दशक में भी
भूल-भटकेे शहर आ गये तो, आहो हवा जैसे उन्हे चिढाती है
आते ही गांव जाने की जिद शुरू हो जाती है
गांव पहुंचते शहर में रोजी-रोटी की तलाश में आये
बेटा-बहू नाती-पोतेां की फिक्र ।
पिता की यह जिद छांव लगती है
बेटे के जीवन की
सच कहे तो यही जिद,थकने नहीं देती
आठवें दशक में भी पिता को
आज बाल-बाल बंच गये,सामने कई चल बसे
बस और जीप की जो खूनी टक्कर थी
सिर पर हाथ फेरकर मौत रास्ता बदल ली थी।
खटिया पर पड़े -पडे़ पिता होने का फर्ज निभा रहे हैं
कुल-खानदान ,सद्परम्पराओं की नसीहत दे रहे हैं
जीवन में बाधाओं से तनिक ना घबराना
कर्मपथ पर बढते रहने का आहवाहन कर रहे हैं ।
यही पिता होने का फर्ज है
पिताजी अपनी जिद के पक्के है
और अब मैं भी यकीनन,
परिवार,घर -मंदिर के भले के लिये जरूरी भी है ।
मै भी समझने लगा हूं
क्योंकि मैं पिता बन गया हूं
औलादें के आज और कल की फिक्र
मुझे पिता की विरासत सौप रही है
यकीन है मेरी फिक्र एक दिन मेरर औलाादक को
सीखा देगी सफल पिता के दांवपेंच ․․․․․․․․․․․․․․․․
01․07․2010
․उम्र का मधुमास
झांक कर आगे -पीछे,
देखकर बेदखली बेबसी की दास्तान
ढो कर चोट का भार, पाकर तरक्की से दूर
लगने लगा है
गिरवी रख दिया उम्र का मधुमास ।
ना मिली सोहरत ना मिली दौलत
गरीब के गहने की तरह ,
चन्द सिक्कों के बदले साहूकार की तिजोरी में
कैद हो गया उम्र का मधुमास ।
पतझर झराझर उम्र के मधुमास
बोये सपने तालिम की उर्वरा संग
सींचे पसीने से ,अच्छे कल की आस
बंटवारे की बिजली गिर पड़ी भरे मधुमास ।
सपने छिन्न-भिन्न,राहे बन्द
आहे भभक रही
ये कैसी बंदिशे सांसे तड़पतड़प् कह रही
किस गुनाह की सजा निरापद को
हक लूट गये भरे मधुमास ।
तालिम की शवयात्रा श्रेष्ठता का मान
दबंगता की बौझार श्रम का अपमान
गुहार बनता गुनाह होता सपनो का कत्ल
आज गिरवी कल से भी ना पक्की आस
डूबत खाते का हो गया शोषित का मधुमास ।
लहलहाता आग का ताण्डव
शोषित गरीब की नसीब होती नित कैद
उड़ान पर पहरे, सम्भावना पर बस आस
मन तड़प-तड़प कहता
ना मान ना पहचान
कहां गिरवी रख दिया उम्र का मधुमास ।
दीन-शोषितों की पूरी हो जाती आस
नसीब के भ्रम से परदा हट जाता,
मिलता जल-जमीन पर हक बराबर
तरक्की का अवसर समान
ना जाति-धर्म-क्षेत्रवाद की धधकती आग
मृतशैय्या पर ना तड़पता मधुमास
ना तड़प-तड़प कर कहता
कहां गिरवी रख दिया उम्र का मधुमास ।
11․12․09
मधुमास․
भविष्य के बिखर पत्तों के निशान पर
आने लगा है उम्र का नया मधुमास
रात दिन एक हुए थे,
पसीने बहे,खुली आंखों में सपने बसे
वाद की शूली पर टंगे गये अरमान
व्यर्थ गया पसीना मारे गये सपने
मरते सपनो की कम्पित है सांस ।
सम्भावना की धड़क रही है नब्जें
अगले मधुमास विहस उठे सपने
नसीब के नाम ठगा गया कर्म
मरूभूमि से उठती शोल की आंधी
राख कर जाती सपनो की जवानी
कांप उठता गदराया मन
भेद की लपटो से सुलग जाता बदन ।
तालिम का निकल चुका जनाजा
योग्यता का उपहास सपनो का बजता नित बाजा
जीवन में खिलेगा मधुमास बाकी है आस
पसीने से सींचे कर्मबीज से उठेगी सुवास ।
उजड़े सपनों के कंकाल से
छनकर गिरती परछार्यी में
सम्भावनाओ का खोजता मधुमास
सुलगते रिश्ते भविष्य के कत्लेआम
उमंगो पर लगा जादू टोना
मरते सपने बने ओढना और बिछौना ।
सम्भावनाओं के संग जीवित उमंग
कर्म का होता पुर्नजीवित भरोसा
साल के पहले दिन
कर्म की राह गर्व से बढ जाता
सम्भावना की उग जाती कलियां
जीवन के मधुमास से छंट जाये आधियां ।
पूरी हो जाये मुराद वक्त के इस मधुमास
लूटे भाग्य को मिले उपहार बासन्ती
कर्म रहे विजयी तालिम ना पाये पटकनी
जिनका उजड़ा भविष्य उन्हे मिले जीवन का हर मधुमास
हो नया साल मुबारक,
गरीब-अमीर सब संग-संग गाये गान
जीवन की बाकी प्यास
भविष्य के बिखरे पत्तों के निशान पर
छा जाये मधुमास․․․․
9․12․09
नदी
नदी की पहचान है उसका प्रवाह ,
नदी का अस्तित्व भी है प्रवाह
जीवन की गतिशीलता का संदेश है नदी
संस्कृति का जीवन्त उपदेश है नदी ।
नदी का निरन्तर प्रवाह
जीवन में भी है प्रवाह ।
थमना जीवन नहीं है
थम गया तो जीवन नहीं है।
नदी नदी नहीं है ,
जब तक प्रवाहित नहीं है
अफसोस नदी थकने लगी है ।
नदी में जल का कल-कल प्रवाह
संस्कृति और जीवन का भी है प्रवाह ।
नदी का प्रवाह थमने लगा है,
जीवन कठिन लगने लगा है
कारण आदमी ही तो है
आओ कसम ले ,ना बनेगे नदी की राह में बाधा
नदी का अस्तित्व खत्म हो गया ना
हमारा भी नहीं बचेगा ।
03․12․09
00000
मुसीबतों के बोझ बहुत ढोये हैं
खून के आंसू रोये है ।
जमाने से घाव पाये है
कामयाबी से खुद को दूर पाये है।
उम्र गुजर रही है,
पत्थरो पर लकीर खींचते खीचते
गुजर रहा है दिन,
सम्भावनाओं की पौध सींचते-सीचते ।
गम नही,ना मिली कामयाबी,
ना पत्थर पसीजा पाये
खुशी है तनिक,
काबिलियत के तिनके रूप हैं पाये
․ 15․01․10
कल जैसे दहकती हुई आग था
लोगों को जलने का डर था ।
दुत्कार थी,
फटकार थी ।
षणयन्त्र की बिसात थी
छींटाकसी की बौझार थी ।
आंसू कुसुमित होने लगा है
अब तो कांटा भी
अपना कहने लगा है ।
15․01․2010
00000
आज का आदमी
इतना मतलबी हो गया है
आदमी के आंसू से खुद का कल सींचने लगा है ।
अरे आदमी को आंसू देने वालो
मत भूलो
आदमी कुछ भी नहीं ले गया है ।
ऐसी कैसी खूनी ख्वाहिश
कि आदमी
आदमी को आंसू देकर
खुश रहने लगा है ।नन्दलाल भारती 27․10․09
0000
जान गये होगे सुलगती तकदीर का रहस्य,
पहचान गये होगे तरक्की से दूर फेंके
आदमी की कराह ।
ना सुलझने वाला रहस्य
निगल रहा है हाशिये के आदमी का आज,
कल मान-सम्मान भी ।
सुलझाने का प्रयास निरर्थक हो जाता है,
पुराना प्रमाण-पत्र छाती-तान लेता है,
शुरू हो जाता है फजीहतों का दौर ।
फजीहतों का दौर शदियों से जारी है,
आदमी बेगाना लगने लगा है
ये दौर शायद तब तक जारी रहे
जब तक वर्णव्यवस्था कायम रहे ।
क्या आदमी का फर्ज नहीं ?
आदमी के साथ न्याय करे,
हक और मानवीय समानता का अधिकार दे ।
20․10․09
उम्र
वक्त के बहाव में खत्म हो रही है उम्र
बहाव चट कर जाता है
हर एक जनवरी को जीवन का एक और वसन्त ।
बची खुची वसन्त की सुबह
झरती रहती है तरूण कामनायें ।
कामनाओं के झराझर के आगे
पसर जाता है मौन
खोजता हूं
बिते संघर्ष के क्षणों में तनिक सुख ।
समय है कि थमता ही नही
गुजर जाता है दिन ।
करवटों में गुजर जाती है राते
नाकामयाबी की गोद में खेलते-खेलते
हो जाती है सुबह
कष्टों में भी दुबकी रहती है सम्भावनायें ।
उम्र के वसन्त पर
आत्ममंथन की रस्साकस्सी में
थम जाता है समय
टूट जाती है उम्र की बाधाये
बेमानी लगने लगता है
समय का प्रवाह और डंसने लगते है जमाने के दिये घाव
सम्भावनाओं की गोद में अठखेलियां करता
मन अकुलाता है,रोज-रोज कम होती उम्र में
तोड़ने को बुराईयों का चक्रव्यूह
छूने को तरक्की के आकाश ।
12․09․09
॥ आसमान ॥
पीछे डर आगे विरान हैै
वंचित का कैद आसमान है
जातीय भेद दीवारों में कैद होकर
सच ये दीवारे जो खड़ी है
आदमियत से बड़ी है ।
कमजोर आदमी त्रस्त है
गले में आवाज फंस रही है
मेहनत और योग्यता दफन हो रही है
वर्णवाद का शोर मच रहा है
ये कैसा कुचक्र चल रहा ।
साजिशे रच रहा आदमी
फंसा रहे भ्रम में दबा रहे
दरिद्रता और जातीय निम्नता के दलदल
बना रहे श्रेष्ठता का साम्राज्य,
अट्ठहास करती रहे उूंचता ।
जातिवाद साजिशों का खेल है
यहां आदमियत फेल है,
जमींदार कोई साहूकार बन गया है
शोषित शोषण का शिकार है
व्यवस्था में दमन की छूट है
कमजोर के हक की लूट है
कोई पूजा का तो कोई ,
नफरत का पात्र है
कोई पवित्र कोई अछूत है
यही तो जातिवाद का भूत है ।
ये भूत है जहां में जब तक
खैर नहीं शोषितों की ।
आजादी जो अभी दूर है,
अगर उसके द्वार पहुंचना है
पाना है छुटकारा जीना है,
सम्मानजनक जीवन
बढना है तरक्की की राह
गाड़ना है आदमियत की पताका
तो
तलाशना होगा और आसमान कोई ।
21․05․09
जयकार ॥
बंजर हो गये नसीब अपनी जहां में
बिखरने लगी है आस तूफान में ।
आग के समन्दर डूबने का डर है,
उम्मीद की लौ के बुझने का डर है ।
जिन्दा रहने के लिये जरूरी है हौशला,
कैद तकदीर का अधर में है फैसला ।
खुद को आगे रखने की फिकर है,
आम आदमी की नहीं जिकर है ।
आंखे पथराने उम्मीदे थमने लगी है
मतलबियों को कराहे भी भानेे लगी है ।
कैद तकदीर रिहा नहीं हो पा रही है
गुनाह आदमी का सजा किस्मत पा रही है ।
बंजर तकदीर को सफल है बनाना
कैद तकदीर कीे मुक्ति का होगा बीड़ा उठाना ।
अगर हो गया ऐसा तो विहस पड़ेगा हर आशियाना
काल के भाल होगे निशान,जयकार करेगा जमाना ।
22․05․09
राष्ट्र भाषा-हिन्दी
हिन्द में बह चली ऐसी हवा,
हिन्दी हुई जबान।
सौभाग्य हमारा हिन्दी भाषी ,
भारत देश महान ॥
हिन्दी है नब्ज,
जन जन को है प्यारी ।
एकता समता की डोर,
हो हिन्दी राष्ट्रभाषा हमारी ॥
हिन्दुस्तान मंदिरों का देश,
गंगा जोड़ती जहां आस्था ।
घोलती फिजां में मिश्री,
हिन्दी एकता की है वास्ता ॥
हिन्दी हिन्दुस्तान ,
दुनिया में उजली पहचान ।
हो पढत लिखत दुनिया के आरपार,
हिन्दी हमारी आन ॥
गढती नित नव मिसाल,
हिन्दी भाषा हमारी ।
ये हवाये ये दिशायें,
पढ लेती नब्ज हमारी ॥
भारती असि को मसि कर,
लिखे राष्ट्रभाषा की गाथा ।
झूले हर जबान हिन्दी,
गूंजे धरा पर, जय जय जय हे भारत माता ․․․․․․․․․․․․
नन्दलाल भारती
जय जगत․․․․․․․․
जय जगत् जय जगत् की हिन्दी भाषा
दुनिया की छांव सद्भावना की परिभाषा
पूरब-पश्चिम गाता हमारी है हिन्दी भाषा
जय जगत् जय जगत् की हिन्दी भाषा․․․
अम्बेडकर,गांधी,लोहिया
कह गये बोले हिन्दी भाषा,
हिन्दी वसुधैव कुटुम्बकम् की आशा
बहुजन हिताय की अभिलाषा
जय जगत् जय जगत् की हिन्दी भाषा․․․
करे सलाम जगत महान्,
महान हिन्दी भाषा
अनुराग अलौकिक विश्व एकता की भाषा
जनतन्त्र की सफल गाथा जन-जन की भाषा
जय जगत् जय जगत् की हिन्दी भाषा․․․
समय से संवाद दिल जोड़े हिन्दी भाषा
जीवन संग्राम को सफल बनाती,
हिन्दी भाषा
हिन्दी में सुद्ढ विश्व भविष्य की आशा
जय जगत् जय जगत् की हिन्दी भाषा․․․
बने विश्व धरोहर जन-जन की भाषा
विश्व अस्मिता हिन्दी भाषा
कर्तव्य हमारा स्वाभिमान रहे हिन्दी भाषा
जय जगत् जय जगत् की हिन्दी भाषा․․․․․ 09․09․2009
विश्व हिन्दी दिवस 14․09․2009 को जय जगत रचना का पाठ फिजी में महामहिम प्रो․प्रभाकर झा,हाई कमश्निर,फिजी की उपस्थिति में भवानी दयाल आर्य कालेज,यूनिवर्सिटी आफ दि पेसिफिक,फिजी के छात्रो द्वारा किया गया ।
-हिन्दी-
हिन्दी हमारी सद्भाव का संचार है,
मानव को जोड़ करती उद्धार है ।
बहुधर्म-बहुजाति पर ना तकरार है,
मानवतावादी हिन्दी,ईश्वर का उपहार है।
खुले दुनिया के बन्द दरवाजे -
खुशियाली पहुंची द्वार-द्वार है,
दुनिया होती छोटी-बढते हाथ-
हिन्दी के चमत्कार है ।
सच हुआ सपना,
मानवधर्म का बढा आकार है,
हिन्दी शान्ति समभाव की बयार है ।
विश्व भाषा हिन्दी रिश्ते की बहार है ,
दुनिया वालो अपनाओ,
हिन्दी जगतकल्याण की पुकार है ।
09․09․09
विश्व हिन्दी दिवस 14․09․2009 को हिन्दी रचना का पाठ फिजी में महामहिम प्रो․प्रभाकर झा,हाई कमश्निर,फिजी की उपस्थिति में भवानी दयाल आर्य कालेज,यूनिवर्सिटी आफ दि पेेसिफिक,फिजी के छात्रो द्वारा किया गया ।
॥ मीट्ठू मीट्ठू ॥
चौखट पर आ गया है एक मेहमान
बिन बुलाया हुआ,घायल लहूलुहान ।
तनी थी कातिल नजरों की तलवार
आहत व्याकुल खो रही थी पुकार ।
चीख मौन पहुंच गयी मेरे घरौदे में
कराह रहा था नन्हे से उपवन में ।
पूरा घरौदा बचाने को हाथ बढाया
वह गुस्साया चोंच मारने को गुर्राया ।
आखिरकार स्नेह की थपकी पाकर,
कराहता बैठ गया गोद में आकर ।
देकर स्नेह की फुहार छोेड़ दिया,
दर्द से पाकर राहत न किया अलविदा ।
दिन रात खड़ा जैसे याचना करता रहा,
कैद करने से मेरा कुनबा बचता रहा ।
आखिर हत्या का डर सताने लगा,
बेटे को मोह बिन बुलाये से होने लगा ।
वह बोला शेर की मौसी कर देगी चट,
बाजार की ओर दौड़ा छटपट ।
खरीद लाया एक जालीदार पिंजड़ा
पिजड़ा देखते ही वह उछल पड़ा ।
घुसकर खुद को जैसे बन्द कर लिया,
कैद नहीं करूंगा मेरी कसम तोड़ दिया ।
पिजड़ें का दरवाजा नहीं बन्द होता
आजादी छिनने का हक नहीं होता ।
मैं और मेरा कुनबा खूब जानता है
वह नहीं मानता है ।
दरवाजा खुला रहता है पर वह नहीं जाता है
सीटी मारता है,चैन से खेलता-खाता,
नाचता-गाता, मीट्ठू मीट्ठू बुलाता है ऐसे
भोर की दुआ कर रहा हो जैसे․․․․․․․․․
10․07․2009
बसन्त
खुशहाली के पल लगते
लगते जीवन के बसन्त,
ल्ेाखनी का सोंधापन है प्यारे
कभी ना होगा अन्त।
बोये जनहित में शब्दबीज
परमार्थ के लगेगे के फल
कठिन है दौर जीवन का
समस्या है जातिवाद,भ्रष्टाचार,
आतंकवाद,नक्सलवाद की ज्वलन्त।
भेदभाव-भ्रष्टाचार के दौर में
भले ही दिल रोये
आंखें क्यों ना झराझर बरसे
ना बोय विषबीज
पतझड़ में महके बसन्त ।
दोहराये राष्ट्रहित-मानवहित में कसम
अप्पो दीप भव चलें बुद्ध की राह प्यारे
सह लेगे दुःख चलेगी कलम
होगी भोर की दुआ कबूल एक दिन
थमी रहे धैर्य की भारी गठरी
मन में करो या मरो की उमंग
याद रहे प्यारे जीवन संघर्ष से
परहित में बरसे बसन्त․․․․․․ । नन्दलाल भारती․․․․ 09․07․2011
All right reserve with author/ सर्वाधिकार लेखकाधीन
जीवन परिचय
नन्दलाल भारती
कवि,कहानीकार,उपन्यासकार
शिक्षा - एम․ए․ । समाजशास्त्र । एल․एल․बी․ । आनर्स ।
पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा इन ह्यूमन रिर्सोस डेवलपमेण्ट (PGDHRD)
जन्म स्थान- ग्राम-चौकी ।खैरा।पो․नरसिंहपुर जिला-आजमगढ ।उ․प्र।
पुस्तकें
उपन्यास-अमानत,चांदी की हंसुली ।प्रकाशित।
उपन्यास-अभिशाप एवं वरदान । अप्रकाशित।
कहानी संग्रह -मुट्ठी भर आग,हंसते जख्म, सपनो की बारात । अप्रकाशित।
लघुकथा संग्रह-उखड़े पांव / कतरा-कतरा आंसू । अप्रकाशित।
काव्यसंग्रह -कवितावलि, काव्यबोध, मीनाक्षी, उद्गार
एवं भोर की दुआ । अप्रकाशित।
आलेख संग्रह- विमर्श । अप्रकाशित।
। सभी पुस्तकें इन्टरनेट पर उपलब्ध हैं ।
प्रकाशित प्रतिनिधि पुस्तके- निमाड की माटी मालवा की छाव।
अंधामोड,बुजुर्गजीवन की लघुकथाएं, काली मांटी,ये आग कब बुझेगी एवं अन्य ।
सम्मान
स्वर्ग विभा तारा राष्ट्रीय सम्मान-2009
विश्व भारती प्रज्ञा सम्मान,भोपल,म․प्र․,
विश्व हिन्दी साहित्य अलंकरण,इलाहाबाद।उ․प्र․।
साहित्य सम्राट,मथुरा।उ․प्र․।
लेखक मित्र ।मानद उपाधि।देहरादून।उत्तराखण्ड।
भारती पुष्प। मानद उपाधि।इलाहाबाद,
भाषा रत्न, पानीपत ।
डां․अम्बेडकर फेलोशिप सम्मान,दिल्ली,
काव्य साधना,भुसावल, महाराष्ट्र,
ज्योतिबा फुले शिक्षाविद्,इंदौर ।म․प्र․।
डां․बाबा साहेब अम्बेडकर विशेष समाज सेवा,इंदौर ,
विद्यावाचस्पति,परियावां।उ․प्र․।
कलम कलाधर मानद उपाधि ,उदयपुर ।राज․।
साहित्यकला रत्न ।मानद उपाधि। कुशीनगर ।उ․प्र․।
साहित्य प्रतिभा,इंदौर।म․प्र․।
सूफी सन्त महाकवि जायसी,रायबरेली ।उ․प्र․।एवं अन्य
आकाशवाणी से काव्यपाठ का प्रसारण । रचनाओं का दैनिक जागरण,दैनिक भास्कर,पत्रिका,पंजाब केसरी एवं देश के अन्य समाचार पत्रो/पत्रिकओं में प्रकाशन , वेब पत्र पत्रिकाओं www.swargvibha.tk,www.swatantraawaz.com rachanakar.com / hindi.chakradeo.net www.srijangatha.com,esnips.con, sahityakunj.net,sf.blogspot.com,
apnaguide.com/hindi/index, एवं अन्य ई-पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन।
सदस्य
इण्डियन सोसायटी आफ आथर्स ।इंसा। नई दिल्ली
साहित्यिक सांस्कृतिक कला संगम अकादमी,परियांवा।प्रतापगढ।उ․प्र․।
हिन्दी परिवार,इंदौर ।मध्य प्रदेश।
आशा मेमोरियल मित्रलोक पब्लिक पुस्तकालय,देहरादून ।उत्तराखण्ड।
साहित्य जनमंच,गाजियाबाद।उ․प्र․।
म․प्रप․तुलसी अकादमी,भोपाल ।
म․प्र․․लेखक संघ,म․्रप्र․भोपाल एवं अन्य
सम्पर्क सूत्र
आजाद दीप, 15-एम-वीणा नगर ,इंदौर ।म․प्र․!
दूरभाष-0731-4057553 चलितवार्ता-09753081066
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जनप्रवाह।साप्ताहिक।ग्वालियर द्वारा उपन्यास-चांदी की हंसुली का धारावाहिक प्रकाशन
उपन्यास-चांदी की हंसुली,सुलभ साहित्य इंटरनेशल द्वारा अनुदान प्राप्त
लंग्वेज रिसर्च टेक्नालोजी सेन्टर,आई․आई․आई․टी․हैदराबाद द्वारा रचनायें शोध कार्यो हेतु शामिल ।
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नन्दलाल भारती
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