बस में सफर करने के नाम से ही मेरी तो रूह कांप उठती है और यदि बस में किसी गांव या कस्बे में जाना हो तो ईश्वर ही आपको बचा सकता है। भेड़-बक...
बस में सफर करने के नाम से ही मेरी तो रूह कांप उठती है और यदि बस में किसी गांव या कस्बे में जाना हो तो ईश्वर ही आपको बचा सकता है।
भेड़-बकरियों की तरह ठूंस-ठूंस कर भरे इन्सान और ऊपर की छत पर बैठी सवारियाँ, सामान, लाव-लश्कर, पटवारीजी की बकरी, कम्पाण्डरजी की दवाएं, ड्राइवर के पीछे खड़ी बेंजी या नर्सजी और पहली सीट पर बैठे दरोगाजी। बस ऐसी की इक्कीसवीं सदी में जाने के लिए सोलहवीं सदी का इंजन। बस का सफर, ईश्वर बचाए। सच पूछो तो इस देश की सरकार और बसें दोनों ही धक्के से चलती हैं।
बस के सफर का नाम सुनते ही मेरे परिवार वालों को मितली, उबकाई आने लगती है। अक्सर जाने से मना कर देते हैं। मगर मजबूरी का नाम बस का सफर। वास्तव में ‘‘सफर'' शब्द जो है वो यहाँ पर अंग्रेजी का है। तभी आप बस के सफर का असली मंजर समझ सकेंगे। बस के सफर का नाम सुनते ही कानों पर हाथ रख कर आसमान की ओर देख कर तौबा कर लेता हूँ।
धूल धक्कड़ से सनी, ऊबड़-खाबड़ कच्चे रास्तों पर हिचकोले खाती बसें, टिकट के लिए मारामारी, प्राइवेट और फर्जी वाहनों के चालकनुमा बच्चों और बच्चोंनुमा कण्डक्टरों को देखना ही सबसे त्रासद अनुभव है। सीटों के लिए हाय-हाय मचाते मुसाफिर, बीड़ी फूंकते ग्रामीण, पसीनों से तरबतर बूढे़ और गर्मी से सिकती सवारियाँ। प्राइवेट बस वाले तो सवारियों को जिन्स समझते हैं। वे अधिक से अधिक सवारियों को बिठाकर मुनाफा कमाते हैं और आर․टी․ओ․ की जेब गरम करते हैं और बेचारा मुसाफिर जीवित बच निकल जाना चाहता है।
आजादी के बाद देश में हमने सड़को का जाल बिछा दिया। गांव शहरों से जुड़े और शहर महानगरों से जुड़े। सड़कों और कच्चे रास्तों पर हड़बड़ी में बसें चली और ये छोटे-मोटे यमदूत हर तरफ दिखाई देने लगे। मिनी बसों की सवारी शहर में एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए कितनी जरूरी है, मगर इनमें सफर करने वाला भुक्तभोगी ही जानता है कि इनमें सफर करना और आकाश के तारे तोड़ लाना बराबर है और लम्बी दूरी की बसें मत पूछो। कितने प्रकार की। ओर्डिनरी, द्रुतगामी, डीलक्स, वीडियो और न जने कैसी-कैसी। जैसी आपकी जेब वैसे हाजिर है बस जनाब। गांवों की ओर जाने वाली बसें वे होती हैं, जिन्हें शहरों में बेकार समझ लिया जाता है। प्राइवेट मोटर मालिक इन्हें सस्ते में खरीद कर गांवों के रूटों पर चला देते हैं। इनमें बे्रक नहीं होते, शीशे नहीं होते। हार्न के अलावा सब कुछ बजता रहता है। रास्ते में टायर पंच होना या इंजन खराब होना या किसी सवारी के हाथ मुंह पर खिड़की का दरवाजा गिर जाना सामान्य बात है।
इन बसों में सवारी बिठाने के लिए बस अड्डों पर इनके कण्डक्टर या लड़के चिल्ला-चिल्लाकर आसमान गूंजा देते हैं। खटारा से खटारा बस को पहाड़ों की रानी या स्वर्ग की अप्सरा घोषित कर देते हैं। बस के खचाखच भर जाने के बाद इसमें बोरियां, टीन के डिब्बे, बिस्तर, पलंग, मुर्गिया, बकरियां आदि भरी जाती है, जगह-जगह लदाई, उतराई और हर स्टैंड के ढाबों, चाय-स्टालों पर ड्राइवर कण्डक्टर का उतरना, चाय पीना। गांव के पटवारी या डॉक्टर का सामान पहुंचाना। ड्राइवर का टिफिन लेना देना और फिर भी समय बच जाऐ तो बस में कोई मरम्मत शुरू कर देगा। कोई नहीं जानता एक बार चली ये गांव की गोरी कब मंजिल तक पहुंचेगी।
ऐसी स्थितियों में अक्सर कण्डक्टर और सवारियों में होने वाली तू तड़ाक, दुर्व्यवहार, हाथापाई और जूतमपेजार के नजारे भी देखने को मिलते हैं। आपने वो समाचार अवश्य पढ़ा होगा, जिसमें कण्डक्टर द्वारा टिकट के पैसे मांगने पर कुछ महिलाओं ने बस में ही लघु शंका का निवारण कर अपना विरोध जाहिर किया था। विरोध प्रकट करने की ऐसी प्रजातांत्रिक सुविधा अन्यत्र कहां ? सामान्य सवारियों का बस वालों के लिए कोई महत्व नहीं होता। उनके लिए नेता, उनके चमचों, दरोगा, सिपाही, ट्रैफिक वाले, विद्यार्थियों और कुख्यातों का ही महत्व हैं। ये लोग टिकट भी नहीं खरीदते और कण्डक्टर से चाय नाश्ता और कर जाते हैं। ठाठ से मूंछें ऐंठते हुए पहली सीट पर बैठ कर बाकी सवारियों को हिकारत की नजर से देखते रहते हैं, है कोई माई का लाल जो इनसे उलझे।
लगे हाथ मैं महिला सवारियों पर भी दो शब्द कह दूं, नहीं तो वो नाराज हो जाएंगी। उन्हें तो दोहरा कष्ट भोगना पड़ता है-शारीरिक और मानसिक। खलासी, ड्राइवर और कण्डक्टर के अलावा सवारियां भी आंखें सेंकती हैं, सो अलग।
गांवों से शहर आने-जाने वाले यात्रियों को विवाह, मेले तथा छुट्टियों में विशेष परेशानी भुगतनी पड़ती है। इसी प्रकार सोमवार को भी ज्यादा भीड़-भाड़ रहती है कारण छुट्टी के दिन सब शहर से आते हैं और सोमवार को जाना पड़ता है। प्राइवेट बसें कहीं भी रोकी जा सकती हैं तो रोड़वेज की बसें ड्राइवर की मर्जी से रुकती और चलती है।
तीर्थ यात्रा पर तो अक्सर खटारा बसें जाती है। बसे शहरों में फुट बोर्ड पर लटक कर जिन्दगी चलती हैं। खतरों, असुरक्षा और मौत का नाम है बस का सफर।
निजी बसों की नरक यात्रा अनुभव करने मैं गर्मियों में गांव में गया। हर बस स्टैण्ड पर छात्रों और स्थानीय लोगों का जमावड़ा। सड़कों पर चलते राहत कार्यों की रुकावट, धूल, धक्कड़। सफर तीन घंटों का था, मगर हम साढ़े छः घंटों में पहुंचे।
यात्रियों के अपने शिकवे शिकायते हैं। वे बस में बैठे-बैठे पंजाब समस्या हल कर देते है। बीड़ी फूंकते हुए वे इलाहाबाद में चुनाव और राजा के भविष्य पर निर्णय कर देते हैं। अकाल राहत, भ्रष्टाचार, बेईमानी और बारिश की सम्भावनाओं पर चर्चाएं चलती रहती हैं। कई राजनीतिक पार्टियों के भविष्य का निर्धारण कर दिया जाता है।
रात्रि बसों में वीडियों फिल्में अलग मुसीबत हैं, आतंकवादियों, डाकुओं, स्थानीय गुण्डों व स्थानीय संगठित युवाओं से भी बस यात्रियों को हमेशा खतरा बना रहता है।
पहाड़ी बसें कब ब्रेक फेल हो जाने के कारण खाई में गिर जाएं कोई नहीं जानता। कभी चट्टान का कोई टुकड़ा इस प्रकार अप्रत्याशित रूप से सड़क पर गिरता है कि बस का कचूमर निकल जाता है। कभी बस नदी या नाले या तालाब में जल समाधि ले लेती है।
मौत के इन वाहनों पर बैठना कभी-कभार अच्छा अुनभव भी दे सकता है, यदि आपकी बगल वाली सीट पर खूबसूरत चेहरा हो, खिड़की वाली सीट पर आप बैठे हों और बस हौले-हौले हिचकोले खा रही हो। अगर आपके साथ ऐसा हो तो मुझे अवश्य याद करिएगा।
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यशवन्त कोठारी 86, लक्ष्मी नगर, ब्रह्मपुरी बाहर, जयपुर-302002 फोनः-2670596
यदि आपकी बगल वाली सीट पर खूबसूरत चेहरा हो, खिड़की वाली सीट पर आप बैठे हों और बस हौले-हौले हिचकोले खा रही हो।
जवाब देंहटाएंबढ़िया व्यंग्य,
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
एक दम सही चित्रण..
जवाब देंहटाएंएक दम सही चित्रण..
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