शि व प्रसाद की बाखर में कुछ दिनों से कोई एक व्यक्ति नहीं बल्कि पूरा परिवार चिंतामग्न दिखाई दे रहा है। शिव की पेंसठ साल की वृद्धा अम्...
शिव प्रसाद की बाखर में कुछ दिनों से कोई एक व्यक्ति नहीं बल्कि पूरा परिवार चिंतामग्न दिखाई दे रहा है। शिव की पेंसठ साल की वृद्धा अम्मां जिसका शिव प्रसाद की पत्नी कमली से कुछ समय से अनबोला सा चल रहा था, वे अब उपतकर बड़ी बहू से बोलने लगी हैं। उनके दैनिक आचरण में अब छोटी बहू से किनाराकशी झलकने लगी है। छोटी बहू सरोज जब ब्याहकर घर में आई थी तब छोटा बेटा महेश बेरोजगार था और खेती किसानी में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। सो नौकरी की जुगाड़ में भटकता रहता था। अलबत्ता बेरोजगारी के दिनों में मां का लाड़ महेश पर ज्यादा झरता। आखिरकार जहां चाह वहां राह की कहावत चरितार्थ हुई और पिछड़े वर्ग को मिले आरक्षण का लाभ उठाकर महेश शिक्षाकर्मी बनने में कामयाब हो गया। बडे़ भाई-भाभी को भी प्रसन्नता हुई। बंधी आमदनी घर में आएगी तो परिवार की माली हालत में और सुधार आएगा। आर्थिक हैसियत बढ़ेगी तो गांव और जाति बिरादरी में दबदबा भी कायम होगा।
हालांकि शिवप्रसाद भी इंटर थे। वे चाहते तो उन्हें कब की नौकरी मिल गई होती। लेकिन पिता की सीख कह लो अथवा हिदायत उनके कानों में हमेशा एक आदर्श वाक्य बनकर गूंजती रही। पिता इस लीकोक्ति को दोहराते रहते थे, ‘उत्तम खेती, मध्यम बाण (व्यापार), निकृष्ट चाकरी, भीख निदान' पिता की इस सीख को शिरोधार्य करते हुए शिवप्रसाद ने विरासत संभाल ली। खेती की आमद से तीन बहनों और छोटे भाई का विवाह किया। और फिर पिता के पंचतत्व में विलीन होने के साथ, त्रिवेणी इलाहाबाद में उनकी अस्थियों के विसर्जन के बाद गंगापूजन, त्रयोदशा, भण्डारा और मोक्ष के लिए गोदान भी किया।
इन सामाजिक आयोजनों की यश-किर्ति से शिवप्रसाद के परिवार की जैसे पूरी पंच महल की जाति-बिरादरी में प्रतिष्ठा स्थापित हो गई थी। लेकिन पिता की मौत के बाद जैसे वैभव को नजर लग गई। पिता को स्वर्ग सिधारे अभी छह माह भी नहीं बीते थे कि भाई ने तहसील में जमीन बंटवारे की दरख्वास्त लगा दी। मझले बहन-बहनोई भी बराबर की हिस्सेदारी पर अड़ गए। अम्मां की समझाइश पर भी किसी ने कान नहीं दिए। हां, दो बहनों ने जरूर दया बरती और हिस्सा लेेने से साफ इनकार कर दिया। अम्मां का हिस्सा मिलाकर जमीन पांच भागों में बंट गई। लेकिन ट्रेक्टर चूंकि पहले से ही शिवप्रसाद के नाम था और पुराना भी हो गया था इसलिए बड़ी कुटिल चतुराई से छोटी बहू सरोज की सलाह पर शिवप्रसाद के ही नाम मढ़ दिया गया। अम्मां ने इसे अन्याय कहा भी लेकिन अम्मां की सुने कौन ? वे अन्याय को न्याय की वेदी तक नहीं ला पाईं। बड़े की पूर पड़ती रहे इसलिए अम्मां ने अपने खाते के खेत शिवप्रसाद को ही खेती के लिए सौंप दिए थे। अम्मां खूब जानती थीं कि बडे़ पर बोझ ज्यादा है इसलिए बड़े पर और भार न पड़े वे छोटे के घर ही खाती-पीतीं और बड़ी पर बेवजह तनतना कर अनबोला साध लेतीं, जिससे छोटी खुश रहे। छोटी की ईर्ष्या-कूढ़न की तुष्टि का लाचार अम्मां के पास यही नुस्खा था।
अम्मां की बूढ़ी आंखे मिचमिचाने जरूर लगीं थीं, लेकिन अभी उनमें अनुभव की इतनी सार्म्थ्य बाकी थी कि वे सामने वाले के हाव-भाव से उसकी मनस्थिति का अनुमान लगा लेतीं। सो अम्मां अनुमान लगा रही थीं कि हो न हो बेटा विपदा में है। फिर अम्मां को बेटे की चिंता सालने लगी। शिव के प्रति उनकी उदारता बढ़ गई। वे शिव की गतिविधियों पर निगाह भी रखने लगीं और उसके हालचाल की जानकारी तलब करने के प्रति भी सचेत व उत्साहित दिखने लगीं। और फिर एक दिन बड़े सबेरे जब अम्मां चिलचिलाते जाड़े में तापने के लिए बरोसी में आग सुलगाने का उपक्रम कर रही थीं और शिव खेत पर रवानगी डालने की तैयारी में थे, तब अम्मां पूछ बैठी, ‘‘क्यों शिब्बू तू आजकल इतनी जल्दी में क्यों रहता है....?''
- ‘‘वैसेइंर् अम्मां...! इन दिनों उजार का डर ज्यादा है। पैंठ चराने वालों का कोई भारोसा नहीं अपने..ई..खेत में भैसें चरा ले जाएं।''
- ‘‘सो तो ठीक है बेटा..., पर कछु दिनन से तू मोय परेशान लग रहो है। तेरे मुंह पे खुशी नहीं दिखा रही। कर्ज-अर्ज चुकाने का कछु तकाजा होय तो मोय बता लाला... ‘‘ वे शिव के बिलकुल निकट आकर (क्योंकि वे जानती थीं दीवारों के भी कान होते हैं और छोटी बहू आगखानी है) कान में बोलीं, ‘‘ मोपे दुकी-दुकाई सोने की बज्जटी और चूड़ियां धरी हैं। बंटवारे के समय मैंने छुपा लईं थीं। तेरी मोड़ी के ब्याह में देने के लाने। अब बुढ़ापे में मैं तो पहनने से रही। तोय जरूरत होय तो तू ले जा...! मैं काऊ से नहीं कहूंगी..., तेरे मरे बाप की सौगंध...!'' अम्मां की आंखें डबडबा आईं।
- ‘‘बौरा गई है का अम्मां..., तेरी रकम बेच के कर्जा पटाऊंगा का...? अभी चैत-वैशाख में फसल आई जात है..., सो कर्जा पट जाएगा। रकम संभाल के रखे रह, तेरी इच्छा होय तो मुनिया के ब्याह में दे देई ये...।'' और शिव निकल गए। चिंतित अम्मां बरोसी में सुलग आई लौ में तापने लगीं। लेकिन रोज-ब-रोज आसपास के गांवों से कर्ज में डूबे किसानों की आत्महत्या की आ रही खबरों की आंच जैसे उनकी चिंता का ताप और बढ़ा रही थी।
अम्मां सक्रिय रहीं। शिव के संग उठने-बैठने वालों से अम्मां को जानकारी मिली कि चना की पूरी फसल में इल्ली लग गई है। शिव ने सहकारी संस्था से कीटनाशक दवा लेकर छिड़काव भी कराया। शायद दवा नकली थी, सो बेअसर रही। संस्था का कर्ज सिर पर चढ़ गया, सो अलग। हालांकि इसी दवा के इस्तेमाल के लिए कृषि विशेषज्ञों ने भी कृषक प्रशिक्षण के दौरान सलाह दी थी और प्रयोग के तरीके भी बताए थे। इसी दौरान सहकारी संस्था वाले और दवा कंपनी के विक्रेता भी आ गए थे। उन्होंने जरूरतमंद कृषकों को सोसायटी से आसान किश्तों पर कर्ज लेकर दवा खरदने की सुविधाएं भी जताई थीं। हालांकि कुछ किसानों को दवा को लेकर आशंकाएं थीं। किंतु किसान लाचार थे। सहकारी बैंक संस्थाओं की शर्त थी कि कर्ज केवल बताई जा रही बहुराष्ट्रीय दवा कंपनी की कीटनाशक दवा लेने पर ही मिलेगा। नकद राशि देने का प्रावधान कानूनन नहीं है। सो यही दवा खरीदना किसानों की लाचारगी थी। किसानों को ये बैंक सीधे कर्ज देते तब न वे जांच-परख कर दवा खरीदने को स्वतंत्र होते।
अम्मां की कुशंकाएं बेबुनियाद नहीं थीं। बड़ी बहू कमली आंगन में जब झाडू लगा रही थी तब अनायास ही अम्मां की नजर बहू के रीते गले पर जा टिकी। अम्मां चौंकीं। इसके गले में तो दो तौले की सोने की लर (चैन) झूलती रहती थी। कहां गई ? पूछूं। और अम्मां बहू के पास जा बैठी। बोलीं, ‘‘तेरी लर कहां गई बड़ी बहू...?''
बेफिक्र कमली को ऐसी उम्मीद कतई नहीं थी कि अम्मां की बूढ़ी नजर लर पर पड़ जाएगी और वे सवाल भी उठाएंगी। सो कमली सकपका गई। छटपटाते हुए बड़ी सावधानी से उसने धोती के पल्लू में गला और आंचल ढंक लिए। फिर सायास बोली, ‘‘लर टूट गई थी, सो जे सुनार के जहां सुधरवे डार आए हैं...।''
- ‘‘मेरे सिर पे हाथ रख के सौं खा की तू सच्ची बोल रही है...।'' और अम्मां ने बहू की हथेली खुद के सिर पर रख ली। कमली अम्मां की आंखों से आंख मिला पाती इससे पहले वे छलछला आईं। और कमली धोती के पल्लू से आंखें मीढ़ते हुए सच नहीं बोल पाने की हिम्मत न जुटा पाने के कारण अटा वाले कोठे में घुस गई। अम्मां भी पीछे थीं...।
अम्मां हैरान थीं। शिव ने सोने की लर बेच दी थी। जब सहकारी संस्था से खरीदी दवा का असर इल्लियों पर नहीं दिखा तो शिव पत्नी की दो तौले की लर शिवपुरी के सराफा बाजार में बेचकर कीटनाशक बाजार से खरीद लाए थे। पति-पत्नी और बारह साल की बिटिया मिुनया ने मिलकर दो दिन-रात एक करके दवा छिड़की। इस श्रम के लिए मुनिया को दो दिन स्कूल की छुट्टी भी करनी पड़ी। फिर चल रही शीत लहर की जो मार उसके कोमल शरीर पर पड़ी तो बुखार की गिरफ्त में आ गई। दादी अम्मां ने तुलसी की पत्तियों और गिलोय की बेल के काढ़ा पिला-पिलाकर मुनिया का उपचार किया। लोरियां सुनाकर वे मुनिया का मन बहलातीं और सिर दबाकर हरारत दूर करने की कोशिश में लगी रहतीं। शिव मुनिया को शिवपुरी लाकर इलाज कराने की सोचते भी, पर पैसे की जबरदस्त तंगी के चलते वे ऐसा नहीं कर पाए। हालांकि कमली ने बेटी के उपचार के लिए सोने की अंगूठी बेच देने को कहा भी पर इसी बीच भगवान ने सुन ली। अम्मां की दवा, दुआ और सेवा रंग लाई। मुनिया की सेहत में सुधार दिखने लगा। हालांकि गांव में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र है, पर कभी खुलता नहीं। मुसीबत में घिरा किसान कितनी विकट दुविधा में होता है कि फसल की सुरक्षा की चिंता की खातिर उसे संतान की बीमारी से भी मुंह मोड़ना पड़ता है। इस निष्ठुर और हृदयहीन लाचारी का सामना कर मन ही मन कितना रोए होंगे शिव और कमली।
पूरे इलाके में शीत लहर का प्रकोप बढ़ना शुरू हो गया है। किसान तुषार की आशंका से भयभीत हो रहे हैं। अम्मां बाखर के बाहर कौड़े में आग जलाकर ताप रही हैं। उनके साथ दो-तीन उन्हीं की उम्र की औरतें और कुछ युवक बैठे हैं। सब चितिंत हैं। चिंता का मन-मस्तिष्क पर पर्याप्त दबाव है। सो किसी के बोल नहीं फूट रहे। तभी चार-पांच लोगों की टोली आई और अम्मां से बोले, ‘‘अम्मां गांव में भील देवता का मंदिर बन रहा है, शिवप्रसाद से कहो चंदा दे...।''
- ‘‘देवता किसान की कछु सुनत तो हैं नहीं। मौसम कैसो खराब हो रहो है। पाले को डर सता रहो है। वक्त का मारा किसान कहां से चंदा दे..., तुम्हीं बताओ ?''
- ‘‘अम्मां भगवान को मत कोस। भगवान की कृपा पूरे गांव पर बनी रहे, इसीलिए तो मंदिर बनवा रहे हैं।''
- ‘‘चल एक सौ एक रूपया ले जा...। वैशाख में शिव के खेत में मन माफिक फसल निकरी तो पांच सौ एक देवता पर चढ़ाऊंगी।''
- ‘‘अम्मां रसीद कौन के नाम काटूं..., तुम्हारे या शिव के या महेश के ?''
- ‘‘घर का बड़ा शिव है तो शिव के नाम काट...। बाके बाप के मरने के बाद वही तो घर का मुखिया है।''
अम्मां भीतर जाकर रूपये लाई और टोली के लोगों को देकर धोती के पल्लू में रसीद बांध ली।
अम्मां देख व अनुभव कर रही थीं, शिव पर मुसीबतों का शिकंजा लगातार कस रहा है। कल ही बैंक से ट्रेक्टर पर लिए कर्ज की वसूली का नोटिस आ गया। साढ़े चार लाख से ऊपर का अकेले ट्रेक्टर पर कर्ज बकाया है। अम्मां सोच रही थीं, ये ट्रेक्टरों से खेती, मोटर पंप से सिंचाई और थ्रेसर से दांय का चलन क्या शुरू हुआ है, इनने किसान की जड़ में मठा घोल दओ। धन के सब स्रोत सोख डाले। किसान इनके पेट में डीजल भरे या अपने पेट में रोटी...? हल बैल की खेती भली थी। बिनेई हल में जोत दो तो खेत हांक लो और रेंहट-चरस में जोत दो तो सिंचाई कर लो। कर्ज लेकर ट्रेक्टर से खेती तो किसान के तिल-तिल प्राण हरने के उपाय हैं।
और फिर तीन दिन से हिमालय में हो रही बर्फबारी से निकलीं उत्तरी हवाएं दक्षिण की ओर बहीं तो खेतों में कहर ढाती चली गईं। पाले की मार ने फसलों को खेत में बिछा दिया। अम्मां कौडे़ पर ताप रही थीं। तभी दौड़ते-हांफते दो ग्रामीणों के आर्तनादों अम्मां का कलेजा चीर दिया, ‘‘अम्मां गजब हो गया...''
भविष्य की अनिश्चितता से घिरी अम्मां फुर्ती से उठ खड़ी हुईं...।
- ‘‘गजब हो गया अम्मां... खेत पर शिव ने कीटनाशक दवा पी लई...। मेड़ पर तड़फ रहो है....। जल्दी से ट्रेक्टर-ट्रोली निकलवाओ शिवपुरी अस्पताल ले जाना है।''
- ‘‘हे राम जी... तूने जो कौन से जनम को दण्ड दओ...'' फिर वे हड़बड़ाई...। बाखर में भागीं, ‘‘महेश कहां है... जल्दी आ...। बडे़ लाला ने जहर पी लओ...। जा मेरी रकम ले जा, बेचके इलाज करा...। जरूरत पडे़ तो मेरो खेत बेच देई ए... '' अम्मां छाती पीटती हुई बक्से से रकम की पोटली निकाल लाइंर् और महेश को थमाकर गलियारे में लोट-पोट हो गईं।
हौसले के पैरों पर शिव की जिंदगी को दौड़ाने की कोशिशों में लगीं अम्मां मानो हार कर खुद जमीन पर थीं। शिवप्रसाद ने शिवपुरी ले जाने की तैयारियों की शुरूआत में ही दम तोड़ दिया।
अगले दिन के अखबारों के मुखपृष्ठों पर खबर थी, ‘कर्ज में डूबे एक और किसान ने आत्महत्या की।' समाचार के नीचे कृषि मंत्री और प्रदेश सरकार के प्रवक्ता का बयान भी था, ‘मृतक किसान शिवप्रसाद की माली हालत सुदृढ़ थी। वह एक ट्रेक्टर, बीस बीघा सिंचित जमीन का मालिक था। अपनी मां के हिस्से के खेत में भी वही खेती करता था। गांव में मंदिर बनवा रहा था। इलाज के लिए उसकी मां ने सोने के गहनों की पोटली खोल दी थी। वह हर तरह का कर्ज पटाने में सक्षम था। हां कुछ दिनों से मृतक किसान की मनस्थिति जरूर खराब थी। जिससे एकाएक मृतक का मानसिक संतुलन गड़बड़ा गया और उसने कीटनाशक दवा गटक ली। मृतक के आत्महत्या करने की यही वजह है।'
अम्मां को जब महेश ने यह खबर पढ़कर सुनाई तो उन्होंने अखबार छीन कर आग में झौंक दिया, ‘‘मेरे लायक बेटे को पगला ठहरा रही है सरकार...। आग लगे ऐसी सरकार में।'' एक लाचार किसान बेटे की मौत पर मां के पास इसके अलावा आक्रोश जताने का और चारा भी क्या था ?
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प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
एक हृदयस्पर्शी कहानी है ये.....!
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