पूंजीवाद के फेर में ग्रीस के पतन के संदर्भ में - पूंजीवादी आर्थिक साम्राज्य का विध्वंस प्रमोद भार्गव पूंजीवाद के प्रति शीर्षक से मुक्...
पूंजीवाद के फेर में ग्रीस के पतन के संदर्भ में -
पूंजीवादी आर्थिक साम्राज्य का विध्वंस
प्रमोद भार्गव
पूंजीवाद के प्रति शीर्षक से मुक्तिबोध की एक कविता है, ‘तेरा ध्वंस, केवल एक तेरा अर्थ'। पूंजीवादी आर्थिक साम्राज्यवाद का विध्वंस अब प्रकट रूप में देखने में आने लगा है। जिस यूरोप की धरती से इस साम्राज्य ने विस्तार का तंत्र फैलाया, उसी यूरोप के एक छोटे देश ग्रीस ने पूंजीवाद अर्थव्यवस्था की अजगरी गुंजलक की गिरफ्त में आकर अपनी आर्थिक हैसियत चौपट कर दी। हालांकि योरोपीय देश होने के बावजूद ग्रीस कभी साम्राज्यवादी नहीं रहा। अलबत्ता पूंजीवाद का हिमायती जरूर रहा। किंतु आर्थक उदारवाद ने 1990 के बाद जब वैश्विक गति पकड़ी तो ग्रीस भी आर्थक साम्राज्यवाद का अनुयायी हो गया। अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस ने ग्रीस में अपनी आवारा पूंजी लगा दी। समृद्धि के भ्रम में बोये इस बीज ने ग्रीस में पतन की नींव डाल दी। ग्रीस की देशज अर्थव्यवस्था की जड़े इस आर्थिक साम्राज्यवादी दीमक ने चाटना शुरू कर दीं। ग्रीस 17-18 साल में ही लडखड़ाने लगा। हालात इतने बद्तर हो गए कि उसे बाध्य होकर कर्जों से मुक्ति के लिए उन विश्वस्तरीय संपत्तियों की नीलामी के लिए इश्ताहार देने पड़े, जिनकी उसने वैश्विक पूंजी निवेश को ललचाने के लिए आधारशिला रखी थी। लेकिन हैरानी में डालने वाली बात यह रही कि उसके हवाई अड्डों, बंदरगाहों, रेलवे स्टशनों और ऐतिहासिक इमारतों का कोई खरीदार नहीं मिला। इस हतप्रभ स्थिति से सामना करने के बाद ग्रीस ने अब पूंजीवादी अभिशाप से छुटकारे के लिए जनता के जबर्दस्त विरोध के बावजूद संसद में वह कानून पारित कर दिया है, जिसके मार्फत प्रशासनिक खर्चों में पर्याप्त कटौती की जा कर आर्थिक व्यवस्था को संतुलित बनाया जा सके।
दुनिया में काल की दो अवधारणाएं हैं। पश्चिमी मान्यता के अनुसार, काल की धारणा एक रेखीय है। अर्थात उसका आदि भी है और अंत भी। जबकि भारतीय अवधारणा वृत्तीय है। मसलन उसका आदि व अंत नहीं हैं। वह निरंतर है। चक्रीय है। पूंजीवादी देश अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, इटली, स्पेन आदि पश्चिमी देश काल की योरोपीय मान्यता के अनुगामी हैं। इन देशों ने पहले राजनीतिक साम्राज्यवाद के जरिए दुनिया को लूटा और अब आर्थिक साम्राज्यवाद के जरिए दुनिया का आर्थिक दोहन करने में लगे है। दरअसल ये देश पिछली कुछ शताब्दियों से वैश्विक पूंजी का नाभिस्थल बने हुए हैं। अपनी आर्थिक साम्राज्यवादी नीतियों को व्यावसायिक अंजाम देने के नजरिए से इन्होंने बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मजबूत संरचना भी की। ये देश इन कंपनियों के माध्यम से खासतौर से तीसरी दुनिया के देशों में भूमण्डलीय अर्थव्यवस्था के तहत बड़े स्तर पर पूंजीनिवेश करते हैं। इस निवेश का बड़ा हिस्सा प्राकृतिक संपदा के दोहन से जुड़ा होता है। निवेश के बाद खनिज के उत्खनन व विक्रय की प्रक्रिया सुचारू, सामान्य व सतत हो जाती है तो इस पूंजी का मूल धन मुनाफे के साथ पूंजीनिवेश वाले देश में लौटना शुरू हो जाता है और केंद्रीयकृत जमा पूंजी में और इजाफा होने लग जाता है। नतीजतन इन देशों में पूंजीवाद सफलता का डंका पीटता रहता है।
ग्रीस ने वैश्विक पूंजीनिवेश को आमंत्रित करके जैसे उसने अपनी स्थानीय अर्थव्यवस्था के संसाधनों को खतरे में डालने की पृष्ठभूमि तैयार कर दी। विकास की इस एक रेखीय अवधारणा ने ग्रीस की प्रति व्यक्ति आय को असंतुलित कर दिया। राजनीति और प्रशासन से जुड़े लोगों के वेतन, भत्तों और खर्चों में बेतरतीब वृद्धि कर दी गई। जिससे उनकी क्रय शक्ति बढ़े और वे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के भौतिक सुविधाएं परोसने वाले उत्पाद व उपकरणों को खरीदकर भोगवादी प्रवृत्ति को बढ़ावा दें। भौतिक वैभव, भोगलालसा और आर्थिक मोर्चे पर अमेरिका-ब्रिटेन जैसा बनने की इस तीव्र आकांक्षा ने ग्रीस की जड़ों में मट्ठा घोल दिया। इससे उबरने के लिए उसने उपनी हवाई व रेल जैसी बुनियादी सुविधाओं और औद्योगिक ठिकानों को बेचने अथवा गिरवी रखने के विज्ञापन भी दिए, लेकिन खरीदार नहीं मिले। आखिर में डांवाडोल अर्थव्यवस्था को संभालने का उसके पास एक ही रास्ताा बचा था की वह अपने खर्चों में और सरकारी नौकरियों में कटौती करे। करों की दरों में इजाफा करे। प्राकृतिक संपदों के दोहन से जुड़े उपक्रमों का संचालन अपने हाथ में लेकर उससे उपार्जित पूंजी को देशज अर्थव्यवस्था को मजबूत करने में लगाए। जब इन प्रस्तावों को संसद के पटल पर रखने की घोषणा हुई तो जन समुदाय के उस वर्ग ने इन प्रस्तवों को कानून में तब्दील करने का जबरदस्त विरोध किया, जो पूंजीवादी उपभोग की आदी हो गई थी। लेकिन लाचार सरकार के पास इस कानून को पारित करने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं था, सो उसने किया भी।
दरअसल भूमण्डलीय आर्थिक उदारवादी नीतियों की यह विशेषता रही है कि इन नीतियों का क्रियान्वयन करने वाले देशों की करीब एक तिहाई आबादी का सारे राजनीतिक, प्रशासनिक और औद्योगिक तंत्र पर कब्जा हो जाए। उसके मुनाफे में इसी एक तिहाई आबादी की भागीदारी हो जाए। ताकि वह उन भौतिक संसाधनों के भोग-उपभोग की आदी हो जाए जिनके केंद्र में वैश्विक पूंजी गतिशील है और जो खासतौर से तीसरी दुनिया के देशों में बड़ा पूंजीनिवेश करके उन्हें पूंजीवादी भौतिक अर्थव्यवस्था के भोग-उपभोग का आदी बना कर मुनाफा बटोरने में लगे हैं।
ग्रीस में आर्थिक उदारवादी साम्रज्य का ढहना इस बात का प्रतीक है कि विकास की ऊहापोह और जल्दबाजी में हम विकास का जो पूंजीवादी मॉडल तैयार कर रहे हैं, वह एक अभिशापित विनाश यात्रा से ज्यादा कुछ नहीं है। वैसे भी इस विकास के मूल में जो निहितार्थ अंतर्निहित है, उनका मकसद पूंजीवादी विकास के बहाने किसी भी देश की जनता को भोग-विलास की कुचक्री प्रवृत्तियों का आदी बनाकर उनके हाड़-मांस से रक्त निचोड़ना है। क्योंकि पूंजीवादी आर्थिक साम्राज्यवाद का विस्तार खून-पसीने की कमाई और प्राकृतिक संपदा-दोहन के बिना संभव ही नहीं हो सकता ?
हमारे देश में भी विदेशी पूंजी का प्रवाह व दबाव निरंतर बढ़ रहा है। यहां तक की इस पूंजी को जरूरी बताते हुए इसे आदर्श माना जाने लगा है। इस भ्रामक आदर्श स्थिति को स्थापित करने के लिए निजी संपत्ति का साम्राज्य खड़ा करने वाले औद्योगिक धरानों के साथ कुछ अर्थशास्त्रियों और चंद योजनाकारों का एक समूह खड़ा हो गया है। इस समूह का तकाजा है कि प्रजातांत्रिक व्यवस्था में सबसे बड़ा मूल्य पूंजी का है। यही वह समूह है जो यह वातावरण बनाने में लगा है कि व्यक्तिगत आर्थिक उपलब्धियां ही सर्वोपरि हैं। उनके अर्जन के स्त्रोत फिर भले ही शोषणकारी व भ्रष्ट आचरण से जुड़े रहे हों ? कथित बुद्धिजीवियों का यह समूह यह जताने की कोशिश में भी लगा है कि कृषि भूमि एक या अन्य किस्म की भूमियां ऐसी संपत्तियां हैं जिनका व्यवसायीकरण अति आवश्यक है, किन्तु दुर्भाग्यवश ये जमीनें ऐसे लोगों के हाथ में हैं, जो अकुशल व अशिक्षित होने के साथ अक्षम भी हैं। लिहाजा कुशल व व्यवसायी लोगों को भूमि का अधिग्रहण करके हस्तांतरण किया जाना जरूरी है। इनकी सलाह है कि इस मकसदपूर्ति के लिए तत्परता भी बरतना निहायत जरूरी है। इसी राय को अमल में लाने के दृष्टिगत पूरे देश में जबरन भूमि अधिग्रहण का सिलसिला तेज हुआ है। हालांकि ममता बनर्जी जैसी राजनीतिक शख्सियत ने भूमि अधिग्रहण से जुड़ी विकासवादी अवधारणा को ठोकर मारने की प्रबल इच्छा दिखाई है। सिंगूर और नंदीग्राम में लड़ी इसी लड़ाई के फलीभूत वे पश्चिम बंगाल की सत्ता में हैं। हालांकि ममता के पहले कांग्रेस, भाजपा, बसपा समाजवादी अथवा मार्क्सवादी किसी भी दल की सरकारें देश-प्रदेश में प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष भागीदार रही हों भूमण्डलीय अवधारणा के अंतर्गत देशी-विदेशी आवारा पूंजीनिवेश का जो दौर शुरू हुआ, उसके प्रभाव व आकर्षण में सभी संसदीय दलों ने अपनी आर्थिक नीतियों को उसी मॉडल में ढाल लिया जो अमेरिकी वैश्विक आर्थिक उदारवाद की जरूरतों को पूरा करने वाली हैं। स्वदेशी का राग अलापने वाली भाजपा और शिवसेना भी बहुलतावाद खत्म कर देने वाली इन्हीं नीतियों की सत्ता में बने रहने पर अनुगामी रहीं। मार्क्सवाद, समाजवाद, आंबेडकरवाद और पंडित दीनदयाल उपाध्याय के एकात्मवाद की वैचारिक ऊर्जा को आत्मसात करके सत्ता में आने वाले इन दलों के अनुयायी भी आखिरकार पूंजीवाद से नियंत्रित होते ही नजर आए हैं।
, हैरानी है कि दसों दिशाओं में उपजाऊ भूमि के अधिग्रहण का जबरदस्त विरोध हो रहा है। किसान-मजदूर पुलिस की लोगियां खाकर दम तोड़ रहे हैं। आदिवासी अपने मूल निवास स्थलों से विस्थापित होकर कुपोषण और भूख का शिकार हो रहे हैं। इसके बावजूद केंद्र सरकार के लिए खेती की भूमि औद्योगिक विकास के लिए पहली प्राथमिकता में शामिल है। क्योंकि मनमोहन सिंह के आर्थिक सुधारों को मजबूती खेती की भूमि का व्यवसायीकरण और खनिजों के दोहन से ही मिल रही है। यदि ग्रीस के पतन के परिप्रेक्ष्य में वैश्विक आर्थिक उदारवाद की साम्राज्यवादी मंशाओं, लाभ की दृष्टि और धन कमाने की हवस को नजरअंदाज किया गया तो जाहिर है भारत भी ग्रीस जैसे हालात का हिस्सा बन सकता है। इसलिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों के फिरंगी मालिकों के निजी हितों की चिंता करने की बजाय, ममता बनर्जी की दृढ़ संकल्पता को अपनाने की जरूरत है, इस बिना पर चाहे भारतीय उद्योगपतियोें की अवहेलना हो तो उसे भी दर किनार किया जाना जरूरी है।
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प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार है ।
bahut kub
जवाब देंहटाएंपूंजीवाद पर एक अर्थपूर्ण लेख पढ़कर अच्छा लगा....
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