अपने पौराणिक और पुराणपंथी मित्र वेद प्रकाश जी की संगत में जितना जान सका हूं उससे कुछ बातें समझ में आने लगी है कि बार-बार, कई बार,, हर ब...
अपने पौराणिक और पुराणपंथी मित्र वेद प्रकाश जी की संगत में जितना जान सका हूं उससे कुछ बातें समझ में आने लगी है कि बार-बार, कई बार,, हर बार जब भी इन्द्र देवता का सिंहासन डोलने लगता तो वे ब्रम्हा, विष्णु, महेश के यहां गुहार लगाते थे। आज समझ में यह भी आने लगा है सिंहासन या तो इन्द्र देवता का ही हिलने लगता था या अब किसी प्रांत के मुख्यमंत्री का भी हिलने लगता है। सिंहासन को लोकतंत्र में कुर्सी कहा जाता है और इन्द्र की तरह अपने कुर्सी की चिंता कोई भी हो उसे होता है तो यह सर्वथा उचित और स्वाभाविक है।
वेद प्रकाश जी ने एक बार मुझे यह भी समझाने की कोशिश की दानवगण से त्रस्त और भयभीत होकर देवतागण एक डेलीगेशन के रूप में विष्णु जी की शरण में गुहार लगाने गये थे। प्रतिनिधि मण्डल और मेमोरेण्डम (गुहार) की आज की प्रथा का देवयुग से क्या सम्बंध है, मैं फिर भी नहीं समझ पाया।
मैं आंशिक रूप से नासमझ होते हुए भी यह आसानी से समझ सका हूं कि आज के लोकतंत्र में भूख-हड़ताल, विरोध-प्रदर्शन, दशरथ के राज्य में कैकेयी के कोपभवन में शरण लेने का लोकतंत्रीय संस्करण माना जा सकता है। इन सबके अलावा बहुत प्रयास करने पर भी वेद प्रकाश जी रैली के पैाराणिक संदर्भों की व्याख्या आज तक नहीं कर सके हैं जिसका खेद वेद प्रकाश जी की तरह मुझे भी है।
भला हो जनार्दन जी का जिन्होंने रैली परम्परा और महात्म्य पर मेरा विशेष ज्ञानवर्धन करने का वीणा उठाया। जी हां, जनार्दन जी काफी दिनों से इस बात को लेकर चिंतित और उदास रहने लगे थे कि रैली की परम्परा में पिछले कुछ समय से ब्रेक या व्यवधान उत्पन्न हो गया था। उनकी उदासी और मायूसी पिछले कुछ दिनों से काफूर होने लगी है जब अब फिर गाहे-बगाहे रैलियां होने लगी है।
कल जनार्दन जी प्रसन्न चित्त लग रहे थे। मिलने पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए पिछले दिनों को याद करने लगे। कहने लगे-‘वो भी क्या दिन थे जब मूल्यवृद्धि को लेकर लोग रैलियां किया करते थे। कितना अच्छा लगता था जब ‘गरीबी हटाओ' के मुद्दे पर गाहे-बगाहे रैली हुआ करती थी। क्या करे जब मूल्य वृद्धि और गरीबों जैसे मसले सनातन और टिकाऊ रहने लगे तो रैलियों ने भी इन मसलों पर से मुंह मोड़ लिया।
जनार्दन जी के चेहरे पर फिर से मायूसी टपकने लगी। रैलियों के अगले दौर की तरफ उन्होंने रूख किया। उन्होंने याद किया जब ‘व्यक्ति हटाओ' और ‘व्यक्ति बचाओ' जैसे मुद्दों को लेकर रैलियों में लोग शिरकत करते थे। रैलियों का एक दिलचस्प शमां भी था जब कुर्सी मिलने को हो तो रैली, हिल जाये, हाथ से निकल जाये तो रैली, हिलानी हो तो रैली, ताकत दिखानी हो तो रैली, जीतने के लिए रैली, हटाने के लिए रैली बस रैली ही रैली। जनता के सहारे, जनधन के बूते, बस अपने लिये जनता जनार्दन के लिए कुछ भी नहीं।
जनार्दन जी थोड़ा और आगे बढ़ते दिखने लगे। दरअसल उन्होंने कुछ को नजदीक से देखा था, कुछ में खुद भी शामिल हुए थे, कुछ को देखकर दहले भी थे, यादें उनकी जहन में आज भी हू-ब-हू अक्स है।
जनार्दन जी गंभीर मुद्रा में बताने लगे- देश में न मुद्दों की कमी है, न चीजों की कमी है, न तो सूत की जरूरत, न कपास की दरकार, जुलाहे तो मिल ही जाते है। उन्हें लगा कि मुद्दों और चीजों को लेकर मुझे कुछ उलझन सी महसूस होने लगी है। गोया उन्होंने बताना शुरू किया कि रैलियों के कितने नये-नये माडल और संस्करण आने लगे। एक से बढ़कर एक थू-थू रैली, धिक्कार रैली, लाठी रैली, तमाचा रैली वगैरह-वगैरह।
मुझे लगा कि एक अहम मुद्दे को वे या तो भूल रहे थे या बचने की कोशिश कर रहे थे। मैंने पूछा भ्रष्टाचार के खिलाफ भी तो रैलियां हो रही है।
जनार्दन जी तपाक से बोले-‘घोटाले और भ्रष्टाचार के विरोध की जगह समर्थन में रैली की बात हो तो शायद सभी एकजुट हो जाय। सब जानते हैं कि आज इनका विरोध करेंगे तो कल इसका सहारा लेना अशोभनीय लगेगा। आज जिन्हें हम दागी कहते हैं मौका मिलने पर वे ही हमें भी तो दागी कहने के अधिकार का लोकतंत्रीय दायित्व निभायेंगे।
मैने आखिर बचते-बचाते भी जनार्दन जी को टोंक कर ही दम लिया। मैने उन्हें याद दिलाया कि दिल दहलाने वाली रैलियां भी तो एक-आध बार आपने देखी होंगी।
जनार्दन जी गंभीर और द्रवित हो गये। बोले- ‘बस', ट्रैक्टर-ट्राली और ट्रेन की मुफ्त यात्रा करने और राजधानी देखने का सपना पाले उन अभागों को कहां पता था कि रैली की अफरातफरी में यह राजधानी की और जीवन की अंतिम यात्रा होगी। तमाशा दिखाने वाले जब लुत्फअंदोज होते हैं तो तमाशे में शिरकत करने वाले तमाशबीन खुद तमाशा बन जाते हैं। यकीन मानिये, मैने तभी से ही किसी भी प्रकार की रैली में हिस्सेदारी लेने की इच्छा को सदा-सदा के लिए अलविदा कह दिया था।'
जनार्दन जी के रैली स्टेटमेंट से मैं भी सकते में आ गया। सकते से उबरने की कोशिश की और कामयाब भी रहा। संदर्भ और माहौल बदलने की गरज से मैंने पूछ ही लिया कि क्या हमारे देश को अब रैलियों की जरूरत नहीं रही।
लम्बी सांस लेते हुए जनार्दन जी कहने लगे- ‘अब तक की रैलियों से तो कुछ भी नहीं हुआ, हुआ भी तो किसी खास तबके के लिए किसी खास मकसद के लिए। पर आज जरूरत है कुछ ऐसी रैलियों की जो आम तबके और आम मकसद के लिये हो।'
जनार्दन जी का यह दार्शनिक बयान मेरे सिर के ऊपर से निकल रहा था और जनार्दन जी को मेरी इस काबिलियत पर पूरा भरोसा था। इसीलिए वे फरमाने लगे- ‘रैली हो तो झूठ और फरेब के खिलाफ, दो-मुंहे और दोगले बयानों और चेहरों के खिलाफ, व्यभिचार और भ्रष्टाचार के खिलाफ, हैवानियत और बदनीयती के खिलाफ। इन विरोध जताने वाली रैलियों के अलावा यदि समर्थन जताने वाली रैलियां करनी हो तो वे हों सच और ईमानदारी के समर्थन में, सच्चाई और इंसाफ के समर्थन में, इंसानियत और नेकनीयती के समर्थन में, जो कुछ भी अच्छा है उसके समर्थन में।'
मैंने उनकी बातों से साहस और गर्व का अनुभव किया। सीना फूलने लगा, आँखों में चमक लौटने लगी। शिराओं में, धमनियों में नया जोश भरने लगा तभी उन्होंने एक शर्त रख दी।
भैया इन रैलियों के लिए शर्त बस एक होनी चाहिए कि रैली विरोध में हो या समर्थन में सभी को सभी में शिरकत करनी होगी। बिना किसी भेदभाव के चाहे वह जात का हो, समुदाय का हो, संप्रदाय का हो, क्षेत्र का हो, प्रांत का हो, अमीर का हो, गरीब का हो, भ्रष्टाचार का हो, बेईमानी का हो। इस शर्त को आप मान ले, देश मान ले तो हम आप चले इनमे से कुछ रैलियां तो कर ही ली जाय, बाकी, बाकी लोगों पर छोड़ दिया जाये।
मैं हतप्रभ था, आत्ममुग्ध था, सपने देखने लगा, नये समाज का, नये भारत का।
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‘‘अवध प्रभा'' 61, मयूर रेजीडेन्सी, फरीदी नगर, लखनऊ-226016.
बहुत रोचक लगी यही रचना ....!!
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