अजय ‘अज्ञात' इज़हार ग़ज़ल संग्रह तौफीक में ख़ुदा ने बख्शा है फ़न सुख़न का उसकी ही रहमतों से अशआर कह रहा हूँ सद्भावना प्रकाशन फ़रीदाब...
अजय ‘अज्ञात'
इज़हार
ग़ज़ल संग्रह
तौफीक में ख़ुदा ने बख्शा है फ़न सुख़न का
उसकी ही रहमतों से अशआर कह रहा हूँ
सद्भावना प्रकाशन
फ़रीदाबाद
2011‚ सितम्बर
अजय ‘अज्ञात'
म नं- 37‚ सैक्टर- 31
फरीदाबाद-121003
ई मेलः ajayagyat@gmail.com
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नाम : अजय ‘अज्ञात'
पिता का नाम : श्री ओम प्रकाश शर्मा
जन्म तिथि : 24 मार्च 1961
निवास : मकान नंबर 37‚ सैक्टर 31
फरीदाबाद 121003
शिक्षा : मैकेनिकल इंजीनियरिंग
लेखन(संयुक्त संकलन) : काव्य त्रिवेणी‚ कलियों को खिलने दो
दुष्यंत के बाद‚ नए दौर की ग़ज़लें‚ हरियाणा के ग़ज़लकार
(कविता/गीत) : तुम्हारे लिए‚ पतझड़ के फूल‚ वतन के नाम‚
तनमन वतन के नाम
(ग़ज़ल संग्रह) : जुस्तजू‚ जुस्तजू जारी है‚ तश्नगी‚ हमक़दम
भजनामृत (भजन संग्रह)
पत्रपत्रिकाएँ : दैनिक जागरण‚ स्वर्ण जयंती‚ सच का साया‚
कर्मनिष्ठा‚ प्रेरणा‚ देशबन्धु‚ हम सब साथ साथ‚ यू एस एम‚ न्यामती‚
हरिगंधा‚ मौजो साहिल‚ अर्बाबे क़लम‚ सुख़नवर‚ कारवां‚ जर्जर कश्ती‚
गुफ़्तगू‚ अभिनव प्रयास‚ साहित्यांचल‚ नई ग़ज़ल‚ कौशिकी‚
ग़ज़ल के बहाने‚ दमयंती‚ युगीन काव्या‚ अन्वेषी‚ आदि
सम्मान/आशीर्वाद : राष्ट्रीय प्रतिभा सम्मान
(यू एस एम पत्रिका एवं अंतरभारतीय राष्ट्रभाषा विकास संस्थान)
राष्ट्रीय शिखर सम्मान ‘सियाराम शरण गुप्त'
(भारतीय साहित्यकार संसद‚ समस्तीपुर द्वारा)
राष्ट्रीय शिखर सम्मान ‘ बहादुरशाह जफर'
(भा साहित्यकार संसद‚ समस्तीपुर द्वारा)
साहित्यांचल सृजन सम्मान
(साहित्यांचल‚भीलवाडा एवं राजस्थान साहित्य अकादमी)
दीपशिखा इकबाल सम्मान
( दीपशिखा साहित्यिक एवं सांस्कृतिक मंच‚ ज्ञानोदय अकादमी‚हरिद्वार)
सेठ महेशचन्द्र स्मृति सम्मान‚हिन्दी साहित्य
(जिज्ञासा मंच‚ हिसार द्वारा)
संप्रति : एन टी पी सी में वरिष्ठ अभियंता
ई मेल : ajayagyat@gmail.com
इज़हार
मंदिर न मस्ज़िदों में जाता हूँ सज़्दा करने
अशआर के बहाने करता हूँ बंदगी मैं
करते हैं राह रौशन तारीकियों में जुगनू
माँ की दुआएं हरदम रहती हैं साथ मेरे
समर्पित
सभी ग़जलप्रेमियों को
अजय ‘अज्ञात'
सद्भावना प्रकाशन‚फरीदाबाद
संग्रहित ग़ज़लें (अनुक्रम में नहीं)
1 करुण चरण कल्याणी जननी
2 शुक्रिया शुक्रिया शुक्रिया आप का
3 बंजर को उद्यान बना दे ऐ मौला
4 सब से ही मुख्तलिफ है अदबी सफर हमारा
5 करता हूँ पेश आप को नज़राना ए ग़ज़ल
6 न पूछो ये मुझ से कि क्या कर रहा हूँ
7 अभी उम्मीद है ज़िंदा अभी अरमान बाकी है
8 घर के हर सामान से बिल्कुल जुदा है आईना
9 एक पल को ख़ुशी बख्श दे
10 ज्ञान का दीपक जला दे
11 लेता हूँ उस का नाम बड़े एहतिराम से
12 अंतर में विश्वास जगाओ
13 महिमा अपरंपार तुम्हारी गंगा जी
14 हर किसी को ख़ुशी चाहिये
15 करे जो परवरिश वो ही ख़ुदा है
16 मस्ज़िद में वो मिला है न मंदिर ही में मिला
17 आइए कुर्आन की इस्लाम की बातें करें
18 हों ऋचायें वेद की या आयतें कुर्आन की
19 तुम जुबां पर हर घड़ी नामे ख़ुदा रक्खा करो
20 कहाँ कोई हिंदू मुसलमां बुरा है
21 गीता-सी या कुर्आन-सी उम्दा किताब बन
22 दर्द से उपजा हुआ इक गीत लिख
23 इज़हारेग़म शे'रों में यूं लिख कर करता हूँ
24 मैंने वहशत में तेरा नाम सरे-आम पढ़ा
25 अपने दिल में इतनी कुव्वत रखता हूँ
26 ये तो बता कि दूर खड़ा सोचता है क्या
27 जिस तरफ देखो मचा कोहराम है
28 हर वक़्त दिल पे जैसे कोई बोझसा रहा
29 आश्ना‚ नाआश्ना‚ अच्छा‚बुरा कोई तो हो
30 कहा मोम ने ये पिघलतेपिघलते
31 सारे जहां को प्यार का पैग़ाम दे चलूँ
32 जाती है जहाँ तक ये नज़र देख रहा हूँ
33 इस से बढ़ कर और भला ग़म क्या होगा
34 ये जिस्म ‚ ये लिबास यहीं छोड़ जाऊंगा
35 निराशा में बढ़ाना हौसला है लाज़िमी बेशक
36 ज़िंदगी बेमज़ा हो गई
37 है समन्दर आसमानी क्यों भला
38 यहाँ खतरे में सब की आबरू है
39 गुलों से महकता चमन चाहिए
40 नव सृजन करता रहा तन्हाइयों के बीच में
41 जो सर झुका के हाथ कभी जोड़ता नहीं
42 नफ़रत की ये आग बुझाने आ जाओ
43 जिस शख्स के भी हाथ में है आईना मिला
44 आज कल हालात हैं कुछ तंग से
45 पीछे मुड़मुड़ कर नहीं देखा कभी
46 दोस्ती मुझ से बढ़ाना चाहता है
47 अब भी ऐसे लोग बहुत हैं बस्ती में
48 सियासी खेल खेला जा रहा है
49 बात ख़ुद से आइने में रू ब रू करता रहा
50 आए काले बादल घिर कर
51 अधरों की मुस्कान है बेटी
52 बड़ी इख़्लासमंदी से सभी महमां बुलाए हैं
53 कैसे करें बताओ बसर कुछ नहीं बचा
54 बच्चे‚ बूढ़े जिसको देखो जीवन की इन राहों पर
55 इस बात से वाक़िफ़ हैं सब कोई नहीं अंजान है
56 कि दिल का किसी से लगाना बुरा है
57 जीवन का हर पल बीता है दुविधा में‚ कठिनाई में
58 राम जाने ये क्या हो गया
59 बचपन ने सब ऐसावैसा सीख लिया है
60 माँ की उंगली थाम के चलना सीख लिया है
61 सपने केवल सपने हैं
62 पेट पर पट्टी बंधी है‚ बेबसी है
63 ख़ाली कभी‚ भरा हुआ आधा दिखाई दे
64 ज़़रासी बात पे गुस्सा नहीं किया करते
65 सब से ही दिल की बात का इज़हार मत करो
66 तीर या तलवार आख़िर किस लिए
67 कोसों पैदलपैदल चल कर दफ्तर जाते बाबू जी
68 ज़िंदगी का हर लम्हा खुशगवार कर लिया
69 नहीं खुश देख पाती है किसी को भी कभी यारो
70 हर किसी की आँख का सपना है घर
71 बेशुमार व्यर्थ की ख्व़ाहिशों को कम करें
72 दिखने की चीज़ है न दिखाने की चीज़ है
73 जो बीत गया उस पर रोने से क्या होगा
74 सद्मात हिज्रे यार के जब जब मचल गए
75 देखते ही आप को कुछ हो गया
76 हम बेखुदी में जाने किस ओर जा रहे हैं
77 घर-घर चूल्हाचौका करती ‚ करती सूट सिलाई माँ
78 ज़िंदगी जीने का तब तक क़ायदा आया न था
79 शायद दोनों में है अनबन
80 मुझ को सफेद तो कभी काला बना दिया
81 दिल लगाने के नतीजे सब मुझे मालूम हैं
82 इच्छा क्या अभिलाषा क्या है
83 उठ रही फिर भावना की इक लहर है
84 बात सच्ची थी भले कड़वी लगी
85 अशआर
* * *
करुण चरण कल्याणी जननी
मृदुल करो मम् वाणी जननी
दया‚ क्षमा का भाव जगा दो
दयामयी गुर्बाणी जननी
हरो सकल कष्टों को मेरे
जगत् सृजक ब्रह्माणी जननी
आलोकित कर दो प्रज्ञा को
तपस्विनी इन्द्राणि जननी
अतुल अलौकिक साहस दे दो
रिपु मर्दक क्षत्राणी जननी
मिले सुयश जीवन में मुझ को
करो कृपा कल्याणी जननी
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शुक्रिया शुक्रिया शुक्रिया आप का
हम पे रहमो करम जो हुआ आपका
आ दरे फैज पर ये तजुर्बा हुआ
आप उस के हुए जो हुआ आप का
आप की रहनुमाई में बढ़ते रहें
हर कदम पर मिले मश्विरा आप का
नूर भरते रहो लेखनी में मेरी
हाथ सर पर रहे मुस्तफा आप का
बेसहारा हैं जो भी भटकते यहाँ
उन सभी को मिले आसरा आप का
बह्र मुतदारिक मुस-स सालिम
अर्क़ान ख़ायलुन फ़ायलुन फ़ायलुन फ़ायलुन
वज़्न 212 2 1 2 2 1 2 2 1 2
छन्द महालक्ष्मीवत्
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बंजर को उद्यान बना दे ऐ मौला
ख़ुशियों का सामान बना दे ऐ मौला
निर्गुण को गुणवान बना दे ऐ मौला
संतोषी इंसान बना दे ऐ मौला
हर मुश्किल का हल दे कर तू सब के
जीवन को आसान बना दे ऐ मौला
उल्फ़त का माहौल बना कर हर सू ही
प्यारा हिंदुस्तान बना दे ऐ मौला
सच्चाई की राह दिखाकर हम सब का
पुख्ता तू ईमान बना दे ऐ मौला
बह्र
अर्क़ान फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ा
वज़्न 22 22 22 22 22 2
छन्द
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सब से ही मुख्तलिफ है अदबी सफर हमारा
मंज़िल है दूर रस्ता है पुरखतर हमारा
सींचा है अपने खूं से शेरो अदब का गुलशन
शामिल है रंगो बू में खूने जिगर हमारा
तौफीक से खुदा की पाया है फन सुखन का
माँ की दुआओं से है निखरा हुनर हमारा
नाकाम हो गए हम इस को सँवारने में
बिगड़ा हुआ मुकद्दर है इस कदर हमारा
ज़ेरो-ज़बर बहुत से देखे हैं ज़िंदगी ने
तोड़ा है पत्थरों ने शीशे का घर हमारा
केवल ख़ुदा के दर पर रखते हैं हम जबीं को
झुकता नहीं सभी के कदमों में सिर हमारा
बह्र
अर्क़ान
वज़्न 2 2 1 2 1 2 2 2 2 1 2 1 2 2
छन्द
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घर के हर सामान से बिल्कुल जुदा है आइना
बेजुबां हो कर भी सब कुछ बोलता है आइना
कह रहा सारा ज़माना बेहया है आइना
ऐ हसीनो तुम बताओ क्या बला है आइना
कर लो लीपापोती कितनी ही भले चेहरे पे तुम
असलियत सारी तुम्हारी जानता है आइना
आइने को देख कर इतरा रही है रूपसी
रूपसी को देख कर इतरा रहा है आइना
कातिलाना मुस्कुराहट‚ तिरछी नज़रें‚ लट खुलीं
नाज़नीं की हर अदा पर मर मिटा है आइना
खो गई इस की चमक भी साथ बढ़ती उम्र के
देखिये ‘अज्ञात' अब धुंधला गया है आइना
बह्र रमल मुसम्मन महज़़ूफ़़
अर्क़ान फ़ायलातुन फ़ायलातुन फ़ायलातुन फ़ायलुन
वज़्न 2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 22 212
छन्द गीतिकावत्(सीतावत्)
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करता हूँ पेश आप को नज़राना-ए-ग़ज़ल
नायाब मुश्कबार ये गुलदस्ता-ए-ग़ज़ल
तल्खाबे-ग़म न पीजिये हो तश्नगी अगर
भर-भर के जाम पीजिये पैमाना-ए-ग़ज़ल
करना जो चाहते हो हकीक़त से सामना
रक्खो ज़रा-सा सामने आईना-ए-ग़जल
मतले से ले के मक्ते तलक डूब कर कहा
कहते हैं लोग मुझ को तो दीवाना-ए-ग़ज़ल
ज्यूं ही ग़ज़ल की शमअ् को रौशन किया तभी
उड़ कर कहीं से आ गया परवाना-ए-ग़ज़ल
जब से ग़जल को माँ का सा दर्ज़ा दिया मुझे
जग ने खिताब दे दिया शहज़ादा-ए-ग़जल
मुश्किल था काम फिर भी फकत एक शेर में
‘अज्ञात' ने सुना दिया अफसाना-ए-ग़ज़ल
बह्र मुज़ारअ़ मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़
अर्क़ान मफ़ऊल फ़ाइलात मफ़ाईल फ़यलुन
वज़्न 2 2 1 2 1 2 1 1 2 2 1 2 1 2
छन्द मात्रिक
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न पूछो ये मुझ से कि क्या कर रहा हूँ
ग़ज़ल में तजुर्बा नया कर रहा हूँ
भले इन की फ़ित्रत में है बेवफाई
हसीनों से फिर भी वफा कर रहा हूँ
कि रुख्सार पर तेरे होठों को रख कर
नमाज़े-मुहब्बत अदा कर रहा हूँ
बनाते हो मुँह क्यों सिकोडी हैं भौंहें
कहो क्या मैं कोई खता कर रहा हूँ
सदा बद दुआएं मिली मुझ को जिन से
मैं हक में उन्हीं के दुआ कर रहा हूँ
चला जा रहा हूँ मैं खुद उल्टे रस्ते
मगर दूसरों को मना कर रहा हूँ
बुजुर्गों के कदमों में सर को झुका कर
दुआओं की दौलत जमा कर रहा हूँ
‘अजय' रू ब रू आइना अपने रख कर
कि खुद का ही मैं सामना कर रहा हूँ
बह्र मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम
अर्क़ान फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
वज़्न 1 2 2 1 2 2 1 2 2 1 2 2
छन्द भुजंगप्रभावत्
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अभी उम्मीद है ज़िन्दा अभी इम्कान बाक़ी है
बुलंदी पर पहुँचने का अभी अरमान बाक़ी है
हुआ है दूर कोसों आदमी संवेदनाओं से
बदलते दौर में बस नाम का इंसान बाक़ी है
सजा लो जितना जी चाहे रंगीले ख़्वाब आँखों में
दुकानों पर सजावट का बहुत सामान बाक़ी है
कहाँ ले चल दिए हो तुम उठा कर चार कांधों पर
अभी तो दिल धड़कता है अभी कुछ जान बाक़ी है
सुनाता हूँ ज़रा ठहरो हकीकत ज़िंदगानी की
कहानी तो मुकम्मल है मगर उन्वान बाक़ी है
अभी कुछ लोग हैं ऐसे उसूलों पर जो चलते हैं
अभी कुछ लोग हैं सच्चे अभी ईमान बाक़ी है
हुए ‘अज्ञात' से वाकिफ हजारों लोग दुनिया में
मगर ख़ुद ही से ख़ुद उस की अभी पहचान बाक़ी है
बह्र हज़ज मुसम्म्नन सालिम
अर्क़ान मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
वज़्न 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2 2 2
छन्द वधातावत्
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लेता हूँ उस का नाम अदब ओ एहतिराम से
बख्शा है जिस ने मुझ को इस इल्मेक़लाम से
करता हूँ सुब्होशाम उसी की मैं बंदगी
चलती है कायनात ही जिस के निजाम से
कदमों को जो मिलाना हो रफ्तारेवक़्त से
चलना पड़ेगा दोस्तो जोशो खिराम से
कातिल नज़र से देख कर हौले से मुस्कुरा
वो दिल चुरा के ले गई पहले सलाम से
तन तो बसेरा ह्रैअजय' चंद सांसों का फकत
जाना है सब को एक दिन अपने क़याम से
बह्र मुज़ारअ़ मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़
अर्क़ान मफ़ऊल फ़ाइलात मफ़ाईल फ़यलुन
वज़्न 2 2 1 2 1 2 1 1 2 2 1 2 1 2
छन्द मात्रिक
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एक पल को खुशी बख़़्श दे
रेशमी ज़िंदगी बख़़्श दे
तीरगी का सफ़र ख़़त्म हो
राह में रौशनी बख़़्श दे
मौसमे - गुल हमेशा रहे
इस क़़दर ताज़गी बख़़्श दे
ज़िंदगी के लिए हौसला
है बहुत लाज़मी बख़़्श दे
दिल में अरमां मचलने लगे
लज़्ज़तएशायरी बख़़्श दे
बह्र मुतदारिक मुस-स सालिम
अर्क़ान फ़ायलुन फ़ायलुन फ़ायलुन
वज़्न 2 1 2 2 1 2 2 1 2
छन्द महालक्ष्मीवत्
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ज्ञान का दीपक जला दे
तू जहालत को मिटा दे
ज़िंदगी को हौसला दे
नेक रस्ते पर चला दे
कुदरती आबो हवा दे
ख़ुशनुमा मंज़र बना दे
फूल गुलशन में खिलेंगे
तू ज़रा सा मुस्कुरा दे
खूब है ये ज़िंदगानी
खूबतर इस को बना दे
मुश्किलें ही मुश्किलें हैं
मुश्किलों का हल बता दे
बेहिसो लाचार हैं जो
मत उन्हें तू यातना दे
ज़िंदगी है कशमकश में
क्या करूं कुछ मश्विरा दे
फड़फड़ाता है परिंदा
क़ैद से इस को छुड़ा दे
जा रहा हूँ दूर तुझ से
हाथ रुख़्सत को हिला दे
चाहता हूँ तुझ से मिलना
ऐ ख़ुदा अपना पता दे
बह्र
अर्क़ान फ़ायलातुन फ़ायलातुन
वज़्न 2 1 2 2 2 1 2 2
छन्द
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करे जो परवरिश वो ही ख़ुदा है
उसी का मर्तबा सब से बड़ा है
बुरे हालात में जो काम आए
उसे पूजो वो सचमुच देवता है
धुआं फैला है हर सू नफरतों का
मुहब्बत का परिंदा लापता है
न जाने हश्र क्या हो मंज़िलों का
यहाँ अंधों की ज़द पे रास्ता है
अगर हो साधना निष्काम अपनी
जहाँ ढूढ़ो वहीं मिलता ख़ुदा है
वहीं होती सदा सच्ची कमाई
जहाँ भी नेकियों का क़ाफ़िला है
बह्र हज़ज मुस-स महज़ूफ़
अर्क़ान मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
वज़्न 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2 2
छन्द सुमेरुवत
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अंतर में विश्वास जगाओ
उम्मीदों के दीप जलाओ
जीते जी हिम्मत मत हारो
बाधाओं से जा टकराओ
संयम और समझ से अपनी
हर मुश्किल आसान बनाओ
कर लो दूर उदासी मन की
होठों पर मुस्कान सजाओ
पीछे मुड़़ कर मत देखो तुम
जीवनपथ पर बढ़ते जाओ
कोई मौका मत चूको तुम
हर अवसर का लाभ उठाओ
बह्र मुतक़ारिब मुसम्मन असरम
अर्क़ान फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन
वज़्न 2 2 2 2 2 2 2 2
छन्द चौपाईवत्
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महिमा अपरंपार तुम्हारी गंगा जी
भव सागर से पार लगाती गंगा जी
गौमुख से गंगा सागर तक अमृतमय
बहती अविरल धार निराली गंगा जी
निर्मल जल अंतस को देता शीतलता
अंतर्मन की प्यास बुझाती गंगा जी
सिंचित करती संस्कारों को धरती पर
जन जन के संत्रास मिटाती गंगा जी
पूनम का जब चाँद चमकता है नभ में
सब को शाही स्नान कराती गंगा जी
बह्र
अर्क़ान फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ा
वज़्न 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2
छन्द
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हर किसी को ख़ुशी चाहिए
पुरसुकूं ज़िंदगी चाहिए
चाहतों की कहाँ इंतिहा
जाम को तिश्नगी चाहिए
पार कर लूंगा सब मुश्किलें
बस दुआ आप की चाहिए
आर्जू और कुछ भी नहीं
इक तिरी बंदगी चाहिए
जीत को हौसले के सिवा
क़़ल्ब में आग भी चाहिए
बह्र मुतदारिक मुस-स सालिम
अर्क़ान फ़ायलुन फ़ायलुन फ़ायलुन
वज़्न 2 1 2 2 1 2 2 1 2
छन्द महालक्ष्मीवत्
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तुम जुबां पर हर घड़ी नामे ख़ुदा रक्खा करो
हर किसी के वास्ते लब पर दुआ रक्खा करो
मत जरूरत से अधिक तुम वास्ता रक्खा करो
अज्नबी से दो कदम का फासला रक्खा करो
बेवजह बैठे बिठाए दुश्मनी मत मोल लो
हर किसी के सामने मत आइना रक्खा करो
मुश्किलों से पार पाने का यही है रास्ता
मुश्किलों के दौर में तुम हौसला रक्खा करो
कह रहा ‘अज्ञात' रूहे रौशनी के वास्ते
दिल का दरवाजा ज़रा सा तुम खुला रक्खा करो
बह्र रमल मुसम्मन महज़़ूफ़़
अर्क़ान फ़ायलातुन फ़ायलातुन फ़ायलातुन फ़ायलुन
वज़्न 2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 22 212
छन्द गीतिकावत्(सीतावत्)
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मस्ज़िद में वो मिला है न मंदिर ही में मिला
उसका वज़ूद क़़ल्ब के भीतर ही में मिला
ये आस्था की बात है इसके सिवा न कुछ
इक बुतपरस्त को तो वो पत्थर ही में मिला
ढूंडा मगर न मिल सका अर्श ओ ज़मीन पर
इक आबदार मोती समंदर ही में मिला
क़़दमों में बैठ माँ के ज़ियारत भी हो गई
मक्कामदीना मुझको इसी घर ही में मिला
मालूम था कि ख़ारा है फिर भी न जाने क्यूँ
बह कर नदी का पानी तो सागर ही में मिला
बह्र मुज़ारअ़ मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़
अर्क़ान मफ़ऊल फ़ायलात मफ़ाईल फ़यलुन
वज़्न 2 2 1 2 1 2 1 1 2 2 1 2 1 2
छन्द
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आइए क़ुर्आन की इस्लाम की बातें करें
बाइबिल‚ गुरूग्रंथ साहिब‚ राम की बातें करें
वक़्त न जाया करें बेकार की बातों में हम
आइए इस क़ौम की इख़दाम की बातें करें
अनछुए पहलू को छूना है ज़रूरी अब बहुत
सीधेसीधे आइए हम काम की बातें करें
प्रगति में बाधक बने हैं लोग जो इस देश की
खेंच दें सूली पे क्या इल्ज़ाम की बातें करें
सिरफिरों को रास्ते पर लाएँ हम समझा बुझा
प्यार ही से‚ प्यार के पैग़ाम की बातें करें
देश हो‚ माँबाप हों या हो बड़ा-बूढ़ा कोई
सब की ख़ातिर हम सदा इक्राम की बातें करें
ये तक़ाज़ा है समय का मंज़िलेमक़्सूद को
बिन किए हासिल न हम विश्राम की बातें करें
आइए कुछ देर हमतुम पूर्णिमा की रात में
चाँद‚तारों‚ चर्खे नीलीेफ़ाम की बातें करें
चर्ख • आकाश‚ नीलीफ़ाम• नीले रंग का
बह्र रमल मुसम्मन महज़़ूफ़़
अर्क़ान फ़ायलातुन फ़ायलातुन फ़ायलातुन फ़ायलुन
वज़्न 2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 22 212
छन्द गीतिकावत्(सीतावत्)
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हों ऋचायें वेद की या आयतें कुर्आन की
राह दोनों ही दिखाती हैं हमें ईमान की
बाइबल औ ग्रंथ साहिब का भी ये पैग़ाम है
हो सभी के वास्ते सद्भावना इंसान की
चाय के प्याले के संग दो चार बिस्किट रख दिए
अब नहीं पहली सी ख़ातिर होती है महमान की
मत *तअस्सुब पालिये अपने दिलों में दोस्तो
प्यार से मिल कर रहो है माँग हिंदुस्तान की
आपसी विश्वास हर संबंध की बुनियाद है
चाह है ‘अज्ञात' सब को आप सी सम्मान की
*तअस्सुब-धार्मिक पक्षपात
बह्र रमल मुसम्मन महज़़ूफ़़
अर्क़ान फ़ायलातुन फ़ायलातुन फ़ायलातुन फ़ायलुन
वज़्न 2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 22 212
छन्द गीतिकावत् (सीतावत्)
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इज़हारेग़म शे'रों में जब लिख कर करता हूँ
कहते हैं सब मैं तो जादूमंतर करता हूँ
जबतब घर में आने वाले महमानों की मैं
ख़ादिम बन कर ख़ातिरदारी जम कर करता हूँ
शब्दों रूपी मोती की माला को चितवन से
अर्पित सब पढ़ने वालों को सादर करता हूँ
रचनाओं में जीवन के सब रंगों को भर कर
हर पन्ने पर इज़हारे दिल खुल कर करता हूँ
दुनिया चाहे कुछ भी बोले मुझ को क्या करना
जो भी करता हूँ मैं मन की सुन कर करता हूँ
सज़्दा जब भी करना होता ऊपर वाले का
बूढ़ी माँ के चरणों को मैं छू कर करता हूँ
विपदाओं के तम में निज उम्मीदों को रौशन
मंदिर की चौखट पर जा कर अक्सर करता हूँ
बह्र
अर्क़ान फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ा
वज़्न 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2
छन्द
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कहाँ कोई हिंदू मुसलमां बुरा है
जो नफ़रत सिखाए वो इंसां बुरा है
सियासत में हरगिज़ न इन को घसीटो
न गीता बुरी है न कुर्आं बुरा है
लहू जो बहाता है निर्दोष जन का
यकीनन अधर्मी वो शैतां बुरा है
उजाड़े नशेमन परिंदों का नाहक
उखाड़े शजर जो वो तूफां बुरा है
गलत या सही जैसे-तैसे हमारे
खजाने भरे हों ये अरमां बुरा है
हुनर सीख लो मुस्कुराने का ग़म में
हमेशा ही रहना परेशां बुरा है
सफर ज़िंदगी का है ‘अज्ञात' छोटा
जुटाना बहुत सारा सामां बुरा है
बह्र मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम
अर्क़ान फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
वज़्न 1 2 2 1 2 2 1 2 2 1 2 2
छन्द भुजंगप्रभावत्
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गीता-सी या कुर्आन-सी उम्दा किताब बन
बन कुछ भी ज़िंदगी में मगर लाजवाब बन
जुगनू नहीं चिराग या फिर आफताब बन
तारीकियों में नूर का तू इंकलाब बन
हाथों पे हाथ धर के न तक़दीर आजमा
तदबीर की बिसात पर तू कामयाब बन
नापाक बद नज़र से बचा कर शबाब को
पर्दे में रह के हुस्न का तू माहताब बन
‘अज्ञात' ग़मे-हयात के काँटों के बीच तू
खुशबू बिखेरता हुआ दिलकश गुलाब बन
बह्र मुज़ारअ़ मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़
अर्क़ान मफ़ऊल फ़ाइलात मफ़ाईल फ़यलुन
वज़्न 2 2 1 2 1 2 1 1 2 2 1 2 1 2
छन्द मात्रिक
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दर्द से उपजा हुआ इक गीत लिख
हर्फ़ेनफ़रत को मिटा कर प्रीत लिख
ज़िंदगी की राह पर चलते हुए
है सुलभता से मिली कब जीत लिख
प्रेरणा से पूर्ण हो तेरा सृजन
प्राण जो चेतन करे वो गीत लिख
पैरवी कर लेखनी से सत्य की
झूठ से हो कर नहीं भयभीत लिख
आज़माना चाहता है गर हुनर
आज के परिवेश के विपरीत लिख
किस तरह परमात्मा से हो मिलन
साधना की कौन सी हो रीत लिख
और कैसे कट रही है ज़िंदगी
हो रहा कैसे समय व्यतीत लिख
शिल्प का सौंदर्य केवल मत दिखा
भावना को मथ के तू नवनीत लिख
बह्र रमल मुस-स महज़़ूफ़़
अर्क़ान फ़ायलातुन फ़ायलातुन फ़ायलुन
वज़्न 2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2
छन्द पीयूषवर्षवत्
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जिस तरफ देखो मचा कुहराम है
हो रही क्यों आबरू नीलाम है
दर्दे-दिल‚ रुसवाईयाँ‚ तन्हाईयाँ
इश्क़ का होता यही अंजाम है
छा रही है रफ्ता-रफ्ता तीरगी
ढल रही अब ज़िंदगी की शाम है
मुफ़्लिसी‚ बेरोज़गारी‚ भुखमरी
हाक़िमों की लूट का परिणाम है
किसलिए दर पर खड़े हो देर से
आपको मुझ से भला क्या काम है
यूं पहेली मत बुझाओ बोल दो
बात कोई ख़ास है या आम है
देखिए तो किस तरह हर आदमी
ज़िंदगी से कर रहा संग्राम है
काम में मसरूफ है अज्ञात भी
एक पल को भी नहीं आराम है
बह्र रमल मुसम्मन महज़़ूफ़़
अर्क़ान फ़ायलातुन फ़ायलातुन फ़ायलुन
वज़्न 2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2
छन्द पीयूषवर्षवत्
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मैंने वहशत में तेरा नाम सरे-आम पढ़ा
अपने हाथों की लकीरों में तेरा नाम पढ़ा
मैंने हर साँस‚ हर इक लम्हा‚ तेरा नाम पढ़ा
कभी अल्लाह‚ कभी ईसा‚ कभी राम पढ़ा
तेरे होठों पे ज़माने ने जो डाले ताले
मैंने आँखों के इशारों को सरे-शाम पढ़ा
लाख इल्ज़ाम लगाती रही दुनिया लेकिन
प्यार का कलमा रह-ए-इश्क में हर ग़ाम पढ़ा
अपने बच्चों को खिलौना भी न इक दे पाया
मैंने अखबारों में बढ़ता हुआ जब दाम पढ़ा
बह्र
अर्क़ान फ़ायलातुन फ़इलातुन मुफ़ाईलुन फइलुन
वज़्न 2 1 2 2 1 1 2 2 1 1 2 2 1 1 2
छन्द
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अपने दिल में इतनी कुव्वत रखता हूँ
सच को सच कहने की जुर्अत रखता हूँ
बेशक मिट्टी का दीपक हूँ लेकिन मैं
तम से टकराने की हिम्मत रखता हूँ
कहते हैं मुझ से मेरे संगी-साथी
शाइर जैसी मैं भी फ़ित्रत रखता हूँ
बेअदबी से मुझ से बातें मत करिये
ग़ैरतमंद हूँ मैं भी इज्ज़त रखता हूँ
मेरे दीवानेपन की हद तो देखो
ख़्वाबों में भी तेरी हसरत रखता हूँ
मेरे भी दिल में पलते हैं कुछ अरमां
मुस्कानों की मैं भी चाहत रखता हूँ
हैरां हैं तितली भंवरे‚ क्यों गुल हो कर
ख़ारों से मैं इतनी निस्बत रखता हूँ
*कुव्वत- शक्ति‚ *जुर्अत- साहस
बह्र
अर्क़ान फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ेलुन फ़ा
वज़्न 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2
छन्द
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ये तो बता कि दूर खड़ा सोचता है क्या
आता नहीं है पास भला सोचता है क्या
उल्फ़त का इक चराग़ तो रौशन तू दिल में कर
दुश्मन से जा के हाथ मिला सोचता है क्या
परवान चढ़ती जायेगी ये ज़िंदगी तिरी
सुंदर तू आचरण को बना सोचता है क्या
मिल जाएंगे निदान समस्याओं के तुझे
कोशिश तो कर क़़दम तो बढ़ा सोचता है क्या
रंगीन ख्व़ाब देख तू कैसे भी रंग में
काला‚ सफेद‚ लाल‚ हरा सोचता है क्या
बह्र मुज़ारअ़ मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़
अर्क़ान मफ़ऊल फ़ाइलात मफ़ाईल फ़यलुन
वज़्न 2 2 1 2 1 2 1 1 2 2 1 2 1 2
छन्द मात्रिक
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कहा मोम ने ये पिघलते-पिघलते
रफ़ीक़़ेसफ़र हैं अदलते-बदलते
बहुत देर कर दी दयारेफ़लक में
सुनहरी प्रभा ने निकलते-निकलते
पहुंच ही गए हैं निकट मंज़िलों के
क़दम रफ़्तारफ़्ता‚ संभलते-संभलते
नहीं क्यों है थकती शबोरोज़ आख़िर
जबां आप की विष उगलते-उगलते
चले आइएगा कभी बाग़े-दिल में
किसी रोज़ यूं ही टहलते-टहलते
‘अजय' इन पुरानी बुरी आदतों को
समय तो लगेगा बदलते-बदलते
बह्र मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम
अर्क़ान फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
वज़्न 1 2 2 1 2 2 1 2 2 1 2 2
छन्द भुजंग प्रभावत्
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हर वक़्त दिल पे जैसे कोई बोझसा रहा
दिनरात कोई बात यूं ही सोचता रहा
संयम से मैंने काम लिया उलझनों में भी
हर फैसले पे अपने अडिग मैं सदा रहा
अंग्रेज तो चले गए भारत को छोड़ कर
अंग्रेजियत का कोढ़ मगर फैलता रहा
लिखता रहा मैं लेखनी को खूं में डुबो कर
उर में जगाता सब के नई चेतना रहा
मैंने किये वो काम सदा दिल से दोस्तो
जिन में भी मेरे देश का कुछ फायदा रहा
प्रारंभ से रूचि मिरी हिन्दी ही में रही
कविताओं से विशेष मेरा राबिता रहा
आवाज़ आत्मा की सदा सुनता रहा मैं
कोई भी मुझ को कुछ भी भले बोलता रहा
उलझा रहा हर आदमी रोटी की फिक्र में
पैसे के पीछे उम्रभर वो दौड़ता रहा
बह्र मुज़ारअ़ मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़
अर्क़ान मफ़ऊल फ़ाइलात मफ़ाईल फ़यलुन
वज़्न 2 2 1 2 1 2 1 1 2 2 1 2 1 2
छन्द मात्रिक
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आश्ना‚ नाआश्ना‚ अच्छा-बुरा कोई तो हो
ज़िंदगी के इस सफ़र में हमनवा कोई तो हो
मुश्किले हालात में मुश्किल कुशा कोई तो हो
पारसाई जो सिखाये पारसा कोई तो हो
सामना जुल्मो सितम का कर सके बाहौसला
जो जले तूफ़ान में ऐसा दिया कोई तो हो
ग़म पे ग़म पैहम मुझे क्यों दे रहा है ऐ खुदा
यूं सितम ढाने की आख़िर इंतिहा कोई तो हो
काश इन तारीकियों के टूट जाएं राबिता
रौशनी से निस्बतों का सिलसिला कोई तो हो
मेरे हाफिज़ ये बता मैं जाऊं तो जाऊं कहाँ
देने वाला इस जहां में आसरा कोई तो हो
रहमतों के अब्र बरसें भी तो कैसे दोस्तो
काफ़िरों की भीड़ में अहले-ख़ुदा कोई तो हो
नाज़नीं‚ मन मोहिनी इक कामिनी‚ गजगामिनी
चाँद से रुख़्सार वाली दिलरुबा कोई तो हो
पैकरेख़ाकी तुझे मैं छोड़ तो जाऊं मगर
बाद मेरे पढ़ने वाला फ़ातिहा कोई तो हो
थक गया हूं काटते चक्कर अदालत के ‘अजय'
हक़ में हो चाहे किसी के फ़ैसला कोई तो हो
शाइरों की भीड़ में ‘अज्ञात' सच्चा नेक दिल
नुक़्तादाँ ‘रहबर' के जैसा रहनुमा कोई तो हो
*फ़ातिहा- मुर्दे की नियाज़
रहबर - श्री राजेन्द्र नाथ ‘रहबर'(पठानकोटी)
बह्र रमल मुसम्मन महज़़ूफ़़
अर्क़ान फ़ायलातुन फ़ायलातुन फ़ायलातुन फ़ायलुन
वज़्न 2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2
छन्द गीतिकावत्(सीतावत्)
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ये ज़िस्म ये लिबास यहीं छोड़ जाऊंगा
जो कुछ है मेरे पास यहीं छोड़ जाऊंगा
जब जाऊंगा तो कोई न जायेगा मेरे साथ
सब लोगों को उदास यहीं छोड़ जाऊंगा
भरभर के जाम जिन में पिये उम्रभर वही
खुशियों भरे गिलास यहीं छोड़ जाऊंगा
जाऊंगा मुस्कुराते हुए इस जहान् से
कड़वाहटें खटास यहीं छोड़ जाऊंगा
पढ़ लेना मेरे शे'र तुम्हें याद आऊं जब
ग़ज़लें तुम्हारे पास यहीं छोड़ जाऊंगा
बह्र मूज़ारअ़ मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़
अर्क़ान मफ़ऊल फ़ाइलात मफ़ाईल फ़यलुन
वज़्न 2 2 1 2 1 2 1 1 2 2 1 2 1 2
छन्द मात्रिक
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सारे जहां को प्यार का पैग़ाम दे चलूँ
आधे-अधूरे काम को अंजाम दे चलूँ
पी कर जिसे सुकून मिले तश्नगी मिटे
उल्फ़त भरा जहान् को वो जाम दे चलूँ
इल्मोअदब की कर रहे हैं जो भी ख़िदमतें
सोचूं कि कुछ न कुछ उन्हें इन्आम दे चलूँ
हाथों की इन लकीरों का कोई नहीं क़सूर
फिर कैसे इन को बेवजह इल्ज़ाम दे चलूँ
तुम को ग़ज़ल कहूँं कि रुबाई कहूँ कोई
जो तुम को हो पसंद वही नाम दे चलूँ
बह्र मुज़ारअ़ मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़
अर्क़ान मफ़ऊल फ़ाइलात मफ़ाईल फ़ायलुन
वज़्न 2 2 1 2 1 2 1 1 2 2 1 2 1 2
छन्द मात्रिक
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जाती है जहाँ तक ये नज़र देख रहा हूँ
बदलाव इधर और उधर देख रहा हूँ
जिस गाँव के खेतों में कभी उगता था सोना
उस गाँव में उद्योग नगर देख रहा हूँ
भूचाल कहीं बाढ़ से होती है तबाही
इंसान पे क़ुदरत का क़हर देख रहा हूँ
भाती नहीं औलाद को माँबाप की बातें
बचपन पे जवानी का असर देख रहा हूँ
कैक्टस से घिरा मौन बिचारा-सा खड़ा इक
तहज़ीब का मैं सूखा शजर देख रहा हूँ
चमकेगा मिरे लख़्तेजिगर तेरा सितारा
बढ़ता हुआ मैं तुझ में हुनर देख रहा हूँ
अब रात यहाँ देर तलक टिक नहीं सकती
मैं उगती हुई एक सहर देख रहा हूँ
माँबाप का आशीष सदा साथ रहा है
मैं उन की दुआओं का असर देख रहा हूँ
‘अज्ञात' मुझे छोड़ गया काफिला पीछे
चुपचाप खडा गर्देसफ़र देख रहा हूँ
बह्र
अर्क़ान
वज़्न 2 2 1 1 2 2 1 1 2 2 1 1 2 2
छन्द
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इस से बढ़ कर और भला ग़म क्या होगा
उम्मीदों ने तोड़ दिया दम क्या होगा
पगपग पर हैं आज मुखासिम क्या होगा
होता कत्लेआम मुहर्रम क्या होगा
चारागर की आम दवाई से मेरे
ज़ख़़्मी दिल का दर्द भला कम क्या होगा
पल भर को भी नींद नहीं आती मुझ को
सोचूं सारी रात सहरदम क्या होगा
तुम हो मेरे साथ तो रुत मस्तानी है
बिन तेरे दिलदार ये मौसम क्या होगा
चिंता है फुटपाथ पे सोने वालों की
होगी जब बरसात झमाझम क्या होगा
सोच रही औलाद वसीयत से पहले
साँस गई जो बूढे की थम क्या होगा
सुनते ही आवाज शहदसा घुलता है
छेड़ोगे जब तान तो हमदम क्या होगा
बह्र
अर्क़ान फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ा
वज़्न 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2
छन्द
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यहाँ खतरे में सब की आबरू है
फ़ज़ा जाने ये कैसी चारसू है
समय के वेग से आगे निकल कर
ख़बर बनने की सब की आर्ज़़ू है
जिसे तुम ढूड़ते हो मंदिरों में
मिला मुझ को वो माँ में हूबहू है
पिता के रूप में मुझ से क़सम से
मसीहा रोज़ होता रूबरू है
किसे छू कर चली आईं हवाएँ
फ़ज़ा भी हो गई अब मुश्कबू है
बह्र हज़ज मुस-स महज़ूफ़ अर्क़ान मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन फ़ऊलुन
वज़्न 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2 2
छन्द सुमेरूवत्
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निराशा में बढ़ाना हौसला है लाज़िमी बेशक
सफ़र में साथ होना आश्ना है लाज़िमी बेशक
मिज़ाजे शायरी को जानना है लाज़िमी बेशक
ख़यालों का ज़मीं से वास्ता है लाज़िमी बेशक
अगर हैवान बनता जा रहा हो अपने कर्मों से
दिखाना आदमी को आइना है लाज़िमी बेशक
सबक़़ इंसानियत का भी पढ़ाओ बच्चों को अपने
पढ़ाना प्यार का भी क़ायदा है लाज़िमी बेशक
न जाने नफ़रतों का कब फटे ज्वालामुखी दिल में
इरादे दुश्मनों के भांपना है लाज़िमी बेशक
कि साज़िश गर्दिशे अय्याम जब करने लगे यारो
किनारे कश्तियों को थामना है लाज़िमी बेशक
जवानी जोश में आ कर भटक जाए न मंज़िल से
दिखाना नौजवां को रास्ता है लाज़मी बेशक
बह्र हज़ज मुसम्म्नन सालिम
अर्क़ान मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन
वज़्न 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2 2 2
छन्द विधातावत्
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ज़िंदगी बेमज़ा हो गई
देखिये क्या से क्या हो गई
फिर रही है बुझाती दिये
सरफिरी ये हवा हो गई
चाहियें अब दुआएं मुझे
बेअसर हर दवा हो गई
नैट पर चैट करते हैं सब
डाक तो लापता हो गई
आज कल देखिये डॉटकॉम
हर किसी का पता हो गई
इम्तिहां लोगे यूं कब तलक
छोडिए इंतिहा हो गई
बह्र मुतदारिक मुस-स सालिम
अर्क़ान फ़ायलुन फ़ायलुन फ़ायलुन
वज़्न 2 1 2 2 1 2 2 1 2
छन्द महालक्ष्मीवत्
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है समन्दर आसमानी क्यों भला
हर तरफ़ पानी ही पानी क्यों भला
मुफ़लिसों को फ़िक्र है इस बात की
हो रही बेटी सयानी क्यों भला
फिर रही है दरबदर बिन लक्ष्य के
ठोकरें खाती जवानी क्यों भला
आप के लब देखकर आई समझ
हो गया ख़त ज़ा'फ़रानी क्यों भला
खास कुछ लोगों पे बस मौला मिरे
वक़्त की ये मह्रबानी क्यों भला
बह्र रमल मुसम्मन महज़़ूफ़़
अर्क़ान फ़ायलातुन फ़ायलातुन फ़ायलुन
वज़्न 2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2
छन्द पीयूषवर्षवत्
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नफ़रत की ये आग बुझाने आ जाओ
उल्फ़त का इक दीप जलाने आ जाओ
ग़म देने या खुशियों का पैग़ाम लिए
या फिर कोई और बहाने आ जाओ
हानि धर्म की हर सू होती जाती है
अब तो ‘माधव' धर्म बचाने आ जाओ
विष के साग़र खूब पिये हैं ‘मीरा' ने
अब तो ‘कान्हा' रूप दिखाने आ जाओ
तुम जानो ये कौन क़ियामत आई है
मुझ को मेरे ‘राम' बचाने आ जाओ
बह्र
अर्क़ान फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ा
वज़्न 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2
छन्द
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गुलों से महकता चमन चाहिए
मुकम्मल निज़ामे वतन चाहिए
हरे पेड़पौधों से शोभित धरा
सितारों भरा इक गगन चाहिए
परस्पर रहें सब यहाँ प्यार से
ज़़माने में मुझ को अमन चाहिए
सफलता की खातिर यकीनन हमें
जतन‚ हौसला और लगन चाहिए
मसर्रत इसी में है मिलती मुझे
ख़ुदा मुझ को फिक्रेसुखन चाहिए
जहाँ गूंजतीं हों रुबाई‚ ग़ज़ल
‘अजय' को वही अंजुमन चाहिए
बह्र मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम महज़ूफ़
अर्क़ान फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़अल
वज़्न 1 2 2 1 2 2 1 2 2 1 2
छन्द भुजंगीवत्
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नव सृजन करता रहा तन्हाइयों के दरमियाँ
हौसला छोड़ा नहीं कठिनाइयों के दरमियाँ
देखते ही देखते तूफान इक ऐसा उठा
कश्तियाँ जाती रही गहराइयों के दरमियाँ
आज़माने के लिए तक़दीर को हम भी सनम
हो गए शामिल तिरे शैदाइयों के दरमियाँ
काट कर मेरे परों को ये कहा सैयाद ने
अब ज़रा उड़ कर दिखा ऊंचाइयों के दरमियां
है बुजुर्गों की दुआओं का असर शायद ‘अजय'
आ गई है ज़िंदगी रा'नाइयों के दरमियाँ
बह्र रमल मुसम्मन महज़़ूफ़़
अर्क़ान फ़ायलातुन फ़ायलातुन फ़ायलातुन फ़ायलुना
वज़्न 2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2
छन्द गीतिकावत्
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जो सर झुका के हाथ कभी जोड़ता नहीं
वो जानता अदब का ज़रा क़ायदा नहीं
हर शख़्स का पता हुआ है आज डॉट कॉम
क़ासिद गलीगली में यहाँ घूमता नहीं
है कामयाब शख़्स वही दोस्तो यहाँ
सच्चाई की डगर जो कभी छोड़ता नहीं
इंसान उस को दोस्तो कैसे कहें भला
जो दूसरों के हित में ज़रा सोचता नहीं
अफसोस की है बात बिना गर्ज़ के यहाँ
रखता किसी से कोई ज़रा वास्ता नहीं
मुश्किल ज़रूर पेश उसे आएगी यहाँ
सांचे में ख़़ुद को वक़्त के जो ढालता नहीं
‘अज्ञात' ख़ुद तलाशता है अपना रास्ता
वो दूसरों के नक़्शेक़दम ढूंड़ता नहीं
बह्र मुज़ारअ़ मुसम्मनअख़रब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़
अर्क़ान मफ़ऊल फ़ाइलात मफ़ाईल फ़यलुन
वज़्न 2 2 1 2 1 2 1 1 2 2 1 2 1 2
छन्द मात्रिक
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दोस्ती मुझ से बढ़ाना चाहता है
घर मिरे दिल में बनाना चाहता है
रफ़्तारफ़्ता पास आकर वो मिरे
दूरियां सारी मिटाना चाहता है
ज़िंदगी के आख़िरी इस मोड़ पर भी
वक़्त मुझ को आज़माना चाहता है
चैन से जीने नहीं देता है मुझ को
जाने क्या मुझ से ज़माना चाहता है
ग़ैर मुमकिन करने की ली ठान उस ने
आग पानी में लगाना चाहता है
बह्र रमल मुस-स सालिम
अर्क़ान फ़ायलातुन फ़ायलातुन फ़ायलातुन
वज़्न 2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2 2
छन्द राधावत्
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जिस शख्स के भी हाथ में है आइना मिला
ख़ुद को उसी में देख के वो चौंकता मिला
सुनते हैं इक शरारा मिरे इंतिजार में
मु-त से क़ाफ़िलों की तरफ ताकता मिला
इस ज़िंदगी की दौड़ में खुद से ही बेखबर
हर शख़्स कोई ख़्वाब नया देखता मिला
जब भी बढ़ाए मैंने क़दम मंज़िलों की ओर
मुझ को क़दम कदम पे नया हादसा मिला
जब नुक़्तएनज़र को ही मैंने बदल लिया
अपना ही दोस्त मुझ को बड़ा बेवफ़ा मिला
बह्र मुज़ारअ़ मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़
अर्क़ान मफ़ऊल फ़ाइलात मफ़ाईल फ़यलुन
वज़्न 2 2 1 2 1 2 1 1 2 2 1 2 1 2
छन्द मात्रिक
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आज कल हालात हैं कुछ तंग से
ज़िंदगी रंग लो ख़ुशी के रंग से
सब बना लेंगे तुम्हें अपना अजीज
पेश आना सीख लो तुम ढंग से
हौसला हरगिज़ न अपना छोड़ना
जीत कर लौटोगे तुम हर जंग से
टीसते हैं जख़्म कैसे क्या कहूँ
बिजलियाँ सी कौंधती हैं अंग से
देख कर उन के जमालेहुस्न को
रह गए ‘अज्ञात' हम तो दंग से
बह्र रमल मुस-स महज़़ूफ़़
अर्क़ान फ़ायलातुन फ़ायलातुन फ़ायतुन
वज़्न 2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2
छन्द पीयूषवर्षवत्
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पीछे मुड़मुड़ कर नहीं देखा कभी
खौफ़ का मंज़र नहीं देखा कभी
बस निशाने पर रही मेरी नज़र
लक्ष्य से हट कर नहीं देखा कभी
जंग के मैदान में लड़ता हुआ
मोम का लश्कर नहीं देखा कभी
ख़्वाब आँखों में सजाता रह गया
ख़्वाब को जी कर नहीं देखा कभी
टीस जो देता रहा हर मोड़ पर
वक़्तसा ख़ंजर नहीं देखा कभी
जब जहाँ चाहा परिंदा उड़ गया
मयकदा मंदिर नहीं देखा कभी
बह्र रमल मुस-स महज़़ूफ़़
अर्क़ान फ़ायलातुन फ़ायलातुन फ़ायतुन
वज़्न 2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2
छन्द पीयूषवर्षवत्
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बात ख़ुद से आइने में रू ब रू करता रहा
चांदनी से रातभर मैं गुफ़्तगू करता रहा
हो गया गुम चलते चलते ख़्वाहिशों की राह में
मंज़िलों की उम्रभर मैं जुस्तजू करता रहा
कोशिशें की लाख समझाने की कब माना मगर
बारहा ये दिल तुम्हारी आरज़ू करता रहा
क्या बचाएगा भला वो इस वतन की आबरू
रोज़ जो नीलाम अपनी आबरू करता रहा
जान न पाया हूँ मैं ‘अज्ञात' आखिर किस लिये
हर घड़ी मुझ से अदावत इक अदू करता रहा
बह्र रमल मुसम्मन महज़़ूफ़़
अर्क़ान फ़ायलातुन फ़ायलातुन फ़ायलातुन फ़ायलुन
वज़्न 2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 22 212
छन्द गीतिकावत्(सीतावत्)
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अब भी ऐसे लोग बहुत हैं बस्ती में
काट रहे जीवन जो सूखी रोटी में
हैरत है इस कंप्यूटर के युग में भी
अंतर समझा जाता बेटे-बेटी में
छोटे से मोबाइल से देखो कैसे
आज सिमट आई है दुनिया मुट्ठी में
आंखें दिखलाते हैं मम्मी-पापा को
बच्चों ने तहज़ीब मिला दी मिट्टी में
मेरे दिल में भी ये हसरत पलती है
नाम लिखा जाए मेरा भी सुर्खी में
कुछ तो बात अलहदा इस में है यारो
जो भी आता बस जाता है दिल्ली में
शब भर जगराता करते रहते देखो
चंदा तारे सूरज की अगवानी में
आया है ‘अज्ञात' तुम्हारी चौखट पर
भीख अदब की डालो इस की झोली में
बह्र
अर्क़ान फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ा
वज़्न 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2
छन्द
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सियासी खेल खेला जा रहा है
हमें खेमों में बाँटा जा रहा है
रिवायत को भुलाया जा रहा है
नशेमन को उजाड़ा जा रहा है
भला किस के सहारे छोड़ माँ को
बुढ़ापे का सहारा जा रहा है
रहा जो नींव के पत्थर की मानिंद
उसे घर से निकाला जा रहा है
उठाया कांधों पे आवारगी के
शराफत का जनाजा जा रहा है
चला कर फिर हवाएँ साजिशों की
चिरागों को बुझाया जा रहा है
पते की बात करता जो उसी को
यहाँ पागल बताया जा रहा है
चले हैं आँख वाले पीछे पीछे
दिखाता राह अंधा जा रहा है
वो देखो चौंधिया कर रौशनी से
अंधेरों में उजाला जा रहा है
करी पहचान जिस ने क़ातिलों की
उसे क़़ातिल बनाया जा रहा है
बहुत सस्ते में ही मजबूरियों को
खरीदा और बेचा जा रहा है
कहीं तीतर‚ कहीं मुर्ग़े‚ कहीं पर
बटेरों को लड़ाया जा रहा है
कहीं पर भूख से मरते हैं बच्चे
कहीं उत्सव मनाया जा रहा है
विषैली नफ़रतों की नागिनों को
हमारे बीच छोड़ा जा रहा है
बहुत अफसोस है अपने ही घर में
बुजुर्गों को सताया जा रहा है
कि कुछ तो बात है ‘अज्ञात' तुझ में
तुझे देखे ज़माना जा रहा है
बह्र हज़ज मुस-स महज़ूफ़
अर्क़ान मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
वज़्न 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2 2
छन्द सुमेरुवत्
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कैसे करें बताओ बसर कुछ नहीं बचा
बख्शा था जो ख़ुदा ने इधर कुछ नहीं बचा
मौजेसबा‚ न तितली भंवर कुछ नहीं बचा
काटे हैं हमने जब से शजर कुछ नहीं बचा
दर्या तरस रहा है घटाओं के वास्ते
पानी गया है सर से गुज़र कुछ नहीं बचा
सड़कें बनी तो बाग़ोबग़ीचे उजड़ गए
खाएंगे अब कहाँ से समर कुछ नहीं बचा
मौसम ख़िज़ां का रहने लगा है सदा यहाँ
धूएं का यूं हुआ है असर कुछ नहीं बचा
शोले बरस रहे हैं धरा पर गगन से अब
दूषित हवा का देखो क़हर कुछ नहीं बचा
दुश्वार हो गया है यहाँ जीना एक पल
सपने गए हैं सारे बिखर कुछ नहीं बचा
बह्रमुज़ारअ़ मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़
अर्क़ान मफ़ऊल फ़ाइलात मफ़ाईल फ़यलुन
वज़्न 2 2 1 2 1 2 1 1 2 2 1 2 1 2
छन्द मात्रिक
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आए काले बादल घिर कर
सागर से गागर को भरभर
जंगलजंगल‚ पर्वतपर्वत
आसाढ़ी घन बरसें झरझर
जब कौंधे है चपला नभ में
कांपे सब का जियरा थरथर
चलते हैं सब छाता ताने
कुछ बैठे हैं घर के भीतर
थोड़ीसी आहट पाते ही
नैना जाते हैं देहरी पर
देखो निकला इंद्रधनुष भी
सतरंगी ये कितना सुंदर
मेघों के रथ बढ़ते जाते
कलकल बहते नदिया‚ निर्झर
फूट रही नव कोपल हरसू
आया सावन‚ बीता पतझर
आते‚ जाते दूर गगन में
निशदिन काले मेघ निरंतर
बह्र
अर्क़ान फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन
वज़्न 2 2 2 2 2 2 2 2
छन्द
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अधरों की मुस्कान है बेटी
घरआंगन की शान है बेटी
जाती है ससुराल सँवर कर
अपने घर मह्मान है बेटी
करती निश्छल प्रेम सभी से
हर रिश्ते की जान है बेटी
मूरत है ममता‚ करुणा की
क़ुदरत का वरदान है बेटी
चूल्हा-चौका खूब संभाले
रखती सबका ध्यान है बेटी
कहता है ‘अज्ञात' सभी से
सर्वोत्तम संतान है बेटी
बह्र मुतक़ारिब मुसम्मन असरम
अर्क़ान फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन्
वज्न 2 2 2 2 2 2
छन्द चौपाईवत्
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बड़ी इख़्लासमंदी से सभी महमां बुलाए हैं
हमारे इक बुलावे पर फरिश्ते चल के आए हैं
हुई हैं रहमतें जब से बुजुर्गों की ‚ अदीबों की
हमारी खुशनसीबी के सितारे जगमगाए हैं
बहुत मक़्बूल शाइर हैं अदब ओ इल्म के सारे
क़लम ने वाकई इन की कमाले फ़न दिखाए हैं
मुहब्बत से‚ मुरव्वत से सुना कर शे'र कुछ सच्चे
दिलों को जीत लेने का इरादा कर के आए हैं
कहे तो इक इशारे पर छिड़क दें जान हम इस के
कि हम ने ज़िंदगानी के बहुत अहसां उठाए हैं
भटकते नौजवानों को अदब के इक मसीहा ने
सदाकत के‚ शराफत के सही रस्ते दिखाए हैं
हमारे पास है केवल दुआओं की जमापूंजी
बिना मालो मताअ हम ने मज़े में दिन बिताए हैं
कमाया है सवाबों को ‘अजय' ने शाइरी कर के
बना कर पुल मुहब्बत के दिलों से दिल मिलाए हैं
बह्र हज़ज मुसम्म्नन सालिम
अर्क़ान मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन
वज़्न 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2 2 2
छन्द विधातावत्
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जीवन का हर पल बीता है दुविधा में‚ कठिनाई में
मत पूछो कैसे काटे दिन यौवन के तन्हाई में
कैसे पाओगे रत्नों को बैठ किनारे सागर के
मोती पाने हों तो उतरो सागर की गहराई में
झूठी दौलत‚ झूठी माया‚ झूठी है दुन्या सारी
जीवन का बस सार छिपा है केवल इस सच्चाई में
मेरे तक आता है झोंका तबतब तेरी यादों का
जबजब बोले दूर पपीहा सावन की पुरवाई में
सोचा करता हूँ ख़्वाबों में कितना अच्छा होता गर
मेरा भी जीवन कट जाता थोडासा रा'नाई में
दुल्हन की उठती जब डोली आंखों से आंसू झरते
देखो कितना दर्द छिपा है रुख़्सत की शहनाई में
बह्र
अर्क़ान फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ा
वज़्न 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2
छन्द
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बच्चे‚ बूढ़े जिसको देखो जीवन की इन राहों पर
चिंताओं के गठ्ठर लादे चलते हैं सब कांधों पर
मत लादो इतना बोझा इन नन्हींनन्हीं पीठों पर
ये बस्ते भारी पड़ते हैं छोटेछोटे बच्चों पर
मंज़िल पाने से उसको क्या रोकेगी बाधा कोई
जिसने चलना सीख लिया है हँसतेहँसते ख़ारों पर
साहिल पर लंगर डाला था जिस कश्ती ने बरसों से
हिचकोले खाती है वो ही अब दर्या की मौजों पर
जख़्मों पर मरहम पट्टी की जिससे भी उम्मीद रखी
उसने ही छिड़का है देखो नून हमारे ज़ख़्मों पर
बह्र
अर्क़ान फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ा
वज़्न 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2
छन्द
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इस बात से वाक़िफ़ हैं सब कोई नहीं अंजान है
औलाद के भी काम से माँ बाप की पहचान है
बेजोड़ है जिस का हुनर पाता वही शुहरत यहाँ
ज़िंदादिली से जो जिये सच्चा वही इंसान है
ख़ुद पर जिसे होता यकीं होता वही है कामरां
पाता वही सम्मान जो भी साहिबेईमान है
तेरी दुआओं के असर से मर्तबा है ये मिला
तेरी नवाज़िश से हुई ये ज़िंदगी आसान है
महनतमशक्कत के बिना शोहरत कभी मिलती नहीं
कोशिश बिना पूरा कभी होता नहीं अरमान है
ताज़िंदगी माँबाप का कर्जा चुका सकते नहीं
पालक वही‚ पोषक वही‚ दाता वही भगवान है
‘अज्ञात' की तो बात ही सबसे जुदा है दोस्तो
सम्मुख खड़ी है आपदा लब पर मगर मुस्कान है
बह्र
अर्क़ान
वज़्न 2 2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2
छन्द
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किसी से भी दिल का लगाना बुरा है
ज़़रा बच के रहना ज़माना बुरा है
हसद की फसल को उगाना बुरा है
नशेमन किसी का जलाना बुरा है
ख़ुशी से करो काम जो भी करो तुम
विवशता की गठरी उठाना बुरा है
विषम वक्र पथ पर बढो हँसतेहँसते
उदासी के आँसू बहाना बुरा है
प्रणय की अनल में भले ही जला दो
विरह की अनल में जलाना बुरा है
दिये से दिये को जलाते चलो तुम
उजासित दिये को बुझाना बुरा है
बह्र मुतकारिब मुसम्मन सालिम
अर्क़ान फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
वज़्न 1 2 2 1 2 2 1 2 2 1 2 2
छन्द भुजंगप्रयावत्
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सपने केवल सपने हैं
बेशक सुंदर दिखते हैं
झूठे जग के रिश्ते हैं
कतरा कतरा रिसते हैं
बस जिस्मानी हैं बंधन
दिल से दिल कब मिलते हैं
अंजाने बिन शादी के
इक घर में संग रहते हैं
सच्चीझूठी बातों से
इक दूजे को छलते हैं
करते रहते जो आलस
वो हाथों को मलते हैं
बह्र
अर्क़ान फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ा
वज़्न 2 2 2 2 2 2 2
छन्द
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राम जाने ये क्या हो गया
हादसा फिर नया हो गया
जंग जीतोगे कैसे भला
पस्त जब हौसला हो गया
रौशनी जब जुदा हो गई
तन से साया जुदा हो गया
भावना के सुमन जो खिले
ये समां ख़ुशनुमा हो गया
मुस्कुराता था जो हर घड़ी
आज क्यूं ग़मज़दा हो गया?
बह्र मुतदारिक मुस-स सालिम
अर्क़ान फ़ायलुन फ़ायलुन फ़ायलुन
वज़्न 2 1 2 2 1 2 2 1 2
छन्द महालक्ष्मीवत्
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बचपन ने सब ऐसावैसा सीख लिया है
जो भी दुन्या ने सिखलाया सीख लिया है
अफसाना पढ़नेलिखने का वक़्त नहीं है
शे'रों में सब कुछ कह पाना सीख लिया है
आबे दर्या ज़हरीला होने पर मैंने
चुल्लू में सूरज को पीना सीख लिया है
पढ़तेपढ़ते ग़ालिब जैसे फ़न्कारों को
गीत‚ ग़ज़ल का तानाबाना सीख लिया है
जीवन के खट्टेमीठे अनुभव से मैंने
पढना इंसानों का चेहरा सीख लिया है
बेबस हो कर मेरे भीतर के शाइर ने
दीवारों से बातें करना सीख लिया है
पावन गंगा नगरी में हर की पौड़ी पर
‘हरहर गंगे' मैंने कहना सीख लिया है
बह्र
अर्क़ान फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन
वज़्न 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2
छन्द
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माँ की उंगली थाम के चलना सीख लिया है
कहना उसने अम्माबाबा सीख लिया है
उस बच्चे को इतना भोला मत समझो तुम
उसने भी अब तेरा-मेरा सीख लिया है
बच्चों के अब पंख निकल आए हैं देखो
ख़ुद ही चुनना अपना दाना सीख लिया है
अदबी महफ़िल में जाने से हमने भी तो
ग़ुफ्तारी का तौरतरीक़ा सीख लिया है
समझौता हालात से कैसे करते मैंने
हौलेहौले‚ रफ़्तारफ़्ता सीख लिया है
जैसेजैसे यौवन बीता जाता देखो
ख़ामोशी से सब कुछ सहना सीख लिया है
बह्र
अर्क़ान फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन
वज़्न 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2
छन्द
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ज़़रासी बात पे गुस्सा नहीं किया करते
ग़मेहयात का शिकवा नहीं किया करते
किसी भी हाल में ऐसा नहीं किया करते
नदी के पानी को मैला नहीं किया करते
तुम्हीं बताओ उन्हें जीत कैसे हासिल हो
जो जीतने का इरादा नहीं किया करते
मिलेगा फैसला उन को ही अपने हक़ में जो
बिना सबूत के दावा नहीं किया करते
हमें गवारा है मरना भी भूख से लेकिन
कभी ज़मीर का सौदा नहीं किया करते
कि जिन का साथ निभाते हैं सुख में हम उन से
बुरे दिनों में किनारा नहीं किया करते
भरोसा कुछ नहीं ‘अज्ञात' ज़िंदगानी का
दुबारा मिलने का वादा नहीं किया करते
बह्र
अर्क़ान मुफ़ाइलुन फ़इलतुन मुफ़ाइलुन फ़ैलुन
वज़्न 1 2 1 2 1 1 2 2 1 2 1 2 2 2
छन्द
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पेट पर पट्टी बंधी है‚ बेबसी है
मुफ़्लिसों की ज़िंदगी क्या ज़िंदगी है
साथ ग़ुर्बत का नहीं देती है क़िस्मत
गाज हरदम वक़्त की इस पर गिरी है
हाथ वो जिसने घड़ा था ताज देखो
दस्तकारी की सजा़ उसको मिली है
जिन के चूल्हे जल न पाए ज़िंदगी भर
आग सीने में सदा उनके जली है
रोज़ सूरज उग रहा सदियों से फिर भी
घर में अब भी मुफ़्लिसी की तीरगी है
देखिये साज़िश रची क़ुदरत ने कैसी
झोंपड़ी पर ही सदा बिजली गिरी है
दौर पतझड़ का नहीं गुज़रा अभी तक
शाख़ पत्तों के बिना सूनी पड़ी है
जम्अपूंजी नेकनामी की मिली जो
काम मेरे आज तक वो आ रही है
कह रहा ‘अज्ञात' सब से मुस्करा कर
ज़िंदगी की राह तो काँटों भरी है
बह्र रमल मुस-स सालिम
अर्क़ान फ़ायलातुन फ़ायलातुन फ़ायलातुन
वज़्न 2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2 2
छन्द राधावत्
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ख़ाली कभी‚ भरा हुआ आधा दिखाई दे
चाहे जो जैसा देखना वैसा दिखाई दे
मुठ्ठी में सब समेटने की आरजू लिए
पैसे के पीछे दौड़ती दुन्या दिखाई दे
औलाद चाहे जैसी हो माँ बाप को मगर
अच्छा सभी से अपना ही बच्चा दिखाई दे
देखूं मैं जब भी दूधिया से चाँद में मुझे
इक सूत कातती हुई बुढ़िया दिखाई दे
बाज़ार‚ पूंजीवाद के युग में जहाँ तहाँ
सौदा वफ़ा‚ यक़ीन का होता दिखाई दे
होने लगी अजीबसी हलचल दिमाग में
कोई नया ख़याल सा आता दिखाई दे
हमदर्द बन के कोई मिरा पूछे हालेदिल
कोई तो मुझ को भीड़ में अपना दिखाई दे
‘अज्ञात' से न पूछिये गुजरी है उस पे क्या
गर्दिश में आज ज़िंदगी तन्हा दिखाई दे
बह्र मुज़ारअ़ मुसम्मन अकरब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़
अर्क़ान मफ़ऊल फ़ाइलात मफ़ाईल फ़ायलुन
वज़्न 2 2 1 2 1 2 1 1 2 2 1 2 1 2
छन्द मात्रिक
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कोसों पैदलपैदल चल कर दफ्तर जाते बाबू जी
सांझ ढले थकहार नगर से वापिस आते बाबू जी
शायद उन की ये आदत भी शामिल है दिनचर्या में
घर में घुसते ही बच्चों को डाँट पिलाते बाबू जी
पंचायत के मुखिया की भी जिम्मेदारी है उन पर
सिर पर पगड़ी बांधे सब पर रौब जमाते बाबू जी
भोजनपानी‚ कपड़ेलत्ते या फिर चश्मे की खातिर
जबतब देखो अम्मा को आवाज़ लगाते बाबू जी
हर मुश्किल से टकराने की हिम्मत अब भी है बाक़ी
हँसतेहँसते सारे घर का बोझ उठाते बाबू जी
रोज़ सवेरे श्रद्धा से नित तुलसी की पूजा कर के
अब्बू अम्मा के फोटो पर फूल चढ़ाते बाबू जी
उगते सूरज को जल देते चिड़ियों को देते दाना
गैया औ कुत्ते को रोटी रोज़ खिलाते बाबू जी
बह्र
अर्क़ान फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन ख़ेलन ख़ेलुन ख़ेलुन ख़ा
वज़्न 2 2 2 2 2 2 2 2 22 22 22 2
छन्द
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सब ही से दिल की बात का इज़हार मत करो
इज़हारे-इश्क तुम सरे-बाज़ार मत करो
झूठी वफाएं‚ झूठे हैं वादों के ये महल
इन पर यकीन दोस्तो इक बार मत करो
माँ-बाप की दिखाई हुई राह पर चलो
उन से किसी भी बात में तकरार मत करो
नफ़रत को मुहब्बत से मिटाने का रखो दम
नफ़रत पे नफ़रतों से कभी वार मत करो
अपने तो फिर भी अपने हैं ग़ैरों से भी कभी
‘अज्ञात' भूल कर बुरा व्यवहार मत करो
बह्र मुज़ारअ़ मुसम्मन अकरब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़
अर्क़ान मफ़ऊल फ़ाइलात मफ़ाईल फ़ायलुन
वज़्न 2 2 1 2 1 2 1 1 2 2 1 2 1 2
छन्द मात्रिक
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तीर या तलवार आख़िर किस लिए
आपसी तकरार आख़िर किस लिए
दरमियां दीवार आख़िर किस लिए
टूटते घरबार आख़िर किस लिए
था जो मेरे दिल का चारागर वही
हो गया बीमार आख़िर किस लिए
दो क़दम ही चल के मेरी ज़िंदगी
हो गई बेज़ार आख़िर किस लिए
सब दुकानों पर मुखौटों का लगा
बोलिये अंबार आख़िर किस लिए
पूछते हैं तितलियों से सब भ्रमर
फूल के संग ख़ार आख़िर किस लिए
कोख़ ही में बालिका के भ्रूण का
कर रहे संहार आख़िर किस लिए
तलखियों के घूंट पी कर बह रही
आंसुओं की धार आख़िर किस लिए
बढ़ रहे हैं दुश्मनों के हौसले
मौन है सरकार आख़िर किस लिए
रात का विस्तार होता जा रहा
भोर है लाचार आख़िर किस लिए
दे रहे ‘अज्ञात' को माँगे बिना
मश्विरे बेकार आख़िर किस लिए
बह्र रमल मुसम्मन महज़़ूफ़़
अर्क़ान फ़ायलातुन फ़ायलातुन फ़ायलुन
वज़्न 2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2
छन्द पीयूषवर्षवत्
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बेशुमार व्यर्थ की ख्व़ाहिशों को कम करें
ज़िंदगी की राह को आइए सुग़म करें
हँसते-खेलते हुए ज़िंदगी गुजार दें
हों किसी भी हाल में हम न ग़म अलम करें
सूझता नहीं है कुछ हाक़िमों को किस तरह
आस्मां को चूमती कीमतों को कम करें
छल रहे हों मोअतबर ही हमें तो फिर भला
ऐतबार किस तरह अज़नबी का हम करें
चाहा जिस की किस्मतें आप ने संवार दी
इल्तिज़ा है आप से मुझ पे भी करम करें
हौसला रखें सदा जिंदगी की जंग में
जीतने की कोशिशें आप दम-ब-दम करें
हाथ में है आप के ज़िंदगी का फैसला
चाहे हम को बख्श दें चाहे सर क़लम करें
बह्र
अर्क़ान
वज़्न 2 1 2 1 2 1 2 2 1 2 1 2 1 2
छन्द
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ज़िंदगी का हर लम्हा खुशगवार कर लिया
भेदभाव छोड़ कर सब से प्यार कर लिया
रब के हाथ सौंप कर ज़िंदगी की डोर को
मैंने आँख मूंद कर ऐतबार कर लिया
दाम माँगने लगे ज़िंदगी के जब नफ़स
कुछ नक़द चुका दिया कुछ उधार कर लिया
ज़िंदगी की होड़ में आज नौजवान ने
रास्ता ये कौन-सा इख्तियार कर लिया
मज़हबों की धार के साथ बह सके न हम
हम ने अपने आप को दर किनार कर लिया
थक गए हकीकतों का करते-करते सामना
ख़्वाब बेचने का अब रोज़गार कर लिया
मेरे ग़म को बाँटने आ भी जा तू ऐ खुशी
देर तक बहुत तेरा इंतिजार कर लिया
बह्र
अर्क़ान
वज़्न 2 1 2 1 2 1 2 2 1 2 1 2 1 2
छन्द
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नहीं खुश देख पाती है किसी को भी कभी यारो
ये दुनिया हो गई देखो बहुत ही मतलबी यारो
कहीं पर भूख लाचारी कहीं पर जुल्म का परचम
जहाँ देखो वहीं दिखती है केवल बेबसी यारो
मिटा दुर्भावना दिल से सभी से दोस्ती कर लो
मदद मजलूम की करना है सच्ची बंदगी यारो
जरूरी है मुहब्बत से रहें मिल कर सभी इंसां
जला कर दीप उल्फ़त के मिटा दें तीरगी यारो
किसी मज़हब का हो चाहे किसी भी जाति का कोई
सभी को हक है जीने का सुकूं से ज़िंदगी यारो
बह्र हज़ज मुसम्म्नन सालिम
अर्क़ान मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन
वज़्न 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2 2 2
छन्द विधातावत्
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हर किसी की आँख का सपना है घर
हर किसी को कब मगर मिलता है घर
काट देते ज़िंदगी फ़ुटपाथ पर
बेघरों के ख़्वाब में पलता है घर
प्यार बिन बुनियाद कच्ची रह गई
नफ़रतों की आग में जलता है घर
हो दुआएं जब बड़ों की साथ में
फूलताफलता सदा रहता है घर
आपसी विश्वास जब से हट गया
क्या बताएं दोस्तो कैसा है घर
बह्र रमल मुस-स महज़़ूफ़़
अर्क़ान फ़ायलातुन फ़ायलातुन फ़ायलुन
वज़्न 2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2
छन्द पीयूषवर्षवत्
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देखते ही आप को कुछ हो गया
एक पल में अपनी सुध-बुध खो गया
दूर जब तहजीब से मैं हो गया
जो भी मेरे पास था सब खो गया
ज़िंदगी जीता रहा टुकड़ों में मैं
मौत का अच्छा तजुर्बा हो गया
कोसते हो क्यों भला तक़दीर को
जो भी होना था अजी वो हो गया
कुछ कदम चलता रहा उंगली पकड़
फिर कहीं बचपन अचानक खो गया
उम्रभर आँखों से रूठी नींद थी
अब हमेशा के लिए वो सो गया
काम पर जाना नहीं क्या आप को
उठ भी जाओ अब सवेरा हो गया
कोई रहबर है न मेरा हमसफर
कारवां भी छोड़ कर मुझ को गया
बह्र रमल मुस-स महज़़ूफ़़
अर्क़ान फ़ायलातुन फ़ायलातुन फ़ायलुन
वज़्न 2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2
छन्द पीयूषवर्षवत्
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दिखने की चीज़ है न दिखाने की चीज़ है
उल्फ़त तो यार दिल से निभाने की चीज़ है
बेशक है धन ज़रूरी गुजारे के वास्ते
इज्ज़त भी यार जग में कमाने की चीज़ है
यारो भलाई कर के जताते हो किस लिए
नेकी तो रोज़ कर के भुलाने की चीज़ है
रहने दो राज़ कुछ तो कलेजे में दफ़्न तुम
हर बात कब किसी को बताने की चीज़ है
‘अज्ञात' मत नुमाया इबादत को तुम करो
नामे-ख़ुदा तो दिल में बसाने की चीज़ है
बह्र मुज़ारअ़ मुसम्मन अकरब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़
अर्क़ान मफ़ऊल फ़ाइलात मफ़ाईल फ़ायलुन
वज़्न 2 2 1 2 1 2 1 1 2 2 1 2 1 2
छन्द मात्रिक
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जो बीत गया उस पर रोने से क्या होगा
कांधों पर मुर्दों को ढोने से क्या होगा
छूटेंगे नहीं जब तक ये दाग तेरे दिल से
दामन के दाग भला धोने से क्या होगा
उठ जाग जतन कर ले आलस को दूर भगा
दिन-रात नशा कर के सोने से क्या होगा
विपदा की घड़ियों में सीखो संयम रखना
अपना-आपा यूं ही खोने से क्या होगा
‘अज्ञात' तजुर्बा भी जीवन में जरूरी है
बेमौसम बीजों को बोने से क्या होगा
बह्र
अर्क़ान फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन ख़ेलन ख़ेलुन
वज़्न 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2
छन्द
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सद्मात हिज्रे यार के जब जब मचल गए
आँखों से अपने आप ही आँसू निकल गए
मुम्किन नहीं था वक़्त की जुल्फें संवारना
तक़्दीर की बिसात के पासे बदल गए
क्या ख़ैरख़्वाह आप से बेहतर भी है कोई
सब हादसात आप की ठोकर से टल गए
चूमा जो हाथ आप ने शफ़कत से एक दिन
हम भी किसी फकीर की सूरत बहल गए
पहुँचे नहीं कदम कभी अपने मकाम पर
मंज़िल बदल गई कभी रस्ते बदल गए
शक ओ शुबा के नाम पे कैदी हैं बेगुनाह
जितने भी गुनहगार थे बच कर निकल गए
ख़ुद को तपा के इल्म की भट्टी में कर खरा
बाज़ार में तो कांसे के सिक्के भी चल गए
बह्र मुज़ारअ़ मुसम्मन अकरब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़
अर्क़ान मफ़ऊल फ़ाइलात मफ़ाईल फ़ायलुन
वज़्न 2 2 1 2 1 2 1 1 2 2 1 2 1 2
छन्द मात्रिक
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ज़िंदगी जीने का तब तक क़ायदा आया न था
खाइयों को दिल की जब तक पाटना आया न था
दूसरे के ऐब हम को तब तलक दिखते रहे
सामने जब तक हमारे आइना आया न था
कुर्बतों की अहमियत को हम नहीं पाए समझ
दरमियां जब तक हमारे फासला आया न था
जिस दिये की लौ बचाई हाथ उस से जल गया
ठीक से हम ही को शायद ढांपना आया न था
देर तक ‘अज्ञात' ख़ुशियों से रहे महरूम हम
ज़िंदगी में ठीक से ग़म पालना आया न था
बह्र रमल मुसम्मन महज़़ूफ़़
अर्क़ान फ़ायलातुन फ़ायलातुन फ़ायलातुन फ़ायलुन
वज़्न 2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 22 2 1 2
छन्द गीतिकावत्(सीतावत्)
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हम बेखुदी में जाने किस ओर जा रहे हैं
पत्थर को पूजते हैं माँ को भुला रहे हैं
दानिश्व्रों की बातों पे गौर कीजियेगा
किस्से नहीं ये अपने अनुभव सुना रहे हैं
छाये हुए हैं हर सू अफ्सुर्दगी के बादल
जुल्मत के क्रूर पंजे ख़ुशियों को खा रहे हैं
चलता न ज़ोर जिन का पक्की इमारतों पर
तूफां वो झोपड़ी पर अब जुल्म ढा रहे हैं
कैसे बुझेगी तृष्णा ‘अज्ञात' प्यासे मन की
बेज़ा जरूरतें हम ख़ुद ही बढा रहे हैं
बह्र
अर्क़ान
वज़्न 2 2 1 2 1 2 2 2 2 1 2 122
छन्द
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घर-घर चूल्हाचौका करती ‚ करती सूट सिलाई माँ
बच्चों खातिर जोड़़ रही है देखो पाईपाई माँ
बाबू जी की आमद भी कम ऊपर से ये महँगाई
टूटे चश्मे से बामुश्किल करती है तुरपाई माँ
टीका‚कुंडल‚हसली‚ कंगन तगड़ी‚नथ‚बिछुए‚चुटकी
बेटी की शादी की खातिर सब गिरवी रख आई माँ
सहतेसहते सारे घर की बढ़ती जिम्मेवारी को
घटतेघटते आज बची है केवल एक तिहाई माँ
सारे रिश्ते झूठे निकले मतलब के थे यार सभी
केवल तूने ही आजीवन निश्छल प्रीत निभाई माँ
पिज्जा‚ बर्गर कब होते थे‚ होते थे पूड़े मीठे
देती थी रोटी पर रख कर शक्कर और मलाई माँ
दर्जन भर लोगों का कुनबा फिर भी था सांझा चूल्हा
मिलजुल कर रहती थीं घर में दादी‚ चाची‚ ताई माँ
घेरा जबजब अवसादों ने अंधियारों में जीवन को
उम्मीदों के दीप जला कर भोर सुहानी लाई माँ
नाम सभी हैं गुड़ से मीठे चाहे मैं जो भी बोलूं
बी जी‚ जननी‚माता‚मम्मी मैया‚अम्मा‚माई‚ माँ
बच्चा ही मकसद होता है माँ के जीवन का ‘अज्ञात'
हिम्मत दे उस के ख्व़ाबों को देती है ऊंचाई माँ
बह्र
अर्क़ान फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन ख़ेलन ख़ेलुन ख़ेलुन ख़ा
वज़्न 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2
छन्द
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दिल लगाने के नतीजे सब मुझे मालूम हैं
खूबसूरत बेवफाओं के पते मालूम हैं
आदतों से आप की वाकिफ हूँ मैं अच्छी तरह
मुझ को सारे कारनामे आप के मालूम हैं
बस ज़रा सी कोशिशों ही की ज़रूरत है फकत
कामयाबी के मुझे सब रास्ते मालूम हैं
हँसते-हँसते ग़म उठाता हूँ गिला करता नहीं
ज़िंदगी जीने के मुझ को कायदे मालूम हैं
और कुछ मालूम चाहे हो न हो ‘अज्ञात' को
ज़िंदगानी की ग़ज़ल के काफिये मालूम हैं
बह्र रमल मुसम्मन महज़़ूफ़़
अर्क़ान फ़ायलातुन फ़ायलातुन फ़ायलातुन फ़ायलुन
वज़्न 2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 22 212
छन्द गीतिकावत्(सीतावत्)
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शायद दोनों में है अनबन
तन से आगे भाग रहा मन
जीवन की आपाधापी में
पीछे छूटे बचपन‚ यौवन
उकता जाता है जब मनवा
हर रिश्ता लगता है बंधन
ग़म सहने की आदत डालो
भर जाएगा सुख से दामन
अच्छी सेहत की ख़ातिर तुम
रोज़ाना करिये योगासन
सादा जीवन जीना सीखो
सुलझा लो जीवन की उलझन
बह्र
अर्क़ान फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन
वज़्न 2 2 2 2 2 2 2 2
छन्द
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मुझ को सफेद तो कभी काला बना दिया
तक़दीर ने बिसात का प्यादा बना दिया
गूंगा बना दिया कभी बहरा बना दिया
हालात ने हनीफ को क्या-क्या बना दिया
करते नहीं ज़रा भी क्यों इस की कदर कभी
तुम ने तो ज़िंदगी को तमाशा बना दिया
हर आइने ने मुझ को दिखाई बुराइयां
नज़रों ने आप की मुझे अच्छा बना दिया
मानी न हार हौसलों ने मुश्किलों में भी
पर्वत को काट कर नया रस्ता बना दिया
तुतला के बोलते हैं बजाते हैं झुनझुना
बच्चे ने वालदैन को बच्चा बना दिया
थे आदमी तो हम भी बड़े काम के मगर
ऐशो तरब ने हम को निकम्मा बना दिया
अफसोस की है बात कि फ़ित्नागरों को ही
अहले वतन ने देश का राजा बना दिया
‘अज्ञात' ने लकीर दूजी खींच कर नई
पहली खिंची लकीर को छोटा बना दिया
बह्र मुज़ारअ़ मुसम्मन अकरब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़
अर्क़ान मफ़ऊल फ़ाइलात मफ़ाईल फ़ायलुन
वज़्न 2 2 1 2 1 2 1 1 2 2 1 2 1 2
छन्द मात्रिक
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कल्पना ज़रूरी है ‚ भावना ज़रूरी है
शायरी में शायर की आत्मा ज़रूरी है
मुश्किलें तो आएंगी इम्तिहान लेने को
वास्ते सफलता के हौसला ज़रूरी है
हो अटल इरादा तो कुछ नहीं है नामुम्किन
सत्य पर अडिग रहना आपका ज़रूरी है
चाहते हो सीखना गर जीने का सलीका तुम
पास में बुजुर्गों के बैठना ज़रूरी है
कौम से ज़हालत की तीरगी मिटाने को
इल्म का रहे रौशन इक दिया ज़रूरी है
छोड़ दो झगडना तुम बेफिजूल बातों पर
वक़्त का तकाज़ा है एकता ज़रूरी है
ज़िंदगी में मिलता है एक बार ही मौका
वक़्त पर सही लेना फैसला ज़रूरी है
नूर से जो बख्शा है मुस्तफ़ा ने ग़ज़लों को
फ़ैज़ का अदा करना शुक्रिया ज़रूरी है
बह्र
अर्कान फ़ाइलात फ़ाईलुन फ़ाइलात फ़ाईलुन
वज़्न 2 1 2 1 2 2 2 2 1 2 1 2 2 2
छन्द
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इच्छा क्या अभिलाषा क्या है
आशा और निराशा क्या है
कोई तो बतलाए मुझ को
जीवन की परिभाषा क्या है
सागर पूछ रहा मरुथल से
तृष्णा और पिपासा क्या है
चीन की चीनी‚ रूस की रूसी
हिंदोस्ताँ की भाषा क्या है
सोने का व्यापारी जाने
रत्ती क्या है माशा क्या है
बह्र
अर्क़ान फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन
वज़्न 2 2 2 2 2 2 2 2
छन्द
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उठ रही फिर भावना की इक लहर है
फिर क़लम तय कर रही अदबी सफर है
सामने आ बैठे जब से आप मेरे
रंग ख़ुशियों का मेरे कैन्वास पर है
बेसहारा छोड़ कर माँ-बाप को क्यों
बस गया परदेस में लख्ते जिगर है
दूर जिससे एक पल रहना था दूभर
एक अर्से से नहीं उसकी खबर है
इस से बढ़ कर और क्या सम्मान होगा
तालियों की गूंज मेरा ऑस्कर है
चढ़ गया ‘अज्ञात' चश्मा फिर भी मेरी
आज के हालात पर पैनी नज़र है
बह्र
अर्क़ान फ़ायलातुन फ़ायलातुन फ़ायलातुन फ़ायलातुन
वज़्न 2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2 2
छन्द
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बात सच्ची थी भले कड़वी लगी
साफगोई आप की अच्छी लगी
जानने को हूँ बहुत आतुर कहो
आप को मेरी ग़ज़ल कैसी लगी
उर्वशी थी या कि कोई मेनका
हू ब हू वह आप के जैसी लगी
रिश्ते में लगती हो तुम माँ की बहिन
इसलिए तुम मेरी भी मौसी लगी
देख कर मेरी तरक्की बोलिये
आपको है किस लिये मिर्ची लगी
बह्र रमल मुसम्मन महज़़ूफ़़
अर्क़ान फ़ायलातुन फ़ायलातुन फ़ायलुन
वज़्न 2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2
छन्द पीयूषवर्षवत
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्
अशआर
1 हर किसी से है नहीं रिश्ता मिरा
पर सभी से राब्ता है कुछ न कुछ
2 क़़ाफिया पेमाई करने से ग़ज़ल बनती नहीं
लाज़मी है पेश करना एक अच्छा शे'र भी
3 रुत घटाओं का भले तकदीर में तेरी न हो
पर पसीने से ‘अजय' क़िस्मत के गुल खिल जाएंगे
4 मौत की आँधी से रोके कब रुका
दोस्तो ये ज़िंदगी का कारवाँ
5 सब से ऊँचा ओह्दा है माँ बाप का
इन के पाएनाज़ पर सज़दा करो
6 ठेस लगने पाए न दिल को ज़रा
आबगीनों की तरह नाजुक है ये
7 झाँक कर देखो तो आँखो में ज़रां
तैरते हैं ख़्वाब कितने अश्क में
8 मुट्टियों में कैद कर तूफां को हम ने
ज़िंदगी की लौ कभी बुझने नहीं दी
9 जिस तरफ देखो यहाँ इंसानियत
बिक रही है औने-पौने भाव में
10 हमसफर अपने ग़मों को मैं बना
ढूंढने निकला हूँ छोटी-सी खुशी
11 जब आमद होती है नेक खयालों की
कुछ ही पल में बन जाती है एक ग़ज़ल
12 अब किताबे ज़िंदगी का दोस्तो
पढ़ रहा हूं आखिरी अध्याय मैं
13 फितरतों में प्यार को शामिल करो
इस जहां को रहने के काबिल करो
रात दिन रह कर ग़मों के बीच में
मुस्कुराने का हुनर हासिल करो
14 रफ़्तारफ़्ता आ ही जाएगा मुझे भी कुछ हुनर
रहबरी में आप की ग़ज़लें अगर कहता रहा
15 वो था मुहीत मेरे खयालों पे इस कदर
तुझ को तमाम रात ही मैं सोचता रहा
16 खाकसारी से मिले जो मुस्कुरा कर राह में
रफ़्तारफ़्ता वो ही मेरे दिल के महमां हो गए
17 आप को देखा है जब से इक नज़र ऐ हमनशीं
नूर से मामूर है उस दिन से दिल का ये चमन
18 दुआएं नेक देता है सभी के वास्ते दिल से
नहीं है आम इंसां वो जमीं पर इक फरिश्ता है
19 देख कर उसको मुझे ऐसा लगा
ज्यों जमीं पर इक फरिश्ता आ गया
20 अजब कुछ बात है तुझ में हम ने आजमाई है
तसव्वुर करते ही तेरा ग़ज़ल हो जाती है पूरी
21 दो फूल हैं इक डाल के लेकिन मुकद्दर देखिये
इक फूल है पैरों तले इक गेसु ए लैला में है
22 सत्य कहने से भला कब चूकता है आइना
झूठ के मुँह पर हमेशा थूकता है आइना
23 मौत से कह दो कि हम मसरूफ हैं
आज मरने की नहीं फुरसत हमें
24 नुक्ताचीनी करते रहते दोस्त सब
शे'र मेरे गुनगुनाते हैं अब
25शाइरी है शौक मेरा दोस्तो
रास आती हैं मुझें तन्हाईयाँ
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कल्पना ज़रूरी है ‚ भावना ज़रूरी है
शायरी में शायर की आत्मा ज़रूरी है
मुश्किलें तो आएंगी इम्तिहान लेने को
वास्ते सफलता के हौसला ज़रूरी है
चाहते हो सीखना गर जीने का सलीका तुम
पास में बुजुर्गों के बैठना ज़रूरी है
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दिखने की चीज़ है न दिखाने की चीज़ है
उल्फ़त तो यार दिल से निभाने की चीज़ है
बेशक है धन ज़रूरी गुजारे के वास्ते
इज्ज़त भी यार जग में कमाने की चीज़ है
यारो भलाई कर के जताते हो किस लिए
नेकी तो रोज़ कर के भुलाने की चीज़ है
रहने दो राज़ कुछ तो कलेजे में दफ़्न तुम
हर बात कब किसी को बताने की चीज़ है
‘अज्ञात' मत नुमाया इबादत को तुम करो
नामे-ख़ुदा तो दिल में बसाने की चीज़ है
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ख़ाली कभी‚ भरा हुआ आधा दिखाई दे
चाहे जो जैसा देखना वैसा दिखाई दे
मुठ्ठी में सब समेटने की आरजू लिए
पैसे के पीछे दौड़ती दुन्या दिखाई दे
औलाद चाहे जैसी हो माँ बाप को मगर
अच्छा सभी से अपना ही बच्चा दिखाई दे
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कहाँ कोई हिंदू मुसलमां बुरा है
जो नफ़रत सिखाए वो इंसां बुरा है
सियासत में हरगिज़ न इन को घसीटो
न गीता बुरी है न कुर्आं बुरा है
लहू जो बहाता है निर्दोष जन का
यकीनन अधर्मी वो शैतां बुरा है
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हों ऋचायें वेद की या आयतें कुर्आन की
राह दोनों ही दिखाती हैं हमें ईमान की
बाइबल औ ग्रंथ साहिब का भी ये पैग़ाम है
हो सभी के वास्ते सद्भावना इंसान की
मत *तअस्सुब पालिये अपने दिलों में दोस्तो
प्यार से मिल कर रहो है माँग हिंदुस्तान की
आपसी विश्वास हर संबंध की बुनियाद है
चाह है ‘अज्ञात' सब को आप सी सम्मान की
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अधरों की मुस्कान है बेटी
घरआंगन की शान है बेटी
जाती है ससुराल सँवर कर
अपने घर मह्मान है बेटी
करती निश्छल प्रेम सभी से
हर रिश्ते की जान है बेटी
मूरत है ममता‚ करुणा की
क़ुदरत का वरदान है बेटी
चूल्हा-चौका खूब संभाले
रखती सबका ध्यान है बेटी
कहता है ‘अज्ञात' सभी से
सर्वोत्तम संतान है बेटी
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ज़़रासी बात पे गुस्सा नहीं किया करते
ग़मेहयात का शिकवा नहीं किया करते
किसी भी हाल में ऐसा नहीं किया करते
नदी के पानी को मैला नहीं किया करते
तुम्हीं बताओ उन्हें जीत कैसे हासिल हो
जो जीतने का इरादा नहीं किया करते
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पीछे मुड़मुड़ कर नहीं देखा कभी
खौफ़ का मंज़र नहीं देखा कभी
बस निशाने पर रही मेरी नज़र
लक्ष्य से हट कर नहीं देखा कभी
जंग के मैदान में लड़ता हुआ
मोम का लश्कर नहीं देखा कभी
ख़्वाब आँखों में सजाता रह गया
ख़्वाब को जी कर नहीं देखा कभी
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दर्द से उपजा हुआ इक गीत लिख
हर्फ़ेनफ़रत को मिटा कर प्रीत लिख
ज़िंदगी की राह पर चलते हुए
है सुलभता से मिली कब जीत लिख
प्रेरणा से पूर्ण हो तेरा सृजन
प्राण जो चेतन करे वो गीत लिख
पैरवी कर लेखनी से सत्य की
झूठ से हो कर नहीं भयभीत लिख
आज़माना चाहता है गर हुनर
आज के परिवेश के विपरीत लिख
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करता हूँ पेश आप को नज़राना-ए-ग़ज़ल
नायाब मुश्कबार ये गुलदस्ता-ए-ग़ज़ल
तल्खाबे-ग़म न पीजिये हो तश्नगी अगर
भर-भर के जाम पीजिये पैमाना-ए-ग़ज़ल
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न पूछो ये मुझ से कि क्या कर रहा हूँ
ग़ज़ल में तजुर्बा नया कर रहा हूँ
भले इन की फ़ित्रत में है बेवफाई
हसीनों से फिर भी वफा कर रहा हूँ
कि रुख्सार पर तेरे होठों को रख कर
नमाज़े-मुहब्बत अदा कर रहा हूँ
बनाते हो मुँह क्यों सिकोडी हैं भौंहें
कहो क्या मैं कोई खता कर रहा हूँ
सदा बद दुआएं मिली मुझ को जिन से
मैं हक में उन्हीं के दुआ कर रहा हूँ
चला जा रहा हूँ मैं खुद उल्टे रस्ते
मगर दूसरों को मना कर रहा हूँ
बुजुर्गों के कदमों में सर को झुका कर
दुआओं की दौलत जमा कर रहा हूँ
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जब से ग़जल को माँ का सा दर्ज़ा दिया मुझे
जग ने खिताब दे दिया शहज़ादा-ए-ग़जल
मतले से ले के मक्ते तलक डूब कर कहा
कहते हैं लोग मुझ को तो दीवाना-ए-ग़ज़ल
मुश्किल था काम फिर भी फकत एक शेर में
‘अज्ञात' ने सुना दिया अफसाना-ए-ग़ज़ल
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क़़ाफिया पेमाई करने से ग़ज़ल बनती नहीं
लाज़मी है पेश करना एक अच्छा शे'र भी
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सब से ऊँचा ओह्दा है माँ बाप का
इन के पाएनाज़ पर सज़दा करो
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अभी उम्मीद है ज़िन्दा अभी इम्कान बाक़ी है
बुलंदी पर पहुँचने का अभी अरमान बाक़ी है
हुआ है दूर कोसों आदमी संवेदनाओं से
बदलते दौर में बस नाम का इंसान बाक़ी है
सजा लो जितना जी चाहे रंगीले ख़्वाब आँखों में
दुकानों पर सजावट का बहुत सामान बाक़ी है
कहाँ ले चल दिए हो तुम उठा कर चार कांधों पर
अभी तो दिल धड़कता है अभी कुछ जान बाक़ी है
सुनाता हूँ ज़रा ठहरो हकीकत ज़िंदगानी की
कहानी तो मुकम्मल है मगर उन्वान बाक़ी है
अभी कुछ लोग हैं ऐसे उसूलों पर जो चलते हैं
अभी कुछ लोग हैं सच्चे अभी ईमान बाक़ी है
हुए ‘अज्ञात' से वाकिफ हजारों लोग दुनिया में
मगर ख़ुद ही से ख़ुद उस की अभी पहचान बाक़ी है
ठेस लगने पाए न दिल को ज़रा
आबगीनों की तरह नाजुक है ये
दो फूल हैं इक डाल के लेकिन मुकद्दर देखिये
इक फूल है पैरों तले इक गेसु ए लैला में है
मौत से कह दो कि हम मसरूफ हैं
आज मरने की नहीं फुरसत हमें
नुक्ताचीनी करते रहते दोस्त सब
शे'र मेरे गुनगुनाते हैं अब
सत्य कहने से भला कब चूकता है आइना
झूठ के मुँह पर हमेशा थूकता है आइना
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