त्रिकोणीय न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी बचपन में एक गाना सुनते थे, ‘मधुवन में राधिका नाची रे।' कितनी भली थी तब राधिका जो बिना किसी ...
त्रिकोणीय
न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी
बचपन में एक गाना सुनते थे, ‘मधुवन में राधिका नाची रे।' कितनी भली थी तब राधिका जो बिना किसी हील ओ, हुज्जत के नाच लेती थी। वह मधुवन ‘मधु' नामक राक्षस के नाम से था जो कालान्तर में ‘वृन्दावन' कहलाने लगा था। कहते हैं मधु के नाम से ही ‘मथुरा' नगरी थी जो ‘मथुरा' में बदल गई। ‘मधु' का वध किया श्रीकृष्ण ने। श्रीकृष्ण की ही प्रेयसी, प्रेरणा थी राधा जो खुद भी नाचती थी और श्रीकृष्ण को भी नचा लेती थी। जिसे ‘रास' का नाम दिया गया। लगभग साढ़े पांच हजार साल पहले द्वापर-युग की वह राधा एक शालीन राधा थी, तभी बिना किसी शर्त के कर्मरत रहती थी।
कलियुग की राधा नाचना जानती है, नाच सकती है लेकिन सशर्त नाचती है। किसी भी दफ्तर में चले जाइए, एक ‘फाइल' इस टेबल से उस टेबल तक बिना शर्त के जा नहीं सकती। राधा एक प्रतीक है। राधा एक संकेत है। राधा एक इरादा है। यह राधा-राधा ही क्यों? कुछ भी हो सकती है। राधा क्लर्क है, राधा अफसर है, राधा प्रशासक है, राधा छात्रा है, राधा अध्यापिका है, राधा इंजीनियर है, राधा डॉक्टर है। राधा लेखिका है. . .यानी राधा बहुत कुछ है. . . मिलिए पहले उस राधा से जिसे कहा गया कि भई, तुम्हें नाचना है, तुम्हारी नियुक्ति इसीलिए हुई है कि तुम नाचो।
वह तैयार है लेकिन उसकी एक शर्त है कि पहले नौ मन तेल लाओ फिर नाचूंगी। नाचने का तेल से क्या संबंध, यह शोध का विषय है। ब्यूटी पार्लर जाना होता, मसाज करानी होती तो भी बात थी, तब भी नौ मन तेल से पार्लर के लिए पांच साल तक का स्टाक हो जाता। घुंघरु मांगती तो वाजिब था। विशेष लहंगा, चूनरी, आभूषण चाहती तो बात थी लेकिन उसे तो चाहिए तेल वह भी नौ मन। जब यह कहावत बनी तब मीट्रिक प्रणाली का माप-तौल नहीं था, वह तो आया लगभग पैंतीस-चालीस साल पहले। यानि यह तेल वाली राधा की घटना कम से कम चालीस-पचास साल पहले की तो है ही। तेल उस समय एकत्रित किया गया होगा लेकिन तौल में नौ मन नहीं हुआ होगा, लिहाजा राधा नहीं नाची होगी।
अब राधा होती है कुछ ऐसी- राधा दफ्तर में काम करती है। साढ़े आठ बजे घर का काम निपटा बस में बैठ या खड़े होकर दफ्तर आती है, काम करती है, साढ़े पांच बजे की चार्टर्ड पकड़ कर लौटती है। घर जाते ही जुट जाती है, दस बज जाते हैं- सीरियल देखते-देखते सो जाती है। रोज सोचती है अमुक वस्तु लेनी थी, अमुक मुन्नू के लिए जरूरी है, शनिवार, रविवार कपड़े धोते-धोते, फर्श रगड़ते-रगड़ते बीत जाता है, जब समय मिलता है बजट बनाती है- पति भी कागज पेन लिए हिसाब करते हैं। दस जरूरी वस्तुओं में से आधी या पौनी ही ले सकते हैं, दोनों थक जाते हैं। न उतने पैसे होंगे न अमुक जरूरी वस्तुएं आएंगी। यदि बजट अनुकूल बन जाता तो संभव था खुशी के मारे राधा नाच उठती, झूम उठती, पर नहीं झूम सकी, नहीं नाच सकी. . .
राधा अफसर है। बी.ए. किया, एम.ए. किया, ‘टॉप' किया, प्रतियोगिता परीक्षा में बैठी- अफसर बनी। नेक इरादे हैं, बहुत कुछ कर गुजरने की तमन्ना है। राधा आफिस संभालती है। अरमान से काम में लगती है। सही वक्त सही निर्णय लेती है। निर्णयों को अमल में लाने के लिए कटिबद्ध है लेकिन शीघ्र ही कटि डोल जाती है, कटि लचक जाती है, कटि टूट जाती है। निर्णयों का स्वागत तो होता है। निर्णयों की अभ्यर्थना तो होती है। निर्णयों की फेहरिस्त मंजूर तो होती है, लेकिन अमल में लाने के लिए नहीं, अमल में लाने के लिए वक्त नहीं, रोक लग जाती है, टोक लग जाती है। कह दिया जाता है जब ये इतना हो जाएगा, या उतना हो जाएगा तब निर्णयों को अमल में लाया जाएगा।
लेकिन नौ मन तेल एकत्रित नहीं होता, और राधा नाच नहीं पाती।
राधा विद्यार्थी है। अच्छे कॉलेज में दाखिला मिला है। कोर्स भी अच्छा है। राधा टाइम टेबल के अनुसार कक्षाओं में जाती है- लेकिन कभी उसके अतिरिक्त कोई अन्य विद्यार्थी कक्षा में नहीं, कभी प्राध्यापक महीनों तक नदारद, कभी प्राध्यापक हाजिर तो छात्रा नेता हड़ताल पर, कभी सब मौजूद पर कर्मचारी असहयोग पर, वे कमरे का ताला नहीं खोलते। कक्षाएं लगती ही नहीं। कोर्स रह गया, परीक्षाएं टली नहीं, राधा की चली नहीं, जो कुछ अपने बल पर कर सकती थी किया लेकिन कहां माना जिया, उसका कौन-सा अरमान पूरा किया? नौ मन तेल के अभाव में राधा नहीं नाच पाई। थर्ड डिविजन ही आई।
राधा अध्यापिका है। शिक्षा के प्रति समर्पित है। बरसों से बरसों तक एक-सी चाल-ढाल, वही ढाक के तीन पात। वही पाठ्यक्रम, नीरस, उबाउ। वही परीक्षा पद्धति अवैज्ञानिक, असंतुलित। सुबह होती है शाम होती है टीचिंग यूं ही तमाम होती है। कैसे नाचे वह, कैसे खुशियां मनाए। वह भी उसी मशीन का एक घिसा हुआ पुर्जा हो जाती है। समर्पण-भाव मिलने वाले वेतनमान तक ही सीमित हो जाता है, नौ तो बहुत दूर, एक सेर तेल भी नहीं हो पाता। नाचना भूल जाती है।
राधा इंजीनियर है। नवनिर्माण के लिए उत्सुक है। उत्फुल्ल है। पुल बनाना है, भवन बनाना है। सड़कें बनानी हैं- ठोस, मजबूत, दीर्घ-जीवी। योजनाएं बनाती है। मंजूरी पाती है। ठेके के लिए निविदा निकलवाती है। स्टेटमेंट तैयार करती है। लेकिन नहीं जानती कैसे, किसको, क्यों ठेका मिलता है। पुल टूटता है, भवन गिरता है, सड़क पथरा जाती है. . .और पथरा जाती है राधा। गिर जाती है। राधा टूट जाती है। वह गवेषणा नहीं कर पाती है। कार्यपूर्ति सही न होने पर ईमानदारी की राह पर चलने के कारण वह ‘सस्पेंड' हो जाती है। पुनर्नियुक्ति के लिए दी गई शर्तें साढ़े पांच हजार साल वाली राधा के लिए नहीं हैं, नवीन राधा के लिए हैं, नौ मन तेल कहां है? राधा अपनी बनाई गई सड़क पर आ जाती है।
राधा डॉक्टर है। राधा पूरी फीस देकर रातों-रातों जागकर डॉक्टर बनी है। जनता अस्पताल में जनता सेवार्थ लगी है। सही जांच करती है। सही दवाएं लिखती है। परची बढ़ती है। दवाएं आती हैं। मरीज नियम से खाते हैं। राधा हैरान है। परेशान है। फर्क नहीं पड़ता। मरीज निरोग नहीं होता। राधा का मन जार-जार रोता। दवाएं बदलो खूब जांचो। विशेष पुस्तकें बांचो। नई परची। नई दवा। लेकिन सब हवा। दवाएं नकली हैं। दाम उनके पर असली हैं। सही बात। सही दवा। सही जांच-राधा के लिए नौ मन तेल है, नहीं आएगा। राधा नहीं नाचेगी। यूं ही आहिस्ता-आहिस्ता उम्र के पड़ाव पर पहुंच जाएगी। रिटायर हो जाएगी। . . .
राधा लेखिका है। सच्चा लिखेगी सच्चा बताएगी। नहीं जानती कि ऐसा कर गच्चा खाएगी। उसके साथ वही होता है जो क्लर्क राधा के साथ हुआ, जो अफसर राधा के साथ हुआ, जो विद्यार्थी राधा के साथ हुआ, जो अध्यापिका राधा के साथ हुआ। जो इंजीनियर राधा के साथ हुआ, जो डॉक्टर राधा के साथ हुआ। लिखते-लिखते कुछ सही न हुआ अलबत्ता उसकी अपनी लेखनी टूट गई। दूसरी दी गई लेखनी से लिखने लगी लेखिका राधा. . . . . .
और भी बहुत-सी राधाएं हैं। सब पर आती बाधाएं हैं। सब उदास सब निराश। नहीं नाचती सो नहीं नाचती। दरअसल यह राधा का सही रूप था जो विद्रूप है, वही आजकल मुखरित है, जो विसंगत है, उसी की संगत है। संवेदना की जगह विडम्बना है।
आज की रक्षक राधा भक्षक हो सकती है। जो दफ्तर में काम करने जाती है लेकिन करती नहीं। तभी करेगी, जब उसकी शर्तें मान ली जाएंगी यानी पदोन्नति बिना कुछ किए होती रहे। वेतनमान बढ़ते रहें। भत्ते पर भत्ते मिलते रहें। जितना मांगा उतना नहीं मिलता भत्ता। राधा काम को देती धता। नहीं नाचेगी जब तक नौ मन तेल न होगा। अफसर राधा अफसरी के नशे में है। वह केवल सुविधाएं गिनती है- काम करने के लिए उसके चंद आदेश हैं जो पल-पल बदलने वाले आवेश हैं। विद्यार्थी राधा अपने अधिकारों के प्रति जरूरत से ज्यादा सचेत है। पढ़ने के मामले में अचेत है। कर्तव्य किस चिड़िया का नाम है, नहीं जानती। वह छात्रा चेतना की समर्थक है। शिक्षक की क्लास उसके लिए बक-बक है।
अध्यापिका राधा जहां है बस वहीं है। उसे आगे नहीं बढ़ना। किताबें नहीं पढ़ना। वह परमानेंट है, उसे फिक्र नहीं कि रिजल्ट कितने परसेंट है। बिल्डिंग नई बनेगी- कोर्स पूरा करा देगी। नई बिल्डिंग बनती नहीं है, उसे पढ़ाना नहीं है। इंजीनियर राधा तभी साथ देगी नवनिर्माण में जब ठेकेदार लाभांश में उसका साथ देगा। देश, समाज, जन के लिए जरूर काम करेगी। जब उसकी तिजोरी भरे उसकी तिजोरी बेहद बड़ी है, तीस साल में भरेगी तब देश के लिए, समाज के लिए, जन के लिए जरूर नाचेगी। कुछ-कुछ ऐसा ही है डॉक्टर राधा के साथ, कुछ-कुछ ऐसा ही है लेखिका राधा के साथ. . .
और कुछ-कुछ ऐसा ही है बाकी सारी राधाओं के साथ. . . सब नाच सकती हैं पर सभी के अपने-अपने नौ मन तेल हैं। जिनके तेल का तौल पूरा हो जाता है वे नाच देती हैं और उनका तो भगवान ही मालिक है जो बिना तेल के भी नाचती फिरती हैं।
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तुसी कर दे की हो
मैं कॉलेज से छुट्टी लेकर अपनी पढ़ाई पूरी कर रहा था। उन्हीं दिनों तोषी मासी, वही मेरी पत्नी की मौसी संतोष पाल हमारे घर आईं। पहली बार आई थीं अतः पत्नी ने खातिरदारी में कसर न छोड़ी थी।
मौसी को पधारे चौथा दिन था, मैं अपने कमरे में पढ़ रहा था, मौसी मेरी पत्नी के साथ बगल वाले कमरे में बतिया रही थीं। अचानक मौसी का तेज स्वर बहुत मंद हो गया। मुझे शेयर बाजार की गिरावट लगी। मैं संभल गया और उनके मंद स्वर के सुनने की कोशिश करने लगा. . .मौसी की आवाज आई, ‘सुध तेरा खसम करदा की है?' मैंने किताब बंद कर दी और उसके बदले में अपने कान पूरे खोल लिए। सुध ने उत्तर दिया था, ‘क्यों मौसी, मैं समझी नहीं, क्यों पूछ रही हैं?' ‘बेटा' मौसी की आवाज आई थी, ‘मैं ओनूं काम ते जांदे वेख्या नईं। चार दिन ते हो गए पुत्तर ओ कित्ते तैयार होके गया ई नईं। ना तो बीमार लग रया है, ना ही थक्या होया। जो बच्चे काम कर दे नें, ओ काम ते जांदे जरूर ने, ओ की कर दा है?'
‘मौसी जी वो कॉलेज में पढ़ाते हैं, आपको पता नहीं था क्या?' तनिक खीझकर पत्नी ने कहा था। ‘पुत्तर, पर ओ तां चार दिनों ते कॉलेज गया ही नईं, ओत्थे हड़ताल है?' मौसी ने पूछा था। ‘नहीं, हड़ताल नहीं है। वो छुट्टी पर हैं।' पत्नी बोली। ‘छुट्टी ते है? हैं तो बिलकुल वैल, इल तां नईं हैं, फेर वी काम तां करे।' मौसी ने कहा। ‘मौसा जी, वो काम ही कर रहे हैं। पी-एच.डी. कर रहे हैं।' ‘पुत्तर ए की पी-एच.डी. दी बमारी लग गई है। छड परे, जवानी च नईं करेगा तो कद करेगा, काम करना चाईदा है।' मौसीजी' तुनकते हुए पत्नी की वाणी बिखरी, ‘मौसी वो बहुत काम करते हैं। पढ़ाने के अलावा कहानी लिखते हैं, कविता लिखते हैं।'
‘पुत्तर, ओ पढ़ाए, कुछ वी लिख्खे पर काम तां करे।' ‘मौसी वो रेडियो, टीवी, अखबार के लिए भी लिखते हैं।'
‘पुत्तर लिख्खे, मैं कद मनां कित्ता है, बट कुछ करया ते करे। चार दिन तों वेख रईं हें। अपने रूम तो बाहर आंदा है, फ्रिज खोलदा है, कुछ खांदा है, फेर चाय दा आर्डर देके अंदर चला जांदा है। ना कपड़े बदल दा है, न शेव करदा है। बिना काम कित्ते लाइफ चलेगी किदां, ओनूं कह कि काम वी करे।'
लगभग गुस्से से भरी पत्नी की आवाज आई थी, ‘मौसी जी, कितनी बार बताउं कि वो इतना. . .' बीच में ही मौसी का उंचा स्वर आ गया, ‘पुत्तर, मैं बेकूफ नई हैं। मैं जानदी हैं कि परोफेसर है, कॉलेज च पढ़ांदा है। ठीक है परोफेसरी करे पर कुज कम वी तां करे। मैं कई लेकचरारां परोफेसरां नूं जाण दी हैं, जो पढ़ांदे वी हैं पर काम वी कर दे नें। इक प्रोपरटी डीलर है- दो कारें नें ओदे पास, तेराहाले स्कूटर ते ही है। इक ने परचून दी दुकान खोली होई है, ओदी वी कोठी बन गई है- टाई सौ गज दी। ओ मलावी दा जवाई वी नवां नवां लेकचरार है, ओ वी लाटरी दा काम करदा है। सारे इंटैलिजेंट काम कर दे हैं, बस इक तेरा ही नईं कर दा, मैं तेरे पले दी कै रई हैं- कल नूं बच्चयां दी शादियां वी करनिया हैं- तू सोच सुधा, कुछ सोच. . .' . . .
सुध ने सोचा या नहीं पर मैंने काम के बारे में सोचते-सोचते कान बंद किए और किताब खोली, पर उसके हर पृष्ठ में यही प्रश्न लिखा पाया, ‘तुसी कर दे की हो? . . .तुसी करदे की हो. . .?'
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देखना और नहीं देखना
राजकीय कॉलेज के आगे लड़कों- लड़कियों की अटखेलियों की आवाजें गूंज रही थीं। हंसी, ठट्ठा, रेलमपेल के बीच रंजन वहीं खड़े एक खोमचे वाले के भठूरे छोले का स्वाद ले रहा था। मंद गति से आती हुई मोटरसाइकिलें और कारें अचानक कैसे तेज होती हैं और उन पर सवार अंधेड़ कैसे तूफान में तब्दील होते हैं, देख-देख रंजन मन ही मन मुस्करा भी रहा था। उसी सड़क पर एक नन्हा-सा पिल्ला दूसरी ओर पहुंच ही रहा था कि एक गतिवान कार के नीचे दब गया, कार क्षण भर को रुकी और फिर सरपट चल दी। रंजन का कौर हाथ में ही रह गया, उसने पाया पिल्ले की आंखें बंद थी और निश्चेष्ट सड़क से चिपका पड़ा था. . .
सड़क के किनारे खड़े विद्यार्थियों ने यह दृश्य देखा, कुछ युवतियों के मुख से निकले दुखवाचक शब्दों को सुन पलक मारते ही दो मोटरसाइकिलों पर सवार होकर चार युवक तेजी से पीछा करते हुए उस कार तक पहुंच गए, कार चालक को घेरकर नीचे निकाला और पीटते-घसीटते दुर्घटना-स्थल तक ले आए. . .
रंजन रेख रहा था कि सड़क के इस पार चालक पिट रहा था और सड़क पार वही पिल्ला लंगड़ी टांग उठाए मां का दूध पी रहा था, मां उसे प्यार से साथ-साथ चाट रही थी. . .
और जो रंजन नहीं देख पाया. . .कार चालक की मां अपने बेटे के लिए खून दे रही थी जो नौ घंटे से आई.सी. यू. में अचेत पड़ा जिंदगी और मौत के बीच जूझ रहा था।
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15 सी, हिंदू कॉलेज निवास दिल्ली-110007
(साभार - व्यंग्य यात्रा - जनवरी जून 2011)
हरीश नवल की सभी रचनाएँ एक से बढ़कर एक हैं ...लेकिन मुझे सबसे ज्यादा अच्छी लगी ...तुसी करदे की हो?
जवाब देंहटाएंवाह जी वाह ...रंग बन दिता तुसीं तां....पढ़ना- पढ़ाना भी कोई कमा-चों कम है भला ....मौसी की बात मानो .... ???
तभी तो इतना सब होते हुए भी हमारे यहाँ कुछ कमी सी लगती है ..लोग पढ़ाने को सिरिअसली लेते ही नहीं ..यह तो उनका साइड बिजनिस है ...असल दिमाग तो कहीं और ही लगा रहता है |
सचाई सामने लाने के लिए आभार !
हरदीप
हार्दिक आभार
हटाएंsudha naval ji ki rachna bhi post karae
जवाब देंहटाएंBhai Naval ji, tusi karde ki ho ---badhai.
जवाब देंहटाएंDr.Dinesh pathak shashi.Mathura.
kya kisi web page par harish ji ki pitta par likhi kavita mil sakti hai ya koi post kare please
जवाब देंहटाएंkya kahi se harish ji ki pitta par likhi kavita prapt ho sakti hai
जवाब देंहटाएंSundar
जवाब देंहटाएंबहुत खूब व्यंग्य 👌🙏💐😊✍️
जवाब देंहटाएंबहुत खूब व्यंग्य 👌🙏💐😊✍️
जवाब देंहटाएंबहुत खूब व्यंग्य 🙏💐😊
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