दिल ले दर्पण के अक्स बने "वक्त के मंज़र" ग़ज़ल-संग्रह: वक़्त के मंज़र लेखक: डा॰ ब्रहमजीत गौतम अपनी ग़ज़लों के लिए अपनी ज़ुबान...
दिल ले दर्पण के अक्स बने "वक्त के मंज़र"
ग़ज़ल-संग्रह: वक़्त के मंज़र
लेखक: डा॰ ब्रहमजीत गौतम
दिली मुबारकबाद एवं शुभकामनाओं सहित
प्रस्तुतकर्ता: देवी नागरानी
ग़ज़ल-संग्रह: वक़्त के मंज़र, लेखक: डा॰ ब्रहमजीत गौतम, पन्नेः ७२, मूल्य: रु.100. प्रकाशक: नमन प्रकाशन, नई दिल्ली.
ग़ज़ल-संग्रह: वक़्त के मंज़र
लेखक: डा॰ ब्रहमजीत गौतम
अपनी ग़ज़लों के लिए अपनी ज़ुबानी क्या कहूँडॉ. ब्रह्मजीत गौतम जी के ग़ज़ल संग्रह "वक्त के मंज़र" में जहाँ रचयिता की अनुभूतियां और उनकी खूबियाँ शब्दों से उकेरे हर बिम्ब में साफ़ साफ़ नज़र आईं हैं, साथ में सादगी से अनुभूतियों को अंतस में उतारने की कला का अद्भुत प्रयास पाया जाता है. किसी ने खूब कहा है 'कवि और शब्द का अटूट बंधन होता है, कवि के बिना शब्द तो हो सकते हैं, परंतु शब्द बिना कवि नहीं होता. एक हद तक यह सही है, पर दूसरी और कविता केवल शब्दों का समूह नहीं,. कविता शब्द के सहारे अपने भावों को भाषा में अभिव्यक्त करने की कला है. गौतम जी के अशयार इसी कला के हर गुण के ज़ामिन हैं. उनकी कलात्मक अनुभूतियाँ शब्द, शिल्प एवं व्याकरण से गुंथी हुई रचनाएं सुंदर शब्द-कौशल का एक नमूना है. एक हमारे सामने है......
कैक्टस हैं ये सभी या रात रानी क्या कहूँ?
कैक्टस हैं ये सभी या रात रानी क्या कहूं?गौतम जी की रचनाधर्मिता पग-पग ही मुखर दिखाई पड़ती है और यही उनकी शक्सियत को अनूठी बुलंदी पर पहुंचती है. अपने परिचय में एक कड़ी और जोड़ती इस कड़ी का शब्द-सौन्दर्य और शिल्प देखिये-
न गौतम न गाँधी हूँ, विनोबा भी नहीं हूँ मैंशाइरी केवल सोच कि उपज नहीं, वेदना कि गहन अनुभूति के क्षणों में जब रचनाकार शब्द शिल्पी बनकर सोच को एक आकार देकर तराशते हैं तब शायरी बनती है. और फिर रचनात्मक ऊर्जा की परिधि में जब संवेदना का संचार होता है, तब कहीं अपनी जाकर वह अपनी अंदर की दुनिया को बाहर से जोड़ता है. अपने चिंतन के माध्यम से कवि समाज और सामाजिक सरोकारों के विभिन्न आयाम उजगार करता है. इस संग्रह में कवि ने सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक विडम्बनाओं, विद्रुपताओं, मानवीय संवेदनाओं पर दो पंक्तियों में शब्दों की शिल्पाकृतियों के माध्यम से अपनी जद्दो-जहद को व्यक्त किया है. उनके मनोभावों को इन अद्भुत अश्यार में टटोलिये--
मगर महसूस करता हूँ कि कर दूं अब क्षमा उसको
काफ़िये का होश है न वज्न से है वास्ता
कह रहे हैं वो ग़ज़ल बेबहर मेरे देश में
हमने जिसको भी बनाया सारथी इस देश काबड़ी सादगी और सरलता से शब्द 'संवेदना-शून्य" का इस्तेमाल इस मिसरे में हुआ है, बिकुल सहज सहज, यह देखा और महसूस किया जा सकता है. श्री गौतम जी ने ज़िन्दगी के 'महाभारत' को लगातार जाना है, लड़ा है. नए विचारों को नए अंदाज़ में केवल दो पंक्तियों में बांधने का काम, दरिया को कूजे में समोहित करने जैसा दुष्कर प्रयास वे सुगमता से कर गए हैं. अपनी ग़ज़लों द्वारा वे देश, काल, परिस्थिति, टूटते रिश्तों और जीवन दर्शन को एक दिशा दे पाए हैं, जो मानसिक उद्वेलन के साथ वैचारिकता की पृष्टभूमि भी तैयार करते हैं. देखिये उनकी इस बानगी में...
है सदा ढाया उन्होंने कहर मेरे देश में
हो चुकी संवेदनाएं शून्य
लाश के ओढे कफ़न हैं हम
मर गया वो मुफ़लिसी में चित्रकार
चित्र जिसके स्वर्ण से मढ़ते रहे
वक़्त कि टेडी नज़र के सामनेकाव्य की सबसे छोटी कविता ग़ज़ल है, जो संक्षेप्ता में बहुत कुछ कहती है. उसके शब्दों की बुनावट और कसावट पाठक को आकर्षित करती है. गौतम जी की लेखनी में उनका संस्कार, आचरण उनकी पहचान का प्रतीक है. जब वे अपनी बोलचाल की भाषा एवं राष्ट-भाषा हिंदी की बात करते हैं तो उनके तेवर महसूस करने योग्य होते हैं-
अच्छे-अच्छे सर झुकाकर चल दिए
बेचकर ईमान अपना क़ातिलों के हाथ
बेकसों के आंसुओं पर पल रहे हैं लोग
हिंदी-दिवस पर कीजिये गुणगान हिंदी कामानव- जीवन से जुड़े अनुभवों, जीवन-मूल्यों में निरंतर होते ह्रास और समाज में व्याप्त कुनीतियों व् कुप्रथाओं को उन्होंने बखूबी अपनी ग़ज़लों की विषयवस्तु बनाकर पेश किया है--
पर बाद में सब भूलकर अंग्रेजी बोलिये
इल्म की है क़द्र रत्ती भर नहींगौतम जी की रचनायें मानव जीवन के इतिवृत को लक्षित करती हैं. डॉ.श्याम दिवाकर के शब्दों में "यहाँ सुख के क्षण भी हैं, दुःख भी है, आंसू भी हैं, हास भी.यहाँ असफलता भी है, गिरकर उठने का साहस भी, और इसी कशमकश के बीच से गुज़ारना है, अँधेरे से रोशनी लानी है." जहाँ चमन सूखता जा रहा है और मालियों को चिंता नहीं, वहां भी गौतम जी की सकारात्मक सोच प्यार के रिश्ते को मज़बूती प्रदान करती है. उन्हें के शब्दों में आइए सुनते हैं--
काम होते है यहाँ पहचान से
हाथ का मज़हब न पंछी देखते
जो भी दाना दे ख़ुशी से खा गये
हिन्दू, मुस्लिम,सिख खड़े देता सबको छाँव
पेड नहीं है मानता मज़हब की प्राचीर
प्यार के बूटे खिलेंगे नढ़रतों की शाख़ परशाइर नदीम बाबा का कथन है " ग़ज़ल एक सहराई पौधे की तरह होती है, जो पानी की कमी के बावजूद अपना विकास जारी रखता है." इसी विकास की दिशा में गौतम जी से और भी आशाएं सुधी पाठकों और ग़ज़ल के शायकों को हैं. उनकी क़लम की सशक्तता अपना परिचय खुद देती आ रही है, मैं क्या कहूं?
अपने दुश्मन को नज़र भर देखिये तो प्यार से
दर्ज है पृष्ट पर उनकी कहानी क्या कहूं
एक निर्झर झरने जैसे है रवानी क्या कहूं?
दिली मुबारकबाद एवं शुभकामनाओं सहित
प्रस्तुतकर्ता: देवी नागरानी
ग़ज़ल-संग्रह: वक़्त के मंज़र, लेखक: डा॰ ब्रहमजीत गौतम, पन्नेः ७२, मूल्य: रु.100. प्रकाशक: नमन प्रकाशन, नई दिल्ली.
बहुत सार्थक समीक्षा प्रस्तुत की है ।
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