गरीब बच्चों के साथ सरकारी स्कूल में पढ़ती है कलेक्टर की बेटी:- समान शिक्षा की आदर्श मिसाल प्रमोद भार्गव सरकारी शिक्षा में सुधा...
गरीब बच्चों के साथ सरकारी स्कूल में पढ़ती है कलेक्टर की बेटी:-
समान शिक्षा की आदर्श मिसाल
प्रमोद भार्गव
सरकारी शिक्षा में सुधार के तमाम प्रयोगों के दौरान एक आदर्श मिसाल इरोड के नौजवान कलेक्टर डॉ आनंद कुमार ने पेश की है। उन्होंने अपनी लाडली बिटिया गोपिका को पश्चिमी तमिलनाडू के एक पिछड़े जिले इरोड की कुमलन कुट्टई ग्राम पंचायत संघ के प्राथमिक विद्यालय में दाखिला कराया है। जब राजनेताओं, नौकरशाहों और यहां तक कि आम आदमी में भी उत्कृष्ट अंग्रेजी माध्यमों के स्कूलों में बच्चों को पढ़ाने की जद्दोजहद चरम पर हो, तब एक जिलाधीश द्वारा तमिल माध्यम के साधन विहीन विद्यालय में बेटी का नाम दर्ज कराना एक ऐसी आदर्श और अनूठी पहल है, जिसे समान शिक्षा का एक कारगर उपाय माना जा सकता है। यदि इस व्यवस्था को लागू करने का वीड़ा देश का प्रशासनिक तंत्र उठा ले तो सरकारी शिक्षा प्रयोगशाला बनने से तो मुक्त होगी ही, शिक्षा की गुणवत्ता में भी अपेक्षित सुधार एकाएक आ जाएगा। कलेक्टर आनंद का आचरण इसलिए भी अनुकरणीय है, क्योकि उन्होंन बेटी का दाखिला पत्नी श्रीमती विद्या के साथ कतार में लग कर एक साधारण नागरिक की तरह तो कराया ही, शाला के अध्यापकों को निर्देश भी दिया कि उनकी बेटी के साथ अन्य बच्चों जैसा ही बर्ताव किया जाए।
हमारे देश में समान शिक्षा लागू करने की मंशा तो आजादी हासिल करने के तत्काल बाद से ही जताई जा रही है। इस बाबत उत्कृष्ट, रोजगार मूलक और बालकों की आयु के अनुपात में मानसिक विकास व स्थितियों के अनुरुप शिक्षा के लिए गठित आयोग व शिक्षाविद् समान शिक्षा लागू करने की वकालत भी करते रहे हैं, लेकिन नौकरशाहों और पब्लिक स्कूलों के निजी हितों को बरकरार रखने के कुटिल मंसूबों के चलते आयोगों के प्रतिवेदनों और शिक्षाविदों की सलाहों को अब तक ठण्डे बस्ते में ही डाला जाता रहा है। यहां तक की अपने बचपन में ‘राष्टपति हो या भंगी की संतान, सबकी शिक्षा हो एक समान’ का नारा लगाते हुए पिछड़े व निम्न वर्ग से आए लालू, मुलायम जैसे नेता भी आखिरकार समान शिक्षा व पढ़ाई का माध्यम मातृभाषा हो की अनिवार्यता से तब छिटक गए, जब वे प्रदेशों की सत्ता उनके हाथों में थी। जबकि यही वह समय था जब वे इस भेद को मिटाकर समान शिक्षा लागू कर एक उच्चतम आदर्श प्रस्तुत कर सकते थे। लेकिन इसके उलट वे भी अंग्रेजी शिक्षा के अनुयायी हो गए। मायावती, शिवराज सिंह चौहान और नरेन्द्र मोदी ने भी इस दृष्टि से कोई अनूठी पहल नहीं की। हाल ही में बंगाल में सत्ता संभालने वाली ममता बनर्जी समान शिक्षा के प्रति क्या रुख अपनाती हैं, इसका कुछ समय बाद पता चलेगा। समान शिक्षा के पहलू को नकारने की प्रवृत्ति के चलते ही शिक्षा का अधिकार कानून बनने के बावजूद बेअसर साबित हो रहा है। गरीब व वंचित समूह के बच्चों को 25 फीसदी दाखिले के कानूनी प्रावधान के बावजूद पब्लिक स्कूल इस वर्ग के छात्र-छात्राओं को प्रवेश नहीं दे रहे हैं।
भारतीय संविधान प्रत्येक नागरिक को सामाजिक न्याय व अन्य सामाजिक स्तरों जैसे बौद्धिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विकास के लिए समान अवसर प्रदान करने का भरोसा देता है। शिक्षा ही एक ऐसा माध्यम है जो व्यक्ति को निजी स्तर पर सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में प्रगति व स्थापना के लिए ताकतवर बनाता है। इसलिए नीति-नियंताओं व सत्ता संचालकों का यह उत्तरदायित्व बढ़ जाता है कि वे हर नागरिक को शिक्षा प्रणाली के माध्यम से सामाजिक न्याय उपलब्ध कराने के समान अवसर मुहैया कराएं, ताकि दलित, पिछड़े व अभावग्रस्त वर्गों के बच्चों को शिक्षा हासिल करने के एक समान अवसर मिल सकें। समाज के इसी मकसद पूर्ति के लिए संविधान की धारा 45 में दर्ज नीति-निर्देशक सिद्धांत सभी के लिए शैक्षिक अवसरों की समानता तय करने का प्रावधान प्रकट करते हैं। इसी उद्देश्य से 14 वर्ष की आयु तक के सभी बालक-बालिकाओं को निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने की दृष्टि से शिक्षा का अधिकार कानून बनाया गया, लेकिन निजी स्कूलों की दहलीज पर जाकर यह दम तोड़ता नजर आ रहा है।
पुरातन जातिवादी व्यवस्था में शिक्षा सवर्ण जातियों के एकाधिकार का हिस्सा थी। आजादी के बाद इस सोच को ताकत संविधान के अनुच्छेद 21ए से मिली। जिसमें शिक्षा को मौलिक अधिकार की श्रेणी में रखा गया है। इसी भ्रम के चलते एक ओर तो शिक्षा में असमानता का दायरा बढ़ता चला गया, दूसरे निजी व अंग्रेजी स्कूलों के हित पोषित होते रहे। हालांकि 1966 में ही कोठारी आयोग ने समान शिक्षा प्रणाली लागू करने की अनुशंसा कर दी थी। इसके बाद 1985-86 की नई शिक्षा नीति में भी समान शिक्षा प्रणाली को मान्यता दी गई, लेकिन इन प्रणालियों पर अमल आज तक नहीं हो पाया। अलबत्ता संविधान के अनुच्छेद 21 ए में दर्ज शिक्षा को मौलिक अधिकार मान लिए जाने का मुगलता ही एक ऐसा बुनियादी कारण रहा, जिसके चलते मौजूदा शिक्षा प्रणाली में भेदभाव की खाई चौड़ी होती चली गई। इसी असमानता ने एक ऐसे प्रभु वर्ग को जन्म देकर ताकतवर बना दिया है, जिसमें याग्यता की बजाय धन के आधार पर शिक्षा हासिल कर प्रभु वर्ग का वर्चस्व हासिल किय। यही वह वर्ग है जिसने उपभोग, लूट व हिंसा की संस्कृति को बढ़ावा देते हुए सरकारी व गैर सरकारी स्तर पर जबरदस्त अधिकार व अर्थ दोहन का सिलसिला जारी रखा हुआ है। हमारे नीति नियंता और नौकरशाह कोई भी नया कानून बनाते वक्त दावा तो ऐसा करते हैं कि बस इसके वजूद में आते ही समस्या का जादुई हल आनन-फानन में निकल आएगा। लेकिन शिक्षा का अधिकार कानून अमल में आने के बाद हमने देख लिया है कि भेदभाव से वजूद में लाए गए कानूनी प्रावधानों का क्या हश्र होता है।
ऐसे में इरोड के कलेक्टर डॉ आनंद कुमार ने अपनी बेटी को तमिल भाषी स्कूल में भर्ती कराकर एक ऐसा पाठ प्रस्तुत किया है, जिससे सबक लेकर हमारे नीति-नियंता शिक्षा में आमूल-चूल बदलाव ला सकते हैं। दरअसल अब जरुरत है कि हम एक ऐसा बाध्यकारी कानून बनाएं, जिसके तहत जरुरी हो कि देश के सभी सांसद, विधायक, नौकरशाह, सरकारी कर्मचारी व पंचायत पदाधिकारियों के सभी बच्चे सरकारी पाठशालाओं में पढ़ें। ऐसा न करने पर उनको पद से पृथक करने का अधिकार हो। क्योंकि मौजूदा हालात तो ये है, कि पाठशाला का शिक्षक भी अपने बच्चे को उस पाठशाला में नहीं पढ़ता जिसमें वह शिक्षा का दान कर रहा होता है। इससे जाहिर होता है कि उसे उस शिक्षा पर ही भरोसा नहीं जिसे वह खुद बांट रहा है। लिहाजा समान व समाजोपयोगी शिक्षा के लिए जरुरी है कि सरकारी शिक्षा से नेता और नौकरशाहों के बच्चों को जोड़ा जाए। इस उपाय से दमतोड़ रही मातृ भाषाओं को भी जीवनदान मिलेगा।
प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार है ।
समान शिक्षा की आदर्श मिसाल
प्रमोद भार्गव
सरकारी शिक्षा में सुधार के तमाम प्रयोगों के दौरान एक आदर्श मिसाल इरोड के नौजवान कलेक्टर डॉ आनंद कुमार ने पेश की है। उन्होंने अपनी लाडली बिटिया गोपिका को पश्चिमी तमिलनाडू के एक पिछड़े जिले इरोड की कुमलन कुट्टई ग्राम पंचायत संघ के प्राथमिक विद्यालय में दाखिला कराया है। जब राजनेताओं, नौकरशाहों और यहां तक कि आम आदमी में भी उत्कृष्ट अंग्रेजी माध्यमों के स्कूलों में बच्चों को पढ़ाने की जद्दोजहद चरम पर हो, तब एक जिलाधीश द्वारा तमिल माध्यम के साधन विहीन विद्यालय में बेटी का नाम दर्ज कराना एक ऐसी आदर्श और अनूठी पहल है, जिसे समान शिक्षा का एक कारगर उपाय माना जा सकता है। यदि इस व्यवस्था को लागू करने का वीड़ा देश का प्रशासनिक तंत्र उठा ले तो सरकारी शिक्षा प्रयोगशाला बनने से तो मुक्त होगी ही, शिक्षा की गुणवत्ता में भी अपेक्षित सुधार एकाएक आ जाएगा। कलेक्टर आनंद का आचरण इसलिए भी अनुकरणीय है, क्योकि उन्होंन बेटी का दाखिला पत्नी श्रीमती विद्या के साथ कतार में लग कर एक साधारण नागरिक की तरह तो कराया ही, शाला के अध्यापकों को निर्देश भी दिया कि उनकी बेटी के साथ अन्य बच्चों जैसा ही बर्ताव किया जाए।
हमारे देश में समान शिक्षा लागू करने की मंशा तो आजादी हासिल करने के तत्काल बाद से ही जताई जा रही है। इस बाबत उत्कृष्ट, रोजगार मूलक और बालकों की आयु के अनुपात में मानसिक विकास व स्थितियों के अनुरुप शिक्षा के लिए गठित आयोग व शिक्षाविद् समान शिक्षा लागू करने की वकालत भी करते रहे हैं, लेकिन नौकरशाहों और पब्लिक स्कूलों के निजी हितों को बरकरार रखने के कुटिल मंसूबों के चलते आयोगों के प्रतिवेदनों और शिक्षाविदों की सलाहों को अब तक ठण्डे बस्ते में ही डाला जाता रहा है। यहां तक की अपने बचपन में ‘राष्टपति हो या भंगी की संतान, सबकी शिक्षा हो एक समान’ का नारा लगाते हुए पिछड़े व निम्न वर्ग से आए लालू, मुलायम जैसे नेता भी आखिरकार समान शिक्षा व पढ़ाई का माध्यम मातृभाषा हो की अनिवार्यता से तब छिटक गए, जब वे प्रदेशों की सत्ता उनके हाथों में थी। जबकि यही वह समय था जब वे इस भेद को मिटाकर समान शिक्षा लागू कर एक उच्चतम आदर्श प्रस्तुत कर सकते थे। लेकिन इसके उलट वे भी अंग्रेजी शिक्षा के अनुयायी हो गए। मायावती, शिवराज सिंह चौहान और नरेन्द्र मोदी ने भी इस दृष्टि से कोई अनूठी पहल नहीं की। हाल ही में बंगाल में सत्ता संभालने वाली ममता बनर्जी समान शिक्षा के प्रति क्या रुख अपनाती हैं, इसका कुछ समय बाद पता चलेगा। समान शिक्षा के पहलू को नकारने की प्रवृत्ति के चलते ही शिक्षा का अधिकार कानून बनने के बावजूद बेअसर साबित हो रहा है। गरीब व वंचित समूह के बच्चों को 25 फीसदी दाखिले के कानूनी प्रावधान के बावजूद पब्लिक स्कूल इस वर्ग के छात्र-छात्राओं को प्रवेश नहीं दे रहे हैं।
भारतीय संविधान प्रत्येक नागरिक को सामाजिक न्याय व अन्य सामाजिक स्तरों जैसे बौद्धिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विकास के लिए समान अवसर प्रदान करने का भरोसा देता है। शिक्षा ही एक ऐसा माध्यम है जो व्यक्ति को निजी स्तर पर सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में प्रगति व स्थापना के लिए ताकतवर बनाता है। इसलिए नीति-नियंताओं व सत्ता संचालकों का यह उत्तरदायित्व बढ़ जाता है कि वे हर नागरिक को शिक्षा प्रणाली के माध्यम से सामाजिक न्याय उपलब्ध कराने के समान अवसर मुहैया कराएं, ताकि दलित, पिछड़े व अभावग्रस्त वर्गों के बच्चों को शिक्षा हासिल करने के एक समान अवसर मिल सकें। समाज के इसी मकसद पूर्ति के लिए संविधान की धारा 45 में दर्ज नीति-निर्देशक सिद्धांत सभी के लिए शैक्षिक अवसरों की समानता तय करने का प्रावधान प्रकट करते हैं। इसी उद्देश्य से 14 वर्ष की आयु तक के सभी बालक-बालिकाओं को निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने की दृष्टि से शिक्षा का अधिकार कानून बनाया गया, लेकिन निजी स्कूलों की दहलीज पर जाकर यह दम तोड़ता नजर आ रहा है।
पुरातन जातिवादी व्यवस्था में शिक्षा सवर्ण जातियों के एकाधिकार का हिस्सा थी। आजादी के बाद इस सोच को ताकत संविधान के अनुच्छेद 21ए से मिली। जिसमें शिक्षा को मौलिक अधिकार की श्रेणी में रखा गया है। इसी भ्रम के चलते एक ओर तो शिक्षा में असमानता का दायरा बढ़ता चला गया, दूसरे निजी व अंग्रेजी स्कूलों के हित पोषित होते रहे। हालांकि 1966 में ही कोठारी आयोग ने समान शिक्षा प्रणाली लागू करने की अनुशंसा कर दी थी। इसके बाद 1985-86 की नई शिक्षा नीति में भी समान शिक्षा प्रणाली को मान्यता दी गई, लेकिन इन प्रणालियों पर अमल आज तक नहीं हो पाया। अलबत्ता संविधान के अनुच्छेद 21 ए में दर्ज शिक्षा को मौलिक अधिकार मान लिए जाने का मुगलता ही एक ऐसा बुनियादी कारण रहा, जिसके चलते मौजूदा शिक्षा प्रणाली में भेदभाव की खाई चौड़ी होती चली गई। इसी असमानता ने एक ऐसे प्रभु वर्ग को जन्म देकर ताकतवर बना दिया है, जिसमें याग्यता की बजाय धन के आधार पर शिक्षा हासिल कर प्रभु वर्ग का वर्चस्व हासिल किय। यही वह वर्ग है जिसने उपभोग, लूट व हिंसा की संस्कृति को बढ़ावा देते हुए सरकारी व गैर सरकारी स्तर पर जबरदस्त अधिकार व अर्थ दोहन का सिलसिला जारी रखा हुआ है। हमारे नीति नियंता और नौकरशाह कोई भी नया कानून बनाते वक्त दावा तो ऐसा करते हैं कि बस इसके वजूद में आते ही समस्या का जादुई हल आनन-फानन में निकल आएगा। लेकिन शिक्षा का अधिकार कानून अमल में आने के बाद हमने देख लिया है कि भेदभाव से वजूद में लाए गए कानूनी प्रावधानों का क्या हश्र होता है।
ऐसे में इरोड के कलेक्टर डॉ आनंद कुमार ने अपनी बेटी को तमिल भाषी स्कूल में भर्ती कराकर एक ऐसा पाठ प्रस्तुत किया है, जिससे सबक लेकर हमारे नीति-नियंता शिक्षा में आमूल-चूल बदलाव ला सकते हैं। दरअसल अब जरुरत है कि हम एक ऐसा बाध्यकारी कानून बनाएं, जिसके तहत जरुरी हो कि देश के सभी सांसद, विधायक, नौकरशाह, सरकारी कर्मचारी व पंचायत पदाधिकारियों के सभी बच्चे सरकारी पाठशालाओं में पढ़ें। ऐसा न करने पर उनको पद से पृथक करने का अधिकार हो। क्योंकि मौजूदा हालात तो ये है, कि पाठशाला का शिक्षक भी अपने बच्चे को उस पाठशाला में नहीं पढ़ता जिसमें वह शिक्षा का दान कर रहा होता है। इससे जाहिर होता है कि उसे उस शिक्षा पर ही भरोसा नहीं जिसे वह खुद बांट रहा है। लिहाजा समान व समाजोपयोगी शिक्षा के लिए जरुरी है कि सरकारी शिक्षा से नेता और नौकरशाहों के बच्चों को जोड़ा जाए। इस उपाय से दमतोड़ रही मातृ भाषाओं को भी जीवनदान मिलेगा।
प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार है ।
सराहनीय एवं अनुकरणीय पहल
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