दैहिक मुक्ति की कामना में अग्रसर ‘‘ मुक्त होती औरत '' कहानी संग्रह-प्रमोद भार्गव समीक्षक-डॉ पद्मा शर्मा बहुराष्ट्रीय कम्पन...
दैहिक मुक्ति की कामना में अग्रसर ‘‘मुक्त होती औरत''
कहानी संग्रह-प्रमोद भार्गव
समीक्षक-डॉ पद्मा शर्मा
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की संरचनात्मक गतिविधियाँ, उनका वर्चस्व और उनसे उत्पादित भौतिक सुख-साधनों की आयातित आमद से मनुष्य बाह्य ही नहीं आभ्यांतरिक स्तर पर भी प्रभावित हुआ है। मशीनी क्रियाशैली और उसके फलस्वरूप उत्पन्न भावनात्मक शून्यता के साथ निस्पृह जीवन ने मानव मस्तिष्क पर अमिट प्रभाव डाला है। साहित्य भी इनसे अछूता नहीं रहा। इस दौर में चले विभिन्न विमर्शों ने जहाँ साहित्य की घेराबन्दी की वहीं लेखक को भावनात्मक ही नहीं रचनात्मक स्तर पर भी प्रभावित किया। वर्षों से चली आ रही नारी-दासता, आँचल में दूध और आँखों के पानी से स्त्री-मुक्ति की कामना से प्रेरित उथले सामाजिक एवं विचारपूर्ण साहित्यिक प्रयास प्रारम्भ हुए। समकालीन कहानियों के दौर में ऐसे ही कई मुद्दोंं के साथ प्रमोद भार्गव का कहानी संग्रह ‘‘ मुक्त होती औरत '' वर्तमान परिदृश्य, सामाजिक कूटनीति, मनोवैज्ञानिक अधोगति एवं दैहिक आवश्यकताओं को रेंखांकित करता हुआ प्रस्तुत हुआ है। इसमें स्त्री(कामकाजी) और नारी (जो स्वतंत्रता की ओर अग्रसर) , महिला (जो समाज में सम्मानित है) की मुक्ति की कामना नहीं है वरन् उस औरत की मुक्ति की कामना है जो विभिन्न चौखटों में जकड़ी संस्कारगत जड़ता, धर्मभीरुता और दैहिक परतंत्रता के कारण अभी भी संघर्षरत है।
नारी मुक्ति की यह कामना दैहिक स्तर पर ही नहीं अन्य अनेक स्तरों पर है जहाँ ओढ़ी हुई नैतिकता, लिजलिजे सामाजिक बन्धन, युवा पीढ़ी द्वारा आर्थिक सुदृढ़ता के प्रयास स्वरूप बहुराष्ट्रीय कम्पनी का आश्रय और उसके परिणामस्वरूप प्रकृतिजन्य दैहिक आवश्यकताओं की प्रतिपूर्ति में कमी , सामाजिक खोखली मान्यताओं, जातिगत प्रतिबद्धता, के साथ-साथ ढकोसली धार्मिक व्यवस्थाओं से नारी मुक्ति हेतु उनके पात्र प्रयासरत हैं।
लेखक प्रयोगधर्मी है। शैलीगत गत्यात्मकता, रचनात्मक वैविध्य, भाषा की भावप्रवणता के साथ-साथ कहानी के कथ्यों में भी विविधता है। कहानियाँ एक ही चौखटे में आबद्ध न होकर विविधरूपा हैं जिनमें समसामयिक समस्याओं और तत्संबंधी निवारण की ओर प्रस्थान बिन्दु भी है।
‘‘मुक्त होती औरत '' की परिकल्पना का प्रथम सोपान लेखक के समर्पण से ही प्रारम्भ होता हैं जब कोई भी पुरुष लेखक अपनी सफलता में पत्नी का श्रेय और प्रेय मानता है तब वह वास्तविक रूप में स्त्री शक्ति के प्रभाव, औदार्य एवं त्याग को स्वीकार करता है। यही लेखक ने स्वीकार भी किया है- ‘‘जीवनसंगिनी... आभा भार्गव को जिसकी आभा से मेरी चमक प्रदीप्त है...!''
कहानी ‘मुक्त होती औरत' धार्मिक छल एवं दिखावे के साथ-साथ पाखण्ड को भी अभिव्यक्त करती है। सामान्य जीवन से परे मनुष्य जब दैवीय(साध्वी) रूप को ग्रहण करता है तब उस पर प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष मानसिक दबाव हाबी होते हैं। फिर चाहे नन्दिता आर्थिक तंगी के कारण समर्पित हुई हो या नादानीवश किये गये अनैतिक कृत्य की भरपायी मुक्ता ने साध्वी बनकर की हो। दबाव में आकर किये गये धर्माचरण स्वयं अपने से , समाज से और धर्म से छलावा है। अकाट्य तर्कशक्ति , व्यंग्योक्तियाँ और प्राश्निक विधि का प्रयोग करते हुए कहानी मनोवैज्ञानिक धरातल को स्पर्श करती है।
जैन धर्म पर आधारित इस कहानी में अहिंसा के सिद्धान्त का पालन करने वाले धर्मावलम्बी पुत्र मोह में भ्रूण हत्या से परहेज नहीं करते। निबंध शैली में लिखी गयी विभिन्न शीर्षकों में आबद्ध यह कहानी उपन्यास के कलेवर को समाहित किये है। ‘आहार' केवल भाजन नहीं है , गलत एवं अपवित्र को भी आँखों द्वारा ग्रहण करना भी आहार में समाहित है तो फिर दैहिक शुचिता की कल्पना बेमानी हैं इसी तरह के तर्क प्रस्तुत करते हुए कहानी में उत्थान आया है। किशोरवय में देखे गये कुछ यौनजन्य क्रियाकलाप मन की अबोध गीली मिट्टी पर अपना अमिट प्रभाव छोड़ते हैं जो मन के किसी कोने में छिपकर बैठ तो जाते हैं और तत्संबंधी परिस्थितियाँ पाकर उन कार्यों में बढ़ावा देने में सहायक सिद्ध होते हैं।
कहानी का मुल प्रश्न और निराकरण नायिका मुक्ता के माता-पिता की सोच में शामिल था-
‘‘जवान बेटी को खेलने खाने की उम्र में बलात् साध्वी बनाकर क्या हमने उचित किया ? क्या यह प्राकृतिक इच्छाओं के विरुद्ध नहीं ...?''
बंधन भय को जन्म देता है। मर्यादित जीवन विभिन्न दुश्चिन्ताओं से घिरा रहता है क्योंकि बंधन पतन के गर्त की ओर ले जाता है। ‘‘जहाँ बन्धन है, मर्यादाएँ हैं, वहीं आशंकाएँ हैं, बन्धन के ढीले पड़ जाने की...अथवा टूट जाने की ...। जहाँ मर्यादाएँ हैं वहाँ भय है, उनके उल्लंघन का ...।''बलात् धर्म हेतु समर्पण मुक्ता का बलात्कार था जहाँ उसकी इच्छाओं का गला घोंट दिया गया। निश्चित ही प्रकृतिजन्य दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति की चाहना और उसकी पूर्ति ही आनन्द की उच्चतम परिणति है। प्रमोद जी की कहानियों में मुक्ति की यह कामना और उसकी अन्तिम परिणति किसी अन्य के द्वारा परिचालित न होकर कहानी के नारी पात्रों द्वारा ही होती है।
नारी को मानसिक रूप से इतना अधिक संस्कारगत जड़ता में आबद्ध कर दिया जाता है कि गौरवशाली जातीय परम्पराओं के निर्वाह हेतु वह पुरुष की प्रतिच्छाया को स्वीकार करती हुयी उसके अन्त के साथ अपने अंत को भी ‘सती' होकर अंगीकार करने को तत्पर रहती है। लेखक नारी स्वतंत्रता का पक्षधर है उनका पैरोकार बन वह ‘सती का सत ' कहानी में कहता है‘‘ न जाने क्यों लोग स्त्री से अपेक्षा करते हैं कि वह देह की कारा से मुक्त होने की बात सोचे ही नहीं....?''
यौनाकर्षण और यौनक्रियाओं के प्रति लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए परमार शासक ने खजुराहो के मन्दिर का निर्माण करवाया था। वर्तमान परिवेश में अत्यधिक महत्वाकांक्षा के वशीभूत और शीघ्रअतिशीघ्र धनवान बनने की लालसा ने पद, पैसा और शोहरत पाने के लिये मानव जीवन को प्रतिस्पर्धी बना दिया है इस हेतु की पूर्ति के लिये वह अपने नैसर्गिक सुख और आनन्द को विस्मृत कर काम के बोझ तले दबा हुआ जीवन व्यतीत करने को मजबूर है। फलस्वरूप उसका शारीरिक सामंजस्य गड़बड़ा गया है।उच्चशिक्षित और उच्च पद प्रतिष्ठित लोग एक अलग ही व्याधि से ग्रसित हो रहे हैं , इन सबके लिए काम के बोझ से मुक्ति की आवश्यकता है। इन सबके प्रभाव स्वरूप सन्तानोत्पत्ति पर अंकुश लगता जा रहा है। ‘‘इन्तजार करती माँ'' का इन्तजार और भी बढ़ जाता है जब डॉक्टर नकारात्मक उत्तर दे देते हैं।
‘‘ आईटी की शिक्षा ग्रहण करते हुए आयुषी और रत्नेश ने सॉफटवेयर व हार्डवेयर की मौलिक प्रोग्रामिंग का गणित तो अच्छे से हल किसा था लेकिन यह गणित उनकी जिन्दगी के रासायनिक घोल में गड़बड़ा गया था । गड़बड़ी भी तब समझ आई जब उनकी उम्र तैंतीस-पैंतीस साल की हो चली। तीन साल का वैवाहिक जीवन गुजारने के बावजूद वे अपना उत्तराधिकारी पैदा नहीं कर पाए।''
वैधव्य जीवन अभिशाप होता है क्योंकि स्त्री से उसके जीने के मायने ही समाज द्वारा छीनने का भरसक प्रयास किया जाता है। विधवा ‘किराएदारिन '(किराएदारिन कहानी) बमुश्किल अपना और अपने बच्चों का जीवनयापन करती है। उसकी समस्याएँ उसकी अपनी हैं उनका कोई साझेदार नहीं है वरन् अकेली स्त्री के शरीर के रखवाले कई पैदा हो जाते हैं। पुरुष समाज अपनी स्वार्थसिद्धि पूर्ण न होने पर स्त्री को ही लांछित करने का दुस्साहस करता है।पर इन सबका सामना करते हुए खुद को पवित्र रखने का वह अनथक प्रयास करती है। प्रमोद जी की नारी पात्र कमजोर नहीं हैं वे समस्याओं का डटकर मुकाबला करती हैं और समय आने पर उन्हें सजा देना भी उन्हें आता है। ‘‘ हमारे समाज का न तो कोई अपना चरित्र है न निश्चित दृष्टिकोण और न ही कोई राष्ट्रव्यापी लक्ष्य। पति-पत्नी और बच्चों तक ही सीमित रहने वाले इस समाज के लोग जब कोई श्रेष्ठ उपलब्धि हासिल नहीं कर पाते तब उनके लिए सारी श्रेष्ठता, शारीरिक चरित्र पर केन्द्रित होकर रह जाती है। वह भी स्त्री के चरित्र को लेकर कुछ ज्यादा ही मर्यादित और कठोर होती है।'' (शंका)
आज की नारी व्यावहारिक धरातल पर सोचने लगी है। अब वह पति को परमेश्वर मान उसकी पूजा नहीं करती वरन् समाधानविहीन - असाघ्य रोग से ग्रसित पति के अन्त की कामना करती है क्योंकि असाघ्य रोग से पति का यदि निदान सम्भव नहीं है तो समय और धन दोनों व्यय करने से कोई फायदा नहीं है (पिता का मरना)।मानव जीवन जटिलताओं से पूर्ण है। अपने जातीय गौरव और सत्य के परिपालन में स्त्री अपना सर्वस्व समर्पण के लिये तत्पर है। आज की नारी अपने साथ किये गए ‘छल' को पसन्द नहीं करती और उस पुरुष का परित्याग करने में भी संकोच नहीं करती जिसके साथ वह शारीरिक सुख का उपभोग कर चुकी है (छल)। पुत्र रक्षार्थ हेतु वह नैतिकता के मानदण्ड तोड़ स्वार्थ सिद्धि में लिप्त हो जाती है समाज से छल कर बैठती है (भूतड़ी अमावस्या) । असहाय आदिवासी महिला के संघर्ष की कहानी है ‘जूली' जो अपनी योग्यता और कौशल से अपने उच्च लक्ष्य को प्राप्त करने में सक्षम हो जाती है।
पन्द्रह कहानियों में से नौ कहानी नारी केन्द्रित है। लेखक की लेखन गाड़ी एक ही ढर्रे
या विषय केन्द्रित नहीं रही। समाज की अन्य समस्याओं और अन्य क्रियाकलापों को भी प्रमोद जी ने विषयवृत्त में सम्मिलित करके प्रत्यक्ष युगबोध में दत्तचित्त होने का परिचय दिया है।नेताओं के स्वार्थ को कहानी‘दहशत' में लिया है। पुरातन सामंतवादी सामाजिक व्यवस्था का विरोध ‘नक्टू' में किया गया है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के झांसे और भुलावे में आकर तथा पूंजी को दोगुनी करने के फेर में व्यक्ति अपने मूल से भी वंचित हो जाता है। आधुनिक खेती का डंका पीटती , नकली खाद और नकली बीज के विक्रय को बढावा देती इन कम्पनियों ने फसल को तो भरपूर नुक्सान
पहुँचाया ही है किसानों को आत्महत्या के मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया है। और ‘गंगाबटाईदार' जैसे बटाईदार तो और भी अधिक सकते की स्थिति में हैं क्योंकि फसल का आधा उत्पादन तो मालिक के अधिकारक्षेत्र में आता है पर नुक्सान की भरपाई का उत्तरदायित्व सिर्फ और सिर्फ बटाईदार पर होता है। डाकुओं की जानकारी पुलिस महकमें तक पहुँचाने का महत्त्वपूर्ण काम ‘मुखबिर' करते हैं।उन पर हमेशा विपत्तियों का साया मँडराता रहता है। वह डाकू और पुलिस के पाटों के बीच पिसता रहता है। कहानी ‘विधायक विद्याधर शर्मा की नाकारा बेटे के विधायक बनने के सफर को अभिव्यक्त करती है। एक नवीन कथ्य और नवीन शैली का संयोजन करती कहानी है ‘‘परखनली का आदमी''। इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के एक ऐसे मानव की
परिकल्पना को प्रस्तुत किया गया है जिसके अपने मस्तिष्क में एक कम्प्यूटर है , जिसमें परखनली के आदमी के डाटाज फिट हैं, वह अपने दैनिक जीवन के क्रियाकलाप बखूबी करता है यहाँ तक कि अॉफिस भी संभालता है। यह ऐसे शिशु के जन्म की कहानी है जो किराए की कोख से पैदा हुआ हैं । प्राकृतिक रूप से सन्तानोत्पत्ति और किराए की कोख से प्राप्त सन्तान में मूलभूत यही अन्तर होता है कि वहाँ भावना और सम्वेदना में तर तरोताजा वातावरण प्राप्त नहीं हो पाता। यह अदभुत् कहानी है।
कहानी सुनाते से चलते हैं ऐसे में वे वाक्य शुंरु करते हुए कहते हैःं- ‘‘तो........''
कहानियों की भाषा सहज, सरल एवं प्रभावपूर्ण हैं। शैली में गत्यात्मकता है जो कहानी को आगे बढ़ाने में सहायक सिद्ध हुई है। कुछ कहानियों की भाषा में पत्रकारिता का प्रभाव परिलक्षित होता है ऐसे में भाषा में दुरुहता आ गयी है और कथ्य को प्रभावित किया है जिससे भावविहीनता और संवेदनशून्यता आ गयी है। लेखक नवीन प्रयोग का पक्षधर हैं नवीन शिल्प और नवीन तकनीक का प्रयोग करते हुए निबंध शैली का प्रयोग किया है। कहानी में कई स्थानों पर बेवजह विस्तार दिया है, उनसे बचा जा सकता था।
प्रमोद जी में तर्कशक्ति और भाषा गढ़ने की अदभुत् क्षमता है। परिमार्जित भाषा-शैली के साथ-साथ अलंकार और प्रतीको का आश्रय भी लिया गया है। परिपूर्ण तो मानव भी नहीं है फिर कृति में कुछ कमियाँ होना स्वाभाविक है। कथ्य का कलेवर बड़ा है और विषय व्यापक है। नारी मुक्ति के प्रयास में सक्रिय लेखक ने नारी जीवन की उन जटिलताओं और मानसिक रूप से बन्धन ग्रसित जीवन को समाज सापेक्ष मानवीय अहर्ताओं के अनुरूप प्रस्तुत करने का अतुलनीय और प्रशंसनीय प्रयास किया है। शिल्प की दृष्टि से भी उन्होंने कहानी में नवीन सम्भावनाएँ प्रस्तुत की हैं। वे साधुवाद के पात्र हैं। निश्चित ही ‘‘मुक्त होती औरत'' नारी मुक्ति के कई सोपान प्रस्तुत करने में सहायक सिद्ध होगी।
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कृति- मुक्त होती औरत (कहानी संग्रह)
कृतिकार- प्रमोद भार्गव
प्रकाशक- प्रकाशन संस्थान
मूल्य - 250 रुपये
समीक्षक- डॉ पद्मा शर्मा
बढ़िया समीक्षा,
जवाब देंहटाएंविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
धन्यवाद जी
जवाब देंहटाएंबहुत ही सधी हुई समीक्षा की है आपने और इससे हमें इस कथा संग्रह की मोटी मोटी जानकारी मिल गई है और एक इसे पढ़ने की इच्छा भी अब बलवती हो रही है। इसके साथ ही साथ आपकी इस समीक्षा ने मुझे भी प्रेरित किया है काफी दिनों से एक पुस्तक की समीक्षा जो अधूरी पड़ी थी उसे मैं आज पूरा कर लूं। पुनश्च धन्यवाद!