शशि पाठक का कहानी संग्रह - अपरिमित : (9) अलार्म

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अपरिमित (कहानी संग्रह) श्रीमती शशि पाठक प्रकाशक जाह्‌नवी प्रकाशन दिल्‍ली - 32 © श्रीमती शशि पाठक -- अलार्म अलार्म की आवाज सुन,...

अपरिमित

(कहानी संग्रह)

श्रीमती शशि पाठक

प्रकाशक

जाह्‌नवी प्रकाशन दिल्‍ली-32

© श्रीमती शशि पाठक

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अलार्म

अलार्म की आवाज सुन, मैं हड़बड़ा कर उठ बैठी। ये असमय अलार्म कैसे बजा। अभी तो रात के दो ही बजे हैं। मेरी आँख तो प्रातः को समय से खुल ही जाती है। मेजर पति की संगति में कुछ सीखा हो या न सीखा हो, अनुशासन अवश्‍य सीखा है। पति को समय की पाबन्‍दी का बहुत ही ध्‍यान रहता था। एक बार को घड़ी रुक सकती है किन्‍तु वो कभी भी, किसी भी कार्य में सुस्‍ती बर्दाश्‍त नहीं करते थे। एक बार की अभी तक याद है- सुबह नाश्‍ते में थोड़ी सी देरी हो गई तो वे खाना छोड़ यूनिट पहुँच गए। उस दिन से मैंने हर काम समय से करने की कसम खा ली।

नींद आँखों से उचट चुकी थी। बेटा भी घर पर नहीं है जो उसने अलार्म भरा हो। नींद में व्‍यवधान पड़ने से सिर भारी हो गया। उठकर एक गिलास पानी पिया। फिर से आकर लेट गई। एक तो पहले ही नई जगह होने के कारण नींद देर से आई थी।

दीवार पर टंगे पति के फोटो पर नजर जाते ही आँखें भर आई। कितना गर्बीला और तेजयुक्‍त, मुस्‍कराता चेहरा है। ऐसा लग रहा है जैसे अभी बोल उठेंगे। दूसरी तरफ सामने भारत का फोटो लगा हुआ है। कॉलेज में डिग्री लेते हुए। दुबारा नजर पति के चेहरे पर टिक गई। चेहरा निहारते-निहारते मैं यादों के समुद्र में गोते लगाने लगी।

उस दिन पिताजी बहुत खुश थे। उनके चेहरे की प्रसन्‍नता देखते ही बनती थी। हम सब भाई-बहन उनका खिला-खिला चेहरा देख ही रहे थे तब तक माँ ने पूछ ही लिया ‘क्‍यों मेजर साहब' आज क्‍या बात है जो इतने प्रसन्‍न दिख रहे हो।'

हाँ, आज बात ही कुछ ऐसी है। सुनोगी तो तुम भी खुशी से झूम उठोगी।

‘अच्‍छा, जरा मैं भी तो जानूं, ऐसी क्‍या बात है?'

‘अपनी कुसुम के लिए जैसे वर की तलाश थी वैसा मिल गया।'

‘अच्‍छा, क्‍या करता है वो? कहाँ रहता है?'

‘बस यही मत पूछो। लड़का आर्मी में है और यहीं, शहर में रहता है। मैं उसका फोटो भी लाया हूँ ये देखो।'

‘लड़का तो अच्‍छा है पर आर्मी में ..... अपनी तो एक ही लड़की है....... कहीं कुछ.... न.... न. मुझे ये रिश्‍ता मंजूर नहीं।'- माँ ने फोटो देखते हुए कहा।

‘कर दी न फिर पागलों जैसी बात...... अरे मैं भी तो आर्मी में हूँ। मुझे कुछ हुआ। जो होना होता है वह अवश्‍य होता है चाहे किसी भी जगह क्‍यों न हो'- अपनी दलीलों से पिताजी ने माँ को इस शादी के लिए तैयार कर लिया।

सभी रस्‍मो-रिवाज निभाते हुए मैं ससुराल आ गई। अच्‍छी ससुराल पा मैं अपने को धन्‍य मान रही थी और सकुचाई-सकुचाई सी बैठी थी। तभी चुपके से इन्‍होंने कमरे में प्रवेश किया और मेरा चेहरा ऊपर करते हुए बोले-

‘तुम सचमुच में जन्‍नत की परी लग रही हो। मेरा दूसरा प्‍यार पाने का पूरा हक है तुम्‍हें।'

‘दूसरा प्‍यार!'........ मैं सशंकित हो उठी' ‘दूसरा प्‍यार .....मतलब?'

‘‘घबरा गई न? अरे वह तुम्‍हारी सौत नहीं, माता है भारत माता। जो हर सच्‍चे देशभक्‍त का पहला प्‍यार है।'' इतना कह उन्‍होंने मुझे अपने अंक में समा लिया।

सभी कुछ हँसी-खुशी बीत रहा था। पूरे घर के सदस्‍यों में अनुशासन और देशभक्‍ति कूट-कूट कर भरी थी। मुझे वैसा ही माहौल मिल गया जैसा अपने मायके में छेाड़ कर आई थी। एक दिन मुझे पता चला कि मैं माँ बनने वाली हूँ तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। मैं बेसब्री से ये सूचना देने के लिए इनका इन्‍तजार कर रही थी कि तभी टेलीफोन की घंटी बज उठी। रिसीवर उठाते ही उधर से आवाज आई- हलो! मैं देशभक्‍त बोल रहा हूँ। दुश्‍मनों ने सीमा पर गोलीबारी शुरू कर दी है इसलिए मुझे मोर्चे पर तुरन्‍त जाना है। कब लौटूंगा, पता नहीं। चिन्‍ता मत करना।'

‘हलो-हलो ... मैं चिल्‍लाती ही रह गई। उन्‍होंने रिसीवर रख दिया। पूरे घर में अजीब सन्‍नाटा सा पसर गया। दुश्‍मनों की गोलीबारी और हमारी फौजों के जवाबी फायर थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे। सभी लोग डरे-सहमे से रेडियो-टेलीविजन से चिपके रहते। दहशत के साये में दिन बीत रहे थे। मन को कुछ भी अच्‍छा नहीं लगता था।

एक दिन शाम से ही मेरी तबीयत खराब होने लगी। मुझे तुरन्‍त नर्सिंग होम में भरती कराया गया। सुबह होते-होते बेटे भारत का जन्‍म हो गया।

इधर �भारत ने जन्‍म लिया उधर युद्धविराम की घोषणा हो गई। सभी ने राहत की सांस ली। लगभग सारे सैनिक वापस कर दिये गए थे पर अभी तक भारत के पापा नहीं लौटे थे।

एक दिन भारत की मालिश कर स्‍नान कराते-कराते मैं कहती जा रही थी- राजा बेटा, नहा धोकर और राजा बन जाएगा। पापा आयेंगे, राजा को देख कर प्रसन्‍न हो जायेंगे।

तभी दरवाजे की कॉलबेल बज उठी। भारत को जल्‍दी-जल्‍दी वॉकर में लिटा कर उत्‍साह से दरवाजा खोला। सामने डाकिया खड़ा था- ‘बीबी जी तार।'

उसके हाथ से तार लेकर मैं जल्‍दी से खोलकर पढ़ने लगी तो सिर चकराने लगा। ‘मेजर देशभक्‍त शहीद हो गए।' पढ़ते-पढ़ते ही आँखों के आगे अंधेरा छा गया और मैं बेहोश होकर गिर पड़ी।

देखते ही देखते सारे सुख तिरोहित हो गये। पर मैंने मन ही मन तय कर लिया कि उनके बेटे भारत को एक अच्‍छा देशभक्‍त नागरिक बनाऊंगी तभी से भारत की उच्‍च शिक्षा एवं संस्‍कारों के प्रति सजग हो उठी मैं। भारत ने भी मेरी भावनाओं को समझ लिया हो जैसे। वह शिक्षा के पायदानों पर चढ़ते हुए आज ‘कैप्‍टन भारत' होकर देश सेवा कर रहा है।

चिड़ियों की चहचहाट और दरवाजे पर दूध वाले की आवाज के साथ ही मेरी तंद्रा टूट गई। रात भर सो न पाने से आँखें लाल हो उठी थीं। दूध लेने के बाद फिर से दैनिक कार्यों में लग गई। जीप का हॉर्न सुन दरवाजा खोला तो देखा भारत वापस आ गया है। आते ही वह मेरे कन्‍धे पर झूल गया। बोला- कहो माँ, सब ठीक तो रहा? तुम्‍हारी आँखें कैंसे लाल हो रही हैं।'

‘कुछ नहीं बेटा, रात को दो बजे आँख खुल गई थी फिर नींद ही नहीं आई।'

‘दो बजे क्‍यों माँ?'

‘अरे तूने घड़ी में दो बजे का अलार्म जो भर रखा था। उसी की आवाज से नींद टूट गई।'

‘क्‍या ! दो बजे अलार्म बजा था?'- उसने आश्‍चर्य से मेरी ओर देखा।'

‘हाँ भई। ले अब चाय पी ले।'

उसने अनमने से चाय पी और तुरन्‍त ही घड़ी के पास पहुँच गया। बटन दबाते ही उधर से आवाज आई- ‘मि॰ जूलियट स्‍पीकिंग।'

‘मेजर भारत हियर। रात के दो बजे कॉल किस लिए किया था?'

‘हमें नहीं पता। बॉस ने याद किया था। आज फिर तीन बजे बात करेंगे।'

‘ठीक है।' -कहते हुए भारत ने स्‍विच आफ कर दिया। और ‘माँ' पुकारते हुए जैसे ही वह पलटा मुझे दरवाजे पर ही खड़ा देख कर सकपका गया।

‘क्‍या बात है बेटा? क्‍या दुश्‍मनों ने हमला कर दिया है।'- मैंने डरते हुए पूछा।

‘अरे नहीं माँ, वैसे ही कुछ और काम था।'- उसने अचकचाते हुए कहा।

मुझे लगा कुछ गड़बड़ जरूर है। फिर भी अपने को सामान्‍य बनाते हुए बोली- ‘चल पानी गरम हो गया है, नहा ले। तब तक मैं नाश्‍ता लगा देती हूँ।'

खाना खाने के बाद भारत सो गया लेकिन मेरा मन दिन भर इसी उधेड़-बुन में लगा रहा। आखिर घड़ी के अलार्म से सारी वार्ताओं का सम्‍बन्‍ध है? शायद कोई गुप्‍त सूचना रही होगी जो टेलीफोन से नहीं दी जा सकती होगी। आजकल टेलीफोन सिस्‍टम भी तो विश्‍वसनीय नहीं रहे। अगले ही पल फिर सोचने लगी कि अक्‍सर भारत के पिता बताया करते थे कि आर्मी के कुछ अधिकारी देश के साथ गद्‌दारी करके बहुत से महत्‍वपूर्ण राज विदेशी जासूसों को दे रहे हैं। नहीं.... ये मैं क्‍या ऊल-जलूल सोचने लगी? अपना भारत ऐसा नहीं कर सकता। सिर को जोर से झटका देते हुए, मैं इस बात को दिमाग से बाहर निकालने का प्रयत्‍न करने लगी। लेकिन अगले ही पल मन फिर सोचने लगता कि कहीं ऐसा ही हुआ तो.... फिर मेरे सारे अरमानों का क्‍या होगा? क्‍या भारत के पिता का बलिदान व्‍यर्थ जाएगा? .... नहीं ..... मैं ऐसा हरगिज न होने दूंगी। देशहित मेरे सामने पहले है। लेकिन फिर सोचती..... भारत भला ऐसा क्‍यों करेगा?

इसी ऊहा-पोह में सभी कार्य निपटाने के बाद में सोने चली गई। नींद आँखों से कोसों दूर लग रही थी फिर भी मैं आँखें बन्‍द किये सोने का अभिनय कर रही थी। दिल जोर से धड़क रहा था। कहीं मेरी शंका सही निकली तो... हे भगवान, ये मेरे किन कर्मों की सजा दे रहा है। जवानी में पति खो दिया। अब बुढ़ापे में मेरा एक ही तो सहारा है। लेकिन मुझे ऐसा सहारा हरगिज नहीं चाहिए जो देशद्रोही हो। वो मेरा सहारा नहीं शत्रु है। मैं खत्‍म कर दूंगी उसे।

सोचते-सोचते जाने नींद ने कब आ घेरा। टेलीफोन की घंटी बजते ही भारत ने रिसीवर उठा लिया- ‘हलो, कैप्‍टन भारत स्‍पीकिंग।'

‘अपने समस्‍त अड्‌डों का नक्‍शा और अस्‍त्र-शस्‍त्रों का विवरण शीघ्र दीजिए।'

‘कहा और कब?'

‘अब से एक घंटे बाद, सीमा पार हमारा आदमी मिलेगा जो आपको सही जगह पहुँचा देगा।'

‘पहचान क्‍या रहेगी?'

‘‘कोट में काला गुलाब।''

‘ठीक है।' - कहते हुए भारत अलमारी में से फाइलें निकालने लगा। कुछ देर बाद चलने के लिए जैसे ही वह अपनी कुर्सी से उठा कि मैंने फुर्ती के साथ रिवाल्‍वर से गोली दाग दी। गोली लगने के साथ ही वह जमीन पर गिर पड़ा। मैं संज्ञाशून्‍य उसके निस्‍तेज शरीर को देखे जा रही थी। अचानक मेरा ममत्‍व जाग उठा। मैंने ये क्‍या कर दिया? अपने ही हाथों मैंने अपनी ममता का गला घोंट दिया। मैं भारत के बिना नहीं जी सकती। नहीं मैं भी जीवित नहीं रहूंगी। नहीं..... नहीं....।

घबरा कर मेरी आँख खुल गई। ये कैसा भयानक सपना देख रही थी मैं। इसमें तो मेरी दुनिया ही उजड़ गई थी। नंगे पैर ही मैं भारत के कमरे की ओर दौड़ी। वह मेज पर झुका कुछ लिखने में व्‍यस्‍त था। उसके चारों ओर फाइलें बिखरी पड़ी थीं। ये देख मुझे राहत मिली। घड़ी की ओर देखा, तीन बजने में अभी देर थी। फ्रिज से बोतल निकाल कर मैंने पानी पिया। भारत से भी पानी के लिए पूछा।

‘हाँ माँ, ला दो।'

पानी का गिलास जैसे ही मैंने मेज पर रखा कि अलार्म बज उठा। तुरन्‍त ही घड़ी का स्‍विच आन करके भारत बोला- ‘हलो कैप्‍टन भारत हियर।'

मैंने झट से बन्‍द दरवाजे से कान सटा दिये। दूसरे कमरे में बात कर रहे भारत की बातें सुनाई पड़ रही थीं ‘अब से एक घंटे बाद, सब सामान के साथ पहुँचो।' - दूसरी ओर से आदेश मिला।

‘ठीक है, पर मेरे हिस्‍से का ध्‍यान रखना।' - कहकर भारत ने स्‍विच आफ कर दिया। फिर जल्‍दी-जल्‍दी सभी फाइलें समेट कर चलने के लिए तैयार होने लगा तो मैं झटपट एक ओर हो गई। मेरे दिल को धक्‍का सा लगा। ये क्‍या! ये सब तो सपने की तरह ही घटित हो रहा है। तो क्‍या मुझे सपने की तरह ही करना पड़ेगा। नहीं ऐसा मैं नहीं कर सकूंगी। लेकिन भारत अपने देश के साथ जो गद्दारी करने जा रहा है उसे भी हरगिज वैसा नहीं करने दूंगी। और मैं पलक झपकते ही भारत के सामने जा पहुँची- ‘ये सब क्‍या कर रहे हो भारत?'

‘कुछ नहीं माँ, कुछ भी तो नहीं।'

‘देखा भारत तुम मुझसे कुछ छुपा रहे हो। बेटे, देश के साथ गद्दारी करने वालों का नाम कभी अमर नहीं हुआ।'

‘नहीं माँ, तुम्‍हें भ्रम हुआ है।'

‘भ्रम और मुझे? फिर ये सब क्‍या है। घड़ी के अलार्म के साथ गुप्‍त सूचनाएं और .... गद्दारी ही करने जा रहे हो न ?'

‘हाँ-हाँ मैं गद्दारी करने जा रहा हूँ, बस।'

‘अरे करम जले' क्‍या इसी दिन के लिए तुझे पैदा किया था कि तू मेरे और अपने पिता के सपनों को मिट्‌टी में मिला कर देश को फिर से गुलाम बना दे। लेकिन मैं ऐसा हरगिज न होने दूंगी। -अपनी साड़ी में छुपी पिस्‍तौल निकाल मैंने भारत पर तान दी- ‘खबरदार, मैं भी देश भक्‍त की पत्‍नी हूँ। यदि तूने कमरे से बाहर जाने की जरा भी कोशिश की तो ये सारी की सारी गोलियाँ तेरे सीने में उतार दूंगी।'

भारत ने एक झपट्‌टे में ही पिस्‍तौल मेरे हाथ से छीन ली। मेरा सिर दीवार से जा टकराया। आँखों के आगे अंधरा छाने लगा और फिर मैं बेहोश हो गई।

सूर्य की पहली किरण के साथ ही चिड़ियों का चहचहाना कानों में पड़ा तो मैंने मिचमिचाते हुए आँखें खोलीं। सिर टकराने के कारण चोट में दर्द महसूस हुआ और रात की सारी घटनाएं आँखों के सामने ताजा हो उठीं। शरीर एकदम से शिथिल पड़ चुका था। भारत को देश के साथ गद्दारी करने से रोक न पाई मैं। इस ग्‍लानि से मन खूब रो रहा था। मेरा सारा जीवन व्‍यर्थ गया।

कॉल बैल लगातार बजती जा रही थी। पड़ोस का बंटी जोर-जोर से कह रहा था, ‘आन्‍टी दरवाजा खोलो, देखो आज के अखबार में भारत भैया का फोटो छपा है।'

दरवाजे का सहारा लेकर उठते हुए मैंने दरवाजा खोल दिया और बंटी के हाथ से अखबार लेकर पढ़ने लगी। ‘बुद्धिमान युवा कैप्‍टन भारत ने अपने प्राणों की परवाह न करते हुए, दस्‍तावेज थमाने के बहाने दुश्‍मनों के ठिकानों का पता लगाकर उन्‍हें करारी शिकस्‍त दी। कैप्‍टन भारत इस कार्य के लिए सम्‍मानित किए जायेंगे।' - पढ़ते-पढ़ते ही मेरी आँखों में खुशी के आँसू छलछला आये और सीना गर्व से स्‍वतः ही फूल गया। कुछ ही देर में दरवाजे पर आकर एक जीप रुकी। जीप से उतर कर भारत मेरे पैरों पर गिर पड़ा और फफक-फफक कर रोने लगा- ‘माँ मुझे रात किए गए बर्ताव के लिए माफ कर दो। उस समय आपको सही बात न बता पाने की मेरी मजबूरी थी क्‍योंकि दुश्‍मनों के जासूस हमारी सभी बातों पर निगरानी रखे हुए थे। रात भावुकतावश जरा सा भी भेद खुल जता तो मैं अपने मिशन में कामयाब नहीं होता। मुझे माफ कर दो माँ।'

‘नहीं बेटे, तूने तो आज मेरा और अपने देश का मस्‍तक बहुत ऊँचा कर दिया है। मुझे तुझसे यही उम्‍मीद थी।

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(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)

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रचनाकार: शशि पाठक का कहानी संग्रह - अपरिमित : (9) अलार्म
शशि पाठक का कहानी संग्रह - अपरिमित : (9) अलार्म
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