अपरिमित (कहानी संग्रह) श्रीमती शशि पाठक प्रकाशक जाह्नवी प्रकाशन दिल्ली - 32 © श्रीमती शशि पाठक -- तान्या गाड़ी से उतर तान्...
अपरिमित
(कहानी संग्रह)
श्रीमती शशि पाठक
प्रकाशक
जाह्नवी प्रकाशन दिल्ली-32
© श्रीमती शशि पाठक
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तान्या
गाड़ी से उतर तान्या ने स्टेशन पर इधर-उधर नजर दौड़ाई पर दूर तक कोई परिचित न दिखा। ‘क्या इतनी अजनबी हो गई है उसकी जिन्दगी?' - तान्या ने मन ही मन सोचा फिर गुजरे समय के बारे में मनन करने लगी। सोचने लगी कि वह तब खुश थी या अब? ऐसे ही सोचते-सोचते बढ़ी जा रही थी कि तभी रिक्शे वाले की आवाज ने तन्द्रा भंग कर दी-
‘‘कहाँ जाना है, बीबी जी?''
उसने चौंकते हुए पूछा- ‘‘राधिका बिहार चलोगे?'' कहने के साथ ही रिक्शे वाले के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही उसने अपना सामान रिक्शा में रख दिया। रिक्शा चल पड़ा और उसी के साथ चल पड़ी उसकी यादें।
तीन बहनों में सबसे बड़ी थी वह। रूप-लावण्य में भी सबसे इक्कीस। छरहरा बदन, गौर वर्ण, लम्बे-लम्बे केश और तीखे नाक-नक्श। अधिक पढ़ी लिखी न होते हुए भी निरन्तर आगे बढ़ने की लालसा वाली।
तेजी से बढ़ती जा रही तीनों बहनों को देख-देख कर पिताजी हर समय परेशान से रहते। कैसे हो पायेगी- तीन-तीन लड़कियों की शादी।
माँ समझाती- ‘क्यों चिन्ता करते हो जी। देखना हमारी लड़कियों को कोई यों ही ले जायेगा, बिना किसी दान दहेज के।'
जानती हो, बिना दान-दहेज के कैसे रिश्ते मिलते हैं। या तो लड़के में कोई खोट होता है या घर-परिवार में कोई दाग।
एक दिन पिताजी दफ्तर से लौटे तो अति प्रसन्न दिखाई दिए। आते ही बोले- ‘तान्या की माँ, तुम ठीक ही कहती थीं। आज मुझे अपनी तान्या के लिए वर मिल गया। दान-दहेज की बिल्कुल भी मांग नहीं। लड़के की पहली पत्नी को गुजरे हुए एक वर्ष हुआ है। लड़का बैंक में कैशियर है।'
‘‘फिर तो उसके दो-तीन.....''
‘नहीं-नहीं बच्चा कोई नहीं है।' माँ द्वारा शंका प्रकट करने से पहले ही पिताजी ने भाँप लिया, -‘बड़ी सुखी रहेगी अपनी तान्या।'
शादी की तैयारी होने लगीं और हर लड़की की तरह तान्या भी सुनहरे सपने संजोये, पिया के घर आ गई।
ससुराल में सबका भरपूर प्यार मिला। हँसी-खुशी से दिन बीत रहे थे। ससुराल वालों की सहमति लेकर तान्या ने आगे की पढ़ाई जारी रखी थी। न जाने कब फुर्र से एक वर्ष बीत गया। एक दिन अचानक उसकी तबियत खराब हो गई। डॉक्टर बुलाया गया। पता चला कि वह माँ बनने वाली है। सुनकर वह बेहद खुश हुई। पर उस पीरियड में उसकी परीक्षाएं चल रही होंगी। कैसे जायेगी परीक्षा देने, ऐसे में। सोच-सोच कर ही वह शर्म से गढ़ी जा रही थी।
परीक्षा के बाद कुछ दिनों के अन्तराल से ही उसकी गोद में पलक आ गई। एक दम गोल मटोल, सुन्दर सी बिटिया को देख-देख वह फूली न समाती। सासजी भी पलक को देखकर खुश होतीं तथा सारा समय पलक का ध्यान रखतीं।
कुछ तो तान्या का स्वयं का प्रयास तथा कुछ सास जी का भरपूर सहयोग, उसने बी.ए. और फिर बी.एड. भी कर ली। बी.एड. करने के कुछ समय बाद ही नजदीक के एक विद्यालय में उसकी नियुक्ति हो गई।
एक दिन घर में बैठी यूँ ही कुछ सोच रही थी कि किसी ने दरवाजा नोंक किया। दरवाजा खोलते ही एक अजनबी पुरुष दिखाई दिया। उसने सवालिया नज़र से उसे घूरा।
‘‘क्ष्ामा करें, मेरी भतीजी आपकी कक्षा में पढ़ती है। उसने बताया कि आपने मुझे बुलाया है।'
‘‘क्या नाम है आपकी भतीजी का?''
‘जी, रागिनी।'
‘‘अच्छा तो आप रागिनी के चाचाजी हैं।''
‘जी, कहिए कैसे बुलाया था?'
‘‘आप उसकी पढ़ाई पर जरा ध्यान दीजिए वरना ऐसा ही रहा तो गणित में फेल हो सकती है।''
‘फिर क्या किया जाय मैडम। आप ट्यूशन पढ़ा सकती हैं?' उसके भावों को पढ़ते हुए वह बोला।
अपने मनोभावों को छुपाते हुए वह बोली-
‘‘देख लीजिए, शाम को समय निकाला जा सकता है।''
‘ठीक है, कल से ही रागिनी आ जायेगी।'
रागिनी को ट्यूशन पढ़ाते-पढ़ाते उसे 4-5 ट्यूशन और मिल गये। जिससे उसकी आर्थिक स्थिति में सुधार होने लगा और उसी के साथ उसकी भावनाओं में भी तेजी के साथ परिवर्तन होने लगा। अब वह अपने पति विनायक पर समय-समय पर दबाव डालने लगी कि वह अपने माँ-बाप से अलग, कहीं अन्य जगह रहे। कभी-कभी इसी बात को लेकर झगड़ा भी उठ खड़ा होता घर में। अन्ततः विनायक के माँ-बाप ने ही, विनायक को समझा कर बहूँ की इच्छानुसार अलग रहने का प्रबन्ध कर दिया।
तान्या का रुझान पैसों की ओर बढ़ता ही जा रहा था। शुरू से ही घर में पैसों का अभाव देखा था इसलिए पैसों से सारी खुशियां खरीदने का दम भरने लगी। अब वह घर भी कभी-कभी देर से आने लगी। जो दाम्पत्य में कलह का कारण बनने लगा। धीरे-धीरे पास-पड़ोस में भी काना फूंसी होने लगी।
एक दिन तान्या जैसे ही घर में घुसी, बच्ची के जोर-जोर से रोने की आवाज सुनाई पड़ी। तान्या को आया देख विनायक तेज स्वर में चीखे, - ‘‘आ गईंगुलछर्रे उड़ा कर। बच्ची का रो-रो कर बुरा हाल है। कुछ इसकी भी चिन्ता है।''
‘आया तो थी घर में' -तान्या ने कहा और बच्ची को उठाकर अपने सीने से लगा लिया।
‘‘आया आज आई ही नहीं। तुम्हें कुछ पता भी रहता है।'' विनायक ने उसी तेज आवाज में कहा तो वह सहम गई।
एक झटके के साथ रिक्शा रुका और उसी के साथ तान्या भी वर्तमान में आ गई। शायद कोई बच्चा सामने आ गया था।
‘‘देख के सड़क पार नहीं कर सकते। अभी कुछ हो जाता तो सब हमें ही मारते''- रिक्शे वाले का बड़बड़ाना जारी था।
‘अरे, अब छोड़ो भी'- घर पहुँचने की जल्दी में तान्या ने कहा। अभी तो आधी दूरी ही तय हुई है। इतना ही और चलना पड़ेगा। रूपम के सामने से गुजरते हुए यादों की रील फिर से चल पड़ी।
उस दिन के बाद तान्या का देर से घर आने का क्रम बढ़ता ही गया। विनायक जितना ही उसे बुरा-भला कहते, उसे जलील करते, उतनी ही अधिक विद्रोह की भावना उसके अन्दर प्रबल होने लगी। उसके घर में घुसते ही कलह शुरू हो जाती तथा विनायक के विष बुझे शब्द झेलने को मजबूर वह, बिस्तर पर लेट, फफक-फफक रो पड़ती।
पलक अब बड़ी हो रही थी। उसका नाम भी तान्या ने अपने पास के स्कूल में लिखा दिया। कई बार सोचा कि नौकरी छोड़कर अपनी घर ग्रहस्थी को सम्भाले पर हर बार घर की आर्थिक स्थिति को देख, नौकरी छोड़ने का विचार बदलना पड़ा। पर विनायक का दिनों-दिन आक्रामक और शकी होता जा रहा व्यवहार उसे अन्दर तक बींध जाता।
एक दिन तो हद ही हो गई। वह बाहर से आकर अपने कमरे में कदम रखने ही वाली थी कि पति की बातें सुनकर ठिठक गई।
विनायक पलक से बड़े प्यार से पूछ रहे थे- ‘‘हाँ तो बेटी, कौन-कौन से अंकल आते हैं तुम्हारी माँ से मिलने?''
पलक बेचारी इन बातों को क्या समझे। वह पापा की बातों का मतलब समझे बिना, जितने भी अभिभावक दिन भर में तान्या के पास आये थे, उनके नाम गिनाने लगी- ‘‘गुप्ता अंकल, शर्मा अंकल, यादव अंकल और ......।''
‘बस करो, बच्ची से क्या पूछ रहे हो, मुझसे पूछो न'- घायल शेरनी सी वह दहाड़ उठी। मन के कोमल भाव जाने कहाँ तिरोहित हो उठे।
‘‘हाँ, हाँ, मैं सब जानता हूँ। मुझे किसी से कुछ पूछने की जरूरत नहीं।'' अपनी पुरुष जाति का अहसास कराते हुए विनायक बोले।
उस रात नींद न आने के कारण सिर भारी हो गया। सुबह बिस्तर से भी न उठ सकी। इसी कारण विद्यालय भी न जा सकी। सोचा दो-चार दिन की छुट्टी ले ले। घर पर रहेगी तो शायद कुछ शान्ति रहे। लेकिन एक दिन तो काटे नहीं कटा, दो-चार दिन कैसे कटेंगे। यही सोचकर वह दूसरे ही दिन विद्यालय पहुँच गई।
विद्यालय पहुँचते ही, प्राधानाचार्य जी से आमना-सामना हो गया- ‘अरे तान्या जी, कल क्यों नहीं आई? तबियत तो ठीक है न आपकी?'
‘‘तबियत ही खराब हो गई थी सर, इसलिए.....।''
‘अरे भई, तबियत ठीक रखिए' -कहते हुए वे अपने चैम्बर में चले गये। उसने राहत की सांस ली।
शाम को घर जाते समय, रास्ते में ही डॉ. माथुर के क्लीनिक के सामने उसने सोचा कि वह चैकअप कराती चले। क्लीनिक में ज्यादा भीड़ न थी। एक-दो मरीज देखने के बाद ही डॉ. माथुर ने उसे बुला लिया-
‘‘कहिए तान्या जी, तबियत तो ठीक है? कैसे आना हुआ।''
‘तबियत ही कुछ गड़बड़ है इसलिए सोचा कि.....।'
‘‘ये तो आपने अच्छा किया। लापरवाही करने से तबियत और बिगड़ती है।'' -डॉ. माथुर बोलीं।
चैकअप के बाद डॉ. माथुर ने जो बताया उसके लिए वह बिल्कुल भी तैयार नहीं थी। - ‘मुबारक हो आप फिर से माँ बनने वाली हैं।'
‘‘क्या! डॉ. यह क्या कह रही हैं आप?''
‘वही जो चैकअप के बाद पाया। और फिर, अब तो आपकी बेटी भी कई वर्ष की हो गई है।'
घर पहुँच कर वह चुप ही रही। रात को जब विनायक को बताया तो, विनायक के तेवर देख वह सकते में आ गई। वह तो सोच रही थी कि विनायक एकदम से खुश हो उठेंगे, पर विनायक ने जो कहा, सुनकर लगा जैसे किसी ने पिघला सीसा उसके कानों में भर दिया हो।
‘‘मेरा तो है नहीं, किसका पाप है ये?''- कहा था विनायक ने। अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ उसे। क्या एक पति, अपनी पत्नी पर इस सीमा तक अविश्वास कर सकता है? इनकी सोच इतनी गिरी हुई हो सकती है?
छिः नफरत हो आई उसे विनायक से। औरत सब कुछ बर्दास्त कर सकती है पर अपने दामन पर उछाले कीचड़ को नहीं।
‘‘ये, ये क्या कह रह हैं आप?'' - भावावेश और क्रोधवश वह रो पड़ी।
‘सच कह रहा हूँ। सच कितना कड़वा होता है न तान्या जी?'' -विनायक ने व्यंग्य से कहा।
लानत है ऐसे पति पर और ऐसे पत्नी धर्म पर। वह तो इस घर की सुख-सुविधाओं के लिए तिल-तिल कर जलती रही, उसका ये परिणाम मिला। चरित्र पर उंगली उठाने वाला कोई और नहीं, अपना पति ही है। जो अग्नि के सात फेरे लेकर उसे अपनी पत्नी बनाकर लाया था। अर्द्धांगिनी।
बहुत सह लिया। यह भी सह गई तो जीवन दूभर हो जायेगा। नहीं, अब नहीं। अब तो कुछ करना ही पड़ेगा। नफरत हो गई है इस पति से अब।
और उसी भावावेश में उसने वह कठोर निर्णय ले डाला।
पलक को हॉस्टल में डालने के बाद उसने तलाक के लिए केस दायर कर दिया। जानते-बूझते हुए भी कि पुरुष प्रधान इस समाज में वह राह भी इतनी आसान नहीं। उस राह में भी अनेक व्यवहारिक परिस्थितियों का सामना उसे करना ही पडे़गा। इतने बड़े घर की सूनी दीवारों के बीच, एकाकीपन और सामाजिक परम्पराओं के शूल उसे छलनी करेंगे।
पर कदम-कदम पर पीने पड़ रहे अपमान के घूंटों की तुलना में, ये सब तुच्छ लगे।
खुले आसमान के नीचे, उसने अपने को आजाद पंछी सा महसूस किया, जो उड़ सकता है कितनी भी ऊँचाई तक, कहीं भी।
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