अपरिमित (कहानी संग्रह) श्रीमती शशि पाठक प्रकाशक जाह्नवी प्रकाशन दिल्ली - 32 © श्रीमती शशि पाठक -- अपरिमित बच्चों के हाथ में...
अपरिमित
(कहानी संग्रह)
श्रीमती शशि पाठक
प्रकाशक
जाह्नवी प्रकाशन दिल्ली-32
© श्रीमती शशि पाठक
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अपरिमित
बच्चों के हाथ में नई-नई पिचकारियां देखकर मैं पूछ बैठी-
‘‘अरे राजू-गुड़िया, ये पिचकारियां तुम कहाँ से लाये?''
‘‘दो-तीन मकान छोड़कर जो चौथा मकान है, उसमें जो आण्टी हैं उन्होंने हम सभी से अंत्याक्षरी कराई फिर जो बच्चा प्रथम आया उसको उन्होंने पिचकारी दी और साथ में ये रंग भी दिये।'' राजू ने पेन्ट की जेब में हाथ डालकर कुछ रंग दिखाते हुये कहा।
बच्चों की बात सुनकर अचानक मेरे अन्तस में कुछ उमड़ने-घुमड़ने लगा और उसी के साथ मैं लगभग 35 साल पहले के अपने बचपन में पहुँच गई और याद हो आई पूनम दीदी जो सब बच्चों को अपने घर बुलाकर पहले सबके गुलाल लगाती थी और उसके बाद सबको मिठाइयाँ आदि खिलाने के बाद सारे बच्चों की दो टोली बना देतीं फिर शुरू कराती अंत्याक्षरी। जो टोली जीत जाती उसे एक-एक पिचकारी देती थी और कई तरह के रंग बाँटती। फिर उनकी शादी हो गई। उनके पति देहरादून में एक कम्पनी में सुपरवाइजर थे। शादी के बाद दीदी कभी-कभी पीहर आती थी लेकिन होली पर कभी नहीं आ पाई। हम लोगों को होली पर उनकी बहुत याद आती। धीरे-धीरे उनका मायके आना भी बन्द हो गया। फिर पापा का ट्रांसफर रुड़की हो जाने के कारण मैं मम्मी-पापा के साथ रुड़की आ गई। मैंने मन में सोचा-हो न हो पूनम दीदी ही ट्रान्सफर होकर यहाँ आ गई होगी। दूसरे ही क्षण सोचा हो सकता है कोई और भी हो, जो इस तरह से होली पर पिचकारी और रंग देता हो?
‘‘क्या सोचने लगी मम्मी जी? खाना दो, भूख लगी है।'' राजू की आवाज से मैं एक झटके के साथ वर्तमान में आ गई।
‘‘कु....छ.... नहीं''- अचानक मैं हकला गई जैसे कोई चोरी करते हुए पकड़ी गई होऊं। खाना देने के दौरान मैं बच्चों से उनके बारे में और जानकारियां लेने लगी।
‘‘वो देखने में कैसी लगती हैं, कितनी उम्र होगी उनकी?''
‘‘देखने से क्या मतलब..... अच्छी लगती हैं। यही कोई 50-55 की उम्र होगी''- राजू ने खाना खाते-खाते कहा।
पचास-पचपन की उम्र से तो लगता है कि शायद वही हों। मैंने मन ही मन सोचा। लेकिन उनके ठोड़ी पर तिल भी था। ‘‘उनके ठोड़ी पर तिल भी है क्या?'' मैंने सोचते-सोचते जाने कब पूछ लिया।
‘‘ओफ्फो मम्मी.... आपको तो सी.आई.डी. में होना चाहिये था। उन्होंने हमें कुछ दिया ही है लिया नहीं। आप तो वैसे ही घबड़ा गइर्ं।'' कह कर दोनों हँसते-हँसते खाना खाने लग गये। सुनकर मैं भी झेंप सी गई। इनको क्या पता कि पूनम दीदी के साथ मेरी कितनी यादें जुड़ी हैं। यदि यह वही हुई तो....
दूसरे दिन जल्दी-जल्दी सारा काम निबटाकर मैं उनके घर पहुँच गई। दरवाजा एक अधेड़ सी औरत ने खोला तो मैं देखकर सकुचा गई। सोफे पर बैठने के बाद मैं सोचने लगी कि क्या बात करूँ, तभी उस महिला ने पूछा-
‘‘क्या नाम है आपका......''
‘‘माधुरी, और आपका?'' उत्तर देने के साथ-साथ मैंने भी प्रश्न पूछ लिया।
‘‘रेवती'' उसने जबाव दिया।
सुनकर मेरा उत्साह एकदम ठण्डा हो गया था। जो मैं सोच रही थी ये वो नहीं ....... शायद....ये कोई..... इनको भी होली पर........।
‘‘कौन है रेवती?,‘‘ अन्दर से आवाज आई। तो घर में कोई और भी है।
‘‘माधुरी जी आई हैं मेमसाब'' रेवती ने कहा तो मुझे अनुमान लगाने में जरा भी देर न हुई कि रेवती घर की नौकरानी है। थोड़ी देर पश्चात् जो चेहरा मेरे सामने आया उसे देखकर मैं ठगी सी रह गई और मेरे हाथ नमस्ते की मुद्रा में जुड़ गये।
‘‘मैंने पहचाना नहीं। आप कौन हो बेटी?''
‘‘पहचानोंगी भी कैसे। जब हम मिले थे तो मैं बहुत छोटी थी। अक्सर होली पर ही आपसे मुलाकात होती थी। याद करिये मेरठ में जो शर्मा जी थे। मैं उन्हीं की लड़की माधुरी हूँ।''
उन्होंने कुछ याद करने का प्रयास किया फिर शायद कुछ याद आ गया वो बोल उठीं- ‘‘अच्छा.... वो माधुरी जो बहुत मधुर गाती थी। कहो क्या हाल है? सब ठीक है न''- मुझे अपने से चिपटाते हुए वे बोलीं।
‘‘हाँ सब ठीक है, आप सुनाइये। बच्चों के हाथ में पिचकारी और रंग देख कर मुझे आपकी याद आ गई। बता नहीं सकती कि आपको यहाँ देख कर मुझे कितनी खुशी हुई है।'' मैंने भावुक होते हुए कहा।
‘‘रेवती जरा गुजिया, मठ्ठी लाना''- उन्होंने रेवती को आवाज दी।
थोड़ी देर में दो गिलास पानी और गुजिया, मठ्ठी, नमकीन के साथ रेवती कमरे में आई और ये सब चीजें मेज पर रख कर बाहर चली गई। हम दोनों बातों में मशगूल हो गइर्ं।
‘‘दीदी, आपकी शादी के बाद आज पहली बार होली पर मिलना हो रहा है। इतने दिन आप कहाँ रहीं?'' - मैंने हुमस कर पूछा।
‘‘तुम ही नहीं मिलती थीं, मैं तो कितनी बार मेरठ गई थी।''- दीदी ने मेरी ओर देखा।
‘‘हाँ, पापा का ट्रांसफर रुड़की हो गया था न। भाई ने वहीं से इंजीनियरिंग की पढ़ाई की और बी.ए. करते ही मेरी शादी हो गई। अब दो बच्चे हैं एक लड़का राजू दूसरी लड़की गुड़िया। आपके कितने बच्चे हैं दीदी? - मेरे पूछने पर अचानक वह गंभीर हो उठीं फिर निःश्वास छोड़ते हुए बोलीं -
- ‘‘बच्चे, बच्चे ही तो नहीं हुए माधुरी।'' - इतना कहते ही उनकी आँख्ों भर आयीं।
मैं अपने-आपको कोसने लगी कि क्यूँ बच्चों के बारे में पूछकर इनका दिल दुखाया। फिर भगवान के ऊपर गुस्सा भी आया कि बच्चों से इतना प्यार करने वाली दीदी, आज अपने बच्चों के लिये तरस रही हैं।
‘‘आपने कोई बच्चा अनाथालय से गोद क्यों नहीं ले लिया दीदी?'' - मेरे पूछने पर वह और अधिक संजीदा हो उठीं-
‘‘नवजात शिशु ही लिया था। रात-रात भर जाग कर उसकी परवरिश करती थी। खूब बड़ा हो गया था। स्कूल भी जाने लगा था पर शायद भगवान को मेरी खुशियां मंजूर न थीं इसलिये एक दिन वेन से स्कूल जाते समय.... हँसते-खेलते मेरे राजा को मुझसे छीन लिया।'' ये बताते-बताते दीदी की आँखों से झर-झर आँसू बहने लगे।
मैंने दीदी को सांत्वना दी- ‘‘दीदी, ऊपर वाले की मरजी के आगे आदमी की क्या चलती है।''
‘‘हाँ, ये तो है, उन्होंने अपने को सामान्य बनाने का प्रयास करते हुए कहा- ‘‘तुम सुनाओ कैसी हो?''
‘‘मैं तो ठीक हूँ। पति डॉक्टर हैं। बच्चों से आप मिल ही चुकी हो। आप बताइये कि इतने बड़े मकान में कैसे रहती हो?''
‘‘आज तो छुट्टी है, वर्ना ये मकान बच्चों की किलकारियों से गूँजता रहता है। रिटायरमेन्ट के बाद मैंने ये बड़ा सा मकान लिया। इसमें दो कमरे अपने लिये रखकर शेष मकान में विद्यालय चला दिया है। मैं और मेरे पति इसका संचालन करते हैं। बस, इसी में व्यस्त रहते हैं। समय का पता ही नहीं चलता।
‘‘अम्मा जी आपने जो सब्जियां मँगाई थीं हम ले आए हैं''- कहते हुए दो लड़कों ने थैला दीदी के सामने रख दिया तो दूसरी ओर से दो बच्चे और आ गये....
‘‘दादी अम्मा, आप क्या कर रही हो?'' कहते हुए बच्चों ने दीदी के गले में अपनी नन्हीं-नन्हीं बाँहें डाल दीं।''
दीदी ने बच्चों को अपने सीने से लगाया और उनके सिर पर हाथ फिराने लगीं।
मुझे लगा कि दीदी का व्यक्तित्व सीमाओं से परे, विराट हो उठा है।
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)
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