अपरिमित (कहानी संग्रह) श्रीमती शशि पाठक प्रकाशक जाह्नवी प्रकाशन दिल्ली - 32 © श्रीमती शशि पाठक -- बन्धन बरखा का पत्र पाकर...
अपरिमित
(कहानी संग्रह)
श्रीमती शशि पाठक
प्रकाशक
जाह्नवी प्रकाशन दिल्ली-32
© श्रीमती शशि पाठक
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बन्धन
बरखा का पत्र पाकर मैं अत्यन्त प्रसन्न हुआ। लिखा था- ‘हम लोग 10 तारीख को छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस से आ रहे हैं।' पढ़कर हृदय में प्रसन्नता हुई और मैं 10 तारीख का इन्तजार करने लगा।
10 की सुबह जल्दी-जल्दी तैयार होकर और आराधना को नाश्ते में क्या-क्या बनाना है की हिदायत देकर मैं स्टेशन के लिए रवाना हो गया। रास्ते भर बरखा के साथ बिताये क्षण एक रील की भाँति प्रत्यक्ष होने लगे।
बरखा और मेरे परिवार का प्रेम-भाव सभी लोगों के बीच मिसाल बना हुआ था। बरखा अपने माँ-बाप की इकलौती सन्तान थी और इधर मैं।
मुझे हमेशा, बहन की कमी सालती रहती थी। बरखा को पाकर मेरे जीवन में उस कमी की भी पूर्ति हो गई। हम दोनों के बीच एक भावनात्मक सम्बन्ध बन गया था। अब हर बात हम जब तक एक-दूसरे को नहीं बता देते तब तक चैन न मिलता।
हमारे परिवारों के बीच भी बहुत घनिष्ठता थी। छुटपन से ही हम दोनों साथ खेलते, पढ़ते और कभी-कभी लड़ते भी। फिर प्रातः होते ही साथ-साथ स्कूल चले जाते। बरखा भी हर समय रोहित भैया, रोहित भैया की रट लगाये रहती।
हमारे इस प्यार को देख, अंकल-आंटी और मेरे मम्मी-पापा गद्गद् हो जाते। अब उन्हें खुशी थी कि मैं और बरखा प्रसन्न हैं। पहले हम दोनों ही, अकेले-अकेले उदास रहते थे।
अब अक्सर ही ऐसा होता कि कभी मैं बरखा के घर रुक जाता और कभी बरखा हमारे यहाँ रुक जाती। हम दोनों का प्रेम देखकर पापा-मम्मी और अंकल-आंटी इसे पूर्व जन्म का सम्बन्ध बताते।
एक बार मुझे टाइफाइड हो गया। बरखा रात-दिन मेरे पास बैठी रहती। सभी चिन्तित थे कि बरखा बीमार न पड़ जाय। उसे न खाने की सुध थी और न सोने की। हर समय भगवान से प्रार्थना करती रहती - ‘हे भगवान, मेरे भैया को ठीक कर दे।'
मेरे ठीक होने पर मुझसे चिपट कर खूब रोई। कहने लगी- ‘अब कभी बीमार मत पड़ना वरना तुम्हारी बरखा मर जायेगी।'
‘अरे पगली, बीमार भी कोई अपने आप होता है क्या? और मरें तेरे दुश्मन, मेरी बहना के रहते, मुझे कुछ नहीं हो सकता।' ऐसा कह मैं भी उसके सिर पर प्यार से हाथ फिराने लगा।
हम दोनों के किशोर मन की यह व्यग्रता देख पापा-मम्मी के आँसू छलछला आये। पर हमारे पास-पड़ोस के लोगों ने हमारी इस प्रेम भावना को दूसरा ही रूप देना शुरू कर दिया। और फिर यहाँ से शुरू हो गया पवित्र भावना पर समाज का कठोर प्रहार।
अब हमारे प्रत्येक हाव-भाव व क्रिया को गलत-नज़र से देखा जाने लगा। कालेज से लौटते में एक स्कूटर से दुर्घटना हो जाने पर बरखा की साईकिल टूट- फूट गई तब वह मेरे साथ दो-तीन दिन आने-जाने लगी तो इसी का तूफान उठ खड़ा हुआ।
‘‘जरूर ही इन दोनों में कुछ ऐसा-वैसा है, भाई-बहन का रिश्ता तो एक दिखावा मात्र है।''
यह सब सुन मुझे तो गुस्सा आ जाता। मैं बरखा से कहता- ‘तुम रिक्शा कर लिया करो। बेकार, फालतू बातों से दिमाग खराब होता है।'
तो वह झट से बोल पड़ती- ‘‘क्यों? क्यों कर लूँ रिक्शा? हम क्या किसी से डरते हैं। भौंकने दो इन्हें, ये क्या जानें भाई-बहन का प्यार क्या होता है।''
उड़ते-उड़ते ये बातें अंकल-आंटी और मम्मी-पापा के कानों में भी पड़ीं, पर उन्होंने इस पर कोई ध्यान न दिया।
पर एक घटना ने उन्हें उद्द्वेलित कर दिया। कुछ लोग बरखा को देखने आये थे, जिन्हें इन्हीं पड़ोसियों ने उल्टा-सीधा भड़का दिया जिससे वो लोग ‘लड़की बदचलन है' का आरोप लगा कर चले गये।'
तब मुझे महसूस हुआ कि युवावस्था में किया वही पवित्र प्यार, जो बाल्यावस्था में किया था, गलत न होते हुए भी समाज की निगाह में कितना गलत है। समाज उसे सहन नहीं कर पाता और बदनामी का लबादा उढ़ाने लगता है।
सब कुछ जानते, समझते हुए भी आंटी-अंकल ने भी समाज और बरखा की बदनामी के भय से आखिर एक दिन कह ही दिया-
‘‘रोहित बेटा, हम सब जानते हैं बरखा को इतना प्यार और सुरक्षा उसका सगा भाई भी शायद न दे पाता। पर यह समाज इन सब बातों को जाने, तब न। और बेटे, हम भी समाज का एक अंग हैं। उससे कट कर तो नहीं रह सकते। बेटा, किसी तरह बरखा को बदनामी से बचा लो।''
और उस दिन मेरा मन कितना आलोडित रहा। कितना उद्द्विग्न रहा। मैं अपने विचारों को स्थिर नहीं कर पा रहा था। एक बार मन में आया कि बरखा से शादी कर लूँ। पर मेरी आत्मा धिक्कारने लगी। जिसमें हमेशा बहन की छवि देखी उसे..... नहीं, ऐसा हरगिज नहीं हो सकता। कोई और दूसरा रास्ता अपनाना होगा। सारे दिन इसी उधेड़-बुन में व्यस्त रहा और रात भी इसी ताने-बाने में निकल गई।
रात को देर से सोने के कारण, सुबह को देर तक सोता रहा। आखिर मम्मी ने ही जगाया, ‘अरे रोहित, आज उठना नहीं है क्या? देख कौन आया है।''
मैं जम्हाई लेते हुए बैठक में आया तो प्रसन्नता से उछल पड़ा,- ‘अरे अमित तुम! तुम तो ट्रेनिंग पर थे न?'
‘‘हाँ था तो, पर अचानक माँ की तबियत खराब का तार मिला तो आना पड़ा।''- अमित अपनी बात बता ही रहा था तब तक माँ आ गई-
‘लो पहले चाय-पकौडे़ खाओ और हाँ, अमित तुम्हारा गर्म पानी रख दिया है। हाथ-मुंह धो लो।' चाय की चुस्कियाँ लेते हुए अमित फिर बताने लगा - ‘‘माँ को हाई ब्लडप्रेशर का दौरा पड़ा था। उनका कहना है कि उससे पहले कि मुझे कुछ हो जाय, तू बहू ले आ। अब यार, तू ही बता, इतनी जल्दी बहू कहाँ से लाकर दूँ उन्हें।''
‘हूँ, तो ये बात है। तो जनाब हमारे पास किसलिए आये हैं, मिलने या .... किसी का पता पूछने?'
‘‘अरे यार, तू तो मजाक करने लगा। सबसे पहले तो अपने मित्र से मिलने आया हूँ। कितने दिन बाद तो मिले हैं।''
‘हाँ, ये तो है।' अचानक बरखा का स्मरण हो आया और मैं गम्भीर हो गया।
‘‘क्या बात है रोहित, तुम अचानक गम्भीर कैसे हो गये?''
‘कुछ नहीं अमित, अचानक एक लड़की याद आ गई जो तुम्हारी माँ की समस्या हल कर सकती है। पर, सोचता हूँ, तुमसे कहूँ या न कहूँ। तुम भी तो इसी समाज के अंग हो।'
‘अरे, ये कैसी पहेलियाँ, बुझाने लगा रोहित? बता कौन है वो लड़की।'
वो लड़की मेरी बहन है बरखा। किन्तु आजकल समाज ने उसके और मेरे सम्बन्ध को लेकर कीचड़ उछालना शुरू कर दिया है। हमारे रिश्ते की पवित्रता पर धब्बा लगाने का प्रयास किया है। इसीलिए कोई भी लड़के वाला, उससे अपने लड़के की शादी करने को तैयार नहीं होता। फिर ऐसे में, मैं तुमसे कैसे कहूँ कि तुम..........।''
‘अरे उसी बरखा की बात कर रहे हो न, जो रोहित भैया, रोहित भैया कहते-कहते नहीं थकती थी। रोहित बुरा न मानना, मैं तुम्हारी बहन से शादी करने को तैयार हूँ।'
‘‘क्या सचमुच ही अमित? तू ये सब जान लेने के बाद भी उससे....।'' खुशी के मारे मेरी आँखों में आँसू छलछला आये थे और गला रुंधा जा रहा था।
‘हाँ, रोहित, समाज चाहे कुछ भी कहे, मुझे अपने मित्र पर पूर्ण विश्वास है। मैं बरखा से ही शादी करूंगा।'
‘‘भैया... रोहित भैया....।'' बरखा की आवाज ने विगत की यादों से निकाल, मुझे वर्तमान में ला दिया। सामने बरखा, अमित और प्यारे से भानजे को देख मैं खुशी से झूम उठा।
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