अपरिमित (कहानी संग्रह) श्रीमती शशि पाठक प्रकाशक जाह्नवी प्रकाशन दिल्ली - 32 © श्रीमती शशि पाठक -- नियति का दांव ‘‘मम्मी, ...
अपरिमित
(कहानी संग्रह)
श्रीमती शशि पाठक
प्रकाशक
जाह्नवी प्रकाशन दिल्ली-32
© श्रीमती शशि पाठक
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नियति का दांव
‘‘मम्मी, चाय पत्ती कहाँ रखी है?'' -राहुल ने पूछा तो मैं चौंकी। राहुल तो कभी चाय पीता नहीं फिर आज ये चाय पत्ती किसलिए पूछ रहा है। मैंने नहाना बन्द कर, बाथरूम में से ही पूछा-
‘‘क्यों? क्या करना है।''
‘‘चाय बनानी है मम्मी, जल्दी से बताओ न।'
‘‘कॉफी वाली शीशी में रखी है। शीशे वाली अलमारी में, नीचे के डिब्बों के पास। तुमको आज चाय पीने की जरूरत कैसे महसूस होने लगी, तुम तो चाय कभी नहीं पीते। कोई दोस्त आया है क्या?''
‘अरे नहीं मम्मी। आप नहाकर बाहर आओ, तब बताऊंगा।'
मेरे बाथरूम से निकलने तक राहुल की स्कूल बस आ गई थी। उसने जल्दी से बस्ता उठाया और लगभग भागते हुए बोला-
‘मम्मी जी, बाहर एक बूढ़ी अम्मा बैठी है, उसे चाय दे देना। मैंने प्याले में छानकर रख दी है।'
राहुल के स्कूल चले जाने के बाद, चाय का प्याला उठाकर मैं बाहर आई तो देखा बाहर कोई नहीं है। पड़ोस का अमित साईकिल पर बस्ता रखकर स्कूल जाने की तैयारी कर रहा था। मैंने उसी से पूछा-
‘‘अमित, यहाँ कोई बूढ़ी अम्मा देखी थी क्या बेटे?''
‘कौन सी बूढ़ी अम्मा, आण्टी जी? वो, एलीजावेथ की बात तो नहीं कर रही आप।'
‘‘नाम तो मुझे नहीं पता। राहुल स्कूल जाते समय कह गया था कि दरवाजे पर एक बूढ़ी अम्मा बैठी है।''
‘अरे, वही एलीजावेथ होगी। पूरी मस्त है! जहाँ उसका मन करता है वहाँ चल देती है और वहीं कुछ खाती-पीती भी है। आण्टी इसके कपड़े और डण्डा तो यहीं रखा है। फिर तो यहीं कहीं होगी वो। कुछ काम था आण्टी?'
‘‘नहीं बेटा, राहुल ने उसके लिए चाय बनाई थी। बूढ़ी अम्मा को देने की कह कर स्कूल को चला गया, वेन आ जाने के कारण।'' - कहते हुए मैं चाय का प्याला हाथ में लिए, मुड़ने ही वाली थी कि तभी एलीजावेथ आती दिखाई दी। उसके कपड़े जगह-जगह से फटे होने के बावजूद भी, साफ-सुथरे लग रहे थे। अपने सिर के बालों को भी ठीक से कंघी किए हुए थे उसने। प्रथम दृष्टि में वह कहीं से भी पागल या भिखारिन नहीं लग रही थी। बल्कि किसी सम्भ्रान्त परिवार की महिला लग रही थी।
मुझसे चाय का प्याला लेकर वह पास ही पेड़ के नीचे बैठ गई। मैं भी अन्दर आकर दैनिक कार्यों में लग गई, पर जाने क्यों, एलीजावेथ के चेहरे में ऐसा क्या था जिसने मेरे अन्दर उथल-पुथल सी मचा दी थी। ऐसा लग रहा था जैसे मैंने उसे पहले भी कहीं देखा है, पर कहाँ? याद नहीं आ रहा था। रह-रह कर उसकी सूनी आँखें जो जानी-पहचानी सी लग रही थीं, मुझे अपनी ओर आकृष्ट कर रही थीं।
मैं बार-बार याद करने की कोशिश करती पर कुछ भी याद न आ रहा था। ‘‘देखा होगा कहीं भीख मांगते हुए। भिखारी का क्या, कहीं भी मांगते हैं।'- सोचकर मैं अपने विचारों को झटकने का प्रयास करती और अपने काम में लग जाती। पर मन था कि उमड़-घुमड़ कर तालू पर चिपके पराठे पर बार-बार जाती जीभ की तरह ही, एलीजावेथ के इर्द-गिर्द ही घूमता रहा।
ड्राइंग रूम में बैठी मैं अखबार की सुर्खियों पर नजर दौड़ा ही रही थी कि अचानक एक शीर्षक को पढ़कर चौंक उठी। मैंने उस समाचार को पूरा पढ़ना शुरू किया। पढ़ते-पढ़ते एक पहेली की तरह उस समाचार ने मुझे सब कुछ याद दिला दिया। मेरे स्मृति-पटल पर छाई विस्मृति की धुंध धीरे-धीरे छँटने लगी और पन्द्रह वर्ष पहले की स्मृतियां ताजा होने लगीं।
इनका ट्रान्सफर झाँसी हो गया था। सरकारी आवास न मिल पाने के कारण, श्री अशोक गर्ग के यहाँ हम लोग किराये पर रहने लगे थे। चूंकि मकान-मालिक के कोई बच्चा नहीं था इसलिए घर का काम-काज निबटाकर उनकी पत्नी मेरे पास ही आ जाती और घन्टों बातचीत करती रहती। वह मुझे अपनी छोटी बहन की तरह मानने लगी थी।
एक बार दफ्तर के कार्य से मेरे पति बाहर गये हुए थे। रात का समय था, घनघोर वर्षा हो रही थी। बिजली भी बार-बार आ-जा रही थी। ऐसे में, मैं असहनीय दर्द से गुजर रही थी। जब नहीं रहा गया तो गर्ग साब की पत्नी को आवाज दी। सारी स्थिति जानने के बाद गर्गसाब ने फोन करके टैक्सी मंगाई और दोनों पति-पत्नी मुझे अस्पताल ले आये। अस्पताल पहुँचने के 2-3 घन्टे बाद ही राहुल का जन्म हो गया।
गर्गसाब और उनकी पत्नी, अपनी ही दुनिया में मस्त रहने वाले थे। वो आमोद-प्रमोद में ही पूरी तरह मस्त रहते थे। पास-पड़ोस की दुनिया से बेफिक्र। किन्तु राहुल के जन्म के बाद उन्हें एक खिलौना मिल गया था। राहुल के जरा सा रोते ही वह दौड़कर, मुझसे पहले ही उसके पास पहुँच जातीं।
ऐसे ही दिन बीतते जा रहे थे। राहुल तीन साल का हो गया था। हमारा ट्रान्सफर मथुरा के लिए हो गया। हम लोग झाँसी से जाने लगे तो राहुल को गोद में उठा कर मिसेज गर्ग, बार-बार उसको चूमने लगी थीं तथा उनकी आँखों की कोर भीग उठी थी। मथुरा आने के बाद भी, कई वर्ष तक मिसेज गर्ग के पत्र आते रहे थे। धीरे-धीरे पत्रों का सिलसिला टूट गया।
एक दिन अखबार पढ़ते-पढ़ते एक शीर्षक पर मेरी नजर ठहर गई। ‘‘झांसी के व्यापारी अशोक गर्ग का कत्ल, हत्यारे फरार!'' -पढ़कर मैं तो चेतना शून्य सी हो गई। हम दोनों जब झाँसी पहुँचे तो पता चला कि मिसेज गर्ग अपने गांव जा चुकी थीं।
कॉलबेल की तेज आवाज ने अचानक मेरी विचार �ाृंखला भंग कर दी। बाहर आकर देखा, एलीजावेथ चाय पीते हुए घर की तरफ ही आ रही थी। मुझे देख वो जाने किस धुन में कुछ बड़बड़ाती सी, चाय का खाली कप मेरी ओर बढ़ाने लगी।
कप लेकर मैंने वहीं रख दिया और पूछ बैठी- ‘‘तुम्हारा असली नाम क्या है एलिजावेथ?''
सुनकर वह मेरे मुँह की ओर देखने लगी फिर अचानक रोना शुरू कर दिया, ‘‘मेरा नाम अभागिन है, अभागिन।'
‘‘अभागिन क्यों?''
‘अभागिन नहीं तो और क्या कहोगी। कुछ तो बचा नहीं। जो कुछ था सब खत्म हो गया, पति, मकान, दुकान सब कुछ। नहीं तो आज दर-दर भीख मांगनी पड़ती।'
उसकी बात सुनकर मेरी उत्सुकता और अधिक जानने की हो गई। मैंने आग्रह किया कि वह अपनी पूरी कहानी सुनाए।
‘क्या करोगी बहन, मेरी दुःख भरी कहानी सुनकर।'
उसकी बातें सुन, मुझे हमदर्दी सी होने लगी थी। मैंने कहा- ‘‘जीवन में सुख-दुख तो आते ही रहते हैं, पर धन-दौलत, दुकान-मकान होते हुए भी तुम इस स्थिति में कैसे पहुँच गइर्ं। ये जानना चाहती हूँ।''
मेरा स्नेह पा वह आश्वस्त हो, वहीं बैठ कर मेरे चेहरे को गौर से देखने लगी। मेरे चेहरे में जाने क्या दिखा कि वह जोर-जोर से रोने लगी। मैंने सोचा शायद कुछ याद आ गया है या फिर ये पहचान गई है और जैसा कि मैं सोच रही थी, वही निकला- ‘कुसुम बहन' कहकर वो मुझसे लिपट गई। मैं भी भावुक हो उठी। तभी मेरे पति ने घर में प्रवेश किया! ये सब देखकर वो एक क्षण को ठिठक गये।
एक भिखारिन को मुझसे लिपटा देख, वो कुछ समझ पाते, उससे पहले ही मैं बोल पड़ी-
‘‘रोहित याद है पन्द्रह वर्ष पहले हम झाँसी में अशोक गर्ग के यहाँ किरायेदार बन कर रहे थे। बाद में उनका कत्ल हो गया था, ये वही रजनी दीदी हैं।''
‘रजनी भाभी! आपकी ये हालत कैसे?'' - उन्हें ड्राइंग रूम में बैठाते हुए रोहित बोले।
हम दोनों का नेह पा रजनी दीदी किताब के पन्नों की तरह खुलती चली गइर्ं।
गर्ग साब के कत्ल के बाद मेरे देवर ने कुछ समय तक तो सहानुभूति दिखाई पर बाद में पता चला कि वह सहानुभूति स्वार्थपूर्ण थी। देवर ने मुझसे कोरे कागज पर मेरा अगूँठा लगवा लिया और फिर उस पर सारी जमीन, जायदाद, मकान और दुकान अपने नाम कर लिए।
‘‘गर्ग साब कितना कहते थे मुझसे- पढ़ ले, पढ़ ले। पर मैं अभागिन, उस समय उनकी बात का महत्व न समझ सकी और अनपढ़ ही रही। अब उसका दण्ड भुगत रही हूँ।''
‘आपने अपने देवर पर मुकद्दमा दायर नहीं किया?'- रोहित ने उत्तेजित होकर पूछा।
कोरे कागज पर अंगूठा लगा कर सारा अधिकार तो मैं स्वयं खो चुकी थी, मुकद्दमा किस मुँह से करती? और फिर मुकद्दमा लड़ने के लिए भी तो पढ़ा-लिखा होना जरूरी है न। इसलिए मैंने भी सोचा- जब ऊपर वाले ने ही असमय सुहाग छीन कर मेरा सब कुछ छीन लिया तो किसको दोष दूँ? वैसे भी मेरे मरने के बाद सब कुछ इन्हीं का तो होना है।
‘फिर! आपकी ऐसी हालत का कारण?'
‘‘उनको इतना भी सब्र नहीं हुआ। कल को कुछ बाबेला न खड़ा कर दूँ मैं, इसी डर से वे मुझे मारने का षड़यंत्र रचने लगे। मुझे आभास हो गया और रात के अँधेरे में ही वहाँ से भाग खड़ी हुई। मायके में माँ-बाप की मौत के बाद कोई बचा न था सो वहाँ जाने का प्रश्न ही कहाँ था। इसलिए कृष्ण की शरण में जीवन बिताने के लिए मथुरा जाने वाली गाड़ी में बैठ गई और आ गई यहाँ।' - कहकर निरीहता से देखने लगीं वह।
‘‘ईश्वर की लीला से अब आप सही जगह आ गई हो भाभी, देखना अब मैं कैसे उन लोगों की खबर लेता हूँ। आप यहाँ आराम से रहिए, अपना ही घर समझ कर।''
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)
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जवाब देंहटाएंसाभार- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com