कहानी संग्रह 21 वीं सदी की चुनिन्दा दहेज कथाएँ संपादक - डॉ. दिनेश पाठक 'शशि' अनुक्रमणिका 1 -एक नई शुरूआत - डॉ0 सरला अग्रवाल 2 ...
कहानी संग्रह
21 वीं सदी की चुनिन्दा दहेज कथाएँ
संपादक - डॉ. दिनेश पाठक 'शशि'
अनुक्रमणिका
1 -एक नई शुरूआत - डॉ0 सरला अग्रवाल
2 -बबली तुम कहाँ हो -- डॉ0 अलका पाठक
3 -वैधव्य नहीं बिकेगा -- पं0 उमाशंकर दीक्षित
4 - बरखा की विदाई -- डॉ0 कमल कपूर
5- सांसों का तार -- डॉ0 उषा यादव
6- अंतहीन घाटियों से दूर -- डॉ0 सतीश दुबे
7 -आप ऐसे नहीं हो -- श्रीमती मालती बसंत
8 -बिना दुल्हन लौटी बारात -- श्री सन्तोष कुमार सिंह
9 -शुभकामनाओं का महल -- डॉ0 उर्मिकृष्ण
10- भैयाजी का आदर्श -- श्री महेश सक्सेना
11- निरर्थक -- श्रीमती गिरिजा कुलश्रेष्ठ
12- अभिमन्यु की हत्या -- श्री कालीचरण प्रेमी
13- संकल्प -- श्रीमती मीरा शलभ
14- दूसरा पहलू -- श्रीमती पुष्पा रघु
15- वो जल रही थी -- श्री अनिल सक्सेना चौधरी
16- बेटे की खुशी -- डॉ0 राजेन्द्र परदेशी
17 - प्रश्न से परे -- श्री विलास विहारी
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(15) वो जल रही थी
अनिल सक्सेना चौधरी
उस दिन रात के ग्यारह ही बजे थे, लेकिन वातावरण में इस कदर अंधेरा छाया हुआ था कि समय का कुछ भी अन्दाज नहीं लग पा रहा था। चारों तरफ कुछ भी नजर नहीं आ रहा था। बादल जोरों से गरज रहे थे। हवा के तेज झोकों के कारण मेरे कमरे की खिड़की के पट बार-बार अजीब-सी ध्वनि पैदा कर देते थे, मानों इस शान्तिमय माहौल को एकदम से खत्म कर देना चाह रहे हों। वातावरण भी कुछ ठण्डा सा हो गया था।
मैंने शरद को आवाज दी। वह बरामदे में बैठा माउथ आर्गन बजा रहा था। उसने माउथ आर्गन मेज पर रख दिया और दौड़कर मेरे पास आकर बैठ गया। मैंने स्टोव जलाया और दो कप चाय कर ली। हम लोग कुर्सियों पर बैठे चाय पी रहे थे। इस शहर में रहते-रहते पूरे दो वर्ष हो चले और अब सुबह की गाड़ी से वापस जयपुर जाना है। तैयारी पूरी तरह हो चुकी थी। मैं थककर चकनाचूर हो गया था, इसलिए ज्यादा देर तक जागना ठीक नहीं समझा और लाइट आफ करके हम लोग सो गये।
अभी नींद लगी ही थी कि अचानक एक ‘चीख' सुनाई दी। मैं डरकर जाग गया और उठकर पलंग पर बैठ गया। मैंने लाइट आन की और खिड़की के पास आकर खड़ा हो गया। बाहर तो कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था तो फिर ये चीख कहाँ से आई? इस समय चीख बन्द हो चुकी थी। मैंने शरद को जगाया और मैं बरामदे में आ गया। बरामदे तक पहुँचा ही था कि फिर एक बार कोई चीखा और.....बचाओ.....बचाओ.......की आवाज से वातावरण गूँजने लगा। यह आवाज किसी औरत की थी। मैं शरद के साथ कमरे से बाहर आ गया, जहाँ से यह आवाज आ रही थी। मैंने दरवाजा खटखटाते हुए पूछा- ‘‘क्या बात है? दरवाजा खोलो।'' लेकिन किसी ने दवाजा नहीं खोला।
तभी अंदर से फिर किसी महिला की आवाज आई- ‘‘मुझे बचा लो वरना ये मुझे जान से मार डालेंगे।''
मैं सारी स्थिति समझ गया। मैंने दरवाजे को बार-बार धक्का देकर तोड़ दिया और अंदर पहुँच गया। अन्दर का दृश्य बहुत ही दर्दनाक था। जिसे देखकर मेरी आँखें विस्मय से फटी रह गईं।
इंजीनियर साहब की नवविवाहिता पत्नी आग की लपटों में जल रही थी और इंजीनियर साहब अपने माँ-बाप के साथ उसे घेरे हुए खड़े थे। दहेज के तीनों भूखे भेड़िये मुझे अन्दर आता देखकर भागे और छिपने की कोशिश करने लगे। मैंने जल्दी से उस बेचारी के शरीर पर फैली हुई आग की लपटों को बुझाया लेकिन तब तक वह जमीन पर गिर चुकी थी और बुरी तरह कराह रही थी।
उसका फूल-सा कोमल शरीर आग से बुरी तरह जल कर झुलस गया था लेकिन चेहरे पर आग नहीं पहुँच पाई थी। उसके माथे पर चोट के निशान थे। यह निशान इस बात का संकेत दे रहे थे कि उसे बुरी तरह पीटा गया है और फिर जला दिया गया।
उसने अपनी अश्रुपूरित आँखों से मेरी ओर देखा। उसके दोनों हाथ जुड गये, लड़खड़ाती आवाज में कुछ शब्द उसके मुख से निकले- ‘‘भइया मुझे बचा लो। मेरा कोई भी नहीं है, ये लोग मुझे जान से मारना चाहते हैं।''
मै उस बहन की आँखों से टपकते आँसुओं को नहीं देख सका और उसे कंधे पर डालकर तेजी से बाहर की ओर चल दिया। पड़ोस के लोग मिट्टी के पुतले बने तमाशा देख रहे थे। कोई भी आगे बढ़कर नहीं आया। हम जब सड़क से होकर गुजरने लगे तो लोग हमें देखकर अपने-अपने घरों में घुस गये और हमारे जाते ही घर से निकल कर तमाशा देखने लगे।
अभी मैं बीस-पच्चीस कदम ही चला था कि एक महानुभाव जोर से चिल्लाकर बोले-‘‘अनिल! तुम इस केस में मत पड़ो, वरना पुलिस तुमसे भी बयान लेगी। बेमतलब में परेशानी में पड़ जाओगे। ये दहेज का मामला है।''
लेकिन मैंने किसी की एक न सुनी और एक टैक्सी में उसे लेकर अस्पताल चल दिया। मेरे साथ सिर्फ शरद ही था जिससे मेरी हिम्मत बढ़ गयी थी। अस्पताल पहुँच कर हम सीधे इमरजेंसी वार्ड में गए। रात गहरा चुकी थी। इमरजेंसी वार्ड में एक सफेद दाढ़ी वाला बूढ़ा चपरासी नजर आ रहा था। बूढ़ा व्यावहारिक और तहजीब वाला मालूम पड़ रहा था। बूढ़ा हमारी तरफ आया और बड़ी उदारता से देखकर बोला-‘‘बेटा, क्या हुआ इसे?''
मैंने उस बूढ़े को जल्दी से सारा हाल बताया। बूढ़ा कुछ दुखी होकर बोला-‘इस अस्पताल का तो यही हाल है। डॉ. जैन. मैडम के साथ चाय पीने गये हैं और नर्स स्वेटर बुनते-बुनते थक गई थी इसलिए बेचारी जरा सो गई है। रुको अभी जगाता हूँ। तुम तब तक डॉ. लाहा के पास चले जाओ, निहायत ही शरीफ इंसान हैं। बड़े दयालु हैं। इस समय तुम्हारी जरूर मदद करेंगे। लेकिन उनकी ड्यूटी दूसरे वार्ड में है।''
मैं डॉ. लाहा के पास गया और उन्हें बुलाकर ले आया। डॉ. लाहा ने दर्द से कराहती उस अभागिन बहन को भर्ती कर लिया और इलाज शुरु कर दिया।
ग्लूकोज चढ़ रहा था और लगभग एक घंटा बीत चुका था। उसका बदन फूल गया था। अचानक वह मुझे भइया-भइया कहकर पुकारने लगी। मैं उसके सिरहाने जाकर बैठ गया। वह अटकते स्वर में कहने लगी- ‘‘मुझे अपनों ने ही जलाया है और परायों ने बचाना चाहा है। कितनी विचित्र है ये दुनिया? लेकिन अब मैं बच नहीं सकूँगी । मैं अब जा रही हूँ हो सका तो अगले जन्म में तुम्हारी बहन बनकर मिलूँगी। मैं तुम्हारे जैसे भाई का प्रेम पाकर आज शान्ति महसूस कर रही हूँ। अब मैं चैन से मर सकूँगी।'' इतना कहते-कहते वह रो पड़ी। देखते ही देखते उसकी आँखें चढ़ने लगीं, चेहरे पर हल्की-सी मुस्कराहट बिखर गई और उसकी आँखों से आँसुओं की धारा बह चली। उसने मेरे हाथों को चूमकर माथे से लगाया और उसकी गर्दन तकिये पर लुढ़क गई। उसका शरीर निर्जीव हो गया था।
मुझसे यह सब बर्दाश्त नहीं हो रहा था। मेरी आँखें आँसुओं को नहीं रोक सकीं। देखते ही देखते पूरे वार्ड में खामोशी छा गई। वातारवण शान्त हो गया। सभी की आँखों से आँसू बह रहे थे।
इंजीनियर साहब का शहर के सभी प्रतिष्ठित लोगों से अच्छा सम्बन्ध था। इसलिए उनके चेहरे पर जरा-सी भी शिकन नहीं थी। पुलिस वालों ने भी ले-देकर मामला रफा-दफा कर दिया था।
पड़ोस में चर्चा थी कि अनाथ थी। माँ-बाप बचपन में ही मर गए थे। कोई सगा भाई भी नहीं था। बड़ी बहन ने जैसे-तैसे इसकी शादी की थी। जब उस बेचारी को पता चलेगा कि उसकी छोटी बहन अब इस दुनिया में नहीं है तो उसके दिल पर क्या बीतेगी? उसे क्या पता था कि उसकी बहन दहेज की आग में जल जायेगी। सब लोग कह रहे थे कि सास-ससुर और पति ने ही उसे जलाया है।' लेकिन गवाही देने के लिए एक भी तैयार नहीं था।
शहर के सभी अखबारों में खबर छपी थी ‘‘गैस के चूल्हे से जलकर एक नव-विवाहिता की मृत्यु.......।
मैंने शरद से कहा-‘‘समाचार पत्र समाज का दर्पण होता है क्या यह दर्पण सही बोल रहा है? नहीं, यह अखबार झूठ बोल रहा है, क्योंकि इंजीनियर साहब एक प्रतिष्ठित परिवार के थे।''
मैं बहुत उदास हो चुका था। हम लोग तीन दिन लेट हो चुके थे और शायद इस घटना के साथ ही हमें इस शहर से विदा होना था। मैं शरद के साथ कमरे में आया और सामान ताँगे में लादकर स्टेशन पहुँच गया। शरद ने टिकट खरीद लिये थे। हम दोनों टे्रन में बैठ लिए।
मेरी दृष्टि आकाश में छाये उन बादलों की ओर थी जो न जाने किस तरफ बड़ी तेजी से चले जा रहे थे। गाड़ी धीरे-धीरे चल दी। हम अब शहर से दूर होते जा रहे थे। सब कुछ तो समाप्त हो गया था, कुछ भी शेष न रहा। उस अभागिन बहन की पुकार मेरे कानों में गूँज रही थी।
गाड़ी धीमी हो गई है, शायद कोई स्टेशन आ गया है। बाहर कोहरा छाया हुआ है। कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है।
बाहर ही क्यों? इस दुनिया में ही कोहरा छाया हुआ है समाज में कुहरा और सघन हो गया है। दहेज के चन्द ठीकरों ने आदमी को आदमी नहीं रहने दिया। उसे भेड़िया बना डाला है। और सारे समाज को संवेदनहीन लुंज-पुंज मानव पिण्ड मात्र बना कर रख दिया है। इतना सब होता रहा और एक भी व्यक्ति हिम्मत के साथ विरोध करने के लिए बाहर नहीं निकल कर आया।
क्या ये दुनिया अब रहने के काबिल बची है? क्या मानवीय संवेदना को झकझोर कर जगाने का समय बीत गया है?
शायद हाँ............. शायद नहीं..........।
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)
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