कहानी संग्रह 21 वीं सदी की चुनिन्दा दहेज कथाएँ संपादक - डॉ. दिनेश पाठक 'शशि' अनुक्रमणिका 1 -एक नई शुरूआत - डॉ0 सरला अग्रवाल 2 ...
कहानी संग्रह
21 वीं सदी की चुनिन्दा दहेज कथाएँ
संपादक - डॉ. दिनेश पाठक 'शशि'
अनुक्रमणिका
1 -एक नई शुरूआत - डॉ0 सरला अग्रवाल
2 -बबली तुम कहाँ हो -- डॉ0 अलका पाठक
3 -वैधव्य नहीं बिकेगा -- पं0 उमाशंकर दीक्षित
4 - बरखा की विदाई -- डॉ0 कमल कपूर
5- सांसों का तार -- डॉ0 उषा यादव
6- अंतहीन घाटियों से दूर -- डॉ0 सतीश दुबे
7 -आप ऐसे नहीं हो -- श्रीमती मालती बसंत
8 -बिना दुल्हन लौटी बारात -- श्री सन्तोष कुमार सिंह
9 -शुभकामनाओं का महल -- डॉ0 उर्मिकृष्ण
10- भैयाजी का आदर्श -- श्री महेश सक्सेना
11- निरर्थक -- श्रीमती गिरिजा कुलश्रेष्ठ
12- अभिमन्यु की हत्या -- श्री कालीचरण प्रेमी
13- संकल्प -- श्रीमती मीरा शलभ
14- दूसरा पहलू -- श्रीमती पुष्पा रघु
15- वो जल रही थी -- श्री अनिल सक्सेना चौधरी
16- बेटे की खुशी -- डॉ0 राजेन्द्र परदेशी
17 - प्रश्न से परे -- श्री विलास विहारी
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(13) संकल्प
मीरा शलभ
नन्दिता ने इंजीनियरिंग पास कर ली थी वो भी इलैक्ट्रोनिक्स में और पास करते ही नोएडा की एक बड़ी कंपनी में हाथों हाथ इपोइंटमेंट मिल गया था। कल ही जॉब ज्वाइन की और आज माँ को लेकर और अपने भविष्य को लेकर वह फूली नही ंसमा रही थी। सच बिटिया की खुशी भला आकांक्षा से भी कहाँ छिपी है और आकांक्षा की तो मानों तपस्या ही सफल हुई थी।
नन्दिता माँ के संघर्षमय जीवन से यूं तो थोड़ा बहुत अवगत रही है मगर माँ ने कभी अपनी बदनसीबी का रोना उसके आगे नहीं रोया। वो तो आस-पड़ोस और रिश्तेदारों के मुख से निकले छोटे-मोटे दुःखद वृतांतों को सुन जोड़ कर उसने माँ की कठिन परिस्थितियों का अनुमान लगा लिया था। तभी तो वो कल से ये ही सोच कर खुश हो रही है बस अब माँ के कठिनाई भरे दिन दूर हो गये। अब माँ को यूं नाहक पापड़ न बेलने देगी। सच उसकी माँ कितनी ममतामयी त्यागी है तभी तो आज वह सिर उठा कर खडे़ होने लायक बनी है। वैसे माँ के मुख पर सदैव उसने एक तटस्थता का सा ही भाव देखा है। माँ न हँसती है न रोती है एक मशीन की भांति उसकी जरूरतों को पूरा करने में जीवन की गाड़ी को खींच रही है। न सुख में प्रसन्न है न दुःख में रोना.......आखिर ऐसी क्यों है उसकी माँ। खैर यूं कोई रोए भी तो कहाँ तक रोए और क्यों, किसी-किस के आगे। विधि के हाथों खिलौना बनी जिंदगी से आखिर उसने समझौता तो किया है न। यूं हाथ पर हाथ धरे तो न बैठी। अपना भी जीवन संवारा और नन्दिता का भी सही से पालन-पोषण किया। नेक सुसंस्कारशील बनाया है उसे, साथ ही समाज में सर उठाकर चलने लायक भी।
आज अॉफिस से लौटते बस में बैठी नन्दिता ये ही सब सोचे जा रही थी। माँ ने अपनी आवश्यकताओं को अत्यधिक सीमित कर उसके लिए कोई कोताही नहीं बरती। देखो न माँ ने कल से ही उसके ब्याह का एक नया राग अलापना शुरु कर लिया है। अब उसे अच्छा घर वर मिल जाए और माँ अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त।
वह माँ के मुख पर आते-जाते हर भाव को भली भांति पढ़ लेती है आखिर वही तो उसकी संगी है और माँ की वह। माँ शायद मेरे विवाह के सपने संजोते-संजोते किसी क्षण आशंकित सी भी होती है। अभी तो एक दम अपने दोनों हाथ क्षण भर जोड़ कर शायद प्रभु से ये प्रार्थना करती हो कि मेरी नन्दिता को मुझसा दुःख न देना। और कभी यूं ही आश्वस्त-सी होती है। भला उसकी बिटिया के साथ ऐसा कैसे होगा। यूं तो मुझे भी नहीं पता आखिर माँ की इस दर्द भरी कहानी का पूरा ओर छोर कहाँ है? वह कहानी का सिरा पकड़ना शुरु करती है किंतु माँ के दर्द भरे चेहरे को देख एकदम से उसे छोड़ बैठती है। वह हर बार माँ की कष्टमयी कहानी माँ से पूछते-पूछते रह जाती है। आखिर एक दिन तो सब माँ को सुनाना ही होगा। बताना ही होगा कौन हैं उसके पिता, कहाँ हैं, क्या करते हैं। अब माँ को बताना भी होगा और मेरी बात भी माननी होगी आखिर कब तक ट्यूशन और टीचिंग जॉब करेगी। अब मैं हो गयी हूँ न कमाने के लिए......।
कल जब मैंने माँ को आराम करने की सलाह दी थी तो माँ ने तुरंत कह दिया था आज तेरी नौकरी लगी है कल ब्याह हो जायेगा फिर तू अपने घर की होगी बिटिया तो मैं क्या करूंगी कैसे खाली रहूँगी न वक्त कटेगा न आमदनी ही होगी सो ये सब करती रहूँगी तो तन्हाई भी खत्म और आमदनी भी होगी। आखिर एक दिन ये हाथ पाँव भी जवाब दे जायेंगे तब क्या खाऊंगी, पेंशन से गुजारा कहाँ? कोई भला बेटी पर भार थोड़े ही न बना जाता है। अरे माँ मैं ही तेरी बेटी हूँ और मैं ही तेरा बेटा। मुझे नहीं करना ब्याह-व्याह। और माँ ने मेरे मुँह पर हाथ धर कांपते से कहा था न गुड़िया ऐसी बातें नहीं करते और जल्दी ही विषय बदलने के लिए टी.वी. चला कर आज तक देखने लगी थी। मगर आज तो मैं माँ से सब बातें करूँगी। आज चाहे वो कितने ही बहाने बनायें आज उसकी राम कहानी सुनूंगी ही।
बस फिर क्या था रात को खाने पीने से निबट कर अपने नए ऑफिस के किस्से सुनाते हुए उसने माँ को बाहों में भर एक जोश भरा प्यार कर डाला। ममा आज मेरी बात मानोगी न, प्लीज आज आपको सौगंध है ममा बताओ न अपनी जिंदगी के बारे में।
यूं कई दिनों से आकांक्षा भी सोच रही थी अब सही वक्त आ गया है एक दिन बिटिया को सब बतला देगी। बस बातों-बातों में कोई मौका देखकर। लो ये तो विधाता ने ही दे दिया। उस दिन बिना एक पल भी गंवाए आकांक्षा ने अपने सीने पर धरी चट्टान को धीरे-धीरे खिसकाना शुरु कर दिया। रात के करीब नौ बजे थे। मगर आकांक्षा के भीतर एक घना कोहराम मचा हुआ था।
सुन नन्दिता इस अभागिनी की दुःखद कथा सुन बिटिया। आकांक्षा ने वातावरण की निस्तब्धता को तोड़ते हुए कहा तो एक क्षण को नन्दिता चौंकी फिर सहज होकर बोली ‘ठीक से लेट जा ममा फिर सुना। थोड़ा तकिये को एक हाथ के नीचे सहारा देते हुए आकांक्षा अधलेटी सी कहने लगी।
नन्दिता यों तो हम पांच बहन भाई थे और मैं अपने घर की सबसे बड़ी लड़की हूँ ये तो तू भी जानती ही है।' मेरे पिता बेहद सनकी किस्म के निकम्मे और गैर-जिम्मेदार आदमी थे। अपने जीते जी कभी भी उन्होंने ढंग से टिक कर कोई नौकरी या व्यवसाय नहीं किया मेरी माँ ने जैसे-जैसे उधार-सुधार कर एक भैंस खरीद ली थी सो थोड़ा दूध मट्ठा बेच कर उपले पाथ कर हमारे बड़े परिवार का गुजर बसर करती थी।
मुझमें बाल्यकाल से ही पढ़ने की ललक थी और मुझसे छोटे दोनों भाई सारे दिन आवारागर्दी करते कंचे खेलते। न पढ़ते-लिखते न तहजीब तमीज ही सीखते। एक तीसरा भाई जन्म से ही पोलियोग्रस्त था सो, जमीन पर घिसटता-घिसटता उम्र के आठवें साल में ईश्वर को प्यारा हो गया या उसे नर्क से मुक्ति मिल गयी उससे छोटी एक बहन है सो वो भी पढ़ने में ठीक-ठाक थी। चूंकि मैं घर में सबसे बड़ी थी पढ़ाई में अच्छी थी। दसवीं बारहवीं दोनों के ही बोर्ड में अव्वल आई थी जैसे तैसे रो झींक कर बी.ए. में एडमिशन लिया फिर बी.एड. किया और फिर पहले एक प्राइवेट स्कूल में टीचिंग जॉब किया साथ ही ट्यूशन पकड़े और ऐसे करते-करते प्राइवेट एम.ए. भी कर लिया। मगर मेरे दोनों भाइयों ने कुछ न किया। एक ने जैसे-तैसे आठवीं पास कर चाय की दुकान खोली। दूसरे ने पांचवी के बाद ही पढ़ाई से मुँह मोड़ लिया हाँ मेरी छोटी बहन मीमांसा अवश्य ठीक-ठाक पढ़ती गयी।
मेरे टीचर हो जाने के बाद घर में दाल रोटी का गुजारा थोड़ा ठीक सा चलने लगा मगर मेरे बिगड़े भाई मेरी बात जरा न मानते थे। लेकिन अब थोड़ा मेरे आगे न पड़ते थे। कभी मैं उन्हें समझाने की बात करती तो माँ-बाप उल्टा मुझे खाने वाली निगाहों से देखते। कहते अब ज्यादा पढ़-लिख गई है तो क्या लड़कों को हँसने खेलने न देगी। उन्हें खा ही डालेगी क्या। इसी दौरान जब मेरी इंटर कॉलेज में नौकरी लग गयी तो अब मेरे पिता में थोड़ा अपराध बोध का सा भाव जाग गया था। मुझे स्कूल से लौटता देख वे या तो अंदर कमरे में पड़े रहते या फिर घर से बाहर चले जाते। भाई भी मेरे सामने थोड़ा उत्पात न मचाते माँ भी कभी-कभी डाट देती कम्बख्तों अपनी जिंदगी सुधार लो देखो मेरी बड़ी ने कैसा नाम ऊँचा किया है। माँ अब मेरे खाने-पीने का भी ख्याल रखती थी। जिस दिन मैं वेतन लाती उस दिन पूरे मोहल्ले में मेरे गुण बांचती फिरती। कुल मिलाकर सब ठीक-ठाक सा चल रहा था।
समय यूं ही बीत रहा था और समय के साथ मेरी दिनचर्या नौकरी ट्यूशन में बीत रही थी। ऐसे ही नौकरी करते-करते एक दिन मुझे अहसास हुआ कि मेरे साथ की मेरी बचपन की मौहल्ले की सखियाँ और स्कूल व टीचिंग की सखियां एक-एक कर विदा होने लगीं बल्कि होने क्या लगीं सभी का विवाह हो गया था। एक मैं ही उनमें से कुआँरी बची थी।
आइने में अपने बाल संवारते जब बींच की मांग में दो एक सफेद बालों को देखा तो मुझे अपनी बढ़ती उम्र का अहसास हुआ। अरे मुझे तो बुढ़ापा सा आने लगा। हिसाब लगाया तो मैं तब तक पैंतीस के करीब की हो गयी थी। मन के भीतर सवालों का अंधड़ चल गया। अरे क्या मैं यूं ही कमाती रहूँगी और मेरे परिवार वाले यूं ही निठल्ले बने खाते रहेंगे। उस रोज बगावत ने मेरी कोमल भावनाओं को थाम लिया था। क्या मेरे माता-पिता को मेरी जरा सी भी चिंता नहीं होती। मुझे ख्याल आया कोई शुभ चिंतक मेरे ब्याह का जिक्र भी छेड़ता तो माँ बड़ा कड़वा सा मुँह बनाकर कहती, ‘‘क्या करें। हम तो रात दिन खुद इसकी चिंता में घुले जा रहे हैं मगर इसे कोई पसंद ही नहीं आता। अब ज्यादा पढ़-लिख गई है न, और हमारे हाथ में धेला नहीं जो किसी का मुँह भी भर सकें।'' यानि विवाह न करने का सारा दोष मेरे ही मत्थे मंढ़ दिया जाता। साथ में मेरी बलाएं भी लेती कि क्या बताऊं आपको इसने तो एक तरह से विवाह न करने की कसम खा रखी है कहती है मैं अपना घर देखूं या दूसरे का घर जाकर सवारूं।
कुछ भले रिश्तेदारों ने मौका पाकर मुझे समझाना शुरू कर दिया। मगर मैं थी भारतीय कन्या फिर अपने विवाह की चर्चा या अपनी परिस्थितियों से दूसरों को कैसे अवगत कराती। कैसे अपने स्वार्थ में अंधे परिवार की कलई सबके सामने खोलती। एक दिन मैंने तंग आकर माँ से कह भी दिया था कि कब तक रिश्तेदारों के ताने सुनेगी और सुनवायेगी। जहाँ जैसा भी मिले मेरे हाथ पीले कर दे। बस उस दिन से पूरे परिवार के तेवर बदल गये थे। पूरे घर को मानों सांप सूंघ गया था। मेरे शराबी पिता ने अपनी पिचकी छाती ठोंक-ठोंक कर घर में खूब कोहराम मचाया था और सांड से मेरे दोनों भाई मेरी छाती पर ही खड़े हो गये थे और मेरे बाल खींचते बोले थे बता कोई है तेरी नजर में हरामी की औलाद जो तेरे इतनी आग लग रही है। हम अभी उसके हाथ पैर तोड़ कर आते हैं खसमानुखाणाी ब्याह करेगी। हमें पूरे परिवार को जहर दे दे। पहले देखती नहीं पापा जी तेरी फिक्र में दिन-रात पीने लगे हैं। अरे हमारा कोई धंधा ठीक से जमने तो दे हम करेंगे तेरा ब्याह फिर बड़ी धूमधाम से। जरा सब्र तो रख निकम्मी।
उस रात मैं अपनी चारपाई से लिपटी अकेली सिसकती रही थी। मेरी माँ न मुझसे कोई मीठे बोल ही बोलने आई न खाने के लिए ही मुझे बुलाया। शायद माँ की ममता प्रस्तर हो चुकी थी। तेरे मामाओं को न नौकरी करनी थी न कोई ठीक-से धंधा। चाय का खोखा कब का बंद हो चुका था और अब वे थोड़ी चोरी-चकारी में लगे रहते थे सो आये दिन पुलिस वाले अपना डंडा घुमाते हमारा दरवाजा ठोंकने लगे थे और हम बहनों को लीलने की नजर से देखते थे। मेरे भीतर अब विद्रोह की चिंगारी सुलग चुकी थी। एक तनावपूर्ण वातावरण हमारे घर में पैर पसार चुका था। मैं स्कूल जाती तो माँ फूले मुँह अचार के साथ दो परांठे पकड़ा देती। घर लौटने में कभी देरी हो जाती तो भाई या बाप में से कोई भी गंदी गालियों से मेरा स्वागत करने को तैयार रहता। कभी-कभी झगड़ा बढ़ जाता। अब मोहल्ले पड़ोस वाले भी रात-दिन हमारे घर की कलह को सुनने लगे थे और बीच-बचाव कराने को हमारे आंगन तक पहुँच जाते थे। ऐसे ही एक दिन मेरे पिता मुझ पर गाली गलौज करते मार रहे थे कि मैंने पहली बार उनका हाथ थाम लिया था। बस फिर क्या था घर भर को लकवा मार गया। उसी रात मैंने प्रार्थनापत्रनुमा अपने घर के पास रहने वाले जज साहब के लिए लिखा और सुबह स्कूल जाने से पहले उन्हें थमा दिया जिसमें मैंने इन लोगों से मुक्ति पाने में मदद के लिए गुहार की थी। बस फिर क्या था सांझ मेरे स्कूल से लौटने तक मेरी अर्जी की चर्चा पूरे मोहल्ले को हो गयी थी। कुछ सुलझे लोगों ने मेरे माता-पिता को घेर कर पंचायत भी की तथा मेरे विवाह पर दबाव डाला। जवान बिटिया पर रोज-रोज हाथ उठाना कहाँ की इंसानियत है वो भी ऐसी नेक औलाद पर इसलिए अब वर की तलाश बेमन से होने लगी। मेरे पिता ने न चाहते हुए भी लड़के देखने का नाटक जारी रखा और यहाँ उनकी किस्मत उनका साथ दे गयी और मेरी बदकिस्मती ने अपना आंचल फैला दिया। समय मेरे पिता का साथ दे रहा था सो एक बिना दान दहेज वाला पात्र उनके हाथों जा लगा। मेरे दुर्भाग्य से हमारी एक दूरदराज की मौसी हमारे घर आई और अपनी जेठानी के भतीजे के लिए मेरा हाथ मांगने लगीं। उन्होंने बताया कि लड़की राज करेगी। लड़के की कन्फैक्श्नरी की बहुत चलती दुकान है साथ ही घर का मकान उसकी पहली बीवी प्रसवकाल में बच्चे समेत खत्म हो गयी थी कोई उसके आगे है न पीछे। यहाँ तक कि विवाह का खर्च भी लड़का खुद ही उठा लेगा। उसे तो बस भली-सी पढ़ी लिखी लड़की चाहिए।
सच नन्दिता उस रात मेरे मन में सपनों के असंख्य दीप जले थे सारे दीप खुशियों से झिलमिला रहे थे। मुझ डूबती को तिनके का नहीं पूरे फलदार वृक्ष का सहारा मिला था। सो पन्द्रह दिन में ही चट मंगनी-पट ब्याह वाली कहावत चरितार्थ हो गई थी। विवाह के पश्चात् मैं दिल्ली आ गई थी। उसकी दुकान हमारे घर के पास ही थी और अच्छी खासी चलती भी थी। वो सुबह आठ बजे दुकान खोलता दिन में दो बजे खाने आता फिर जाकर रात नौ बजे तक लौटता। मैंने वहीं आस-पास के ट्यूशन पकड़ लिये थे। सब कुछ मिला कर अच्छा चल रहा था न उन्हें मुझसे कोई शिकायत थी न मुझे उनसे। एक दिन दोपहर में आकर उन्होंने मुझे बताया कि मेरे पिता की तबियत खराब है टेलीग्राम आया है। सो शाम को टे्रन का एक टिकट भी वे लेकर आये थे। मैं घर शादी के बाद अकेले नहीं जाना चाह रही थी।
सो मैंने कहा आप भी चलिये न। उन्होंने कहा मैं तुम्हें लेने आ जाऊंगा। बात आई गयी हो गयी। मैंने अपने दो चार जोड़ी कपड़े सूटकेस में रखे और वे मुझे साँझ को टे्रन में बिठला कर सफर में सतर्क रहने की खास हिदायतें देकर वापिस लौट गये। उस दिन टे्रन के गति पकड़ने के साथ-साथ मेरा दिल भी किसी अनहोनी के घटित होने से अवश्य आशंकित रह रह कर घबराता जा रहा था। खैर अगले दिन सुबह जब दिल्ली स्टेशन पहुँची तो मेरे दोनों निकम्मे भाइयों ने मुझे हाथों हाथ बड़े प्यार से टे्रन से उतारा। अपने जीजा की खैर खबर ले वे मुझसे दरवाजे से ही कोई सामान लाने का बहाना कर लौट गये। भीतर जा कर देखती हूँ तो क्या बरामदे में एक कोने में नया फ्रिज और डायनिंग टेबल लगी थी। भीतर कमरे में गयी तो मेरे माता पिता दोनों इत्मीनान से टी.वी. पर कोई नयी पिक्चर देख रहे थे। घर में जरूरत का हर सामान नया दिखलाई पड़ रहा था। माँ भर्राई आवाज से बोली तू तो हमें ब्याह के बाद भूल गयी री आकांक्षा।
मुझे अपने पिता स्वस्थ नजर आ रहे थे किंतु फिर भी मन का संशय मन में दबा कर बात टाल दी। तू लाख बुलाने पर नहीं आ रही थी तो हमने तुझसे मिलने की ये ही तरकीब निकाली बेटी पिता की बात से मेरा डरा मन आशवस्त हो गया था मैं सोचने लगी घर के नये माहौल के साथ-साथ मुझे अपने माता-पिता भाइयों और बहन में अच्छी तब्दीली नजर आ रही है। माँ ने रसाईघर में जाकर मीमांसा से गर्म हलवा और चाय बनाने को कहा। देख तेरी दीदी कितना लम्बा सफर करके आ रही है॥ चाय बढ़िया बनाना जो उसकी थकान उतरे।
माँ ने मेरे और मेरी गृहस्थी के साथ-साथ उनके भी हाल-चाल लिये।
चाय-नाश्ता कर मैं अपने कमरे में आराम करने चली गयी। मेरा मन बार-बार घर में रखे हर नये सामान को देखकर शंकित सा हो जाता। आखिर ये सब कब और कैसे हो गया। क्या भाई ठीक-ठाक कहीं कमाने लगे या पिता ने कोई धंधा जमा लिया।
दो दिन बहुत ही आरामपूर्वक आनंदमय बीते। मोहल्ले से लेकर सारे रिश्तेदारों तक की खैर खबर मुझे मीमांसा ने दे दी थी। माँ बता रही थी अब मीमाँसा भी मेरी तरह यहाँ के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने लगी है। दो दिन पश्चात् मैनें अपने लौटने का जिक्र किया कि यहाँ तो सब ठीक-ठाक है ही सो इन्हें खत लिख देती हूँ। ये आकर मुझे ले जाएंगे। मेरा इतना सुनते ही माता-पिता ने फिर अपना लाड़ जताना शुरू कर दिया। अब आई है तो दस पंद्रह दिन तो रह, वो आया तो फिर तुरंत ले जायेगा। मैं फिर थोड़ा निश्चिंत सी हो गयी। मगर इन्हें 15 दिनों पश्चात् आने के लिए खत डाल दिया। फिर नन्दिता ने बीच में टोका।
फिर? क्या पापा लेने आये आपको?
नहीं री वे कैसे लेने आते, ये तो सबकी सोची-समझी साजिश थी।
शान्तनु तो नहीं लेने आया मगर उसका एक पत्र जरूर आया। डियर वो क्या है आकांक्षा डार्लिंग तुम्हारे जाने के बाद दुबई से मेरे लिए नौकरी की कॉल आ गयी है मैंने सोचा था जब लग जायेगी तब तुम्हें बताऊंगा। सो मैं आज रात की फ्लाइट से ही दुबई पहुँचूँगा। तुम्हारे कपड़े आदि सामान मैं पड़ोसी के घर रखवा कर जा रहा हूँ। देखो अवसर मिलते ही तुम्हें लेने आ जाऊँगा। वही पहुँचकर अपना पता ठिकाना दूँगा। दुकान बेच दी, मकान मैंने खाली कर दिया है। तुम अपना समय बिताने के लिए कोई जॉब ढूँढ लो। तुम्हारा शान्तनु।
पत्र पढ़कर मैं धम्म से रह गयी। मेरी ऐसी प्रतिक्रिया से सब मेरी ओर दौड़े। मैंने पत्र माँ के हाथों में थमा दिया। माँ ने पिता के। पिता ने भाइयों के सब ने खूब जी भर कर शान्तनु को भला बुरा कहा। ये भी कोई तरीका है भला बीबी को यों अकेले छोड़कर जाने का। पिता और भाइयों ने आपे से बाहर होकर खूब उसे बुरा भला कहना शुरू किया और माँ ने आकर मुझे प्यार से उठाने का नाटक। मेरी आँखों के आगे घर का सारा नया सामान आ गया। और फिर समझते तनिक देर नहीं लगी। मैंने लगभग चीखते हुए से स्वर में बोला नाटक बंद करो प्लीज बंद करो। पर्दा उठा गया है। मैं सब समझ गयी तुम लोगों ने मेरा विवाह नहीं किया था। मुझे बेचा था उस सौदागर के हाथ। ये कहते-कहते मैं बेहोश हो गयी फिर जब मेरी आँखें खुली तो समझ गयी मैं अकेली नहीं हूँ तुम मेरे भीतर आ चुकी हो।
सो अब आत्महत्या का सवाल नहीं उठता। मुझे जीना होगा तुम्हारे लिए।
बस मैंने उसी क्षण अपनी नियती स्वीकार कर ली। किसी से कुछ नहीं कहा। अपने कमरे को ठीक किया। अगले दिन पुराने स्कूल में एप्लीकेशन दे आई दस दिन बाद वहाँ के प्रिंसिपल ने मेरी सब आपबीती सुनकर मुझे फिर रख लिया।
ऐसे कठिन समय में उन्होंने मुझे बहुत सहारा दिया। मेरे अपनों ने मेरी जड़ें ही काट दी थीं। न मैंने लौटकर दिल्ली का रुख किया न कोई उस पर दावा। मुझे तो सच ये भी नहीं मालूम वो वास्तव में दुबई गया भी था या फिर किसी और से सौदा।
फायदा भी कुछ नहीं था, न मेरे पास धन की ताकत थी न किसी का सहारा। दावा ठोकती तो किस बूते पर। कोर्ट-कचहरी के चक्करों में जिंदगी बीत जाती। तुम्हारे नाना का परिवार फिर पहले की तरह मेरी कमाई पर चलने लगा।
दोनों भाई चोरी चकारी में लग गये। मेरे जीवन में जिस दिन से तुम आ गयी उसके बाद मैं अस्पताल से सीधी बड़ी बहिन जी के यहाँ रहने लगी। वहीं रहते हुए धीरे-ध् ाीरे तुम्हारे साथ अपने लिए एक कमरा किराए पर लिया। तुम्हारे नाना-नानी सड़-सड़ कर मरे और भाई जेल आते जाते रहे।
मीमाँसा ने किसी अंतर्जातीय लड़के से घर से भागकर कोर्ट मैरिज कर ली। माता-पिता अपने सारे पापों का फल भोगते हुए मरे। लेकिन मैं फिर उस घर में मिलने तक नहीं गयी। उनकी दुर्दशा का हाल जब तक कोई जान पहचान वाला बताता तो चुप सुन लेती मगर मेरा दिल उन लोगों की तरफ से चट्टान सा बन गया था।
ये जिस छत के नीचे हम तुम रहते हैं इसे हमारी प्रधानाचार्या ने अपने अंतिम दिनों में मेरे नाम करा दिया था। ये उन्हीं की फ्लैट है। बड़ी ही भली महिला थीं। आजीवन अविवाहित रहीं और मुझ जैसी कितनी दीन दुखी, महिलाओं की किसी न किसी रूप में मदद करती रहीं। अक्सर मुझसे कहा करती थीं। बेटी नहीं जनी तो क्या बेटी के रुप में तुझे पा लिया। तुझे तो खूब-खूब प्यार करती थीं। तेरे विवाह की तैयारी कर के रख गयी हैं। सच बेटी कोई अच्छा सा घर वर मिल जाए तो मैं चैन से मुक्ति पा सकूँ। कहते-कहते आकांक्षा ने नन्दिता को अपनी बाहों में समेट लिया। माँ के मन की स्थिति नन्दिता जानती थी सेा इस वक्त कुछ न बोली बस चुपचाप बहुत देर तक माँ बेटी एक दूसरे की आँखें पोछती रहीं।
सारी आपबीती सुना आकांक्षा का मन हल्का हो गया था। वो बेटी के लिए सुखद-सपने देखती सो गयी और बेटी माँ के विगत जीवन के दुःखों का अनुमान करती हुई। अपनी माँ पर अभिमान करती हुई। इतने संघर्ष में भी माँ में कितना आत्मबल रहा सब कुछ सह गयी। कभी परिवार के लिए कभी मेरे लिए। नहीं मैं अपनी माँ को कोई दुःख नहीं दूँगी। मैं माँ की आजीवन सेवा करूँगी। ये ही मेरा जीवन ध्येय है। मेरा दृढ़ संकल्प है।
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243, सै.-1, चिरंजीव विहार,
गाजियाबाद-201002 (उ.प्र.)
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