इधर कुछ परमवीर महा पुरुषों से मुलाकात हुई। सभी घर- गृहस्थी के कामों से मुक्त थे। घर-दुकान-व्यापार-नौकरी धन्धों से उब गये थे और समाज सेव...
इधर कुछ परमवीर महा पुरुषों से मुलाकात हुई। सभी घर- गृहस्थी के कामों से मुक्त थे। घर-दुकान-व्यापार-नौकरी धन्धों से उब गये थे और समाज सेवा के क्षेत्र में हाथ और किस्मत आजमाना चाहते थे। मुझे बुद्धिजीवी जान कर मेरे पास आये थे। मैं ने भी सुझाव-सलाह-राय देने का सामाजिक ठेका उठा रखा है। तुरन्त बोल पड़ा, समाज सेवा का सबसे बेहतरीन रास्ता ये है प्रभु कि एक संस्था खोल लो। संस्था का पंजीकरण करा लो। सरकार से, विदेशों से माल खींचो और सेवा का मेवा खाओ। मैंने आगे उन्हें ज्ञान दिया भाई जी स्वयं सेवी संस्था उसे कहते है जो स्वयं की व्यक्तिगत सेवा के लिए बनाई जाती है। खुद की सेवा करने वाली स्वयं सेवी संस्था ही सफल होती है। संस्था से उपर उठकर आप चाहे तो ट्रस्ट,फाउन्डेशन, बना सकते है। किसी बड़ी सरकारी संस्था में घुस कर सरकार पर कब्जा कर सकते है। जन्तर मन्तर, वोट क्लब, बापू की समाधि पर अनशन कर सकते हैं। अपने बेटे-बेटियों के लिए एक संस्था बना डालिये। ट्रस्टों के ट्रस्टीज के ठाठ-बाट देख कर आंखें चौधियां जाती हैं। मैं ऐसे कई ट्रस्टियों को जानता हूँ, जो हवाई जहाज में घूमते है और फोर्ड से नीचे नहीं उतरते, यह सब समाज सेवा के लिए जरुरी भी है। मेरे से ज्ञान लेकर बन्धुवर चले गये। संस्था निर्माण में लग गये। कुछ ही दिनों में उनकी संस्था अस्तित्व में आ जायेगी। वे समाज के साथ साथ खुद की भी सेवा में लग जायेंगे। पूरे विश्व में सरकारों की असफलता के बाद संस्थाओं का निर्माण कार्य शुरु हुआ। एन․जी․ओ․ बना कर लोग सरकारों को गालियां देते है और सरकारों से ही अनुदान लेकर डकार जाते है। कुछ एक ईमानदार लोग अपनी संस्था को ईमानदारी से चलाने की कोशिश करते है तो कुछ ही समय बाद कोई शक्तिशाली व्यक्ति उस संस्था पर कब्जा कर लेता है और ईमानदार व्यक्ति को बाहर का रास्ता दिखा देता है। ज्यादातर संस्थाओं के ट्रस्टी मुख्य कार्यकारी कोई बड़ा नेता या बड़ा अफसर या बड़ा उद्योगपति होता है, इन संस्थाओं में इन बड़े लोगो की बीबियां प्रेमिकाएँ, सालियां, महिला मित्र, पेज थ्री की माडल्स आदि पदाधिकारी होती है ये लोग अपने आकाओं के हित चिन्तन के लिए संस्था के पद और पैसे का सदुपयोग करती है। सेठजी का टेण्डर पास तो अफसर बीबी की एन․जी․ओ․ को तगड़ा दान। यदि नेता की कलम में ताकत तो एन․जी․ओ․ पर मेहरबान। कुछ ज्यादा होशियार लोग तो अपनी संस्था को सरकारी बजट तक में घुसा देते हैं। एक बार घुसने की देर है फिर प्रतिवर्ष नियमित बजट बिना रोक टोक के। बस खाते रहिये। खिलाते रहिये। जमे रहिये। देश की सेवा करते रहिये। समाज की सेवा करते रहिये। मेवा खाते रहिये। अपनी कुर्सी और कोहनी पर गुड़ लगाकर मजे करिये। वास्तव ये संस्थाएं कामधेनु की तरह दुधारु गाये है बस आपको दुहना आना चाहिये। संस्था के माध्यम से ही कार, कोठी, कंचन, कामिनी, कुर्सी, रसूखात प्राप्त होते है। आयकर से बचने के लिए अपनी कमाई बीबी के ट्रस्ट में डाल दो। बीबी का ट्रस्ट जमीन खरीद लेगा। जमीन पर साली की फेक्ट्री लगवा दो। वाह। संस्था, ट्रस्ट, फाउन्डेशन का बोर्ड लगवा दो। हो गई समाज सेवा। हां मीडिया को भी चाय पानी कराते रहो।
संस्थाओं के आकार-प्रकार पर मत जाओ। सभी प्रकार की संस्थाएं समाज में चल रही है, दौड़ रही है। आपके ज्ञान वर्धन हेतु कुछ बताता हूँ। शिक्षा,कला, संस्कृति, धर्म, सम्प्रदाय, जाति की संस्थाएं खूब चलती है। कुछ परमवीरों ने तो यौन-कार्यकर्ताओं के उद्धार के लिए भी संस्थाएं बना ली है और खुद का व दूसरों का उद्धार कर रहे है। संस्थाओं ट्रस्टों को प्राप्त राशि का हिसाब किताब भी अप टू डेट होता है, जो संस्था विरोध करे उस पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर मीडिया में सीडी बांट देने की परम्परा भी अब समाज में विकसित हो गई हैं। संस्थाओं की मदद से व्यक्ति देश-विदेश ही नहीं ब्रहमाण्ड तक की यात्रा कर सकता है। वहीं संस्था का सर्वेसर्वा होता हैं। समाज की सेवा के लिए विदेश जाना तो आम बात है। आप अपनी संस्था के द्वारा बड़े और शक्ति शाली लोगों का सम्मान, अभिनन्दन करे और बदले में मोटी काली रकम पाये। इस हाथ दे उस हाथ ले वाली बात याद रखे।
संस्था के पदाधिकारी संस्था तब छोड़ते है, जब आत्मा शरीर का साथ छोड़ देती है। मैं संस्था का मैं समाज का और संस्था और समाज मेरा। संस्था प्रधान कुशल अभिनेता भी होता है, वह अभिनय कला से झोली फैलाकर संस्था का और अपने परिजनों का पेट पालता है। आखिर ये लोग भी तो समाज के ही अंग है।
संस्थाओं को नियमों से बांधना संभव नहीं है। नियम से तो सरकारें भी नहीं चलती, संस्थाएं कैसे चल सकती है। शोध- संस्थाओं में घुस जाईये बस पांचों घी में क्योंकि शोध कभी खतम नहीं होती। आप पूछ सकते है कि संस्थाओं का अन्तिम स्वामी कौन होता है, मगर भाई साहब संस्थाओं का कभी अन्त नहीं होता। वे अनन्त होती है। संस्था का भवन, जमीन, टेलीफोन, नौकर, बजट, राशि, कम्यूटर, स्टेशनरी आदि सैकड़ों चीजों का मालिक संस्था प्रधान और उसके घर वाले ही होते है। ऐसी संस्थाएं सरकार भी चलाती है, मगर जो मजा गैर सरकारी संस्था चलाने में है वो सरकार में कहाँ। आप भी एक गैर सरकारी संस्था बनाले। समाज सेवा के नाम पर काजू-बदाम खाये और छिलके समाज को दे, यही इस आलेख का सार है।
0यशवन्त कोठारी,
86, लक्ष्मी नगर,
ब्रह्मपुरी बाहर, जयपुर - 2,
फोन - 2670596
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