कला का संबंध मनुष्य के अंतरात्मा में बसे सौंदर्यबोध से है। कैलीग्राफी फाइन आर्ट से जुड़ी एक विशिष्ट विद्या है जिसमें शब्दों या वाक्यों...
कला का संबंध मनुष्य के अंतरात्मा में बसे सौंदर्यबोध से है। कैलीग्राफी फाइन आर्ट से जुड़ी एक विशिष्ट विद्या है जिसमें शब्दों या वाक्यों का कलात्मक तरीके से प्रयोग किया जाता है। एकबारगी देखने पर यह कोई आकृति सी लगती है पर गंभीरता से देखने पर इसमें लिखे गये शब्दों को पढ़ा जा सकता है। कैलीग्राफी को हिन्दी में सुलेखन और फारसी में खुशनवीसी कहते हैं जिसका अर्थ है खूबसूरत लिखावट। खुशनवीसी का काम किताबत कहलाता है। जिस कागज पर कैलीग्राफी की जाती है उसे वस्ली कहा जाता है। वस्ली का अर्थ है खुद को खुदा से मिलाना। कैलीग्राफी अक्षरों के जरिये खुदा की इबादत भी है और अक्षरों की जादूगरी भी।
कैलीग्राफी की एक समृद्ध एवं उन्नत परंपरा रही है। प्राचीन काल में सरकंडा, सरकी, पक्षियों के पंखों से बनायी गयी कलम से खास स्याही का प्रयोग कर लिखने का काम किया जाता था। विभिन्न संग्रहालयों एवं पुस्तकालयों में संग्रहित पांडुलिपियों से पता चलता है कि प्राचीन भारत में यह कला काफी लोकप्रिय थी। ताड़ के पत्तों अथवा हाथ से बनाये गये कागजों पर अधिकतर किताबें लिखी जाती थीं। एक समय ऐसा था जब कोई भी जापानी या चायनीज पेंटर के तौर पर तब तक काम नहीं कर सकता था, जब तक कि वह कैलीग्राफी न सीख ले। मुगलों के आगमन के बाद यह कला भारत में भी पहुंची।
कैलीग्राफी इस्लामी कला के सबसे प्रारंभिक कला-रूपों में से एक है। इसलाम धर्म चित्रकला के प्रति उदासीन और वर्जना भाववाला रहा है। इसलाम में मूर्तिकला तथा किसी भी रूप में मनुष्य, जीव-जंतु के चित्रांकन पर रोक था। अकबर के समय इसमें परिवर्तन आया। धर्मग्रन्थों के अलंकरण के रूप में कैलीग्राफी की कला का प्रयोग शुरू किया गया। फिर कैलीग्राफी मुसलिम सभ्यता एवं संस्कृति की अभिव्यक्ति का मुख्य साधन बन गया। हजरत मुहम्मद द्वारा कुरान को अति सुंदर अक्षरों में लिखने के निर्देशों ने मुसलिम देशों में कैलीग्राफी की कला के विस्तार में सहयोग दिया। अरबी लिपि को विभिन्न कलात्मक रूप एवं नाम दिए गये तथा इनकी शैलियों के अलग-अलग स्कूल स्थापित किये गये। मीर इमाद, अली रेजा अब्बासी, मीर अली हरवी, इब्ने मकला का नाम इस कला के क्षेत्र में काफी लोकप्रिय हैै। इनकी कला का वही महत्व है जो यूरोप के लियोनार्दो-दा-विंची तथा माइकल एंजेलो का है। मुगलकाल में मोहम्मद हुसैन कश्मीरी, अब्दुल रशीद देलमी, मो मुराद कश्मीरी, सैयद अली खां, जवाहर रकम विश्व स्तर के कैलीग्राफर थे। उस जमाने में हिन्दुओं में भी कई ऐसे विद्वान थे जो इस कला में माहिर थे। इनमें चंद्रभान ब्राह्मण, सर्वसुख राम, खुशबक्त राय दांगी, रायप्रेम नाथ, मुंशी पन्ना लाल, राजा दुर्गा प्रसाद, साहिब राम प्रमुख थे। पटना के खुदाबक्श पुस्कालय में इन कैलीग्राफरों की कलाकृतियां मौजूद हैं। फारसी-अरबी कैलीग्राफी की पहली किताब उर्दू में अरजंगे चीन 1875 में प्रकाशित हुई थी। इसके लेखक बदायूं के कायस्थ मुंशी देवी प्रसाद थे। आधुनिक युग में भी कुछ ऐसे लोग हैं जिन्होंने हस्तलेखन की खूबसूरती को जिंदा रखा है और इस कला के पुनरूत्थान के लिए प्रयत्नशील रहे हैं।
आधुनिक और समकालीन कैलीग्राफिक पेंटिंग की शुरूआत दो दशक पहले हुई। कंप्यूटर आने के बाद भी कैलीग्राफी की कला विश्व में जिंदा है। अंग्रेजी व हिन्दी के अक्षरों को सुव्यवस्थित और स्टाइलिश ढंग में पेश किया जा रहा है। कैलीग्राफी का बतौर पेंटिग भी प्रयोग किया जा रहा है। पिछले कुछ दशकों में भारतीय और पाकिस्तानी कलाकारों ने कैलीग्राफी को अपने कैनवास और पेपर वर्क के साथ भी मिलाया है। प्रसिद्ध पाकिस्तानी कलाकार गुलजी ने कैलीग्राफी विद्या में कई आकर्षक तस्वीरें बनाई थी। उन्होंने अल्लाह के नाम पर कैलीग्राफिक तस्वीरों की श्रृंखला तैयार की थी। इसी तरह अबनींद्रनाथ ठाकुर ने बांग्ला लिपि के साथ कैलीग्राफिक तस्वीरें बनाई जिसे इस्लामिक शैली में बनाया गया था। यूसुफ अली भी इस विद्या के चित्रकार हैं। तुर्की मूल के और भारत में रहनेवाले रेहानी खान ने भी अति सुंदर कैलिग्राफिक चित्र बनाए हैं। बिहार के अनीस सिद्दकी दिल्ली में रहकर छात्रों को कैलीग्राफी के गुर सीखाते हैं। अनीस ने कैलीग्राफी के लिए 1984 में राष्ट्रीय पुरस्कार जीता है। अनीस पीपल के पत्ते को लेकर उस पर कुरानशरीफ की पंक्तियों को खूबसूरत अंदाज में लिखकर इसे पेंटिंग का रूप दिया है। अरबी कैलीग्राफी की पहली नीलामी दिसंबर 2010 में दोहा स्थित नीलामघर सांदबी में हुई। यह कलाकृति अहमद मुस्तफा की थी।
झारखंड सरकार के पदाधिकारी अहरार आलम को कैलीग्राफिक जगत में अहरार हिन्दी के नाम से जाना जाता है। इन्होंने कैलीग्राफी के इतिहास एवं कला का नवयुग में उत्थान के संभावनाओं पर गहन अध्ययन एवं चिंतन किया है। अहरार के द्वारा बनायी गयी कलाकृतियों के नमूने खुदाबक्श पुस्तकालय के अलावा लंदन, तेहरान तथा दिल्ली के कलाप्रेमियों के पास संग्रहित हैं। वे सरकंडे की कलम से लेकर धातु की बनी निबों से निरंतर इस कला के नमूने तैयार करते रहते हैं। बाहर के देशों में इनकी कला को काफी सराहना मिल रही है। उनका रूझान बचपन से ही इस कला की तरफ था। उन्होंने बहुत कम उम्र में ही कैलीग्राफी की कला में महारत हासिल कर ली थी। कैलीग्राफी का एक पीस तैयार करने में महीनों का समय लग जाता है। व्यस्तताओं के बावजूद वे प्रतिदिन करीब दो घंटे इस कला पर खर्च करते हैं। खुदाबक्श पुस्तकालय के तात्कालिक निदेशक आबिद रेजा बेदार ने 1981 में अहरार को विशेष कार्य के लिए आमंत्रित किया था। 1993 में इस्तांबूल में हुए विश्वस्तरीय कैलीग्राफी के मुकाबले में इन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व भी किया था।
अहरार कैलीग्राफी में कुरान की आयतों को उकेरते हैं। उनकी कलात्मकता उभर कर आती है। उर्दू की साझी संस्कृति और गालिब के तहजीब का केंद्र बिंदु गालिब अकादमी में प्रत्येक वर्ष कैलीग्राफी की नुमाइश लगती है। गत वर्ष अहरार के कैलीग्राफिक नमूनों का दिल्ली के गालिब इन्स्टीट्यूट, अलीगढ़ के अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और पटना के खुदाबक्श पुस्तकाल में प्रदर्शन किया गया। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में ईरान के कैलीग्राफिस्ट रसूल मुरादी व भारत के अहरार हिन्दी के द्वारा बनाये गये लगभग 90 कैलीग्राफी नमूनों का प्रदर्शन किया गया। कुरान की आयतों व सूरतों के कैलीग्राफी नमूने आकर्षण के केंद्र रहे। इस्लामी व सूफी परंपराओं को प्रदर्शित किए जाने वाले चित्रों की बेजोड़ कला देख लोग दंग रह गये। अप्रैल 2010 में अहरार ने कैलीग्राफिक व़िद्या पर खुदाबक्श पुस्तकालय में एक्सटेंशन लेक्चर दिया था। पोपुलर लेक्चर जनवरी 2005 में दिया गया था। सूफीज्म के रंग में डूबी अहरार हिन्दी की कलाकृतियां लाजवाब हैं।
उर्दू के अखबारों में कम्पोजिटर को कातिब कहा जाता है। आज भी कई अखबारों में मशीनी लिखाई की जगह हाथ से लिखने का काम होता है। चैन्नई से निकलनेवाला अखबार ‘दी मुसलमान' पूरी तरह से हस्तलिखित है। इसके संपादक फाजल्लुला हैं। कैलीग्राफी पर आधारित इस अनूठे दैनिक समाचारपत्र के मुख्य पृष्ठ से लेकर अंतिम पृष्ठ तक, हर पृष्ठ को कातिब अपने सुगढ़ हाथों से सजाते हैं। बीते 80 सालों से यह अखबार निकल रहा है। कातिबों द्वारा तैयार की गयी प्रतियों के श्वेत-श्याम निगेटिव बनाकर फिर उसे मुद्रित किया जाता है।
जो सीधी और तिरछी लकीरों की भाषा का बोध रखते हैं उनके लिए कैलीग्राफी का विशेष महत्व है। भारत में सुलेखन की कला सदियों से चली आ रही है। सुलेखन मुसलमानों की एक खास परंपरा है, जो यहां की सामाजिक स्थिति, शिक्षा और उदार मूल्यों को दर्शाती है। कैलीग्राफी कभी मुगल शासन के अधीन रहे शहरों की शान हुआ करती थी। मुगलकाल में लोकप्रिय रही यह लेखन कला अब मिटने के कगार पर है। धीरे-धीरे खत्म होती इस कला का संरक्षण एवं संवर्द्धन जरूरी है। जो लोग इस इस्लामिक लेखन कला को जिंदा रखने की कवायद कर रहे हैं, उन्हें प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है।
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हिमकर श्याम
द्वारा ः एन. पी. श्रीवास्तव
5, टैगोर हिल रोड, मोराबादी,
रांचीः 8, झारखंड।
कैलीग्राफी के बारे में जानकारी के लिए धन्यवाद|
जवाब देंहटाएंकैलीग्राफी पर विशिष्ट लेख देने के लिए सम्पादक महोदय और लेखक दोनों ही बधाई के पात्र हैं।
जवाब देंहटाएंकैलीग्राफी पर एक उत्कृष्ट एवं informations से भरपूर रचना | रचनाकार (द्वय - वेबसाइट और श्री हिमकर ) को हार्दिक बधाई |
जवाब देंहटाएंThanks for discussing on one of the lost essence of India,s heritage{calligraphy}.People can easily understand the theme of ur article as it has been written in a simple n easy way.It's a surreal feeling to know that people like M.Ahrar Hindi are still struggling for the revival of this art form.
जवाब देंहटाएंSaleha Ilhaam.
हमारी साझी विरासत को बचाने की जरूरत है. इस दिशा में यह सराहनीय प्रयास है. हिमकर, अहरार और रचनाकार को बधाई.
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