कृष्‍ण गोपाल सिन्‍हा का व्यंग्य - स्वान प्रसंग

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व्यंग्य स्‍वान प्रसंग   शीर्षक से सावधान रहें। मैं यह सहर्ष स्‍वीकार करता हूं कि एक भूतपूर्व कुत्‍ता स्‍वामी होने के नाते जो कुछ कहूंगा ...

व्यंग्य

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स्‍वान प्रसंग

 

शीर्षक से सावधान रहें।

मैं यह सहर्ष स्‍वीकार करता हूं कि एक भूतपूर्व कुत्‍ता स्‍वामी होने के नाते जो कुछ कहूंगा वह बिना किसी पूर्वाग्रह और दुराग्रह के कहूंगा। कुछ भी आप जैसे कुत्‍ता प्रेमियों और कुत्‍ता सेवियों की शान के खिलाफ लिखा जाये तो रचना खेद सहित वापिस लेने में मेरी ओर से कतई कोई कोताही नहीं बरती जायेगी।

प्रारम्‍भ में ही एक चूक कर बैठा हूं। संकोच की पराकाष्‍ठा को पार करने के बावजूद निःसंकोच इस बात को रिकार्ड में लाना चाहूंगा कि ‘कुत्‍ता' के प्रयोग से मैं बचना चाहता हूं पर कब कैसे यह रूबी, जूली, शेरू, रूसी, चंदन, कुंदन, शेरा की जगह आ जाता है विश्‍वास करिये मैं बिल्‍कुल नहीं जानता। इनमें से किसी का भी अपमान हो हमारा अपमान है। कुत्‍ता कहकर हम किसी को गाली दें, बेशर्मी की हद है।

साहित्‍य से लगाव हो तो ‘स्‍वान' अच्‍छा लगता है। लिंग निरपेक्ष भाव हो तो ‘डागी' से काम चल सकता है। नामकरण सोच-समझ कर किया जाय तो पारिवारिक सदस्‍य का दर्जा स्‍वयमेव मिल जाता है। फिर मजाल क्‍या कि कोई आपके जूली या शेरा की तौहीन करे। इसीलिए भूल सुधार करते हुए आपको स्‍वान प्रेमी या स्‍वान सेवी कहना आनन्‍ददायक लगता है। आखिरकार आप प्रेम और सेवा भाव के एवज में ही तो दूसरी तरफ से अपने प्रेमी और स्‍वामी के प्रति सत्‍यनिष्‍ठा के हकदार होते है। अपने स्‍वामी के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध होने की कला और कौशल के लिए हम उनका (स्‍वान का) अनुसरण करें तो फलदायी होगा।

प्रेम ईश्‍वर का एक वरदान है। ‘प्रेम' फिल्‍मों के अलावा अब कहॉ देखने सुनने को मिलता है। प्रेमी भी अब टिकाऊ कम कमाऊ और काम चलाऊ ज्‍यादा होने लगे हैं। इस परिदृश्‍य में क्रिकेट प्रेम और ‘कुत्‍ता प्रेम' की परम्‍परा चरम स्‍थिति पर है। प्रथम श्रेणी के प्रेमी क्रिकेट के मैदान पर या टेन स्‍पोर्टस या ईएसपीएन के रूबरू मिलेंगे। दूसरे कैटेगरी के प्रेमी प्रातःकालीन भ्रमण पर किसी राजपथ, जनपथ या आम रास्‍ते पर मिल सकते हैं। सेवा और प्रेम भाव की अभिव्‍यक्‍ति देखिए कि आप यह निर्णय नहीं कर सकते कि कौन किसके साथ है। स्‍वामी के साथ स्‍वामी भक्‍त या स्‍वामी भक्‍त के साथ स्‍वामी। क्षण भर को क्षमा कर सके तो कुत्‍ता स्‍वामी को या स्‍वामी कुत्‍ते को टहला रहे हैं निर्णय कठिन है।

यह भी एक संयोग ही होता है कि हाजत एक को महसूस होती है तो हरकत में दोनों आते हैं। आखिर एक बेजुवान है फिर भी इशारे तो करता ही है, आप समझते भी हैं इसलिए आलस्‍य या टालमटोल की न तो कोई गुंजाईश रहती है और न ही यह तर्कसंगत लगता है। ऐसी परिस्‍थिति असमय भी आ जाये तो नींद का उड़ना या टूटना जरूरी होता है क्‍योंकि स्‍वान के सतसंग से स्‍वान निद्रा का अभ्‍यस्‍त होना कठिन नहीं लगता। एक रिलीफ्‌ महसूस करता है तो दूसरा एक जरूरी रूटीन से निबटा हुआ होता है।

अपंगता से हीन भावना पनपे यह कतई ठीक नहीं है। एक पूंछ विहीन कुत्‍ते और उसके स्‍वामी को भी किसी प्रकार की हीन भावना नहीं होती, यह स्‍वागत योग्‍य है। अच्‍छे लोगों की पूछ कम होती जा रही है पर कुत्‍तों की पूछ बढ़ने लगी है यह एक सकारात्‍मक संकेत है। कभी-कभी कुत्‍ता तो है कुत्‍ते की पूंछ नहीं है तो आसमान तो नहीं फटने वाला।

यह विडम्‍बना कम वास्‍तविकता अधिक प्रतीत होती है कि कुत्‍ता कहे जाने वाले स्‍वामी भक्‍त जीव से कुछ गुणों का अनुसरण सीखें न सीखें कुछ लोग उसकी दुम कहे जाने का दर्जा जरूर पा लेते हैं क्‍योंकि वे बदलने या बदले जाने से परहेज भी रखते हैं और गुरेज भी करते हैं। टेढ़े के टेढ़े रहने में जो मजा कुत्‍ते की दुम को है वह आनन्‍द सीधे होने या बनने से इंसान को कहां मिलने वाला है इसीलिए साल कितने भी लगे वे सुधरने वाले नहीं।

किसी भी भद्र और व्‍यावहारिक व्‍यक्‍तित्‍व से आपकी ही तरह आपके डागी (ही या शी) को भी यह हक हासिल है कि उसके प्रति कोई भी अभद्र या असंसदीय शब्‍द का प्रयोग न करे। ‘कुत्‍ता' का सम्‍बोधन अभद्रता की पराकाष्‍ठा है तो ‘कुतिया' का प्रयोग चरित्र पर लांछन का परिचायक है। किसी भी भद्र व्‍यक्‍ति को किसी के परसनल के बारे में कमेन्‍ट करना शोभा नहीं देता। डागी के मामलों में भी इसका पालन होना ही चाहिए भले ही इसकी इजाजत अभद्र नर और नारी योनि के प्राणियों के लिए करने की छूट दे दी जाये तो न कोई आपत्‍ति होगी न कोई विपत्‍ति ही आयेगी।

जहां ख़तरे की गुंजाईश होती है वहीं चेतावनी की दरकार होती है। कुत्‍तों के स्‍वामी इस दिशा में जागरूक रहते हैं यह एक स्‍वस्‍थ परिपाटी है। परन्‍तु ख़तरे की जोखिम की और भी ऐसी कई सम्‍भावनायें, घटनायें रहती है पर बिना किसी चेतावनी या संकेत के लोग पूरी असावधानी के साथ इसका सामना करते हैं। एक-दो चेतावनियों को छोड़ दे तो ढेरों चेतावनी के अंबार लग जायेंगे जब नक्‍कालों से, मक्‍कारों से, मिलावट करने वालों से, इंसान और इंसानियत की तिजारत करने वाले दरिन्‍दों से, लूट-खसोट मचाने वाले अमलों से, सावधान रहने की चेतावनी से, गली, मोहल्‍ले, सड़कें, गांव और शहर भरे होंगे और बचने-बचाने की कोशिश करनी होगी आपको, हम सबको। इस कोशिश से पहले सीखनी होगी चुस्‍ती, वफादारी, चौकसी और इस सबके लिए काम आयेगा आपका डागी, आपका स्‍वान, आपका कुत्‍ता। कुछ भी कहें, कुछ भी पुकारें क्‍या फर्क पड़ता है।

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‘‘अवध प्रभा''

61, मयूर रेजीडेन्‍सी,

फरीदी नगर,

लखनऊ-226016.

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रचनाकार: कृष्‍ण गोपाल सिन्‍हा का व्यंग्य - स्वान प्रसंग
कृष्‍ण गोपाल सिन्‍हा का व्यंग्य - स्वान प्रसंग
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