म ई का अन्तिम सप्ताह था। गर्मी अपनी चरम सीमा पर थी। पशु-पक्षी, राहगीर, किसान, सभी गर्मी की भीषणता से त्रस्त, आकुल-व्याकुल थे। ऐसे में, म...
मई का अन्तिम सप्ताह था। गर्मी अपनी चरम सीमा पर थी। पशु-पक्षी, राहगीर, किसान, सभी गर्मी की भीषणता से त्रस्त, आकुल-व्याकुल थे। ऐसे में, मैं दोपहर का भोजन करने के बाद थोड़ी देर आराम करने के उद्देश्य से कूलर चलाकर बिस्तर पर लेटा ही था कि अचानक कॉलवैल की आवाज सुनकर चौंक उठा।
ऐसी भीषण गर्मी में, इस समय कौन हो सकता है? सोचते-सोचते मैं बिस्तर से उठ खड़ा हुआ। पैरों में स्लीपर पहनीं और सामने हैंगर पर अभी-अभी टांगी शर्ट को उतार कर पहनने लगा। इतनी ही देर में कॉलवैल मेनगेट पर पहुँच गया।
गेेट खोलते ही सामने सुकेश को खड़ा पाया। सामने खड़ी कार में शायद उसकी पत्नी भी थी। मुझे देखते ही सुकेश मेरे पैरों में झुक गया-‘‘सॉरी अंकल, आपको ऐसी गर्मी में डिस्टर्ब किया।''
‘अरे हमारे-तुम्हारे बीच में ये डिस्टर्ब करने की बात कहाँ से पैदा हो गई सुकेश?'-मैंने सुकेश को दोनों बाहों से बीच में पकड़कर सीने से लगा लिया-‘गाड़ी में क्या बहू है? अरे उसे बोलो अन्दर आये।'-कहते हुए मैंने पूरा मेनगेट खोल दिया ताकि ड्राइवर गाड़ी को अन्दर कर सके।
सुकेश के इशारे पर ड्राइवर ने गाड़ी को पोर्च में खड़ा कर दिया तो रेणुका ने गाड़ी से उतर कर मेरे पैर छुए।
‘चलो, चलो तुम लोग अन्दर चलो। बहुत गर्मी पड़ रही है। अन्दर चल कर ही बात करेंगे।''-आशीर्वाद की मुद्रा में मैंने अपना दाहिना हाथ रेणुका के सिर पर रखते हुए कहा।
‘‘अंकल, पापाजी की तवियत बहुत खराब है। अब मैं क्या करूँ''-सुकेश ने खड़े-खड़े ही व्याकुल होकर मेरी ओर देखा तो मैं चौंक उठा-
‘तुझे किसने बताया? मेरे पास तो ऐसी कोई खबर नहीं है।'
अचानक ही मेरे मुँह से निकल तो गया पर दूसरे ही पल मैं स्वयं ही झेंप सा गया। पांच वर्ष पूर्व की वह घटना चलचित्र की भाँति मेरे मस्तिष्क-पटल पर भागने लगी। मेरी और सुकेश के पिता मि.भण्डारी की घनिष्ठ मित्रता थी या यूँ कहूँ कि बचपन से ही हम दोनों एक ही स्कूल, विद्यालय और फिर विश्वविद्यालय में पढ़ते हुए शिक्षित हुए और एक-दूसरे के ही घर में रहते-सोते, खोते-पीते बड़े हुए थे। दोनों के घर वाले ही नहीं, गाँव भर के लोग हम दोनों को राम-लक्ष्मण पुकारते थे। शिक्षा पूर्ण होते ही दोनों अपनी-अपनी नौकरियों पर चले गये। पर संयोग से दोनों की पोस्टिंग एक ही शहर में हुई। विवाह के बाद एक दूसरे की पत्नियाँ भी आपस में घुल-मिल गईं, जैसे सगी जिठानी-दौरानी हों दोनों।
समय का चक्र घूमता रहा और दोनों के बच्चे बड़े होने लगे। स्कूल की पढ़ाई पूर्ण कर कॉलेज और विश्वविद्यालयों तक पहुँच गये। ये भी संयोग ही था कि दोनों के पहले एक-एक पुत्री हुई और उसके बाद दो-दो पुत्र।
दोनों के बच्चे आपस में बिना किसी परायेपन के बेरोकटोक तरीके से मिलते, बातचीत करते और हम दोनों की बचपन की जिन्दगी की तरह ही जब जी में आता एक-दूसरे के घर साधिकार रुक जाते।
समय गुजरने के साथ-साथ सभी कुछ ठीक-ठाक चल रहा था। भण्डारी ने अपनी बेटी ऋतु की शादी मुंबई के एक धना्य परिवार में कर दी थी तो मैंने भी अपनी बिटिया सेतु के हाथ पीले कर दिए थे।
भण्डारी के बड़े बेटे ने इंजीनियरिंग किया था और उसकी शादी भी दिल्ली के अच्छे परिवार में हो गई थी साथ ही मेरे बड़े बेटे की शादी नोएडा में। अब भण्डारी के पास सुकेश और मेरे पास छोटा बेटा सुरेश शादी के लिए बकाया थे। दोनों के ही अच्छे-अच्छे घरानों से रिश्ते आ रहे थे। पर हम दोनों ने ही दहेज को किसी भी बच्चे की शादी में महत्व नहीं दिया था। अतः सुकेश और सुरेश के लिए भी हमारी प्राथमिकता में लड़की की सुयोग्यता एवं सुशिक्षित व सुसंस्कारवान होना प्रमुख था। किन्तु कुछ समय से मैं मि.भण्डारी के व्यवहार में थोड़ा-थोड़ा परिवर्तन सा महसूस कर रहा था। हो सकता है ये मेरा भ्रम ही हो, ये सोचकर मैं इस बात पर ज्यादा नोटिस नहीं ले रहा था।
सुकेश के लिए जिस लड़की का रिश्ता आया, उसके साथ जन्म-पत्रिका का मिलान किया गया तो पता चला
कि सुकेश तो मंगली है। लड़का यदि मंगली हो तो उसके लिए लड़की भी मंगली ही देखनी चाहिए, ऐसा ज्योतिष शास्त्र में उल्लेख है।
सुकेश मंगली है, ये जानकर मि.भण्डारी थोड़ा बिचलित हुए और मंगली लड़की के इन्तजार में सुकेश की उम्र बढ़ने लगी। सुरेश की शादी हुए भी दो वर्ष बीत गए किन्तु सुकेश का युगल अभी तक नहीं बन पाया। धीरे-धीरे कर सुकेश सत्ताइस की उम्र पार कर गया तो मि.भण्डारी का चिंतित होना स्वाभाविक था। उनके मस्तिष्क में पुरानी कहावत कि ‘‘लड़के तो अच्छों-अच्छों के व्याहने से रह जाते हैं पर लड़की गरीब की भी नहीं रहती'' उथल-पुथल मचाने लगी। जब गरीब की भी लड़की की शादी हो जायेगी तो सुकेश की जोड़ी कहाँ से बनेगी।
अचानक ही उनके दिमाग में एक उपाय सूझा और उन्होंने पुत्र का वैवाहिक विज्ञापन कुछ अखबारों में छपवा दिया। कुछ ही दिन बाद डाक से मंगली लड़कियों के फोटो और विवरण-पत्रों की झड़ी सी गल गई तो मि भण्डारी की बांछें खिल उठीं।
अब उनके पास चुनाव के लिए कई लड़कियों के रिश्ते थे। कई लड़कियाँ काफी समृद्ध परिवारों की थीं तो कई विपन्न परिवारों की भी। इतना ही नहीं कई लड़कियाँ उच्च शिक्षित थीं तो कई उच्च शिक्षा ग्रहण कर रही थीं और कई तो उच्च पदों पर अच्छे वेतनमानों में नौकरी भी कर रही थीं जिनके विवाह अभी तक केवल इसीलिए नहीं हो पाये थे कि वे मंगली थीं ओर उनके परिवारीजन अपने जीवन की व्यस्तताओं के कारण या किसी अन्य कारण से मंगली लड़के की खोज नहीं कर पाये थे या फिर कई ऐसी भी थीं जिनके माता-पिता उनके विवाह पूर्व ही दिवंगत हो चुके थे और भाई-भाभी अपने पारिवारिक जीवन में ही उलझे होने के कारण उनके लिए वर की खोज नहीं कर पाये थे।
सुकेश के वैवाहिक सम्बन्ध ने अब एक नया ही मोड़ ले लिया था। मध्य अन्तराल में जहाँ मि.भण्डारी सुकेश के सम्बन्ध को लेकर चिंतित रहने लगे थे वहीं अब उन्हें सुकेश के लिए रिश्ता लेकर आने वाले शतरंज के खेल की भाँति दिलचस्प लगने लगे थे जिन्हें वे अपनी वाक्चातुरी से शह और मात देने की पूरी-पूरी कोशिश करते।
मि. भण्डारी ने वाकायदा प्लास्टिक की एक फाइल बना ली थी जिसमें रिश्ते के लिए आये लड़कियों के फोटो, उनके वायोडाटा और अन्य विवरण उन्होंने क्रमवार फाइल कर रखे थे। प्रत्येक नये आने वाले व्यक्ति के सामने वे उस फाइल को खोल देते जिसमें कुल दहेज देने का विवरण भी रहता।
कई लड़की वाले तो उस फाइल को और उसमें लिखे लड़कियों व दहेज के विवरण को पढ़कर ही बोलने की हिम्मत नहीं कर पाते। कुछ बातचीत का सिलसिला शुरू भी करते तो भण्डारी उन्हें फाइल के अधिकतम दहेजदाता का विवरण दिखाकर और बातों को घुमा-फिराकर उससे अधिक ही दहेज की माँग का प्रस्ताव रख देते।
मि.भण्डारी के इस खेल में सयम का चक्र तेजी से घूमते हुए फुर्र-फुर्र उड़ा जा रहा था। सुकेश भी अपनी बढ़ती जा रही उम्र को देखते हुए अपने पिता के इस व्यवहार से खिन्न सा रहने लगा था। संयोगवश उसी दौरान मेरे एक सहकर्मी मि.हरिओम ने मेरे माध्यम से सुकेश के रिश्ते की बात चलानी चाही तो मैंने सुकेश की बढ़ती उम्र और खिन्नता के मद्देनजर भण्डारी से बात की। लड़की के रंग-रूप, शिक्षा और दहेज की क्षमता को देखते हुए मुझे लगा कि इस जगह सुकेश का रिश्ता जरूर तय हो जायेगा।
मि.हरिओम की ये पहली सन्तान थी किन्तु मंगली होने के कारण अभी तक शादी न हो पाने के कारण अन्य बच्चों की शादियों में भी विलम्ब होता जा रहा था। मेरा माध्यम पाकर मि.हरिओम कुछ आश्वस्त हुए और न्हें लगने लगा कि शायद इस जगह उनकी पुत्री का रिश्ता तय हो ही जायेगा। अपनी ओर से ही हरिओम ने एक गाड़ी और अच्छी शादी कर देने का वायदा भी किया। हरिओम की बेटी रेणुका मेरी अच्छी तरह देखी-भाली ही थी, सुकेश को भी अपने घर पर बुलाकर मैंने उसे दिखा दिया था। सुकेश ने उससे काफी देर तक बातचीत भी की तथा रेणुका को पसंद भी किया था। विवाह की रूपरेखा लगभग तय ही हो गई थी कि तभी भण्डारी के मन में लोभ कुछ ज्यादा ही पैदा हो गया।
भण्डारी ने मेरे ऊपर दबाव बनाना शुरू कर दिया कि मैं हरिओम से कहकर पांच लाख रुपये नगद भी दिला दूं। हरिओम स्वतः ही अपनी पुत्री और दामाद को अधिक से अधिक जीवनोपयोगी सामान देना चाहते थे ताकि पुत्री-दामाद को नया दाम्पत्य-जीवन शुरू करने में कठिनाइयों का सामना न करना पड़े किन्तु भण्डारी की नकदी की माँग को सुनकर हरिओम के पसीने छूटने लगे। वे रूआंसे होकर मेरे सामने रिरियाने लगे-‘‘देखो जगन्नाथ, मैंने तो अपनी ओर से ही इतना देने का मन बना रखा था कि मि. भण्डारी को कुछ कहने की आवश्यकता ही न पड़ती पर पांच लाख नकद की उनकी मांग ने मुझे निराश कर दिया है। आप बात करके देखो मान जायें तो।
हरिओम का रूंआसा चेहरा देखकर मुझे भी उसके प्रति सहानुभूमि सी एवं दहेज-दानव के प्रति ग्लानि सी हो उठी। मैं सोच-सोच कर हैरान था कि अब भण्डारी को हो क्या गया है। पहले तो किसी भी बच्चे के विवाह में उसने ऐसा व्यवहार नहीं किया था। फिर अचानक ही इतने बदलाव का कारण मेरी समझ से परे था फिर भी चूंकि भण्डारी मेरे बचपन का मित्र था, मैं अभी भी आश्वस्त था कि मैं भण्डारी को इस विवाह के लिए तैयार कर लूंगा किन्तु घोर आश्चर्य! मैं किसी भी तरह भण्डारी को इस विवाह के लिए उसकी शर्तों से हटकर, तैयार न कर सका।
मुझे अन्दर ही अन्दर बहुत ग्लानि हुई और हरिओम के दयनीय चेहरे ने मुझे कई दिन तक तनाव में घेरे रखा। इन बातों की भनक सुकेश को भी लग गई कि पापा ने अपनी जिद के आगे अंकल को भी अपमानित कर दिया है तो अपनी बढ़ती उम्र का तकाजा या फिर अपने पिता की हठधर्मी के कारण, संकेश के अन्दर एक विद्रोह उत्पन्न हो गया। वह मेरे पास आया और अपने मन की बात जुबान पर ले आया-‘‘अंकल, पता नहीं पापा को अब हो क्या गया है। मेरी बढ़ती उम्र की ओर भी नहीं देख रहे। बैल अगर व्याहेगा नहीं तो क्या बूढ़ा भी नहीं होगा। रेणुका मुझे पसंद है और मैं चाहता हूँ कि शादी रेणुका से ही हो।''
सुकेश की बात सुन मुझे उससे हमदर्दी सी होने लगी लेकिन दूसरी ओर मैं बचपन के अपने मित्र भण्डारी को नाराज भी नहीं करना चाहता था किन्तु मेरे चाहने से क्या होने वाला था आखिर सुकेश ने रेणुका से बात की और सुकेश-रेणुका दोनों ही इस बात पर अड़ गये कि वे दोनों ही बालिग हैं और अब वे बिना किसी दान-दहेज के ही, कोर्ट में जाकर शादी कर लेंगे। दहेज का ये कोढ़ समाज में इसीलिए भी अधिक फैलता जा रहा है कि युवावर्ग दहेज की प्रत्यक्ष बुराइयों के कारण नष्ट होते जा रहे परिवारों की दुर्दशा को देखते हुए भी या तो अपने लोभी माँ-बाप का खुलकर विरोध करने का साहस नहीं जुटा पाता या फिर वह दहेज के कारण हो रही कन्या-भ्रूण की हत्याओं के कारण आने वाले कल में उत्पन्न होने वाले विस्फोटक सामाजिक दुष्परिणामों और विकृतियों से बेखबर बना हुआ है या कहूं कि जानबूझकर आँख मूंदे हुए हैं। हम दोनों मिलकर इसके विरोध की पहल करेंगे।
और सचमुच ही सुकेश-रेणुका ने कोर्ट में जाकर शादी कर ली थी। भण्डारी को लगा कि शायद ऐसा करने के लिए मैंने ही सुकेश को फुसलाया होगा फलतः सारे जीवन की मित्रता में गांठ पड़ गई। भण्डारी ने मुझसे और मेरे परिवार से सारे सम्बन्ध विच्छेद कर लिए। चूंकि रेणुका का प्रस्ताव मैं ही लेकर गया था अतः अपने मन में अपराध बोध लिए मैं भी अपने आप में सिमट कर रह गया।
मि.हरिओम, रेणुका-सुकेश के रूढि़यों के कारा को तोड़ने के इस साहसिक कदम से जहाँ एक ओर आश्चर्यचकित थे वहीं दामपत्य-जीवन की नई डगर पर बढ़ते उनके कदम कहीं संघर्षों की झंझा से डगमगा न जायें इस चिंता से उनकी कुछ सहायता करना चाहते थे पर रेणुका-सुकेश ने कुछ भी स्वीकारने से नम्रता पूर्वक मना कर दिया और प्रसन्नतापूर्वक दाम्पत्य की नई डगर पर चल पड़े पर मेरे दिल में रह-रह कर भण्डारी की नादानी पर दया आती साथ ही अपनी खुद्दारीवश मैं कभी उसके हाल-चाल लेने भी नहीं गया उसके बाद।
‘‘अंकल, कहाँ खो गये आप?''-रेणुका-सुकेश की आवाज सुनकर मैं वर्तमान में लौट आया।
‘बेटे, तुम्हारे पापा की तवियत खराब है तो तुम सीधे घर क्यों नहीं गये, मेरे पास क्यों आये हो?'-मेरे दिल में एक हूक सी उठी-‘‘तुम लोग जानते हो कि भण्डारी ने तो तुम्हारी शादी के बाद से मुझसे सारे नाते ही तोड़ लिए हैं। वह समझता है कि मैंने ही तुम दोनों को․․․․․․․․․''-कहते-कहते मेरा गला रूंध गया।
‘इसीलिए तो हम सीधे आप के पास आये हैं, आपको अपने साथ ले चलने के लिए ताकि पापा की गलतफहमी दूर हो सके।'
एक ओर न किये गये अपराध की सजा भोगने के कारण मेरी खुद्दारी वहाँ जाने से रोक रही थी तो दूसरी ओर मित्र की अस्वस्थता का समाचार मेरे दिल में हूक पैदा कर रहा था। खुद्दारी को भूल मैंने रेणुका-सुकेश क
साथ ही चलने का निर्णय लिया। भण्डारी से अपने आप उठा भी नहीं जा रहा था। उसकी ये हालत देखकर मैं अपने आप को रोक न सका और उसे अपनी दोनों बाहों में भरकर हूंक देकर रो पड़ा-‘‘तूने मुझे इतना पराया समझ लिया भण्डारी कि अपनी अस्वस्थता की सूचना तक नहीं दी।''
‘अरे मुझे क्या हुआ है, अच्छा भला तो हूँ।'-भण्डारी ने चेहरे पर मुस्कान लाने का प्रयास किया।
‘‘इसे अच्छा भला कहते हैं तो फिर अस्वस्थ किसे कहते हैं?''-मैंने कटाक्ष किया।
‘अस्वस्थ नहीं, मैं अपनी गलतियों का प्रायश्चित कर रहा हूँ। दरअसल मैं अपने अहं एवं गलत फहमी का शिकार हुआ, अपने मित्र की मित्रता और अपने ही बच्चों का प्यार खोने के बाद ये समझ सका कि बच्चों की खुशी के आगे दुनिया के सारे लोभ बेकार हैं। आज के युग में, विघटन के इस दौर में दहेज से अधिक महत्वपूर्ण है बहू का अच्छा पढ़-लिखा होना संस्सकारवान होना। आज का सबसे उपयुक्त नारा ‘दुल्हन ही दहेज है' ही है जिसे किसी ने बहुत ही सोच-विचार और बुदिमत्ता से बनाया है। दहेज तो सचमुच ही दानव है जिसकी बलिवेदी पर ईश्वर की बनाई अद्भुत रचना कितनी ही ‘कन्याऐं' निर्दोष होते हुए भी, होम हो जाती हैं। रेणुका-सुकेश ने मेरी आँखें खोल दीं। सचमुच मुझे इन दोनों बच्चों के साहसिक कदम पर नाज है।'
सुनकर रेणुका और सुरेश भी रो पड़े और उन्होंने भण्डारी के पैर पकड़ लिए-‘‘हमें माफ कर दो पापा। हम ये कदम उठाने पर मजबूर थे। लेकिन पापा रेणुका ने आपके दहेज की भरपाई के लिए अपनी नौकरी से पांच लाख रूपये जमा कर लिए हैं जिन्हें वह आपको ही देने के लिए लाई है, ये लीजिए।''-रेणुका ने रूपये देने के लिए हाथ बढ़ाए तो भण्डारी ने उसके हाथों को पकड़ कर चूम लिया-‘‘बहू, तू मेरी पुत्र-वधु नहीं, मेरी बेटी भी है। मैने अब तक तुझे क्या दिया, सिवाय अलगाव और तनाव के? ये रूपये मेरी ओर से तेरी मुँह-दिखरौनी के हैं, रख ले। और हाँ, तूने तो सचमुच ही सिद्ध कर दिखाया कि दुल्हन ही दहेज है।''
सुनकर सभी हँस पड़े। रेणुका भी लजाते हुए अपनी सास के पास कमरे में चली गई।
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डॉ․दिनेश पाठक‘शशि' (संक्षिप्त परिचय)
जन्म ः 10 जुलाई 1957, गाँव-रामपुर (नरौरा), जिला-बुलन्दशहर (उ0प्र0)- 202397
पिता ः पं0 हरप्रसाद पाठक, माता ः श्रीमती चंपा देवी
शिक्षा ः एम0ए0 (हिन्दी), पी-एच0डी0(विषयः भारतीय रेल के साहित्यकारों का हिन्दी भाषा एवं साहित्य को प्रदेय), विद्युत इंजीनियरिंग
प्रकाशन ः सन् 1975 से स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं, संकलनों में कहानी, बाल कहानी, लघुकथा, लेख एवं समीक्षाओं का निरन्तर प्रकाशन यथा-
पत्र-पत्रिकाओं में ः कादम्बिनी, नवनीत, सारिका, साप्ता0 हिन्दुस्तान, वर्ष वैभव, कथाबिम्ब, पंजाब सौरभ, हरिगंधा, घर प्रभात, सेवन हिल्स, रमणी, सहेली समाचार, आकाशवाणी (हिन्दी), प्रतिबिम्ब, मोहन प्रभात, युवाहिन्द, हमारी पहल, षट्मुखी, पहुँच, सम्मार्जिनी, इरा इण्डिया, तारिका, किशोर क्रान्ति, मृगपाल, रूपकंचन, सुपरब्लेज, कजरारी, मुक्ता, मनियाँ, भूभारती, तुम्हारी मौत का जिम्मेदार, नवतारा, मित्र संगम, प्रौढ़ जगत, भारतीय रेल पत्रिका, रेल राजभाषा,रेल संगम, शब्दवर, मनमुक्ता, भाषासेतु, प्रतिप्रश्न, जगमग दीप ज्योति, अतएव, अक्षरा, कार्टूनवाच, डुमडुमी, ब्रजशतदल, जमुना जल, आकार, विश्वविवेक (अमेरिका), अमीबा, पंजाबी संस्कृति, हाइकू भारती, युवा सुरभि, सानुबन्ध, फाग, वामांगी, प्रयास, सम्यक्, अछूते सन्दर्भ,प्रणाम इंटरनेशनल, नारायणीयम्, मानक रश्मि, तरंग शिक्षा, सामाजिक आक्रोश, राजनैतिक समाचार पत्रिका, सन्मार्ग, विजय यात्रा, शोषितदुनिया, राष्ट्रीय श्रमिक, चौथी दुनिया, ब्रज गरिमा, जे․वी․जी․ टाइम्स, राष्ट्रीय सहारा, निर्दलीय, लोक शासन, हम सब साथ-साथ, ब्रज सलिला, सरोजिनी, हाइकु दर्पण, शीराजा, डी․एल․ए․, अमर उजाला, दैनिक जागरण, उत्त्ार प्रदेश आदि।
बाल-साहित्य ः बालक, बालहंस, बाल नगर, बालमंच, देव पुत्र, बाल पताका, बाल साहित्य समीक्षा, बाल बाटिका, कुटकुट, चंपक, लल्लू जगधर, चिल्ड्रेन बुलेटिन, हरियाणा रेडक्रास, हिमांक रतन, स्नेह, बच्चों का देश, बाल स्वर, बाल मिलाप, उपनिधि, कमला वाटिका, बाल प्रतिबिम्ब आदि में।
संकलनों में ः अक्षरों का विद्रोह, स्वरेां का आक्रोश, कितनी आवाजें, उपहार, शिलालेख, सम्यक्, शब्दों के तेवर, व्यंग्य भरे कटाक्ष, व्यंग्य कथाओं का संसार, अछूते संदर्भ, अंधा मोड़(सभी लघुकथा संकलन), सवारी सरकार बहादुर की, आधी हकीकत, टुकड़ा-टुकड़ा सच (सभी लघुकथा संकलन), ऐतिहासिक बाल कहानियाँ, आधुनिक बाल कहानियाँ, इक्कीसवीं सदी की बाल कहानियाँ, बाल मन की कहानियाँ, फुलवारी (सभी बाल कहानी संकलन) साहित्य और उत्त्ार संस्कृति, कहानी जंक्शन, कहानियों का कुनबा, हिन्दी की श्रेष्ठ बाल कहानियाँ, इक्कीसवीं सदी की चुनिंदा दहेज कथाएं,चर्चित व्यंग्य लघुकथाएं आदि।
प्रसारण ः सन् 1980 से आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों मथुरा-वृन्दावन, दिल्ली, रोहतक, ग्वालियर एवं राष्ट्रीय चैनल दिल्ली से कहानी, ब्रज कहानी, कविता, नाटक एवं झलकियों का प्रसारण।
प्रकाशित कृतियाँ ः 1․ अनुत्त्ारित (कहानी संग्रह),
2․ धुंध के पार (कहानी संग्रह),
3․ बेडि़याँ (ब्रजनवकथा-संग्रह),
4․ हाँ, यह सच है (लघुकथा-संग्रह),
5․ अमर ज्योति (बाल कहानी-संग्रह)
6․ पुस्तकों की हड़ताल (बाल कहानी-संग्रह)
7․ अनुपम बाल कहानियाँ (बाल कहानी-संग्रह)
8․ सपने में सपना (बाल कहानी-संग्रह)
9․ जादुई अंगूठी (बाल कहानी-संग्रह)
10․ मेहनत का फल (बाल कहानी-संग्रह)
11․ मेरा जैकी (बाल कहानी-संग्रह)
12․ नई शिक्षा नई दिशा (बाल कहानी-संग्रह),
13․ किट्टी (बाल उपन्यास)
14․ भारतीय रेलः इतिहास एवं उपलब्धियाँ (शोध)।
'इन्टरनेट पर कुछ कहानी एवं बालकहानी तथा लघुकथाएं, एवं व्यंग्य रचनाएँ
'कुछ बाल कहानियाँ कक्षा 1, 2 एवं 6 की हिन्दी पाठ्य पुस्तकों में,
'कुछ बाल कहानियों का हिन्दी से अंग्रेजी, बंगला, मराठी आदि में अनुवाद तथा कुछ लघुकथाओं का पंजाबी में अनुवाद प्रकाशित,
व्यक्तित्व पर शोधः आगरा विश्व विद्यालय की छात्रा कु0शिखा तोमर द्वारा ‘‘कथाशिल्पी डॉ․दिनेश पाठक‘शशि' का हिन्दी साहित्य को प्रदेय'' विषय पर शोध किया गया है 2009 में।
संपादन ः 1․ समकालीन लघुकथा (ल․क․ संकलन),
2․ शब्दों के तेवर (ल․क․ संकलन),
3․ कदम-कदम समझौते (ल․क․ संकलन)․
4․ टुकड़ा-टुकड़ा सच (व्यंग्य संकलन),
5․ आधीहकीकत(व्यंग्य संकलन),
6․ इक्कीसवीं सदी की चुनिंदा दहेज कथाएँ (कहानी संकलन),
7․ आदमखोर (कहानी संकलन),
8․ कब टूटेंगी बेडि़याँ (दहेज ल․ कथा संकलन),
9․ धत् तेरे की (व्यंग्य-संकलन),
10․ सम्यक त्रैमा0 (लघुकथा विशेषांक),
11․ सम्यक् (महिला लघुकथाकार विशेषांक)
12․ बाल साहित्य समीक्षा (मथुरा साहित्यकार अंक),
13․ यू․एस․एम․ मासिक (मथुरा विशेषांक)
14․ बाल साहित्य समीक्षा (मथुरा संतोष कुमार सिंह अंक),
15․ बाल साहित्य समीक्षा (पं0 ललित कुमार वाजपेयी उन्मुक्त विशेषांक)।
संपादन सहयोग ः 1․ विजय यात्रा साप्ता0 सन् 1980-81,
2․ राष्ट्रीय श्रमिक (पाक्षिक) सन् 1980-81,
3․ सम्यक् (मासिक) 1996 से 2006 तक,
4․ हाइकु दर्पण (मासिक), अगस्त 2001 से 2005 तक,
5․ मसि कागद (मासिक) 2004 से जून 2006 तक।
पुरस्कार/सम्मानः 1․ भारत सरकार द्वारा प्रेमचंद पुरस्कार-1996
2․ राष्ट्रकवि पं․ सोहनलाल द्विवेदी बाल साहित्य पुरस्कार समिति चित्त्ाौड़गढ द्वारा सम्मानित-1998
3․ भारतीय बाल कल्याण संस्थान कानपुर द्वारा सम्मानित- 1999
4․ अखिल भारतीय साहित्यकार अभिनन्दन समिति मथुरा द्वारा सम्मानित - 2000
5․ संभावना साहित्यिक संस्था नोएडा द्वारा मायाश्री पुरस्कार - 2003
6․ बालगंगा साहित्यिक संस्था जयपुर द्वारा सम्मानित-2004
7․ ब्रजकला केन्द्र मथुरा द्वारा सम्मानित- 2005
8․ उद्भावना साहित्यिक संस्था मथुरा द्वारा सम्मानित- 2007
9․ जमुना जल साहित्यिक संस्था मथुरा द्वारा सम्मानित-2007
10․ रेल मंत्रालय (भारत सरकार)द्वारा लाल बहादुरशास्त्री पुरस्कार-2009
11․ अनुराग सेवा संस्थान लालसोट राज․द्वारा संम्मानित-2010
प्रतिनिधि ः 1․ शुभ तारिका (मासिक) अम्बाला,1980 से,
2․ बच्चों का देश (मासिक) सन् 2002 से
3․ बाल प्रतिबिम्ब (मासिक) सन् 2002
सचिव ः पं0 हरप्रसाद पाठक-स्मृति बाल साहित्य पुरस्कार समिति, मथुरा
सम्प्रति ः रेलवे में जूनि․ इंजीनियर (प्रथम)
सम्पर्क ः 28, सारंग बिहार, पोस्ट- रिफायनरी नगर, मथुरा-281006, मोबा․ 09412727361
Email : dr_dinesh_pathka@yahoo.com ,oa drdinesh57@gmail.com
Web Site : www.dineshpathkashsahi.blogspot.com
sunder rachana...
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