इधर देश में प्रेमचन्द के कफन को जलाकर अपनी रोटियां सेंकने वालों की बाढ़ आई है। सच पूछा जाए तो इधर शताब्दी समारोह मनाने की एक नयी परम्...
इधर देश में प्रेमचन्द के कफन को जलाकर अपनी रोटियां सेंकने वालों की बाढ़ आई है। सच पूछा जाए तो इधर शताब्दी समारोह मनाने की एक नयी परम्परा का विकास हुआ है और चूंकि भारत एक परम्परा-प्रधान देश है, समारोहों का आयोजन कर अपना पेट पालने वालों का पुनीत कर्त्त्ाव्य है कि वे प्रेमचन्द की बहती गंगा में भी अपना मैल साफ कर लें !
एक प्रगतिशील सज्जन को जानता हूं, जिन्होंने प्रेमचन्द समारोह का आयोजन किया। खूब धूम-धड़ाके के साथ जातिवाद, क्षेत्रीयवाद, मार्क्सवाद, सामन्तवाद, पलायनवाद आदि-आदि पर भाषण दिये। समारोह की समाप्ति के दूसरे दिन प्रगतिशील सज्जन एक क्षेत्र-विशेष की बैठक में मुख्य अतिथि थे। बेचारे इसके सिवाय प्रेमचन्द के लिए कर भी क्या सकते थे !
प्रेमचन्द शताब्दी समारोह का सरकारी हलके में भी बड़ा हो-हल्ला मचा। उदाहरण के लिए, एक आई․ए․एस․ अफसर ने दूसरे से पूछा-
‘‘बाई दी वे, यार, ये प्रेमचन्द कौन था ?''
दूसरे ने उनके अज्ञान पर तरस खाते हुए कहा-
‘‘डोन्ट यू नो ? ही वाज राइटर आफ शतरन्ज के मोहरे, ऑन हि्वच सत्याजित रे मेड ए फिल्म !''
एक जिलाधीश महोदय ने फरमाया-‘‘क्या मूर्खता है ! अभी तो मैं तुलसी, सूर बल्लभाचार्य आदि की शताब्दियों से निबटा हूं, और अब ये नया जंजाल। दफ्तर का कार्य करूं या सभाओं की अध्यक्षता करता फिरूं ? दफ्तर, क्लब, पार्टी सब बन्द हो गये हैं। क्या करूं, कुछ समझ में नहीं आता ! गोया प्रेमचन्द नहीं, मेरे मुंह का निवाला हो गया․․․''।
जब से प्रेमचन्द की चर्चा चली है, मैं यह सब देख-सुन और भुगत रहा हूं-
आजकल कई नये प्रेमचन्द भक्त पैदा हो गये हैं। ये वे लोग हैं जो हर ऐसे समारोह के लिए चन्दा समिति की अध्यक्षता करते रहते हैं। ऐसे मौकों पर एक स्मारिका निकालने का महान् दायित्व भी ये लोग बड़ी खूबी से निबाहते हैं। स्मारिका के लेखकों को पारिश्रमिक स्वरूप केवल दो प्रतियां देते हैं, विज्ञापनदाताओं की कुलवधुओं के सचित्र लेख छापते हैं, और अपने मकान की तीसरी मंजिल पर एक और मंजिल चढ़ाने की व्यवस्था कर लेते हैं।
एक एस․ पी․ साहब से मुलाकात हुई। बेचारे बड़े परेशान थे। कई दिनों से सो नहीं पाए थे। बलात्कार जैसे महान् सामाजिक कर्त्त्ाव्य का पालन उनके हल्के में अक्सर होता रहता है। कहने लगे-‘‘यार, रोज-रोज के इन्तजाम से परेशान हो गया हूं ! प्रेमचन्द जयन्ती पर मुख्यमन्त्री, सूर जयन्ती पर राष्ट्रपति। भाई और भी तो बहुत से काम हैं। क्या साहित्यकारों की जयन्तियां एक साथ नहीं मनाई जा सकती?''
मैंने विनम्र स्वर में अनुरोध किया-‘‘सर, बात ये है कि गलती से सभी साहित्यकार अलग-अलग समय में पैदा हुए, इसी कारण अलग-अलग जयन्तियों का आयोजन करना पड़ रहा है। वैसे, ऐसा एक राष्ट्रीय आन्दोलन चलाया जाना चाहिए कि अमुक दिवस को सभी लेखकों की जयन्तियां मनाई जाएंगी।''
एस․पी․ साहब मेरे इस प्रस्ताव पर बहुत खुश हुए और मेरे सामने ही ऐसा प्रस्ताव लिखकर बाकायदा राज्य-सरकार को भेज दिया। इसके सिवाय बेचारे और कर भी क्या सकते थे !
पाठकों, क्या बताऊं, प्रेमचन्द शताब्दी ने बड़ा दुःख दिया है-‘‘नथनिया ने हाय राम बड़ा दुख दीना''-की तर्ज पर। प्रेमचन्द से व्यापारी वर्ग भी बड़ा परेशान है। आपको याद होगा, एक व्यापारी ने प्रेमचन्द की पुस्तक के पन्नों में शक्कर बांधते हुए कहा था-‘‘सरकार के पास प्रेमचन्द शताब्दी मनाने के लिए पैसा और समय है, लेकिन मेरा जो लाइसेन्स परमिट है, उसे देने का समय नहीं !''
और साले ये चोर अफसर, हर किसी के नाम चन्दा उगाहने चले आते हैं। सरकारी तनख्वाह पांच सौ रुपये, और मासिक खर्च पांच हजार रुपयों का ! लेकिन कौन माथा फोड़े इनसे-आखिर लाइसेन्स तो इनसे ही लेना है मुझे। पानी में रहकर मगर से बैर मुनासिब नहीं !''
जब चिन्तन की मात्रा अधिक हो जाती हे तो अजीर्ण होता है, और अजीर्ण को ठीक करने के लिए सर्वोत्त्ाम स्थान कॉफी हाउस है। वहां पर सलाह, बहस, संत्रास, कुण्ठा, टेन्शन, बीड़ी का धुआं और पानी मुफ्त में मिलते हैं। सबसे बड़ा आराम ये है कि आप बिना कुछ खाये-पीये, घन्टों चिन्तन या बहस नामक महान् कार्य में, बिना कुछ दिये व्यस्त रहते हैं। ऐसी शानदार सुविधा अन्यत्र कहां ? सोचा, चन्द मिनट संशय के वहीं बिताये जाएं।
कॉफी हाउस के वातावरण में प्रेमचन्द की खुशबुएं तैर रहीं थीं। हवा में उछाले गये शब्दों में प्रेमचन्द कलावादी, प्रेमचन्द सामन्तवादी, प्रेमचन्द मार्क्सवादी, प्रेमचन्द प्रगतिशील, प्रेमचन्द समान्तर कथाकार, प्रेमचन्द अकहानीकार, प्रेमचन्द सचेतन कथाकार और प्रेमचन्द पलायनवादी लेखक आदि नारे जोरदार आवाज में गूंज रहे थे।
एक आकाशवाणी-जीवी लेखक एक ‘पेक्स' को कॉफी के साथ घुटकी पिला रहे थे - ‘भाईजान, देखो, इस बार, एक घण्टे का एक रूपक प्रेमचन्द पर तुम मुझे दे देना, फिर देखना मजा ! लेखक ‘ख' साला जल मरेगा !!․․․''
‘पेक्स' ने बेयरे को एक और कॉफी लाने को कहा, सिगरेट सुलगाई, छत की ओर देखा और दीवार पर टंगे प्रेमचन्द के चित्र में फटे जूतों पर अपना ध्यान केन्द्रित कर कहने लगा-‘‘वाह प्रेमचन्द महान् थे। है कोई ऐसा लेखक ? नहीं ! हां, तो तुम क्या कह रहे थे ? एक घंटे का रूपक․․․? हा-हा-हा-हा․․․अरे भैया, वो तो केन्द्र-निदेशक की साली को गया ! अब तो बस इतना कर सकता हूं कि इस अवसर पर आयोजित कवि-गोष्ठी में तुमको चिपका लूं।
‘‘चलो यही सही यार ! कॉफी हाउस का खर्चा तो निकालें।''
‘‘सुनो, वह ‘कफन' कहानी के नाट्य-रूपान्तरण का क्या हुआ ?''
‘‘उसे मैंने वापस भेज दिया। कोई लास्टिंग वैल्यू नहीं है !․․․ और फिर रूपान्तरण में भी दम नहीं है।''
यह सुनकर मैंने अपने सूक्ष्म-शरीर को इस टेबल पर से हटाया और पास वाली टेबल पर ले गया। सूक्ष्म-शरीर का आनन्द ये हैं कि कोई आपको देख-सुन नहीं सकता और आप सभी को देख-सुन सकते हैं, है न महंगाई का-सा मजा ! इस टेबल पर सरकारी लेखक जमे हुए थे।
‘‘चलो अच्छा हुआ, एक और सरकारी आयोजन बिना किसी प्रयोजन के शुरू हो गया ! कुछ-न-कुछ कमाई कर ही लूंगा !''
यह सुनकर दूसरा लेखक कहां चुप रहने वाला था-‘‘यार, मैं तो प्रेमचन्द पर एक टी․वी․ फिल्म बनाना चाहता हूं। मिनिस्ट्री में थोड़ी-बहुत जान-पहचान है। आधे घण्टे की फिल्म में दस-बीस हजार कहीं नहीं गये।
․․․हां भाई, तुम तो कर लोगे ! लेकिन इस बार मैं भी नहीं चूकूंगा ! मैं प्रेमचन्द पर एक प्रदर्शनी का आयोजन करूंगा और इसका उद्घाटन मुख्यमन्त्री के करकमलों से होगा। फिर देखता हूं, कैसे मेरी गरीबी दूरी नहीं होती !''
‘‘जीयो, मेरे गरीब भारत के होनहार धनवानों, जीयो ! तुम्हीं लोगों पर तो प्रेमचन्द को जिन्दा रखने का दायित्व है।
चौथे लेखक ने कहा-‘‘हो तो इसी बात पर, आज का बिल कौन देगा ?''
''टी․वी․ फिल्मवाले लेखक।''
‘‘नहीं, प्रदर्शनी वाले लेखक।''
‘‘मैं क्यों, तुम क्यों नहीं․․․।''
मित्रों, इससे आगे का विचार-विमर्श हाथापाई और जूतम-पैजार में बदल गया अतः मैं वहां से हट गया।
अपने सूक्ष्म शरीर और लघु मानवीय काया को लेकर इस बार मै सड़क पर आ गया। देखा, प्रेमचन्दजी सड़क पर पड़े कराह रहे हैं, लेकिन किसी का ध्यान उस ओर नहीं है। मैंने देखा, उनके जूते फटे हुए और दिल टूटा हुआ है। मैं तब से ही उदास हूं।
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यशवन्त कोठारी
86, लक्ष्मी नगर, ब्रह्मपुरी बाहर,
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