साहित्य में जब जब भारतीयता की बात उठती है तो यह कहा जाता है कि साहित्य में भारतीयता तलाशना साहित्य को एक संकुचित दायरे में कैद करना है, ...
साहित्य में जब जब भारतीयता की बात उठती है तो यह कहा जाता है कि साहित्य में भारतीयता तलाशना साहित्य को एक संकुचित दायरे में कैद करना है, मगर क्या स्वयं की खोज कभी संकीर्ण हो सकती है? वास्तव में संकीर्णता की बात करना ही संकीर्ण मनोवृत्ति है। सच पूछा जाए तो कोअहं अर्थात् अपने निज की तलाश ही भारतीयता है। और जब यह साहित्य के साथ मिल जाती है तो एक सम्पूर्णता पा जाती है। पश्चिमी साहित्य से आंक्रांत होकर जीने के बजाए हमें अपने साहित्य, अपनी संस्कृति से ऊर्जा ग्रहण करनी चाहिए। वैसे भी हम तो सम्पूर्ण विश्व को एक नीड़ मानते है और वसुधैव कुटुम्बकम् हमारा चिरन्तन मन्तव्य रहा है। भारतीयता तो एक पगडंडी है जो हमें जीवन तक पहुंचाती है।
देखा जाए तो जब सब कुछ भारतीय ही है तो भारतीय साहित्य में अभारतीय क्या हो सकता है ? हमारी हवा, पानी, पर्यावरण, वायुमण्डल, धर्म, दिशा, दशा, सब कुछ भारतीय है। तो फिर भारतीयता की तलाश क्यों ? साहित्य क्या है ? और साहित्य या वाग्ड़मय के भारतीय सरोकार क्या है ?
जब कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर चित्त्ा जेथा भय शून्य जैसी कविता में उदघोष करते हैं।
जहां हृदय में निर्भयता है और मस्तक अन्याय के सामने नहीं झुकता,
जहां ज्ञान का मूल्य नहीं लगता, जहां विवेक निर्मल जलधारा पुरातन रूढि़यों के मरूस्थल में सूखकर लुप्त नहीं हो गयी।
मन तुम्हारे नेतृत्व में सदा उत्त्ारोत्त्ार विस्तीर्ण होने वाले विचारों और कर्मो में रत रहता है।, प्रभु। उस दिव्य स्वतंत्रता के प्रकाश में मेरा देश जाग्रत हो।“ तो लगता है यही भारतीयता है, यही संस्कृति है, यही परम्परा है और यही प्रासंगिक भी है।
आखिर साहित्य के जरिये भारतीयता की तलाश को कहां से शुरू किया जाना चाहिए और क्या यह तलाश कहीं जाकर समाप्त होती है ? क्या साहित्य की तलाश भी स्वयं की तलाश नहीं है ? क्या साहित्य भी सर्वजन हिताय की बात नहीं करता ? कहते हैं कि इस देश में द्रविड़ पहले आये, आर्य बाद में आये उसके बाद शक, हूण, नीग्रो, औस्ट्रिक, मुसलमान और अंग्रेज भी आये, लेकिन क्या ये सब मिलकर भारतीय-साहित्य और एक सम्पूर्ण भारतीय ताना बाना नहीं बनाते ? शायद बनाते है और इस सम्पूर्ण ताने बाने से बुनी हुई चीज ही भारतीयता है।
हमारी सांस्कृतिक विरासत को किसी सांचे विशेष में ढ़ालने की कोशिश एक नाकाम कोशिश है, क्योंकि सांचो में बध कर जिन्दगी नहीं चलती। जिन्दगी तो एक सतत प्रवाहमान नदी है, जिसके किनारे पर उजली धूप के कतरे हैं, हवा है, रोशनी है। इनकी छाया में पलने वाला साहित्य सब में छुपकर बैठी हुई भारतीयता है। भारतीयता पौराणिक ऋचाओं में है, भारतीयता पौराणिक आख्यानों में है, भारतीयता सूफी संतों की वाणी में है और भारतीयता गुरूग्रंथ साहिब में है, यानी भारतीयता का समग्र आदर्श चिंतन है।
अपने साहित्य कला और विरासत की किताब के पन्ने पलटने पर स्पष्ट हो जाता है कि साहित्य में कुल तीन क्रांतियां हुईं। एक जब लिपि का अविष्कार हुआ, दूसरी जब छापाखाने की सुविधा हुई, और तीसरी क्रांति दृश्य-श्रव्य माध्यम के रूप में हुई। इससे पूर्व साहित्य केवल श्रव्य तथा वाचिक परम्परा से चला। जो लोग इन क्रांतियों के अलावा किसी अन्य क्रांति की चर्चा करते हैं, वे स्वयं को भुलावा देते हैं। भारतीय साहित्य में विचारधाराओं का अन्त नहीं होता। यहां पर सतत प्रवाह है, और प्रवाह नष्ट नहीं होता।
हमें अपनी जमीन पर खड़े होकर विश्व का अभिनंदन करना है। क्षितिज से आने वाली हर किरण से स्वयं को आलोकित करना है। विज्ञान अपनी सीमाओं में बंध गया है, आतंकवाद पैर पसार चुका है। विश्व अगली सदी में पांव रख रहा है, ऐसी विपरीत परिस्थिति में भारतीयता ही हम सब को एक नया आलोक दे सकती है। आदर्श राज्य आदर्श व्यक्ति के बिना स्थापित नहीं हो सकता। जो यह सोचते हैं कि राज्य आदर्श हो जाने से राष्ट्र आदर्श हो जाता है, वे गलत हैं, क्योंकि राष्ट्र की मूल इकाई राज्य नहीं व्यक्ति है। आदर्श व्यक्ति ही साहित्य रच सकता है, क्योंकि साहित्य सबको दर्पण दिखाने की हिम्मत रखता है।
अक्सर यह सवाल पूछा जाता है कि इस संक्रमण काल में साहित्यकार की सामाजिक उपयोगिता क्या है ? लेकिन कृपया मुझे बताइए कि चांद की चांदनी और मोर के नाचने की सामाजिक उपयोगिता क्या है ? और यदि यही प्रश्न भारतीयता के संर्दभों को लेकर गढ़ा जाए तो बात साफ हो जाती है।
सवाल सामाजिक उपयोगिता का नहीं, एक नवीन समाज के निर्माण का है जो केवल भारतीयता के ही वश का है।
जब हम सम्पूर्ण विश्वजनिता का अध्ययन करना चाहते हैं तो हमें एक आधार चाहिए और इसके लिए भारतीयता का आधार ही श्रेष्ठ आधार है। किसी क्षाण लग सकता है कि हम पर जातीयता या देशीयता हावी है, मगर वास्तव में ऐसा नहीं है। विश्व संस्कृति को समझने का एक झरोखा है भारतीय संस्कृति, भारतीय साहित्य, भारतीय चिंतन, भारतीय कला, और भारतीय निजत्व।
वेदकालीन भारतीय परम्परा का निर्वाह हम नहीं कर पाये, बाद में पुराण, उपनिषद्, अर्थशास्त्र, आदि के ग्रंथों में भारतीय जनमानस का सजीव और सजग चित्रण हुआ। हमारा लोक-साहित्य तो मानवतावाद और भारतीयता से भरा पड़ा है।
आनन्द कुमार स्वामी का चिंतन, अरविन्द का दर्शन, रवीन्द्रनाथ का काव्य, माखनलाल चतुर्वेदी, सुब्रह्मण्यम् भारती की स्वातंत्रय-चेतना अैर परवर्ती तथा पूर्ववर्ती भारतीय साहित्यकारों का भारतीय चिन्तन कौन भूल सकता है ? तुलसी के राम हो या भागवत के कृष्ण, गीता के अर्जुन हों या प्रेमचंद का होरी सब भारतीयता से ओत-प्रोत हैं। वे भारतीयता की चेतना का विस्तार हैं, जो हम सबके लिए एक आवश्यकता है, एक अहसास है, जिसके सहारे जिया जा सकता है।
सच में यह महान देश जिन वस्तुओं से मिलकर बना है, वे सब अनंत हैं, अक्ष हैं और वास्तविक हैं। जब कुम्हार घड़ा बनाता है, चित्रकार चित्र बनाता है, मूर्तिकार मूर्ति बनाता है, किसान हल जोतता है या माली अपने पेंड़ों को पानी देता है तो वह भारतीयता की ही सेवा करता है। यह कोई काल्पनिक बात नहीं यह वास्तविक तथ्य है और इसे नकारा नहीं जा सकता। भारतीयता की प्रासंगिकता थी, है और रहेगी। भारतीयता अनेकता में एकता है मानवता की मूलभूत आवश्यकता है। यह अखंड है। इससे तीने की ऊर्जा ग्रहण की जाती है। श्रद्धा, आस्था और निष्ठा का नाम है भारतीयता।
भारतीयता मठों, मंदिरों, राजदरबारों और धर्मों में मिलने वाली चीज नहीं है वह तो हम सब में समायी हुई है। हम सब मिलकर भारत बनाते हैं और हम सब मिलकर ही भारतीयता को बनाते हैं।
भारतीयता कोई राजनीतिक नारा या विचारधारा है, ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है और न ही इस लेख का लक्ष्य ऐसा है, मगर जब हम भारतीयता की चर्चा करते हैं तो विचारधाराओं की चर्चा स्वतः आ जाती है। मार्क्सवाद के दुखद निधन के बाद क्या पूंजीवादी सफल हो जाएंगे ? शायद नहीं आवश्यकता है एक तृतीय विकल्प की और भारतीयता यह विकल्प पूरे विश्व के सामने प्रस्तुत करती है।
भारतीयता दूध पीते बच्चे की हंसी में है, मां के आंचल में है, हिमालय के सौन्दर्य में है, दक्षिण के मंदिरों में है, सूर्य की उपासना में है, पर्यावरण की चिन्ता में है, रविशंकर के सितार-वादन में, प․भीमसेन जोशी के गायन में, हुसैन, रजा या बी․प्रभा के चित्रों में है, आर्य भट्ट उपग्रह में है। समुद्र के जल में है। कश्मीर के सौन्दर्य में और डा․राधाकृष्ण के दर्शन में है भारतीयता । कुल मिलाकर जनमानस की आस्था, निष्ठा संकल्प है भारतीयता।
एषणाओं की चर्चा में यशएषणा की तलाश की खोज की जाती है। तृष्णा और यश दो बड़े ही विकट संकट हैं जब वे एषणा से मिल जातें है। विस्फोट होता है और भारतीयता विस्फोट से बचाती है सामाजिक समरसता, नैतिकता, वाद-विवाद और इनसे जुडकर मानव प्राणिमात्र का हित चिन्तन है।
तो भारतीयता एक सम्पूर्णता ग्रहण करती है। व्यक्ति स्वाभाविक की चर्चा करने के बजाए हम स्वतंत्रता की रक्षा की चिन्ता करते हैं, हम प्रकृतिमय होने की कोशिश करते हैं, क्योंकि भारतीयता को केवल पर्यावरण नहीं मानता वह तो प्रकृति को जीवन का आधार बल्कि एक सम्पूर्ण जीवन ही मानता है।
भारतीयता अपने आदर्शों का ढिंढोरा नहीं पीटती, वह तो आज को जीती है, उनसे ऊर्जा प्राप्त करके सब को बांटती है, जीवन तो सबके लिए है।
भारतीयता कोई भी विचार या दर्शन हो ऐसा नहीं बल्कि भारतीयता एक सम्पूर्ण विश्वसनीयता है, आवश्यकता है। अतः हम इसी भारतीयता को साहित्य के सन्दर्भों में देखते है, और साहित्य सबको साथ लेकर जीने की कला सिखाता है।
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यशवन्त कोठारी
86,लक्ष्मी नगर ब्रहमपुरी बाहर,जयपुर-302002
फोनः-0141-2670596
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