अनुक्रमणिका 1 -एक नई शुरूआत - डॉ0 सरला अग्रवाल 2 -बबली तुम कहाँ हो -- डॉ0 अलका पाठक 3 -वैधव्य नहीं बिकेगा -- पं0 उमाशंकर दीक्षित 4 - बरखा...
अनुक्रमणिका
1 -एक नई शुरूआत - डॉ0 सरला अग्रवाल
2 -बबली तुम कहाँ हो -- डॉ0 अलका पाठक
3 -वैधव्य नहीं बिकेगा -- पं0 उमाशंकर दीक्षित
4 - बरखा की विदाई -- डॉ0 कमल कपूर
5- सांसों का तार -- डॉ0 उषा यादव
6- अंतहीन घाटियों से दूर -- डॉ0 सतीश दुबे
7 -आप ऐसे नहीं हो -- श्रीमती मालती बसंत
8 -बिना दुल्हन लौटी बारात -- श्री सन्तोष कुमार सिंह
9 -शुभकामनाओं का महल -- डॉ0 उर्मिकृष्ण
10- भैयाजी का आदर्श -- श्री महेश सक्सेना
11- निरर्थक -- श्रीमती गिरिजा कुलश्रेष्ठ
12- अभिमन्यु की हत्या -- श्री कालीचरण प्रेमी
13- संकल्प -- श्रीमती मीरा शलभ
14- दूसरा पहलू -- श्रीमती पुष्पा रघु
15- वो जल रही थी -- श्री अनिल सक्सेना चौधरी
16- बेटे की खुशी -- डॉ0 राजेन्द्र परदेशी
17 - प्रश्न से परे -- श्री विलास विहारी
5 - साँसों का तार
डॉ. उषा यादव
मौत दबे पाँव आगे बढ़ रही थी। कोई पदचाप नहीं, फिर भी आगमन के स्पष्ट संकेत। इतनी संगदिल क्यों होती है मौत? न समय-कुसमय देखती है, न पात्र-कुपात्र। जब जी चाहा, मुँह उठाया और चल पड़ी। जिसे जी चाहा, अपने पंजों में दबाया और चील की तरह ले उड़ी।
इमरजेंसी वार्ड के बैड नं. पाँच पर पड़ी हुई वन्दना इस समय मौत की निगाहों का लक्ष्य थी। यों जिन्दगी और मौत में चूहे-बिल्ली का खेल चल रहा था, पर जिन्दगी किसी भी क्षण मौत के पंजों में दबोची जा सकती थी। डॉक्टरों ने पहले ही सिर हिलाकर जवाब दे दिया था और अब सिर्फ पुलिस और मजिस्ट्रेट की मौजूदगी में मृत्यु-पूर्व बयान लिया जाना शेष था। इंजेक्शन, आक्सीजन और रक्त अभी भी बड़ी तत्परता से दिये जा रहे थे, पर केवल इसलिये ताकि वन्दना को कुछ क्षणों के लिए होश आ सके। कम-से-कम वह बता तो सके कि उसकी यह हालत किसने की है?
बेहोश वन्दना के चेहरे पर पीड़ा की अनन्त लकीरें थीं। पिछले दो सालों से सिर्फ पीड़ा और यातना ही भोग रही थी वह। दर्द के सैलाब में डूबते-उतराते यह भी भूल गयी थी कि कुछ दिन पहले चंचल और उल्लास-भरे बचपन की गलबहियाँ उसे घेरे हुए थीं। फिर न जाने किस अदृश्य जादूगर ने अपने इन्द्रजाल से उसके भोले बचपन को मादक यौवन में बदल दिया। इधर ब्याह तय हुआ, उधर ढोलक की थापों के बीच स्त्रियाँ सुहाग के गीत गा उठीं-‘काहे कूं ब्याही विदेस रे सुन बाबुल मोरे।'
वन्दना नहीं, बाबुल के आँगन की वह चिड़िया चुग-बिनकर पराये घर उड़ गयी थी। नया परिवेश उसने इतनी सहजता से आत्मसात कर लिया, जैसे हमेशा से उसी माहौल में रहती आयी हो। लड़की थी न, लता की कोमल टहनी की तरह लचीली न होती तो क्या पराये घर-द्वार में इतनी सुगमता से घुल-मिल जाना आसान बात थी?
पर आसान नहीं था ससुराल वालों को खुश रख पाना। खास तौर से तब, जब धन की हवस भस्मक रोग बन चुकी हो। देखते ही देखते नयी बहू को घर में नौकरानी का दर्जा दे दिया गया। वह सारा दिन चाकरी करती और बदले में पाती लात-घूँसों का उपहार। काम से थक-टूटकर जब खाना खाने पहुँचती तो घण्टों से खुले पड़े हुए दाल-चावल के पतीलों पर भिनकती मक्खियों को देख मन उबकाई से भर जाता। मुँह में डालना तो दूर रहा, ऐसा गलीज भोजन वह कुत्ते-बिल्ली के सामने भी नहीं फेंक सकती थी। भूखे पेट में एक लोटा पानी उँडेल, अँतड़ियों में दर्द की चुभन लिये फटी दरी पर जा लेटती थी।
रक्षाबन्धन पर पीहर गयी तो माँ के सामने बिलख पड़ी थी-मुझे चाहे टुकड़े-टुकड़े करके फेंक दो, पर उस नरक में अब न ढकेलो। मैं वहाँ ज्यादा दिन जिन्दा नहीं रह सकूँगी।'
माँ-पापा में सलाह-मशविरा हुआ था और फिर उसके आगे पढ़ने की योजना बन गयी थी। पापा ने बड़ी गम्भीरता से कहा था-‘हम समझेंगे कि अपनी वन्दना को अभी ब्याहा ही नहीं है। उसके साथ की लड़कियाँ अभी स्कर्ट-ब्लाउज और दो चोटियों में घूम रही हैं। उन्नीस साल की उम्र होती ही कितनी है? यह बी.ए. पास है, ट्रेनिंग करके कहीं नौकरी करेगी। अपने पाँवों पर खड़ी हो जायेगी तो आत्मविश्वास से सिर उठाकर जी सकेगी।
इस आश्वासन के बावजूद उसका ही मन कमजोर सिद्ध हुआ था। एक दिन कालेज के लिए निकली तो वापसी में मायके के बजाय ससुराल जा पहुँची थी। राह में स्कूटर रोककर खड़े हो गये थे नवीन-‘अपनों से भी कहीं इस तरह रुठा जाता है वन्दना? तुम्हारे बिना वह घर क्या मेरे लिए घर रह गया है? छत और दीवारें तो हैं, पर मन्दिर में प्रतिष्ठित प्रतिमा नदारद है। अपनी आराध्या को साथ लिये बिना आज वापस नहीं लौटूँगा।'
वह ऐसा पसीजी थी कि सारे संकल्प और कठोरता भूलकर उनके साथ चली गयी थी। बाद में माँ का शिकायत-भरा पत्र आया था-‘हमें तुझसे ऐसी कायरता की उम्मीद नहीं थी बेटी। हम अपनी शक्ति-भर संघर्ष करते, पर तू ही हमारा साथ छोड़ गयी।'
उसने ससंकोच जवाब दिया था-‘इस घर में कुछ लोग बुरे हो सकते हैं माँ, पर सब नहीं। एक व्यक्ति यहाँ ऐसा भी है, जिसके प्यार-भरे आमंत्रण को ठुकराने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है। ससुराल आकर अगर मैंने कोई गलती की हो, तो उसके लिए तुमसे, खास तौर से पापा से, माफी माँगती हूँ।'
कितने विश्वास से उस एक की पैरवी की थी उसने! पर यह विश्वास देखते ही देखते बालू की भित्ती साबित हुआ था। जिस दिन नवीन की असलियत खुली, वह एकदम विक्षिप्त-सी हो उठी थी।
नितान्त सहजता से बातों-बातों में बोले थे वे- ‘सुनो वन्दना, चिटठी लिखकर इस इतवार को विनय को बुला लो।'
‘क्यों?'-वह चौंक पड़ी थी। ‘अरे वाह, साला है हमारा। क्या उससे बातचीत भी नहीं कर सकते हैं? साली होती तो तुम्हारा चौंकना एक बार वाजिब था, पर तुम तो विनय के नाम से ही घबरा उठी।'-नवीन हँस पड़े थे।
मुस्कराकर उसने पत्र लिख दिया था। पर विनय के आने पर जब नवीन ने दस हजार रुपयों की माँग रखी थी और तीन दिन में न पहुँचाने पर नतीजा देख ने की धमकी दी थी, तो वह एक बारगी काँप उठी थी। यह सच था या मजाक, समझ नहीं पायी थी वह। यदि सच था तो सर्वनाश निश्चित था। यदि मजाक था तो बड़ा ओछा और घिनौना था। पन्द्रह साल का किशोरवय का विनय भी एकदम अवाक, हत्प्रभ और रुआँसा हो उठा था। मुँह बाँए नवीन की चेतावनी सुन रहा था-‘किसी बाहर वाले को कानों-कान खबर नहीं होनी चाहिए। ध्यान रहे, तुम्हारी बहन इसी घर में मौजूद है।'
रुपये दूसरे दिन पहुँच गये थे, पर मुँह में एक बार खून लग जाने पर शेर को आदमखोर बनते देर नहीं लगी। आज फ्रिज, कल टेलीविजन, परसों वी.सी. आर. के लिए मुँह फाड़ते नवीन तनिक नहीं झिझकते। भाई को आने के लिए पत्र लिखते वक्त वन्दना अवश्य लज्जा से धरती में गड़ जाती, क्योंकि इस निमंत्रण का मतलब वह ही नहीं, माँ-पापा भी अच्छी तरह जान गये थे। चतुर नवीन पत्र में अपनी माँग का कोई जिक्र नहीं करवाते, पर आमने-सामने बैठकर विनय को सब कुछ समझा देते-बुलावा भेजने पर भी न आने का अंजाम, माँग पूरी करने में किसी किस्म की आनाकानी का अंजाम, बात के इधर से उधर होने का अंजाम तथा और बहुत कुछ। वन्दना सब देख-सुनकर छटपटाती रह जाती।
ऐसे में माँ बनने का आभास उसके तापित तन-मन के लिए एक शीतल अहसास की तरह आया, लगा दुख की घड़ियाँ शायद खत्म हो जायेंगी। हस्पताल के लेबर-रुम में जिस क्षण उसने बच्चे के रोने की आवाज सुनी, मर्मान्तक प्रसव-पीड़ा के बावजूद उसके अधरों पर स्मित-रेखा नाच उठी थी।
पापा और विनय शिशु-जन्म की सूचना पाकर काफी ताम-झाम के साथ जब उसकी ससुराल पहुँचे, तो उनसे मुलाकात हो जाना भी एक चमत्कार से कम न था।
पापा ने गम्भीर स्वर में पूछा था-‘कैसी हो बेटी?' हालाँकि कमरे में एकान्त था, वह मन की बात कह सकती थी, तब भी मुस्कराकर बोली थी-‘अच्छी हूँ पापा।'
‘खुश तो हो न?'
‘जी, बहुत खुश हूँ। लगता है, अब सब कुछ ठीक हो जायेगा।'
‘माँ से मिलने नहीं चलोगी? वह तुम्हें बहुत याद करती है। उससे मिले हुए तुम्हें डेढ़ वर्ष से ज्यादा समय हो चुका है।'
‘मन तो मेरा भी बहुत है पापा, पर.......!'-वह हल्की-सी उदास हो उठी थी, पर अगले ही पल चहककर बोली थी-‘माँ से कहियेगा कि वे बिल्कुल चिन्ता न करें। विनय के जीजाजी कल कह रहे थे कि जैसे ही मैं उठने-बैठने लायक होऊँगी, वह मुझे माँ से मिलाने ले चलेंगे।'
‘और कोई दिक्कत तो नहीं है न?'
‘न, अब दिक्कत क्या होगी! इस छुटके का मुँह देखकर सब लोग ऐसे खुश हैं कि मुझे हाथोंहाथ लिये रहते हैं। कभी बादाम का हलवा, कभी सोंठ का हरीरा कभी गोंद के लडडू व पंजीरी, मुझें खुशामद करके खिलाते रहते हैं। यकीन नहीं होता कि मेरी तकदीर कैसे रातोंरात जाग गयी।'
पापा के हृदय से जैसे एक बोझ उतर गया था। स्नेह से प्रसूता पुत्री का कन्धा थपथपाते वे उठ खड़े हुए थे।
और यह सिर्फ एक सप्ताह पहले की बात थी। हफ्ते भर में ऐसा क्या हुआ कि एक हँसती-खेलती जिन्दगी मौत के पास पहुँचा दी गयी। मौत भी खुद आयी होती तो सब्र किया जा सकता था। पर यह किसी कसाई ने मासूम गाय को तड़पा-तड़पाकर.........।
इमरजेंसी वार्ड के बरामदे में माँ-बाप हताशा की मूर्ति बने बैठे थे। विनय दोनों हाथ मलता हुआ उत्तेजना से रह रह कर काँप रहा था। तीनों के मस्तिष्क में केवल एक ही सवाल था-‘कल रात आखिर हुआ क्या था?'
शायद वे इसके जवाब का अनुमान लगा रहे थे, पर कानून और न्याय को अनुमान की नहीं, ठोस प्रमाण की आवश्यकता थी। अकाटय प्रमाण सिर्फ वन्दना का मृत्यु-पूर्व बयान दे सकता था। वही होश में आने पर बता सकती थी कि पिछली रात उस पर किसने ऐसा अमानवीय जुल्म ढाया था? जिसने अग्नि को साक्षी करके सुख-दुःख में आजीवन साथ निभाने का वचन दिया था, वही प्राणघाती सिद्ध हुआ है, सिर्फ इतना होश में आने पर वन्दना को बताना था। उसकी एक स्वीकारोक्ति गुनहगार को सजा दिला सकती थी। पर उसका हर पल निश्चेष्ट पड़ता शरीर अपनी चुकती हुई साँसों को शायद बटोर नहीं सकेगा, ऐसा आभास हो रहा था। डॉक्टर फिर भी प्रयास में लगे थे, क्योंकि उन्हें अन्तिम क्षण तक कोशिश करनी ही थी।
बाहर बैठे माँ और पापा अब भी पत्थर बने हुए थे। विनय आवेश से मुटिठयाँ भींच रहा था। वन्दना के दर्द से नीले पड़ते अधर जैसे उनके कानों में फुसफसा रहे थे-‘तुम्हें भी मृत्यु-पूर्व बयान की जरुरत है क्या? तुम लोग तो मेरी पीड़ा के एक-एक पल के साक्षी हो। मेरी देह पर लिखी व्यथा-कथा को खुद ही समझ लो न!'
यह कहानी रात के पिछले पहर में शुरु हुई थी, जब निश्चिन्त सोती वन्दना को नवीन ने झकझोर कर जगाया था।
‘उठो, मेरे साथ इसी वक्त स्कूटर पर मोतीगंज चलो।'
‘क्यों?' ‘मुझे पच्चीस हजार रुपयों की जरुरत है।' ‘पर इस वक्त पापा के पास रुपये कहाँ होंगे?' ‘रुपये नहीं तो सोना-चाँदी कुछ तो होगा। सुबह सात बजे एक आदमी लेने आयेगा। उससे पहले-पहले इन्तजाम हो जाना जरुरी है।'
पर अपनी जगह से हिली भी नहीं थी वन्दना। दुःख और क्षोभ से पागल जैसी हो उठी थी। उसे लगा कि जब इन लालचियों की हवस का यज्ञ अधूरा ही रहना है तो बार-बार उसमें आहूति डालने से क्या लाभ? डालनी ही होगी तो अपनी पूर्णाहुति डालकर इस किस्से को हमेशा के लिए खत्म कर देगी वह। उसकी दृढ़ता-भरी चुप्पी को उद्दण्डता समझ क्रोध से पागल हो उठे थे नवीन और तड़ातड़ पीटने लगे थे। तभी परदा हटाकर सास ने भीतर झाँका था-‘उसकी जान ही ले डालेगा क्या नवीन? बच्ची ही तो है अभी। प्यार से समझा-बुझा दे।'
सास की यह कृत्रिम सम्वेदना उसे पति की मार से भी ज्यादा खली थी। दृष्टि उठाकर उधर एक बार आग्नेय नेत्रों से देखा था उसने। बाहर से ससुर गला खँखारकर बोले थे-‘तुम तो समझदार हो बेटी। अपने पति की पेरशानी को समझो। रुपये हों तो रुपये, नहीं तो अपनी माँ से कुछ जेवर माँग लाओ। बाहर एक आदमी आकर तुम्हारे पति का गला दबाये, क्या तुम इसे सह सकोगी?'
‘मैं नही जाऊँगी।' वन्दना ने दृढ़ता से अपने अधर भींच लिए थे। ‘तो फिर ले.......।'-कहते हुए नवीन उस पर लात-घूँसों से पिल पड़ा था। ‘मैं चलूँगी।'-सौर की कच्ची देह जब प्रहार न झेल सकी तो वन्दना घिघियाई-‘मुझे जरा बच्चे को उठा लेने दो।'
‘ज्यादा चतुर बनने की जरुरत नहीं है। बच्चा यहीं रहेगा.......।' नवीन गरजे थे।
नींद से जागकर शिशु उसी क्षण से रो उठा था। वन्दना तड़पकर बोली थी-‘यह भूखा है।'
‘अम्मा इसे रुई की बत्ती से दूध पिला देगी। तुझे ज्यादा जबान चलाने की जरुरत नहीं है।'
वन्दना को अपने वक्ष में दर्द की लहर दौड़ती महसूस हुई उसका शिशु दूध पीने के लिए रो रहा है और वह असहाय माँ अपने बच्चे को छाती तक से नहीं लगा पा रही है, इससे बड़ी यन्त्रणा और क्या हो सकती थी उसके लिए? वह कातर कण्ठ से कह उठी-‘मुझे मेरा बच्चा दे दो। सिर्फ एक बार। मैं उसे दूध पिलाकर चली चलूँगी।' नवीन चोट खाये विषधर जैसे भयानक हो उठे थे, पर वन्दना दोनों हाथों से अपना वक्षस्थल दबाये, आँखों में करुणा बरसाती उन्हें देखे जा रही थी।
‘सुनती नहीं है क्या?'
‘मेरा बच्चा भूखा है। दूध से मेरा सारा ब्लाउज भीगा जा रहा है। क्या करुँ, बताओ।' -असहाय दृष्टि से उन्हें ताकते हुए बोली थी वह।
‘इधर मेरे पास आ। मैं बताऊँ तुझे......।'-कहते हुए क्रोध से उन्मत्त नवीन उसकी ओर बढ़े। बेरहमी से साड़ी का पल्ला खींचा, अगले झटके में ब्लाउज तार-तार कर दिया और दूध से उफनती छातियो को जेब से निकाले चाकू की पैनी धार की भेंट चढ़ा दिया।
वन्दना के वक्ष से रक्त की धाराएँ बह उठीं। वह अचेतप्रायः हालत में भूमि पर गिर पड़ी। सास ने भीतर आकर बेटे को लताड़ा-छिः, यह क्या किया तूने? इसे मार डाला?'
नवीन धरती पर बैठकर थके सूअर की तरह हाँफने लगा।
‘सुनो जी, इसे स्कूटर पर गठरी की तरह लादकर इसके बाप के दरवाजे पर पटक आओ। मेरी तो छाती धक-धक कर रही है। बाद में ठण्डे दिमाग से सोच लेंगे कि पुलिस से क्या कहना है। अभी तो यह लाश यहाँ से फौरन हटाओ।' लगभग बेहोश वन्दना को लाल ऊनी चादर में अच्छी तरह लपेटकर गैस के सिलेण्डर की तरह स्कूटर की दो सीटों के बीच रख दिया गया। आगे चालक की गद्दी पर ससुर बैठे, पीछे उसे थामकर पसीना-पसीना होती हुई सास बैठ गयी। स्त्रियों की भाँति पायदान पर दोनों पाँव रखकर नहीं, बल्कि पुरुषों की तरह दोनों तरफ पाँव लटकाकर उन्हें बैठना पड़ा। घुटनों तक खिसक आयी साड़ी की तरफ देखने की भी फुरसत नहीं थी उनको इस वक्त। नवीन कुछ क्षण पहले जो काण्ड कर चुका था, उसके बाद उसके मानसिक सन्तुलन पर विश्वास नहीं किया जा सकता था। नहीं तो शायद लहूलुहान वन्दना को थामकर बैठने की जिम्मेदारी उसे ही सौंपी जाती।
रात के सन्नाटे में, सुनसान सड़क पर दो मील की दूरी दस मिनट में तय हो गयी। समधी के बन्द दरवाजे के सामने गठरी पटककर सास-ससुर उसी क्षण स्कूटर से वापिस लौट गये। भोर से कुछ पहले घटी इस घटना के आँखों देखे गवाह सिर्फ आकाश के कुछ नक्षत्र मात्र थे।
हड़बड़ी से पटखने से गठरी खुल गयी थी और खुली हवा में साँस लेने से वन्दना की चेतना जैसे एक सपना-सा देखने लगी-‘उफ, यह प्रसव-पीड़ा कितनी देर से उसे तड़पा रही है। यह जानलेवा दर्द सारे शरीर को अपनी गिरफ्त में लेता जा रहा है। नर्स बार-बार आकर कभी ब्लडप्रेशर देखती है, कभी टेम्परेचर लेती है। कभी दिलासे के दो शब्द कहती है कभी गुस्से से झिड़कती है-‘अरे बाबा, तुम क्या अनोखा माँ बनने जा रहा है? चीख-चीखकर सारा हॉस्पीटल सिर पर उठा लिया। अब अगर मुँह से आवाज निकाला तो तुम्हें इसी वक्त डिसचार्ज कर देगा।'
‘फिक्र मत करो। जल्दी ही सारा दर्द-तकलीफ दूर हो जायगा। तुम एक चाँद के माफिक बच्चा का माँ बन जायेगा। इस वक्त हमें एक नया साड़ी देना पड़ेगा।' साड़ी तो वह दे देगी, पर दर्द के इस सैलाब में डूबने से कैसे बच सकेगी? यह तो. ......!
और अगले ही पल पूरी तरह अचेत हो गयी थी वन्दना। कुछ देर बाद पापा ने जब सैर के लिए जाते वक्त दरवाजा खोला तो एक लुढ़की हुई गठरी को देख घबरा से गये। आवाज देकर पत्नी को बुलाया उन्होंने और जब पति-पत्नी दोनों ने मिलकर गठरी को सीधा किया तो उनके मुँह से एक साथ चीख निकल गयी थी।
माँ ने रक्त-रंजित बेटी के हृदय में धड़कन का आभास पाकर रुदन भरे कण्ठ से कहा-‘इसे तुरन्त हॉस्पीटल ले चलिये। यह अब कैसे चलेगी? न जाने किस राक्षस ने इसकी यह हालत की है।'
और शायद इस अनुत्तरित प्रश्न का उत्तर देने के लिए ही वन्दना होश में आ गयी। सूचना पाते ही बदहवास माँ-पापा कमरे में जा पहुँचे। सिसकियाँ रोकने का असफल उपक्रम करते हुए बेटी के सिरहाने आ खड़े हुए।
वृद्ध डाक्टर ने करुणा-भरे स्वर में पूछा-‘तुम्हारी यह हालत किसने की है बेटी, जरा याद कर बताओ।'
कुछ कहने के लिए वन्दना के होंठ हिले, पर नीचे झुकने के बावजूद मजिस्टे्रट को एक शब्द भी न सुनायी दिया। उन्होंने हताशा से सिर हिलाया। ‘बोलो बेटी, कुछ तो बोलो। अपने मन की बात बेहिचक कह डालो।'-माँ ने उतावले कण्ठ से, हिचकियों के बींच कहा।
वन्दना की निस्तेज आँखें कुछ और खुलीं। निगाह डॉक्टरों-नर्सों से होती हुई, माँ-पापा के चेहरों से घूमती हुई जैसे कुछ खोजने लगीं।
पापा ने कातर होकर उधर से दृष्टि फेर ली। लेकिन माँ पागल-सी चीख उठीं-‘किसे ढूँढ़ रही हो बेटी? नवीन को? उसने ही तुम्हें इस हाल में पहुँचाया है न!' पर मौत के ठण्डे हाथों की छुअन महसूस करती वन्दना को अब किसी अपराधी के कुकृत्य का लेखा-जोखा प्रस्तुत करने की चिन्ता न थी। उसने अपनी सारी शक्ति बटोरी और खरखराते गले से कहा-‘वह कहाँ है?'
‘कौन, नवीन?'
‘न, मेरा बच्चा! बड़ी देर से रो रहा है। बहुत भूखा है।'
और उसके साथ ही वन्दना की साँसों का तार टूट गया।
ठीक उसी क्षण दूर एक मकान में, उसका दस दिन का दुधमुँहा अब भी हाथ-पाँव चलाते हुए ‘कुआँ-कुआँ किये जा रहा था।
'''
73 नार्थ ईदगाह, आगरा-10
--
(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)
COMMENTS