अनुक्रमणिका 1 -एक नई शुरूआत - डॉ0 सरला अग्रवाल 2 -बबली तुम कहाँ हो -- डॉ0 अलका पाठक 3 -वैधव्य नहीं बिकेगा -- पं0 उमाशंकर दीक्षित 4 - बरखा...
अनुक्रमणिका
1 -एक नई शुरूआत - डॉ0 सरला अग्रवाल
2 -बबली तुम कहाँ हो -- डॉ0 अलका पाठक
3 -वैधव्य नहीं बिकेगा -- पं0 उमाशंकर दीक्षित
4 - बरखा की विदाई -- डॉ0 कमल कपूर
5- सांसों का तार -- डॉ0 उषा यादव
6- अंतहीन घाटियों से दूर -- डॉ0 सतीश दुबे
7 -आप ऐसे नहीं हो -- श्रीमती मालती बसंत
8 -बिना दुल्हन लौटी बारात -- श्री सन्तोष कुमार सिंह
9 -शुभकामनाओं का महल -- डॉ0 उर्मिकृष्ण
10- भैयाजी का आदर्श -- श्री महेश सक्सेना
11- निरर्थक -- श्रीमती गिरिजा कुलश्रेष्ठ
12- अभिमन्यु की हत्या -- श्री कालीचरण प्रेमी
13- संकल्प -- श्रीमती मीरा शलभ
14- दूसरा पहलू -- श्रीमती पुष्पा रघु
15- वो जल रही थी -- श्री अनिल सक्सेना चौधरी
16- बेटे की खुशी -- डॉ0 राजेन्द्र परदेशी
17 - प्रश्न से परे -- श्री विलास विहारी
(4) बरखा की विदाई
डॉ. कमल कपूर
और अंततः बरखा विदा हो गई। पर वह इस तरह विदा होगी न कभी सोचा था वसुधा ने और न कभी चाहा था। ‘विदा', विदाई और ‘विछोह कितने अजीब शब्द हैं न ये......अलगाव के दर्द से लिपटे हुए, फिर भी बेटी की विदाई एक ऐसा स्वप्न है, जिसे हर माँ, चाहे वह अमीर हो, चाहे गरीब, बेटी के जन्म के साथ ही पलकों में सजा लेती है और बेटी के साथ-साथ उस सपने को भी पालती जाती है, बेटी का जन्म यानी बरखा का जन्म? आँसुओं की एक सघन बदली आकर वसुधा की आँखों को भिगो गई और अपने संग उड़ाकर ले चली अतीत की ओर। दो बेटों के बाद जब फिर से वसुधा की कोख हरियाली तो उसने बड़ी हसरत के साथ, एक तमन्ना, भी बो दी उस नवांकुर की बगल में........बेटी के जन्म की तमन्ना। तीन पीढ़ियों से यह घर तरस रहा था कन्या-रत्न के दरस-परस को।
वसुधा को याद आ रहे थे वो दिन........... पल-छिन। कैसी भयंकर गर्मी पड़ी थी उस साल और सूखे की सी स्थिति आ गई थी! शहर बेहाल था और धरती तप रही थी सूर्यदेव के ताप से कि उस संताप को दूर करने उस शाम उमड़-घुमड़ कर खूब बरखा बरसी......इतनी कि खेत-खलिहान ही नहीं जन-जन के मन-प्राण भी खुशी से लहलहा उठे। यह वही शाम थी जब वसुधा के चिर संचित मीठे ख्वाब ने आकार लिया था। बेटी के रूप में उस नन्हीं जान ने धरती पर पहली साँस ली थी और घर भर ही नहीं पूरा मोहल्ला उमड़ पड़ा था, उसके आगमन से। ‘‘कितनी ठंडक ले आई है हमारी बच्ची, नूर की बूंद है यह जिसने सबको राहत बख्शी है। इसका नाम ‘बरखा' ही रखेंगे हम, वसुधा के ससुर ने उसी क्षण बच्ची का नामकरण कर दिया था।
घर बरखा की कोमल किलकारियों से गूंज उठा, दादू के तो प्राण बसते थे उसमें। भाइयों को खेलने के लिए मानों जीती-जागती गुड़िया मिल गई थी और अपनी माँ की आँखों का जगमगाता सितारा तथा पापा की जान थी वह। बेहतरीन ढंग से लालन-पालन हो रहा था उसका। गुलाबी ताजे गुलाब की पंखुरियों और केसर-कणों को कच्चे दूध में मिलाकर जो रंग तैयार होता है वही रंग और परियों का सा रुप लेकर आई थी बरखा ‘उस जहाँ' से ‘इस जहाँ' में जो दिनों दिन निखरता ही जा रहा था। सिर्फ रंग-रुप ही खूबसूरत नहीं था, स्वभाव भी शहद सा मीठा था उसका और आचरण सहज-सरल और विनम्र। पढ़ने में भी जहीन बच्ची थी वह। जिन्दगी सपाट-समतल और सहज राहों पर कदम धरते हुए निरंतर आगे बढ़ रही थी कि अचानक एक ऐसा भयानक मोड़ आया, जिसने उस स्वर्ग से घर की तमाम जिन्दगियों को उलट-पलट कर रख दिया। कहा जाता है कि आसमान के सितारे धरती पर रहने वालों के भाग्य तय करते हैं। उन सितारों ने अचानक ऐसी करवट बदली कि इस घर के सितारे गर्दिश में आ गए। ताजे-ताजे कैशोर्य में कदम रखा था तब बरखा ने सिर्फ तेरह बरस की थी वह, बड़ा बेटा असीम लगभग अठारह बरस का था और छोटा अचिंत पंद्रह का, जब एक माह के अंतराल में दो दुर्घनाएँ घटीं, बाबूजी यानी बरखा के दादू एक सड़क-एक्सीडेंट में मारे गए और पति अभय लकवाग्रस्त हो गये, इस लकवे का असर सिर्फ अभय के अंगों पर ही नहीं पड़ा, पूरा घर इसका शिकार हो गया मानों। काफी दिनों तक तो ‘मेडिकल लीव' पर चलते रहे अभय, वेतन भी मिलता रहा, फिर दिन अधिक गुजरे तो वेतन आधा हो गया और जब उनके ठीक होने के तनिक भी आसार नजर नहीं आये तो पहले वेतन बंद हुआ और फिर नौकरी गई। एक तो आमदनी का जरिया बंद हो गया दूसरे उनके इलाज का तगड़ा खर्च भी, घर-खर्च के साथ तन कर खड़ा हो गया, कुछ महीने तो जैसे-तैसे कटे, पहले जमां-पूंजी खर्च हुई, फिर अभय की कंपनी से मिला एकमुश्त पैसा, फिर बारी आई गहनों के बिकने की लेकिन माँ ने अचानक आकर वे गहने बचा लिए, अपनी पाई-पाई करके जोड़ी धन-राशि उसके हवाले कर माँ ने समझाया, ‘‘यह समस्याओं का हल नहीं है, संघर्ष बड़ा है, रास्ता लंबा है और तय भी तुम्हें ही करना है इसलिए आय का कोई जरिया ढूंढो, इस पैसे के खत्म होने से पहले ही एक पुख्ता जमीन खोज लो बेटी, अपने लिए, जिस पर मजबूती से खड़ी हो सको, ‘‘और माँ के सुझाव पर सबसे पहले अपनी गृहस्थी को दो कमरों में समेट कर वसुधा ने तीन कमरे किराये पर उठा दिए, अचिन्त की जिम्मेदारी माँ ने उठाने का वादा किया। असीम बी.काम. प्रथम वर्ष में था। उसने कॉलेज छोड़कर पत्राचार से पढ़ाई शुरु कर दी। बरखा को मंहगे कॉन्वेंट से निकाल कर सरकारी स्कूल में डाल दिया गया। उस दिन वसुधा की आँखें भी रोई थीं और मन भी। यह उसका पहला ख्वाब था जो माटी में मिला था, ‘‘तुम जी मत छोटा करो वसु बेटा, इसके नसीब में ‘कुछ' बनना लिखा होगा तो इस स्कूल में पढ़ कर भी बन जाएगी। सिर्फ महंगे स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे ही ऊँचाई पर पहुँचते हैं; ऐसा किस किताब में लिखा है?'' माँ ने धैर्य बंधाया और अचिन्त को लेकर चल दीं। वसुधा का मन रोया था उस दिन पर आँखें नहीं क्योंकि वह जानती थी कि उसके आँसू अचिन्त के भविष्य-पथ के रोड़े बन जायेंगे।
जब जम कर जीवन-संग्राम शुरु हुआ। ज्यादा पढ़ी-लिखी तो नहीं थी वसुधा, हाँ व्याह से पहले सिलाई-कढ़ाई का डिप्लोमा-कोर्स किया था जो अब आड़े वक्त का संबल बना, झूठी शान को ताक पर रख कर उसने, मशीन संभाल ली, खूब काम आने लगा इतना कि मुश्किल से संभाल-निपटा पाती वह, असीम ने पढ़ाई के साथ-साथ दो दुकानों में हिसाब-किताब का काम शुरु कर दिया। इस तरह अपना खर्चा खुद उठा लिया, कुल मिलाकर इतनी आय तो हो ही जाती थी कि रोटी-कपड़े के ठीक-ठाक जुगाड़ के साथ-साथ अभय के इलाज का खर्च भी निकल ही जाता था लेकिन वसुधा इतनी मेहनत करके भी सुकून नहीं पाती थी। वजह थी अभय का हर पल चिड़चिड़ाना, वह भी न समझ आने वाले चुभते स्वर में। कभी-कभी तो वह ऊँचे स्वर में रोने लगते और सिर्फ बरखा के संभालने से ही संभलते। वह उन्हें समझाती, ‘‘पापा, सब कुछ ठीक हो रहा है न? आपने बहुत किया है हमारे लिए पापा और आगे भी करेंगे, देखियेगा, बहुत जल्दी ठीक हो जाएंगे आप, हम सब हैं न आपके साथ।''
‘‘बरखा ठीक कह रही है जी, आपको यूँ हिम्मत नहीं हारनी है, अरे बरखा जैसी बेटी दी है आपको जिन्दगी ने तोहफे में, फिर भी आप रोते हैं?'' वसुधा कहती तो टूटे-फूटे शब्दों में कहते अभय, ‘‘इसके लिए ही तो रोता हूँ, कुछ नहीं कर सका इसके लिए मैं, मेरी बच्ची।''
वसुधा अच्छी तरह समझती थी पति की बेबसी को कि उनके स्वाभिमान को गवारा नहीं हो रहा यूं बिस्तर पर पड़े रहकर दूसरों से सेवा करवाना लेकिन वक्त और हालात के आगे वह भी तो उतनी ही मजबूर थी जितने अभय थे। वह कहती, ‘‘इस तरह तो आप हमारे संघर्ष को भी मुश्किल बना देंगे जी। देखिये जैसे अच्छा वक्त नहीं रहा, बुरा वक्त भी नहीं रहेगा। इसे बदलना ही होगा पर प्लीज यूं निराश होकर, रोकर आप हमारी हिम्मत न तोडें़ जी।'' फिर अभय कभी चीखे-चिल्लाये नहीं लेकिन उन्हें खामोशी से आँसू बहाते कई बार देखा था वसुधा ने लेकिन यह सोचकर वह उन आँसुओं को देखकर भी अनदेखा कर देती कि अच्छा है अभय के मन का मलाल इस खारे पानी के साथ बह जाये और जी हल्का हो जाये उनका।
समय की धारा अपने पूर्व निर्धारित विधान के साथ बहती चली गयी। असीम एम.बी.ए. कर रहा था, साथ ही एक छोटी-मोटी सी नौकरी भी। बरखा ने ‘‘टैंन्थ'' में टॉप किया तो अगली पढ़ाई के लिए उसे स्कॉलरशिप मिल गयी। कुछ बच्चों के टयूशन भी ले लिये उसने। अभय पूरी तरह से ठीक तो नहीं हो पाये लेकिन व्हील चेयर पर बैठने लायक तो हो ही गये और लकवे से लड़खड़ाई जुबान भी काफी हद तक ठीक हो गयी। घर के हालात भी अपेक्षाकृत ठीक-ठाक हो गये थे इसलिये ही बर्खा ने कहा, ‘‘माँ अचिन्त भैया को वापिस बुला लें। मेरा जी नहीं लगता उनके बिना। साल में दो-एक बार ही तो मिल पाती हूँ उनसे। माँ, जैसा भी है, जितना भी है हम मिल-बांटकर खाएंगे और रहेंगे।'' माँ, के कहने पर वसुधा ने बेटे को नानी के घर भेजा था, अब बेटी के अनुरोध पर वापिस बुला लिया वह आ तो गया लेकिन उसका मन नहीं लगा यहाँ, वह फिर नानी के पास लौट गया। बरखा बहुत उदास रहने लगी थी इस बात से।
समय और आगे बढ़ा। असीम की अच्छी-खासी नौकरी लग गई एम.बी. ए. के बाद और बरखा ने भी बारहवीं पास कर स्कूल को अलविदा कह दिया। घर में सबका मन था कि वह अच्छे से कॉलेज में जाये और वह गयी भी लेकिन उसे वहाँ का माहौल रास नहीं आया। बाकी लड़कियों की तरह अच्छे और आज के फैशन के कपड़े-जूते और श्रृंगार के साधन नहीं जुटा पाती थी, इसलिये कुंठाओं तथा हीन भावनाओं के पंजे उसे बुरी तरह जकडते, इससे पहले ही उसने कॉलेज छोड़ दिया और पत्राचार से बी.कॉम. करने का फैसला किया। बचे समय का सदुपयोग वह हर तरह से घर की सहायता के लिये करना चाहती थी। वसुधा की एक ग्राहक-मित्र ने उसे किसी बिजनेस मैन की जुड़वाँ बेटियों मिनी-विनी की टयूशन दिला दी। सप्ताह में पाँच दिन दो घण्टे नित्य पढ़ाने के दो हजार रुपये मिल रहे थे उसे, बस उनकी माँग और शर्त की तरह बरखा को उनके घर जाकर पढ़ाना होता था। खासी दूर पर था उनका घर और बरखा शॉर्ट-कट से पैदल ही जाती थी। यह देखकर मिनी-विनी की मम्मी ने उनके अच्छे मार्क लाने पर उसे एक साइकिल भेंट में दे दी; इससे बरखा का वक्त भी बचने लगा और उसे थकान भी कम होने लगी। वसुधा भी बेटी की ओर से निश्चिंत हो गयी लेकिन उसे एक नई चिंता ने घेर लिया था कि बरखा सयानी हो रही है और उसके पास ब्याह के लिये कुछ भी नहीं है, दो चार गहनों के सिवा। कुल मिलाकर आय तो अच्छी हो रही थी पर व्यय भी कुछ कम न था। एक-एक पैसा जोड़कर बरखा के ब्याह के लिए एक मोटी रकम जमा कर चैन की साँस भी नहीं ले पाती थी, कोई दुःख, बीमारी या ब्याह/उत्सव आकर उसकी सारी जमां-पूंजी लील लेते थे। कैसे जुटेगा दहेज बरखा के लिए यह फिक्र वसुधा को दिन में चैन नहीं लेने देती थी और रातों को ‘‘जगराते बना देती थी। किसी भी स्थिति में वह बरखा के टयूशन वाले पैसे घर में खर्च नहीं करती। सिर्फ ये रकम तो काफी नहीं थी न ब्याह के लिये इसीलिये वसुधा ने जबरदस्त कतर-ब्योंत शुरु कर दी। अखबार का आना बन्द हुआ, दूध कम कर दिया। एक वक्त साग-सब्जी बनती और दोनों वक्त खायी जाती। वसुधा के पहनने-ओढ़ने, घूमने-फिरने के शौक तो कब के संघर्षों की भेंट चढ़ चुके थे अब खुद के खाने-पीने में भी कटौतियां शुरु कर दीं थीं उसने। बुनियादी जरुरतों के अलावा और किसी भी जरुरत को उस घर में घुसने की इजाजत नहीं थी। धन-सम्पन्नता नहीं तो क्या? ऐसी खास विपन्नता भी नहीं रही थी घर में और बरखा थी कि लाखों में एक सर्व गुण सम्पन्न लड़की। अभी बी.काम. अन्तिम वर्ष में ही थी कि उसके रुप गुणों से प्रभावित होकर रिश्ते खुद चलकर घर आने लगे थे। तीन-चार रिश्ते तो ऐसे आये थे जो बिन दहेज के ही बरखा को ब्याह कर ले जाना चाहते थे पर वे सब थे अन्तरजातीय, अपनी बिरादरी में तो ऐसा साहस किसी ने ना दिखाया। एक सम्बन्ध तो इसी गली की सुनन्दा जी लेकर आयीं थीं, ‘‘मेरा बेटा कितना होनहार है आपसे छुपा नहीं है बसुधा बहन और उसकी जीवन साथी बनने लायक लड़की मेरी नजरों में सिर्फ आपकी बरखा ही है और मेरा सुहास बेहद पसंद भी करता है उसको। आप ‘‘हाँ'' भर कह दें तो सवा रुपये और नारियल में ब्याह कर ले जाऊँगी लड़की को। कोई कमी नहीं है हमारे घर में, बस बरखा जैसी लक्ष्मी बहू चाहिए।''
इसे अपना सम्मान नहीं अपमान समझा था वसुधा ने। वह हालात की मारी हुई जरुर है लेकिन इतनी गयी-गुजरी भी नहीं कि दहेज ना देने के लोभ में गैर जाती में लड़की ब्याह दे और वह भी चार घर छोड़कर गली में ही। लोग क्या कहेंगे? समाज क्या कहेगा? असीम को तो कोई बुराई नजर नहीं आयी थी इस रिश्ते में और ऐतराज बरखा को भी नहीं था। झिझकते हुए दबे स्वर में कहा था उसने, ‘‘माँ मेरी बेहयाई न समझें और न मुझे चाव-रुचि है ब्याह में लेकिन आप ही मेरे ब्याह के लिए रात-दिन फिक्रमन्द रहती हैं और कहीं न कहीं तो मेरा व्याह करेंगी ही तो यहाँ क्यों नहीं?''
‘‘और क्या मांग कर रिश्ता ले जायेंगे तो हमारी बरखा को सुखी रखेंगे और सुहास को भी मैं अच्छी तरह जानता हूँ। वह हर तरह से हमारी बरखा के लायक है और फिर हम अपनी हैसियत से बढ़कर ब्याह करेंगे माँ'' असीम ने भी बहन का पक्ष लिया था लेकिन बिफर उठी थी वसुधा, ‘‘नहीं, हरगिज नहीं, हम ब्राह्मण हैं और वे कायस्थ। इतने बुरे दिन भी नहीं रहे हमारे अब कि जो मांगे बेटी उसी के हवाले कर दें।'' अभय तक तो यह बात पहुँचायी नहीं गयी थी; यह क्या कोई मसला उन तक नहीं पहुँचाया जाता था।
बरखा तो ब्याह को जिन्दगी के लिये जरुरी समझती ही नहीं थी। उसने कभी प्रत्यक्ष खुद तो कभी नानी से कहलवाया था। माँ को कि वह ब्याह करना ही नहीं चाहती। जो रकम उसके ब्याह के लिये जोड़ी जा रही है वह घर वालों का हक है इसलिये उनके लिये ही इस्तेमाल की जाये लेकिन वसुधा के लिये तो तब मानों एक ही काम बचा था बरखा के ब्याह की चिंता और जतन।
बरखा के इम्तिहान कोई ज्यादा दूर नहीं थे इसलिये अपनी पढ़ाई पर बहुत जोर दे रही थी वह और जोर मिनी-विनी की पढ़ाई का भी था। सुध-बुध भूलकर खाना-पीना बिसारकर वह मेहनत कर रही थी जी जान से। इतनी मेहनत और तनाव उसे बुरी तरह थका देते थे लेकिन उसकी भरसक कोशिश रहती कि घर में कोई उसकी तकलीफ को ना जाने पर वसुधा माँ साफ महसूस करती कि बेटी पर बोझ जरुरत से ज्यादा है, पर कर कुछ न पाती। वसुधा को दिन-रात मशीन पर झुके देखकर बरखा का जी भी दुखता था इसलिये जिद करके उसने रात की रसोई का सारा जिम्मा उठा लिया था।
सप्ताह में एक या दो बार बरखा टयूशन से ही सीधे कॉलेज में रेग्यूलर पढ़ने वाली अपनी खास दोस्त मुक्ता के घर जाती और उससे नोटस लेकर लौट आती।
फरवरी मांह का अन्तिम सप्ताह था वह, जब सिर्फ सांझ-सवेरे ही हल्के ठण्डे होते हैं लेकिन उस दिन की शाम तो बादलों से घिरकर बेहद ठण्डी हो गयी थी। तूफान और तेज बारिश आने की सम्भावना साफ नजर आ रही थी। काली रात सी संवला उठी थी वह शाम। हल्की बूंदा-बांदी ही शुरु हुई थी कि मुक्ता के घर से निकल पड़ी बरखा। मुक्ता ने उसे बहुत रोका लेकिन उसे पूरी उम्मीद थी कि वह बारिश होने से पहले ही घर पहुँच जायेगी लेकिन अभी आधा रास्ता भी तय नहीं कर पायी थी कि बूंदा-बांदी ने पहले हल्की फिर तूफानी बारिश का रूप ले लिया; फिर भी वह रुकी नहीं और तेज-तेज पैडल मारती बढ़ती रही। हवा का रुख भी प्रतिकूल था, बार-बार साइकिल लड़खड़ा रही थी लेकिन बरखा ने हिम्मत नहीं हारी और भागती-कांपती घर पहुँच ही गयी। माँ ने मीठी फटकार लगायी ‘‘वहीं क्यों नहीं रुक गयी?'' लेकिन उसने कोई जबाब नहीं दिया और कपड़े बदलकर बिस्तर में घुस गयी। वसुधा ने गरम कम्बल उढ़ा दिये उसे और गर्म दूध ले आयी लेकिन दूध का प्याला थामने की हिम्मत भी नहीं बची थी उसमें। उसी रात तेज बुखार ने घेर लिया उसको पर उसने ‘उफ तक नहीं की, सारी रात सहती रही। सुबह वसुधा उसे जगाने गयी तो वह बेसुध पड़ी थी। असीम फौरन अॉटो-रिक्शा ले आया और बरखा को अस्पताल ले जाया गया। डॉक्टर ने चैक किया और गुस्से से कहा, ‘‘पीली पड़ी हुई है लड़की। खून तो जैसे है ही नहीं, कमाल की माँ हैं आप, कभी इसकी कमजोरी नजर नहीं आयी आपको? हडिडयों का ढांचा है यह या लड़की है? इतनी कमजोर है कि जरा सा भीगना भी नहीं सह पायी।''
डॉक्टर इलाज कर रहे थे और वह बेसुधी में निरंतर बड़बड़ा रही थी, ‘‘पापा को दूध दे दो माँ, दूधिए को बोल दो दूध ज्यादा दे जाया करे,'' ‘‘पापा का अखबार चालू करवा दो माँ,'' ‘‘अचिंत भैया कहाँ हो तुम?'' ‘‘मुझे ब्याह नहीं करना माँ बिल्कुल नहीं,'' ‘‘पापा आप अच्छे हो जायेंगे,'' शायद उसके मन का दबा हुआ लावा था जो बेसुधी की हालत में पिघल-पिघल के बाहर आ रहा था।
बुखार दिमाग पर चढ़ गया है, ‘‘मैनिनजाइटस'' का केस है ‘‘दुआ कीजिए, कि वह बच जाये उम्मीद तो कम है,'' डॉक्टर ने कहा तो वह और असीम कांप उठे। वे तो दुआ कर ही रहे थे, पूरा मोहल्ला भी उमड़ आया था वहाँ। हर जुबान पर दुआ थी, प्रार्थना थी और मन्नतें थीं लेकिन प्रभु ने इन्हें स्वीकार नहीं किया और उसी शाम दम तोड़ दिया बरखा ने। कैसे सहा बसुधा ने। उसकी भी सांसें क्यों ना थम गयीं यह सुनकर, ‘‘सॉरी मैडम, शी इज नो मोर''। पथरा गयी थी जैसे वसुधा। असीम दीवार से सिर मार रहा था। लोग रो रहे थे। यह सब क्या हो रहा है, चकरा सी रही थी वह। जुबान को लकवा मार गया था और आँखें शून्य में एकटक ताक रही थीं। पंडित जी ने पूजा और तर्पण के बाद कहा, ‘‘देव-लोक की कोई पथ भ्रष्ट देवी थी बिटिया जो भूले से आप लोगों के घर चली आई थी, अब लौट गई है अपने धाम शापमुक्त होकर, उसके लिए मत रोएँ आप लोग, वह सुखी हो गई है।''
‘‘हाँ सुखी ही तो हो गई है वह। क्या पाया उसने इस घर में आकर? हर पल जी-जान से साथ दिया हमारा, कभी कोई माँग नहीं की, कभी कोई इच्छा नहीं जतायी, कोई शिकायत भी तो नहीं की अभागी ने कभी,'' नानी ने ठंडी साँस लेकर कहा।
‘‘कन्या रूप में ही गई है बिटिया, इसका विधिवत सिंगार करिये जैसे दुल्हन का किया जाता है.......सांचे घर जाना है इसे,'' पंडित ने कहा और सोलह सिंगार कर वसुधा ने बिदा कर दिया उसे, उसकी इस तरह की बिदाई का सपना तो नहीं संजोया था वसुधा ने, ‘‘बरखा बिदा हो कई........चली गई,'' ‘‘मजे में तो है?'' यही शब्द बार-बार दहेराते हैं अभय न रोते हैं, न चिल्लाते हैं और न चिड़चिड़ाते हैं, ‘‘दोषी तो मैं ही हूँ, जात-पात के मकड़-जाल में न उलझती तो बरखा इसी गली में चौथे मकान में ब्याह कर चली जाती और सारी जिंदगी मेरी आँखों के सामने रहती। लताड़ती है वसुधा खुद को अपनी फूल सी बच्ची के नाजुक से अस्थि-फूल इन्हीं क्रूर हाथों में गंगा जी में विसर्जित किए उसने, क्यों और कैसे भगवान ने उसे इतना कठोर बना दिया?
तेरह दिन हो गए.........अंतिम रस्म भी अदा हो गई, मेहमान बिदा हो गए, घर में मशानी-सन्नाटा पसरा था जिसे असीम के उच्च रोदन ने भंग कर दिया, ‘‘ओ बरखा री, मैं कैसे जिया तेरे बिनी बहना? ऐसे जाना था तो आई क्यों थी हमारे घर?''
‘‘कितनी अजीब बात है न माँ, कई दिनों के सूखे के बाद कितनी खुल कर बारिश बरसी थी उस दिन, जिस दिन बरखा का जन्म हुआ था और उसके मरण का कारण भी बारिश ही बनी, वह कितना चाहती थी कि मैं यहीं रहूँ, उसके साथ। अगर मैं जानता होता न माँ कि उसकी जिन्दगी इतनी छोटी है, तो मैं कभी दूर न जाता उससे'' कह कर रो पड़ा अचिन्त तो सभी का रोना छूट गया और घर रुदन के स्वरों से भर गया।
‘‘चुप, एकदम चुप, रोकर अपशकुन मत करो तुम लोग, तुम रोओगे तो ससुराल में वह सुख से रह पाएगी क्या? वसुधा, उठो और सांझ की दिया-बाती करके बरखा का सुख मांगों,'' बर्फ से भी ज्यादा ठंडे स्वर में कहा अभय ने और वसुधा ने देखा कि आज उनकी आँखों की कोरें भी भीगी हुई हैं तो वह भी रो पड़ी, बरखा की बिदाई के बाद आज पहली बार इतना खुलकर रोई थी वह।
''' 2144/9, फरीदाबाद-121006 (हरियाणा)
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