(सत्यजीत राय) - सत्यजीत राय के जन्म दिवस 2 मई पर विशेष- शुधु धाओ पिछाने ना फेरो शुधु धाओ शुधु धाओ पिछाने ना फेरो (बस निरन्तर बढ़ते...
(सत्यजीत राय)
-सत्यजीत राय के जन्म दिवस 2 मई पर विशेष-
शुधु धाओ पिछाने ना फेरो
शुधु धाओ
शुधु धाओ
पिछाने ना फेरो
(बस निरन्तर बढ़ते रहो, दौड़ते रहो, पीछे न देखो!)
सत्यजीत राय अन्त तक बढ़ते रहे और भारतीय ही नहीं विश्व फिल्म आकाश पर नये-नये इतिहास रचते गये उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
इस महान फिल्मकार का जन्म 2 मई 1921 को हुआ था। बालपन में आपके सिर से पिता का साया उठ गया। आपके पिता श्री सुकुमार राय अपने समय के प्रसिद्ध व्यंग्य लेखक थे। कला और साहित्य का रुझान आपको बचपन से ही था। कलकत्ता के बालीगंज के सरकारी स्कूल से हाईस्कूल की शिक्षा ग्रहण कर सन् 1940 में प्रेसीडेंसी कालेज कलकत्ता से स्नातक की उपाधि प्राप्त कर गुरुदेव से प्रेरणा पाकर कला की शिक्षा लेने लगे। प्रारम्भ में अपने विज्ञापन एजेंसी में काम किया। 1947 में कलकत्ता फिल्म सोसायटी की नींव डाली। इसी दौरान राय की मुलाकात प्रसिद्ध फिल्म निर्माता-निर्देशक रेनवां से हुई जो अपनी फिल्म ‘रिबर' की शूटिंग के लिए कलकत्ता आये थे। 1950 में राय इंग्लैंड गये। वहां से लंदन में चार माह के प्रवास में अपने 100 से अधिक फिल्मों को गहराई से देखा तथा फिल्म निर्माण की तकनीकी ज्ञान के साथ ही तत्कालीन सिनेमा विषयों को समझने का अवसर मिला। यहाँ से आप भारत पानी की जहाज से वापिस आते समय, सागर में यात्रा करते हुए ‘पांथेर पांचाली' नामक कालजयी फिल्म की पटकथा लिखी। इसी फिल्म ने उन्हें भारतीय फिल्म आकाश ही नहीं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय फिल्मकार के रूप में मान्यता मिली।
सत्यजीत राय से जब पूछा गया कि उनके मन में फिल्म के अलावा और कुछ चुनने का इरादा था? नहीं। तो उन्होंने कहा था कोई सवाल ही नहीं था। दरअसल उस वक्त मैं एक फिल्म से ज्यादा की सोच ही नहीं सकता था। मैं अपने बारे में ही निश्चित नहीं था कि क्या मैं एडवर्टाइजिंग छोड़कर फिल्म में आ भी सकूँगा या नहीं । अतः वैसा कोई सवाल उठता ही नहीं था। लेकिन ‘पांथेर पांचाली' को कलकत्ता में ही दर्शकों की स्वीकृति मिलने के बाद (किसी पुरस्कार या सराहना मिलने के पूर्व) मैं ठान चुका था कि मैं फिल्म ही बनाऊँगा मुझे लगा कि अपू के बाद में ही दूसरी फिल्म बनाऊँ। दूसरी पुस्तक सामने आयी अपराजितो और मैंने उसे फिल्माया। लेकिन फिर भी, हाँ फिर भी, ‘अपराजितो' बनाने के बाद भी त्रयी मेरे दिमाग में कतई नहीं थी क्योंकि अपराजितों असफल हो गयी थी। बाक्स-ओ-फिस में चौपट थी, सो मुझे एकदम कुछ दूसरा सोचना पड़ा। मैंने एक कॉमेडी ‘पारस पाथर' बनायी और वह ठीक ठाक चल निकली।
फिल्म अपूर संसार में अपू अपने मित्र की बहिन के विवाह में जाता हैं यह अभिभावकों द्वारा तय किया हुआ विवाह है। दुल्हा आता है उसके माथे पर तिलक लगाया जाता है। लेकिन दुल्हन की माँ कन्यादान से इन्कार कर देती है और विवाह टूट जाने की नौबत आ जाती है। यदि निश्चित तिथि फल पर विवाह नहीं होता है तो दुल्हन अभिशप्त होकर जीवन भर कुँआरी बैठी रह जाती है। लेकिन, अन्तिम क्षण में संकट दूर करने के लिए अपू आगे बढ़कर स्वयं ही विवाह करने का प्रस्ताव रख देता है। इस सीन का फिल्मांकन और पार्श्व संगीत वातावरण को अत्याधिक करुणामय बनाता है और एक लड़की के ऊपर आने वाली कठिनाईयों को रेखांकित बड़े ही उम्दा तरीके से किया है अपू का प्रस्ताव के समय संवाद की अदायगी की मौलिकता और बैठे हुए लोगों की विवेक शून्यता को उजागर करने में राय का कैमरा सहजता से बिम्ब बनाता है। ‘चारुलता' फिल्म में उन्नीसवीं सदी की उच्च वर्गीय छवि का फिल्मांकन करते समय जब चारुलता (नायिका) पुस्तकों की आलमारी से एक किताब निकालती है। इधर-उधर घूमती हुई निष्प्रयोजन ढंग से पुस्तक के पन्ने पलटती जाती है और हौले-हौले गाती जाती है। राय ने अपनी सभी फिल्मों की पटकथाएँ स्वयं ही लिखी थी क्योंकि उन्हें अभिनय के लिए पटकथा महत्वपूर्ण होती है। राय अभिनय के प्रति अत्याधिक जागरुक निर्देशक थे। उन्होंने ‘पारस पाथर' तुलसी चक्रचर्ती को ध्यान में रखकर लिखा। नायक उत्तम कुमार के लिए ‘कंचन जंघा', देवी और ‘जालसाघर' छवि विश्वास के लिए लिखा। ‘अशनि संकेत' में नायिका बांग्लादेश की थी, क्योंकि उन्हें जिस तरह की लड़की चाहिए थी वह बंगाल में नही थी। वे नये और पुराने कलाकारों से अपनी फिल्म के अनुकूल अभिनय कराने में सफल थे। राय की हिन्दी फिल्म ‘शतरंज के खिलाड़ी' में सामन्तवर्ग जो उस समय उनके साथ घटित हो रहा था उसे हूबहू चित्रित कर एक बेहतरीन फिल्म बनाई थी। प्रत्येक चरित्रों को उन्होंने भरपूर ढंग से पेश किया।
सत्यजीत राय को समझने के लिए उनकी प्रत्येक फिल्म देखने के बाद यकीनी तौर पर कहा जा सकता है कि वे संपूर्णता में विश्वास करने वाले समर्पित फिल्मकार थे फिल्म के छोटे से छोटे पक्ष का ध्यान रखते थे। फिल्म की गति, दृश्य संयोजन, संगीत पक्ष पर उनकी समझ गजब की थी। कुछ फिल्मों में जब उन्हें लगा कि संगीत पक्ष कमजोर है तो उन्होंने स्वयं संगीत देना आरम्भ कर दिया। सत्यजित राय की इन्हीं सब उपलब्धियों के लिए भारत सरकार ने ‘भारत रत्न' से सम्मानित किया।
सम्मान एवं पुरस्कार
निधन के कुछ ही दिन पहले राय अकादमी पुरस्कार के साथमुख्य लेख ः सत्यजित राय को मिले सम्मान
राय को जीवन में अनेकों पुरस्कार और सम्मान मिले। अॉक्सफर्ड विश्वविद्यालय ने इन्हें मानद डॉक्टरेट की उपाधियाँ प्रदान की। चार्ली चौपलिन के बाद ये इस सम्मान को पाने वाले पहले फिल्म निर्देशक थे। इन्हें 1985 में दादासाहब फाल्के पुरस्कार और 1987 में फ्राँस के लेज्यों द'अॉनु पुरस्कार से सम्मानित किया गया। मृत्यु से कुछ समय पहले इन्हें सम्मानदायक अकादमी पुरस्कार और भारत का सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न प्रदान किये गए। मरणोपरांत सैन फ्रैंसिस्को अन्तरराष्ट्रीय फिल्मोत्सव में इन्हें निर्देशन में जीवन-पर्यन्त उपलब्धि-स्वरूप अकिरा कुरोसावा पुरस्कार मिला जिसे इनकी ओर से शर्मिला टैगोर ने ग्रहण किया। सामान्य रूप से यह समझा जाता है कि दिल का दौरा पड़ने के बाद उन्होंने जो फिल्में बनाईं उनमें पहले जैसी ओजस्विता नहीं थी। उनका व्यक्तिगत जीवन कभी मीडिया के निशाने पर नहीं रहा लेकिन कुछ का विश्वास है कि 1960 के दशक में फिल्म अभिनेत्री माधवी मुखर्जी से उनके संबंध रहे।
फिल्म निर्देशन
१९४७ में चिदानन्द दासगुप्ता और अन्य लोगों के साथ मिलकर राय ने कलकत्ता फिल्म सभा शुरु की, जिसमें उन्हें कई विदेशी फिल्में देखने को मिलीं। इन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध में कोलकाता में स्थापित अमरीकन सैनिकों से दोस्ती कर ली जो उन्हें शहर में दिखाई जा रही नई-नई फिल्मों के बारे में सूचना देते थे। १९४९ में राय ने दूर की रिश्तेदार और लम्बे समय से उनकी प्रियतमा बिजोय राय से विवाह किया। इनका एक बेटा हुआ, सन्दीप, जो अब खघ्ुद फिल्म निर्देशक है। इसी साल फ्रांसीसी फिल्म निर्देशक जाँ रन्वार कोलकाता में अपनी फिल्म की शूटिंग करने आए। राय ने देहात में उपयुक्त स्थान ढूंढने में रन्वार की मदद की। राय ने उन्हें पथेर पांचाली पर फिल्म बनाने का अपना विचार बताया तो रन्वार ने उन्हें इसके लिए प्रोत्साहित किया। १९५॰ में डी. जे. केमर ने राय को एजेंसी के मुख्यालय लंदन भेजा। लंदन में बिताए तीन महीनों में राय ने ९९ फिल्में देखीं। इनमें शामिल थी, वित्तोरियो दे सीका की नवयथार्थवादी फिल्म लाद्री दी बिसिक्लेत्त्ो (स्ंकतप कप इपबपबसमजजम, बाइसिकल चोर) जिसने उन्हें अन्दर तक प्रभावित किया। राय ने बाद में कहा कि वे सिनेमा से बाहर आए तो फिल्म निर्देशक बनने के लिए दृढ़संकल्प थे।
फिल्मों में मिली सफलता से राय का पारिवारिक जीवन में अधिक परिवर्तन नहीं आया। वे अपनी माँ और परिवार के अन्य सदस्यों के साथ ही एक किराए के मकान में रहते रहे। १९६॰ के दशक में राय ने जापान की यात्रा की और वहाँ जाने-माने फिल्म निर्देशक अकीरा कुरोसावा से मिले। भारत में भी वे अक्सर शहर के भागम-भाग वाले माहौल से बचने के लिए दार्जीलिंग या पुरी जैसी जगहों पर जाकर एकान्त में कथानक पूरे करते थे।
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सुरेन्द्र अग्निहोत्री
श्राजसदन-120/132
बेलदारी लेन,
लालबाग, लखनऊ
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