भूमिका कहानी गद्य साहित्य की एक छोटी और अत्यन्त सुसंघटित व अपने में पूर्ण कथारूप है। न जाने कितने रूपों में कहानी मानव जीवन के प्रत्ये...
भूमिका
कहानी गद्य साहित्य की एक छोटी और अत्यन्त सुसंघटित व अपने में पूर्ण कथारूप है। न जाने कितने रूपों में कहानी मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र, और प्रत्येक काल में घुली मिली रहती है। हममें से प्रत्येक व्यक्ति प्रतिदिन सैकड़ों कहानियों से रूबरू होता है।कहानी की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। कहानी, अकहानी, नई कहानी, दलित कहानी आदि अनेक रूपों में कहानी लिखी गई और कहानी के विभिन्न रूपों को लेकर अनेक आन्दोलन भी चले।
देशकाल एवं वातावरण के अनुरूप कहानी के रूपों में परिवर्तन होता ही रहता है। प्राचीन काल में धार्मिक आचार, आध्यात्मिक तत्व-चिंतन एवं नीतिपरक कहानियों की प्रमुखता रही फिर राजा-महाराजाओं के शौर और प्रेम, ज्ञान और न्याय, वैराग्य आदि पर कहानियाँ लिखी गईं।
चरित नायकों एवं युग-प्रेम की स्वाभाविक प्रवृतियों के कारण कथा-साहित्य की परम्परा का निरन्तर विकास होता रहा है। हिन्दी के रीतिकाल तक कहानी में प्रेम की प्रवृति देखी गई किन्तु हिन्दी के वर्तमान काल में कहानी के नये-नये रूप देखने को मिलते हैं जो अति भौतिकतावादी, आपाधापी से पूर्ण युग के यथार्थ के खुरदरे धरातल के दिग्दर्शन भी कराते हैं। सम्बन्धों में तेजी से आ रहे बदलाव, आत्मीयता का अभाव, धन की बढ़ती लालसा एवं बुजुर्गाें के प्रति उपेक्षाभाव में त्वरित गति से बढ़ोत्तरी हुई है। नारी के पूज्या रूप को लीलता दहेज-दानव आदि अनेक ज्वलन्त समस्याएँ आज समाज में उग्र रूप धारण करती जा रही हैं जिनपर हिन्दी साहित्य की व्यंग्य, कहानी, लघुकथा आदि अनेक विधाओं में रचनाकार अपनी लेखनी चला रहे हैं। प्रत्येक रचनाकार की अपनी विशिष्ठ शैली होती है। कई रचनाकार अपनी शैली की विशिष्ठता से एक ही विषय पर कई-कई रचनाएं, विभिन्न कोंणों से प्रस्तुत करने की अद्भुत क्षमता रखते हैं।
इस संकलन की सभी कहानियाँ रचनाकारों से विशेष आग्रहकर, केवल और केवल दहेज विषय पर लिखाई गई हैं। इसमें समाहित कई रचनाओं के रचनाकार ऐसे भी हैं जिन्होंने दहेज के अनेक रूपों का उ�घाटन अपनी विशिष्ठ शैली में , विभिन्न रूपों में बहुत ही मार्मिक ढंग से किया है। संकलन में संकलित रचनाओं के रचनाकारों का मैं हृदय से आभारी हूँ जिन्होंने मेरे निवेदन को स्वीकार कर अपने अमूल्य समय की आहुति दे,मेरे इस प्रयास को सफल बनाने में सहयोग किया।
दहेज विषयक इस संकलन के पीछे ‘कथाबिम्ब' में प्रकाशित सुश्री संगीता आनन्द की कहानी ‘‘एक थी सांवली''है जिसे पढ़ने के बाद मैं एक सप्ताह तक खोया-खोया सा रहा और यह कहानी पूरे सप्ताह मेरे मन-मस्तिष्क में गहरे तक छाई रही। यद्यपि इस कहानी में सीधे-सीधे दहेज के बारे में कुछ भी नहीं कहा गया है किन्तु इसकी पृष्ठ भूमि में दहेज की पीड़ा कहीं गहरे तक समायी हुई है जिसे संगीताजी ने अपनी विशिष्ठ शैली में पिरोया है।
‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता'' को मानने वाले देश में आज नारी को केवल भोग्या और दहेज जुटाने का साधन माना जा रहा है। पूज्य भाव तो दूर, आत्म स्वरूपा पत्नी को दहेज की खातिर कितनी पीड़ादायक यंत्रणायें दी जाती हैं, संकलन की कहानियों से प्रकट है। संकलन में संकलित रचनाकारों ने समाज के यथार्थ को ऐसा चित्रित किया हेै कि पढ़ते-पढ़ते रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
संकलन हेतु जिन मित्रों ने मुझे विशेष सहयोग दिया उनमें गाजियाबाद के श्री कालीचरण प्रेमी, दिल्ली के श्री किशोर श्रीवास्तव एवं डॉ.कुहेली भटटाचार्य, लखनऊ से डॉ. राजेन्द्र परदेशी, जयपुर की सुश्री माधुरी शास्त्री, आगरा की डॉ.उषा यादव,भोपाल की सुश्री मालती बसंत, होशंगाबाद के डॉ. जगदीश व्योम तथा भुवनेश्वर के श्री अरुण कुमार जैन एवं मथुरा के डॉ.अनिल गहलौत, श्री मदनमोहन शर्मा‘अरविन्द'के नाम प्रमुख हैं। छोटे पुत्र सागरदीप पाठक के पुस्तक की तैयारी में मिले सहयोग को भी नकारा नहीं जा सकता साथ ही पुस्तक के प्रकाशन हेतु किताबघर प्रकाशन के मालिक श्री देवदत्त शर्मा के सहयोग को भी।
इस संकलन की अधिकांश कहानियाँ पाठक-मन को झकझोरने में,नेत्रों से अश्रु धारा बहाने और कुछ सोचने पर बाध्य करने में पूर्ण समर्थ हैं, रचनाओं के संपादन के दौरान ऐसा मैंने महसूस किया है। इस संकलन को पढ़ने के बाद यदि समाज के कुछ व्यक्ति भी दहेज जैसी कुत्सित और बीभत्स इस कुप्रथा को दूर करने में अपने को सहायक बना सके तो मैं अपना श्रम सार्थक समझूंगा।
आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा।
डॉ.दिनेश पाठक‘शशि'
28, सारंगविहार, पोस्ट-रिफायनरी नगर ,
मथुरा-281006
--
अनुक्रमणिका
1 -एक नई शुरूआत - डॉ0 सरला अग्रवाल
2 -बबली तुम कहाँ हो -- डॉ0 अलका पाठक
3 -वैधव्य नहीं बिकेगा -- पं0 उमाशंकर दीक्षित
4 - बरखा की विदाई -- डॉ0 कमल कपूर
5- सांसों का तार -- डॉ0 उषा यादव
6- अंतहीन घाटियों से दूर -- डॉ0 सतीश दुबे
7 -आप ऐसे नहीं हो -- श्रीमती मालती बसंत
8 -बिना दुल्हन लौटी बारात -- श्री सन्तोष कुमार सिंह
9 -शुभकामनाओं का महल -- डॉ0 उर्मिकृष्ण
10- भैयाजी का आदर्श -- श्री महेश सक्सेना
11- निरर्थक -- श्रीमती गिरिजा कुलश्रेष्ठ
12- अभिमन्यु की हत्या -- श्री कालीचरण प्रेमी
13- संकल्प -- श्रीमती मीरा शलभ
14- दूसरा पहलू -- श्रीमती पुष्पा रघु
15- वो जल रही थी -- श्री अनिल सक्सेना चौधरी
16- बेटे की खुशी -- डॉ0 राजेन्द्र परदेशी
17 - प्रश्न से परे -- श्री विलास विहारी
--
(1) एक नई शुरुआत
डॉ0 सरला अग्रवालसुबह का काम निबटाकर सुहासिनी प्रातः कालीन सुनहरी धूप का आनंद लेने के लिए बाहर लॉन में कुर्सी डालकर बैठ गई।
उसे बच्चों की याद सताने लगी। बड़ी पुत्री तृप्ति का विवाह उन्होंने पिछले वर्ष ही किया था। तृप्ति के पति अभिलाष इंजीनियर हैं, तृप्ति उन्हीं के साथ गई हुई है। भारतीय परिवारों में माता-पिता जब तक अपने बच्चों का विवाह नहीं कर लेते सदैव तनावग्रस्त ही रहते हैं। यह कर्तव्य-बोध उनके हृदय को हर पल कचोटता रहता है.....।
इधर कई दिनों से मानव का पत्र नहीं आया था। आज उन्हें उसके पत्र की प्रतीक्षा थी....। तभी डाकिया आकर पत्रों के बंडल उन्हें थमा गया। अधिकांश पत्र पति संजीव के ही थे। उन्होंने लिखावट पहचानकर बेटे का पत्र उन पत्रों के बीच से निकाल लिया और उसे खोलकर पढ़ने लगी। मानव ने अपनी राजी-खुशी तो लिखी ही थी साथ ही वर्षा की छुटिटयों में सबको अपने पास वहाँ आने का आमंत्रण भी दिया था। मानव का पत्र पढ़कर सुहासिनी का हृदय आनंद से भर उठा.....। नेत्रों के समक्ष अतीत के चलचित्र घूमने लगे....। वह कुर्सी पर अधलेटी-सी दिवास्वप्नों में खोने लगी....।
उस दिन मानव का रिजल्ट आउट हुआ था। वह भारतीय प्रशासनिक सेवा की प्रारंभिक परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया था। सुहासिनी बेहद खुश थीं। कानोंकान यह समाचार सुवासित शीतल पवन के तीव्र झोकें-सा समस्त परिचितों में प्रसारित हो गया था। बहनें सोच रही थीं कि उनका भइया नगर का कलक्टर बनेगा, उसका कार-बँगला होगा, उसके आगे-पीछे वर्दी वाले सेवकों की फौज चलेगी, सब उनकी आँख के संकेतों पर नाचेंगे....। यही सब कल्पनाएँ करतीं दोनों पुलकित हो रही थीं।
‘‘मैं तो अपने भइया के लिए मेम जैसी दीखने वाली सुंदर भाभी लाऊँगी।'' तृप्ति ने कहा।
‘‘दीदी चिंता न करो, माँ कह रही थीं कि अब तो भइया के लिए एक से एक बढ़कर बढ़िया रिश्तों की लाइन लग जाएगी.....। छाँट लेना तुम उनमें से अपनी पसंद की भाभी....क्यों? वर्षा प्रसन्नतापूर्वक हास्य के साथ कहने लगी।''
‘‘पर भई, हमें भी तो अपना रुप-रंग सँवारना चाहिए न अब! मैं तो कल ही ब्यूटी पार्लर जाकर अपने बाल सेट करवाऊँगी। और हाँ, अब तो मैं ब्यूटीशियन का कोर्स करुँगी ताकि खुद ही बढ़िया मेकअप कर सकूँ। बहनों को भी तो कलक्टर भाई के अनुरूप ही अपना रहन-सहन और व्यक्तित्व बनाना आवश्यक है, क्यों भइया?'' भइया को सामने से आते देखकर वर्षा ने गर्व भरी नजरों से उनकी ओर देखा।
‘‘अरे ऐश्वर्या रानी! अभी से इतनी योजनाएँ मत बनाओ, धीरज धरो। कहीं तुम्हारा भइया फाइनल परीक्षा में गोल हो गया तो?''
‘‘रहने भी दो भइया, तुम हमें इतना निराश नहीं करना। एक बार सब्जबाग दिखा ही दिया है तो उसमें सैर तो करानी ही पड़ेगी, साथ ही फल-फूल भी खिलाने होंगे। अरे, खूब परिश्रम करो....देखते हैं भला कैसे उत्तीर्ण नहीं होगे? तुम तो भाग्यवादी नहीं हो!''
‘‘अरे यह क्या मसखरी लगा रखी है? मानव! इतना बड़ा हो गया है, पर अभी तक तेरा बचपना नहीं गया। जो भी मुँह में आता है बकता रहता है। जा बाजार जाकर एक किलो लडडू और आधा किलो नमकीन और ले आ, जल्दी आना! घर में कोई आ जाए तो अब कुछ भी बाकी नहीं है मेरे पास मुँह मीठा कराने के लिए।''
सुहासिनी ने पचास रुपये का नोट मानव के हाथों में थमा दिया। हुआ भी यही, इधर मानव ने स्कूटर उठाया, उधर पिताजी अपने कुछ सहकर्मियों के साथ घर में घुसे।
‘‘अरे सुनती हो! देखो तो कौन-कौन आए हैं? सबका मुँह तो मीठा कराओ!'' चहकते हुए उन्होंने सुहासिनी को हाँक लगाई।
साड़ी का पल्लू सुव्यवस्थित करते हुए सुहासिनी ने मृदुल मुस्कान के साथ हाथ जोड़कर सबका स्वागत किया और उनकी बधाइयों के उत्तर में आगे बढ़कर बोली-‘‘भाई साहब बधाई तो आप सबको भी हो! मानव तो आप सभी का बेटा है। ईश्वर की असीम कृपा एवं आप सब बड़ों के आशीर्वाद से ही तो यह दिन देखने को मिला है हम सबको!'' उसने बड़ी पुत्री तृप्ति को आवाज लगा दी-‘‘तृप्ति बेटा, जरा चाय का पानी तो चढ़ा दे।'' फिर आगंतुकों के साथ बैठक में चली गई।
इतिहास विषय लेकर स्नातकोत्तर परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करने के पश्चात मानव ने प्रशासनिक सेवा के लिए अपना भाग्य आजमाने का निर्णय लिया। अतः वह अब घर-परिवार से दूर जयपुर में रहकर प्रतियोगिता की तैयारी कर रहा था।
मानव को इस बात की अत्यन्त प्रसन्नता थी कि इस प्रथम टैस्ट में उसके साथ-साथ उसका रूममेट विकास भी चुन लिया गया था। दोनों लड़के रात-दिन निरंतर पढ़ाई में लगे रहे थे। उन दोनों ने परस्पर एक दूसरे से आगे निकलने और इस टैस्ट में चुने जाने की होड़ लगा रखी थी, पर उनकी यह होड़ स्वस्थ थी, इसमें ईर्ष्या, द्वेष या एक-दूसरे को गिराने का भाव कदापि न था। न ही वे एक दूसरे के साथ किसी बात का दुराव-छिपाव ही रखते थे, इसी कारण साथ रहकर पढ़ाई और भी अच्छी तरह से हो पाई थी।
‘‘माँ कहाँ हो, बड़े जोर की भूख लगी है.....'' कहते हुए सूटकेस एक ओर कोने में पटककर मानव शयनकक्ष में पलंग पर लेट गया। वह थककर चूर-चूर हो रहा था।
‘‘अरे मानव बेटा! कब आया रे तू? खबर तक नहीं की आने की?'' सुहासिनी इतने महीनों बाद बेटे को जयपुर से आया हुआ देखकर खिल उठी थीं. ....वात्सल्य की मधुर भावनाएँ उनके मानस में हिलोरे लेने लगीं। ......मानव शोर मचाने लगा था।
‘‘अच्छा बाबा अच्छा ! पहले तेरे लिए थाली लगाकर लाती हूँ।'' सुहासिनी फुर्ती से रसोई में गई और गरमा-गरम परांठे सेंकने लगी। सब्जी दाल पहले ही बन चुकी थी। झट से दही-दाल, सब्जी और कुछ अचार के साथ घी भरे मोटे-मोटे दो करारे पराठें सेंककर वह थाली में रखकर ले आईं और थाली मानव के हाथों में पकड़ा दी।
‘‘वाह! क्या करारे परांठे हैं? आनंद आ गया माँ, हाय राम ! तुम्हारे हाथ के खाने के लिए तो तरस ही गया। कितने ही दिनों से वहाँ ढंग का खाना नहीं मिल पाया। पढ़ाई! पढ़ाई! पढ़ाई! दिमाग खराब हो गया....।'' ‘‘पर्चे तो खूब अच्छे हुए हैं न बेटे?'' सुहासिनी ने अपनी स्नेहिल दृष्टि से पुत्र को सहलाते हुए पूछा।
‘‘यह तो अब रिजल्ट ही बताएगा माँ, पहले से कुछ भी नहीं कहा जा सकता....मेहनत तो खूब की है। मैंने तो सोच लिया है कि या इस पार या फिर उस पार।''
‘‘मतलब ?''
‘‘मतलब यह है, कि यदि इस परीक्षा में सफल हो गया तो ठीक..... वरना दोबारा तो मैं तैयारी नहीं करुँगा....कहीं नौकरी ढूँढ़ लूँगा।''
‘‘अरे वाह! कैसी बातें करता है? इतनी जल्दी हथियार डाल देगा? एक बार में कितने लड़के आ पाते हैं? दो तीन प्रयास तो करने ही पड़ते हैं!'' सुहासिनी पुत्र की बात से घबरा उठी थीं।
‘‘भई इसी में पास हो जाएगा हमारा बेटा ! इसे पूरा भरोसा जो है अपने पर, तभी तो इस तरह की बातें कह रहा है, तुम बड़ी भोली हो सुहासिनी, साइकोलोजी को समझा करो.....।'' मानव के पिता ने कमरे में प्रवेश करते हुए अपने विचार प्रकट किए।
दिन यूँ ही बीतते रहे....कुछ ही दिनों पश्चात वह शुभ दिन भी आ गया जब मानव की इस प्रतियोगिता का परिणाम आना था। मानव बहुत अच्छे अंकों से परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ। सारा परिवेश, परिजन और आस-पड़ोसी सभी इस हर्ष में सम्मिलित थे। मानव को अब आगे की टे्रनिंग के लिए मसूरी जाना था। अब सचमुच ही मानव के विवाह के लिए बहुत अच्छे, ऊँचे घरानों से रिश्ते आने लगे। सुहासिनी के पास लड़कियों की फोटो एवं परिचय के अंबार लग गए। दोपहार के समय गृहकार्याें से निबटकर माँ-बेटी बैठकर सारे पत्र पढ़तीं। लड़कियों के चित्रों को ध्यानपूर्वक आलोचक दृष्टि से ध्यानपूर्वक देखतीं......जो चित्र मन को भाते और उनका परिचय भी उन्हें अपनी आवश्यकतानुरूप महसूस होता उन्हें वे छाँट-छाँट कर अलग फाइल में रखती जातीं।
मानव ने मसूरी जाते समय उन्हें विशेष रूप से ताकीद कर दी थी कि उसे वहाँ विवाह के विषय में कभी कुछ भी न लिखा जाए। न ही कभी कोई फोटो, परिचय या प्रस्ताव वहाँ उसके परामर्श हेतु भेजा जाए। संजीव कुमार भी इसके विरुद्ध थे....वह कहते-‘‘अभी मानव की आयु है ही कितनी? सर्विस में आ जाए, परिश्रम करके कुछ बन जाए, उसके पश्चात ही विवाह करना उचित रहेगा....तुम लोग अभी जल्दी मत करो।''
कुछ दिनों से सेठ हीरालाल जी अक्सर ही उनके यहाँ आने लगे थे, हालाँकि दोनों परिवारों के जीवन-स्तर में जमीन-आसमान का अंतर था। संजीव कुमार एक सरकारी कार्यालय में हेड़ क्लर्क के पद पर आसीन थे और मध्यमवर्गीय परिवार से आते थे। सेठ हीरालाल नगर के स्वनाम धन्य हीरों के व्यापारी थे, उनके कई बड़े शोरुम और बड़े-बड़े कृषि फार्म थे। सेठ जी की चमचमाती आयातित शवरलैट गाड़ी जब उनके द्वार पर आकर खड़ी होती तो पहले वर्दी पहने शौफर आगे की सीट से द्वार खोलकर बाहर निकलता और सेठ जी के लिए गाड़ी का पीछे का द्वार खोलकर अदब के साथ खड़ा हो जाता। श्वेत सफारी सूट में सजे सेठ जी के गाड़ी से बाहर निकलने के साथ ही वह अदब से गाड़ी का द्वार बंद करके एक ओर खड़ा हो जाता। संजीव कुमार और सुहासिनी खिड़की से झाँककर उन्हें अपने द्वार की ओर आते देखते तो उनका सीना गर्व से फूलकर दो हाथ चौड़ा हो जाता। अपनी औकात विस्मृत कर वह स्वयं को कलक्टर के पिता समझ गर्वान्वित हो उठते!
नगर-श्रेष्ठी सेठ हीरालाल जी अपनी पुत्री का विवाह कलक्टर दामाद से करने के लिए कुछ भी कीमत अदा करने के लिए तैयार थे। उनकी पुत्री ने इसी वर्ष बी.ए. पास किया था। उसका रंग गेहुआँ था, पर काया कुछ स्थूल थी तो क्या हुआ? वह मानव और अपनी पुत्री को विवाह में कार एवं बँगले सहित जीवन की समस्त सुख-सुविधाएँ जुटाने एवं कई लाख रुपये कैश देने के लिए भी तैयार थे। उनका कहना था कि मानव के लिए उनकी पुत्री सर्वथा उपयुक्त है, अतः संजीव कुमार को आँख मींचकर यहाँ सम्बन्ध पक्का कर देना ही उचित रहेगा।
कई दिनों से एक बड़ी कंपनी के डायरेक्टर जीवनलाल के फोन संजीव कुमार के पास नित्य ही आ रहे थे। वे मानव के मसूरी से लौटने की बड़ी बेकरारी के साथ प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने पुत्री की फोटो एवं बायोडाटा तो पहले ही प्रेषित कर दिए थे। अब मानव के घर वापस आते ही वह अपनी पुत्री को उसे दिखलाकर बात पक्की करने के इच्छुक थे। उन्हें भय था कि कोई और उनसे पूर्व बाजी न मार ले।
संजीव कुमार के कार्यालय से वापस आते ही संध्या समय एक न एक पुत्री का पिता नित्य ही उपस्थित हो जाता और वही वही बातें उनसे बार-बार कुरेद-कुरेद कर पूछता....‘‘आपका बेटा घर कब आ रहा है? उसकी टे्रनिंग कब पूरी हो रही है? विवाह कब तक करने का विचार है? हम विवाह पर इतना-इतना व्यय करेंगे। इतना कुछ सामान देंगे। हमारी पुत्री गृहकार्य में अत्यंत दक्ष है, सुंदर है, सुशील है, ये है, वो है.....'' आदि....आदि।
कुछ दिनों की छुटिटयों में मानव घर आया तो सभी परिजनों ने उसे स्नेहपूर्वक घेर लिया। वर्षा दौड़कर वैवाहिक सम्बन्ध के लिए आए परिचय-पत्रों का पुलिंदा एवं रंगीन चित्रों के लिफाफे ले आई।
‘‘भइया देखो तो, कितनी सारी फोटो आई हैं.....तुम जरा छाँटो, देखें तुम्हें कौन-सी पसंद आती है।'' वर्षा ने प्रसन्नतापूर्वक उत्सुकता दर्शायी। ‘‘अरे! आते ही यह क्या शुरू कर दिया सबने?'' मानव ने तनिक चिढ़कर कहा। फिर दृढ़तापूर्वक सुहासिनी की ओर देखकर बोला-‘‘माँ, मैं अभी विवाह हर्गिज-हर्गिज नहीं करुँगा, इसलिए ये फोटो और ये पत्र यहाँ से फौरन हटवा दीजिए, प्लीज!''
‘‘बड़ा लाट साहब बन रहा है रे! यहाँ रात-दिन बेटी वालों ने नाक में दम कर रखा है। कब से तेरे आने की इंतजार हो रही है.....अब भी कहता है कि ये फोटो यहाँ से हटवा दीजिए। अरे देख तो ले....पसंद नहीं आए तो मना कर देना, बस!'' स्नेह मिश्रित डाँट के साथ कहते हुए भी सुहासिनी कुछ आवेश में आ गई।
मानव ने कुछ भी प्रतिउत्तर न देकर फोटो का पुलिंदा अनिच्छा से एक ओर पटक दिया ओर कमरे में जाकर पलंग पर लेट गया। कुछ ही देर में सुहासिनी धीरे से वहाँ पहुँच गईं और पुत्र के माथे पर हाथ फेरने लगीं। मन की भावनाओं पर अंकुश रखना उनके लिए कठिन होने लगा था....अपने स्वर को तनिक संयत और कोमल रखकर मानव को समझाने लगीं....
‘‘बेटा मानव, एक से एक बढ़िया रिश्ते आ रहे हैं। लोगों के पास इतना अकूत धन है, हम तो कभी कल्पना भी नहीं कर सकते, अरे बेटा, लाखों में कैश देने की बात तो वह खुद ही अपने मुँह से कहते हैं। माँगने की तो जरुरत ही कहाँ है? बस तेरे ‘हाँ' कर देने भर की देरी है। कार, बँगला, फ्रिज, रंगीन बड़ा टी.वी., कूलर, ए.सी. लाखों रुपये कैश, जेवर-कपड़ा, फर्नीचर क्या-क्या बताऊँ तुझे, तेरी एक निगाह पर अर्पण करने को तैयार हैं वे लोग.....मुझे तो अब पता लगा है कि प्रशासनिक सेवा की लाइन का क्या मूल्य है। बेटा तूने तो हमें तार दिया।'' माँ ने स्नेह से पुत्र का माथा चूम लिया।
मानव अन्यमनस्क को उठा....वह कुछ क्षण चुपचाप यूँ ही लेटा रहा फिर मन में आई खीझ और कड़ुवाहट को रोकने की पूरी चेष्टा करते हुए बोला-‘‘माँ, आप मेरी बात ध्यान से सुन लीजिए। पहली बात तो यह है कि मैं अभी विवाह नहीं करना चाहता। दो-तीन वर्ष तक मन लगाकर सर्विस करके स्वयं को स्थापित कर लूँ, तब इस विषय में सोचूँगा। इसके अतिरिक्त मैं विवाह में दहेज कतई नहीं लूँगा, यह मेरा संकल्प है।''
‘‘अरे बुद्धू ! हम लेने को कह ही कब रहे हैं! वह तो स्वयं ही देना चाहते हैं। सुन बेटा, उच्च समाज में खुद की इज्जत बनाए रखने के लिए यह भी जरुरी होता है।'' सुहासिनी हँस पड़ीं, मानों उन्होंने कोई ऐसा अनोखा नया मार्ग सुझाया हो जहाँ तनिक भी रपटन न हो। साँप भी मर जाए, लाठी भी न टूटे। पर मानव इस विषय में और लंबी-चौड़ी बहस में नहीं उलझा। वह कुछ देर बाद वहाँ से उठकर अपने एक मित्र के घर मिलने के लिए चला गया। टे्रनिंग के पश्चात मानव की पोस्टिंग हुए दो वर्ष व्यतीत हो चले थे। अब वह डिप्टी कलक्टर बन गया था। उसके जिले में उसका बड़ा सम्मान था। उसके अधिकारी उसकी कार्यक्षमता से प्रसन्न थे। वह अत्यंत संयमी, न्यायप्रिय एवं अनुशासन का दृढ़ता से पालन करने और कराने वाला अधिकारी माना जाता था।
तृप्ति-वर्षा अब बड़ी हो चली थीं। सुहासिनी और संजीव कुमार को उनके विवाह की चिंता सताने लगी, किंतु वह जहाँ भी तृप्ति के विवाह की बात चलाते लोग काफी दहेज की माँग करते। उनके सम्मुख इस विषय में असमर्थता दर्शाने पर सीधा-सा उत्तर मिलता-‘‘आप भी कैसी बातें करते हैं संजीव कुमार जी, आपके यहाँ भला क्या कमी है? आपका बेटा तो अपने शहर का राजा है, आप बेटी को जो कुछ देंगे उससे वह ही सुख पाएगी। फिर कल जब आप अपने लड़के की शादी करेंगे तो कुछ नहीं लेंगे क्या?''
यह कैसी विडंबना है? अभी तो घर में न कुछ आया न गया, लोग अभी से ऐसी बातें करते हैं। संजीव कुमार निराश से हो चले थे। इस बार जब मानव घर आया तो माता-पिता दोनों ही उस पर बरस पड़े।
‘‘क्या बात है मानव, लगता है तुम किसी से प्रेम-व्रेम के चक्कर में पड़ गए हो! ऐसा है तो पहले से ही बता दो.... हम तो बड़े दुखी हो रहे हैं....तुम्हारा विवाह हो जाए तो तृप्ति और वर्षा का भी नंबर आए, लोग न जाने क्या-क्या आशाएँ लगाए बैठे हैं।''
काफी समझाने-बुझाने के पश्चात मानव विवाह करने के लिए राजी हुआ। उसके ‘हाँ' करते ही संपूर्ण परिवार में आनंद की लहरें दौड़ने लगीं। मानव ने ध्यानपूर्वक समस्त पत्रों को पढ़ा, चित्र देखे और उनमें से एक छाँटकर अलग कर दिया....तृप्ति और वर्षा ने भी चित्र देखे थे किंतु उन्हें दूसरी फोटो पसंद आई थी। खैर, तय हुआ कि परिवार में सभी की पसंद की एक-एक फोटो अलग निकाल ली जाए और उन पाँच लड़कियों को देख कर निर्णय ले लिया जाए। सुहासिनी का विचार था कि फोटो के साथ ही साथ उनके पिता की हैसियत पर भी पहले ही विचार कर लेना उचित होगा। कहीं बाद में परेशानी उठानी पड़े। आने वाली कन्या का पिता उतना न दे सके जितना किसी दूसरी जगह से उन्हें अधिकतम मिल सकता हो, क्योंकि मानव ने तो स्पष्ट ही कह दिया था कि वह दहेज लेने या माँगने के एकदम ही विरुद्ध है।
संजीव कुमार, सुहासिनी, तृप्ति, वर्षा और मानव सभी ने साथ जा-जाकर नगर के अंदर की एवं बाहर की भी कई लड़कियाँ देखीं। मानव को कमलिनी पसंद आई। कमलिनी ने इसी वर्ष इंगलिश से एम.ए. पास किया था। बी. एस-सी. उसने होम साइंस लेकर उत्तीर्ण किया था। अतः घर के सभी कार्यों में वह प्रवीण थी। देखने में वह अत्यंत सुंदर और आकर्षक तो थी ही, साथ ही बड़ी चुस्त भी थी। उसके चलने, बोलने का ढंग भी बड़ा ही मनमोहक था। यही नहीं, उसे सभी सोसायटी में जाने-आने का अभ्यास भी था क्योंकि उसके पिता एक बड़ी प्राइवेट कम्पनी में वरिष्ठ अधिकारी थे। स्कूल, कॉलेज के समारोहों एवं प्रतियोगिताओं में वह निरंतर भाग लेती रही थी। मानव को प्रत्येक दृष्टिकोण से कमलिनी अपने उपयुक्त लग रही थी, घर आकर उसने माँ और तृप्ति को अपने निर्णय से अवगत करा दिया था।
सुहासिनी के बिंदु मन भाई थी। वह नामीगिरामी सेठ मूलचन्द जी की इकलौती पुत्री थी। काफी समय से निरंतर वह अनके घर पर मिलने आती रही थी। तृप्ति और वर्षा के साथ उसने पर्याप्त घनिष्ठता स्थापित कर ली थी। इस बात को लेकर माँ-बेटे में बहस सी हो गई। सुहासिनी बोलीं-‘‘बिंदु में क्या कमी है मानव? हर बात में अच्छी है वह! रंग तो देखो कैसे दिप-दिप करता है? अंगे्रजी कैसी फर्राटेदार बोलती है, घर में उसके आगे-पीछे नौकरों की फौज दौड़ती है पर यहाँ आने पर तृप्ति के साथ चाय बनवाने पहुँच जाती है रसोई में।''
‘‘माँ, अभी तो तुम उस लड़की की इतनी प्रशंसा कर रही हो कल जब वह तुम्हें अपने घर के अथाह धन एवं नौकरों का ताना देकर काम-धाम करने से इनकार कर देगी तो तुम ही सबसे पहले तिलमिलाओगी.......तब सारा दोष तुम मेरे सिर मढ़ दोगी......कैसी है रे तेरी बहू! भारत में बेटे की माँ अपनी पसंद से चुनकर बहू घर लाती है, पसंद से माँग-माँग कर दहेज लेती है, तब भी विवाह के पश्चात बहू को लेकर सदा असंतुष्ट ही रहती है।''
सुहासिनी मानव का मुँह ताकती खड़ी रह गई.......। इतना-सा लड़का और इतनी बड़ी बात! वह भी उनके ही मुँह पर! मानो तमाचा जड़ दिया हो! आहत होकर इतना ही बोली-‘‘ठीक है बेटा, जो तुझे जँचे वही कर। कल को यह तो न कहेगा कि माँ ने अपनी पसंद की बहू लाकर मेरी जिंदगी बर्बाद कर दी।''
कमलिनी के पिता को संदेश भिजवा दिया गया........। सुहासिनी गोद भराई की रस्म कर आई। टीके की तिथि पक्की हो गई। उसके दो दिन पश्चात ही विवाह रखा गया। सगे-सम्बन्धियों, परिचितों, मित्रों सभी को निमंत्रण-पत्र भिजवा दिए गए। तृप्ति और वर्षा खूब उल्लसित थीं। कमलिनी उन्हें भी पसंद थी। सबसे बड़ी बात तो यही थी कि वह इतनी योग्य होने पर भी बड़ी सीधी, सरल और सुशील थी। सुहासिनी ने बड़े मन से वधू के लिए ‘बरी' का सामान-जेवर, साड़ियाँ एवं श्रृंगार का समस्त सामान तैयार किया था। उन्होंने इसके लिए समस्त शहर छान मारा था.......चुन-चुन कर सुरुचिपूर्ण, नए डिजाइनों के वस्त्राभूषण खरीदे थे।
उस दिन कमलिनी के पिता घर पर आए हुए थे। वे संजीव कुमार से पूछ रहे थे कि उन्हें कितना रुपया नकद चाहिए और वह कितना किस मद में व्यय करवाना चाहते हैं। सुहासिनी और संजीव कुमार ने उनके साथ बैठकर समस्त सामान की सूची तैयार कर दी थी। कमलिनी के पिता कामता प्रसाद पुत्री के विवाह में चार-पाँच लाख तक व्यय करने के लिए उद्यत थे हालाँकि अब इतना भी सुहासिनी को काफी कम ही लग रहा था, कारण कि सेठ मूलचंद तो बीस लाख के ऊपर व्यय करने को तैयार थे....पर पुत्र की पसंद के समक्ष उनकी एक नहीं चली थी। इधर यह बातें हो रही थीं कि मानव वहाँ आ पहुँचा और आकर उनके पास ही बैठ गया।
उत्सुकतावश उत्साह में कामताप्रसाद ने मानव से भी पूछ लिया-‘‘बेटे, तुम्हारी कोई विशेष पसंद की वस्तु हो तो बता दो....हम देने का प्रयास करेंगे।'' यह सुनकर मानव को इस बात का आभास होने लगा कि वहाँ बैठ कर उसके माता-पिता उसके भावी श्वसुर के साथ क्या बातें कर रहे थे। लेन-देन की बातें हो रही हैं, जानकर उसके कान खड़े हो गए...वस्तुओं की ताजी बनी सूची वहाँ पर सामने ही पड़ी थी...मानव ने उसे उठाकर पढ़ लिया। ‘‘माँ यह क्या है?'' उसने किंचित नाराजगी भरे स्वर में पूछा।
सुहासिनी मानव के मन की बात समझती तो थीं ही....अपमानित होने के भय से स्वार्थवश वह बात का उत्तर टालकर घबराकर उठ गईं और अंदर चल दीं-‘‘देखती हूँ अंदर क्या हो रहा है....चाय भिजवाती हूँ।''
‘‘हम विवाह में केवल सवा रुपया और नारियल स्वीकार करेंगे। बेटी को देने के बहाने से भी आप कुछ भी नहीं दे सकेंगे...केवल उसके पहनने भर की कुछ नई साड़ियाँ ही, बाकी पहले से जो वस्त्र वह पहनती आई है, ताकि आते ही कमलिनी को कठिनाइयों का सामना न करना पड़े....मैं अपनी बात पर दृढ़ रहूँगा, यह बात आप गाँठ बाँधकर समझ लें।''
दृढ़ शब्दों में इतना कहकर मानव अंदर चला गया। कामता प्रसाद एवं संजीव कुमार एक दूसरे का मुँह ताकते अपमान के घूँट पीते बैठे रह गए....दोनों के बींच बड़ी देर तक मौन पसरा रहा...। कौन क्या कहे? विचित्र स्थिति थी। संजीव कुमार को ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों पुत्र सरे बाजार उनके मुख पर चपत जड़कर चला गया हो। कामता प्रसाद सोच रहे थे कि बिना कुछ दिए-लिये भी कहीं संभ्रान्त विवाह होते हैं। लड़की वाले की स्वयं की भी कुछ इज्जत-आबरू होती है, नाते-रिश्तेदार, घर-परिवार का मान-सम्मान होता है....इच्छाएँ होती हैं. ...वे किस-किस को सफाई देते फिरेंगे? वह बड़ी द्विविधा में फँसे थे, धीरे से बुदबुदाए-‘‘कहें तो नकद ही दे दूँ सब?''
पर संजीव कुमार चुप ही बैठे रहे...वह अपने पुत्र की विचारधारा से पूर्णरूपेण अवगत थे....हालाँकि वह उससे तनिक भी सहमत नहीं थे। उनकी मान्यता थी कि लड़के वालों को स्वयं माँगकर, लड़की के पिता को उसकी हैसियत से अधिक देने के लिए विवश हरगिज नहीं करना चाहिए, किंतु यदि वह अपनी इच्छा से, अपनी हैसियत के अनुसार पुत्री को उसका नया घर-संसार सँवारने के लिए कुछ देता है तो इसमें आपत्ति करने का क्या औचित्य है? यों तो लड़की को पिता की संपत्ति में व्यावहारिक रूप से संभव नहीं हो सकता, इससे कई नई कठिनाइयाँ उभरकर सामने आ सकती हैं...पर माता-पिता कुछ न कुछ भेंट स्वरूप तो सनातन काल से अपनी पुत्री को ससुराल जाते समय देते ही आए हैं। कल को जब वह अपनी पुत्रियों को ब्याहेंगे तो क्या दहेज नहीं देेंगे? है कोई ऐसा आदर्श व्यक्ति जो पुत्रियों को बिना दहेज लिए सम्मानपूर्वक ब्याहकर ले जाए?
सगाई का दिन आ गया। मानव ने पहले ही पिता को समझा दिया था कि अवसर पर बैंड-बाजे बजवाने तथा लोगों को आमंत्रित करने की कोई आवश्यकता नहीं है। बिना किसी टीमटाम के सादे तौर पर घर के लोगों के बींच लड़की वाले आकर उसके तिलक करके सवा रुपया और नारियल शगुन स्वरूप दे जाएँ। इससे लेने-देने एवं प्रदर्शन की आवश्यकता किसी भी पक्ष को महसूस नहीं होगी।
‘‘पिताजी मैंने अपने विवाह के लिए कोर्ट में आवेदन पत्र दे रखा है। यदि माँ ने वहाँ से कुछ भी स्वीकारा तो मैं वैदिक पद्धति त्यागकर कमलिनी को सीधा कोर्ट में ले जाऊँगा और विवाह करके अपने साथ पोस्टिंग पर ले जाऊँगा. ...। यह बात आप भली-भाँति जान लें....मैं विवाह में देने-लेने के नाम पर लड़की वालों से मात्र सवा रुपया और एक नारियल ही लूँगा। आप लोगों को भी दहेज के नाम पर किसी प्रकार का सामान, कपड़े नगदी अथवा और कुछ भी नहीं लेने दूँगा.....मुझमें सामर्थ्य है, अपने नीड़ का निर्माण मैं स्वयं करूँगा। मानव के दृढ़तापूर्वक बारंबार ऐसा कहने पर और उसके हठी स्वाभाव को देखते हुए सुहासिनी और संजीव कुमार एकदम ही भयभीत हो उठे।
सुहासिनी के तो बरसों से संजोए स्वप्नों पर अचानक तुषारापात हो गया.....। मन ही मन, वह रुँआसी हो आई पर प्रत्यक्ष चिल्लाकर बोली-‘‘बेटा! अभी जोश में आकर यह सब कह रहा है.......इस हटधर्मी का परिणाम तो तुझे बाद में भुगतना होगा जब तेरे सारे दोस्त और सहकर्मी ठाठ से घर सजाकर रहेंगे और तू सारी जिंदगी घर की एक-एक छोटी-छोटी वस्तु को जुटाने में ही बिताएगा। अरे लाख कलक्टर बन या गर्वनर! घर में क्या वस्तु नहीं चाहिए? तेरी बीवी तुझी पर तानाकशी करेगी......उसे भी पूछा है इस विषय में, सारे जीवन हँसी का पात्र रहेगा तू और तेरा यह समाज-सुधार! फिर सोच देख......अभी तो बेटी घर में ही है.......। कल को तेरी बहनों के विवाह होंगे........। वहाँ से भी दहेज की माँग होगी, तब तू क्या देने से मना कर सकेगा?''
‘‘बिल्कुल माँ.......तुम देखती चलो......मेरी बहनें पढ़-लिखकर अपने पैरों पर खड़ी हैं.......उनके विवाह में मै एक पैसा भी दहेज के नाम पर नहीं दूँगा. ....।'' मानव ने आत्म-विश्वास के साथ हँसते हुए उत्तर दिया-‘‘और हाँ, माँ! आप अपनी बहू को अपनी सामर्थ्यानुसार ही सामान दें, इससे अधिक नहीं।'' सुहासिनी और संजीव कुमार के खूब-खूब समझाने, ऊँच-नीच बताने पर भी मानव टस से मस नहीं हुआ। कमलिनी के परिजन भी उसकी इस बात को लेकर काफी क्षुब्ध और क्रुद्ध थे। बार-बार मानव को समझा रहे थे। कमलिनी ने भी फोन करके मानव को स्वयं घर पर बुलाकर उससे विनम्र अनुरोध किया था-‘‘सुनिए, पिताजी अपनी इच्छानुसार जो हमें अपने आशीर्वाद स्वरुप देने के इच्छुक हैं उसे लेने में आपको क्या। स्मृति चिह्न हमारे साथ रहेंगे तो हमें भी जीवन में संबल ही प्रदान करेंगे।''
‘‘नहीं, एकदम नहीं.....।'' मानव वहाँ से एकदम उठकर चल दिया। ‘‘इतना दृढ़ निश्चयी नवयुवक समाज-सुधार करने का इच्छुक है, वह भी स्वयं से आरंभ करके ही, तब भी हम उसे गलत ही सिद्ध करना चाह रहे हैं, यह हमारी कैसी विकृत मानसिकता है? हम जब बात अपने पर आती है तो कितने स्वार्थी हो उठते हैं?'' कामता प्रसाद व्यथित हो कह उठे थे।
‘‘पर समाज में रहकर समाज के नियमों का पालन करना भी आवश्यक होता है। कल को यही सास-ननद और श्वसुर हमारी कमलिनी को मायके से खाली हाथ चले आने के लिए न जाने कैसे-कैसे ताने देंगी......तब सब मानव के समाज-सुधार की बात भूल जाएँगे, देख लेना।'' कमलिनी की माँ अपने नेत्रों में छलछला आए अश्रुओं को पोंछते हुए बोलीं।
कमलिनी के माता-पिता दोनों ही बड़ी द्विविधा, कठिनाई और मानसिक अवसाद से घिरे थे। दहेज न देने की बात ने प्रसन्नता और आनंद के स्थान पर मानसिक तनाव की सृष्टि कर दी थी.......। ‘अति सर्वत्र वर्जयेत' पर क्या किया जा सकता था......? मानव के हठी स्वभाव के समक्ष वे हार चुके थे.......। जैसा मानव ने कहा, वह भारी मन से सब उसी प्रकार करते गए।
कहीं भी अनावश्यक प्रदर्शन और व्यर्थ का व्यय नहीं हुआ। अत्यंत सादगी के साथ पूर्ण वैदिक रूप से विवाह के समस्त कार्यक्रम पूरी निष्ठा और आस्था के साथ पूर्ण किए गए। सभी को विवाह में आनंद तो खूब ही आया. ......। मन को घबरा देने वाली भीड़-भाड़, तेज-तेज शोर-शराबा, लाखों रुपयों के विशाल पंड़ाल, अनावश्यक सज-धज और पूरे नगर को न्यौत कर चौंसठ पकवान बनवाने के स्थान पर वहाँ शांतिपूर्वक थोड़े से स्थान में सुरुचिपूर्ण स्वादिष्ट पेट में समा सकने वाले भोज्य पदार्थ परोसे गए। दोनों ओर के खास-खास रिश्तेदारों और परिचित-मित्रों को आमंत्रित किया गया। विवाह संपन्न होने के पश्चात तो सभी लोगों के मुख पर विवाह की प्रशंसा ही सुनाई देती थी। काफी समय के पश्चात लोगों ने शांतिपूर्वक किसी विवाह में जयमाल, फेरे, कंगना आदि कार्यक्रम जिनके लिए इतना बड़ा टीमटाम और आयोजन किया जाता है वह तो व्यर्थ के आडंबरों के बींच जल्दबाजी में पंडित पर ही छोड़कर संतोष कर लिया जाता है। सभी को ‘हम आपके हैं कौन?' फिल्म स्मरण हो आई और प्रसन्नतापूर्वक हँसते-मुस्कराते आत्मीय संवादों के साथ ‘विदा' की रस्म भी अदा की गई।
सुहासिनी और संजीव कुमार को आशा नहीं थी कि विवाह इतनी भव्यता के साथ संपन्न हो पाएगा। उनकी आँखें, खुल गइर्ं थीं। आजकल सभी लोग बच्चों के विवाह में विवशतावश ही तो इतना आडंबर करते हैं? कितना अपव्यय करना पड़ता है उन्हें? माता-पिता पुत्री को देने के चक्कर में एवं दिखावे में स्वयं को आकण्ठ कर्ज में डूबो बैठते हैं। क्या यह तर्कसंगत है? उन्हें अपने पुत्र मानव पर गर्व हो आया था सभी लोग तो इस आदर्श विवाह की प्रशंसा कर रहे थे। सुहासिनी को अब दहेज न लेने पर गिला नहीं रहा था। विवाह के सप्ताह भर बाद ही मानव, कमलिनी और अपनी माँ-बहनों कोे लेकर अपनी पोस्टिंग पर चला गया। उसने विवाह में होने वाले व्यर्थ के व्यय से बचाकर रखी रकम को पिता से अपनी गृहस्थी के लिए कुछ आवश्यक सामान खरीदने के लिए ले लिया था। कुछ रुपया उसने पिछले दो-तीन वर्षों में स्वयं भी जमा कर रखा था।
कमलिनी का स्वभाव घर-बार के सभी लोगों को पसंद आया। वह गृहकार्यों में भी दक्ष थी। अपने मायके में वह माँ के साथ पर्याप्त कार्य संभालती रही थी। पिता के निश्चित समय पर कार्यालय जाने-आने के कारण उनके घर में सभी कार्य सुनियोजित ढंग से समयानुसार निश्चित समय पर किए जाते थे। उसे सुबह उठकर सबकों प्रणाम और चरण स्पर्श करने की आदत थी। सुबह की चाय वह स्वयं अपने हाथों से तैयार करके सबके हाथों में कप थमाती। खाना वैसे तो खानसामा बनाता था किंतु वह स्वयं अपनी देखरेख में बनवाती। तृप्ति और वर्षा के साथ उसकी अच्छी पटने लगी। उन दोनों को डर था कि कॉन्वेन्ट में शिक्षित लड़की का स्वभाव न जाने कैसा होगा पर यहाँ आकर दोनों आश्वस्त हो गईं थीं।
मानव का एक सहपाठी सुरेश वहीं पर एस.पी. के पद पर कार्यरत था। उनकी यहाँ आपस में काफी घनिष्टता हो गई थी। जब कमलिनी और मानव का संपूर्ण परिवार वहाँ पहुँचा तो सुदेश ने उनके आते ही सर्वप्रथम उन्हें सपरिवार अपने घर पर भोजन के लिए आमंत्रित किया था। उसका छोटा भाई अभिलाष भी उसी दिन वहाँ उसके पास दो सप्ताह की छुटिटयाँ लेकर रहने के लिए आया था। अभिलाष काफी हँसमुख, स्वस्थ और सुंदर नवयुवक था। उसने एक ही दिन में वर्षा और तृप्ति के साथ खूब दोस्ती कर ली। समवयस्क होने के नाते फिल्मों, टी.वी. आज की राजनीति आदि विषयों पर उनकी जमकर बातें होती रहीं।
तीन-चार दिन के बाद एक संध्या को अभिलाष अकेला ही उनके घर आ गया........। द्वार तृप्ति ने खोला। दोनों एक-दूसरे को देखकर कुछ देर तक ठगे से खड़े रह गए। फिर अभिलाष ने ही मौन तोड़ा......। ‘‘अंदर आने के लिए नहीं कहेंगेी?''
‘‘अरे हाँ, आइये न! भइया-भाभी तो जरा मार्केट तक गए हैं। माँ संध्या-वन्दन में लगी हैं, वर्षा भी भइया के साथ ही गई है.......आप.......?'' ‘‘क्यों, आप तो हैं? आपसे ही बातें करुँगा.....।'' आपको कोई एतराज है क्या? उसकी द्विविधा और संकोच को मन ही मन ताड़कर वह खुल कर हँस पड़ा।
‘‘नहीं, नहीं, आइए.......आइए.......।'' तृप्ति कुछ सकपका गई....... लज्जा के कारण उसका मुख आरक्त हो उठा। उसने अभिलाष को ले जाकर कमरे में बिठाया.....। कुछ देर तक वे इधर-उधर की बातें करते रहे.......। तृप्ति को मन ही मन प्रतीक्षा थी कि भइया-भाभी आ जाएँगे या माँ पूजा से उठ जाएँगी.......। पर कोई भी नहीं आया। तब वह अभिलाष को बताकर दोनों के लिए दो कप कॉफी बना लाई। उसके समक्ष संभवतः यह प्रथम अवसर ही था, जब उसे अकेले ही किसी नवयुवक का सामना करना पड़ा हो.....। पर इस पहल में भी एक अनोखा आनंद था। जिसने उसे आत्म-विश्वास से भर दिया. .......। कुछ ही देर बाद वह सहज हो आई। अभिलाष भी उस शहर में स्वयं को अकेला ही महसूस कर रहा था......। भइया कार्यालय चले जाते.......और भाभी अपने घर के कार्यों में व्यस्त रहतीं। भइया की डयूटी ऐसी कि हर समय ही फोन खड़खड़ाते रहते और उन्हें समय-असमय भागना पड़ता। अतः इस परिवार से जुड़कर उसे अच्छा ही लगा था।
अब अभिलाष के साथ उनके सबके काफी कार्यक्रम बनने लगे। कभी साथ-साथ दोपहर के समय घर में ही वे सब ताश खेलते, तो कभी पिक्चर देखने जाते। कभी दोनों परिवार पिकनिक मनाते तो कभी कोई दर्शनीय स्थान का साथ-साथ अवलोकन करते। दोनों परिवार आपस में खूब घुलमिल गए। अभिलाष को तृप्ति का साथ विशेष रूप से भाता था.....। वह जहाँ भी जाता अधिकांश समय उसी के साथ बातें करता।
मानव का ध्यान स्वयंमेव ही इस ओर गया था। उसे दोनों की जोड़ी सोचने में काफी अच्छी लग रही थी......। सुदेश का परिवार बड़ा सज्जन परिवार था हालाँकि उनकी जाति अलग थी। उसे तृप्ति के हाव-भाव से भी ऐसा लगा मानों वह भी अभिलाष की ओर काफी आकर्षित है। एक दिन उसने बातों ही बातों में तृप्ति से अभिलाष के विषय में बात की तो उसे इस बात का पूरा विश्वास हो गया कि वह अभिलाष को पसंद करती है।
मानव ने अवसर देखकर सुदेश से इस विषय में बात की। तृप्ति उन्हें खूब पसंद थी। मानव ने तब बड़े ही स्पष्ट शब्दों में विवाह में दहेज न देने की अपनी प्रतिज्ञा उन्हें बता दी। सुदेश एवं उनके परिजनों को मानव का यह विचार अधिक उत्साहित नहीं कर पाया। अतः बात वहीं की वहीं रह गई।
अभिलाष के जाने का दिन पास आ गया था। उसे तृप्ति का साथ अच्छा लगता था। तृप्ति के साथ विवाह की बात सुनकर उसका हृदय पुलकित हो उठा था। अपनी कल्पनाओं में वह उसे सदैव अपने प्रत्यक्ष कार्यकलाप में सम्मिलित पाने लगा था। एक दिन बातों ही बातों में मानव के विवाह की बात चल पड़ी थी। कमलिनी उसे अपने विवाह की एलबम दिखा रही थी तभी कमलिनी से उसे विदित हुआ कि मानव ने खुद जिद करने पर भी विवाह में केवल सवा रुपया और नारियल ही स्वीकारा था। इसके अतिरिक्त कोई भी वस्तु या कैश आदि नहीं ली थी.....। उसके पापा-मम्मी तो इस बात से अभी तक व्यथित हैं। पर अपने दामाद के प्रति हृदय में जो आदर और सम्मान की भावना है वह बताई नहीं जा सकती। कमलिनी की इस बात से अभिलाष रोमांचित हो उठा। एक आदर्श पुरुष उसके समक्ष सशरीर उपस्थित था, इसका अभिलाष के हृदय पर बड़ा ही सकारात्मक प्रभाव पड़ा। उसने घर जाकर अपने भाई-भाभी से इस विषय में बात की और उन्हें इस बात के लिए मना लिया। तृप्ति तो स्वयं भी लेक्चरर थी और अच्छा कमा रही थी। तब दोनों मिलकर अपनी गृहस्थी की गाड़ी सुचारू रूप से चलाने में समर्थ थे, फिर किसी के दिए से कितने समय तक किसी का घर भरता है? उसने भाई से कहा।
और तब सचमुच ही बिना कुछ लिए-दिए ही तृप्ति का विवाह अभिलाष के साथ एक महीने पश्चात हो गया। फोन की घंटी बजने से सुहासिनी तंद्रा से जाग उठीं......वह सोचने लगीं, क्यों हम भारतीय दहेज के लिए इतना हो-हल्ला मचाते हैं? ये सड़ी-गली प्रथाएँ बंद क्यों नहीं करते? बिना दहेज लिये-दिए सब ही यदि बच्चों के विवाह करने लगें तो जीवन की बहुत बड़ी समस्या, आजीवन तनाव, कन्याओं के प्रति बढ़ती उपेक्षा सब स्वयं ही दूर हो जाएँ। दृढ़ निश्चय एवं आत्म-विश्वास की डोर पकड़ लें तो यह असंभव भी तो नहीं है, आखिर अब ये उनके स्वयं के परिवार में ही घटित हो गया है......आवश्यकता है, एक नई शुरूआत की।
''' आस्था, 5-बी/20, तलवण्डी, कोटा (राज.)
--
(अगली कहानी - डॉ. अलका पाठक की कहानी - बबली तुम कहाँ हो?)
COMMENTS