आ ज की हिंदी फिल्मों के नाम की तरह यह हिंदी अंग्रेजी का मिलन एक दुकान के साइनबोर्ड पर पढ कर हैरान हुआ तो दुकान में घुस गया। वहां हलवाईनुमा ...
आज की हिंदी फिल्मों के नाम की तरह यह हिंदी अंग्रेजी का मिलन एक दुकान के साइनबोर्ड पर पढ कर हैरान हुआ तो दुकान में घुस गया। वहां हलवाईनुमा एक सज्जन बैठे मोबाइल से अंखियां और कान लड़ा रहे थे।
पूछने पर बोले, “एक रसगुल्ला ही क्यों, मिठाई की दुकानों का ज्यादातर माल रिचार्ज किया हुआ ही होता है। बासी होने पर मिठाई पर दोबारा रंग, खुशबू, चाशनी चढाकर उसे ताजा बना देते हैं। यहां रसगुल्ला तो एक बहाना है। जो थोड़ा सा पुराना हो जाता है, उसे स्पेशल कह देते हैं, असल काम तो मोबाइल के रिचार्ज कूपन आप जैसों की सेवा में उपलब्ध करवाना है। कहिये, किस कंपनी का दूं...... बहुत ज्यादा बोल गया न मैं? आजकल बिना माइक के नेता का और बिना मोबाइल के आम आदमी का बोलना बड़ा अजीब लगता है।”
“हलवाई की दुकान में मोबाइल के रिचार्ज कूपन बिकते हैं?”
“पिछली सदी से सीधे आगे आ गये लगते हो। हम हलवा बनाने-बेचने वाले हलवाई नहीं हैं। डिब्बा बंद मिठाई विक्रेता हैं। फिर रिचार्ज कूपन तो सभी बेच रहे हैं। पनवाड़ी, मोची, धोबी, ताजा गोभी.... सभी दुकानों पर मोबाइल की सभी कंपनियों के कनेक्शन-रिचार्ज कूपन मिलते हैं अगर यह धन्धा सर्वव्यापी न होता तो इतना बड़ा टेलीकाम घोटाला होता क्या? आजकल तो देश के नारे तक बदल गये। अब कोई ‘राइजिंग इंडिया' या ‘उदीयमान भारत' नहीं कहता ‘बातूनी भारत' कहता है। मोबाइल से बातें करना या टेबल पर बातें करना हमारा राष्ट्रीय शौक बन गया है। बरसों से ‘टाक इंडिया टाक' का लाइव प्रोग्राम चल रहा है। ‘इन्क्रेडिबल इंडिया' की जगह ‘टाकेटिव इंडिया' और ‘अतुल्य भारत' की जगह बातुल, बतकड़ा या बतबतिया भारत बन गया है। ‘हम लोग' की जगह नजर आ सकता है ‘हम बात बावले लोग'। अब देश में बात-साहित्य की भरमार है। तभी तो बात जगत, बातों की दुनिया, बात भारती, बातहंस, बात वाटिका जैसी पत्रिकाएं निकल रही हैं, जिन्हें पढना नहीं पड़ता, उन पर बातें होती हैं.......” इतना कहते ही वे सज्जन बेहोश से होकर गिर पडे़। दुकान के नौकर ने बताया-साहब, साहब के साथ ऐसा ही होता रहता है। बिना मोबाइल के थोड़ा सा भी बोलते हैं तो इनकी बैटरी लो हो जाती है।
मोबाइल ने तो भाषा ही बदल दी है। मोबाइल युग से पहले मलेरिया पीड़ित मैं अस्पताल के बरामदे में कांप रहा था। एक टे्रक्टर चालकनुमा कंपाउंडर आकर बोला- आपको कहां ले जाया जा रहा है? मैंने नहीं कहा तो बोला- फिर आपको ‘स्टार्ट' करके क्यों छोड़ रखा है? अब ऐसा नहीं कहा जाता। अभी फिर मलेरिया और सर्दी से बुरी तरह कांपा तो एक नर्स बोली- सर, आप साइलेंट मगर बाईब्रेशन मोड पर है। आपका काल आ रहा है। ओह! किसी मरीज को अस्पताल में कहा जाये कि ‘बुलावा' आ रहा है या तेरे लिये काल आ रहा है तो कितना विकराल होता है यह सुनना?
बसस्टैंड, रेलवे स्टेशन, अस्पताल, स्कूल कालेज, दुकान, मकान.... जगह जगह चार्जर के सहारे लटकते मोबाइल फोन देखकर लगता है, आगे का युग चार्ज युग होगा। पेट्रोल पंपों पर भीड़ की बजाय वाहन जगह जगह चार्ज होते दिखाई देंगे। ढाबे, रेस्टोरेंट भी बंद हो जायेंगे। आदमी को खुद को बार बार अपनी बैटरी चार्ज करवानी होगी।
तब ऐसी बातें/खबरें होंगी कि छात्र कह रहा था- आज फिर हमारी क्लास में सक्सेना सर आ गये। हमने सोचा कि आज तो यह भला आदमी एक घंटे तक क्लास लेगा, पूरा बोर करेगा। पर अभी उन्होंने अपना लिखा एक पेज ही पढा था कि चुप हो गये। उनकी बैटरी लो हो गई थी। हम तो अपना अपना मोबाइल लेकर रफूचक्कर हो गये। पर हमारी क्लास में कुछ पिछड़ी मानसिकता के भी थे, जो सड़क किनारे पडे़ घायल को अस्पताल पहुंचाने की पुरानी रीत को अभी ढो रहे हैं। अपनी ऊर्जा ऐसे फिजूल के कामों में खर्च करते हैं। उन्होंने सक्सेना सर को चार्जर पर लगाकर छोड़ा और खिसक लिये।
जैसे पुलिसमैन ने अपने साहब को फोन किया- सर जी, सड़क पर पड़ी एक बॉडी मिली है।
“जिन्दा या मृत?”
“सर जी, मैंने तो उसे मोर्चरी में भेजा था। पर वहां का रोबोट चौकीदार बड़ा खुर्राट निकला। उसने उसे ‘चार्जरी' में भेज दिया है। वहां भी डाक्टर की जगह कंप्यूटर है। ये कंप्यूटर डाक्टरों की तरह पुलिस के सहयोगी नहीं होते हैं। बाडी की बैटरी को चार्ज किया जा रहा है। यदि जरा सी भी हरकत हो गई तो यह कंप्यूटर उसका मुृत्यु प्रमाण पत्र या पोस्टमार्टम रिपोर्ट नहीं देगा। सर जी, ऐसी हालत में उसके जिंदा होने का प्रमाण पत्र कहां से लेना होगा?”
पड़ोसिन गई पड़ोसिन के पास और बोली- डियर फ्रेंड, मेरे पति बाहर गये हुए थे। आज ही आए हैं। उनकी बैटरी लगभग जवाब दे चुकी है। चार्ज होने में काफी वक्त लगेगा। तुम अपने पति को मेरे घर भेज दो।
“नहीं, मेरा पति मेरा है। मैंने उसकी पवित्रता बनाए रखने की कसम खाई है। मैं उसे चरित्रहीन नहीं होने दूंगी।”
“तुम गलत समझ गई। दरअसल तीन दिन से जूठे बर्तन ‘सिंक' में डूब रहे हैं मुझे सिर्फ बर्तन साफ करवाने हैं।”
“वाह! किसी दूसरी के यहां बर्तन मांजने, पौंछा लगाने या कपड़े धोने के अलावा भी कोई चरित्रहीनता होती है?”
खैर, ये तो भविष्य की खबरें है। वर्तमान की यह है कि सरकार ने फैसला कर लिया है। सड़क किनारे बने सभी वैध-अवैध पेशाबघरों की आधी जगह मोबाइल रिजार्च कूपन बेचने वालों को आबंटित की जायेगी। इससे कई फायदे होंगे। एक तो यह कि सरकार को आमदनी होगी। जिससे घोटालों से हुए घाटे के आंकडे़ घटाने में मदद मिलेगी। रोजगार के नये अवसर बनेंगे। समय की बचत होगी। लोग इधर की आधी जगह का उपयोग करते करते उधर की आधी जगह से रिचार्ज कूपन प्राप्त कर लेंेगे। या मोबाइल रिचार्ज करवाते हुए स्वयं ‘हलके' हो लेंगे। इस तरह बचे समय का सदुपयोग मोबाइल पर बात करने में कर लेंगे। हमारे पेशाबघरों की ‘शुचिता' अक्सर आरोपित होती रहती है। ये आरोप भी कम होंगे। वहां बातें होंगी तो प्राकृतिक आवेग की बदबू बातों की बदबू से दब जायेगी। ओह! मोबाइल पर मिसेज की मिसकाल आ गई है। लिखना अनावश्यक, बात करना जरूरी है।
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गोविन्द शर्मा
ग्रामोत्थान विद्यापीठ
संगरिया- 335 063 (राज.)
बिल्कुल सही कहा आपने
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