कलम कलम बेखौफ हो के लिख वही जिसकी जरुरत है। दिखा बेबाकियों के हौसले अब भी सलामत है॥ भले ही व्याकरण हर वाक्य पर ऐतरा...
कलम
कलम बेखौफ हो के लिख वही जिसकी जरुरत है।
दिखा बेबाकियों के हौसले अब भी सलामत है॥
भले ही व्याकरण हर वाक्य पर ऐतराज करती हो।
शिल्प चाहे इसे सर्जन अगर कहते झिझकती हो॥
समीक्षक इसको साहित्य अगर माने नहीं माने ।
वहीं समसामयिक होने तक के सुनने पड़े ताने ॥
नहीं हो व्यंजना, अभिधा, लक्षणा छंद, रस इसमें ।
कथ्य खुद ही अलंकारों का करदे काम बस जिसमें ॥
न हो गेय लय,प्रवाह,कवित्व जैसा कुछ इसमें ।
सभी साहित्य दोषों की वही भरमार हो जिसमें॥
न अंदाजे.बयां हो इसमें ना नुक्ताशिनानी ।
पढ़े उसको लगे जैसे उसी की ही कहानी हो ॥
उठाने दे उन्हें फिर अंगुलियां उनकी तो फितरत है।
कलम बेखौफ हो के लिख वही जिसकी जरुरत है॥
कलम उलझी कभी रुमानियत ही के तिलिस्म में।
हंसी हो वस्ल में तू और रोयीे हिज्र के गम में ॥
कभी दुनिया की बेरहमी पे भी कागज किये काले।
वफाई बेवफाई पर कई औराक भर डाले ॥
कहर सय्याद के, तो आहें बुलबुल रकम की हैं।
मौसमों के बदलने की भी चर्चा बकलम की है ॥
मुकद्दर से किया शिकवा, खुदा भी शिकायत की।
नहीं मौजू मिला हालात के रुख मजम्मत की ॥
कभी फुर्सत मिले तो फिर यहीं लौट आना तू।
जंचे जी में तुम्हारे वो खुशी से लिखते जाना तू॥
अभी तो गौर कर कि आज क्या भारत की हालत है।
कलम बेखौफ हो के लिख वही जिसकी जरुरत है॥
दिखावा देश सेवा का सियासतदान करते हैं।
गरीबों का निवाला छीन वो घर अपने भरते हैं॥
नुमाइन्दे सब रिआया के, दरीन्दों के मुलाजिम हैं।
ग़ज़ब इस दौर का आलम कि हर शोबे में मुजरिम हैं॥
यहां जम्हूरियत तब बेबसी में हाथ मलती है।
इशारों पर किन्हीं के मुल्क की सरकार चलती हैं॥
जहां देखो वहीं पर आज भ्रष्टाचार पसरा है।
लिखना ही पड़ेगा मुल्क को किस किस से खतरा है ॥
ग़रीबों और कमजोरों की आहों को अयां करना।
वतन के दुश्मनों की साजिशों को तू बयां करना॥
नहीं मुन्सिफ यहां कोई नहीं कोई अदालत है।
कलम बेखौफ हो के लिख वही जिसकी जरुरत है॥
समस्याएं यहां इतनी,न कोई कर सके गिनती।
नई पैदा हुई हैं पर न हल होती कोई लगती ॥
अजब जम्हूरियत तो जात और मजहब हैं मगनी।
सही हाथों में अपने मुल्क की सत्ता नहीं लगती॥
अमूमन शाहों की तारीफ से फुर्सत नहीं पाती ।
मुडी है उस तरफ कलमें जिधर दौलत मज़र आती॥
वक्त ऐसी तनाफिस को कभी न माफ करता हैं।
चले न साथ जो उसके,उसे ठाकर पे रखता हैं॥
तुम्हारा फर्ज हैं इसको तुम्हें हरगिज निभाना हैं।
चुभे जो भी उसे ही अक्षरशः खिते ही जाना हैं॥
नहीं तोहमद कोई तसदीक कर लेना हकीक़त हैं।
कलम बेखौफ हो के लिख वही जिसकी जरुरत है॥
दामोदर लाल जांगिड़
कलम बेखौफ हो के लिख वही जिसकी जरुरत है।
दिखा बेबाकियों के हौसले अब भी सलामत है॥
भले ही व्याकरण हर वाक्य पर ऐतराज करती हो।
शिल्प चाहे इसे सर्जन अगर कहते झिझकती हो॥
समीक्षक इसको साहित्य अगर माने नहीं माने ।
वहीं समसामयिक होने तक के सुनने पड़े ताने ॥
नहीं हो व्यंजना, अभिधा, लक्षणा छंद, रस इसमें ।
कथ्य खुद ही अलंकारों का करदे काम बस जिसमें ॥
न हो गेय लय,प्रवाह,कवित्व जैसा कुछ इसमें ।
सभी साहित्य दोषों की वही भरमार हो जिसमें॥
न अंदाजे.बयां हो इसमें ना नुक्ताशिनानी ।
पढ़े उसको लगे जैसे उसी की ही कहानी हो ॥
उठाने दे उन्हें फिर अंगुलियां उनकी तो फितरत है।
कलम बेखौफ हो के लिख वही जिसकी जरुरत है॥
कलम उलझी कभी रुमानियत ही के तिलिस्म में।
हंसी हो वस्ल में तू और रोयीे हिज्र के गम में ॥
कभी दुनिया की बेरहमी पे भी कागज किये काले।
वफाई बेवफाई पर कई औराक भर डाले ॥
कहर सय्याद के, तो आहें बुलबुल रकम की हैं।
मौसमों के बदलने की भी चर्चा बकलम की है ॥
मुकद्दर से किया शिकवा, खुदा भी शिकायत की।
नहीं मौजू मिला हालात के रुख मजम्मत की ॥
कभी फुर्सत मिले तो फिर यहीं लौट आना तू।
जंचे जी में तुम्हारे वो खुशी से लिखते जाना तू॥
अभी तो गौर कर कि आज क्या भारत की हालत है।
कलम बेखौफ हो के लिख वही जिसकी जरुरत है॥
दिखावा देश सेवा का सियासतदान करते हैं।
गरीबों का निवाला छीन वो घर अपने भरते हैं॥
नुमाइन्दे सब रिआया के, दरीन्दों के मुलाजिम हैं।
ग़ज़ब इस दौर का आलम कि हर शोबे में मुजरिम हैं॥
यहां जम्हूरियत तब बेबसी में हाथ मलती है।
इशारों पर किन्हीं के मुल्क की सरकार चलती हैं॥
जहां देखो वहीं पर आज भ्रष्टाचार पसरा है।
लिखना ही पड़ेगा मुल्क को किस किस से खतरा है ॥
ग़रीबों और कमजोरों की आहों को अयां करना।
वतन के दुश्मनों की साजिशों को तू बयां करना॥
नहीं मुन्सिफ यहां कोई नहीं कोई अदालत है।
कलम बेखौफ हो के लिख वही जिसकी जरुरत है॥
समस्याएं यहां इतनी,न कोई कर सके गिनती।
नई पैदा हुई हैं पर न हल होती कोई लगती ॥
अजब जम्हूरियत तो जात और मजहब हैं मगनी।
सही हाथों में अपने मुल्क की सत्ता नहीं लगती॥
अमूमन शाहों की तारीफ से फुर्सत नहीं पाती ।
मुडी है उस तरफ कलमें जिधर दौलत मज़र आती॥
वक्त ऐसी तनाफिस को कभी न माफ करता हैं।
चले न साथ जो उसके,उसे ठाकर पे रखता हैं॥
तुम्हारा फर्ज हैं इसको तुम्हें हरगिज निभाना हैं।
चुभे जो भी उसे ही अक्षरशः खिते ही जाना हैं॥
नहीं तोहमद कोई तसदीक कर लेना हकीक़त हैं।
कलम बेखौफ हो के लिख वही जिसकी जरुरत है॥
दामोदर लाल जांगिड़
bahut achchhi rachana
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