चरित काव्य जय गुरुजी! जय शिवाजी!! महेश ‘ दिवाकर ' दो शब्द प्रत्येक कृति के सृजन का प्रयोजन और प्रेरक कोई न कोई शक्ति अवश्य...
चरित काव्य
जय गुरुजी! जय शिवाजी!!
महेश ‘दिवाकर'
दो शब्द
प्रत्येक कृति के सृजन का प्रयोजन और प्रेरक कोई न कोई शक्ति अवश्य होती है जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष, किसी न किसी रूप में उपस्थित होकर उस महान कार्य को सम्पन्न कराती है जिसका श्रेय सामान्य मानव को प्रायः मिल जाता है जिसे हम ‘साहित्यकार' कहते हैं और वह सामान्य से असामान्य बन जाता है। सामान्यतः कृति के सृजन का प्रयोजन ‘स्वान्तः सुखाय' होता है और सुदृढ़ एवं स्वस्थ समाज की संरचना भी! इसकी प्रेरणा भी दिव्यता को आत्मसात किये रहती है! प्रस्तुत काव्यकृति ‘जयगुरुजी! जयशिवजी!!', भी इस तथ्य का अपवाद नहीं है।
विश्व में भारतीय वसुन्धरा दिव्यात्माओं की पुण्यभूमि है! युग-परिवर्तन की भूमिका निभाने वाले, विश्व-परिवार को एकता-सूत्र में बाँधने वाले, अन्याय-अत्याचार, शोषण-कदाचार, भ्रष्टाचार- दुराचार के विरूद्ध संघर्ष कर विजय श्री वरण करने वाले अनेकशः महापुरूष, साधु-सन्त, शक्तियाँ, दिव्यात्माएँ विश्व में सबसे अधिक भारत में ही अवतरित हुई हैं जिन्होंने न केवल भारत को, अपितु समग्र विश्व को अपनी लीलाओं व क्रीड़ाओं से गौरवान्वित किया है, और मानवता की नित्य नए रूप में संरचना भी की है। यही कारण है कि भारत का जीवन-दर्शन और वाङ्मय आध्यात्मिक एवं मानवीय मूल्यों का पारावार है!
भारत विश्व संस्कृति की पावन स्थली है। इसीलिए समग्र विश्व में भारत की गुरुता आज भी श्लाघ्य है। इसके कण-कण में ब्रह्मा, विष्णु और महेश- त्रिदेवों की शक्ति विद्यमान है। राम और कृष्ण इन्हीं त्रिदेवों के युगल रूप हैं। यहाँ का कण-कण निर्मल और पावन है, सारस्वत है। मान्यता है कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश-अपने विविध रूपों और आंशिक शक्तियों के साथ इस धरा पर निरन्तर अवतरित होते रहते हैं। और भारत सहित समग्र विश्व का कल्याण करते रहते हैं।
‘जयगुरुजी! जयशिवजी!!' एक ऐसी काव्य कृति है, जिसमें शिवस्वरूप ‘गुरुजी' का जीवन चरित काव्यात्मक रूप में प्रस्तुत किया गया है। निस्सन्देह, प्रस्तुत काव्यकृति ‘गुरुजी' की कृपा का ही प्रतिफल है जो अपने सारस्वत रूप में साकार हुआ है। हाँ, इसके सृजन हितार्थ निरन्तर स्नेह व वात्सल्यपूर्ण आग्रह मेरे अनुजवत् प्रिय प्रेमपाल सिंह, मेरे पुत्रवत् प्रिय अवधेश कुमार सिंह और सुपुत्री डॉ0 स्वाति पंवार (वसुन्धरा, गाजियाबाद) का रहा है, जो गुरुजी के अनन्य भक्त हैं। इन पर ‘गुरुजी' की शाश्वत व अमोघ कृपा की मुझे अनुभूति है। मैं इन तीनों का हृदय से कृतज्ञ हूँ क्योंकि इन्होंने ही मुझे व मेरी धर्मपत्नी- डॉ0 चन्द्रा पंवार को प्रथम बार गुड़गाँव (हरियाणा) में आयोजित ‘गुरुजी' की संगत में ले जाने का पुण्य कृत्य किया था। हमें उस ‘गुरु-संगत' के दिव्यानंद की अनुभूति है जिसके फलस्वरूप इस काव्यकृति की रचना हुई। यही कारण है कि मेरी सहधर्मिणी- डॉ0 चन्द्रा पंवार सहित उक्त तीनों आत्मीयजनों के सुझाव भी इस काव्यकृति में सहजतः आत्मसात हो गये हैं जिससे इसके वर्ण्य विषय में अनूठा भक्ति रस-सौन्दर्य भी आ गया है।
अस्तु, पूर्व प्रकाशित अपने तीन चरित काव्यों- ‘वीरबाला कुँवर अजबदे पंवार', ‘महासाध्वी अपाला' और ‘वीरांगना चेन्नम्मा' की ही श्रृंखला में यह चौथा चरित काव्य-प्रसून- ‘जयगुरु जी! जय शिवाजी!!' माँ सरस्वती के चरण-कमलों में सादर भाव से समर्पित है।
निस्सन्देह, कहीं न कहीं और किसी न किसी रूप में यह भक्ति-प्रधान-चरितकाव्य गाथा आपको भी प्रभावित अवश्य करेगी। यदि ऐसा किंचित् रूपेण भी हुआ तो मेरा यह भावनात्मक श्रम सार्थक हो जायेगा। जय गुरुजी! जय शिवजी!!
सद्भावनाओं सहित!
25 जनवरी, 2011
डॉ0 महेश ‘दिवाकर' डी0लिट्0
‘सरस्वती भवन'
मिलन विहार, दिल्ली राजमार्ग,
मुरादाबाद (उ0प्र0) भारत
जय गुरुजी! जय शिवाजी!!
पूर्वार्द्ध
भारत बड़ा विशाल है,
अद्भुत देश महान!
सकल विश्व में एक भी,
मिले नहीं उपमान॥
ऊँची पर्वत श्रेणियाँ
चूम रहीं आकाश!
अम्बर से करते यहाँ,
सूरज-चाँद प्रकाश॥
प्रहरी दक्षिण छोर पर,
सागर का विस्तार!
मानो विधना ने दिया,
यह अनुपम उपहार॥
हर मौसम में जिन्दगी,
रखता यह खुशहाल!
अमृत की वर्षा करे,
करता ऊँचा भाल॥
निभा हिमालय भी रहा,
उत्तर दिशि दायित्व!
दक्षिण में सागर रचे,
नए-नए कृतित्त्व॥
पश्चिम सीमा देश की,
है किंचित् कमजोर!
बंजर-बीहड़ जिन्दगी,
रक्षक है चहुँओर॥
इसी भूमि ने देश का,
रचा भव्य इतिहास!
वीर प्रसूता यह धरा,
यौवन का मधुमास॥
आया संकट देश पर,
भेज दिए निज लाल!
बलिवेदी पर चढ़ गये,
झुका न माँ का भाल॥
उत्तर से दक्षिण तलक,
पूरब-पश्चिम कोर!
बच्चा-बच्चा देश का,
है बाँका रणछोर॥
गंगा - यमुना - नर्मदा,
ब्रहमपुत्र- सी देह!
कृष्णा-कावेरी नहा,
बनता मनुज विदेह॥
भारत वैभव विश्व में,
अद्भुत दिव्य विशाल!
मिले न इसकी विश्व में,
कोई अन्य मिसाल॥
यहाँ प्रकृति अठखेलियाँ,
करती विविध प्रकार!
जल-थल नभ में देखलो,
बहती नव रसधार॥
पशु-पक्षी सुन्दर विटप,
फूल-फलों से युक्त!
लोग विश्व कल्याण हित,
भाव भरे उन्मुक्त॥
ऋतुओं के वैविध्य से,
भरा हुआ यह देश!
धन्य हरितमा, सम्पदा,
नित्य निराले वेश॥
षड्ऋतुऐं इस देश को,
देती नव उपहार!
धर्म-कर्म-अध्यात्म का,
सूत्र बना है प्यार॥
गंगा - जमुनी - सभ्यता,
भारत की पहचान!
वीर यहाँ रण बाँकुरे,
जाने सकल जहाँन॥
इसी देश ने विश्व को,
दिया वेद विज्ञान!
लोहा जिनका मानता,
दुनिया का संज्ञान॥
जन्मे हैं इस देश में,
उच्च कोटि इन्सान!
सेवा-तप औ' त्याग से,
बने विश्व भगवान॥
विविध जाति औ' धर्म के,
मिलकर रहते लोग!
अपने-अपने कर्मरत,
भोगें अपने भोग॥
भारत में पंजाब है,
सकल सम्पदा खान!
शस्य श्यामला धरा है,
यह सन्तों की शान॥
जन्में थे पंजाब में,
‘निर्मल' जैसे सन्त!
अल्पकाल में बन गये,
मानवता के कन्त॥
पूजा उनकी आज भी,
करता मनुज समाज!
‘निर्मलजी' को मानता
गुरु - हृदय -सरताज॥
‘निर्मलजी' के चरित का,
मुझे मिला संज्ञान!
माँ वाणी कृपा करी,
करता काव्य-बखान॥
गुरु पदरज को शीश धर,
करता विनय महेश!
धन्य करो मम् लेखनी,
जगती के प्राणेश॥
जन्म सात जुलाई को,
सन् चौवन का वर्ष!
सांगरूर, पंजाब में,
हुआ डूंगरी हर्ष॥
हुआ डूंगरी हर्ष,
मात ने त्रयसुत जाये!
हुई सुपुत्री एक,
सुखद घर मंगल गाये॥
मात-पिता-परिवार सब,
हुये बहुत प्रसन्न!
मानो घर में ले लिया,
शिव शंकर ने जन्म॥
पिता रूप में ‘मस्तराम' की
अब तक इच्छा रही अधूरी!
पत्नी ‘सावित्री' ने उनकी
मनोकामना कर दी पूरी॥
मात-पिता का पुत्र दूसरा
लगता गृह आया कर्तार!
साक्षात् शिवजी ने मानो
आकर लिया यहाँ अवतार॥
जन्म-जन्म से पूर्व गाँव सब,
मानो कितना बदल गया था!
अपने प्रभु का स्वागत करने,
रात-रात में संभल गया था॥
उज्जवल तन में, निर्मल मन में,
बालक देव सरीखा आया!
सोच-समझ कर मात-पिता ने,
उसका ‘निर्मल' नाम बताया॥
बचपन से आकर्षित करता,
बालक मानो देव विशिष्ट था!
भव्य, दिव्य, अनुपम स्वरूप तन,
लेकर आया अति विशिष्ट था॥
हृष्ट-पुष्ट तन, माथा चौड़ा
ऊँची नाक, नैन मतवाले!
गौरवर्ण, लम्बी-सी ग्रीवा,
मुख-मण्डल से भोले-भाले॥
बालक के आते ही घर में,
नव वैभव-सुख-समृद्धि आयी!
शस्य श्यामला हुई धरा सब,
गाँव-गाँव बजती शहनाई॥
मात-पिता ने बड़े प्यार से,
चारों ही बच्चों को पाला!
लेकिन, बाल दूसरा सबको,
लगता तेज पुंज मतवाला॥
जिसने भी बालक को देखा,
विस्मित खड़ा-खड़ा रह जाता!
मन ही मन अपने कहता था,
है बालक से कोई नाता॥
धीरे-धीरे बड़ा हुआ तो-
ठुमुक-ठुमुक मुस्काता चलता!
मात-पिता फूले न समाते,
कौतुकमय क्रीड़ाएँ करता॥
उसकी तुतली-तुतली बातें
सबका मन आनंदित करतीं!
भोजन-पानी-दूध लिया तो
उसकी ना-नुच मस्ती भरती॥
बच्चों के संग खेल-खेल में,
बालक यदि कोई रो जाता!
झटपट बालक उसे उठाकर
अपने उर से लगा चुपाता॥
बाल गिरा गम्भीर, मनोहर
लगती मन को कितनी प्यारी!
नन्हा-सा मुख सौम्य करे था,
इतनी बातें कितनी न्यारी॥
अचरज, विस्मय औ' भविष्य की
बालक कितनी बातें करता!
पाँच साल का बालक सबकी,
पल में जिज्ञासा को हरता॥
सत्य-असत्य सभी प्रकरण,
लोगों के सम्मुख बतलाता!
मानव जीवन के रहस्य को,
सहज-सरलता से समझाता॥
छोटे मुख से बड़ी बात सुन,
सभी अचम्भित हो जाते थे!
मानो बालक के दर्शन से,
उर-स्पन्दन बढ़ जाते थे॥
आस-पास के सब गाँवों में,
नितप्रति फैल रही थी चर्चा!
समस्याओं के समाधान को,
प्रतिदिन लोग भेजते पर्चा॥
लोग ‘गुरुजी' कहकर उनको,
सबही करते थे सम्बोधित!
मात-पिता औ' परिजन सारे,
मन ही मन होते प्रफुल्लित॥
बालक के कौतुक सुन-सुनकर,
सन्त-साधुजन कितने आते!
दर्शन करके मनो गुरु के,
मन में अतिशय थे हर्षाते॥
बाल, युवा, वृद्धों, सन्तों से,
बालक उनकी बातें करता!
जाकी रही भावना जैसी,
सबकी वैसी पीड़ा हरता॥
वेतनभोगी या व्यापारी,
श्रम-पालित, मजदूर-किसान!
राजनीति के कर्ता-धर्ता
शोषण-पोषित और जवान॥
नारी बीमारी से हारी,
मात-पिता पाने सन्तान!
दुःखी-सुखी, अतृप्त आत्मा,
आते बेदम भी इन्सान॥
भटके राही, काल सिपाही,
मूर्ख-गुणी या हो विद्वान!
पास ‘गुरुजी' के आते ही,
मिल जाता था समाधान॥
गुरु की दैविक प्रज्ञा चलती,
आधि-व्याधि सारी मिट जाती।
गुरुवर के सम्मुख आते ही,
सारी चिर पीड़ा कट जाती॥
दूर देश के वासी उनको,
करते मन ही मन प्रणाम!
उनकी इच्छा पूरी होती,
बन जाते सब बिगड़े काम॥
गाँव डूंगरी में रहते थे,
बाबा सेवादास जी सन्त!
छोड़ दिया संसार जिन्होंने,
किया अनूठा मोह का अन्त॥
उच्च कोटि के सन्त रहे थे,
उनके बने बहुत अनुयायी!
‘गुरुवर' ने उनके डेरे में,
अगणित रातें सहज बितायीं॥
आध्यात्मिक अनुराग अनोखा,
‘गुरुवर' ने बाबा से पाया!
बाबा सेवादास का चिंतन,
हृदय में गुरुवर के आया॥
यद्यपि हुआ विरोध अत्यधिक,
पर, वे डेरा में नित जाते!
बैठ वहीं एकान्त क्षणों में,
‘गुरुवर' शिव का ध्यान लगाते॥
बाबा सेवादास का डेरा-
मानों शिव का तपः स्थल था!
भावी जीवन के सपनों का
गुरु का एक मिलन स्थल था॥
योग साधना में बैठे गुरु,
कभी-कभी डेरे में मिलते!
पर, अगले ही क्षण सन्तों में,
बैठे पुष्प सरीखे खिलते॥
कभी-कभी परिजन ताले में,
उन्हें बन्द कमरे में करते!
और देखने उनका कौतुक
छुपे-छुपे कदमों को धरते॥
उसी बीच कमरे का ताला,
अनायास ही खुल जाता था!
पाँच साल का नटखट बालक
हँसता हुआ निकल आता था॥
हँसते-खाते और खेलते,
पता नहीं कब बचपन बीता!
बालक की मृदु मनुहारों ने,
जन-जन के हृदय को जीता॥
मात-पिता के चिन्ता मन में,
बालक पूरी शिक्षा पाये!
इस भौतिक नगरी में अपने,
सपनों के मीठे फल खाये ॥
मात-पिता के मन की पीड़ा
गुरु के अन्तर्मन ने जानी।
भावी जीवन की गुत्थी भी,
सुलझेगी यह मन ने मानी॥
प्रारम्भिक शिक्षा गुरुवर ने,
गाँव डूंगरी में ही पायी!
मात-पिता-परिवार ने मन में,
प्रेरक बनकर चाह जगायी॥
आगे की शिक्षा पाने को,
मात-पिता क्यों करते देर!
समीप डूंगरी के स्थित था,
विद्यालय ‘बरथला मंडेर'॥
गाँव डूंगरी से पैदल ही,
नित प्रति गुरुवर जाते स्कूल!
बाधाएँ आयीं कितनी ही,
कर न सकी किंचित् प्रतिकूल॥
आस-पास के गाँवों से भी
बालक नित पढ़ने को आते!
गुरुवर की बातें सुन-सुनकर,
कैसे फूले नहीं समाते॥
सहज भाव से गुरुवर सबकी,
बातें भी सुनते-कहते थे!
सबके बीच उपस्थित रहकर,
सपने भी बुनते-रहते थे॥
मित्र बने सब सहपाठी भी,
सभी प्रफुल्लित अति होते थे!
गुरुवर की प्रेरक बातों से,
अपनी पीड़ा भी खोते थे॥
कभी किसी भी सहपाठी को,
गुरुवर ने देखा जब उन्मन!
पलभर में सब पीड़ा हरते,
उसका करते हर्षित तन-मन॥
विद्यालय के छात्र औ' गुरुजन
उनकी सब चर्चा करते थे!
अन्दर-बाहर विद्यालय में
सबमें अनुशासन भरते थे॥
गुरुजन का सम्मान करो तो
शिक्षा का सद्फल मिलता है!
गुरुजन की कृपा होने पर
जीवन-पुष्प सदा खिलता है॥
क्या जीवन-उद्देश्य हमारा,
गुरुवर छात्रों को बतलाते!
गूढ़ रहस्य की कितनी बातें,
सरल भाव से सब कह जाते॥
अपने सहपाठी की बातें,
गुरुवर सभी ध्यान से सुनते!
बैठ बीच परिवार मित्र सब,
गुरुवर की बातें सब गुनते॥
‘बरथला मंडेर' में बीते,
शिक्षा लेते साल कई!
गुरुवर करी कृपा विद्यालय
हुआ ही कभी ग़मगीन नहीं॥
अध्ययन-अध्यापन-क्रीड़ा में,
विद्यालय-का शुभ नाम हुआ!
पूर्ण प्रान्त पंजाब में उसका,
उन्नत सबमें ही भाल हुआ॥
गुरुवर ने इण्टर तक शिक्षा
‘बरथला मंडेर' में पायी!
हाईस्कूल और इण्टर में
दोनों प्रथम श्रेणियाँ आयीं॥
मात-पिता-साथी औ' गुरुजन,
सब ही फूले नहीं समाये!
लेकिन, गुरुवर ने मानस में,
भावी जीवन चित्र बनाये॥
मात-पिता की आज्ञा लेकर,
छोड़ दिया गुरुवर ने गाँव!
प्राप्त उच्च-शिक्षा करने को
ली ‘मालेर कोटला' छाँव॥
‘मालेर कोटला' में उपाधि-
स्तर महाविद्यालय बना था!
उच्च शिक्षा क्षेत्र में इसका,
जनपद में भी नाम घना था॥
क्रीड़ा-शिक्षा - योग-यज्ञ की
विधिवत् चलती थीं कक्षाएँ
स्वच्छ भवन, सुन्दर परिमण्डल;
छात्र बोलते वेद ऋचाएँ॥
प्राकृतिक परिदृश्य यहाँ का,
शिक्षा की उच्च व्यवस्था थी!
अध्ययन-अध्यापन औ' अनुशासन,
गुरुकुल के सदृश व्यवस्था थी॥
मात-पिता ने किया विदा सुत,
नैना ममता-जलभर लाये!
उच्च शिक्षा की लिए भावना,
गुरुवर महाविद्यालय आये॥
मात-पिता बोले ‘गुरुवर' से
‘बेटा, घर का नाम बढ़ाना!
लेकर ऊँची शिक्षा जग में,
सबका मंगल करते जाना॥
बिन शिक्षा के कोई जग में
मानव ऊँचा नहीं बना है!
‘काला अक्षर भैंस बराबर
कीचड़ में नित रहे सना है॥
नहीं असम्भव कुछ भी उसको,
जिसको उच्च मिली है शिक्षा!
दर-दर की ठोकर नित खाता,
भीख माँगती सदा अशिक्षा॥
गुरुवर ने ‘मालेर कोटला' -
प्रथम स्नातक शिक्षा पायी!
मात-पिता परिजन ने आकर,
कोटि-कोटि दीं उन्हें बधाई॥
लेकिन ‘गुरुवर' ने अध्ययन से,
अभी न किंचित् नाता तोड़ा।!
‘परास्नातक' पूर्ण करेंगे,
मन में दृढ़ संकल्प को जोड़ा॥
यदि मन में विश्वास-लगन हो,
जग में कुछ भी नहीं असंभव!
वारिधी-सेतु बना राम ने-
किया असंभव को भी संभव॥
सोच-समझकर ही गुरुवर ने,
अपनी रखी-पढ़ाई जारी!
रूके नहीं वे अवरोधों से-
तनिक न अपनी हिम्मत हारी॥
‘परास्नातक' की शिक्षा जो,
गुरु की अब तक रही अधूरी!
‘अंग्रेजी' औ' ‘अर्थशास्त्र' में-
दो-दो की उपाधियाँ पूरी॥
‘गुरुवर' शिक्षा पूरी करके,
अपने गाँव डूँगरी आये!
देख पुत्र को मात-पिता के-
हर्षित नैन छलक दो आये॥
उधर हो गयी शिक्षा पूरी,
इधर सहज ही यौवन छाया।
मात-पिता के मृदु सपनों में
सुत-परिणय का सावन आया॥
मात-पिता के साथ-साथ में,
कुछ दिन तो घर में ही बीते!
गुरुवर ने व्यवहार से अपने-
सबके नित प्रति हृदय जीते॥
मात-पिता की रही भावना,
बेटा जग में नाम कमाये!
खेती या व्यापार-नौकरी-
करके अपने स्वप्न सजाये॥
भौतिक जीवन की सुविधाएँ
बेटा अपनी सभी जुटाए!
गृहकार्य में मात-पिता का
समय-समय पर हाथ बँटाए॥
साथ-साथ ही परिणय करके,
जीवन-साथी से मिल जाये!
अपना घर-परिवार बढ़ाकर
कुल का जीवन सफल बनाये॥
मात-पिता के पास अनेकों,
रिश्ते नित परिणय के आते!
लेकिन, गुरुवर की इच्छा बिन,
सफल भला कैसे हो पाते॥
ममता-वाणी-मोह या बंधन,
कोई भी तो काम न आया!
गुरुवर साधक, फटिक शिला मन,
निष्फल हुई सभी की माया॥
मात-पिता से हाथ जोड़कर
गुरुवर ने हृदय-पट खोले!
परिणय करना लक्ष्य न उनका,
अतिशय विनय भाव से बोले॥
मात-पिता परिवार ने मिलकर
गुरुवर को कितना समझाया!
शिव का अंश, पुजारी शिव का
निर्णय किंचित बदल न पाया॥
‘ब्रह्मचर्य के अनुपालन में
अपना जीवन अन्त करेंगे!
शिव हैं मेरे, मैं शिवजी का,
भौतिक-परिणय नहीं बरेंगे॥
गुरुवर के जीवन में परिणय?
उनका तो उद्देश्य अलग था!
भौतिकता से परिणय करना,
उनका जीवन कहाँ सुलभ था॥
मनुज रूप में शिव वसुधा पर
लेकर आये गुरु अवतार!
भोग-रोग से दूर रहे वे,
करने मानव आये सुधार॥
दूर कहीं पर दृष्टि लगी थी,
गुरुवर खोये-खोये रहते!
शयन-कक्ष में बन्द अकेले,
मानो मनोयातना सहते॥
प्रातःकाल वे घर से निकलें,
चलकर दूर कहीं पर जाते!
बड़े-बड़े ग्रन्थों को लेकर,
संध्या लौट सदन में आते॥
संस्कृत-हिन्दी-अंग्रेजी के-
ग्रन्थों का करते अनुशीलन!
दर्शन-वेद-धर्म-गुरुओं का
प्रायः वे करते अभिनन्दन॥
शिव के आराधन-चिन्तन से-
गुरुवर नित्य साधना करते!
‘शिव-मन्दिर' में बैठ देर तक
अपने जीवन में सुख भरते॥
मात-पिता-परिवार सभी के
अब तक यह अहसास घना था!
बालक रहा नहीं साधारण
मन में दृढ़ विश्वास बना था॥
दूर-दूर से लोग नित्य ही
गुरुवर से मिलने थे आते!
दर्शन करके चरण धूलि को
अपने माथे सहज लगाते॥
‘गुरुवर' भी अपने भक्तों को
सहज भाव से वह सब देते!
अन्तर्मन की जान समस्या,
उनकी वे सब हल कर देते॥
प्रातःकाल से देर शाम तक
घर पर मेला-सा रहता था!
सबकी अपनी-अपनी पीड़ा
गुरु का अन्तर्मन सहता था॥
नित प्रति उत्पीड़ित लोगों की
घर पर भीड़ चली आती थी!
गुरु के दर्शन सहज भाव कर
कितनी यशगाथा गाती थी॥
लेकिन, गुरुवर के मन मानो
लेश मात्र आराम नहीं था!
दूर दृष्टि थी, लक्ष्य दूर था,
उनका मन अभिराम कहीं था॥
मानव जीवन बहुत दुःखी है,
कैसे उसके कष्ट हरेंगे!
बिना साधना के पीड़ा को
कैसे जन की नष्ट करेंगे॥
दूर-दूर से पीड़ित आते,
गुरुवर-दृष्टि दूर जाती थी!
मानवता का दुःख हरने को,
आँखें करूणा बरसाती थीं॥
दिन पूरा पीड़ित-सेवा में,
उनका बीत सहज जाता था!
शयन-कक्ष में मन गुरुवर का,
किंचिद चैन कहाँ पाता था॥
मानव-मानव की पीड़ा को
सहज भाव से वे सहते थे!
देर रात शिवजी से अपनी
सारी मनोव्यथा कहते थे॥
निशा पूर्ण चिन्तन में कटती
दिन सेवा में कट जाता था!
फिर भी इस बैरागी मन से
कुहरा तनिक न छँट पाता था॥
अपनी पीड़ा को यों गुरुवर,
मानव से कैसे बतलाते!
बीत गये छः माह सहज कब,
घर में यों ही रहते-खाते॥
पता नहीं कब निद्रा आयी,
पता नहीं कब गुरुवर जागे!
काल चक्र से डरता प्राणी
लेकिन गुरुवर कहीं न भागे॥
थोड़ा जीवन शेष बचा है
हे मन! करले काम जरूरी!
पता नहीं कब न्यौता आये,
तेरी इच्छा रहे अधूरी॥
छोड़ अरे! भव-बन्धन प्राणी,
तोड़ मोह से रिश्ता-नाता!
तेरा स्वामी तुझे पुकारे,
बीता समय न फिर से आता॥
गहरी निद्रा में खोये थे,
गुरुवर विस्मित-चौंके जागे!
सोते मात-पिता को छोड़ा,
चरण छुये फिर घर से भागे॥
छोड़ दिया घर बार डूंगरी
नाते-बन्धन सारे तोड़े!
मात - पिता - परिवार - बान्धब
सोते-सोते सारे छोड़े॥
चले गये घर छोड़कर,
लिया जोगिया वेश!
पलक झपकते हो गये
स्वामी से दरवेश॥
उत्तरार्द्ध
उत्तर - दक्षिण - पूरब - पश्चिम,
तीर्थ-तीर्थ में आकर अर्चन!
सब धर्मों के धाम गये गुरु
किया सभी का जाकर बन्दन॥
पाँच वर्ष तक रहे भ्रमण में,
गुरुवर हुये सहज सन्यासी!
पर्वत-नदियाँ - कानन-सागर,
करी साधना पूरणमासी॥
कष्ठ अनेक सहे गुरुवर ने,
घोर आपदा झेली तन पर!
सभी तरह के ताप सहे मन,
लेकिन, विचलित हुए न गुरुवर॥
भूख-प्यास ने बहुत सताया,
जर्जर हुआ सूख तन सारा।
दैहिक-दैविक बाधाओं से,
गुरुवर का मन लेश न हारा॥
आयी शरद शीत को लेकर,
मन की मनो किटकिटी बजती!
हाय! शरद की रातें लम्बी,
तन की सभी अस्थियाँ गलतीं॥
गर्मी आती, आफत लाती,
उसमें भी दिन जले अवा-से!
रात हुई तो धरा दहकती,
तन-मन जलते हाय! तवा-से॥
वर्षा ऋतु के दिन-रातों ने
पलछिन का सब चैन निचोड़ा!
सोने और बैठने का सुख
दिन-रातों में तनिक न छोड़ा॥
कानन जीवन, घोर त्रासमय,
हिंसक पशु-खग, कीड़ों का भय।
गुरु को कोई डिगा न पाया,
करी साधना होकर निर्भय॥
ऋतुओं का परिताप झेलता,
सच्चा साधक नहीं अटकता!
आधि-व्याधि भी कितनी आयें,
लेकिन, पथ से नहीं भटकता॥
गुरुवर ने ऋतु परितापों को
सहज भाव सब झेले तनसे!
प्राकृतिक तूफान-बवण्डर,
गुरुवर सबसे खेले मनसे॥
तप का आतप, आतप का भय,
साधक डरता नहीं किसी से!
उसकी दृष्टि लक्ष्य पर रहती,
वह पाता है विजय इसी से॥
पावक में जलकर ज्यों कुन्दन,
चमक-निखरकर बाहर आता!
त्यों ही साधक तप में तपकर,
मानो कुन्दन है बन जाता॥
भारत के अंचल-अंचल में,
व्रत-पूजा-उपवास में घूमे!
उच्च साधना के शिखरों को,
गुरुवर ने मधुमास में चूमें॥
ज्ञानद्वीप को लेकर गुरुवर,
गाँव डूंगरी वापस आये!
मात-पिता-परिवार-गाँव ने,
स्वागत तोरण द्वार सजाये॥
स्वागत-वन्दन-अभिनन्दन को,
गाँव डूंगरी खड़ा हुआ था!
गाँव-गली-घर-गलियारे का,
चप्पा-चप्पा सजा हुआ था॥
दूर-दूर अंचल से अगणित
भक्त सहस्त्रों मिलने आये!
दर्शनकर अपने गुरुवर के,
जन्म-जन्म के पुण्य कमाये॥
गाँव डूंगरी के बाहर ही,
बहुत बड़ा मैदान भरा था!
जनमानस आतुर दर्शन को
दूर-दूर तक वहाँ खड़ा था॥
मात-पिता के साथ गुरुजी,
पुष्प मंच पर पहुँच गये थे!
भक्तों ने गुरुवर को देखा
अदभुत सपने नये-नये थे॥
भाँति-भाँति के पुष्प-गुच्छ से
भव्य मंच भी लदा हुआ था!
सुन्दर-सुन्दर पुष्प-माल से,
गुरुवर का तन सजा हुआ था॥
हाथ उठाकर निज गुरुवर ने,
फिर भक्तों का आभार किया!
मानो साक्षात शिवजी ने
दर्शन देकर उपकार किया॥
जिधर देखते लोग उधर ही
गुरुवर सबको पड़े दिखायी!
दिव्य स्वरूप हुआ गुरुवर का
शिवशंकर ज्यों खड़े दिखायी॥
जय गुरुवर की, जय शिवजी की
धरती-अम्बर बोल रहे थे!
वशीभूत सब नैन हुये थे,
हृदय निज पट खोल रहे थे॥
दिव्य शंख-घण्टों की ध्वनियाँ,
गूँज रहीं धरती-अम्बर में!
सारी वसुधा झूम रही थी;
समा गये ज्यों सब गुरुवर में॥
नभ से हुई सुमन की वर्षा
कोई कुछ भी समझ न पाया!
चारों ओर सुगन्ध महकती
मानो स्वर्ग उतर कर आया॥
कुछ दिन रूके गाँव में अपने
गुरुवर ने फिर प्रस्थान किया!
जगह-जगह पर रूके-घूमकर,
निज भक्तों का कल्यान किया॥
सत्य- अहिंसा- भक्ति- कर्म का
शुभ जीवन-हित सन्देश दिया!
यह जग सब परिवार एक है,
मानवता-हित उपदेश किया॥
जहाँ-जहाँ पर गुरुवर जाते,
अगणित भक्त सहज आते थे!
गुरुवर के दर्शन करने को,
मानो खिंचे चले जाते थे॥
गुरुवर के संगत स्थल पर
जैसे अलग चमक होती थी!
सारा पर्यावरण गमकता,
फैली दिव्य महक होती थी॥
दिल्ली - हरियाणा - जम्मू में,
प्रान्त हिमालय व गुजरात!
असम-बिहार-बंगाल-मिजोरम,
केरल तट, कर्नाटक, मद्रास॥
राजस्थान- उड़ीसा- आन्ध्रा,
उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश!
महाराष्ट्र-पंजाब प्रान्त में,
सत्संग गुरुजी किये विशेष॥
पन्द्रह वर्षों तक तो गुरुवर,
घूमे भारत और परदेश!
जगह-जगह पर संगत करके,
बाँटा अमृतमय सन्देश॥
किया अन्त में निज को केन्द्रित,
दिल्ली और पंजाब विशेष।
दिव्य-भव्य शिवजी का मन्दिर
बना जालंधर दिया शुभेश॥
कुछ वर्षों तक जालंधर से
सब गतिविधियाँ की संचालित!
दिल्ली और पंजाब प्रान्त में,
संगत करती अघ प्रक्षालित॥
मानव-सेवा का गुरुवर ने
सबको जीवन-पाठ पढ़ाया!
दीन-दुःखी, निर्बलहारों की
सेवा करना धर्म बताया॥
सबसे बड़ा कर्म है पूजा,
हर संगत में यही बताते!
सत्य प्रेम हैं, सत्य अहिंसा,
सत्य में ईश्वर रहें सिखाते॥
छोटा-बड़ा न कोई जग में,
सबको यह सन्देश सुनाया!
सारा जग-परिवार एक है,
अमृतमय उपदेश छकाया॥
नवें दशक, छत्तरपुर-दिल्ली,
शिव का मन्दिर बड़ा बनाया!
संगत-लंगर आयोजित कर,
शिव-जीवन का महत्व बताया॥
अपनी अमृतमय वाणी से,
मानव जीवन सुखद बनाया!
शरण गुरु की जो भी आया
उसका जीवन धन्य बनाया॥
दिल्ली और पंजाब प्रान्त में,
गुरुवर शिव-मन्दिर बनवाये!
‘दो हजार दो' बीत गयी तो-
जालंधर से दिल्ली आये॥
नई दिल्ली में एम0जी0 रोड पर,
है एम्पायर स्टेट सुरक्षित!
यहाँ बनाया ‘लघु शिव मन्दिर'
शिव-भक्तों को किया समर्पित॥
गुरुवर रहे यहाँ वर्षों तक
करते रहे संगत-कल्यान!
लंगर का परसाद चखाकर,
देते रहे जीवन का दान॥
मानव जीवन महत्वपूर्ण है,
गुरुवर ने सबको बतलाया!
बिना प्रयोजन कोई प्राणी
नहीं धरा पर जीवन पाया॥
कई वर्ष तक शिव मन्दिर से,
गुरुवर ने थे किये प्रवास!
सारी वसुधा बने स्वर्ग-सी
सुन्दर अनुपम किये प्रयास॥
काल-निशा का पहिया घूमा,
गुरुवर चिर निद्रा में सोये!
‘मई इकत्तीस दो हजार सात'
दिल्ली, प्राण-पखेरू खोये॥
जिसने सुना दौड़कर आया,
गुरु को देखा सन्न रह गये!
रो-रोकर सब पूछ रहे थे,
गुरुवर हम तो विपन्न हो गये॥
शिव की ज्योति समायी शिव में,
ऐसी लीला की प्रभुवर ने!
महासमाधि बनी शिवमन्दिर
छत्तरपुर में ली गुरुवर ने॥
शिव का प्यारा, गया दुलारा,
उसकी लीला समझ न आयी!
आँसू-आँसू से कहते थे-
यह जीवन सौगात परायी॥
गुरुवर नहीं आज धरती पर
लेकिन, उनकी ज्योति जल रही।!
गुरुवर ने जो उपवन रोपा
उसकी सुमन-सुगन्ध खिल रही॥
अल्पकाल की जीवन-यात्रा
अगणित जीवन सफल बनाये!
जो गुरुवर की शरण आ गया,
उसके दारूण कष्ट मिटाये॥
युग की पीड़ित मानवता को,
गुरुवर! हृदय सहज लगाया!
जिसने मन से तुम्हें पुकारा,
उसका जीवन धन्य बनाया॥
भक्ति-ज्ञान और कर्म-त्रिवेणी
संगत के दौरान बहायी!
प्रेम-शान्ति-सन्तोष की गुरु ने,
हर मानव को राह दिखायी॥
गुरुवर शिव अवतार धन्य हम
साक्षात् शिव दिव्य रूप थे!
अल्पकाल सत्संग रहा गुरु!
दिव्य ज्योति के मनुज रूप थे॥
होता है सत्संग जहाँ पर
गुरुवर वहाँ प्रकट रहते हैं!
अपने दिव्य सुगन्धित तन से,
संगत में हर पल रमते हैं॥
हो जाता परिवेश सुगन्धित,
गुरु सब पर कृपा करते हैं!
मन से जिसने उन्हें पुकारा
उसकी सब पीड़ा हरते हैं॥
जो मन दृढ़ विश्वास सहेजे,
गुरु के शिव मन्दिर में आता!
निश्चित गुरु की कृपा होती,
मनोवांछित फल वह पाता॥
यदि जीवन को धन्य बनाना,
मिले न तुमको कभी पराजय!
तो ‘जय गुरुजी! जय शिवजी की'
बोलो सब मिल करके जय-जय॥
सभी भक्त मिलकर गाते हैं !
जय गुरुजी! जय गुरुजी!!
जय शिवजी की बोल रे बन्दे!!
बन्द पड़ीं जो हृदय-खिड़की,
उसको अपनी खोल रे बन्दे!!
जबसे तू दुनिया में आया!
पल-पल कितना जाल बिछाया!
जिसने जन्म दिया था तुझको,
उसको तूने अरे! भुलाया॥
छोड़ अरे! अब गोरख धन्धे!
मुख से बोल, ‘गुरुजी' बन्दे!! जय गुरुजी॥
काल-चक्र अब डोल रहा है!
अपनी बोली बोल रहा है!
आने वाला अरे! बुलावा;
संकेतों से खोल रहा है॥
अब तो आँखें खोल रे बन्दे!
हँसकर बोल, गुरुजी बन्दे!! जय गुरुजी॥
तेरा यौवन जाने वाला!
घोर बुढ़ापा आने वाला!
केवल तुझको गुरु बचायें;
मिले न कोई बचाने वाला॥
कर मत ऊँचे इतने कन्धे!
अब तो बोल, गुरुजी बन्दे!! जय गुरुजी॥
अन्त समय फिर पछताएगा!
तेरा पाप तुझे खायेगा।
कोई तेरे पास न आये;
घोर नर्क में मर जोयगा॥
काम किये जो तूने गन्दे!
सबको बोल, गुरुजी बन्दे!! जय गुरुजी॥
धन्य! धन्य! दिव्यात्मा!
धन्य! गुरुजी! धन्य!
विश्व-कुंज में जल रही!
शिव की ज्योति अनन्य!!
- इति -
डॉ0 महेश ‘दिवाकर' - एक परिचय
नाम ः डॉ0 महेश चन्द्र साहित्यिक नाम ः ‘दिवाकर'
जन्म तिथि ः 25-1-1952
जन्म स्थान ः ग्राम- महलकपुर मॉफी, देहली-राष्ट्रीय राजमार्ग,
पो0 पाकबडा (मुरादाबाद) उ0प्र0, भारत
पिता का नाम ः स्व0 कृपाल सिंह पंवार
माता का नाम ः श्रीमती विद्या देवी पंवार
पत्नी का नाम ः डॉ0 चन्द्रा पंवार, पी-एच0डी0 (हिन्दी)
शिक्षा ः पी-एच․डी․, डी․लिट․(हिन्दी), पी․जी․ डिप्लोमा इन जर्नलिज्म
सम्प्रति ः अध्यक्ष, एसोशिएट प्रोफेसर एवं शोध निदेशक,
उच्च हिन्दी अध्ययन एवं शोध विभाग
गुलाबसिंह हिन्दू (स्नातकोत्त्ार) महाविद्यालय, चाँदपुर-स्याऊ (बिजनौर) उ0प्र0, भारत
लेखन विधाएं ः कविता, नयी कविता, गीत, मुक्तक, कहानी, निबन्ध, रेखाचित्र, संस्मरण, शोध, समीक्षा, सम्पादन, पत्रकारिता, यात्रावृत्त्ा, अनुवाद, साक्षात्कार।
प्रकाशित कृतियाँ ः
(क) मौलिक कृतियाँ ः
(अ) शोध ग्रंथ
1. हिन्दी नयी कहानी का समाजशास्त्रीय अध्ययन (पी-एच0डी0) -1990
2. बीसवीं शती की हिन्दी कहानी का समाज-मनोवैज्ञानिक अध्ययन (डी0लिट्0) -1992
(आ) समीक्षा-ग्रंथ
3. सर्वेश्वर का कवितालोक -1994
4. नवगीतकार डॉ0 ओमप्रकाश सिंह ः संवेदना और शिल्प - 2010
5. साहित्यकार पं0 रमेश मोरोलिया ः व्यक्तित्व और कृतित्व - 2011
(इ) साक्षात्कार संग्रह
6. भोगे हुए पल (बीस साक्षात्कारों का संग्रह)-2005
7. आपकी बात ः आपके साथ (इक्कीस साक्षात्कारों का संग्रह)-2009
(ई) नयी कविता संग्रह
8. अन्याय के विरूद्ध -1997
9. काल भेद -1998
(उ) गीत संग्रह
10. भावना का मन्दिर -1998
11. आस्था के फूल -1999
(ऊ) मुक्तक-गीति संग्रह
12. पथ की अनुभूतियाँ -1997
13. विविधा -2003
14. युवको! सोचो! -2003
15. सूत्रधार है मौन! -2007
16. रंग-रंग के दृश्य -2009
(ओ) खण्ड काव्य
17. वीरबाला कुँवर अजबदे पंवार -1997
18. महासाध्वी अपाला -1998
19. रानी चेन्नम्मा -2010
20. जय गुरुजी! जय शिवजी! - 2011
(औ) यात्रा-वृत्त्ा
21. सौन्दर्य के देश में - 2009
(ख) सहलेखन कृतियाँ ः
1. डॉ0 परमेश्वर गोयल की साहित्य साधना- 2005
2. बाबू बाल मुकुन्द गुप्त ः जीवन और साहित्य- 2007
(ग) सम्पादित अभिनन्दन ग्रंथ ः
1. बाबू सिंह चौहान ः अभिनंदन ग्रंथ ('98)
2. प्रो0 विश्वनाथ शुक्लः एक शिव संकल्प(अभिनंदन ग्रंथ) (2002)
3. गंधर्व सिंह तोमर ‘चाचा' ः अभिनन्दन ग्रंथ (2000)
4. प्रो0 रामप्रकाश गोयल ः अभिनन्दन ग्रंथ (2001)
5. बाबू लक्ष्मण प्रसाद अग्रवाल ः अभिनंदन ग्रंथ (2007)
6. महाकवि अनुराग गौतम ः अभिनन्दन ग्रन्थ
7. प्रो0 हरमहेन्द्र सिंह बेदी ः अभिनंदन ग्रंथ ('09)
8. प्रवासी साहित्यकार सुरेशचन्द्र शुक्ल ‘शरद आलोक' अभिनन्दन ग्रंथ ('09)
(घ) सम्पादित स्मृति ग्रंथ ः
1. स्व0 डॉ0 रामकुमार वर्मा ः स्मृति ग्रंथ ('01)
2. स्व0 कैलाशचन्द्र अग्रवाल ः जीवन और काव्य-सृष्टि ('91)
(ङ) सम्पादित कोश ः
1. रूहेलखण्ड के स्वातंत्रयोत्त्ार प्रमुख साहित्यकार ः संदर्भ कोश ('99)
2. भारत की हिन्दी सेवी प्रमुख संस्थाएँ ः संदर्भ कोश (2000)
3. दोहा संदर्भ कोश (2007)
4. उत्त्ार प्रदेश के साहित्यकार (संदर्भ कोश) (2011)
(च) सम्पादित काव्य संकलन ः
1. यादों के आर-पार ('88)
2. प्रणय गंधा ('90)
3. प्रेरणा के दीप ('92)
4. अतीत की परछाइयाँ (कहानी संकलन)('93)
5. नेह के सरसिज ('94)
6. काव्यधारा ('95)
7. वंदेमातरम् (देशभक्ति की गीति रचनाएँ)('98)
8. नई शती के नाम ('01)
9. हे मातृभूमि भारत! (देशभक्ति की गीति रचनाएँ)('01)
10. आखर-आखर गंध ('02)
11. क्या कह कर पुकारूँ? (भक्ति एवं आध्यात्मिक गीति रचनाएँ)('03)
12. बाल-सुमनों के नाम ('96)
13. समय की शिला पर (दोहा संकलन)('97)
14. आजू-राजू ('98)
15. नन्हें-मुन्नें ('98)
16. भ्रष्टाचार के विरूद्ध (काव्य संकलन) (2010)
(छ) सम्पादित काव्य संकलन (विश्वविद्यालय पाठ्यक्रम में समाहित) ः
1. विद्यापति वाग्विलास ('83) (एम0ए0 प्रथम वर्ष हिन्दी के लिए)
2. विद्यापति सुधा ('85) (एम0ए0 प्रथम वर्ष हिन्दी के लिए)
3. एकांकी संकलन ('90) (बी0ए0 द्वितीय वर्ष हिन्दी के लिए)
(ज) सम्पादित काव्य संकलन (साहित्यकार विशेष)
1. नूतन दोहावली ('94)
2. ओरे साथी! ('06)
(झ) सम्पादित विशिष्ट ग्रंथ
1. तुलसी वांगमय ('89)
2. अभिव्यक्ति ः समाज और वाङ्गमय ('02)
3. हिन्दी पत्रकारिता ः स्वरूप, आयाम और सम्भावना ('06)
4. पर्यावरण और वांगमय ('07)
सम्मान/पुरस्कार ः
1. साहित्य लोक, प्रतापगढ., द्वारा ‘साहित्य श्री' (94)
2. शिक्षा, साहित्य एवं कला विकास समिति, बहराइच द्वारा ‘शिक्षाश्री' (95)
3. काव्य लोक, जमशेदपुर द्वारा ‘विद्याालंकार' (97)
4. शिव संकल्प साहित्य परिषद नर्मदापुरम, होशंगाबाद (म0प्र0) द्वारा ‘काव्यश्री' (सं0 2055)
5. संस्कृति, साहित्यिक संस्था, मुरैना (म0प्र0) द्वारा ‘संस्कृति-सम्मान-97'
6. साहित्यकार परिषद, मुरादाबाद द्वारा ‘साहित्य शिरोमणि सम्मान-99'।
7. विवेक गोयल स्मृति साहित्य पुरस्कार- 1999 (बरेली)।
8. महावीर सेवा संस्थान, प्रतापगढ. द्वारा ‘साहित्य शिरोमणि- 99'।
9. आ0 श्री चन्द्रकविता महाविद्यालय एवं शोध संस्थान, हैदराबाद द्वारा ‘कवि कोकिल सम्मानोपधि-99'
10. श्री साईंदास बालूजा साहित्य कला अकादमी, नयी दिल्ली द्वारा प्रशस्ति-पत्र-सम्मान-2000
11. साहित्य लोक, नाँगल (बिजनौर) द्वारा साहित्य साधना सम्मान-2000
12. दिल्ली साहित्य समाज द्वारा ‘साहित्य गौरव- 2001'
13. साहित्य साधना परिषद, मैनपुरी द्वारा ‘कैलाशोदेवी स्मृति साहित्य सम्मान- 2001'
14. संस्कार भारती उ0प्र0, हापुड. द्वारा ‘स्वर्गीय महेशचन्द्र गुप्त प्रथम स्मृति साहित्य सम्मान- 2001'
15. भारतीय साहित्य परिषद, मुरादाबाद शाखा द्वारा ‘साहित्यकार सम्मान- 2001' महामहिम राज्यपाल, उ0प्र0 प्रो0 विष्णुकान्त शास्त्री के कर-कमलों द्वारा मुरादाबाद में प्रदत्त्ा।
16. प्रकाश समाज सेवा-समिति, उ0प्र0 लखनऊ द्वारा ‘रूहेलखण्ड साहित्यकार सम्मान- 2001' माननीय श्री केशरीनाथ त्रिपाठी, विधानसभा अध्यक्ष, उ0प्र0 के कर-कमलों द्वारा बरेली में प्रदत्त्ा।
17. साहित्य प्रोत्साहन हिन्दी सेवी संस्था, लखनऊ ‘स्व भगवतीचरण वर्मा- स्मृति-सम्मान-2002'
18. बैसवारा हिन्दी शोध संस्थान, रायबरेली द्वारा ‘स्व0 शिवमंगल सिंह ‘सुमन' स्मृति साहित्य-सम्मान-2003'
19. महाकौशल संस्कृति व साहित्य परिषद, मध्यप्रदेश द्वारा स्व0 पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी स्मृति ‘साहित्य शिरोमणी सम्मान-2004'
20. तुलसी पीठ, जबलपुर द्वारा स्व0 सुनृत कुमार वाजपेयी स्मृति स्वरूप ‘तुलसी सम्मान- 2004'
21. कादम्बरी, जबलपुर द्वारा ‘रामेन्द्र तिवारी स्मृति सम्मान - 2004'
22. मानव भारती, हिसार द्वारा ‘साहित्य शिरोमणि सम्मान- 2006'
23. लायनेस क्लब, मुरादाबाद द्वारा हिन्दी दिवस पर ‘शिक्षक एवं साहित्यकार सम्मान- 2007'
24. परमार्थ साहित्यिक संस्था, मुरादाबाद द्वारा ‘शकुन्तला प्रकाश गुप्ता स्मृति साहित्य सम्मान-2008'
25. अहिन्दी हिन्दी भाषी लेखक संघ, दिल्ली द्वारा ‘विशिष्ट सम्मान-2008'
26. भारतीय-नार्वेजीय अन्तर्राष्ट्रीय सांस्कृतिक फोरम (नॉर्वे) द्वारा ‘विशिष्ट साहित्य सम्मान-2008'
27. हिन्दी साहित्य एवं कला परिषद्, अमृतसर (पंजाब) द्वारा ‘विशिष्ट सम्मान-2009'
28. राष्ट्रीय हिन्दी परिषद, मेरठ द्वारा ‘हिन्दी रत्न सम्मान-2009'
29. अखिल भा0राष्ट्र भाषा विकास संगठन, गाजियाबाद द्वारा ‘वरिष्ठ राष्ट्रीय प्रतिभा सम्मान-2009'
अन्य साहित्यिक उपलब्धियाँ ः
v संस्थापक अध्यक्ष ः अखिल भारतीय साहित्य कला मंच
v पूर्व संयुक्त सचिव - हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद (राज्यपाल उ0प्र0 द्वारा नामित)(13 दिसम्बर, 2001 से 13 दिसम्बर, 2004)
v तीन दर्जन से अधिक शोध छात्रों को पी-एच0डी0 उपाधि निर्देशन।
v डॉ0 महेश ‘दिवाकर' ः सृजन के विविध आयाम (400 पृष्ठ) - 1995
v डॉ0 महेश ‘दिवाकर' ः सृजन के बीच (200 पृष्ठ) - 1999
v डॉ0 महेश ‘दिवाकर' ः समीक्षा के निकष पर (600 पृष्ठ) - 2011
v डॉ0 महेश ‘दिवाकर' ः व्यक्ति और रचनाकार शीर्षक पर लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ से एम0 फिल0 लघु शोध प्रबंध- 2003
v डॉ0 महेश ‘दिवाकर' का जीवन व साहित्य शीर्षक पर कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय से एम0फिल0 लघु शोध प्रबंध- 2003
v डॉ0 महेश ‘दिवाकर' की प्रकाशित कृतियों का समीक्षात्मक अध्ययन शीर्षक पर एम0 जे0 पी0 रूहेलखण्ड विश्वविद्यालय, बरेली से एम0ए0 लघु प्रबंध।
v डॉ0 महेश ‘दिवाकर' के काव्य में राष्ट्रीय चेतना शीर्षक पर एम0 जे0 पी0 रूहेलखण्ड विश्वविद्यालय, बरेली से एम0 ए0 लघु शोध प्रबंध
v डॉ0 महेश ‘दिवाकर' के काव्य में विविध स्वर शीर्षक पर एम0 जे0 पी0 रूहेलखण्ड विश्वविद्यालय, बरेली से एम0 ए0 लघु शोध प्रबंध
v डॉ0 महेश ‘दिवाकर' ः संवेदना व शिल्प शीर्षक पर एम0 जे0 पी0 रूहेलखण्ड विश्वविद्यालय, बरेली से एम0 ए0 लघु शोध प्रबंध
v डॉ0 महेश ‘दिवाकर' ः की साहित्य साधना शीर्षक पर कामराज मदुरै विश्वविद्यालय से एम0फिल0 - 2007
v डॉ0 महेश ‘दिवाकर' का साहित्य ः संवेदना और शिल्प शीर्षक पर रूहेलखण्ड विश्वविद्यालय में पी-एच0डी0 हेतु शोध उपाधि प्रदत्त्ा (2010)
v मुरादाबाद जनपद के साहित्यकारों के सन्दर्भ में डा0 महेश ‘दिवाकर' के साहित्य का अध्ययन शीर्षक पर रूहेलखण्ड विश्वविद्यालय में पी-एच0डी0 हेतु शोध उपाधि प्रदत्त्ा (2009)।
v वीरबाला कुँवर अजबदे पंवार (खण्डकाव्य) पर गुरुनानकदेव विश्वविद्यालय, अमृतसर (पंजाब) से एम0फिल-2008
v अकाशवाणी से समय -समय पर अनेक रचनाएँ प्रसारित।
v राष्ट्रीय स्तर पर विश्वविद्यालयाें, महाविद्यालयों और शिक्षण संस्थानाें में आयोजित अनेकशः संगोष्ठियों और सेमिनारों में विविध विषयों पर व्याखान।
v देश-विदेश की अनेकशः पत्र-पत्रिकाआें और काव्य संकलनों में समय-2 पर विविध विधाशः रचनाएँ प्रकाशित।
v नार्वे और स्वीडन की सांस्कृतिक एवं साहित्यिक यात्रा- 5 दिसम्बर 2008 से 16 दिसम्बर 2008 तक।
सम्पर्क ः
डॉ0 महेश ‘दिवाकर', डी0लिट्0
‘सरस्वती भवन', मिलन विहार, दिल्ली रोड,
मुरादाबाद (उ0प्र0) पिन - 244001
E-mail: mcdiwakar@gmail.com
डॉ दिवाकर ख्यातिलब्ध रचनाकार हैं, आपने उनके चरित काव्य को प्रकाशित कर सराहनीय कार्य किया है. मेरी बधाई स्वीकारें.
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