रत्‍नकुमार सांभरिया की कहानी - खेत

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बूढ़ा के लिए खेत था। सोलह आना सच यह था कि वह दो सौ वर्ग गज का प्‍लाट था , उसके 25-25 वर्ग गज के आठ क्‍यार बनाये हुये थे। क्‍यार-क्‍यार न्...

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बूढ़ा के लिए खेत था। सोलह आना सच यह था कि वह दो सौ वर्ग गज का प्‍लाट था, उसके 25-25 वर्ग गज के आठ क्‍यार बनाये हुये थे। क्‍यार-क्‍यार न्‍यारी फसल उगी थी। चना, जौ, गेहूं, गजरा, पालक, धनिया मैथी। आठवें क्‍यार में बूढ़ा की झोपड़ी थी।

प्‍लाट के तीनों ओर बिल्‍ड़िंगें बनी हुई थीं। सामने तीस फीट की सड़क थी। हवा पानी दोनों इसी राह आते थे, बूढ़ा के लिए। गेट के नाम पर बबूल की छाजन का फाटक था। आड़, चाहे बाड़ हो।

प्‍लाट के आये दिन खरीददार आते। बढ़-चढ़कर मोल भाव करते। बूढ़ा से जिदयाते-‘‘बाबा, अकेले जीव हो। बावली बात छोड़ो। दाम बोलो। दाम पकड़ो।‘‘

बूढ़ा खुद्‌दार। बूढ़ा जज्‍बाती। बूढ़ा खानदानी। बेलाग कहता-‘‘शरीर का सौदा साई, होवै छै कांई।''

बूढ़ा 74 वर्ष की अपनी अवस्‍था को गिनता गामता तक न था। वह अपने क्‍यारों में निलाई करता। खोदी करता। पानी बलाता। खुद अपनी रोटी पानी करता। रात हुई। झोंपड़ी में बिछी खाट पर लेट जाता। रात गहराने लगती। बूढ़ा अतीत की स्‍मृतियों में गुम होने लगता। अतीत और आज, दो धु्रवों की तरह थे, आज। आकाश, चांद-सितारों को नापता बूढ़ा अपनी झोल खाट पर गोल हुआ सो जाता, आसमान में परवाज भरने वाला पंछी अपने घोंसले में पंख समेट कर बैठता है।

एक दिन बूढ़ा उठा। शरीर अकड़ा था। बूढ़ा बुखार जकड़ा था। लाइन के दूसरी ओर बूढ़ा की दादालाई थी। वहाँ खबर कराई गई। बूढ़ा के कुटुम्‍ब के लोग आये। बूढ़ा की सेवा सुश्रूषा की। दवा दारु हुई।

बूढ़ा को सीख दी गई-''बाबा, बीमारी बुढ़ापा की बैरन होती है। सांस रोकती है। सांस ही शरीर की गाड़ी है। सांस थमी, देह माटी हुई। तुम्‍हारे बेटे को फोन कर देते हैं, साथ चले जाना उसके।''

बूढ़ा कुहनी तक हाथ जोड़, मुआफी सी मांगते ‘‘ना'' कह देता-‘‘बूढ़ा और बालक की चाम नाजुक हौवे छै। हवा, पानी जल्‍दी लाग जावै। कभी साज, कभीं नासाज। किसट तो माकी काया भोगेली।''

एक हवा उड़ी। हवा गली-गली दस्‍तक देती गई कि बूढ़ा का जी उठ खड़ा हुआ है। वह प्‍लाट बेचकर अपने बेटे के पास जाएगा। देखें किसके जोग हैं।

हवा में रंगत आ गई। बीमार बूढ़ा के पास आने वालों का तांता लगा रहता; मरणासन्‍न कीट को कीरियां घेर लेती हैं। जिनका कोसों खोज नहीं था, वे तन के लत्त्ो से बूढ़ा के करीबी हो गये थे। खैरियत जानना जरिया रहा, साध बूढ़ा का खेत थी। बगुला इधर उधर गर्दन घुमाए, टकटकी मछली पर होती है।

दवा का असर होता गया। बूढ़ा बीमारी से उबरता गया।

बूढ़ा ने बड़ों का सुना गुणा। खाट पर अच्‍छा भला बीमार हो जाता है। डोलते फिरते से पांव मोकले होते हैं। देह खुलती है।

उसने चादर की बुक्‍कल मारी। साफा बांधा। जूतियां पहनीं। बूढ़ा ने लाठी नहीं पकड़ी थी, अभी। लाठी निकाल ली थी, झोंपड़ी से। शरीर कांपता-हांफता है। सरसरी है। माथा घूमता है। लाठी सहारा देगी।

बूढ़ा ने फाटक भिड़ाया और सड़क पर उतर गया था। भरकम सा एक हाथ बूढ़ा के कंधे पर गिरा। बूढ़ा चौंका। बूढ़ा ठिठका। छोहभरा बूढ़ा पीछे मुड़ा। चौथी गली में रहने वाला पंजाबी था।

उसकी वय पचपन से टपी न होगी। सिर, भौंहे और हाथ पैर सफेदी उतर आई थी। बूढ़ा के मूंछों ढके होंठ बुदबुदायें कि वह खुद बोल पड़ा था-‘‘बुढ्‌ढे़ बाबा पवनदास पंजाबी हाँ असी। चौथी गली विच रहंदे हाँ, उत्‍थो ही दुकान हन, साढी।‘‘

चप्‍पा-चप्‍पा बूढ़ा के पांव चस्‍पा था। किशोर केरसिंह, आज जग की जुबान बूढ़ा' है। वह और उसके जोड़ीदार कबड्‌डी खेला करते थे, वहां।

‘'बोल कांई छै?'' बूढ़ा के कंठ तुर्शी थी।

‘‘पलाट दा कि मांगदे हाँ, तुसी?''

‘‘घर का गूदड़ा।''

‘‘हुं। दसो-दसो।''

बीमारी में क्रोध, बारूद में तीली। बूढ़ा ने संयम बरता- ‘‘कह दी ना ना' बेंचू।'' बूढ़ा की ना' में दुत्‍कार भी थी, फटकार भी थी।

बूढ़ा का जी आगे तक टहल कर लौटने का था। कॉलोनी में कहाँ क्‍या नया हुआ है, देखने की उसकी जिज्ञासा थी। वह अपनी खाट पर आ लेटा था।

मुट्‌ठी में दबी रेत का कण-कण निकालता है। खूड़-खूड़ हाथ से निकल जाने की व्‍यथा बूढ़े को मथने लगी। बूढ़ा की खतौनी आठ खेत थे। सौ बीघा जमीन थी, पक्‍की। तीन बरस अकाल पड़ा। बीस बीघा जमीन बेच दी, चारे के मोल। खुद खाया। पशुओं को खिलाया।

बेटे की कोचिंग। बेटे का लगातार बाहर जाकर पढ़ना, बेटे का यादगार ब्‍याह। पत्‍नी का झेरे में गिर कर मरना। पुलिस का बाज बन जाना। पत्‍नी का मौसर। अड़ी हुई, जमीन निकाल दी, मानो जमीन नहीं, गुल्‍लक के पैसे हो।

अन्‍तर्वेदना लहरों की हिलौरों सी उठती। बूढ़ा खुद को सांत्‍वना देता। अपने पूर्वजों को मानो ढांढस बंधाता-‘‘सब कुछ बेच कर भी कुछ गंवाया नहीं है मैंने। अपने पास जो टुकड़ा है, उसका रोकड़ा, उस सगली जमीन से घना है, आज। बूढ़ा आकाश में खिले तारों की तरह खिलखिलाता उसके खेतों पर शहर बस रहा है।

एक घटना ने उसे उद्‌वेलित किया।

एक खेत बंजड़ पड़ा था। झाड़ झंखाड़ उगा था। कीकर, बबूल खड़ी थी। लोमड़, सियार, भेड़िया जैसे डरावने जानवर खोंखियाया हुंकियाया करते थे। आज एक बड़ा स्‍कूल खड़ा हो गया है वहाँ। सेठ, साहूकार रइसों, शहजादों के बालक मोटर में बैठ कर पढ़ने आते हैं, दूर-दूर से।

स्‍कूल टकटकाता बूढ़ा अवचेतन में चला गया था। वह भीतर जाकर उस खोह को देखना चाहता था, जहां भेड़िये के मुंह पर लाठी मारकर उसने लहूलुहान बकरी को छुड़ाया था।

जुनूनी बूढ़ा आगे बढ़ा। गेट पर बैठी चपड़ासन ने डण्‍डा ठठकार दिया था-‘‘ताऊ किस जागा? छोरा छोरी पढै़ सै के थारा इस सकूल में?''

बूढ़ा का अंतस तनतनाया-‘‘कह दूं। मुंह को लगाम दे बाई। किसका खेत है, बैठी चाकरी करती है तू।''

बूढ़ा का मन कभी उन खेतों में, तो कभी उन पर उगे कंकरीट के जंगल में विचरण कर रहा था कि प्‍लास्‍टिक के पाइप से पानी कूदने लगा था, गल्‌ल गल्‌ल। फुर्र फुर्र। गल्‌ल गल्‌ल। हवा और पानी भरा पाइप कुचले सांप की तरह छटपटा रहा था।

तबियत बहाल होते ही बालक का मन खेल खिलौनों में लग जाता है, बूढ़ा अपने क्‍यार में जा खड़ा हुआ था। कुरते की बांह संगवाये था, कुहनी तक। धोती के खूंट अडूंसे थे, घुटनों तक। रूमाल उतार कर एक ओर रखा था। हाथ में खुरपी थी। नंगे पैर थे, सिंचते खेत जूती चप्‍पलें नहीं चलतीं।

‘‘बाबा। बूढ़ा बाबा। बाबा साहब। ओ बाबा।''

बूढ़ा के उम्र पके कान ऊँचा सुनते थे। बीमारी के बाद और क्षीण हो गये थे।

बूढ़ा के भोथरा कानों से शब्‍द टकराये। उसने खुरपी वाले हाथ को जमीन में रोप सा दिया था, जैसे। दूसरा हाथ गोड़े पर रखा और उठ खड़ा हुआ, बूढ़ा बैल थान से उठा हो, थूथन जमीन पर टिका कर। देखा। चश्‍मा के भीतर आंखें छपछपाईं। सधाईं। बूढ़ा को गुस्‍सा आया। उसकी खाट पर आ बैठा कौन बेशऊर है।

उसने चश्‍मा की दोनों डण्‍डी कानों पर ठीक की। निगाह बांधी। खाट पर बैठे शक्‍स को पहचान लिया था। वही वकील जी थे, जो बूढ़ा की बीमारी के टेम आये थे बूढ़ा की खाट पर बैठकर उसका बुखार देखा था। आत्‍मीयता से बतियाते थे। बाप का नाम जाना था। खेत की नाप पूछी थी।

वकील ने बूढ़ा की ओर देखा। उसके गीले पैर जमीन छपते आये थे। खुरपी वाले हाथ से रेत मिट्‌टी टपक रहे थे। उन्‍होंने बूढ़ा को नमस्‍कार कर पूछा-‘‘बाबा अब तबियत कैसी है, आपकी? हिदायत दी-‘‘पानी में मत रहो, आराम करो।''

झबरीली मूंछों के भीतर बूढ़ा मुस्‍कराया-‘‘जीते जी आराम कांई वकील जी।'' बूढ़ा के नेत्रों में विभोर उतर आया था।

बूढ़ा यानि केरसिंह मोटियार था। भौंरे के रंग जैसी स्‍याह मूंछों के ताव चढ़े छोर बैलों के सीगों की तरह आसमान देखा करते, उमरदराज भैंसे के माथे पर लुढ़के सींगों की भांति उसकी धोली मूंछें ठोड़ी पर पड़ी थीं। बूढ़ा का गीली मिट्‌टी और पानी भरा हाथ मूंछों पर आ बैठी मक्‍खी को उड़ाने लगा था। गंदलाई एक बूंद मूंछों के बालों से रिपसती छोर पर थिर गई थी। वकील हंसे।

उन्‍होनें ने बूढ़ा को विश्‍वास में लिया -‘‘बाबा साहब, साठ फीट के रोड़ पर जो ट्रांसफार्मर है ना, उसके दो प्‍लाट आगे इमली का पेड़़ है एक, उसी से दूसरा प्‍लाट है, मेरा।''

दूसरो या तीसरो?''

‘‘तीसरा नहीं दूसरा बाबा।''

‘‘जको आगो अबार बनो छै, अर बुच लाग्‍योड़ी छै?''

‘‘तांत्रिक हो बाबा।''

बूढ़ा बोला-‘‘वकील जी वैण्‍डे हमने अपनो बैल दबायो छो, बीस बोरी नमक मेल।‘‘ बूढ़ा के कंपकंपाते होंठों के साथ मूंछें भी कांप गई थीं।

वकील का जी सा निकल गया था। मुंह खुला का खुला रह गया था, बया सा। अण्‍डर ग्राउण्‍ड खोदते पशु कंकाल निकला था, वहां।

बूढ़ा ने बानगी भर बताया था। इमली के पेड़ की बात अंदर रख ली थी। कहता, वह पेड़ उसने अपने हाथों लगाया था, ऐन आजादी के दिन। वहां झाड़ियां थीं। बोर थे। बुरट थे। निकलो, कपड़ों पर चिपक जाते थे, बुरी तरह। खेत की डोल डोल निकलते थे।

बूढ़ा को गुमदाया देख, वकील ने यकीन दिलाया-''बाबा साहब, वह आदमी आला काला नहीं है। मैं बीच में हूं ही। चिंता मत करो।''

अर्द्ध बधिर बूढ़ा हुं हाँकर अपने क्‍यारों की ओर बढ़ गया था, नल चला जाएगा।

वकील का स्‍कूटर फाटक के बाहर बस्‍ता बांधे खड़ा था। एक गाय मुंह उठाती फाइलों की ओर बढ़ गई थी। उधर दौड़ते वकील ने बूढ़ा की ओर हाथ हिलाया। जवाब में बूढ़ा ने भी हाथ हिला दिया था। वकील गदगद हुए-‘‘बाखड़ भैंस देर से पोसाती है, बूढ़ी अकल विलम्‍ब से बावड़ी।''

बूढ़ा बीमार हुआ, उस दिन से साग सब्‍जी बेचने नहीं गया था। पालक, मैथी, चना का साग बड़ा हो रहा था, क्‍यारों में। बूढ़ा ने तोड़ चूंट सागपात का मिला' कर लिया था, पोटली भर।

बूढ़ा सौ फीट सड़क के जिस नुक्‍कड़ पर सब्‍जी लेकर बैठा करता, वह बरकत की ठोर थी, जैसे। यहां सब्‍जी की पोटली उतारते ही उसके जेहन में पानी भरे बादलों की भांति कुछ घुमड़ता। कभी दो कुआं की सब्‍जी, भेली (इकट्‌ठा) होती थी, यहाँ। बैलगाड़ी सब्‍जी मण्‍डी नहीं जाती थी। चिल्‍लपोह, भीड़-भड़ाका, बैल चमकते चौंकते थे। तांगा ले जाया करते थे।

एक जना बूढ़ा के सामने आ खड़ा हुआ था। बूढ़ा ने पोटली खोलकर साग में हाथ मारा-‘‘आओ बाबू साब ताजा साग छै, अपना खेत को। चार रुपये पाव देऊंलो।''

लंबे तगड़े बदन पर ढ़ीला ढंकल सा कुरता पाजामा पहने 35 के उस आदमी की पुतलियों में कुछ और ही दिपदिपा रहा था। हल्‍की सी खंखारी ली - ''बूढ़ा बाबा, अपना प्‍लाट का भाव बताओ थै, तो।''

बोनी बट्‌टा हुआ नहीं कि...। बूढ़ा धधका। बूढ़ा चमका। बूढ़ा ने होंठ से जीभ काटी-‘‘साग की बात कर बाबू, पिलाट विलाट ना बेचूं, मैं।''

बूढ़ा एक ग्राहक को साग तोल रहा था। उचंती सा एक दलाल आया। बैठा। उसने आव देखा न ताव बैग की चैन खींची। सौ-सौ के नोटों की तीन गडि्‌डयां बूढ़ा के साग पर बिछा दी थीं। पूरे तीस हजार थे। उसकी सूझ थी, प्‍लाट या मकान बेचने वाले के सामने रकम बिछा दो। नोटों की गरमी जमे घी की तरह पिघल जाएगा वह। गरुर से कहने लगा-‘‘बूढ़ा बाबा, पाव-पाव कांई बेचो। पिलाट का दाम बोलो। रोकड़ा लो।''

बूढ़ा की नस नस में ज्‍वाला उतरी थी। रौआं रौआं उठ खड़ा हुआ था। मूंछों के बाल हुंचकने लगे थे। बूढ़ा को लगा जैसे किसी ने उसके भीतरले (हृदय) को खूनमखून कर दिया है, सरेराह।

चीते में भी इतनी चपलता ना हो। कट्‌टे में पड़ा चाकू निकाल कर बूढ़ा झट खड़ा हो गया था। उसने दलाल के सीने पर चाकू रख दिया था-‘‘बोल, थारा कालजा को कांई लाग्‍यो?''

सिंह शावक सा कुलांचे भरता दलाल का उत्‍साह, चूहे जैसे भय में परिणित हो गया था। उसकी आंखें बाहर निकल आई थीं। गिरीं, अब गिरीं। चेहरा फक्‍क पड़ गया था। दलाल अपने पैसे समेट कर भीगी बिल्‍ली सा चला गया था। झुंझल बूढ़ा की झुर्रियों में झूलती रही थी। तमाशबीन दांतों तने उंगली दबाये थे, बूढा कि शोला।

बूढा का मन उचट गया था। हृदय चोट खाई गेंद की नाई उछल-बैठ रहा था। काला रंग का एक सांड खड़ा हुआ था। बुढ़ऊ पर,, जिजीविषा लिए। बूढ़ा उठा और उसके सामने साग की धोती झड़का दी थी।

सड़क के दोनों किनारे मंजिल पर मंजिल बनती जाती थी। दुकानें व शापिंग सेंटर खुले थे। बूढ़ा अपना धोती कट्‌टा लिए उन्‍हें अपलक निहारता चला जाता था। आह भरता, उसी के खेत हैं।

मोड़ था। एक महिला बूढ़ा के सामने घिर गई थी।

नाराजगी भरे अंदाज में वह बूढ़ा से बोली-‘‘बाबा, म्‍हारा पिसां कांकरा था कांईं।‘‘ दूसरां ने पलाट बेच दियो।''

बूढ़ा छोह से बिगड़ा-‘‘कै ससुरा ने बेच दियो पिलाट? कै साला ने खरीद लियो‘‘ बता तो।

‘‘मरद मरण नै मर जाएगो, मन की थाह ना देगो।''

वह साड़ी का पल्‍लू सिर पर लेती फुच्‍च फुच्‍च थूक फुचकती आगे बढ़ गई थी।

बूढ़ा अपने खेत से बाहर निकलता। ‘‘खेत बिकाऊ नहीं हैं।'' अपनी अनगढ़ लिखावट में कागज या गत्त्ो पर लिख उसे बंद फाटक पर टांक देता। लौटता, कागज या गत्ता नदारद मिलता। हवा ले जाती। गाय मुंह भर जाती। कचरा बीनने वाले झटक ले जाते।

बुढ़भस को एक नई सूझी। उसने गेट पर तीन चार तसला रेत डाल दिया था। बूढ़ा रेत को अपनी हथेली से एकसार करता। उंगली से गहरी लकीर खींचता और ‘‘खेत बिकाऊ नहीं है।'' मांड देता, टेढ़ा मेढ़ा।

बूढ़ा वापस आता। उसका तन-बदन जल उठता। वह इबारत भांति-भांति के खोजों से रौंदी मिलती।

बूढ़ा अपने खेत के सामने ठिठक गया था। कलेजा धक्‌ रह गया था। सांसें कपाल जा लगी थीं। फाटक खुला था। पुलिस की गाड़ी बाहर खड़ी थी। बड़े-बड़े खोज अंदर की ओर थे। खेत की नाप जोख हो रही थी। डी.वाई.एस.पी. खुद फीता पकड़े थे।

खातेदार बूढ़ा हो या बालक, उसमें मालिकाना अहम्‌ होता है। बूढ़ा ने बाट-तराजू का कट्‌टा नीचे पटका। धोती खाट पर फेंकी। बूढ़ा बंदर की फुर्ती लिए लपका और पुलिस अफसर के हाथ से फीता झटक लिया था-‘‘मरां को माल छै कांई, फीतो डल रहो छै?''

पुलिस अफसर खड़ा रह गया था, सट्‌ट। तैशभरी आंखें बताईं-‘‘एडवांस नहीं लिया, तुमने?''

‘‘कै ससुरा ने लियो एडवांस? कै साला ने करो कागज पे गूंठो?'' बूढ़ा ने उसांस छोड़ी।

उन्‍होंने स्‍टाम्‍प पेपर की फोटो कापी निकाल कर पूछा-‘‘तुम्‍हारा नाम केरसिंह सैनी है?''

‘‘हुं।''

वल्‍द भगवानाराम?'

‘‘हुं।''

उम्र 74 वर्ष?''

‘‘हुं।''

प्‍लाट नं. 53?''

‘‘हुं।''

''साइज दो सौ वर्ग गज?''

‘‘हुं।''

‘‘हुं-हुं-हुं। बाबा साहब, बूढ़ों पर यकीन करना धर्म मानते हैं। आप हैं कि पांच हजार एडवांस लेकर गिरगिट हो गये।''

‘‘कांईं ससुरा ने पाई भी ली, खट्‌टाराम की सों। ‘‘सच्‍चाई बूढ़े की आंखों में नमी के रूप में उतरी थी।

गेंद पानी में डुबाओ, उछल कर ऊपर आती है। पुलिस अफसर का क्षोभ दबाये नहीं दबता था। उनका मन हुआ था। टोकरे की खपच्‍चियों जैसी पसलियों के ढांचे इस डोकरे को गाड़ी में पटक कर ले जाए और भांग उगाने का केस बनाकर इसकी बुढ़ौती बिगाड़ दे। चवन्‍नी की चमक में चाकर का चेहरा या उसके हुक्‍काम था। बूढ़ा के अफसर बेटे का ख्‍याल कर उन्‍होंने अपना फीता समेट लिया था।

बूढ़ा ने अपनी नम आंखें पोंछी। फाटक को बंद करते हुए अपने बेटे को दाद दी-‘‘मेरो बेटो खट्‌टाराम बड़ो अफसर छै। फोन माले धरती धूजे। ना तो दो पैरां का जानवर मुनै मोस मीस कदी का खेत डकार जाता।

पुलिस अफसर अपनी गाड़ी के पास आकर खड़े हो गये थे। वे वकील को बुलाकर बूढ़ा से रू-ब-रू होना चाहते थे, बयाना के बाद भी मूकर क्‍यों? दफ्‍तर से उनका मोबाइल आ गया था। चलो, बाद में बात करते हैं, कसाई का माल पाड़ा खाने से रहा।

जग जवर कर रहा है बूढ़ा का सिर घूम रहा था। धोंकनी बढ़ गई थी। मोटियार केरसिंह कभी बीस फीट फौरा कूद जाता था, बूढऊ डग-डग, झोंपड़ी तक पहुंचा। बल्‍ली पकड़ ली थी। शरीर में रीढ़ की हड्‌डी की तरह छान को रोके खड़ी शीशम की यह बल्‍ली बूढ़ा की हमउम्र थी। किसान अपने खेत खानाबदोश हो जाया करता है। जहां फसल उगाई, झोंपडी डाल ली। झोंपड़ी किसानी की निशानी। झोपड़ी बूढ़ा का आशियाना। बल्‍ली हमसफर। बल्‍ली पर रखी झानें, शरीर से पुराने कपड़ों की तरह उतरती रहीं। बल्‍ली वही रही।

सांस जुड़ी कि बूढ़ा खाट पर बैठ गया था। बिस्‍तर तले कागज जैसा कुरकुराया। बूढ़ा ने बिस्‍तर तहा कर देखा। हाथ लिखा दस रुपये का स्‍टाम्‍प था। नीचे दो दस्‍तखत थे। मजमून नोटरी पब्‍लिक से सत्‍यापित था। बूढ़ा को डंक सा लगा।

कॉलोनी बूढा को जिंदादिल कहती। बूढ़ा खुद को बड़ा हेकड़ मानता था। उसकी डरी सहमी बूढ़ी आंखें कागज नहीं पढ़ पा रही थीं। बिंब बनता कि शब्‍द फिसल जाते, मानो शब्‍द नहीं पारा हो, न चुटकी में, न मुट्‌ठी में।

विपदा की घड़ी, साहस संबल। चश्‍मा की डण्‍डी पकड़े बूढ़ा कागज पर लिखा पढ़ गया था, शब्‍द-शब्‍द।

राजफाश।

उसका हाथ खाट पर रखी प्‍लास्‍टिक की थैली पर गया। कागज पर पांच हजार मंडे थे, वही थे। बूढ़ा को पसीना छूटा।

आक्रोश, भर्त्‍सना और धिक्‍कार से बूढ़ा की गर्दन हिलती रही।

डोकरा हूं, न। अकेला हूं, न। दफन कर दो, बिन कफन।'

वकील का लंबोतर चेहरा बाघ के मुंह सा भयानक और खाऊं लगा, बूढ़ा को। बीमारी के टेम, वकील ने उसके पेट में घुसकर बातें पूछी थी। खेत में खडे़ पुलिस अफसर ने तस्‍दीक कर दी थी। बूढ़ा की आंखों में धरती आसमान घूमने लगे थे।

बूढ़ा झटके से उठा। उसने रुपये और कागज धोती-बंध में बांधे। साफा पहना। लाठी ली। लाठी पर बूढ़ा की मुटि्‌ठयां कसती गई थीं।

सांझ उतर रही थी। दीया बाती का वक्‍त होने को था। आग का भभूका सा बूढ़ा खेत ना बेचूं, खेत ना बेंचू' बर्राता वकील के घर के सामने जाकर रूका। उसने घंटी के बटन पर उंगली दबाई, घंटी नहीं, टेटुंआ हो।

घंटी कुकडूं कू,कुकडूं-कू,कुकडूं-कूं बोली। झबर वालों वाला एक कुत्ता लपक कर आया। वह बूूढ़ा को भूंकता गेट नोंचने लगा था। बूढ़ा ने ठोरा मारा। कुत्ता डर कर दीवार के साथ जा लगा था।

लुंगी बांधे। कुरता गर्दन में डालते हुए वकील बाहर निकले। बूढा को देख बाग-बाग हुए। वकील की अकल। अक्‍खड़ बूढ़ा खुद गेट पर है।

वकील ने एक सुखद आह ली-‘‘वकालत तो यूं ही टुच्‍च-टुच्‍च है। धंधा प्‍लाटों की दलाली। दो थोक पचास हजार आएंगे।‘‘

गेट खोलते हुए वकील बूढ़ा से मुखातिब हुए-‘‘बाबा साहब, स्‍टाम्‍प पर निशान लगाया था, वहां दस्‍तखत कर दिये न, आपने?''

बूढ़ा ने अडूंस खोली। स्‍टांप की चिंदी-चिंदी कर वकील पर फेंकी दीं। रूपये की थैली सामने पटकी।

उसने गेट पर लाठी ठकठकाई- ‘‘वकील छौं ना। केरसिंह पागल कोनी, कालजो बेच दे अपणों।‘‘

बूढ़ा लाठी उठाये, वकील ने गेट बन्‍द कर लिया था।

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रचनाकार परिचय:

रत्‍नकुमार सांभरिया

जन्‍म - 06.01.1956 (छः जनवरी, सन्‌ उन्‍नीस सौ छप्‍पन)

गाँव - भाड़ावास, जिला - रेवाड़ी (हरियाणा) पिछले 30 वर्षों से राजस्‍थान में।

शिक्षा - एम.ए.बी.एड., बी.जे.एम.सी. (पत्रकारिता में डिप्‍लोमा)

कृतियां - समाज की नाक - एकांकी संग्रह

बांग और अन्‍य लघुकथाएँ - लघुकथा संग्रह

हुकम की दुग्‍गी - कहानी संग्रह

काल तथा अन्‍य कहानियाँ - कहानी संग्रह

खेत तथा अन्‍य कहानियाँ- कहानी संग्रह

दलित समाज की कहानियाँ - कहानी संग्रह

प्रतिनिधि लघुकथा शतक - लघुकथा संग्रह

मुंशी प्रेमचन्‍द और दलित समाज - आलोचना

डॉ. अम्‍बेडकर ः एक प्रेरक जीवन - संपादन

सृजन - लगभग 250 कहानियाँ, लघुकथाएँ,

पुस्‍तक समीक्षाएँ और लेख प्रकाशित।

‘‘मै जीती'' कहानी पर टेलीफिल्‍म ।

कहानियों एवं लघुकथाओं का

रेडियो नाट्‌य रूपान्‍तर प्रसारित।

शोधकार्य- कहानियों एवं लघुकथाओं पर विभिन्‍न

विश्‍वविद्यालयों से 12 शोधार्थी शोधरत

सम्‍मान - नवज्‍योति कथा सम्‍मान, ‘‘आखेट'' कहानी पर।

- सहारा समय कथा चयन प्रतियोगिता-

2006 में पुरस्‍कृत, ‘‘चपड़ासन'' कहानी

के लिए उपराष्‍ट्रपति द्वारा सम्‍मानित।

- कथादेश अखिल भारतीय हिन्‍दी कहानी

प्रतियोगिता का प्रथम पुरस्‍कार-

‘‘बिपर सूदर एक कीने'' कहानी पर

- राजस्‍थान पत्रिका सृजनात्‍मक

पुरस्‍कार-2007 ‘‘खेत'' कहानी पर

संप्रति - राजस्‍थान सूचना एवं जनसम्‍पर्क सेवा के

वरिष्‍ठ अधिकारी, सहायक निदेशक (प्रचार)

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संपर्क - भाड़ावास हाउस, सी-137, महेश नगर,

जयपुर-302015,

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: रत्‍नकुमार सांभरिया की कहानी - खेत
रत्‍नकुमार सांभरिया की कहानी - खेत
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