अपना सुख बहुत बुरा हुआ वो चला गया अच्छा था बेचारा सब का भला चाहता था वो बड़ा दुख हो रहा है उसके जाने का दिल भर आता है जब-जब याद ...
अपना सुख
बहुत बुरा हुआ
वो चला गया
अच्छा था बेचारा
सब का भला चाहता था वो
बड़ा दुख हो रहा है
उसके जाने का
दिल भर आता है
जब-जब याद आती है
उसकी बातें
भिड़ जाता था परिवार से
मेरी खातिर
रूके नहीं रूकती
अश्रुधारा
उसके दिये सुखों को
याद करते
महीने की पहली को
मोटी तन्ख्वाह के साथ
सब के लिए तोहफे
और मेरे लिए तो
खास सबसे मंहगा
तोहफा
यूं तो पिछले ही वर्ष
दीनानाथ का भी
इन्तकाल हुआ था
मगर
किसी की आँख नम न हुई थी
मन ही मन सही
सबने राहत पाई थी
और फिर वो देता भी क्या था
गालियों के सिवाय
अनाज का दुश्मन
किसी को महसूस
भी न हुआ कि
परिवार का एक सदस्य
कम हो गया है।
लेकिन अबके तो
महीना हो गया है
कोई किसी से
बात ही नहीं करता
सब गुमसुम से रहते हैं
कुछ दिन को ही सही
दुख तो हो रहा है
सभी को
उसके जाने का
या अपने सुख के
खो जाने का।
---
चोर
बहुत बताया और समझाया
हमको धर्म ग्रन्थों ने
मात-पिता, पीर - पैगम्बर
गुरूओं ने और संतों ने
लेकिन हम न तब माने
न अब माने है
न मानेंगे
करते थे, करते हैं
और करते रहेंगे चोरी
क्योंकि हम सब चोर है
कोई बड़ा चोर कोई छोटा चोर
कोई पतला चोर, कोई मोटा
कोई धन चोर जन चोर
कोई मन चोर कोई तन चोर
कोई वन चोर कोई फन चोर
कोई नरम चोर कोई सख्त चोर
कोई तख्त चोर कोई वख्त चोर
कोई यहां चोर, कोई वहां चोर
कोई जहां चोर, कोई तहां चोर
कोई जाने कहां कहां चोर
कोई राम चोर, कोई नाम चोर
कोई काम चोर, कोई जाम चोर
कान चोर कोई दान चोर
कोई सान चोर, कोई जान चोर
कोई चोरी चोर, कोई साही चोर
कोई गरीब चोर, कोई शाही चोर
कोई हल्का तो कोई भारी चोर
कोई निजी, कोई सरकारी चोर
कोई एक तो कोई दोबारी चोर
एक से बढ़कर एक चोर
सब के सब चोर।
--.
कुत्ते का भौंकना
भौंकना
कुत्ते का ही अच्छा लगता है
वो चाहे
बच्चा हो बूढ़ा हो या जवान
मोटा ताजा हो
या दुबला
सुर, ताल, लय
मुरकी और घुंघरू
सभी तो उसके स्वर में।
हाऊ- हाऊ, हु-हु यानि
कैसे- कैसे कौन?
कौन है भाई।
वो पूछता है हमसे
और हम बताने के बजाय
उल्टे उसी पर भौंकने लग जाते हैं
मार पीट पर उतर आते हैं।
भौंकना
कर्म है उसका
और वो भौंकता रहेगा
तुम्हारी मार खाकर भी
पुछता रहेगा तुमसे
हाऊ- हाऊ- हु-हु
चंई-चंई चूं-चूं
यही है उसकी ड्यूटी
और वो निभाएगा
मरते दम तक
क्योंकि वो कुत्ता है।
--.
हवा की दुकान
मैं दुकान करूंगा
हवा की दुकान
ताजी, स्वच्छ शुद्ध हवा
लोग आएंगे
बच्चे, बूढ़े, नौजवान
डाक्टर, वकील, मन्त्री-संत्री
इंजीनियर और बड़े से बड़े उद्योगपति
अपने-अपने गले में
हवा का सिलेन्डर लटकाए
भर-भर ले जांएगें
सांस लेंगे
और जिएंगे
जब तक उनके सिलेन्डर में
हवा रहेगी
और जेब में पैसे
लोग किसी डाक्टर
वकील या इंजीनियर के पास नहीं
मेरी दुकान के आगे
खड़े होंगे लम्बी कतार में
सरकारी डीपू से भी लम्बी कतार
मेरी दुकान में लगे होंगे
कुछ साधारण
लेकिन अमूल्य वृक्ष
एक और से हवा आएगी
गंदी कार्बनडाआक्साइड युक्त हवा,
धूल-मिट्टी लेड वाली
वृक्ष उसे साफ करेंगे
और मैं बेचता रहूंगा
अच्छा बिजनेस होगा
जब कहीं कोई पेड़-पौधा नहीं होगा।
--.
गाय माता
गाय हमारी माता है
जब तक दूध आता है
दूध बन्द तो घास बन्द
घास बन्द तो श्वास बन्द
श्वास बन्द देख कर
हर कोई नाक चिढ़ाता है
गाय हमारी माता है
जब तक दूध आता है
पूजा मैं करता हुँ तेरी
जब तक मजबूरी है मेरी
कहते हैं तुझे जमाने से
दुख दर्द सब मिट जाता है
गाय हमारी माता है
जब तक दूध आता है
रक्षा तेरी को संघ घनेरे
मर जाये तो सब मुंह फेरे
माँ की किराया करने वाला
यहां नीच कहलाता है
गाय हमारी माता है
जब तक दूध आता है
जीते जी दूध निचोड़े
मरी हुई को भी न छोड़े
हाड़ मांस की बात ही छोड़ो
तेरा गोबर-गोंत बेच आता है
यूं गाय हमारी माता है
जब तक दूध आता है।
--.
आवाज
कवियों साहित्यकारों को
सुनाते हुआ कविराज
सुनो प्रिय तुम्हे भी
इक कविता मैं सुनांऊ आज
बड़े विनम्र भाव से
पत्नि ने दिया जवाब
नही सुनना है मुझे
ये छन्द और अलंकार
अनुशासन की तलवार
पाण्डित्य का अंहकार
गर सुनाना चाहते हो
छेड़ो मन-वीणा के तार
देखो गौर से घर और द्वार
बच्चों में घटते संस्कार
गली मोहल्ले के नलकों पर
पानी को लगती कतार
स्टेशन दर स्टेशन फिरते
भिखमंगे बच्चों की डार
खून के रिश्तों के बीच
खड़ी होती दीवार
ढ़ूंढो कविता इन सबके बीच
और दो उसे अपनी आवाज
तो मैं सुनूं
--
पापा का फोन
नित दिन,
नियत समय पर,
आता था मुझको,
मेरे पापा का फोन।
ठीक सुबह के,
दस के बाद,
फिर सांय पाँच से पहले।
कुशल क्षेम के साथ
पूछ लिया करते थे
मेरी दिनचर्या,
हर रोज।
फोन अटेन्ड न करने पर,
कभी-कभी डांट दिया करते थे,
उनको
मेरे घर की छोटी-छोटी बातों को,
कितना भाव दिया करते थे
मेरे पापा
बहुत प्यार करते थे
मुझको, बच्चों और उनको
लेकिन रिटायर होने के बाद
अब यदा-कदा ही आता है
उनका फोन
घर के फोन से।
---.
मॉडर्न
जी हजूर
हाँ जी, न जी
माँ जी-बा जी
पा-जी, भा-जी
दी जी, दा जी
ये जी वो जी
लो जी दो जी
सुनो जी-बोलो जी
आओ जी बैठो जी
खाओ जी लेटो जी
ये सब पुरानी बातें
छोड़ छाड़ गाँव में
आ गया मैं शहर
हेलो-हाय
मोम-डेड
यस नो, नोट एट ऑल
तू-बे, हाँ बे न बे
ले-बे, ला-बे
चल-बे, जा-बे
बैठ-बे, आ-बे
बुढ्डा-खूस्ड़
साला-ससुरा
लंगड़ा, कुबड़ा
हरामी-जमूरा
और न जाने कितने ही
अलंकारों को ग्रहण कर
खुशी-खुशी हो गया
मॉडर्न।
---,
चुग्गा
अब चिड़िया नहीं आती
मेरे आँगन में
न अम्मा चुग्गा देती है
न कुल्हड़ भर पानी
न जाने क्यों
बंगले के पिछवाड़े
एक पुराने से कमरे में
चीथड़ों में पड़ी रहती है
दिन भर।
पुकारती रहती है
कभी पानी कभी रोटी
बेटा...............
बहू................
रामू, रिंपी, रोक्की
लेकिन कोई नहीं सुनता
दो जून की रोटी
एक लख्त छोड़ने के बाद
रामू चाह कर भी
नही जा सकता
उसके पास
और मुझे तो
अम्मा के पास
फटकने भी नहीं देते
मेरे मम्मी पापा
पता नहीं क्यों।
--.
तमाशा
देखो
और देखते रहो
गौर से
लोगो को
चीखते-पुकारते
रोते चिंघाड़ते
सिसकते-सुबकते
किलकारियां मारते
भीड़ में पिटते असहाय को
सहायता-सहायता पुकारते
मरते को पानी-पानी
मुंह उघाड़ते
देखो
और देखते रहो
माँ-बहन, बहू-बेटियों को
छेड़ते-ताड़ते
उग्र भी को
स्कूलों, अस्पतालों
गाड़ियों, कार्यालयों
रेलों, पत्रालयों को
तोड़ते-फोड़ते
फूंकते-साड़ते
देखो और देखते रहो
गौर से
दूर खड़े होकर
क्योंकि तुम तमाशगीर हो
और ये सब
तमाशा
---
मैं लिखता हूँ
कुछ लोग लिखते हैं
कि उन्हे लिखना है
कुछ लिखते हैं
स्वयं पढ़ते हैं
और फाड़ देते हैं
कुछ लिखते हैं
पढ़ते हैं सोचते विचारते हैं
चिंतन-मनन करते हैं
अच्छा है।
मैं भी लिखता हूँ
जब-जब देखता हूँ
आदमियों की भीड़ में
पिटते अकेले इन्सान को
नशे के गर्त में
धंसते नादान को
अकेली बहू-बेटी को
छोड़ते शैतान को
गरीब की झोपड़ी
फूंकते धनवान को
पत्थर की छाती में
बीज बोते किसान।
और मैं लिखता रहूँगा
जब-जब देखूँगा
पिता पुत्र के बीच
होते व्यापार को
बिना आवाज टूटते
रिश्तों के तार को
धमाकों के बीच
उठती चित्कार को
निज घर में नित
पिटती निज नार
डाकुओं और गुण्डों की
बनती सरकार को
दवा दारू के बिना
मरते लाचार
कत्ले-आम का लाइव
दिखाते पत्रकार
मैं लिखता हूं
और लिखता रहूँगा
इन्सान हूँ न।
--.
रद्दी
छुट्टी के दिन में से
थोड़ा सा दिन निकालकर
पुस्तकालय की पुस्तकों
पत्र पत्रिकाओं से
धूलावरण हटाकर
धूप दिखाने को
खुला छोड़ा ही था कि
राह से गुजरते एक
पढ़े लिखे इन्सान ने पूछा ही लिया
ये रद्दी बेचोगे क्या?
अच्छा पैसा मिल जाएगा
यूँ ही कमरा जरब किये हो
किराये पर चढ़ जाएगा
मैंने उसे जाने का इशारा किया
और सोचने लगा
अमूल्य सम्पत्ति को
पढा लिखा इन्सान
रद्दी बता रहा है
यही है वो
पढ़े लिखे अनपढ़
---
शिक्षा का अधिकार
बिखरे उलझे केश
चेहरे पर चांदी के नक्शे
बनाता नासिका रस
चीर पर चीर चढ़े लीर से
झांकता शरीर
पाहने पांव में लगे
कंटक तीर से उठती पीर
फटे-पुराने झोले में
पंख फड़फड़ाती अधमरी
दो पुस्तकों संग
ठनठनाते बासण
प्रार्थना सभापरान्त
अध्यापक के पीछे - पीछे
चुपचाप टाट के अंतिम छोर पर
बैठ मध्याहन भोजन की भीनी महक में
मस्त
अचानक अध्यापक की हुंकार से
चौंककर, लेखन साज रहित
खड़े-खड़े मिड डे मील प्रतीक्षा
पेटभर कर बचा भात
पुस्तकों के पीछे छुपाकर
झोले के एक छोर पर मक्खियों की दावत
और घर पहुंचते ही
स्वनियित बल्ला-गेंद लेकर
खेत की और चौकड़ी भरना
अलगी प्रातः फिर वही बंद बेग
गर्दन में लटकाकर
सरकारी विद्यालय की और धकेला
दिया जाना
क्योंकि
शिक्षा का अधिकार है
उसे, और हमें भेजने का
ताकि हम सब अपना-अपना
काम कर सकें।
--.
हाइकू
1
झरना झर
दिन रात बहता
पानी ठहरा।
2
जंगल बल
जलता जाये फिर
बारिश खाता।
3
किताबें भरी
पुस्तकालयों में
हैं धूल खाती।
4
महँगे लेप
बदल न सकते
असली रंग।
5
बहुत पौधे
आंगन फुलवारी
सजावट को।
6
निश्चित नहीं
आएगा वापस वो
गया सुबह।
7
मर चुका है
इन्सान भीतर
आदमी तेरा।
8
रहना जिंदा
जिंदगी में करले
काम जिंदों के।
9
जाता कहां है
फेर कर मुंह को
करके खता।
10
रह जाएगा
स्वर्ण खजाना ये
धरा यहीं पे।
---.
भूल जाओ
भूलना होगा चाहा जिसको
तुमने जान से भी ज्यादा
भूलना होगा किया था साथ
जीने मरने का वादा
जिसे देख तुम्हारी
सुबह और शाम हुआ करती थी
जिसके याद आने पर
नींद भी आने से डरती थी
जो चला गया वो चला गया
न आया है न आएगा
बस कुछ दिन की बात
वो थोड़ा तुम्हें सताएगा
ये दुनिया में आना जाना
न तेरे हाथ न मेरे हाथ
ये सदा से होता आया है
न हुआ अकेला तेरे साथ
इसका एक मात्र उपाय
उसे भुलाना ही होगा
उसकी मीठी यादों से
बाहर आना ही होगा
ये तो अभी शुरूआत है
कल न जाने क्या होगा
जो आज है वो कल नहीं
जो कल वो परसों न होगा।
---.
गाँव शहर हो गया
पाँव तले आई छाँव
दोपहर हो गया
मेरा गाँव अब गाँव नहीं
शहर हो गया
धूल मिट्टी और धुंआ
अब सब है मेरे गाँव में
कुंए का शीतल जल
जहर हो गया
खड़े हो रहे है
जंगलात कंकरीट के
अपना भी कब्र में
अब पैर हो गया
धना-धन खुल रहे है
वृद्धालय-अनाथालय
जन्म देने वाला ही अब
गैर हो गया
बात नहीं करते
दो सगे भाई आपस में
पति और पत्नि में भी
बैर हो गया है
पाँव तले आई छांव
दोपहर हो गया
मेरा गाँव अब गाँव नहीं
शहर हो गया
---.
अम्मा का घड़ा
गर्मियों के आते ही
सुबह-सुबह
बैठ पनघट पर अम्मा
मांजती घड़ा
ईट के टुकड़ों से
रगड़-रगड़ कर
रख देती भर कर
शीतल जल
बरामदे के एक कोने में
और महक उठता
बरामदा
मिट्टी की भीनी-भीनी
सुगन्ध से
बच्चे बूड़े सब पीते
बोतलों से शीतल जल
और अम्मा का घड़ा
रहता दिन भर भरा टल
फिर त्यौहार तीज का आने पर
अम्मा बाटती सैंवियाँ
उलटाकर
टोकरे के पैंदे पर
सुखा कर
रख देती मेहमानों की खातिर
मगर
टिक नहीं पाती ये सैंवियाँ
बाजारू मेंहगी
सेंवियों के आगे
बस अम्मा कभी-2
आप ही खा लेती
बना कर
बापू से ब्याह में मिले घड़े पर
बटी सैंवियाँ।
--.
कत्ल
एक कत्ल पर चक्र मिले
दूसरे पर फाँसी
हाय रे आदमी तेरे नियम में
इन्सानियत न जरा सी
खून-खून में अन्तर करता
ये कैसा तेरा न्याय रे
सबका मालिक एक है
तू क्यों बैठा विसराय
भाई भाई के खून का प्यासा
यूँ ही बना रहेगा
ये तेरा नियम जब तक प्यारे
यूं खून में भेद कहेगा
अंहिसा का जो सबक देकर
गये थे बापू गाँधी
तुमने तो उस सिद्धान्त की भी
न रखी लाज जरा सी
एक कत्ल पर चक्र मिले
दूसरे पर फाँसी
हाय रे आदमी तेरे नियम में
इन्सानियत न जरा सी
---.
गाड़ी से पहले
एक ही शहर
गली, मोहल्ले में
रहते हैं
मैं और मेरे बॉस
निकलते हैं ऑफिस के लिए
घर से एक समय पर
मैं पैदल और साहब
अपनी गाड़ी से
मगर पहुंचते हैं
ऑफिस में
हमेशा मेरे बाद
आखिर और भी तो गाड़ियां हैं
जिन्हें चलना होता है
सड़क पर ।
--
खाली बर्तन
सूरज के जगने से पहले
जग, जाता हूँ
जल भरने को
ताजा, शीतल
निर्मल जल।
सुबह सैर को निकले लोग
जाने क्यों है
नाक चिढ़ाये
कोई तो ये बड़बड़ाये
सुबह सवेरे,घोर अंधेरे
क्या करते हो दुश्मन मेरे
खाली बर्तन दिखाकर मुझको
काम बिगाड़े दिन भर मेरे
जब वे ही देखते
जलभर बर्तन
शीश, आशीष
दुआएं देते
खुश हो सिक्का
उछाल देते हैं ।
खुद के दुश्मन ।
--.
दो मिनट
स्टेशन पहुंचते ही
दो मिनट का समय
सेट किया और
छुपा दिया तैयार खड़ी
ट्रेन के एक डिब्बे में
पीछे मुड़कर भागा
कि खड़े खम्बे ने
कर दिया चित
दो मिनट के लिए
और फिर नियत समय पर
ध-------ड़ा------म
की आवाज में
धुएं और लपटों के बीच
ट्रेन के परखचे उड़ गये
बिखर गये चहुं दिश
बच्चों, बुढों, नोजवानों के
शव,कटे अंग प्रत्यंग
चीख - पुकार,रूदन-क्रंदन
के बीच
उसकी अंगहीन देह
निहारती रही ये
भयावह मंजर
दो मिनट के लिए ।
--.
आहवान
तुमने दी है वीर बेटियां,
दुर्गावती और रानी झांसी
तेरे दिये सपूत खुशी से
देष की खातिर चढ़ गये फांसी।
दिये गाँधी सुभाष तूने
चन्द्र शेखर सा पूत दिया
भगत सिंह आजाद ने भी
तेरा ही था दूध पिया ।
मगर आज तेरे दूध में,
क्यों रहा माता वो जस नहीं
भाई-भाई के खून का प्यासा
करते क्यों ये बस नहीं
अब क्यों पैदा हो रहे हैं
डाकू चोर और दहशतगर्द
समूल नाष जो कर दे इनका
पैदा कर माँ ऐसे मर्द
सुन करूण पुकार, हम तेरे द्वार
माँ अब कोई चमत्कार करो
वीर शासक, शिक्षक, रक्षक
अच्छे इन्सान तैयार करों ।
---.
राम नाम
सांझ सवेरे
राम नाम जपने वाला
आम आदमी
राम नाम सहारा ले
भव सागर पार
करना चाहता है।
मगर
जिन आदर्शों ने
राम को
तारनहार बनाया
उनसे इसका
दूर-दूर तक
कोई वास्ता नहीं
भूल गया
राम ने पितृ वचन
निभाने को चौदह वर्ष
वनवास लिया
और इसने
उल्टे अपने पिता को
वनवास दिया
जात पात मिटाने को राम ने
शबरी के जूठे बेर खाये
और यह छुवा छूत के दल दल से
पार न हो पाया
भव सागर क्या पार करेगा
राम ने रघुकुल लाज को
राक्षसों का नाष किया
ये निज कुल लुटाने को
राक्षसों का साथ दे रहा।
सिर्फ राम नाम से
क्या होगा।
--
सच और झूठ
तुम कहते हो
तुम सच्चे हो
तो ये सरासर झूठ है।
गर कहते हो ईमानदार हो
ये उससे भी बड़ा झूठ है
कहते हो तुम निश्छल हो
तो ये भी न सत्य है
और कहते हो कि सही हो
ये बिलकुल गलत है।
हाँ तुम
कम से कम झूठे हो
कम से कम बेईमान
कम छलिया और
कम से कम गलत हो
तो यह सत्य है।
--.
पछतावा
गगन सा विस्तार लिए
मैदान के
दोनो ओर
फैले शहर के
बीचों बीच
सकुचाती सी
सर-सर गुजरती
नीली-पीली,
सड़ांध मारती
सरिता
पछताती है
याद करके
क्यों आई वह यहां
खूब सूरत पहाड़ों को
छोड़
जहां उछलती, कूदती
खिलखिलाती
चिकने मुलायम पत्थरों पर
फिसलती
बड़ी-बड़ी शिलाओं के नीचे
छिपे मेंढ़कों को
ढूंढ-ढूंढ भिगोती
घराट के चरखे को
अपनी कोमल उंगलियों से
घुमाती ओर
खूब शोर मचाती
नाचती
बिना किसी
अनुशासन के
स्वछन्द ।
--.
बाजार
ये दुनिया एक बाजार है
यहां हर कोई व्यापारी है
यहां हर चीज की कीमत है
वो हल्की है या भारी है
यहां पिता पुत्र में सौदे बाजी
नित होते देखी जाती है
जहां मिलने की कुछ आस हो
वहीं मित्रता भाती है।
बहन हो या भाई, लाभ की
बात सभी के मन भाए
यहां खून के रिश्तों की भी
पल भर में बोली लग जाए
कौन अपना हैं, कौन पराया
वक़्त पर सब दिख जाते हैं
कागज के टुकड़ों की खातिर
यहां रिश्ते भी बिक जाते हैं
यहां नर-नर को बेच खाये
नारी से बिकती नारी है
ये दुनिया एक बाजार है
यहां हर कोई व्यापारी है
यहां हर चीज की कीमत है
वे हल्की है या भारी
--
मुजरालय
चला गया वो
वक़्त कमबख्त
जब कहीं-कहीं थे
मुजरालय
अब हर आदमी राजा है
और घर-घर है मुजरालय
कोई खासमखास हो मेहमां
या मौका कोई खुशी का
खूब छलकते थे प्याले
और सजते थे मुजरालय
आज न देखे मौका कोई
न जुस्तजू मेहमां की
जब जी चाहे, जैसा चाहे
सज जायगा मुजरालय
जैसा मुजरा दिलभाय
उंगली के इशारे पर आये
बस एक बात की कमी है प्यारे
तू उसको छूने न पाये
हां इतनी छूट तुम्हें भी है
मन मरजी का राग लगा ले
जब जुदा जुदा थे तब थे
देवालय और मुजरालय
आज दोनो संग संग सजते
एक ही दोनों का आलय ।
---
यूँ छले गये
करके ऐतबार हम यूँ छले गये।
वो आये भी नहीं और चले गये॥
कहते थे दोस्ती निभाएंगे ताउम्र।
हम तो यूं बीच राह में ठले गये॥
जी लेते हम उनकी यादों के सहारे।
वो यूं गये, कि हमसे हाथ भी न मले गये॥
पलकें बिछाए बैठे थे हम, वो आएंगे इधर।
वो दूर से हाथ हिलाकर चले गये॥
फूंक कर पीते हैं लोग दूध सुना हमने।
मगर हम तो छाछ से ही जले गये॥
करके ऐतबार हम यूँ छले गये।
वो आये भी नहीं और चले गये॥
--.
इजहारे इश्क़
इजहारे इश्क़ करने को,
थोड़ा सा धुंआ किया करता हूँ।
अब मैं तुम्हें क्या बताऊं,
तुमसे कितनी मोहब्बत करता हूँ
साथ जीने मरने का वादा किया करता हूँ
सुबह ओ शाम तेरी चौखट पे
हाजिरी मैं दिया करता हूँ
सलामत रहे याराना हमारा
दिन रात यही दुआ करता हूँ
तेरे सिवा और कौन है मेरा
बस तेरे नाम से जिआ करता हूँ
तुम्हें खुश करने को तेरे दिये से
तेरे नाम का दिया करता हूं
आ जाए जो दर में तेरा बन्दा कोई
उसी में तेरा दीदार किया करता हूं
अब मैं तुम्हें क्या बताऊं
तुमसे कितनी मोहब्बत करता हूँ।
--.
सौन्दर्य
कहां है सौन्दर्य,
हमको नजर नहीं आया।
या हमको सौन्दर्य बोध ही नहीं।
कहीं सूनी है मां की गोद,
तो कहीं मां की गोद ही नहीं।
चारों ओर चीख पुकार,
अत्याचार, बलात्कार है,
कोई सरकार का नहीं तो,
किसी की सरकार ही नहीं।
लम्बी हो रही है
नंगों, भिखमंगों की पंक्तियां,
कहीं दाने नहीं तो कहीं
खाने वाला ही नहीं
फन फैलाये खड़ी है
बेकारी, बेरोजगारी, और लाचारी,
कहीं काम नहीं तो कहीं
काम करने वाला ही नही।
जेब काटने को हरदम तैयार है,
सरकारी भिखारी,
कहीं काम होता नहीं तो कहीं,
काम करने वाला ही नहीं।
कत्ल हो रहे है बेवजह
बेगुनाह, मासूम
कोई इन्सान नहीं तो कहीं
इंसानियत ही नहीं।
---.
ताश के पत्ते
एक साथ रहते हैं
ताश के बावन पत्ते
फिर भी एक नहीं,
असंगठित।
बिखर जाते हैं
चारों ओर
थोड़ी सी
ठेस लगने पर
मगर प्रत्येक पत्ता है
खास, अहम,
रखता है अपना एक
अलग वजूद
पलट सकता है
बाजी
किसी भी वक्त
अकेला।
---.
फूल
हर रोज सुबह
माली की आहट से ही
थरथरा उठता
मेरा दिल।
छिप जाता मैं
पत्तों के बीच
कहीं आज
कहीं अब
तोड़ न ले मुझे माली
और छोड़ना पड़े
घर
लेकिन कब तक?
आखिर मुझे ढूंढ ही लिया
और डाल दिया टोकरी में
तोड़कर
बहुत तड़पा, घबराया था मैं
छोड़कर घर
लेकिन धन्य हो गया
जब चढ़ा दिया
भगवान के सिर पर
एक पुजारी ने
खरीद कर माली से
जाने क्यों डरते हैं लोग
छोड़ने को घर।
--.
जल मत भरना
जल भरना
पर जल मत भरना
इन कजरे, कमल नयनन में
काजर संग कहीं बह न निकलें
बसते हैं इन नयनन में
जल भरे ये नयनन तेरे
लाख समंदर पथ पर मेरे
राह रोके जाने न दे
पथ पर भारी सांझ सवेरे
जिद मत करना
धीरज धरना
देखना नित निज नयनन में
जल भरना
पर जल मत भरना
इन कजरे कमल नयनन में
मिलना बिछुड़ना
बिछुड़ना मिलना।
यही जग की है रीत प्रिय
समभाव जो रखता इनमें
यहां उसी की जीत प्रिय
तप करना तुम
सद पथ चलना
होगा मिलन यही नीयत प्रिय
जल भरना
पर जल मत भरना।
--.
आजाद
सन सैंतालिस में हुए
पर हुए कहां आजाद है
आज भी यहां कौन कोई कारज
कर सके निर्बाध है ।
आज भी बंधी हैं बेड़ियाँ
मुख, हाथ और पांव में
आज भी मल्लाह कोई है
हम मुसाफिर बस नाव में ।
आज भी कहां बहु बेटी
अकेली घूम पाती है
बालक ही हो चाहें
साथ में मर्द को लेकर जाती हैं ।
कौन दूध है मन्दिर में,
आने को पूछा जाता है
यहां अंधों की भीड़ में
अकेले को पीटा जाता है
सच बोलने वालों की यहां
जुबान काट दी जाती है
सच्चाई यहां दिलों जिगर में
घुट - घुट कर मर जाती है ।
---.
एक ही
एक ही अन्न सभ खावे
एक ही पीवे नीर
एक ही रूधिर सभ में बहे
एक ही लागे पीर
एक ही चन्दा एक ही सूरज
एक ही सांस समीर
एक ही जीव सब में बसे
एक ही धरे सरीर
एक ही बात रहीम कहे
एक ही कहे कबीर
एक ही राम एक ही रहीम
एक ही गुरू पीर
एक ही सब का पालन हारा
एक ही मारे तीर
एक ही राजा एक ही प्रजा
एक ही संत फकीर
जन-जन में भेद करे
फिर कैसी यह लकीर
मानवता का कत्ले आम
देख हुआ आलोक अधीर ।
--.
दर्पण
नील गगन के नीचे,
चारपाई पर पडा था, उदास आराम करने
मन बेचैन था, उसकी याद में,
अचानक नजर पड़ी उस चांद पर,
जो चमक रहा था, साफ जैसे दर्पण,
सबसे ऊपर आकाश में लगा दर्पण।
आशा की एक किरण फूटी मन में,
कि आज दिख जाएगी वो इस दर्पण में।
रात के बारह बज चुके थे,
आखिर वो अधखिली कली,
जो खिलना चाहती थी मगर
मजबूर उदास घर के अन्दर
जाती नजर आई, अपने घर में।
अचानक मुड़ी और गगन को निहारने लगी,
उत्सुकता भरी नजरों से
चेहरा साफ दिखता जा रहा था,
जी भर के देखना चाहता था।
नींद भी आज सिरहाने बैठी,
निहार रही थी हम दोनों को
प्यार से खुशी से,
मानो हिम्मत न जुटा पा रही, आंखों में आने की
चांद के दूसरी ओर देखा तो
बादल का गुब्बार बढ़ता आ रहा था
चांद बचने की चाह में, अपनी चाल बढ़ा रहा था
मगर आगे क्षितिज पीछे बादल।
अब तक शायद दिल की आवाज,
पहुंच चुकी थी उस तक,
उसकी नजर मुझ पर पड़ी, चांद से
मुस्कराई,
और वो अधखिली कली,
फूल बन गई।
मुंह खोला, कुछ कहना चाहती थी मगर,
ढंक गया वो दर्पण
दोनों ओर से
और मैं पड़ा रह गया घर के आंगन में
उदास।
---.
कातिल
ढेर सारे सपने
सजाये थे मैने
अपनी इन नन्ही नन्हीं प्यारी
बन्द आखों में
खूब पढूंगी लिखूगी
और एक दिन
बहुत बड़ी अफसर
बनूंगी, खूब नाम कमांऊगी
सेवा करूंगी अपने देष की
अपने माता पिता की
मेरा कोई भाई नहीं है
तो क्या हुआ?
मै सेवा करूंगी
मम्मी पापा की
उनका बेटा बनकर
हाथ बटाऊँगी
अपने घर बाहर के
सारे कामों में
लेकिन टूट गये
सारे वो सपने
जब मरवा दिया मुझे
मां की कोख में
और मेरे ही पापा
बन गए मेरे कातिल
---.
असली भारत
असली भारत वह है,
जो चोटी से एड़ी तक
पसीने में तर, फटे, पुराने कपड़ों में,
पीठ पर बोझ उठाए
चढ़ रहा है चढ़ाई।
असली भारत वह है,
जो निकला है घर से
तड़के, खाली पेट,
खेत में कर रहा है गुड़ाई।
असली भारत वह है,
जो घर से दूर
गरीबी से चूर
होटल मालिक की डांट, मार खाकर
मल रहा है बर्तन,
इस पढ़ने-लिखने की कच्ची उम्र में।
असली भारत वह है,
जो सो रहा है फुटपाथ पर
अपने बीवी बच्चों के साथ,
दिन भर का थका हारा,
विकास की रोशनी से दूर
बहुत दूर।
असली भारत वह है,
जो भटक रहा है, यहां से वहां,
डिग्रियों का बोझ लिए
नौकरी की तलाश में।
असली भारत वह है,
जो फंस चुका है
नशे के उस दलदल में,
जहां से चाह कर भी
वापस नहीं आ सकता।
असली भारत वह है,
जो भाग चुका है
देष छोड़कर, भूल गया है
अपनी मां को, उसके उपकारों को,
सिर्फ चंद कागज के टुकड़ों के लिए।
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एक दिन
सुबह-सुबह
मेरे कानो के पास आकर
धीरे से कहा
उठो आलोक मै आ गई
देखो मै आपके लिए क्या-क्या
उपहार लाई हूँ
सबसे पहले ये लो
सरसों के प्यारे-प्यारे पीले फूल
और खिड़की से बाहर देखो
मेरे साथ कौन-कौन आए है
पेडों पर नन्हे नन्हे पत्ते
है सरसों से भरे खेत
देखो कैसे झूल रहे है
आम पर बैठी कोयल
मधुर स्वर में गा रही है
आओ प्यारे बच्चों आओ
बसन्त ऋतु आ रही है
--.
याद आता है
रह रह कर याद आता है
वह शहतूत का पेड
जब जब देखता हूं
दरवाजे के इन तख्तों को
अलमारी और खिड़कियों को
जो बाहर ही रोक देते हैं
सर्दी की काट देने वाली
सर्द हवाओं को
रह रह कर याद आता है
वह दिन जब पापा लेकर
आए थे सरकारी नर्सरी से
एक नन्हा सा पौधा
और मेरे जिद करने पर
मेरे ही नन्हें हाथो से लगवाया
गया था घर के आंगन में
बिल्कुल मेरी खिड़की के सामने
सुबह उठते ही उसे
खिड़की से झांकता पानी देता
रह रह कर याद आते हे वो दिन
जब वह पेड़ बन गया
उस पर लाल पीले फल लगते
दोस्तो की खूब दावतें करता
मूटठी भर भर खिलाता
बडे रोब से कहता यह पेड़ मैंने लगया है
ओर गर्मी में उसकी घनी छांव में
दादा जी की चारपाई लगाकर
स्वयं भी उसी पर बैठ जाता
ओर फिर पता भी ना चला
कब बूढा होकर सूख गया वह
शहतूत का पेड़
ओर चिनवा दिया मैंने उसे काट कर
अपने नये मकान की नई खिड़की में
ताकि झांकना ना पड़े
खिड़की से बाहर!
---.
एन्जवाए लाइफ
छीन कर साकी के हाथो से
प्याला भर लिया उसने लबालब !
प्याले पर प्याला , जाम पर जाम
पी गया वह गटागट !
लहराते हुए उठता , गिरता
सभंलता फिर गिरता
नाना व्यंजनों की मधुर गंध
मन से पेट भर कर
एन्जवाए लाइफ यार
बड़बड़ाते हुए बेहोश हो जाना
नादान आलोक समझ ना पाया
एन्जवाए होश में होता है या
बेहोशी में !
--.
होली
तोड़ नफरते दीवार ,
कर ना यू छुप-छुप के वार ,
भूल जा वो बातेम वो रूसवाई रे ,
होली आई रे आई रे होली आई रे !
छोड़ बास्दो भाल ,
हाथ में ले गुलाल ,
कर दे उनके गाल लाल ,
मस्ती छाई रे
आज आई रे आई रे होली आई रे !
हाथ में लेकर गुलाल
हरा पीला ओर लाल
भीगे ग्वाल बाल भीगी ताई रे
होली आई रे आई रे होली आई रे !
माना इतिहास में ,
स्वार्थता के पाश में ,
दुश्मन हुए हे भाई भाई रे !
फिर भी माँ के बेटो ने,
फिर मिलन की आस न गवांई रे,
होली आई रे आई रे होली आई रे !
बहुत हुए कत्लेआम,
बहुत पीए खून ए जाम,
अब तो तिलक ए रंग ले लगाई रे,
होली आई रे आई रे होली आई रे !
ऐ फागुन ऐ हवा
ऐ दर्दे दिल, दवा
संदेश मेरा उनको दे पंहुचाई रे,
होली आई रे आई रे होली आई रे !
होली खेलदे नसीबां वाले नि चंदरे ने क्या खेलणी
होली आई रे - होली है।
--.
बापू तुम फिर से आ जाओ
भारत माँ पुकार रही है
बापू तुम फिर आ जाओ
भगा दिया था जिनको
तुमने सन् सैंतालीस में
आज उन्हीं का जादू
सबके सिर चढ़कर बोल रहा
मोँ बाप की इच्छाओं के
भेद है बच्चा खोल रहा
ऐसा हो न वैसा हो
सब अंग्रेजों जैसा हो
बिछांए-ओढ़े, पहने-छोड़े
उठते- जागते, सोते-रोते
किस्से उनके जुल्मों सितम के
पढ़ सुन कर सब अंग्रेज हो गये
अपने बच्चों को उस रंग में
रंगने को रंगरेज हो गये
पांव छूने में बड़ों के
आज बच्चा शरमाता है
बापू हाय मोम डेड बोलकर
दूर से हाथ हिलाता
मोम डेड भी यह देखकर
फूले नहीं समाते हैं
स्वंय भी तो माँ बाप को
मिलने से कतराते हैं।
--.
शहर से पूछा
यूँ ही एक दिन
शहर से पूछ बैठा
कितने लोग
रहते हैं तुम्हारे पास
जिन्हें तुम अपना
कहते हो
कितने लोग है
जो तुम्हें अपना
मानते हैं।
खुदा न करे
लेकिन अगर कोई
मुसीबत आ जाए
कितने लोग आऐंगे
तुम्हारा साथ देने
तुम्हारा हाल जानने
कितने लोग है
जो जानते हैं कि
उनके साथ वाले
कमरे में रहता कौन है
कितने लोग है
जिनके पास समय है
हाल पूछने का
तुम्हारा पड़ोसी का
और स्वंय का
नही मालूम न
बस मुझे जवाब मिल गया।
---.
शहीद की अभिलाषा
रक्षा मेरी माँ की
तुम बाद मेरे
यूँ ही करना
सोई होगी माँ मेरी जब
तुम यूँ ही जागा करना
भूल से भी पल भर को
पलकों को न बन्द करना
दुख-सुख, सर्दी-गर्मी
भूख-प्यास की तुम
जरा भी परवाह न करना
सोई होगी माँ मेरी
जब तु यूँ जागा करना
घात लगाए बैठा है दुश्मन
इसी इन्तजार में
कब पलक झपके तुम्हारी
और उसका वार हो
थक जाओ अगर तुम
याद मुझको कर लेना
रूह मेरी स्वर्ग
से भी दुश्मनों को
रोक लेगी।
--.
नई तस्वीर
बह चली इस काल कुछ ऐसी हवा,
हर पत्ता होने को है नया,
अंगारे अब राख हुए जा रहे हैं,
वो हमारे करीब आ रहे है।
पिघल वो गए प्यार में हमारे,
या गुलाब जल की वर्षा हुई है।
लहलाती थी जहां बंन्दूकों की खेती,
वहां फूलों के बीज बोये जा रहे हैं।
बारूद की गंध जिस हवा में थी बहती,
आज उसी में फूलों की खुशबू है ।
महके महके हे दिल सरहदों के
तड़पन मिलन की बढ़ी जा रही है ।
क्यो हे बसंत बदला बदला,
क्या कोई उत्सव आ रहा है ।
रंग दिया हे जिसने अपने रंग मे,
इतना मधुर यह कौन गा रहा है
बदली हे काश्मीर की तकदीर,
या नई तस्वीर कोई बना रहा है,
बहते थे जिन आंखों से आंसू
आज उन्हे कोई हंसा रहा है,
उम्मीदें लगी है दोनों जहां की
नया चिराग कोई जला रहा है
चदां भी खुश है तारे भी खुश
देखो सूरज भी मुस्करा रहा है
--.
राम ही राम
यह मेरा राम वह तेरा राम
अब अपना-अपना राम है
मै अपने राम को खुश करो
हमें ओर क्या काम है
यह मेरा राम वह तेरा राम
अब अपना-अपना राम है।
यहां सहस्र -सहस्र बरसों में
हुआ एक ही राम है
लेकिन आज बरस में ही
सहस्रों सहस्र राम है।
यह मेरा राम वह तेरा
अब अपना-अपना राम है।
यह मेरे राम की सेना है
वह तेरे राम की सेना
देखे कौन महान है
यह मेरा राम वह.......
यह मेरे राम का चैनल है
देखे कुल जहान है
यह मेरा राम वह तेरा
मेरे राम की महल अट्टारी
तेरे राम की कार सफारी
कौन बड़ा धनवान है
यह मेरा राम वह तेरा राम
अब अपना-अपना राम है
तेरा राम फूंक से तारे
मेरा राम मन्त्र दे मारे
सबका फलता काम है
यह मेरा राम वह तेरा राम
अब अपना-अपना राम है।
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कवि परिचय
नाम - अनन्त आलोक
जन्म - 28 - 10 - 1974
शिक्षा - वाणिज्य स्नातक शिक्षा स्नातक,
पी0जी0डी0आए0डी0, स्नातकोत्त्ार हिन्दी
(शिक्षार्थी)
व्यवसाय - अध्यापन
विधाएं - कविता, गीत, ग..ज.ल, हाइकू, बाल कविता, लेख,
कहानी, निबन्ध, संस्मरण, लघु - कथा, लोक - कथा, , मुक्तक एवं संपादन।
लेखन माध्यम - हिन्दी, हिमाचली एंव अंग्रजी।
मुख्य प्रकाशन - 1․ “हिमाचल में स्लेट पत्थर और लकड.ी के
मकानों की प्रासंगिकता”,
2․ “देवधरा सिरमौर” ग्यारह मन्दिरों का
संक्षिप्त वर्णन
3․ सिरमौर की अनोखी दिवाली
4- शिक्षा विभाग की पत्रिका “शिक्षा विर्मश” का
2007 मार्च में सह संपादन।
5- “बाबा बड.ोलिया”
6- कुछ पुस्तकों एवं काव्य सग्रहों में रचनाएं
प्रकाशित
विशेष - हि0प्र0 सिरमौर कला संगम द्वारा सम्मानित
पर्वतालोक की उपाधी
- विभिन्न शैक्षिक तथा सामाजिक संस्थाओं द्वारा
अनेकों प्रशस्ति पत्र, सम्मान
- नौणी विश्वविद्यालय द्वारा सम्मान व प्रशस्ति पत्र
- दो वर्ड्ढ पत्रकारिता एंव नेहरू युवा केन्द्र में जिला
समन्वय एन0एस0वी0 कार्यानुभव।
- आकाशवाणी से रचनाएं प्रसारित
- देश प्रदेश की दो दर्जन से अधिक पत्र-पत्रिकाओं
में रचनाएं प्रकाशित
- काव्य सम्मेलनों में निरंतर भागीदारी
- आधा दर्जन से अधिक सामाजिक संस्थाओं में
पदाधिकारी एंव सक्रीय सदस्य।
- शिक्षा विभाग में जिला स्रोत समूह सदस्य
- चार दर्जन से अधिक बाल कविताएं, कहानियां
विभिन्न बाल पत्रिकाओं में प्रकाशित
प्रकाशनाधीन - “तलाश” (काव्य संग्रह)
संपर्क सूत्र - आलोक भवन, बायरी, डा0 ददाहू, त0 नाहन,
जि0 सिरमौर, हि0प्र0 173022
Email : anantalok25@yahoo.in
Blog - anantsahitya.blogspot.com
अनंत आलोक जी की सुंदर कविताएं पढ़वाने के लिए आभार.
जवाब देंहटाएंKajal kumar ji thanx for going through my poems
जवाब देंहटाएंसुंदर और सार्थक कवितायेँ हैं बधाई
जवाब देंहटाएंअमिता
Shradhay Ravi Ji aapne meri rachnaon ko Rachnakar mai prakachit kar mere sahityak jiwan to ek turning point diya, hirday se aapka aabhari hun thanx a lot.
जवाब देंहटाएंAmita ji Kavitayn padne or badhai dene k liy hirday se aabhar. Thanx a lot.
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