एस. के. पाण्डेय का व्यंग्य - झोली, बोली और गोली

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झोली, बोली और गोली की वजह से देश व समाज तबाह है। बहुत सी समस्याएं इन्ही के कारण उत्पन्न होती हैं। इन पर नियंत्रण हो जाए तो अधिकांश समस्याएं ...

झोली, बोली और गोली की वजह से देश व समाज तबाह है। बहुत सी समस्याएं इन्ही के कारण उत्पन्न होती हैं। इन पर नियंत्रण हो जाए तो अधिकांश समस्याएं अपने आप नौ दो ग्यारह हो जाएँ।

लेकिन इन पर नियंत्रण हो पाना बहुत ही मुश्किल है। खैर जितना अपने वश की बात हो उतना ही करना चाहिए। नहीं तो लेने के देने भी पड़ सकते हैं। वैसे लेना-देना तो लगा ही रहता है। कम से कम लेना तो चलता ही रहता है। रही बात देने की तो लोग इसकी आदत कम डालते हैं। क्योंकि देने का अभ्यास न हो तो ज्यादा आसानी रहती हैं। कहते हैं कि लेने से अच्छा और देने से बुरा कुछ भी नहीं होता। सच है कि बूँद-बूँद से गागर भरता है।

देने से झोली खाली होती है। और लेने से भरती है। अतः लोग ले-लेकर झोली भरते रहते हैं। यदि झोली भरना हो तो किसका, कैसे, कितना, ऐसे-वैसे आदि का विचार छोड़कर जैसे-तैसे और जितना हो सके उतना माल इकट्ठा करना ही पड़ेगा। आचार और विचार को बिना ताक पर धरे झोली एक सीमा से अधिक नहीं भर सकती। और आचार-विचार का दिनों-दिन अभाव होता ही जा रहा है। ऐसा हो क्यों रहा है, झोली के ही कारण।

हमारे पूर्वज कहते थे कि मीठा बोलो। जब भी मुँह खोलो मीठा-मीठा बोलो। लेकिन आजकल लोग मीठा खाते तो बहुत हैं। और बोलते भी बहुत हैं मगर मीठा नहीं बोलते। जिह्वा पर मिठाई का असर ही नहीं होता और शरीर के अन्य अंग जैसे गुर्दे आदि इसका भरपूर फायदा उठाते हैं। बदले में लोग भारी हो जाते हैं। फूल जाते हैं। बाद में पता चलता है कि मधुमेह हो गया है। कुछ लोगों को तो ताज्जुब होता है कि मधु को तो हमने हाथ भी नहीं लगाया, तब ऐसा कैसे हो गया ? हाथ आये तब तो लगाएं। देखने को भी नहीं मिलता और शरीर में मधुमेह हो जाता है। खैर ऐसी बोली बोलते हैं कि लोग अपना आपा खो बैठते हैं। न अपने को शीतलता मिलती है और न ही दूसरों को। मार-पीट की भी स्थिति उत्पन्न हो जाती है। बोली से भी गोली चलने की नौबत आ जाती है।

कोई किसी को बोली बोलता है तो कोई किसी को बोली मारता है । सास की बोली बहू को और बहू की बोली सास को गोली की तरह लगती है। और गोली लगने पर क्या होता है, यह तो जग जाहिर है। इसी तरह बाप-बेटे, पड़ोसी, नाते-रिश्तेदार व अन्य सगे सम्बन्धी भी एक दूसरे की बोली से ऐसा परेशान होते रहते हैं कि होली पर भी नहीं मिलते। बस एक दूसरे को देख कर जलते हैं। कहते हैं कि जलना हो तो दिए की तरह जलो अन्यथा न जलो। दिए की तरह लोग जलने लगें तो होली न ही सही कम से कम रोज दिवाली सा महसूस हो। परन्तु दिए की तरह जलने पर बुझने का खतरा ज्यादा रहता है। इसलिए ही लोग एक दूसरे को देख कर सुलगते रहते हैं।

बोली को गोली से कम नहीं आँकना चाहिए। कभी-कभी बोली ऐसा घाव कर देती है जो गोली के घाव से भी खतरनाक साबित होता है। गोली का घाव तो भर भी जाता है, लेकिन बोली से हुआ घाव जल्दी नहीं भरता। बोली से घर का घर तबाह हो जाता है। पति-पत्नी तक भी एक दूसरे के होकर भी कुछ भी नहीं रह जाते। इतना ही नहीं बोली से एक समाज दूसरे समाज का और एक मुल्क दूसरे मुल्क का जानी दुश्मन भी बन जाता है। गोली चाहे अपने की हो चाहे पराये की एक ही काम करती है। लेकिन दूसरों की अपेक्षा अपनों की बोली कुछ अलग तरह का काम कर जाती है।

आज जहाँ देखो वहाँ गोली चलती रहती है। गोली यदि सैनिकों और पोलिस के ही हाथ में रहती तो ज्यादा समस्या नहीं आती। क्योंकि पोलिस गाहे-बगाहे किसी-किसी को ठोकती हैं। लेकिन चोर-छिछोर यहाँ-वहाँ ठोंकते ही रहते हैं। आतंकवादी गोली से और गोली की कितनी बर्बादी करते हैं ? अपने, अपनों को यहाँ तक भाई, भाई को ठोंक देते हैं। समाचारपत्र रोज गोली की कहानी अपनी जुबानी कहते हैं। कहीं कोई किसी को छलनी करता है तो कोई किसी को भून डालता है। लोग गोली लेकर घूमने लगे हैं। बच्चे भी गोली के शौकीन होते जा रहे हैं। डर है कहीं एक दिन मोबाइल की तरह हर हाथ में गोली न आ जाए। अगर ऐसा हुआ तो प्रकाश रहित दिवाली का हर पल अनुभव होगा।

कोई माने या न माने लेकिन हर घर में झोली, बोली और गोली का असर है। डॉक्टर तो गोली देते ही हैं। दूसरे लोग भी गोली देते हैं। लोग अक्सर कहते हैं कि मुझको गोली दे रहे हो। अरे ! मेरी गोली मुझको ही। खैर डॉक्टरों का क्या कहना ? ये तो झोली, बोली और गोली तीनों से खेलते हैं।

देश के नेता झोली, बोली और गोली तीनों का इस्तेमाल करते हैं। भोली-भाली जनता को गोली देते हैं। वैसे भी गोली का इस्तेमाल करते-कराते हैं। बोली तो ऐसा बोलते हैं कि जनता सच व झूठ में भेद करना भूल जाती है। जैसे पतंगे दीपक की लौ को देखकर मस्त होते हैं वैसे ही जनता इनकी बोली सुनकर होती है।

देश में जो और जितना भ्रष्टाचार है, सब झोली की वजह से है। भ्रष्टाचार घटता नहीं है। दिन-दिन बढ़ता ही जा रहा है। क्योंकि हर कोई झोली भरना चाहता है। कोटेदार, ठेकेदार, थानेदार, हवलदार इत्यादि कहने का मतलब ओहदेदार झोली भर-भरकर दार से मालदार बन जाते हैं। न कभी झोली भरने की लालसा खत्म होगी और न ही देश-समाज में भ्रष्टाचार खत्म होगा।

देश-समाज के हित में झोली, बोली और गोली के नाजायज इस्तेमाल को रोकना ही होगा।

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डॉ. एस. के. पाण्डेय,

समशापुर (उ. प्र.)।

URL: https://sites.google.com/site/skpandeysriramkthavali/

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COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. देने से झोली खाली होती है और लेने से भरती है


    शानदार पोस्ट
    manish jaiswal
    Bilaspur
    Chhattisgarh

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रचनाकार: एस. के. पाण्डेय का व्यंग्य - झोली, बोली और गोली
एस. के. पाण्डेय का व्यंग्य - झोली, बोली और गोली
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