मधु संधु व रजनी शर्मा का आलेख : मन्नू भण्डारी की कहानियों में संबंधों के दायरे में छटपटाती स्त्री

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    प्रो. डॉ. मधु संधु एवं शोध छात्रा रजनी शर्मा हिन्दी विभाग, गुरुनानक देव विश्वविद्यालय अमृतसर                                            ...

    प्रो. डॉ. मधु संधु एवं शोध छात्रा रजनी शर्मा
हिन्दी विभाग, गुरुनानक देव विश्वविद्यालय अमृतसर
                                                
संबंध शब्द की व्युत्पति सम् + बंध से हुई है। जिसके अर्थ संसर्ग, संयोग, सम्मिलन, संपर्क, बंधुत्व, नाता, रिश्ता इत्यादि है। संबंध वह स्थिति है जिसमें कोई किसी के साथ जुड़ा या बंधा रहता है। यांत्रिकीकरण और महानगरीय जीवन, उच्चाकांक्षाओं और जीवनगत विंसगंतियों, विस्थापन और अकेलेपन के कारण आज जीवन में जिस तरह तनाव और घुटन ने पैठ बनाई है उसका चित्रण मन्नू भण्डारी की कहानियों में व्यापक रूप से दिखाई देता है।


    स्वातंत्र्योत्तार काल के नयी कहानीकारों की जब हम बात करते हैं तो मन्नू भण्डारी का नाम प्रमुख रूप से उभरता है। मन्नू भण्डारी की कहानियों की संख्या ५० के आसपास है जो उनके ७ कहानी संग्रहों - मैं हार गई, तीन निगाहों की एक तस्वीर, यही सच है, एक प्लैट सैलाब, त्रिशंकु, मेरी प्रिय कहानियां, प्रतिनिधि कहानियां आदि में संकलित है। इनकी कहानियों अकेली, नशा, रानी मां का चबूतरा, त्रिशंकु आदि पर टैलीफिल्म बन चुकी है। यही सच है पर बासु चटर्जी ने रंजनीगंधा नाम से सिनेचित्र बनाया है। बी बी सी मन्नू की कहानियों पर दस्तावेजी सिनेचित्र बना चुका है। ऊँचाई कहानी ने मन्नू को भी विशिष्ट ऊँचाई दी है। मन्नू कहानीकार के साथ-साथ उपन्यासकार और नाटककार भी है। आपका बंटी और महाभोज आपके उपन्यास हैं। एक इंच मुस्कान उपन्यास इन्होंने पति के साथ मिलकर लिखा है। मन्नू जी की आत्मकथा एक कहानी यह भी ने साहित्य जगत में चर्चा - परिचर्चा के विशिष्ट प्रश्न उठाए हैं। मन्नू की सम्पूर्ण कहानियाँ नायक खलनायक विदूषक में संकलित हैं। 


        मन्नू का लेखन काल संक्राति काल रहा है। स्वातंत्र्योत्तर भारत में नए मूल्य स्थापित हो रहे थे, कीमतें बदल रही थीं, मानसिकता में परिवर्तन आ रहा था। दृष्टिकोण रूपांतरित हो रहे थे। परम्पराएं खंडित हो रही थी। भारतीय स्त्री ने पहली बार अपने अस्तित्व को पाने के लिए घर की दहलीज़ से बाहर कदम रखा था। इस लिए मन्नू की स्त्री असंख्य अन्तर्द्वन्द्वों, अन्तर्विरोधों से जूझ रही है और वर्जनाओं की ओर प्रश्नवाचक मुद्रा में खड़ी दिखाई देती है।

 
        मन्नू भण्डारी की कहानी घुटन में प्रतिमा और मोना दोनो ही संबंधों के दायरे में सिमट कर छटपटा रही है। प्रतिमा शादीशुदा होने पर भी अपनी विवाहित जिंदगी से खुश नहीं है पति का साल में एक बार ही घर आना उसके लिए असहनीय है, क्योंकि वह जानती है कि पति दैहिक धरातल को ही जीना चाहता है जबकि वह भावनात्मक स्तर पर उसके साथ जुड़ना चाहती है। यही सोच उसके घुटन का कारण भी है कि उसके पास समर्पण के अतिरिक्त कुछ नहीं है। कहानी की दूसरी नायिका मोना अविवाहित है तथा अपने प्रेमी के साथ शादी करना चाहती है परन्तु पूरे घर की जिम्मेदारी तो उसी के ऊपर है। मां भी कमाऊ बेटी की शादी करना नहीं चाहती, क्योंकि उसे पता है कि अगर मोना की शादी हुई तो घर का संरक्षण कैसे होगा। मां की स्वार्थपरकता के पीछे बेटी के मन की कोमल भावनाएं तथा शादी के सपने छटपटा रहे है परन्तु मोना इस विवशता के अतिरिक्त कुछ नहीं कर सकती।


        कील और कसक कहानी में दाम्पत्य संबंधों के दायरे में रूप गर्विता 'रानी' छटपटा रही है। शादी की पहली रात ही पति काम की व्यस्तता के कारण उपेक्षित कर देता है और यह सिलसिला लगातार चलता रहता है इस दुःख के कारण रानी मन ही मन सोचती है कि वह अपने पति का मुँह नोच ले। पति की बेरुखी उसे शेखर की तरफ आकर्षित करती है लेकिन शेखर की शादी की बात सुनकर वह पागल हो उठती है । अकेले में रोती है, छटपटाती है। मानों उसके हृदय में उपेक्षाओं का कील चुभ गया हो और उसकी कसक से वह सिहर-सिहर उठती है।


        उच्चासन पर बैठे हुए पति परमेश्वर की प्रत्येक श्वेत-श्याम मनःस्थिति को जानने-पहचानने वाली मन्नू की स्त्री छटपटाए नही ंतो क्या करे ? चश्में की मिसिज़ वर्मा पति से समय चाहती है। उसके अन्दर स्नेहसिक्त बातचीत की कामना है किन्तु परेशानी यह है कि पति घर में भी चश्मा लगाकर फाइलों में डूबा रहता है और अगर वह चश्मा उतार भी देता है तो प्रेमिका की स्मृतियों में डूब जाता है। पत्नी कैसे स्वीकार ले कि जिस पुरुष के लिए वह जी रही है। जिसके बच्चे को वह पाल रही है। उसी के लिए उसका अस्तित्व शून्य है। उसकी प्राथमिकता उसकी फाइलें या प्रेमिका है, मिस्टर वर्मा की भावशून्य नजरें दूर के किसी अदृश्य-दृश्य में उलझी देखकर मिसेज वर्मा एक क्षण को रुकीं। पर उनका मौन भी मिस्टर वर्मा के ध्यान को अपनी और आकर्षित न कर सका। मिसेज वर्मा अपनी कहानी की इस उपेक्षा पर बुरी तरह खीझ पड़ीं और अपने पैर से उनके पैर को झकझोरते हुए बोली।- "कहाँ ध्यान है तुम्हारा ?"१  पत्नी तो सिर्फ वस्तु है, निर्जीव वस्तु - प्रेमिका मन में और पत्नी घर में - यही जीवन दर्शन पाले है मि. वर्मा!


        मूल्यों का तड़ाक -तड़ाक टूटना और संबंधों में निरंतर दरारें आना बंद दराजो का साथ कहानी में देख सकते हैं कल तक की स्त्री पति के अनैतिक संबंधों से आँखें मूंदें हुई और वह अशांत थी। लेकिन इस कहानी की मंजरी यह जीवन नहीं जी सकती। जिन संबंधों का कोई अर्थ नही रह गया, उसका बोझा उससे ढोया नहीं जाता इसलिए वह बेटे असित को लेकर अलग हो जाती है। बेटे वाली मां मंजरी दिलीप से शादी करती है। किन्तु परुष-पुरुष किसी के बेटे को अपना बेटा नहीं मान सकता। यही मंजरी की त्रासदी है। पुरानी मान्यताएं टूट रही हैं पर नवीन रूपाकार नहीं ले रही और वह छटपटाती दिखाई देती है। अब उसने असित के सभी फरमाइशी पत्र चित्र और उसके स्कूल की रिपरेंट बंद दराजों में रखनी पड़ती है- वह इस अहसास से मुक्त नहीं हो पाती कि विपिन ने केवल अपनी ज़िंदगी को ही टुकड़ों में नहीं काटा, कितने कौशल से वह उसकी ज़िन्दगी को भी टुकड़ों में काट गया है कि आगे उसे सारी ज़िन्दगी ही इन टुकड़ों की अभिशप्त छाया में काटनी होगी कि वह अब कभी भी अपनी सम्पूर्ण ज़िन्दगी नहीं जी पाएगी। २


        स्वतंत्रता पूर्व काल की प्रेमिकाए मन में वेदना, हृदय में उच्छवास, मस्तक में आंधी और आँखों में पानी की बरसात लिए विरह के गीत गाया करती थी अथवा अपनी अलहड़ता, सौंदर्य और अपूर्व गुणों से प्रियतम का मन जीतने में व्यस्त रहती थी। मन्नू भण्डारी के यहां प्रेमिका परम्परित बिम्बों को छिन्न-भिन्न कर नितांत नवीन रूप में दिखाई देती है। उनकी यही सच है प्रेम के दायरे में छटपटा रही युवती दीपा की कहानी है। कलकत्ता में पीएच. डी. कर रही दीपा को लगता है वाचाल और अभिव्यक्ति कुशल संजय के प्रेम ही सत्य है। किन्तु जैसे ही वह नौकरी के सिलसिले में कानपुर आती है तो किशोरावस्था का प्रेमी निशीथ मिलता है और वह बिना किसी प्रदर्शन या एहसान के आत्मिक रूप से नौकरी पाने में उसकी सहायता करता है। यही पर मानों दीपा की प्रेम संबधी भावनाओं में उथल-पुथल मच जाती है। मैं बाहर बालकनी में जाकर खड़ी हो जाती हूँ। एकाएक खयाल आता है, पिछले ढाई सालों के करीब इसी समय, यही खडे होकर मैने संजय की प्रतीक्षा की है। क्या आज मैं संजय की प्रतीक्षा कर रही हूँ ? या मैं निशाीथ के पत्र की प्रतीक्षा कर रही हूँ । ३ वह अपनी भावना किसी के समक्ष प्रकट न कर पाने में असमर्थ होकर मन ही मन अशांत हो रही है।


        जीवन संघर्ष में डूबी युवतियां ही नहीं जीवन संध्या में ठहरी प्रौढ़ाएं भी संबंधों के दायरे में छटपटाती हुई दिखाई देती है। अकेली कहानी की सोमा बुआ परित्यक्ता है। पति तो पुत्र-वियोग के सदमा न झेल पाने के कारण संन्यासी बन जाता है मगर सोमा बुआ घर में अकेली ही रह जाती है वह साल में एक महीने के लिए घर आता तो है, परन्तु यह एक महीना पति के अनगिनत अंकुश, कहनी-अनकहनी, अवांछित हस्तक्षेप, क्रोध, कटु वचन सोमा बुआ को मन ही मन अशांत करते रहते है। मानो बुआ की आज़ादी खत्म हो गई हो, क्योंकि वह अब अपनी मर्जी से कहीं आ जा भी नहीं सकती। उन्होंने पति की प्रतीक्षा नहीं की, जब तक पति रहते उनका मन और भी मुरझाया हुआ रहता।४ बुआ  गांव की राधा भाभी को अपनी वेदना कहती है, मैं तो मर्द वाली होकर भी बेमर्द हूँ।५ सोमा बुआ संबंधों के दायरे में मन ही मन छटपटा रही है क्योंकि इसके अतिरिक्त वह कुछ नहीं कर सकती।


        मजबूरी कहानी की अम्मा वात्सल्य के दायरे में छटपटा रही है। यहां उसकी छटपटाहट के मूल में बेटे का विस्थापन है। बेटा-बहू शहर में रहते है तो वृद्वावस्था में अम्मा गांव में रह रही है बेटा और बहू अपनी स्वार्थपरकता, जरुरतों के कारण अपनी संतान को अम्मा के पास परवरिश के लिए छोड़ जाते है परन्तु जब अम्मा का स्नेह अपने पोते के साथ होने लगता है तो उसकी परवरिश में कमियों का आरोपण करके बेटे को ले जाते हैं महानगरीय बेटे-बहू की अनासक्ति और स्वार्थपरकता अम्मा को कचोट-कचोट जाते हैं। उसका वात्सल्य, अकेलापन, उपेक्षा आत्मीयता सब गहरी वेदना में डूब जाते हैं और वह अपने बेटे तथा बहू को कुछ न कहकर मन ही मन छटपटाती है।


        समय बदल रहा है, आज समय बदल गया है, किन्तु मन्नू भण्डारी ने समय की धड़कती रग को बहुत पहले पहचान लिया था कि कुछ भी बदल जाए, अर्थ सजगता नहीं बदलती, वस्तुवाद नहीं बदलता, पुरुषीय मानसिकता नहीं बदलती। टूटना जितना सहज है, जुड़ना उतना सुगम नहीं। इसलिए उनके स्त्री पात्र संबंधों को चुनौती देकर भी उनसे मुँह नहीं मोड़ते। उन्हीं के अंदर रहकर अपना जीवन संघर्ष करते है। अन्तर्द्वन्द्वों, अन्तविरोधों को पूर्ण जिजीविषा के साथ जीते हैं। घुटन की प्रतिमा और मोना, कील और कसक की रानी, चश्में की मिसिज़ वर्मा, बंद दराजों का साथ की मंजरी, यही सच है की दीपा, अकेली की सोमा बुआ, मजबूरी की अम्मा - सभी की चुनौतियां अलग-अलग हैं और सभी छटपटाहटें उनके अंदर की स्त्री के जीवित होने का प्रमाण है, लेकिन एक मूल्यवत्ता है, जो उन्हें हर विषम स्थिति को, चुनौती को झेलने का विवेक देती है। जीवन के प्रति यही आस्था मन्नू की देन है और यही आस्था उनके साहित्य को कालजयी बनाती है।

 

संदर्भः

१.    मन्नू भंडारी, नायक खलनायक विदूषक, दिल्ली, राधाकृष्ण प्रकाशन, २००५, पृ. १७७.
२.    वही पृ. ३४१.
३.    वही पृ. २७५.
४.    वही पृ. ११९.
५.    वही पृ. १२१.      

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रचनाकार: मधु संधु व रजनी शर्मा का आलेख : मन्नू भण्डारी की कहानियों में संबंधों के दायरे में छटपटाती स्त्री
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